सावित्री सत्यवान

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
जन्मेजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:३७, १८ सितम्बर २००९ का अवतरण (नया पृष्ठ: {{menu}}<br /> श्रेणी:कोश ==सावित्री सत्यवान== ===ब्रह्म वैवर्त पुराण=== भगवा...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ


सावित्री सत्यवान

ब्रह्म वैवर्त पुराण

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! जब राजा अश्वपति ने विधिपूर्वक भगवती सावित्री की पूजा करके इस स्तोत्र से उनका स्तवन किया, तब देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं। उनका श्रीविग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो हजारों सूर्य एक साथ उदित हो गये हों। साध्वी सावित्री अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुई राजा अश्वपति से इस प्रकार बोलीं, मानो माता अपने पुत्र से बात कर रही हो। उस समय देवी सावित्री की प्रभासे चारों दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं।

देवी सावित्री ने कहा-- महाराज! तुम्हारे मन की जो अभिलाषा है, उसे मैं जानती हूँ। तुम्हारी पत्नी के सम्पूर्ण मनोरथ भी मुझसे छिपे नहीं हैं। अत: सब कुछ देने के लिये मैं निश्चितरूप से प्रस्तुत हूँ। राजन्! तुम्हारी परम साध्वी रानी कन्याकी अभिलाषा करती है और तुम पुत्र चाहते हो; क्रम से दोनों ही प्राप्त होंगे।

सावित्री नामक कन्या की उत्पत्ति, विवाह, सत्यवान् की मृत्यु

इस प्रकार कहकर भगवती सावित्री ब्रह्मलोक में चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आये। यहाँ समयानुसार पहले कन्याका जन्म हुआ। भगवती सावित्री की आराधना से उत्पन्न हुई लक्ष्मी की कलास्वरूपा उस कन्या का नाम राजा अश्वपति ने सावित्री रखा। वह कन्या समयानुसार शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन बढ़ने लगी। समय पर उस सुन्दरी कन्या में नवयौवन के लक्षण प्रकट हो गये। द्युमत्सेनकुमार सत्यवान् का उसने पतिरूप में वरण किया; क्योंकि सत्यवान् सत्यवादी, सुशील एवं नाना प्रकार के उत्तम गुणों से सम्पन्न थे। राजा ने रत्नमय भूषणों से अलंकृत करके अपनी कन्या सावित्री सत्यवान् की समर्पित कर दी। सत्यवान् भी श्वशुरकी ओर से मिले हुए बड़े भारी दहेज के साथ उस कन्या को लेकर अपने घर चले गये। एक वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् सत्यपराक्रमी सत्यवान् अपने पिता की आज्ञा के अनुसार हर्षपूर्वक फल और ईंधन लाने के लिये अरण्य में गये। उनके पीछे-पीछे साध्वी सावित्री भी गयी। दैववश सत्यवान् वृक्ष से गिरे और उनके प्राण प्रयाण कर गये। मुने! यमराजने उनके अंगष्ठ-सदृश जीवात्मा को सूक्ष्म शरीर के साथ बाँधकर यमपुरी के लिये प्रस्थान किया। तब साध्वी सावित्री भी उनके पीछे लग गयी। संयमनीपुरी के स्वामी साधुश्रेष्ठ यमराजने सुन्दरी सावित्री को पीछे-पीछे आती देख मधुर वाणी में कहा।

