स्वतंत्रता संग्राम 1857

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प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम - 1857

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ, चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, है हरि, डाला जाऊँ चाह नहीं, देवों के शिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक ।

पुष्प की अभिलाषा कवि: माखनलाल चतुर्वेदी


भारत के स्वातन्त्र्य संग्राम में मथुरा ज़िले का योगदान

सन् 1857 का स्वाधीनता-संग्राम : मथुरा 30 मई सन् 1857 ई0 की गरमियों का दिन था । समय सन्ध्या के चार बजे थे । स्थान था मथुरा का कलक्ट्री-स्थित सरकारी कोषागार । कोषाधिकारी डैशमैंन थे और जिला मजिस्ट्रेट और कलक्टर मार्क थॉर्नहिल थे । लुटेरे 67 वीं और 44 वीं नेटिव इंनफैण्ट्री के सशस्त्र सैनिक थे । सेना के कमाण्डर लेफ्टीनेंट बर्ल्टन धराशायी हो गये थे । चार लाख साठ हजार, एक सौ चाँदी के रूपयों से भरी ग्यारह बैलगाड़ियों पर लदीं लोहे की सेफों का आगरा की जगह पर दिल्ली को प्रस्थान हो गया था । कोषागार में बचे हुए दो लाख रूपयों की मथुरा सदर के लोगों द्वारा लूट कर ली गई थी और प्रशासन स्तब्ध रह गया था ।

मथुरा के शासन की लगाम भारतीय सैनिकों के हाथों में आ गयी थी । यूरोपियन बंगले और कलक्ट्री-भवन सब आग को समर्पित कर मथुरा जेल के बन्दी कारागार से मुक्त हो गये थे । विदेशी हुकूमत को मिटाकर स्वाधीनता का शंखनाद करने वाले, अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के हाथ मजबूत करने भारत माता के विप्लवी सपूत गर्वोन्मत भाव से मचल पड़े और चल पड़े कोसी की दिशा में शेरशाह सूरी राज मार्ग से, जहाँ अंग्रेजी सेना दिल्ली की ओर से मथुरा की ओर आने वाले भारतीय क्रान्तिवीरों के टिड्डी दलों को रोकने के उद्देश्य से जमा थी । थाँर्नहिल स्वयं पड़ाव डाले पड़ा था । यह सनसनीखेज कहानी किसी कल्पित उपन्यास का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो खुद अंग्रेज कलक्टर की कलम से पश्चिमोत्तर प्रान्त के आगरा स्थित तत्कालीन गवर्नमेंट सेक्रेटरी सी0 बी0 थॉर्नहिल के नाम 5 जून 1857 को लिखा गया था । इस ऐतिहासिक घटना का सार संक्षेप में इस तरह है ।

67 वीं और 44 वीं देशी पल्टनों का खुला विद्रोह

विगत दो माह से 67वीं पल्टन मथुरा में सरकार की ओर से तैनात थी । उसके कार्य मुक्त होने का समय हो चुका था । उसके स्थान पर 44 वीं नेटिव इंनफैण्ट्री को कार्यभार ग्रहण करना था । पश्चिमोत्तर प्रान्त के लेखाकार के आदेशानुसार कार्यमुक्त 67वीं पल्टन को दायित्व सौंपा गया कि वह मथुरा के अतिरिक्त खजाने को आगरा पहुँचा दे । तदानुसार, नयी कम्पनी के आ जाने पर कोषाधिकारी डैशमैंन ने 4 लाख 60 हजार एक सौ तथा फर्रूखाबाद के खजाने को दस बैलगाड़ियों में लदवा दिया । ग्यारहवीं और अन्तिम गाड़ी तैयार हो रही थीं और जैसे ही वह लाइन में पहुँची कि 67 वीं पल्टन के एक सैनिक ने कमांडर बर्ल्टन से पूछा -'कूँच कहाँ को होगा ।' बर्ल्टन का कड़दार उत्तर आया-'आगरा की ओर और कहाँ ?' सैनिक का प्रश्न था- 'दिल्ली को क्यों नहीं' बर्ल्टन कड़का- 'बदमाश । बेईमान ।' शब्द पूरा होते न होते सैनिक की बन्दूक गरज उठी- 'धाँय' । गोली बर्ल्टन की छाती को चीरती चली गई । वह धराशायी हो गया ।

