रूपगोस्वामी के मुख्य ग्रन्थ

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रूपगोस्वामी के मुख्य-मुख्य ग्रन्थों का परिचय

हंसदूत

हम लिख चुके हैं कि हंसदूत की रचना रूप गोस्वामी के श्रीचैतन्य से साक्षात के पूर्व की गयी। यह इस बात से भी सिद्ध है कि इसके मंगलाचरण में श्रीचैतन्य की नमष्क्रिया नहीं है और इसमें सनातन गोस्वामी के सम्बन्ध में 'साकरतया' शब्द का प्रयोग किया गया है, जो श्रीचैतन्य से साक्षात के पूर्व उनकी 'साकरमल्लिक' उपाधि को सूचित करता है। यह एक श्रेष्ठ वैष्णव प्रेमकाव्य है। इसकी विषय वस्तु इस प्रकार है। श्रीकृष्ण के मथुरा जाने पर राधा विरहाग्नि शांत करने के उद्देश्य से यमुना तट पर गयीं। तटवर्ती कुञ्जों को देख कृष्ण-स्मृति जाग पड़ी। विरह-वेदना और भी तीव्र हो गयी। शोकाकुलता के कारण वे मूर्च्छित हो गयीं। सखियों ने पद्म पत्र रचित शय्या पर उन्हें शयन करा दिया और नाना प्रकार से प्राण रक्षा के लिये चेष्टा करने लगी। ललिता ने उसी समय यमुना के घाट पर एक हंस देखा। उसे दूत बनाकर कृष्ण के पास भेज राधा का सब हाल कहलाने का संकल्प किया। राधा की अवस्था के बारे में जो-जो कहना था उसका विस्तार से हृदय-स्पर्शी वर्णन किया। साथ ही मथुरा जाते समय मार्ग में जो-जो लीला स्थलियाँ पड़ती हैं और मथुरा पहुँचकर वहाँ के ऐश्वर्य और सौंदर्य की जो झांकी देखने में आती है, उसका सुन्दर वर्णन किया। अन्त में राधा की विरह-दशा का वर्णन कर कृष्ण को वृन्दावन आने की प्रेरणा देने को कहा।

142 श्लोकों के इस प्रेम-काव्य में रूपगोस्वामी ने अपनी कवि-प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। इसकी गोपाल चक्रवर्ती कृत्त एक प्राचीन टीका कृष्णदास बाबा ने प्रकाशित की है।

उद्धव सन्देश

हंसदूत में जिस प्रकार ललिता हंस को दूत बनाकर, कृष्ण के पास सन्देश भेजती है कृष्ण के विरह में उनकी दशा का वर्णन करने, उसी प्रकार उद्धव सन्देश में श्रीकृष्ण उद्धव को दूत बनाकर भेजते हैं। राधा और अन्य गोपियों के पास, उनके विरह में अपनी दशा का वर्णन करने। वे उद्धव से कहते हैं कि मथुरा में सब प्रकार के सुख होते हुए भी वे वृन्दावन और वहाँ की गोपिकाओं को नहीं भूले हैं, उनके प्राण सदा वृन्दावन में ही रहते हैं। वे उद्धव को यह भी उपदेश करते हैं कि उन्हें किस प्रकार वृन्दावन जाकर उनके सखाओं को प्रेम से आलिंगन करना होगा, नन्द-यशोदा को प्रणाम करना होगा, गोपियों को सान्त्वना देनी होगी और राधिका को वैजयन्ती माला का स्पर्श करा सचेत करना होगा।

विद्वानों का मत है कि 'हंसदूत की अपेक्षा उद्धव-सन्देश की भाषा और अलंकार का अपूर्वत्व अधिक चित्तग्राही है। इसका प्रत्येक श्लोक सुमधुर रस और सुगंभीर भाव से परिपूर्ण है। आवेग की आन्तरिकता और कारूण्य प्रकाश की विस्मयकारिता की दृष्टि से इसका दूतकाव्य में उल्लेखनीय स्थान है'

अष्टादश लीला छन्द—इसके अन्तर्गत निम्नलिखित 18 स्तव हैं:

(1) नन्दोत्सवादिचरित

(2) शकट तृणावर्तभंगादि

(3) यमलार्जुन भञ्जन

(4) वृन्दावन गोवत्सचारणादि लीला

(5) वत्सहरणादि चरित

(6) तालवन चरित

(7) कालीय-दमन

(8) भाण्डीर क्रीड़नादि

(9) वर्षाशरद्विहार चरित

(10) वस्त्रहरण

(11) यज्ञपत्नी प्रसाद

(12) गो-वर्द्धनोद्धरण

(13) नन्दापहरण

(14) रासक्रीड़ा

(15) सुदर्शनादि मोचनं शंकचूड़निधनञ्च

(16) गोपिकागीत

(17) अरिष्टवधादि

(18) रंग-स्थल क्रीड़ा।

स्तव माला

रूपगोस्वामी के बहुत से फुटकर स्तवों को एकत्र कर जीव गोस्वामी ने उन्हें स्तवमाला का नाम दिया है। इसमें उन्होंने क्रम से श्रीचैतन्यदेव, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, राधाकृष्ण (युगल) के स्तव पहले दिये हैं। उसके पश्चात विरूदावली, नाना प्रकार के छन्दों में नन्दोत्सव से लेकर कंस वध तक की लीलाएं, चक्रबन्धादिचित्रकाव्य, गीतावली[१]

और अन्त में क्रम से ललिता, यमुना, मथुरापुरी, गोवर्धन, वृन्दावन और कृष्ण नाम की स्तव-पद्धति का संग्रह किया है। इस स्तव-स्तोत्रों में गोविन्द विरूदावली भक्तजनों को बहुत प्रिय हैं। इसके शब्द विन्यास, कला कौशल और अनुप्रास-झंकार सहज ही मन-प्राण खींच लेते हैं। पर गीतावली भी कुछ कम आकर्षक नहीं है। इसकी ध्वनि-झंकार जयदेव के गीत गोविन्द के समान है। पर राधाकृष्ण के विविध लीला-विलास की परिकल्पना रूप की अपनी है।

विदग्ध माधव

विदग्ध माधव नाटक की रचना रूप गोस्वामी ने भगवान शंकर के स्वप्नादेश से की, ऐसा उन्होंने नाटक में सूत्रधार के मुख से कहलाया है। हम पहले कह चुके हैं कि रूप गोस्वामी का विचार विदग्ध-माधव और ललित-माधव की विषय-वस्तु को लेकर एक नाटक की रचना करने का था, पर सत्यभामा के स्वप्नादेश और महाप्रभु की आज्ञा से उन्हें इन दोनों नाटकों को पृथक् करना पड़ा। 'विदग्ध' शब्द का अर्थ रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत सिन्धु में लिखा है- 'कलाविलास विदग्धात्मा' (2।9)। इस नाटक में माधव के लीला विलास कौशल का वर्णन है, इसलिये इसका नाम रखा है विदग्ध-माधव। नाटक का मुख्य विषय है राधा-कृष्ण का सम्मिलन। पर विरह रस का भी इसमें मर्मस्पर्शी वर्णन है। ललिता और विशाखा राधा की दूती रूप में श्रीकृष्ण से राधा का प्रेम निवेदन करती हैं। श्रीकृष्ण भीतर से प्रसन्न होते हुए भी बाहर से राधा के प्रति उपेक्षा का भाव प्रदर्शित करते हैं। राधा व्यथित हो कृष्ण-विरह में प्राण त्याग देने की इच्छा प्रकट करती हैं। राधा की दशा देख विशाखा रोने लगती है। तब राधा कहती हैं- हे सखि! 'कृष्ण ने यदि मेरे प्रति निर्दयता की, तो इसमें तुम्हारा क्या अपराध? वृथा रोदन न करो। (मैं जैसे कहूँ वैसे करो) मैं मर जाऊं तो तमाल वृक्ष की शाखा से मेरी भुजाओं को बांध दो, जिससे (कृष्ण के समान काले रंग वाले) तमाल के देह को आलिंगन कर मेरा देह चिरकाल वृन्दावन में अवस्थान करे।'

कृष्ण-विरह का मनोवैज्ञानिक स्वरूप वर्णन करते हुए देवी-पौर्णमासी नान्दीमुखी से कहती हैं-

"पीड़ाभिर्नवकालकूट-कटुता-गर्वस्य निर्वासनो

नि: स्यन्देन मुदां सुधामधुरिमाहंकार-संकोचन:।

प्रेमा सुन्दरि! नन्दनन्दन परो जागर्ति यस्यास्तरे

ज्ञायन्ते स्फुटमस्य वक्रमधुरास्तेनैव विक्रान्तय:॥"[२]

नाटक में राधा-कृष्ण के पूर्व राग से लेकर उनके संक्षिप्त, संकीर्ण और संभोग तक का वर्णन वेणुवादन, वेणुहरण, तीर्थ विहारादि घटनाओं के घात-प्रतिघात के साथ नाटकीय कौशल से किया गया है। सात अंकों में लिखा यह नाटक आदि से अन्त तक मधुर रस से परिपूर्ण है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इसकी टीका लिखी है। यदुनन्दन दास ठाकुर ने इसका पद्यानुवाद किया है, जिसका नाम है-