सावित्री और यमराज का संवाद

धर्मराजने कहा- अहो सावित्री! तुम इस मानव-देह से कहाँ जा रही हो? यदि पतिदेव के साथ जाने की तुम्हारी इच्छा है तो पहले इस शरीर का त्याग कर दो। मर्त्यलोक का प्राणी इस पाञ्चभौतिक शरीर को लेकर मेरे लोक में ही जाने का अधिकारी है। साध्वि! तुम्हारा पति सत्यवान् भारतवर्ष में आया था। उसकी आयु अब पूर्ण हो चुकी, अतएव अपने किये हुए कर्मका फल भोगने के लिये अब वह मेरे लोक को जा रहा है। प्राणी का कर्म से ही जन्म होता है और कर्म से ही उसकी मृत्यु भी होती है। सुख, दु:ख, भय और शोक- ये सब कर्म के अनुसार प्राप्त होते रहते हैं। कर्म के प्रभाव से जीव इन्द्र भी हो सकता है। अपना उत्तम कर्म उसे ब्रह्मपुत्र तक बनाने में समर्थ है। अपने शुभ कर्म की सहायता से प्राणी श्रीहरि का दास बनकर जन्म आदि विकारों से मुक्त हो सकता है। सम्पूर्ण सिद्धि, अमरत्व तथा श्रीहरि के सालोक्यादि चार प्रकार के पद भी अपने शुभ कर्म के प्रभाव से मिल सकते हैं। देवता, मनु, राजेन्द्र, शिव, गणेश, मुनीन्द्र, तपस्वी, क्षत्रिय, वैश्य, म्लेच्छ, स्थावर, जंगम, पर्वत, राक्षस, किन्नर, अधिपति, वृक्ष, पशु, किरात, अत्यन्त सूक्ष्म जन्तु कीड़े, दैत्य, दानव तथा असुर- ये सभी योनियाँ प्राणी को अपने कर्म के अनुसार प्राप्त होती हैं। इसमें कुछ भी संशय नहीं है। इस प्रकार सावित्री से कहकर यमराज मौन हो गये।

भगवान् नारायण कहते हैं- मुने! पतिव्रता सावित्री ने यमराज की बात सुनकर परम भक्ति के साथ उनका स्तवन किया; फिर वह उनसे पूछने लगी।

सावित्री ने पूछा- भगवन्! कौन कार्य है, किस कर्म के प्रभाव से क्या होता है, कैसे फल में कौन कर्म हेतु है, कौन देह है और कौन देही है अथवा संसार में प्राणी किसकी प्रेरणा से कर्म करता है? ज्ञान, बुद्धि, शरीरधारियों के प्राण, इन्द्रियाँ तथा उनके लक्षण एवं देवता, भोक्ता, भोजयिता, भोज, निष्कृति तथा जीव और परमात्मा- ये सब कौन और क्या हैं? इन सबका परिचय देने की कृपा कीजिये।

धर्मराज बोले- साध्वी सावित्री! कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ और अशुभ। वेदोक्त कर्म शुभ हैं। इनके प्रभाव से प्राणी कल्याण के भागी होते हैं। वेद में जिसका स्थान नहीं है, वह अशुभ कर्म नरकप्रद है। भगवान् विष्णु की जो संकल्परहित अहैतुकी सेवा की जाती है, उसे 'कर्म-निर्मूलरूपा' कहते हैं। ऐसी ही सेवा 'हरि-भक्ति' प्रदान करती है। कौन कर्म के फल का भोक्ता है और कौन निर्लिप्त- इसका उत्तर यह है। श्रुतिका वचन है कि श्रीहरिका जो भक्त है, वह मनुष्य मुक्त हो जाता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक और भय- ये उसपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। साध्वि! श्रुति में मुक्ति भी दो प्रकार की बतायी गयी है, जो सर्वसम्मत है। एकको 'निर्वाणप्रदा' कहते हैं और दूसरी को 'हरिभक्तिप्रदा'। मनुष्य इन दोनों के अधिकारी हैं। वैष्णव पुरूष हरिभक्तिस्वरूपा मुक्ति चाहते हैं और अन्य साधु-जन निर्वाणप्रदा मुक्ति की इच्छा करते हैं। कर्मका जो बीजरूप है, वही सदा फल प्रदान करनेवाला है। कर्म कोई दूसरी वस्तु नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण का ही रूप है। वे भगवान् प्रकृति से परे हैं। कर्म भी इन्हीं से होता है; क्योंकि वे उसके हेतुरूप हैं। जीव कर्मका फल भोगता है; आत्मा तो सदा निर्लिप्त ही है। देही आत्मा का प्रतिबिम्ब है, वही जीव है। देह तो सदा से नश्वर है। पृथ्वी, तेज, जल, वायु और आकाश- ये पाँच भूत उसके उपादान हैं। परमात्मा के सृष्टि- कार्य में ये सूत्ररूप हैं। कर्म करने वाला जीव देही है। वही भोक्ता और अन्तर्यामीरूप से भोजयिता भी है। सुख एवं दु:ख के साक्षात् स्वरूप वैभवका ही दूसरा नाम भोग है। निष्कृति मुक्ति को ही कहते हैं। सदसत्सम्बन्धी विवेक के आदिकारण का नाम ज्ञान है। इस ज्ञान के अनेक भेद हैं। घट-पटादि विषय तथा उनका भेद ज्ञान के भेद में कारण कहा जाता है। विवेचनमयी शक्तिको 'बुद्धि' कहते हैं। श्रुति में ज्ञानबीज नाम से इसकी प्रसिद्धि है। वायु के ही विभिन्न रूप प्राण हैं। इन्हीं के प्रभाव से प्राणियों के शरीर में शक्तिका संचार होता है। जो इन्द्रियों में प्रमुख, परमात्मा का अंश, संशयात्मक, कर्मों का प्रेरक, प्राणियों के लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धिका एक भेद है, उसे 'मन' कहा गया है। यह शरीरधारियों का अंग तथा सम्पूर्ण कर्मों का प्रेरक है। यही इन्द्रियों को विषयों में लगाकर दु:खी बनाने के कारण शत्रुरूप हो जाता है और सत्कार्य में लगाकर सुखी बनाने के कारण मित्ररूप है। आँख, कान, नाम, त्वचा, और जिह्वा आदि इन्द्रियाँ हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी और वाणी आदि इन्द्रियों के देवता कहे गये हैं। जो प्राण एवं देहादिकों धारण करता है, उसी की 'जीव' संज्ञा है। प्रकृति से परे जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म हैं, उन्हीं को 'परमात्मा' कहते हैं। ये कारणों के भी कारण हैं। ये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं।

