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==सहस्त्रबाहु और परशुराम / Sahastrabahu And Parshuram==
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*हैहयवंश में उत्पन्न [[कार्तवीर्य अर्जुन]] बड़ा प्रतापी और शूरवीर था। उसने अपने गुरु [[दत्तात्रेय]] को प्रसन्न करक वरदान के रूप में उनसे हज़ार भुजाएं प्राप्त की थीं। हज़ार भुजाएं होने के कारण अर्जुन सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना जाता था। उसने सभी सिद्धियां भी प्राप्त थीं। सहस्रबाहु को अपने बल और वैभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में वैजयंतीमाला पहने हुए [[नर्मदा नदी]] में स्नान कर रहा था। उसने कौतुक ही कौतुक में अपनी भुजाओं में अपनी भुजाओं को फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया। लंकाधिपति [[रावण]] को, जो उसी समय नर्मदा में स्नान कर रहा था, सहस्त्रबाहु का यह कार्य बड़ा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण लगा। उसे भी अपने बल का बड़ा गर्व था। वह सहस्त्रबाहु के पास जाकर उसे खरी-खोटी सुनाने लगा। सहस्त्रबाहु उसकी खरी-खोटी सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उसने उसे देखते-ही-देखते बंदी बना लिया। सहस्त्रबाहु ने बंदी रावण को अपने कारागार में बंद कर दिया। किंतु [[पुलस्त्य]] ॠषि ने दयालु होकर उसे मुक्त करा दिया। फिर भी रावण के मन का अभिमान दूर नहीं हुआ। वह अभिमान के मद में चूर होकर ही ॠषियों और मुनियों पर अत्याचार किया करता था। सहस्त्रबाहु के अभिमान का तो कहना ही क्या था। वह तो सदा अभिमान के यान पर बैठकर गगन में उड़ा करता था। एक बार सहस्त्रबाहु उस वन में आखेट के लिए गया, जिस वन में [[परशुराम]] के पिता [[जमदग्नि]] का आश्रम था। सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ उनके आश्रम में उपस्थित हुआ। जमदग्नि ने अपनी गाय कामधेनु की सहायता से सहस्त्रबाहु और उसके सैनिकों का राजसी स्वागत किया और उनके ख़ान-पान का प्रबंध किया। कामधेनु का चमत्कार देखकर सहस्त्रबाहु उस पर मुग्ध हो गया। उसने जमदग्नि से कहा कि वे अपनी गाय उसे दे दें। किंतु जमदग्नि कामधेनु को क्यों देने लगे? उन्होंने इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने पर सहस्त्रबाहु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले चलें।
हैदय वंश में उत्पन्न कार्तवीर्य अर्जुन बड़ा प्रतापी और शूरवीर था। उसने अपने गुरु दत्तात्रेय को प्रसन्न करक वरदान के रूप में उनसे हजार भुजाएं प्राप्त की थीं। हजार भुजाएं होने के कारण अर्जुन सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना जाता था। उसने सभी सिद्धियां भी प्राप्त थीं।
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*सहस्त्रबाहु कामधेनु को अपने साथ ले गया। उस समय आश्रम में परशुराम नहीं थे। परशुराम जब आश्रम में आए, तो उनके पिता जमदग्नि ने उन्हें बताया कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ आश्रम में आया था और किस प्रकार वह कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले गया। घटना सुनकर परशुराम क्रुद्ध हो उठे। वे कंधे पर अपना परशु रखकर [[माहिष्मती|महिष्मती]] की ओर चल पड़े, क्योंकि सहस्त्रबाहु महिष्मती में ही निवास करता था। सहस्त्रबाहु अभी महिष्मती के मार्ग में ही था कि परशुराम उसके पास जा पहुंचे, सहस्त्रबाहु ने जब यह देखा के परशुराम प्रचंड गति से चले आ रहे हैं, तो उसने उनका सामना करने के लिए अपनी सेनाएं खड़ी कर दीं। एक ओर हज़ारों सैनिक थे, दूसरी ओर अकेले परशुराम थे, घनघोर युद्ध होने लगा। परशुराम ने अकेले ही सहस्त्रबाहु के समस्त सैनिकों को मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया। जब सहस्त्रबाहु की संपूर्ण सेना नष्ट हो गई, तो वह स्वंय रण के मैदान में उतरा, वह अपने हज़ार हाथों से हज़ार बाण एक ही साथ परशुराम पर छोड़ने लगा। परशुराम उसके समस्त बाणों को दो हाथों से ही नष्ट करने लगे। जब बाणों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा, तो सहस्त्रबाहु एक बड़ा वृक्ष उखाड़कर उसे हाथ में लेकर परशुराम की ओर झपटा। परशुराम ने अपने बाणों से वृक्ष को तो खंड-खंड कर ही दिया, सहस्त्रबाहु के मस्तक को भी काटकर [[पृथ्वी]] पर गिरा दिया। वह रणभूमि में सदा के लिए सो गया।