'राधाकृष्णलीलारसकदम्ब'।

ग्रन्थ का रचना-काल सन 1532-33 है, जैसा कि इसकी पुष्पिका से स्पष्ट है। ललित-माधव नाटक में रूप गोस्वामी ने स्वर्ग, मर्त, पाताल और सूर्यलोक की घटनाओं को एक सूत्र में दस अंकों में ग्रथित किया है। इसमें वृन्दावन, मथुरा, और द्वारका-लीला अपना-अपना पार्थक्य छोड़ एक के भीतर एक अन्तर्भुक्त हुई हैं। राधा के अतिरिक्त इसमें चन्द्रावली आदि गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की प्रेम-लीला का भी वर्णन है। 'ललित' शब्द का अर्थ भक्ति- रसामृतासिन्धु में किया है- वह नायक जो विदग्ध, नवयुवा और केलि-विषय में सुनिपुण और निश्चिन्त है। नाटक में श्रीकृष्ण के इस स्वभाव का ही वर्णन है। इसका रचना काल इसकी पुष्पिका के अनुसार सन 1537 है।

दान केलिकौमुदी

यह नाटक एक ही अंक में समाप्त किया गया है, इसलिए इसे 'भाणिका' कहते हैं। इसके अन्त में रूप गोस्वामी ने लिखा है कि उन्होंने किसी सुहृद के अभिप्राय से इसकी रचना की हैं। कहा जाता हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ललित-माधव पढ़कर उसमें वर्णित राधा की विरह-वेदना से इतना मर्माहता हुए थे कि उनके प्राणों पर आ बीती थी। उनका अन्तर्दाह प्रशमन करने के लिए ही रूप गोस्वामी ने हास-परिहासपूर्ण इस भाणिका की रचना कीं इसे पढ़कर वे स्वस्थ हुए।

भाणिका की आख्यान-कल्पना इस प्रकार है। राधा गुरुजनों के आदेश से सखियों सहित गोविन्दकुण्ड के यज्ञस्थल पर घृत विक्रय करने जा रही हैं। कृष्ण सखाओं समेत मानस गंगा के तट पर उपस्थित होकर उनका पथ रोक लेते हैं और उनके दान व शुल्क का दावा व्यक्त करते हैं। राधा और उनकी सखियाँ उनका दावा स्वीकार नहीं करतीं वाद-विवाद शुरू होता है। अनेक हास्य और मधुर रस पूर्ण तर्क-वितर्क के पश्चात पौर्णमासी की मध्यस्थता से वाद-विवाद समाप्त होता है। भाणिका की रचना सन 1549 में हुई।

भक्तिरसामृतसिन्धु

भक्ति रसामृत सिन्धु और उज्ज्वल नीलमणि रूप गोस्वामी के सर्व प्रभान रस-ग्रन्थ हैं। भक्ति रसामृत सिन्धु की रचना रूप गोस्वामी ने कई वर्षों में की। इसकी रचना में बहुत बड़ा हाथ सनातन गोस्वामी का भी है। इससे सम्बन्धित तत्व और सिद्धान्त की रूपरेखा उनके परामर्श से ही तैयार की गयी।<balloon title="सप्त गोस्वामी: पृ. 195" style="color:blue">*</balloon> इसमें भक्तिरस का जैसा गूढ़, सूक्ष्म, संयत, सर्वागीण, विद्वतापूर्ण और प्रामाणिक विवेचन है, वैसा अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं। इसकी प्रामाणिकता और विद्वत्तापूर्ण शैली का पता इस बात से चलता है कि इसमें महाभारत, रामायण, गीता, हरिवंश, श्रीमद्भागवत, अन्य पुराण और उपपुराण, रसशास्त्र काव्य-शास्त्रादि से 372 बार प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें भक्ति के स्वरूप, प्रकार, अन्तराय, सोपान, और प्रत्येक सोपान के लक्षणादि का वर्णन कर प्रथम बार उसका सर्वांगीण, वैज्ञानिक निरूपण किया गया है। पुष्पिका के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना सन 1549 में हुई है।

