चरणपहाड़ी

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चरणपहाड़ी / Charanpahari

नन्दगाँव के पश्चिम में चरणपहाड़ी स्थित है। कृष्ण ने यहाँ लाखों गायों को एकत्रित करने के लिए गोचारण के समय इस पहाड़ी के ऊपर वंशी वादन किया था। वंशी के करुण और मधुर स्वर से यह पहाड़ी गल गई तथा कृष्ण के श्रीचरणों के चिन्ह यहाँ पर अंकित हो गये। परमभक्त अक्रूर जब कंस के आदेश से कृष्ण और बलराम को ले जाने के लिए मथुरा से नन्दगांव आ रहे थे, तब नन्दगाँव के निकट पहुँचने पर यहाँ पहाड़ी के ऊपर तथा आस-पास सर्वत्र ही रेती में कृष्ण के चरणचिह्न का दर्शन हुआ था। वे इन चरणों में लोट–पोट कर भाव विह्वल होकर रोदन करने लगे। आज भी भक्तलोग श्रीकृष्ण के चरण–चिह्न को देखकर भाविह्वल हो जाते हैं।

गायों का खूँटा

चरणपहाड़ी के निकट ही रोहिणीकुण्ड, मोहिनीकुण्ड तथा खेत में गायों के बाँधने के खूँटे (पत्थरों के खूँटे दर्शनीय हैं) यहाँ नन्दबाबा की गोशाला थी, जिसमें गायों को बाँधा जाता था। आज भी ब्रजवासी महिलाएँ किसी विशेष दिन में खूँटों का पूजन करती हैं।

वृन्दादेवी

चरणपहाड़ी से थोड़ी दूर उत्तरदिशा में वृन्दाजी का कुञ्ज है। श्रीकृष्ण की प्रकटलीला के समय वृन्दादेवी यहाँ निवास करती थीं। यहीं से वे संकेत आदि कुञ्जों में दोनों का मिलन कराती थीं। कभी-कभी योगमाया पूर्णिमा देवी से परामर्श कर उनके आदेश से विविध युक्तियों से राधा-कृष्ण युगल का मिलन कराकर आनन्दित होती थीं। यहाँ पर वृन्दादेवी का कुण्ड भी है। जहाँ वे स्नान आदि करती थीं। ये विचि़त्र वस्त्रों को धारण करने वाली, नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत राधाकृष्ण की कुञ्ज–लीलाओं की अधिष्ठातृ वनदेवी हैं। वृन्दादेवी की कृपा के बिना राधाकृष्ण लीलाओं में प्रवेश करना असम्भव हैं। इन्हीं मूल वृन्दादेवी का अर्चावतार तुलसी जी हैं, जिनके पत्तों और मज्जरियों के बिना कृष्ण कोई भी नैवेद्य ग्रहण नहीं करते हैं। इसी के पास पूर्व में चौडोखर है, जिसे चरणकुण्ड भी कहते हैं। इसी के निकट रोहिणी कुण्ड, मोहिनी कुण्ड, गायों का खूँटा गाढ़ने का स्थान, गायों का खिड़क और दोहनी कुण्ड हैं।

पावनसरोवर

यह सरोवर नन्दगाँव से उत्तर में नन्दीश्वर पर्वत से उतर कर काम्यवन जाने के राजमार्ग के बगल में है। इस सरोवर में स्नान करने के पश्चात पर्वत के ऊपर नन्द, यशोदा आदि के दर्शन करने का नियम है कहते हैं विशाखा सखी के पिता पावन गोप ने इस सरोवर का नाम पावसरोवर हुआ है। सखाओं के साथ गोचारण से लौटते समय कृष्ण गायों को इस सरोवर में प्रवेश कराते, चीहुँ-चीहुँ कहकर उन्हें पानी पिलाते तथा तीरी–तीरी कहकर पुन:उन्हें तट पर बुलाते। इस प्रकार गायों को जल पिलाकर सन्तुष्ट कर उनके ठहरने के स्थान खिड़क में पहुँचाकर अपने–अपने घरों को लौटते थे। ब्रजवासी पावन सरोवर के निर्मल और सुगन्धित जल में स्नान करते थे। कृष्ण भी सखाओं के साथ इस सरोवर में स्नान और जल क्रीड़ा करते थे। सुदूर अन्य तट पर सहेलियों के साथ राधिकाजी भी स्नान और जलकेलि करती थीं। कभी कृष्ण अपने तट से डूबकर मगर की भाँति सखियों के घाट पर पहुँचकर सखियों के पैरों को पकड़ लेते तथा क्रीड़ा विलास करते थे। महाराज वृषभानु ने अपनी बेटी राधिका के लिए पावन सरोवर के उत्तरी तट पर एक सुन्दर महल का निर्माण कराया था, जिसमें समय–समय पर राधिका अपनी सहेलियों के साथ विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करती। एवं प्रियतम श्रीकृष्ण का सहज ही यहाँ से दर्शन करतीं।