सहस्रबाहु को अपने बल और विभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में वैजयंती माला पहने हुए नर्मदा नदी में स्नान कर रहा था। उसने कौतुक ही कौतुक में अपनी भुजाओं में अपनी भुजाओं को फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया।
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*परशुराम सहस्त्रबाहु को मारने के पश्चात कामधेनु को लेकर अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए। महर्षि जमदग्नि कामधेनु को पाकर अतीव हर्षित हुए। उन्होंने परशुराम को ह्रदय से लगाकर उन्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद दिए। परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे। वे उन्हें परमात्मा मानकर उनका सम्मान किया करते थे। जमदग्नि बहुत बड़े योगी थे। उन्होंने योग द्वारा सिद्धियां प्राप्त की थीं।
लंकाधिपति रावण को, जो उसी समय नर्मदा में स्नान कर रहा था, सहस्त्रबाहु का यह कार्य बड़ा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण लगा। उसे भी अपने बल का बड़ा गर्व था। वह सहस्त्रबाहु के पास जाकर उसे खरी-खोटी सुनाने लगा। सहस्त्रबाहु उसकी खरी-खोटी सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उसने उसे देखते-ही-देखते बंदी बना लिया।
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*सवेरे का समय था, जमदग्नि की पूजा का समय हो गया था। परशुराम की मां [[रेणुका]] जमदग्नि के स्नान के लिए जल लाने के लिए सरोवर पर गईं। संयोग की बात, उस समय एक यक्ष सरोवर में कुछ यक्षिणियों के साथ जल-विहार कर रहा था। रेणुका सरोवर के तट पर खड़ी होकर यक्ष के जल-विहार को देखने लगीं। वे उसके जल-विहार को देखने में इस प्रकार तन्मय हो गईं कि यह बात भूल-सी गईं कि उसके पति के नहाने का समय हो गया है और उन्हें शीघ्र जल लेकर जाना चाहिए। कुछ देर के पश्चात रेणुका को अपने कर्तव्य का बोध हुआ। वे घड़े में जल लेकर आश्रम में गईं। घड़े को रखकर जमदग्नि से क्षमा मांगने लगीं। जमदग्नि ने अपनी योग दृष्टि से यह बात जान ली कि रेणुका को जल लेकर आने में देर क्यों हुईं। जमदग्नि क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काटकर धरती पर फेंक दें। किंतु परशुराम को छोड़कर किसी ने भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। परशुराम मे पिता की आज्ञानुसार अपनी मां का मस्तक तो काट ही दिया, अपने भाइयों का भी मस्तक काट दिया। जमदग्नि परशुराम के आज्ञापालन से उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने निवेदन किया, 'पितृश्रेष्ठ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरी मां और मेरे भाइयों को जीवित कर दें।' परशुराम की मां और उनके भाई पुनः जीवित हो उठे।
सहस्त्रबाहु ने बंदी रावण को अपने कारागार में बंद कर दिया। किंतु पुलस्त्य ॠषि ने दयालु होकर उसे मुक्त करा दिया। फिर भी रावण के मन का अभिमान दूर नहीं हुआ। वह अभिमान के मद में चूर होकर ही ॠषियों और मुनियों पर अत्याचार किया करता था। सहस्त्रबाहु के अभिमान का तो कहना ही क्या था। वह तो सदा अभिमान के यान पर बैठकर गगन में उड़ा करता था। एक बार सहस्त्रबाहु उस वन में आखेट के लिए गया, जिस वन में परशुराम के पिता जमदग्नि का आश्रम था। सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ उनके आश्रम में उपस्थित हुआ।
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*कामधेनु को पाने पर जमदग्नि को अतीव प्रसन्नता तो हुई थी, किंतु उन्हें यह जानकर बड़ा दुख भी हुआ कि परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया है। उन्होंने परशुराम की ओर देखते हुए कहा, 'बेटा, तुमने सहस्त्रबाहु का वध करके अच्छा नहीं किया। हम ब्राह्मणों की शोभा क्रोध से नहीं, क्षमा से बढ़ती है। क्षमा से ही [[ब्रह्मा]] ब्रह्म पद को प्राप्त हुए हैं। राजा ब्राह्मण के सदृश होता है। तुमने सहस्रबाहु का वध करके ब्राह्मण की हत्या की है। तुम्हें हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक वर्ष तक तीर्थों में भ्रमण करना चाहिए।' पिता की आज्ञा मानकर परशुराम तीर्थों की यात्रा पर चले गए। वे पूरे