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*यहाँ यह कहा जा सकता है कि टीकाकार ने चूंकि कारिकाकार का आशय इसी रूप में समझा है अत: उसने सूक्ष्म शरीर को सप्ततत्त्वात्मक ही कहा और संसरण हेतु एकादशेन्द्रिय की अनिवार्यता को स्वीकार किया।<ref>टीकाकार का यह मन्तव्य स्वयं उदयवीर शास्त्री द्वारा प्रस्तुत उद्धरण में भी स्पष्ट हो जाता है- 'तत्सूक्ष्मशरीरमेकादशेन्द्रियसंयुक्तं' में एकादशेन्द्रिय का सूक्ष्म शरीर से पृथक् निर्देश टीकाकार के इस आग्रह की पुष्टि करता है कि सूक्ष्म शरीर सात तत्त्वों का है। सूक्ष्म शब्द यहाँ शरीर नाम का नहीं अपि तु सूक्ष्मता का बोधक है।</ref> लेकिन कारण के रूप में 'त्रयोदशकरण' के मानने का कारिकाकार का स्पष्ट मत देख कर उसका वैसा ही उल्लेख किया।  
 
*यहाँ यह कहा जा सकता है कि टीकाकार ने चूंकि कारिकाकार का आशय इसी रूप में समझा है अत: उसने सूक्ष्म शरीर को सप्ततत्त्वात्मक ही कहा और संसरण हेतु एकादशेन्द्रिय की अनिवार्यता को स्वीकार किया।<ref>टीकाकार का यह मन्तव्य स्वयं उदयवीर शास्त्री द्वारा प्रस्तुत उद्धरण में भी स्पष्ट हो जाता है- 'तत्सूक्ष्मशरीरमेकादशेन्द्रियसंयुक्तं' में एकादशेन्द्रिय का सूक्ष्म शरीर से पृथक् निर्देश टीकाकार के इस आग्रह की पुष्टि करता है कि सूक्ष्म शरीर सात तत्त्वों का है। सूक्ष्म शब्द यहाँ शरीर नाम का नहीं अपि तु सूक्ष्मता का बोधक है।</ref> लेकिन कारण के रूप में 'त्रयोदशकरण' के मानने का कारिकाकार का स्पष्ट मत देख कर उसका वैसा ही उल्लेख किया।  
 
*यह भी कहा जा सकता है कि बुद्धि और अहंकार कारण तभी कहे जा सकते हैं जब भोग शरीर या संसरण शरीर उपस्थित हो। अत: संसरण के प्रसंग में त्रयोदशकरण कहना और सूक्ष्म (लिंग) शरीर के रूप में बुद्धि और अहंकार को कारण न मानकर मात्र तत्त्व मानना असंगत नहीं है। अथवा यदि यह असंगत है भी तो इसे असंगत कहना ही पर्याप्त है। व्याख्याकार पर अन्य मत का आरोपण संगत नहीं कहा जाएगा।  
 
*यह भी कहा जा सकता है कि बुद्धि और अहंकार कारण तभी कहे जा सकते हैं जब भोग शरीर या संसरण शरीर उपस्थित हो। अत: संसरण के प्रसंग में त्रयोदशकरण कहना और सूक्ष्म (लिंग) शरीर के रूप में बुद्धि और अहंकार को कारण न मानकर मात्र तत्त्व मानना असंगत नहीं है। अथवा यदि यह असंगत है भी तो इसे असंगत कहना ही पर्याप्त है। व्याख्याकार पर अन्य मत का आरोपण संगत नहीं कहा जाएगा।  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==सम्बंधित लिंक==
 
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०८:२०, ९ जुलाई २०१० का अवतरण