भजन कुटी

सरोवर के दक्षिण–पूर्वी तट पर श्रीमान चैतन्य महाप्रभु के परिकर श्री सनातन गोस्वामीजी की भजन–कुटी है। नन्दगाँव की मधुर लीलाओं की स्मृति के लिए कभी–कभी वे यहाँ पावन सरोवर के तट पर भजन करते थे। यहीं से वे कभी–कभी कदम्बटेर के निकट श्री रूप गोस्वामीजी की भजनकुटी में सत्संग के लिए जाया करते थे। श्री रूप गोस्वामी भी यहाँ सनातन गोस्वामी के पास आते। अभी तक भजनकुटी में श्रीसनातन गोस्वामी की परम्परा में बहुत गौड़ीय भक्तगण इसमें भजन करते आ रहे हैं।


एक समय सनातन गोस्वामी कृष्ण विरह में अत्यन्त कातर होकर वन के भीतर इसी स्थान पर तीन दिन तक बिना खाये पीये कृष्ण दर्शन के लिए तड़प–तड़प कर रो रहे थे। उस समय यहाँ उनकी भजनकुटी नहीं थीं। उस समय श्रीकृष्ण एक ग्वाल–बाल का रूप धारण कर एक मटकी में दूध लेकर सनातन गोस्वामी के पास पहुँचे और बोले– तुम भूखे प्यासे यहाँ क्यों पड़े हो? यहाँ कोई भी भूखा–प्यासा नहीं रहता। मेरी मैया ने भूखा–प्यासा देखकर तुम्हें देने के लिए यह दूध की मटकी भेजी है, तुम इस दुग्ध का अवश्य ही पान कर लेना, मैं बाद में आकर इस मटकी को ले जाऊँगा। देखो! मेरी मैया ने यह भी कहा है कि तुम्हें यहाँ कुटी बनाकर रहना चाहिए। तुम्हें जंगल में इस प्रकार पड़ा देखकर ब्रजवासियों को दुख होता है। ऐसा कहकर वह बालक चला गया। उसके चले जाने के पश्चात सनातन गोस्वामी ने जब दूध पान किया तो वे कृष्ण प्रेम में अधीर हो उठे तथा हा कृष्ण! हा कृष्ण! मुझे दर्शन देकर भी वंचित कर दिया। इस प्रकार विलाप करने लगे। कृष्ण ने अलक्षित रूप में उन्हें सांत्वना देकर किसी ब्रजवासी के द्वारा उसी स्थान पर भजन कुटी बनवा दी। वे वहीं रहकर भजन कुटी में भजन करने लगे। पास ही पावनबिहारी का दर्शन है, जहाँ गाँव के ब्रजवासी पावन सरोवर में प्रात:काल स्नानकर उनका दर्शन करते हैं।

श्रीवल्लभाचार्य जी की बैठक

इसी के पास में उत्तरी तट पर श्रीवल्लभाचार्य जी की बैठक है। जहाँ उन्होंने एक माह तक श्रीमद्भागत का पारायण किया था। पावन सरोवर के पश्चिम में कदम्ब खण्डी है। यहाँ पर कदम्ब वृक्षों की शोभा अपूर्व है। यहाँ भँवरे कदम्ब पुष्पों के मकरन्द का पान कर चारों ओर मत्त होकर झंकार करते हैं। यह कदम्बखण्डी श्रीबलदेवजी की विशेष प्यारी है, वे यहाँ पर छोटे भैया कृष्ण और सखाओं के साथ विविध–प्रकार की क्रीड़ायें करते हैं। यह अनूठी कदम्ब खण्डी कृष्ण और दाऊजी की विविध क्रीड़ाओं की स्फूर्ति कराती हैं। यहाँ पर अनेकानेक साधु आज भी भजन करते हैं।