वर्ष भर तीर्थों में ही भ्रमण करते रहे। उनके पिता ने इसके लिए हर्ष तो प्रकट किया ही था, उन्हें आशीर्वाद भी दिया था। उधर, सहस्त्रबाहु के पुत्र अपने पिता का बदला लेने के लिए अवसर ढूंढ़ रहे थे। एक दिन जब परशुराम और उनके भाई आश्रम में नहीं थे, तो सहस्त्रबाहु के पुत्र आश्रम में आ धमके। जमदग्नि यज्ञमंडप में ध्यानस्थ बैठे थे। सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने उनका मस्तक काट डाला। वे अपने साथ उनका मस्तक भी ले गए। रेणुका विलाप करने लगीं, आर्त्तनाद करने लगीं। संयोग की बात, परशुराम शीघ्र ही आ गए। वे शोकमग्ना अपनी मां के मुख से पिता के शिरोच्छेद किए जाने की बात सुनकर क्रुद्ध हो उठे। वे अपने परशु को लेकर महिष्मती की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने महिष्मती को तो उजाड़ ही दिया। सहस्त्रबाहु के पुत्रों को भी मार डाला। उन्होंने अपने पिता का मस्तक लाकर अपनी मां को दिया। रेणुका अपने पति के साथ सती हो गईं। इस घटना के पश्चात परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था। श्री[[राम]] ने जब उनके क्रोध को शांत किया, तब वे पर्वत पर जाकर तप करने लगे। उनकी शूरता और वीरता ने उन्हें अमर बना दिया।
जमदग्नि ने अपनी गाय कामधेनु की सहायता से सहस्त्रबाहु और उसके सैनिकों का राजसी स्वागत किया और उनके खान-पान का प्रबंध किया। कामधेनु का चमत्कार देखकर सहस्त्रबाहु उस पर मुग्ध हो गया। उसने जमदग्नि से कहा कि वे अपनी गाय उसे दे दें। किंतु जमदग्नि कामधेनु को क्यों देने लगे? उन्होंने इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने पर सहस्त्रबाहु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले चलें।
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==अन्य लिंक==
निदान, सहस्त्रबाहु कामधेनु को अपने साथ ले गया। उस समय आश्रम में परशुराम नहीं थे। परशुराम जब आश्रम में आए, तो उनके पिता जमदग्नि ने उन्हें बताया कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ आश्रम में आया था और किस प्रकार वह कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले गया।
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{{कथा}}
घटना सुनकर परशुराम क्रुद्ध हो उठे। वे कंधे पर अपना परशु रखकर महिष्मती की ओर चल पड़े, क्योंकि सहस्त्रबाहु महिष्मती में ही निवास करता था।
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[[Category: कोश]]
सहस्त्रबाहु अभी महिष्मती के मार्ग में ही था कि परशुराम उसके पास जा पहुंचे, सहस्त्रबाहु ने जब यह देखा के परशुराम प्रचंड गति से चले आ रहे हैं, तो उसने उनका सामना करने के लिए अपनी सेनाएं खड़ी कर दीं। एक ओर हजारों सैनिक थे, दूसरी ओर अकेले परशुराम थे, घनघोर युद्ध होने लगा। परशुराम ने अकेले ही सहस्त्रबाहु के समस्त सैनिकों को मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया।
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[[Category:भगवान-अवतार]]
जब सहस्त्रबाहु की संपूर्ण सेना नष्ट हो गई, तो वह स्वंय रण के मैदान में उतरा, वह अपने हजार हाथों से हजार बाण एक ही साथ परशुराम पर छोड़ने लगा। परशुराम उसके समस्त बाणों को दो हाथों से ही नष्ट करने लगे। जब बाणों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा, तो सहस्त्रबाहु एक बड़ा वृक्ष उखाड़कर उसे हाथ में लेकर परशुराम की ओर झपटा। परशुराम ने अपने बाणों से वृक्ष को तो खंड-खंड कर ही दिया, सहस्त्रबाहु के मस्तक को भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। वह रणभूमि में सदा के लिए सो गया।
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[[Category:पौराणिक कथा]]
परशुराम सहस्त्रबाहु को मारने के पश्चाप कामधेनु को लेकर अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए। महर्षि जमदग्नि काम्धेनु को पाकर अतीव हर्षित हुए। उन्होंने परशुराम को ह्रदय से लगाकर उन्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद दिए। परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे। वे उन्हें परमात्मा मानकर उनका सम्मान किया करते थे। जमदग्नि बहुत बड़े योगी थे। उन्होंने द्योग द्वारा सिद्धियां प्राप्त की थीं।
 