वत्से! तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने शास्त्रानुसार बतला दिया। यह विषय ज्ञानियों के लिये परम ज्ञानमय है। अब तुम सुखपूर्वक लौट जाओ।

सावित्री ने कहा- प्रभो! आप ज्ञान के अथाह समुद्र हैं। अब मैं इन अपने प्राणनाथ और आपको छोड़कर कैसे कहाँ जाऊँ? मैं जो-जो बातें पूछती हूँ, उसे आप मुझे बताने की कृपा करें। जीव किस कर्म के प्रभाव से किन-किन योनियों में जाता है? पिताजी! कौन कर्म स्वर्गप्रद है और कौन नरकप्रद? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी मुक्त हो जाता है तथा श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने के लिये कौन-सा कर्म कारण होता है? किस कर्म के फलस्वरूप प्राणी रोगी होता है और किस कर्मफल से नीरोग? दीर्घजीवी और अल्पजीवी होने में कौन-कौन से कर्म प्रेरक हैं? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी सुखी होता है और किस कर्म के प्रभाव से दु:खी? किस कर्म से मनुष्य अंगहीन, एकाक्ष, बधिर, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल तथा अत्यन्त लोभी और नरघाती होता है एवं सिद्धि और सालोक्यादि मुक्ति प्राप्त होने में कौन कर्म सहायक है? किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से प्राणी ब्राह्मण होता है और किस कर्म के प्रभाव से तपस्वी? स्वर्गादि भोग प्राप्त होने में कौन कर्म साधन है? किस कर्म से प्राणी वैकुण्ठ में जाता है? ब्रह्मन्! गोलोक निरामय और सम्पूर्ण स्थानों से उत्तम धाम है। किस कर्म के प्रभाव से उसकी प्राप्ति हो सकती है? कितने प्रकार के नरक हैं और उनकी कितनी संख्या और उनके क्या-क्या नाम हैं? कौन किस नरक में जाता है और कितने समयतक वहाँ यातना भोगता है? किस कर्म के फल से पापियों के शरीर में कौन-सी व्याधि उत्पन्न होती है? भगवन्! मैंने ये जो-जो प्रश्न किये हैं, इन सबके उत्तर देने की आप कृपा करें। (अध्याय 24-25)

टीका-टिप्पणी