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धरमट के बाद दारा ने सहयोगियों को इकट्ठा करने के लिए बड़े प्रयास किया। उसने जसवन्तसिंह को बार-बार चिट्ठियाँ भेजीं लेकिन जसवन्तसिंह अब जोधपुर चला गया था। उदयपुर के राणा से भी सहायता का अनुरोध किया गया। इस बीच जसवन्तसिंह अजमेर में पुष्कर के निकट आ गया था। वहाँ उसने दारा द्वारा दिए गए पैसों से एक सेना खड़ी की और उदयपुर के राणा की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन तब तक औरंगज़ेब ने राणा को 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा चित्तौड़ की दुबारा क़िलेबन्दी के सवाल पर हुए झगड़े के बाद छीने गए परगनों को वापस लौटाने का वादा कर, अपने पक्ष में मिला लिया था।
 
धरमट के बाद दारा ने सहयोगियों को इकट्ठा करने के लिए बड़े प्रयास किया। उसने जसवन्तसिंह को बार-बार चिट्ठियाँ भेजीं लेकिन जसवन्तसिंह अब जोधपुर चला गया था। उदयपुर के राणा से भी सहायता का अनुरोध किया गया। इस बीच जसवन्तसिंह अजमेर में पुष्कर के निकट आ गया था। वहाँ उसने दारा द्वारा दिए गए पैसों से एक सेना खड़ी की और उदयपुर के राणा की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन तब तक औरंगज़ेब ने राणा को 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा चित्तौड़ की दुबारा क़िलेबन्दी के सवाल पर हुए झगड़े के बाद छीने गए परगनों को वापस लौटाने का वादा कर, अपने पक्ष में मिला लिया था।
#दारा की नासमझी
 
#दूरदर्शिता की कमी
 
#सरदारों के प्रति निश्चितता का भाव
 
#जसवन्तसिंह की दगाबाजी
 
  
 
===सामूगढ़ की लड़ाई===
 
===सामूगढ़ की लड़ाई===

०९:१०, ३ मई २०१० का अवतरण

दारा की पराजय

इस बीच दारा ने एक और बड़ी गलती कर डाली। उसे अपनी शक्ति पर अधिक विश्वास था और उसने पूर्वी अभियान के लिए अपने चुने हुए सैनिकों को भेज दिया था। इससे उसकी राजधानी आगरा क़रीब-क़रीब खाली हो गई। सुलेमान शिकोह के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने अच्छा परिणाम दिखाया। उसने बनारस के निकट (फरबरी 1658) शुजा को हतप्रभ कर उसे पराजित किया। इसके बाद सेना बंट गई और उसकी एक टुकड़ी ने शुजा का पीछा बिहार तक किया जैसे आगरा कि समस्या बिल्कुल सुलझ गई हो। धरमट की पराजय के बाद सेना की इस टुकड़ी को आगरा बुलाने के लिए शीघ्रता से आवश्यक संदेश भेजे गए। 7 मई 1658 को जल्दी में किए गए एक समझौते के बाद सुलेमान पूर्वी बिहार में मुंगेर से वापस आगरा के लिए चल पड़ा। औरंगज़ेब से युद्ध के लिए आगरा ठीक समय तक नहीं पहुँच सका।

जसवन्त सिंह की दगाबाजी

धरमट के बाद दारा ने सहयोगियों को इकट्ठा करने के लिए बड़े प्रयास किया। उसने जसवन्तसिंह को बार-बार चिट्ठियाँ भेजीं लेकिन जसवन्तसिंह अब जोधपुर चला गया था। उदयपुर के राणा से भी सहायता का अनुरोध किया गया। इस बीच जसवन्तसिंह अजमेर में पुष्कर के निकट आ गया था। वहाँ उसने दारा द्वारा दिए गए पैसों से एक सेना खड़ी की और उदयपुर के राणा की प्रतीक्षा करने लगा। लेकिन तब तक औरंगज़ेब ने राणा को 1654 में शाहजहाँ और दारा द्वारा चित्तौड़ की दुबारा क़िलेबन्दी के सवाल पर हुए झगड़े के बाद छीने गए परगनों को वापस लौटाने का वादा कर, अपने पक्ष में मिला लिया था।