सवेरे का समय था, जमदग्नि की पूजा का समय हो गया था। परशुराम की मां रेणुका जमदग्नि के स्नान के लिए जल लाने के लिए सरोवर पर गईं। संयोग की बात, उस समय एक यक्ष सरोवर में कुछ यक्षिणियों के साथ जल-विहार कर रहा था। रेणुका सरोवर के तट पर खड़ी होकर यक्ष के जल-विहार को देखने लगीं। वे उसके जल-विहार को देखने में इस प्रकार तन्मय हो गईं कि यह बात भूल-सी गईं कि उसके पति के नहाने का समय हो गया है और उन्हें शीघ्र जल लेकर जाना चाहिए।  
 
कुछ देर के पश्चाप रेणुका को अपने कर्तव्य का बोध हुआ। वे घड़े में जल लेकर आश्रम में गईं। घड़े को रखकर जमदग्नि से क्षमा मांगने लगीं। जमदग्नि ने अपनी योग दृष्टि से यह बात जान ली कि रेणुका को जल लेकर आने में देर क्यों हुईं। जमदग्नि क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काटकर धरती पर फेंक दें। किंतु परशुराम को छोड़कर किसी ने भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। परशुराम मे पिता की आज्ञानुसार अपनी मां का मस्तक तो काट ही दिया, अपने भाइयों का भी मस्तक काट दिया।
 