तडाग तीर्थ अथवा खुन्नाहार कुण्ड

यह पावन सरोवर के निकट उत्तर–पूर्व में स्थित श्रीपर्जन्यगोप की आराधना स्थली है। देवर्षि नारद से लक्ष्मी नारायण मन्त्र में दीक्षित होकर यहीं पर उन्होंने अन्नजल परित्याग कर कठोर रूप में आराधना की थी। वे त्रिसन्ध्या इस सरोवर में स्नान कर देवार्चन करते हुए अपने गुरु–प्रदत्त मन्त्र का जप करते थे। कुछ दिनों के बाद उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी– हे पर्जन्य! तुम्हारे सर्वगुण सम्पन्न पाँच पुत्र होंगे। उनमें से मध्यमपुत्र नन्द के पुत्र के रूप में स्वयं भगवान श्रीहरि जन्म ग्रहण करेगें। वे असुरों का ध्वंस कर विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करेंगे। पर्जन्य के अन्नजल त्यागकर आराधना करने के कारण इस कुण्ड का नाम खुन्नाहार कुण्ड भी है। खुन्नाहार का तात्पर्य ही अन्नजल त्याग से है।

धोवनीकुण्ड

नन्दगाँव के उत्तर–पश्चिम कोण में नन्दीश्वर पर्वत के नीचे तथा पावन सरोवर के कुछ निकट ही यह कुण्ड स्थित है। दूध दही के बर्तन उसमें धोये जाते थे, इसलिए इसका नाम धोवनीकुण्ड हुआ।

मोती या मुक्ता कुण्ड

नन्दीश्वर तड़ाग के उत्तर में लगभग एक मील पर मुक्ता कुण्ड अवस्थित है। करील और पीलू के वृक्षों से परिवेष्टित बहुत ही रमणीय स्थान है। कृष्ण गोचारण के समय सखाओं के साथ इस कुण्ड में गायों को जल पिलाकर स्वयं भी जलपान कर विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे। किसी समय कृष्ण ने यहाँ पर मुक्ताओं की खेतीकर प्रचुर रूप में मुक्ताएँ पैदा की थीं।

