"सोम रस" के अवतरणों में अंतर

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*सोम वसुवर्ग के [[देवता|देवताओं]] में हैं ।
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*[[मत्स्य पुराण]] <ref>मत्स्य पुराण(5-21)</ref> में [[वसु|आठ वसुओं]] में सोम की गणना इस प्रकार है-<br />
 
*[[मत्स्य पुराण]] <ref>मत्स्य पुराण(5-21)</ref> में [[वसु|आठ वसुओं]] में सोम की गणना इस प्रकार है-<br />
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।<br />
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प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥<br />
 
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥<br />
*ॠग्वेदीय देवताओं में महत्व की दृष्टि से सोम का स्थान [[अग्नि]] तथा [[इन्द्र]] के पश्चात तीसरा है । [[ॠग्वेद]] का सम्पूर्ण नवाँ मण्डल सोम की स्तुति से परिपूर्ण है । इसमें सब मिलाकर 120 सूक्तों में सोम का गुणगान है । सोम की कल्पना दो रूपों में की गयी है-  
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*ॠग्वेदीय देवताओं में महत्व की दृष्टि से सोम का स्थान [[अग्नि]] तथा [[इन्द्र]] के पश्चात तीसरा है। [[ॠग्वेद]] का सम्पूर्ण नवाँ मण्डल सोम की स्तुति से परिपूर्ण है। इसमें सब मिलाकर 120 सूक्तों में सोम का गुणगान है। सोम की कल्पना दो रूपों में की गयी है-  
 
* स्वर्गीय लता का रस
 
* स्वर्गीय लता का रस
*आकाशीय चन्द्रमा ।
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*आकाशीय चन्द्रमा।
  
'''देव''' और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । [[कण्व]] ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ' यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है; सम्पत्ति का संवर्द्धन करता है । विद्वेषों से बचाता है;  शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है;  उल्लास विचार उत्पन्न करता है;  पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है;  देवताओं के क्रोध को शान्त करता है और अमर बनाता है'।<ref>(ॠग्वेद 8.48)</ref> सोम विप्रत्व और ॠषित्व का सहायक है।<ref>(ॠग्वेद 3.43.5)</ref>
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'''देव''' और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था। देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे। [[कण्व]] ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ' यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है; सम्पत्ति का संवर्द्धन करता है। विद्वेषों से बचाता है;  शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है;  उल्लास विचार उत्पन्न करता है;  पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है;  देवताओं के क्रोध को शान्त करता है और अमर बनाता है'।<ref>(ॠग्वेद 8.48)</ref> सोम विप्रत्व और ॠषित्व का सहायक है।<ref>(ॠग्वेद 3.43.5)</ref>
  
'''सोम''' की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) [[स्वर्ग]] और (2) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से [[पृथ्वी]] पर आया । ॠग्वेद <ref>ॠग्वेद 1.93.6</ref> में कथन है : 'मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।' इसी प्रकार<ref> (ॠग्वेद 9.61.10)</ref> में कहा गया है:  हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है । सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत ([[गान्धार]]-[[कम्बोज]] प्रदेश) है'। <ref>(ॠग्वेद 10.34.1)</ref>
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'''सोम''' की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) [[स्वर्ग]] और (2) पार्थिव पर्वत। अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से [[पृथ्वी]] पर आया। ॠग्वेद <ref>ॠग्वेद 1.93.6</ref> में कथन है : 'मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।' इसी प्रकार<ref> (ॠग्वेद 9.61.10)</ref> में कहा गया है:  हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत ([[गान्धार]]-[[कम्बोज]] प्रदेश) है'। <ref>(ॠग्वेद 10.34.1)</ref>
  
'''सोम''' रस बनाने की प्रक्रिया [[वेद|वैदिक]] यज्ञों में बड़े महत्व की है । इसकी तीन अवस्थायें हैं—पेरना, छानना और मिलाना । वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है । देवताओं के लिये समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उपयोग होता था । सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और [[वायु]] हैं । पूषा आदि को भी यदाकदा सोम अर्पित किया जाता है ।
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'''सोम''' रस बनाने की प्रक्रिया [[वेद|वैदिक]] यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थायें हैं—पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है। देवताओं के लिये समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और [[वायु]] हैं। पूषा आदि को भी यदाकदा सोम अर्पित किया जाता है।
 
   
 