जमदग्नि परशुराम के आज्ञापालन से उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने निवेदन किया, “पितृश्रेष्ठ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरी मां और मेरे भाइयों को जीवित कर दें।“
 
निदान, परशुराम की मां और उनके भाई पुनः जीवित हो उटे।
 
कामधेनु को पाने पर जमदग्नि को अतीव प्रसन्नता तो हुई थी, किंतु उन्हें उअह जानकर बड़ा दुख भी हुआ कि परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया है। उन्होंने परशुराम की ओर देखते हुए कहा, “बेटा, तुमने सहस्त्रबाहु का वध करके अच्छा नहीं किया। हम ब्राह्मणों की शोभा क्रोध से नहीं, क्षमा से बढ़ती है। क्षमा से ही ब्रह्मा ब्रह्म पद को प्राप्त हुए हैं। राजा ब्राह्मण के सदृश होता है। तुमने सहस्रबाहु का वध करके ब्राह्मण की हत्या की है। तुम्हें हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक वर्ष तक तीर्थों में भ्रमण करना चाहिए।“
 
पिता की आज्ञा मानकर परशुराम तीर्थों की यात्रा पर चले गए। वे पूरे वर्ष भर तीर्थों में ही भ्रमण करते रहे। उनके पिता ने इसके लिए हर्ष तो प्रकट किया ही था, उन्हें आशीर्वाद भी दिया था।
 
उधर, सहस्त्रबाहु के पुत्र अपने पिता का बदला ले ने के लिए अवसर ढूंढ़ रहे थे। एक दिन जब परशुराम और उनके भाई आश्रम में नहीं थे, तो सहस्त्रबाहु के पुत्र आश्रम में आ धमके। जमदग्नि यज्ञमंडप में ध्यानस्थ बैठे थे। सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने उनका मस्तक काट डाला। वे अपने साथ उनका मस्तक भी ले गए।
 
रेणुका विलाप करने लगीं, आर्त्तनाद करने लगीं। संयोग की बात, परशुराम शीघ्र ही आ गए। वे शोकमग्ना अपनी मां के मुख से पिता के शिरोच्छेद किए जाने की बात सुनकर क्रुद्ध हो उठे। वे अपने परशु को लेकर महिष्मती की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने महिष्मती को तो उजाड़ ही दिया। सहस्त्रबाहु के पुत्रों को भी मार डाला। उन्होंने अपने पिता का मस्तक लाकर अपनी मां को दिया। रेणुका अपने पति के साथ सती हो गईं।
 
इस घटना के पश्चात परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था। श्रीराम ने जब उनके क्रोध को शांत किया, तब वे पर्वत पर जाकर तप करने लगे। उनकी शूरता और वीरता ने उन्हें अमर बना दिया।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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[[श्रेणी: कोश]]
 
[[category:भगवान-अवतार]]
 
[[category:पौराणिक कथा]]
 
 
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०७:२६, ११ मई २०१० के समय का अवतरण