प्रसंग

जब कृष्ण ने पौगण्ड अवस्था को पारकर किशोर अवस्था में प्रवेश किया, उस समय यशोदा मैया कृष्ण की सगाई के लिए चिंता करने लगीं। उनको वृषभानु महाराज की कन्या सर्वगुणसम्पन्न किशोरी राधिका बड़ी पसन्द थी। यह बात कीर्तिका जी को मालूम हुई। उन्होंने अपने पति वृषभानु जी से कहकर विविध प्रकार के कपड़े-लत्ते, अलंकार, प्रचुर मुक्ताओं को एक डलिया में भरकर नन्दभवन में सगाई के लिए भेजा। ब्रजराज नन्द एवं ब्रजरानी यशोदा इसे देखकर बड़े प्रसन्न हुए, किन्तु सिर पर हाथ रखकर यह सोचने लगे कि हमें भी बरसाना में इसके बदले सगाई के लिए इससे भी अधिक मुक्ताएँ भेजनी पड़ेगीं। किन्तु घर में इतनी मुक्तएँ नहीं हैं। इस प्रकार बहुत चिन्तित देख कृष्ण जी ने चिन्ता का कारण पूछा। मैया ने अपनी चिन्ता का कारण बतलाया। कृष्ण ने कहा कोई चिन्ता की बात नहीं। मैं शीघ्र ही इसकी व्यवस्था करता हूँ। इसके पश्चात कृष्ण ने अवसर पाकर उन मुक्ताओं को चुरा लिया और इसी कुण्ड पर मिट्टी खोदकर उनको बो दिया। गायों के दूध से प्रतिदिन उन्हें सींचने लगे। इधर नन्दबाबा और मैया यशोदा मुक्ताओं को न देखकर और भी चिन्तित हो गये। उन्होंने कृष्ण से मुक्ताओं के सम्बन्ध में पूछा। कृष्ण ने कहा- ­ हाँ! मैंने उन मुक्ताओं की खेती की है। और उससे प्रचुर मुक्ताएँ निकलेंगी। ऐसा सुनकर बाबा और मैया ने कहा– अरे लाला! कहीं मुक्तओं की भी खेती होती हैं। कृष्ण ने मुस्कराकर कहा- हाँ, जब मेरी मुक्ताएँ फलेगीं तो तुम लोग देखना। बड़े आश्चर्य की बात हुई। कुछ ही दिनों में मुक्ताएँ अंकुरित हुई और उनसे हरे भरे पौधे निकल आये। देखते ही देखते कुछ ही दिनों में उन पौधों में फल लग गये। अनन्तर उन फलों के पुष्ट और पक जाने पर उनमें से अलौकिक प्रभा सम्पन्न उज्जवल दिव्य लावण्ययुक्त मुक्ताएँ निकलने लगीं। अब तो मुक्ताओं के ढेर लग गये। कृष्ण ने प्रचुर मुक्ताएँ मैया को दीं। फिर तो मैया ने बड़ी-बड़ी सुन्दर 3-4 डलियाँ भरकर मुक्ता, स्वर्णालंकार और वस्त्र बरसाने में राधाजी की सगाई के उपलक्ष्य में भेज दिये। इधर राधिका जी एवं उनकी सखियों को यह पता चला कि श्रीकृष्ण ने मुक्ताओं की खेती की है और उससे प्रचुर मुक्ताएँ पैदा हो रही हैं तो उन्होंने कृष्ण से कुछ मुक्ताएँ माँगीं। किन्तु कृष्ण ने कोरा उत्तर दिया कि जब मैं मुक्ताओं को सींचने के लिए तुमसे दूध माँगता था, तब तो तुम दूध देने से मना कर देती थीं। मैं अपनी गऊओं को इन मुक्ताओं के अलंकार से सजाऊँगा, किन्तु तुम्हें मुक्ताएँ नहीं दूँगा। इस पर गोपियों ने चिढ़कर एक दूसरी जगह अपने-अपने घरों से मुक्ताओं की चोरी कर ज़मीन खोदकर उन मुक्ताओं को बीज के रूप में बो दिया। फिर बहुत दिनों तक गऊओं क दूध से उन्हें सींचा। वे अंकुरित तो हुई, किन्तु उनसे मुक्ता-वृक्ष न होकर बिना फलवाले काटों से भरे हुए पौधे निकले। गोपियों ने निराश होकर पुन: कृष्ण के पास जाकर सारा वृत्तान्त सुनाया। कृष्ण ने मुस्कराकर कहा- चलो! मैं स्वयं जाकर तुम्हारे मुक्ता वाले खेत को देखूँगा। कृष्ण ने वहाँ आकर पुन: सारे मुक्ता के पौधों को उखाड़कर उसमें पुन: अपने पुष्ट मुक्ताओं को बो दिया और उसके गायों के दूध से सींचा। कुछ ही दिनां में उनमें भी मुक्ताएँ लगने लगीं। यह देखकर गोपियाँ भी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं।

फुलवारी कुण्ड

मुक्ता कुण्ड के पास ही फुलवारी कुण्ड घने कदम्ब के वृक्षों के बीच में स्थित है।

प्रसंग

कभी श्री राधा जी सखियों के साथ यहाँ पुष्प चयन कर रही थीं। अकस्मात कृष्ण ने आकर कहा- तुम कौन हो? प्रतिदिन मेरे बगीचे के पुष्पों की चोरी करती हो। इतना सुनते ही राधिका जी ने डपटते हुए उत्तर दिया- मुझे नहीं जानते, मैं कौन हूँ? यह सुनते ही कृष्ण अपने अधरों पर मुरली रखकर बजाते हुए अपने मधुर कटाक्षों से राधा जी की तरफ देखकर चलते बने। कृष्ण को जाते देखकर राधिका जी विरह में कातर होकर मूर्च्छित हो गई। ललिता जी ने सोचा इसे किसी काले भुजंग ने डँस लिया है। बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी जब वे चैतन्य नहीं हुई, तो सभी सखियाँ बहुत चिन्तित हो गईं। इतने में कृष्ण ने ही सपेरे के वेश में अपने मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उन्हें झाड़ा तथा राधिका जी के कान में बोले- 'मैं आय गयो, देखो तो सही। यह सुनना था कि राधिकाजी तुरन्त उठकर बैठ गयीं तथा कृष्ण को पास ही देखकर मुस्कराने लगीं। फिर तो सखियों में आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ा। यह लीला यहीं हुई थीं।

