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भदन्त शुभगुप्त युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अन्तिम और लब्धप्रतिष्ठ आचार्य थे। उनके बाद ऐसा कोई आचार्य ज्ञात नहीं है, जिसने [[सौत्रान्तिक दर्शन]] पर स्वतन्त्र और मौलिक रचना की हो। यद्यपि धर्मोत्तर आदि भारतीय तथा जमयङ्-जद्-पई, तक्-छङ्-पा आदि भोट आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु वह पूर्व आचार्यों की व्याख्यामात्र है, नूतन और मौलिक नहीं है। आज भी दिङ्नागीय परम्परा के सौत्रान्तिक दर्शन के विद्वान् थोड़े-बहुत हो सकते हैं, किन्तु मौलिक शास्त्रों के रचयिता नहीं हैं। आचार्य शुभगुप्त ने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं है। उनका कोई भी ग्रन्थ मूल [[संस्कृत]] में उपलब्ध नहीं है। भोट भाषा और चीनी भाषा में उनके पाँच ग्रन्थों के अनुवाद सुरक्षित हैं, यथा
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ये सभी ग्रन्थ लघुकाय हैं, किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनका प्रतिपाद्य विषय इनके नाम से ही स्पष्ट है, यथा-
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*सर्वज्ञसिद्धिकारिका में विशेषत: जैमिनीय दर्शन का खण्डन है, क्योंकि वे सर्वज्ञ नहीं मानते। ग्रन्थ में युक्तूपर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है।
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*बाह्यार्थसिद्धि कारिका में जो विज्ञानवादी बाह्यार्थ  नहीं मानते, उनका खण्डन करके सप्रमाण बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की गई है।
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*श्रुतिपरीक्षा में शब्दनित्यता, शब्दार्थ सम्बन्ध की नित्यता और शब्द की विधिवृत्ति का खण्डन किया गया है। 'श्रुति' का अर्थ [[वेद]] है। वेद की अपौरुषेयता का सिद्धान्त मीमांसकों का प्रमुख सिद्धान्त है, उसका ग्रन्थ में युक्तिपूर्वक निराकरण प्रतिपादित है।
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*अपोहविचारकारिका में शब्द और कल्पना की विधिवृत्तिता का खण्डन करके उन्हें अपोहविषयक सिद्ध किया गया है। अपोह ही शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध सिद्धान्त है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं, ग्रन्थ में सामान्य का विस्तार के साथ खण्डन किया गया है।
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*ईश्वरभङ्गकारिका में इस बात का खण्डन किया गया है, कि ईश्वर जो नित्य है, वह जगत का कारण है। ग्रन्थ में नित्य को कारण मानने पर अनेक दोष दर्शाए गये हैं। इन ग्रन्थों से सौत्रान्तिक दर्शन की विलुप्त परम्परा का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है।
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०७:५९, २७ दिसम्बर २०११ के समय का अवतरण

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सौत्रान्तिक कृतियाँ

भदन्त शुभगुप्त युक्ति-अनुयायी सौत्रान्तिकों के अन्तिम और लब्धप्रतिष्ठ आचार्य थे। उनके बाद ऐसा कोई आचार्य ज्ञात नहीं है, जिसने सौत्रान्तिक दर्शन पर स्वतन्त्र और मौलिक रचना की हो। यद्यपि धर्मोत्तर आदि भारतीय तथा जमयङ्-जद्-पई, तक्-छङ्-पा आदि भोट आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु वह पूर्व आचार्यों की व्याख्यामात्र है, नूतन और मौलिक नहीं है। आज भी दिङ्नागीय परम्परा के सौत्रान्तिक दर्शन के विद्वान् थोड़े-बहुत हो सकते हैं, किन्तु मौलिक शास्त्रों के रचयिता नहीं हैं। आचार्य शुभगुप्त ने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं है। उनका कोई भी ग्रन्थ मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। भोट भाषा और चीनी भाषा में उनके पाँच ग्रन्थों के अनुवाद सुरक्षित हैं, यथा

  1. सर्वज्ञसिद्धिकारिका,
  2. वाह्यार्थसिद्धिकारिका,
  3. श्रुतिपरीक्षा,
  4. अपोहविचारकारिका एवं
  5. ईश्वरभङ्गकारिका।

ये सभी ग्रन्थ लघुकाय हैं, किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनका प्रतिपाद्य विषय इनके नाम से ही स्पष्ट है, यथा-

  • सर्वज्ञसिद्धिकारिका में विशेषत: जैमिनीय दर्शन का खण्डन है, क्योंकि वे सर्वज्ञ नहीं मानते। ग्रन्थ में युक्तूपर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है।
  • बाह्यार्थसिद्धि कारिका में जो विज्ञानवादी बाह्यार्थ नहीं मानते, उनका खण्डन करके सप्रमाण बाह्यार्थ की सत्ता सिद्ध की गई है।
  • श्रुतिपरीक्षा में शब्दनित्यता, शब्दार्थ सम्बन्ध की नित्यता और शब्द की विधिवृत्ति का खण्डन किया गया है। 'श्रुति' का अर्थ वेद है। वेद की अपौरुषेयता का सिद्धान्त मीमांसकों का प्रमुख सिद्धान्त है, उसका ग्रन्थ में युक्तिपूर्वक निराकरण प्रतिपादित है।
  • अपोहविचारकारिका में शब्द और कल्पना की विधिवृत्तिता का खण्डन करके उन्हें अपोहविषयक सिद्ध किया गया है। अपोह ही शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध सिद्धान्त है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ है, यह बौद्धों की प्रसिद्ध है, इसका इसमें मण्डन किया है। वैशिषिक सामान्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं, ग्रन्थ में सामान्य का विस्तार के साथ खण्डन किया गया है।
  • ईश्वरभङ्गकारिका में इस बात का खण्डन किया गया है, कि ईश्वर जो नित्य है, वह जगत का कारण है। ग्रन्थ में नित्य को कारण मानने पर अनेक दोष दर्शाए गये हैं। इन ग्रन्थों से सौत्रान्तिक दर्शन की विलुप्त परम्परा का पर्याप्त परिचय प्राप्त होता है।