थॉर्नहिल लिखता है कि 44 वीं पल्टन भी तुरन्त विद्रोहियों से जा मिली । जमकर यूरोपियनों पर गोलिंयाँ दागी गई । कार्यालय में उस समय जितने यूरोपियन और ईसाई थे, जहाँ तहाँ जान बचाकर भागने और छिपने लगे । यह संयोग ही कहा जायगा कि 44 वीं पल्टन के कमांडर को छोड़कर सभी बच निकले । कमांडर गिबन्स की हथेली फट गई । विद्रोहियों ने कार्यालय में आग लगा दी और सरकारी अभिलेखागार को नष्ट कर डाला । आसपास जितने भी बंगले विदेशियों के थे, सब जलाकर तहस-नहस कर डाले गये । कोषागर में जो बची सम्पत्ति और धनराशि थी, वह भी सभी समीपवर्ती लोगों द्वारा, संभवत: लूट ली गई । कारागार में जितने भी बन्दी थे, जेल तोड़कर मुक्त कर दिये गये । बन्दियों को शहर लाया गया और लोहारों से उनकी हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ कटवाई गई । कारागार के प्रहरी भी क्रान्तिकारियों के साथ हो लिये

सी0 एफ0 हार्वे, कमिश्नर आगरा को अपने 10 अगस्त 1857 के एक और पत्र में थाँर्नहिल लिखता है कि यूरोपियन लोगों को विद्रोह की पहली सूचना कार्यालय में लगी आग की ऊँची लपटों से मिली । वे सब बचकर आगरा को भाग लिये । कारागार के प्रहरी भी क्रान्तिकारियों के साथ मिल गये और खजाने के साथ दिल्ली की ओर चल दिये । सड़क के सहारे जो भी कार्यालय या बंगला, चुंगी चौकी, पुलिस चौकी या कोई भी सरकारी भवन मिला, सब फूँक दिये गये । रास्ते के सभी जमींदार विद्रोहियों के साथ हो गये । कोसी में प्रवेश कर गये । रघुनाथ सिंह के पास भारी संख्या में सैनिक थे, किन्तु उसने विद्रोहियों को नहीं छेड़ा और वे प्रवेश कर गये । रघुनाथ सिंह के अधिकार में मथुरा के सेठ की दी हुई दो तोप भी थीं और वह विद्रोहियों को रोकने के उद्देश्य से टुकड़ी के साथ कोसी भेजा गया था । परन्तु, उसने उन्हें न रोका । उल्टे उसने कोसी की लूट में विद्रोही सैनिकों की सहायता की । यही नहीं, कोसी में उसने थाँर्नहिल की निजी सम्पत्ति भी लूट ली ।

सैनिक गाड़ियों पर लदे मात्र 5 लाख रूपये ले जा सके थे । सवा लाख के लगभग खजाना अभी कोषागार में जमा था, जिसमें रूपये, पैसे और जवाहरात आदि थे, जो यूरोपियन लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से जमा कर रखे थे और बिना उन्हें निकाले वे आगरा को भाग गये थे । जैसे ही ज्ञात हुआ कि खजाने में सम्पत्ति छूट गई है, पूरा शहर उसे लूटने को टूट पड़ा । इनका नेतृत्व शहर कोतवाल कर रहा था और भरतपुर पल्टन के सैनिक भी लुटेरों में सम्मिलित थे । जब तक आग की लपटें उन्हें झुलसाने न लगीं, वे लूटपाट करते रहे । लूट के बाद वे परस्पर लड़ने लगे और भयंकर विप्लव मच गया । सर्वाधिक 30 लोग इसमें काल का ग्रास बने । यह घटना 30 मई की है ।

थॉर्नहिल 29 मई को कोसी पहुँच चुका था । 30 मई की शाम डैशवुड, कालविन, गिबन, जॉयस नामक अंग्रेज अधिकारी और कलक्टर का हैडक्लर्क कोसी पहुँचे और उन्होंनें कलक्टर को कोषागार की पल्टनों तथा अन्य द्वारा लूट का वृतान्त सुनाया । थॉर्नहिल तत्काल कैप्टेन निक्सन से मिलने चल पड़ा । रास्ते में उसने रघुनाथ सिंह को बुलवाया मगर उसने आने से इन्कार कर दिया । यही नहीं उसने कलक्टर को अपने तम्बू में घुसने भी नहीं दिया और सेठ की दोनों तोपें भी नहीं दीं । पक्की खबरें मिल रही थीं कि दिल्ली की ओर अकूत संख्या में क्रान्तिकारी कोसी पहुँचने वाले हैं । अत: निक्सन उनसे निबटने की तैयारी में तत्पर हुआ । किन्तु उसकी पल्टन ने उल्टे उसी पर बन्दूकें तान दीं । अब भरतपुर पल्टन भी खुले विद्रोह पर उतर आई । निक्सन और थार्नहिल के सामने जान बचाकर भागने के अतिरिक्त अब और कोई विकल्प न था । फिरंगी सी0 एफ0 हार्वे के साथ सेना को और थॉर्नहिल जॉयस के साथ मथुरा की ओर चल पड़े ।