निम्बार्क संप्रदाय

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निम्बार्क संप्रदाय / Nimbark Sect

ध्रुव टीला पर निम्बार्क संप्रदाय का प्राचीन मन्दिर बताया जाता है। निम्बार्क का अर्थ है- नीम पर सूर्य। इस संप्रदाय के संस्थापक भास्कराचार्य एक सन्यासी थे। उन्हें एक बैरागी को भोजनार्थ आमन्त्रित किया। भोजन की सब तैयारी हो गई थी। किन्तु बैरागी को आने में देर हो गई। सूर्य छिपने तक आचार्य अतिथि को बुलाने न पहुँच सके। वह पवित्र व्यक्ति अपने सिद्धान्तानुसार दिन में ही भोजन प्राप्त करता था। आचार्य को लगा कि वह सूर्यास्त के बाद आयँगे ही नहीं। आतिथेय की प्रार्थना पर सूर्य नारायण नीम के पेड़ पर उतर आये और तब तक चमकते रहे, जब तक कि दोनों ही खाना खाते रहे। तब से उस सन्त का नाम निम्बार्क या निम्बार्काचार्य पड़ गया।

अन्य नाम

इस संप्रदाय को 'हंस संप्रदाय', 'देवर्षि संप्रदाय', अथवा 'सनकादि संप्रदाय' भी कहा जाता है। मान्यता है कि सनकादि ऋषियों ने भगवान के हंसावतार से ब्रह्म ज्ञान की निगूढ़ शिक्षा ग्रहण करके उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। इसके ऐतिहासिक प्रतिनिधि हुए निम्बार्काचार्य इससे यह निम्बार्क संप्रदाय कहलाता है।

संप्रदाय का सिद्धान्त

इस संप्रदाय का सिद्धान्त 'द्वैताद्वैतवाद' कहलाता है। इसी को 'भेदाभेदवाद' भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं। इस प्राचीन सिद्धान्त को 'द्वैताद्वैत' के नाम से पुन: स्थापित करने का श्रेय निम्बार्काचार्य को जाता है। उन्होंने-

  • वेदान्त पारिजात-सौरभ,
  • वेदान्त-कागधेनु,
  • रहस्य षोडसी,
  • प्रपन्न कल्पवल्ली और
  • कृष्ण स्तोत्र नामक ग्रंथों की रचना भी की थी। वेदान्त पारिजात सौरभ ब्रह्मसूत्र पर निम्बार्काचार्य द्वारा लिखी गई टीका है। इसमें वेदान्त सूत्रों की सक्षिप्त व्याख्या द्वारा द्वैता-द्वैतव सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

द्वैताद्वैत सिद्धान्त

इसके अनुसार ब्रह्म जीव से भिन्न भी है और अभिन्न भी। ब्रह्म सर्वज्ञ, विभु (व्यापक) और अच्युत स्वभाव है। जीव अल्पज्ञ और अणु है। इसे अर्थ में ब्रह्म जीव से भिन्न है। किन्तु जैसे पत्ते, प्रभा तथा इन्द्रियाँ पृथक् स्थिति रखते हुए भी क्रमश: वृक्ष, दीपक और प्राण से अभिन्न हैं, उसी प्रकार जीव भी ब्रह्म से अभिन्न है। ब्रह्म और जीव की यह अभिन्नता-भिन्नता ही द्वैताद्वैत सिद्धान्त का मूल तत्व है।

उपास्य देव

इस संप्रदाय के परमाराध्य और परमोपास्य युगल रूप श्री राधाकृष्ण हैं। श्री कृष्ण सर्वेश्वर है और राधा सर्वेश्वरी। श्री कृष्ण आनन्द स्वरूप है और राधा आल्हाद-स्वरूपिणी। राधा का स्वरूप श्रीकृष्ण के स्वरूप के सर्वथा अनुरूप माना गया है। धर्मोपासना में राधा की यह महत्ता निम्बार्क संप्रदाय में ही प्रथम बार स्वीकृति हुई थी। श्री निम्बार्काचार्य के दशश्लोकी के प्रसिद्ध श्लोक में राधा के इसी महत्तम स्वरूप का स्मरण किया गया है-
अंगे तु वामे वृषभानुजा मुदा विराजमाना मनुरूपसौभगा।
सख्यै सहस्त्रै: परिसेवितां सदा, स्मरेमि देवीं सकलेष्ट कामदां॥
इस संप्रदाय में राधाकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक सर्वेश्वर शालिग्राम की प्रमुख रूप से सेवा पूजा होती है। इस संप्रदाय का प्रमुख केन्द्र राजस्थान का सलेमाबाद है। मथुरा के ध्रुव टीला और नारद टीला नामक प्राचीन स्थलों पर इस संप्रदाय के मन्दिर और आचार्यों की समाधियाँ है। वृन्दावन इसका केन्द है।


एफ0एस0ग्राउस ने लिखा है कि बाटी में उन्हें इसी संप्रदाय का एक बैरागी मिला था, जिसका नाम गोवर्धनदास था। उसे श्रीमद्भागवतगीता कंठस्थ थी। उसने बताया था कि संप्रदाय की प्रमुख गद्दी जोधपुर में सलेमावाद में थी, जहाँ के गुसाईं के पास संप्रदाय के ग्रंथों का पुस्तकालय था। ग्रंथ थे सिद्धान्त रत्नांजलि, गिरिब्रज रत्नमाला , सेतुका, जान्हवी और रत्न मंजूषा। वह ग्रंथों के लेखकों के नाम नहीं बता सका और न वह सिद्धान्तों की व्याख्या बता सका। कोकिला वन के रामदास पंडित का जोर इस एक बिन्दु पर था कि जो भी दृश्य-मान जगत है, वह सृष्टा की छाया मात्र है और इसलिये स्वतन्त्र अस्तित्व से वंचित एवं नि:सार होते हुए भी वह सत्य है। यह इन पंक्तियों से प्रमाणित होता है-

सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र मंडल, पर्वत और मैदान,
हे आत्मन्, क्या ये सब उसका दर्शन नहीं है
जो शास्ता है ? क्या वह दृश्य नहीं है ?
यद्यपि जैसा वह प्रतीत होता है वह न हो।
स्वप्न सत्य हैं जब तक वे अस्तित्व में रहते हैं
और क्या हम स्वप्नों में नहीं जीते ?
हममें जो देखने की शक्ति है, वह तालाब में
डूबी हुई एक सीधी लकड़ी है।