सहस्त्रबाहु और परशुराम / Sahastrabahu And Parshuram

  • हैहयवंश में उत्पन्न कार्तवीर्य अर्जुन बड़ा प्रतापी और शूरवीर था। उसने अपने गुरु दत्तात्रेय को प्रसन्न करक वरदान के रूप में उनसे हज़ार भुजाएं प्राप्त की थीं। हज़ार भुजाएं होने के कारण अर्जुन सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना जाता था। उसने सभी सिद्धियां भी प्राप्त थीं। सहस्रबाहु को अपने बल और वैभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में वैजयंतीमाला पहने हुए नर्मदा नदी में स्नान कर रहा था। उसने कौतुक ही कौतुक में अपनी भुजाओं में अपनी भुजाओं को फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया। लंकाधिपति रावण को, जो उसी समय नर्मदा में स्नान कर रहा था, सहस्त्रबाहु का यह कार्य बड़ा ही अनुचित और अन्यायपूर्ण लगा। उसे भी अपने बल का बड़ा गर्व था। वह सहस्त्रबाहु के पास जाकर उसे खरी-खोटी सुनाने लगा। सहस्त्रबाहु उसकी खरी-खोटी सुनकर क्रुद्ध हो उठा। उसने उसे देखते-ही-देखते बंदी बना लिया। सहस्त्रबाहु ने बंदी रावण को अपने कारागार में बंद कर दिया। किंतु पुलस्त्य ॠषि ने दयालु होकर उसे मुक्त करा दिया। फिर भी रावण के मन का अभिमान दूर नहीं हुआ। वह अभिमान के मद में चूर होकर ही ॠषियों और मुनियों पर अत्याचार किया करता था। सहस्त्रबाहु के अभिमान का तो कहना ही क्या था। वह तो सदा अभिमान के यान पर बैठकर गगन में उड़ा करता था। एक बार सहस्त्रबाहु उस वन में आखेट के लिए गया, जिस वन में परशुराम के पिता जमदग्नि का आश्रम था। सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ उनके आश्रम में उपस्थित हुआ। जमदग्नि ने अपनी गाय कामधेनु की सहायता से सहस्त्रबाहु और उसके सैनिकों का राजसी स्वागत किया और उनके ख़ान-पान का प्रबंध किया। कामधेनु का चमत्कार देखकर सहस्त्रबाहु उस पर मुग्ध हो गया। उसने जमदग्नि से कहा कि वे अपनी गाय उसे दे दें। किंतु जमदग्नि कामधेनु को क्यों देने लगे? उन्होंने इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने पर सहस्त्रबाहु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले चलें।
  • सहस्त्रबाहु कामधेनु को अपने साथ ले गया। उस समय आश्रम में परशुराम नहीं थे। परशुराम जब आश्रम में आए, तो उनके पिता जमदग्नि ने उन्हें बताया कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु अपने सैनिकों के साथ आश्रम में आया था और किस प्रकार वह कामधेनु को बलपूर्वक अपने साथ ले गया। घटना सुनकर परशुराम क्रुद्ध हो उठे। वे कंधे पर अपना परशु रखकर महिष्मती की ओर चल पड़े, क्योंकि सहस्त्रबाहु महिष्मती में ही निवास करता था। सहस्त्रबाहु अभी महिष्मती के मार्ग में ही था कि परशुराम उसके पास जा पहुंचे, सहस्त्रबाहु ने जब यह देखा के परशुराम प्रचंड गति से चले आ रहे हैं, तो उसने उनका सामना करने के लिए अपनी सेनाएं खड़ी कर दीं। एक ओर हज़ारों सैनिक थे, दूसरी ओर अकेले परशुराम थे, घनघोर युद्ध होने लगा। परशुराम ने अकेले ही सहस्त्रबाहु के समस्त सैनिकों को मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया। जब सहस्त्रबाहु की संपूर्ण सेना नष्ट हो गई, तो वह स्वंय रण के मैदान में उतरा, वह अपने हज़ार हाथों से हज़ार बाण एक ही साथ परशुराम पर छोड़ने लगा। परशुराम उसके समस्त बाणों को दो हाथों से ही नष्ट करने लगे। जब बाणों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा, तो सहस्त्रबाहु एक बड़ा वृक्ष उखाड़कर उसे हाथ में लेकर परशुराम की ओर झपटा। परशुराम ने अपने बाणों से वृक्ष को तो खंड-खंड कर ही दिया, सहस्त्रबाहु के मस्तक को भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। वह रणभूमि में सदा के लिए सो गया।