साहसी कुण्ड

फुलवारी कुण्ड से थोड़ी ही दूर पूर्व दिशा में विलास वट और उसके पूर्व में साहसी कुण्ड है। यहाँ सखियाँ राधिका जी को ढाढ़स बँधाती हुई उनका कृष्ण से मिलन कराती थीं। पास ही वटवृक्ष पर सुन्दर झूला डालकर सखियाँ श्रीराधा और कृष्ण को मल्हार आदि रागों में गायन करती हुई झुलाती थीं। कभी-कभी कृष्ण यहाँ राधिका के साथ मिलने के लिए अभिसार कर उनके साथ विलास भी करते थे। इस साहसी कुण्ड का नामान्तर सारसी कुण्ड भी है। कृष्ण और बलदेव सदैव एक साथ रहते, एक साथ खाते, एक साथ खेलते और एक साथ सोते भी थे। एक समय यहाँ पर दोनों भाई खेल रहे थे। यशोदा मैया दोनों को ढूँढ़ती हुई यहाँ आई और बड़े प्यार से उन दोनों को सारस का जोड़ा कहकर सम्बोधन किया। तब से इस कुण्ड का नाम सारस कुण्ड हो गया। इसके पास ही अगल बगल में श्यामपीपरी कुण्ड, बट कदम्ब और क्यारी बट कुण्ड आदि बहुत से कुण्ड हैं। यहाँ वट वृक्षों की क्यारी थी।

टेर कदम्ब (रासमण्डल वेदी)

नन्दगांव और जावट ग्राम के ठीक बीच में टेर कदम्ब स्थित हैं। रासस्थली होने के कारण यहाँ रास मण्डलवेदी भी हैं। कृष्ण गोचारण के समय तृतीय प्रहर में इस कदम्ब वृक्ष के ऊपर चढ़कर अपनी मुरली के द्वारा श्यामली, धौली, पिताम्बरी, कालिन्दी आदि प्रिय गायों को टेरते अर्थात पुकारते थे। उनकी बंशी की टेर को सुनकर सारी गायें झट से वहाँ उपस्थित हो जाती थीं। कृष्ण अपनी मणिमाला के ऊपर उनकी संख्या गिनते थे। दो एक बाक़ी रहने पर पुन: उन गायों का नाम लेकर पुकराते। इस प्रकार जब सारी गायें एकत्रित हो जातीं, तब उन्हें लेकर निवास स्थल की ओर लौटते। कभी-कभी पूर्णिमा के छिटकते हुए प्रकाशपूर्ण रात्रिकाल में यहाँ स्थित कदम्बवृक्ष के ऊपर चढ़कर बंशी द्वारा सखियों का नाम ले लेकर पुकारते और वे सारी गोपियाँ तन, मन एवं संसार की सुध-बुध खोकर मन्त्रमुग्ध हो यहाँ पर मिलती। तथा उनका कृष्ण के साथ नृत्य-गीत से परिपूर्ण रासविलास सम्पन्न होता इसलिए भी इस स्थल को कदम्ब टेर कहते हैं। यहाँ पर बहुत से कदम्ब के वृक्ष थे, किन्तु वर्षा का पानी भरा रहने के कारण सारे कदम्ब अन्तर्धान हो गये हैं। समय-समय पर यहाँ पर भजन करने वाले सन्त महात्मा लोग यहाँ कदम्ब के वृक्ष लगाते आये हैं। गोपाष्टमी के दिन ब्रजवासी कृष्ण बलदेव को नन्दगाँव से यहाँ पधराते हैं। तथा यहाँ पर समाज नामक गायन होता हैं। गायों का पूजन और उन्हें घास, गुड़ आदि खिलाने का बहुत ही सुन्दर कार्यक्रम होता है। कदम्ब टेर से सटी हुई पश्चिम में श्रीरूप गोस्वामी की भजनकुटी स्थित है।