   
'''स्वर्गीय''' सोम की कल्पना [[चंद्रमा]] के रूप में की गयी है । [[छान्दोग्य उपनिषद]] <ref>छान्दोग्य उपनिषद(5.10.4)</ref> में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है । [[कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद|कौषितकि ब्राह्मण]] <ref>कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद 7.10</ref> में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : 'दृश्य चन्द्रमा ही सोम है । सोमलता जब लायी जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है।, जब कोई सोम ख़रीदता है तो इस विचार से कि 'दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाय ।'
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'''स्वर्गीय''' सोम की कल्पना [[चंद्रमा]] के रूप में की गयी है। [[छान्दोग्य उपनिषद]] <ref>छान्दोग्य उपनिषद(5.10.4)</ref> में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है। [[कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद|कौषितकि ब्राह्मण]] <ref>कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद 7.10</ref> में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : 'दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लायी जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है।, जब कोई सोम ख़रीदता है तो इस विचार से कि 'दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाय।'
  
'''सोम''' का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है।<ref> (ॠग्वेद. 8.48.13)</ref>  कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है,  जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।  <ref>ॠग्वेद. 9.97.18, 7.104</ref> सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है जब वह [[वरुण]] और [[आदित्य]] से संयुक्त होता है :'हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वाग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वन्दनीय हो ।'<ref>(ॠग्वेद. 1.91.3)</ref>
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'''सोम''' का सम्बन्ध अमरत्व से भी है। वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है। वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है।<ref> (ॠग्वेद. 8.48.13)</ref>  कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है,  जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है। वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।  <ref>ॠग्वेद. 9.97.18, 7.104</ref> सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है जब वह [[वरुण]] और [[आदित्य]] से संयुक्त होता है :'हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वाग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वन्दनीय हो।'<ref>(ॠग्वेद. 1.91.3)</ref>
  
 
==सोम सम्बन्धी पुरा कथाएँ==
 
==सोम सम्बन्धी पुरा कथाएँ==
'''वैदिक''' कल्पना के इन सूत्रों के लेकर [[पुराण|पुराणों]] में सोम सम्बन्धी बहुत सी पुरा कथाओं का निर्माण हुआ । [[वराह पुराण]] में सोम की उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है । [[ब्रह्मा]] के मानस पुत्र महातपा [[अत्रि]] हुए जो [[दक्ष]] के जामाता थे । दक्ष की सत्ताइस कन्यायें थी; वे ही सोम की पत्नियाँ हुईं । उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी । सोम केवल रोहिणी के साथ रमण करते थे, अन्य के साथ नहीं । औरों ने पिता दक्ष के पास जाकर सोम के विषय-व्यवहार के सम्बन्ध में निवेदन किया । दक्ष ने सोम को सम व्यवहार करने के लिए कहा ।
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'''वैदिक''' कल्पना के इन सूत्रों के लेकर [[पुराण|पुराणों]] में सोम सम्बन्धी बहुत सी पुरा कथाओं का निर्माण हुआ। [[वराह पुराण]] में सोम की उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है। [[ब्रह्मा]] के मानस पुत्र महातपा [[अत्रि]] हुए जो [[दक्ष]] के जामाता थे। दक्ष की सत्ताइस कन्यायें थी; वे ही सोम की पत्नियाँ हुईं। उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी। सोम केवल रोहिणी के साथ रमण करते थे, अन्य के साथ नहीं। औरों ने पिता दक्ष के पास जाकर सोम के विषय-व्यवहार के सम्बन्ध में निवेदन किया। दक्ष ने सोम को सम व्यवहार करने के लिए कहा।
  
'''जब''' सोम ने ऐसा नहीं किया तो दक्ष ने शाप दिया, 'तुम अन्तर्हित (लुप्त) हो जाओं।' दक्ष के शाप से सोम क्षय को प्राप्त हुआ । सोम के नष्ट होने पर देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और विशेष कर सब औषधियाँ क्षीण हो गयीं। देव लोग चिन्तित होकर विष्णु की शरण में गये । भगवान ने पूछा, ‘कहो क्या करें ?’ देवताओं ने कहा, ‘दक्ष के शाप से सोम नष्ट हो गया ।’ [[विष्णु]] ने कहा कि ‘[[समुद्र मंथन]] करो ।’ सब ने मिलकर समुद्र मंथन किया । उससे सोम उत्पन्न हुआ । जो यह क्षेत्रसंज्ञक श्रेष्ठ पुरुष इस शरीर में निवास करता है उसे सोम मानना चाहिए; वही देहधारियों का जीवसंज्ञक है । वह परेच्छा से पृथक् सौम्य मूर्ति को धारण करता है । देव, मनुष्य, वृक्ष, औषधी सभी का सोम उपजीव्य है । तब रुद्र ने उसको सकला अपने सिर में धारण किया ।
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'''जब''' सोम ने ऐसा नहीं किया तो दक्ष ने शाप दिया, 'तुम अन्तर्हित (लुप्त) हो जाओं।' दक्ष के शाप से सोम क्षय को प्राप्त हुआ। सोम के नष्ट होने पर देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और विशेष कर सब औषधियाँ क्षीण हो गयीं। देव लोग चिन्तित होकर विष्णु की शरण में गये। भगवान ने पूछा, ‘कहो क्या करें ?’ देवताओं ने कहा, ‘दक्ष के शाप से सोम नष्ट हो गया।’ [[विष्णु]] ने कहा कि ‘[[समुद्र मंथन]] करो।’ सब ने मिलकर समुद्र मंथन किया। उससे सोम उत्पन्न हुआ। जो यह क्षेत्रसंज्ञक श्रेष्ठ पुरुष इस शरीर में निवास करता है उसे सोम मानना चाहिए; वही देहधारियों का जीवसंज्ञक है। वह परेच्छा से पृथक् सौम्य मूर्ति को धारण करता है। देव, मनुष्य, वृक्ष, औषधी सभी का सोम उपजीव्य है। तब रुद्र ने उसको सकला अपने सिर में धारण किया।
 