  • परशुराम सहस्त्रबाहु को मारने के पश्चात कामधेनु को लेकर अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए। महर्षि जमदग्नि कामधेनु को पाकर अतीव हर्षित हुए। उन्होंने परशुराम को ह्रदय से लगाकर उन्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद दिए। परशुराम अपने पिता के अनन्य भक्त थे। वे उन्हें परमात्मा मानकर उनका सम्मान किया करते थे। जमदग्नि बहुत बड़े योगी थे। उन्होंने योग द्वारा सिद्धियां प्राप्त की थीं।
  • सवेरे का समय था, जमदग्नि की पूजा का समय हो गया था। परशुराम की मां रेणुका जमदग्नि के स्नान के लिए जल लाने के लिए सरोवर पर गईं। संयोग की बात, उस समय एक यक्ष सरोवर में कुछ यक्षिणियों के साथ जल-विहार कर रहा था। रेणुका सरोवर के तट पर खड़ी होकर यक्ष के जल-विहार को देखने लगीं। वे उसके जल-विहार को देखने में इस प्रकार तन्मय हो गईं कि यह बात भूल-सी गईं कि उसके पति के नहाने का समय हो गया है और उन्हें शीघ्र जल लेकर जाना चाहिए। कुछ देर के पश्चात रेणुका को अपने कर्तव्य का बोध हुआ। वे घड़े में जल लेकर आश्रम में गईं। घड़े को रखकर जमदग्नि से क्षमा मांगने लगीं। जमदग्नि ने अपनी योग दृष्टि से यह बात जान ली कि रेणुका को जल लेकर आने में देर क्यों हुईं। जमदग्नि क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काटकर धरती पर फेंक दें। किंतु परशुराम को छोड़कर किसी ने भी उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। परशुराम मे पिता की आज्ञानुसार अपनी मां का मस्तक तो काट ही दिया, अपने भाइयों का भी मस्तक काट दिया। जमदग्नि परशुराम के आज्ञापालन से उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उनसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने निवेदन किया, 'पितृश्रेष्ठ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मेरी मां और मेरे भाइयों को जीवित कर दें।' परशुराम की मां और उनके भाई पुनः जीवित हो उठे।
  • कामधेनु को पाने पर जमदग्नि को अतीव प्रसन्नता तो हुई थी, किंतु उन्हें यह जानकर बड़ा दुख भी हुआ कि परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध कर दिया है। उन्होंने परशुराम की ओर देखते हुए कहा, 'बेटा, तुमने सहस्त्रबाहु का वध करके अच्छा नहीं किया। हम ब्राह्मणों की शोभा क्रोध से नहीं, क्षमा से बढ़ती है। क्षमा से ही ब्रह्मा ब्रह्म पद को प्राप्त हुए हैं। राजा ब्राह्मण के सदृश होता है। तुमने सहस्रबाहु का वध करके ब्राह्मण की हत्या की है। तुम्हें हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए एक वर्ष तक तीर्थों में भ्रमण करना चाहिए।' पिता की आज्ञा मानकर परशुराम तीर्थों की यात्रा पर चले गए। वे पूरे वर्ष भर तीर्थों में ही भ्रमण करते रहे। उनके पिता ने इसके लिए हर्ष तो प्रकट किया ही था, उन्हें आशीर्वाद भी दिया था। उधर, सहस्त्रबाहु के पुत्र अपने पिता का बदला लेने के लिए अवसर ढूंढ़ रहे थे। एक दिन जब परशुराम और उनके भाई आश्रम में नहीं थे, तो सहस्त्रबाहु के पुत्र आश्रम में आ धमके। जमदग्नि यज्ञमंडप में ध्यानस्थ बैठे थे। सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने उनका मस्तक काट डाला। वे अपने साथ उनका मस्तक भी ले गए। रेणुका विलाप करने लगीं, आर्त्तनाद करने लगीं। संयोग की बात, परशुराम शीघ्र ही आ गए। वे शोकमग्ना अपनी मां के मुख से पिता के शिरोच्छेद किए जाने की बात सुनकर क्रुद्ध हो उठे। वे अपने परशु को लेकर महिष्मती की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने महिष्मती को तो उजाड़ ही दिया। सहस्त्रबाहु के पुत्रों को भी मार डाला। उन्होंने अपने पिता का मस्तक लाकर अपनी मां को दिया। रेणुका अपने पति के साथ सती हो गईं। इस घटना के पश्चात परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया था। श्रीराम ने जब उनके क्रोध को शांत किया, तब वे पर्वत पर जाकर तप करने लगे। उनकी शूरता और वीरता ने उन्हें अमर बना दिया।

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