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धरमट के बाद दारा ने सहयोगियों को इकट्ठा करने के लिए बड़े प्रयास किया। उसने जसवन्तसिंह को बार-बार चिट्ठियाँ भेजीं लेकिन जसवन्तसिंह अब जोधपुर चला गया था। उदयपुर के राणा से भी सहायता का अनुरोध किया गया। इस बीच जसवन्तसिंह अजमेर में पुष्कर के निकट आ गया था। वहाँ उसने दारा द्वारा दिए गए पैसों से एक सेना खड़ी की और उदयपुर के राणा की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन तब तक औरंगज़ेब ने राणा को 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा चित्तौड़ की दुबारा क़िलेबन्दी के सवाल पर हुए झगड़े के बाद छीने गए परगनों को वापस लौटाने का वादा कर, अपने पक्ष में मिला लिया था।
 
धरमट के बाद दारा ने सहयोगियों को इकट्ठा करने के लिए बड़े प्रयास किया। उसने जसवन्तसिंह को बार-बार चिट्ठियाँ भेजीं लेकिन जसवन्तसिंह अब जोधपुर चला गया था। उदयपुर के राणा से भी सहायता का अनुरोध किया गया। इस बीच जसवन्तसिंह अजमेर में पुष्कर के निकट आ गया था। वहाँ उसने दारा द्वारा दिए गए पैसों से एक सेना खड़ी की और उदयपुर के राणा की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन तब तक औरंगज़ेब ने राणा को 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा चित्तौड़ की दुबारा क़िलेबन्दी के सवाल पर हुए झगड़े के बाद छीने गए परगनों को वापस लौटाने का वादा कर, अपने पक्ष में मिला लिया था।
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#दारा की नासमझी
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#दूरदर्शिता की कमी
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#सरदारों के प्रति निश्चितता का भाव
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#जसवन्तसिंह की दगाबाजी
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===सामूगढ़ की लड़ाई===
  
 
औरंगज़ेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया और यह भी कहा कि उसे राणा सांगा वाली हैसियत मिल जाएगी। इस प्रकार दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को भी अपनी ओर शामिल करने में असफल रहा। सामूगढ़ की लड़ाई (29 मई 1658) वास्तव में सेनाध्यक्षों के कौशल की लड़ाई थी क्योंकि दोनों तरफ़ की सेनाएँ संख्या की दृष्टि से बराबर सी थीं। ( दोनों ओर पचास से साठ हज़ार सैनिक थे) इस मैदान में दारा औरंगज़ेब की ज़रा भी बराबरी नहीं कर सकता था। यद्यपि उसकी तरफ़ बाढ़ा के सैयद और हाड़ राजपूत थे लेकिन फिर भी जल्दी में इकट्ठी की गई सेना की कमज़ोरी छुपी नहीं रह सकती थी। दूसरी ओर औरंगजेब के सैनिक अनुभवी थे और उनका नेतृत्व भी योग्य हाथों में था।
 
औरंगज़ेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया और यह भी कहा कि उसे राणा सांगा वाली हैसियत मिल जाएगी। इस प्रकार दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को भी अपनी ओर शामिल करने में असफल रहा। सामूगढ़ की लड़ाई (29 मई 1658) वास्तव में सेनाध्यक्षों के कौशल की लड़ाई थी क्योंकि दोनों तरफ़ की सेनाएँ संख्या की दृष्टि से बराबर सी थीं। ( दोनों ओर पचास से साठ हज़ार सैनिक थे) इस मैदान में दारा औरंगज़ेब की ज़रा भी बराबरी नहीं कर सकता था। यद्यपि उसकी तरफ़ बाढ़ा के सैयद और हाड़ राजपूत थे लेकिन फिर भी जल्दी में इकट्ठी की गई सेना की कमज़ोरी छुपी नहीं रह सकती थी। दूसरी ओर औरंगजेब के सैनिक अनुभवी थे और उनका नेतृत्व भी योग्य हाथों में था।

०८:३७, ३ मई २०१० का अवतरण

दारा की पराजय

इस बीच दारा ने एक और बड़ी गलती कर डाली। उसे अपनी शक्ति पर अधिक विश्वास था और उसने पूर्वी अभियान के लिए अपने चुने हुए सैनिकों को भेज दिया था। इससे उसकी राजधानी आगरा क़रीब-क़रीब खाली हो गई। सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने अच्छा परिणाम दिखाया। उसने बनारस के निकट (फरबरी 1658) शुजा को हतप्रभ कर उसे पराजित किया। इसके बाद सेना बंट गई और उसकी एक टुकड़ी ने शुजा का पीछा बिहार तक किया जैसे आगरा कि समस्या बिल्कुल सुलझ गई हो। धरमट की पराजय के बाद सेना की इस टुकड़ी को आगरा बुलाने के लिए शीघ्रता से आवश्यक संदेश भेजे गए। 7 मई 1658 को जल्दी में किए गए एक समझौते के बाद सुलेमान पूर्वी बिहार में मुंगेर से वापस आगरा के लिए चल पड़ा। औरंगज़ेब से युद्ध के लिए आगरा ठीक समय तक नहीं पहुँच सका।

जसवन्त सिंह की दगाबाजी

धरमट के बाद दारा ने सहयोगियों को इकट्ठा करने के लिए बड़े प्रयास किया। उसने जसवन्तसिंह को बार-बार चिट्ठियाँ भेजीं लेकिन जसवन्तसिंह अब जोधपुर चला गया था। उदयपुर के राणा से भी सहायता का अनुरोध किया गया। इस बीच जसवन्तसिंह अजमेर में पुष्कर के निकट आ गया था। वहाँ उसने दारा द्वारा दिए गए पैसों से एक सेना खड़ी की और उदयपुर के राणा की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन तब तक औरंगज़ेब ने राणा को 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा चित्तौड़ की दुबारा क़िलेबन्दी के सवाल पर हुए झगड़े के बाद छीने गए परगनों को वापस लौटाने का वादा कर, अपने पक्ष में मिला लिया था।

  1. दारा की नासमझी
  2. दूरदर्शिता की कमी
  3. सरदारों के प्रति निश्चितता का भाव
  4. जसवन्तसिंह की दगाबाजी

सामूगढ़ की लड़ाई

औरंगज़ेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया और यह भी कहा कि उसे राणा सांगा वाली हैसियत मिल जाएगी। इस प्रकार दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को भी अपनी ओर शामिल करने में असफल रहा। सामूगढ़ की लड़ाई (29 मई 1658) वास्तव में सेनाध्यक्षों के कौशल की लड़ाई थी क्योंकि दोनों तरफ़ की सेनाएँ संख्या की दृष्टि से बराबर सी थीं। ( दोनों ओर पचास से साठ हज़ार सैनिक थे) इस मैदान में दारा औरंगज़ेब की ज़रा भी बराबरी नहीं कर सकता था। यद्यपि उसकी तरफ़ बाढ़ा के सैयद और हाड़ राजपूत थे लेकिन फिर भी जल्दी में इकट्ठी की गई सेना की कमज़ोरी छुपी नहीं रह सकती थी। दूसरी ओर औरंगजेब के सैनिक अनुभवी थे और उनका नेतृत्व भी योग्य हाथों में था।