*[[वेद|वेदों]] में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं [[अफ़ग़ानिस्तान]] की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है।
 
*[[वेद|वेदों]] में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं [[अफ़ग़ानिस्तान]] की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है।
  

१३:१०, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

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सोम रस / Som Rus / Som Elixir

आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल:।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

  • ॠग्वेदीय देवताओं में महत्व की दृष्टि से सोम का स्थान अग्नि तथा इन्द्र के पश्चात तीसरा है। ॠग्वेद का सम्पूर्ण नवाँ मण्डल सोम की स्तुति से परिपूर्ण है। इसमें सब मिलाकर 120 सूक्तों में सोम का गुणगान है। सोम की कल्पना दो रूपों में की गयी है-
  • स्वर्गीय लता का रस
  • आकाशीय चन्द्रमा।

देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था। देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे। कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ' यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है; सम्पत्ति का संवर्द्धन करता है। विद्वेषों से बचाता है; शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है; उल्लास विचार उत्पन्न करता है; पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है; देवताओं के क्रोध को शान्त करता है और अमर बनाता है'।[२] सोम विप्रत्व और ॠषित्व का सहायक है।[३]

सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) स्वर्ग और (2) पार्थिव पर्वत। अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया। ॠग्वेद [४] में कथन है : 'मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।' इसी प्रकार[५] में कहा गया है: हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गान्धार-कम्बोज प्रदेश) है'। [६]

सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थायें हैं—पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है। देवताओं के लिये समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उपयोग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीने वाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदाकदा सोम अर्पित किया जाता है।

स्वर्गीय सोम की कल्पना चंद्रमा के रूप में की गयी है। छान्दोग्य उपनिषद [७] में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण [८] में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : 'दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लायी जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है।, जब कोई सोम ख़रीदता है तो इस विचार से कि 'दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाय।'

सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है। वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है। वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है।[९] कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है। वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है। [१०] सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है जब वह वरुण और आदित्य से संयुक्त होता है :'हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समान तुम सर्वाग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वन्दनीय हो।'[११]

सोम सम्बन्धी पुरा कथाएँ

वैदिक कल्पना के इन सूत्रों के लेकर पुराणों में सोम सम्बन्धी बहुत सी पुरा कथाओं का निर्माण हुआ। वराह पुराण में सोम की उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है। ब्रह्मा के मानस पुत्र महातपा अत्रि हुए जो दक्ष के जामाता थे। दक्ष की सत्ताइस कन्यायें थी; वे ही सोम की पत्नियाँ हुईं। उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी। सोम केवल रोहिणी के साथ रमण करते थे, अन्य के साथ नहीं। औरों ने पिता दक्ष के पास जाकर सोम के विषय-व्यवहार के सम्बन्ध में निवेदन किया। दक्ष ने सोम को सम व्यवहार करने के लिए कहा।

जब सोम ने ऐसा नहीं किया तो दक्ष ने शाप दिया, 'तुम अन्तर्हित (लुप्त) हो जाओं।' दक्ष के शाप से सोम क्षय को प्राप्त हुआ। सोम के नष्ट होने पर देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और विशेष कर सब औषधियाँ क्षीण हो गयीं। देव लोग चिन्तित होकर विष्णु की शरण में गये। भगवान ने पूछा, ‘कहो क्या करें ?’ देवताओं ने कहा, ‘दक्ष के शाप से सोम नष्ट हो गया।’ विष्णु ने कहा कि ‘समुद्र मंथन करो।’ सब ने मिलकर समुद्र मंथन किया। उससे सोम उत्पन्न हुआ। जो यह क्षेत्रसंज्ञक श्रेष्ठ पुरुष इस शरीर में निवास करता है उसे सोम मानना चाहिए; वही देहधारियों का जीवसंज्ञक है। वह परेच्छा से पृथक् सौम्य मूर्ति को धारण करता है। देव, मनुष्य, वृक्ष, औषधी सभी का सोम उपजीव्य है। तब रुद्र ने उसको सकला अपने सिर में धारण किया।