सामूगढ़ की लड़ाई

औरंगज़ेब ने राणा को धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया और यह भी कहा कि उसे राणा सांगा वाली हैसियत मिल जाएगी। इस प्रकार दारा महत्वपूर्ण राजपूत राजाओं को भी अपनी ओर शामिल करने में असफल रहा। सामूगढ़ की लड़ाई (29 मई 1658) वास्तव में सेनाध्यक्षों के कौशल की लड़ाई थी क्योंकि दोनों तरफ़ की सेनाएँ संख्या की दृष्टि से बराबर सी थीं। ( दोनों ओर पचास से साठ हज़ार सैनिक थे) इस मैदान में दारा औरंगज़ेब की ज़रा भी बराबरी नहीं कर सकता था। यद्यपि उसकी तरफ़ बाढ़ा के सैयद और हाड़ राजपूत थे लेकिन फिर भी जल्दी में इकट्ठी की गई सेना की कमज़ोरी छुपी नहीं रह सकती थी। दूसरी ओर औरंगजेब के सैनिक अनुभवी थे और उनका नेतृत्व भी योग्य हाथों में था।

स्वार्थ सिद्धी की इच्छा

औरंगज़ेब ने हमेशा ऐसा विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि वह आगरा केवल अपने बीमार पिता को देखने और उन्हें धर्म विरोधी दारा के चंगुल से छुड़ाने के लिए आना चाहता है। लेकिन औरंगज़ेब और दारा के बीच की लड़ाई धार्मिक कट्टरता और धार्मिक सहिष्णुता के बीच नहीं थी। दोनों विरोधियों के पक्ष में मुसलमान और हिन्दू सरदार क़रीब-क़रीब बराबर संख्या में थे। प्रमुख राजपूत राजाओं के दृष्टिकोण को हम पहले ही देख चुके हैं। इस युद्ध में भी, जैसा पहले के हर युद्ध में हुआ था, सरदारों ने अपने स्वार्थों के अनुसार एक या दूसरे भाई का समर्थन किया। सामूगढ़ की लड़ाई के पहले शाहजहाँ को यह भी सुझाव दिया गया था कि वह या तो औरंगज़ेब को वापस जाने पर मजबूर करे या फिर उसके विरुद्ध स्वयं मैदान संभाले।

औरंगज़ेब की विजय

पिता और पुत्र के कटु सम्बन्धों को देखते हुए इस बात में सन्देह है कि शाहजहाँ औरंगज़ेब को समझाने के अपने प्रयासों में सफल हो पाता। लेकिन साथ ही सेना का नेतृत्व स्वयं करने से इन्कार कर शाहजहाँ ने ऐसी स्थिति को पक्का कर दिया कि चाहे जो भी जीते, सत्ता की बागडोर कम से कम शाहजहाँ के हाथों में नहीं रहेगी। औरंगज़ेब ने क़िले तक जाने वाले मार्ग पर क़ब्ज़ा कर शाहजहाँ को समर्पण करने पर मजबूर कर दिया। शाहजहाँ को अब कड़े पहरे में क़िले के अन्तःपुर में नज़रबन्द कर दिया गया। यद्यपि उसके साथ बर्ताव बुरा नहीं हुआ। यहाँ शाहजहाँ 8 साल की लम्बी अवधी तक रहा उसकी देखरेख के लिए उसकी प्रिय बेटी जहाँआरा थी जिसने अपनी इच्छा से क़िले के अन्दर रहना स्वीकार किया। शाहजहाँ की मृत्यु के बाद वह फिर जनजीवन में आई और औरंगज़ेब ने बड़े सम्मान के साथ उसे साम्राज्य की प्रथम महिला के रूप में उसका पद वापस लौटा दिया। औरंगज़ेब ने जहाँआरा की वार्षिक राशि भी 12 लाख रुपयों से बढ़ाकर 17 लाख रुपये कर दी।