सुवर्णसप्तति शास्त्र

  • यह बौद्ध भिक्षु परमार्थ द्वारा 550 ई.-569 ई. के मध्य चीनी भाषा में अनुवादित सांख्यकारिका का भाष्य है। किस भाष्य का यह चीनी अनुवाद है- इस पर कुछ विवाद है।
  • आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार यह 'माठरवृत्ति' के नाम से उपलब्ध टीका का अनुवाद है। इस मत का आधार चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ तथा माठरवृत्ति में आश्चर्यजनक समानता है। *एस.एस. सूर्यनारायण शास्त्री ने परमार्थ और माठर की टीकाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि दोनों में महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर असमानता है। अत: माठरवृत्ति को परमार्थ कृत टीका का आधार नहीं कहा जा सकता।
  • चीनी भाषा से उक्त टीका का संस्कृत रूपांतरण श्री एन.अय्यास्वामी शास्त्री ने किया जो तिरुमल तिरुपति देवस्थान प्रेम द्वारा 1944 ई. में प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में श्री शास्त्री अनुयोगद्वार सूत्र तथा गुणरत्न कृत षड्दर्शनसमुच्चय के आधार पर किसी प्राचीन माठरवृत्ति या भाष्य के अस्तित्व की संभावना को माने जाने तथा वर्तमान माठरवृत्ति को 1000 ई. से पूर्व की रचना नहीं माने जाने का समर्थन करते हैं।
  • ए.बी. कीथ तथा सूर्यनारायण शास्त्री के अनुसार वर्तमान माठरवृत्ति तथा परमार्थ कृत चीनी अनुवाद किसी अन्य प्राचीन माठरभाष्य पर आधारित है। इस विषय पर अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर प्राय: यह माना जाता है कि परमार्थ कृत चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ जिसका संस्कृत रूपान्तरण सुवर्णसप्तति के नाम से हुआ है- ही सांख्य कारिका पर उपलब्ध प्राचीनतम भाष्य है।
  • सुवर्णसप्तति के अन्तर्वस्तु में उल्लेखनीय यह है कि इसके अनुसार सांख्य ज्ञान का प्रणयन चार वेदों से भी पूर्व हो चुका था। वेदों सहित समस्त सम्प्रदायों का दर्शन सांख्य पर ही अवलम्बित है। सुवर्णसप्तति सूक्ष्म (लिंग) शरीर को सात तत्त्वों का संघात मानती है। वे सात तत्त्व हैं- महत, अहंकार तथा पंच तन्मात्र।
  • आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इस मान्यता को भ्रमवश स्थापित माना है। उनके अनुसार सुवर्णसप्तति शास्त्र में 40वें कारिका की टीका में 'एतानि सप्त सूक्ष्मशरीरमित्युच्यते' लिखा है। इस पर श्री शास्त्री का कथन है कि यदि अन्य कहीं भी एकादश इन्द्रियों का निर्देश न होता तो सप्त तत्व का सूक्ष्मशरीर माना जा सकता था। उ.वी. शास्त्री ने कुछ उद्धरण सुवर्णसप्ततिशास्त्र से उद्धृत करते हुए यह दिखाने का प्रयास किया कि टीकाकार अठारह तत्त्वों का सूक्ष्म शरीर स्वीकार करते हैं। लेकिन शास्त्री जी द्वारा प्रस्तुत उद्धरण उनके विचार की पुष्टि नहीं करते। वे उद्धरण इस प्रकार हैं-
  1. त्रयोदशविधकरणै: सूक्ष्मशरीरं संसारयति
  2. तस्मात् सूक्ष्मशरीरं विहाय, त्रयोदशकं न स्थातुं क्षमते॥
  3. इदं सूक्ष्मशरीरं त्रयोदशकेन सह ... संसरति
  4. पंचतन्मात्ररूपं सूक्ष्मशरीरं त्रयोदशविधकरणैर्युक्त-त्रिविधलोकसर्गान् संसरति।
  • सभी उद्धरणों में त्रयोदश करणों के साथ सूक्ष्म शरीर के संसरण की बात कहीं गई है। अत: त्रयोदश करण तथा सूक्ष्म शरीर का पार्थक्य-स्वीकृति स्पष्ट है। चौथे उद्धरण में तो स्पष्टत: 'पंचतन्मात्ररूपं सूक्ष्मशरीरं' कहा गया है। हां एक बात अवश्य विचारणीय है, जिसकी चर्चा शास्त्री जी ने की है कि 'यदि व्याख्याकार सूक्ष्म शरीर में केवल सात तत्त्वों को मानता तो उसका यह-एकादश इन्द्रियों के साथ बुद्धि और अहंकार को जोड़कर त्रयोदश करण का सूक्ष्म शरीर के साथ निदेश करना सर्वथा असंगत हो जाता है<balloon title="सां.द.इ. पृष्ठ 391" style=color:blue>*</balloon>'।
  • यहाँ यह कहा जा सकता है कि टीकाकार ने चूंकि कारिकाकार का आशय इसी रूप में समझा है अत: उसने सूक्ष्म शरीर को सप्ततत्त्वात्मक ही कहा और संसरण हेतु एकादशेन्द्रिय की अनिवार्यता को स्वीकार किया।[१] लेकिन कारण के रूप में 'त्रयोदशकरण' के मानने का कारिकाकार का स्पष्ट मत देख कर उसका वैसा ही उल्लेख किया।
  • यह भी कहा जा सकता है कि बुद्धि और अहंकार कारण तभी कहे जा सकते हैं जब भोग शरीर या संसरण शरीर उपस्थित हो। अत: संसरण के प्रसंग में त्रयोदशकरण कहना और सूक्ष्म (लिंग) शरीर के रूप में बुद्धि और अहंकार को कारण न मानकर मात्र तत्त्व मानना असंगत नहीं है। अथवा यदि यह असंगत है भी तो इसे असंगत कहना ही पर्याप्त है। व्याख्याकार पर अन्य मत का आरोपण संगत नहीं कहा जाएगा।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. टीकाकार का यह मन्तव्य स्वयं उदयवीर शास्त्री द्वारा प्रस्तुत उद्धरण में भी स्पष्ट हो जाता है- 'तत्सूक्ष्मशरीरमेकादशेन्द्रियसंयुक्तं' में एकादशेन्द्रिय का सूक्ष्म शरीर से पृथक् निर्देश टीकाकार के इस आग्रह की पुष्टि करता है कि सूक्ष्म शरीर सात तत्त्वों का है। सूक्ष्म शब्द यहाँ शरीर नाम का नहीं अपि तु सूक्ष्मता का बोधक है।

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