बसई

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बसई गाँव / वत्सवन / Basai

  • नन्द घाटी से चार मील दक्षिण-पश्चिम में यह स्थान स्थित है।
  • ब्रह्माजी ने यहाँ बछड़ों और ग्वाल-बालों का हरण किया था।
  • इसलिए इस स्थान का नाम वत्सवन या बच्छवन है।
  • गाँव का वर्तमान नाम बसई गाँव है।
  • यहाँ श्रीवत्स विहारी जी का मन्दिर, ग्वाल मण्डलीजी का स्थान, ग्वालकुण्ड, हरि बोल तीर्थ और श्रीवल्लभाचार्यजी की बैठक दर्शनीय स्थल हैं।

प्रसंग

एक समय श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ में यमुना तट पर बछड़ों को चरा रहे थे। बछड़े चरते-चरते इस वन में पहुँच गये। इधर कृष्ण सखाओं के साथ यमुना तट की कोमल बालुका में नाना प्रकार की कीड़ाएँ करने लगे उधर बछड़े चरते-चरते जब इस वन में पहुँचे तो चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने, जो इससे पूर्व अघासुर की आत्मा को कृष्ण के चरणों में प्रवेश कर मुक्त होते देख बड़े आश्चर्यचकित हुए थे, भगवान् श्रीकृष्ण की कुछ और भी मधुर लीलाओं का दर्शन करने की इच्छा से उन बछड़ों को एक गुफ़ा में छिपा दिया। बछड़ों को न देखकर कृष्ण और ग्वाल-बाल बड़े चिन्तित हुए। कृष्ण सखाओं को वहीं छोड़कर बछड़ों को खोजने के लिए चल पड़े। जब बछड़े नहीं मिले, तब कृष्ण पुन: यमुना तट पर पहुँचे, जहाँ सखाओं को छोड़कर गये थे। इधर ब्रह्मा जी ने कृष्ण की अनुपस्थिति में सखाओं को भी कहीं छिपा दिया। षडैश्वर्यपूर्ण सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण ब्रह्माजी की करतूत समझ गये। इसलिए वे साथ-ही-साथ अपने-आप सारे बछड़े, ग्वाल बाल, उनकी लकुटियाँ, वस्त्र, वेणु, श्रृंग आदि का रूप धारण कर पूर्ववत क्रीड़ा करने लगे। यह क्रम एक वर्ष तक चलता रहा। यहाँ तक कि बलदेव जी भी इस रहस्य को नहीं जान सके। वर्ष पूरा होने पर बलदेव जी ने कुछ अलौकिक बातों को देखकर भाँप लिया कि स्वयं कृष्ण ही ये सारे बछड़े, ग्वाल-बाल बनकर लीला कर रहे हैं। उसी समय ब्रह्मा जी यह देखकर चकित हो गये कि गुफ़ा में बंद ग्वाल-बाल और बछड़े ज्यों के त्यों शयन अवस्था में हैं। इधर कृष्ण बछड़ों और ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत लीला कर रहे हैं। ऐसा देखकर वे भौंचक्के से रह गये। श्रीकृष्ण ने योगमाया का पर्दा हटा दिया। ब्रह्मा जी श्रीकृष्ण की स्वयं भगवत्ता एवं उनकी आश्चर्यमयी लीला देखकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम कर स्तव-स्तुति करने लगे।[१] उन्होंने ब्रज गोकुल में जन्म पाने के लिए तथा ब्रजरज से अभिसिक्त होने के लिए प्रार्थना की। इसीलिए इस वन का नाम वत्सवन है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नौमीड्य तेऽभ्रवषे तडिदम्बराय गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय। वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु लक्ष्मश्रिये मृदुपदेपशुपाग्ङजाय।। श्रीमद्भागवत 10/14/01