अश्वमेध यज्ञ में सोमरस

अश्वमेध यज्ञ में सोमरस- "मन्त्रगान नाटक के रूप में विविध प्रकार के पात्रों, वृद्ध, नवयुवक, सँपेरों, डाकू, मछुवा, आखेटक एवं ॠषियों के माध्यम से प्रस्तुत होता था। जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था। वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशु यज्ञ होते थे एवं सोमरस भी निचोड़ा जाता था।"

कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद में सोमोपासना

कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद में ऋषि ने सोमोपासना को स्वस्थ शरीर का कारण माना है। वह सोम से प्रार्थना करता है-'हे स्त्री-रूपी सोम! तुम पुरुष-रूपी सूर्य के प्रकाश से विकास को प्राप्त हो। तुम सभी ओर से अन्न की प्राप्ति में सहायक बनो। हे सोम! तुम सौम्य गुणों से युक्त हो। तुम्हारा दिव्य रस सूर्य के तेज को प्राप्त करके पुरुष मात्र के लिए अत्यन्त हितकारी हो जाता है। तुम इस दिव्य रस का सेवन करने वाले पुरुषों को पुष्टि दो और उनके सभी शत्रुओं का पराभव कराने में पूरी तरह से सहायक बनो। हे सोम! तुम आग्नेय तेज से प्रसन्नता को प्राप्त करते हुए, अमृत्व की प्राप्ति में सहयोग प्रदान करो और स्वयं अपने यश को स्वर्गलोक में स्थिर करो। हे सोम! मैं तुम्हारी ही गति का अनुगमन करते हुए अपनी दाहिनी भुजा को बार-बार घुमाता हूं।' ऋषि ने सोम को पांच मुख वाला प्रजापति कहा है।

  1. एक मुख 'ब्राह्मण' है,
  2. दूसरा मुख 'क्षत्रिय' हैं,
  3. तीसरा मुख 'बाज' पक्षी है,
  4. चौथा मुख 'अग्नि' है। और
  5. पांचवां मुख तुम 'स्वयं' हो। इस प्रकार सोम की प्रार्थना करने के उपरान्त गर्भाधान के लिए तत्पर स्त्री के पास बैठने से पहले उसके हृदय का स्पर्श करें और इस मन्त्र का पाठ करें—'यत्ते सुमीमे हृदये हितमन्त: प्रजापतौ मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं तेन माऽहं पौत्रमधं रूदम्।'[१२] इस प्रकार की गयी प्रार्थना से साधक को कभी पुत्र शोक नहीं झेलना पड़ता। ऋषि का संकेत उस माता की ओर है, जो अपना दूध अपनी सन्तान को पिलाती है। उसके दूध में सोमरस-जैसी रक्षात्मक शक्ति विद्यमान होती है। उसी से बालक स्वस्थ रहता है। माता का दूध बालक के लिए नैसर्गिक प्रक्रिया है। प्रकृति का विरोध अनेकानेक भयानक परिणामों का कारण बन जाता है।

टीका टिप्पणी

  1. मत्स्य पुराण(5-21)
  2. (ॠग्वेद 8.48)
  3. (ॠग्वेद 3.43.5)
  4. ॠग्वेद 1.93.6
  5. (ॠग्वेद 9.61.10)
  6. (ॠग्वेद 10.34.1)
  7. छान्दोग्य उपनिषद(5.10.4)
  8. कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद 7.10
  9. (ॠग्वेद. 8.48.13)
  10. ॠग्वेद. 9.97.18, 7.104
  11. (ॠग्वेद. 1.91.3)
  12. इसका अर्थ यही है कि हे सुन्दर मांग वाली सुन्दरी! तुम सोम रूप वाली हो। तुम्हारा हृदय प्रजा (सन्तति) का पालक है। उसके अन्दर सोम मण्डल की भांति जो अमृत-राशि है अर्थात दूध भरा हुआ है, उसे मैं जानता हूं। इस सत्य के प्रभाव से मैं कभी पुत्र शोक से न रोऊं, मुझ पर ऐसी कृपा करो।