उज्ज्वलनीलमणि

उज्ज्वलनीलमणि भक्तिरसामृतसिन्धु का परिशिष्ट है। परिशिष्ट होते हुए भी यह गौड़ीय वैष्णव साहित्य का मुकुटमणि है। इसमें रूप गोस्वामी ने साधारण अलंकार शास्त्र की परिभाषा तो ग्रहण की है, पर यह साधारण अलंकार शास्त्र से बहुत भिन्न है। इसमें उन्होंने मधुरारति का मौलिक विश्लेषण किया है। प्रेमवस्तु का ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण और कहीं नहीं है। भक्तिरस के समुद्र का मन्थन कर रूप गोस्वामी ने उज्ज्वलनीलमणि-तुल्य मधुर या उज्ज्वल रस का आहरण किया है, इसलिए इसका नाम उज्ज्वलनीलमणि रखा है। उज्ज्वल रस अति गंभीर और रहस्यमय है। स्थूल बुद्धि के विषयानुरक्त व्यक्ति इसमें काम बुद्धि का आरोपण कर अपराध के भागी हो सकते हैं। इसलिए रूपगोस्वामी ने भक्तिरसामृतासिन्धु में इसका संक्षेप में वर्णन किया है और उज्ज्वलनीलमणि के रूप में पृथम ग्रन्थ की रचना कर उसमें इसका विस्तार से वर्णन किया है। उज्ज्वलनीलमणि के शेष में इसका रचना काल नहीं दिया है। पर इसमें भक्तिरसामृतसिन्धु उद्धत है और 1554 ई॰ में रचित वृहद-वैष्णव-तोषणी में उज्ज्वलनीलमणि उद्धत है। इसलिये यह निश्चित है कि इसकी रचना सनृ 1541 और सन् 1554 के बीच किसी समय हुई। इसकी तीन टीकाएं हैं- श्रीजीव गोस्वामी की 'लोचनरोचनी', श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती की 'आनन्द-चन्द्रिका' और कविराज गोस्वामी के शिष्य श्रीविष्णु दास गोस्वामी की 'स्वात्मप्रबोधिनी'।

मथुरा-महिमा

मथुरा-महिमा या मथुरा-माहात्म्य में रूप गोस्वामी ने प्राचीन शास्त्रों के आधार पर मथुरा तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन किया है।

नाटक-चन्द्रिका

नाटक चन्द्रिका में नाटक रचना सम्बन्धी नियमावली लिपी बद्ध की गयी है। पर भरत मुनी के मत से रूपगोस्वामी का मत भिन्न होने के कारण इसमें साहित्य-दर्पण का मत नहीं ग्रहण किया गया है।

पद्यावली

पद्यावली में रूपगोस्वामी ने 125 कवियों के 386 श्लोकों का संग्रह किया है। यह सभी श्लोक प्राय राधा-कृष्णलीला विषयक है।

लघुभागवतामृत

यह रूपगोस्वामी के अनुसार सनातन के वृहद्भागवतामृत का संक्षिप्त सार है। पर वास्तव में यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- श्रीकृष्णामृत और भक्तामृत। श्रीकृष्णामृत में श्रीरूप ने बहुविध शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध किया है कि कृष्ण स्वयं भगवान हैं और अन्य सभी भगवाद्स्व रूप श्रीकृष्ण के आंशिक अवतार हैं। वे श्रीकृष्ण के पुरुषावतार के प्रकाश मात्र हैं। कृष्णामृत में श्रीरूप ने नाना विधि शास्त्र-वाक्यों से यह भी सिद्ध किया है कि श्रीकृष्ण की लीला नित्य है, मथुरा मंडल में अब भी उनकी लीला हो रही है और कोई-कोई भाग्यवान जीव उसके दर्शन कर धन्य होते हैं। भक्तामृत में रूपगोस्वामी ने शास्त्र-प्रमाण के आधार पर भक्तों का श्रेणी-विभाग किया है। उन्होंने दिखाया है कि मार्कड डेयादि भक्तों से प्रह्लाद, प्रह्लाद से पाण्डवगण, पाण्डवगण से यादवगण, यादवगणों में उद्धव, उद्धव से व्रजगोपियाँ और व्रजगोपियों में राधा सबसे श्रेष्ठ हैं। इसमें उन्होंने महाभारत, पुराण, भागवत, तन्त्र, गीता, वेदान्त-सूत्र आदि के उद्धरणों को कौशलपूर्वक सन्निवेश कर अपने भक्ति-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इसे विद्वानों ने 'भक्ति-सिद्धान्त-शास्त्र का द्वारस्वरूप' कहा है।<balloon title="सप्त गोस्वामी: पृ. 195" style="color:blue">*</balloon>

उपदेशामृत

11 श्लोकों के इस ग्रन्थ में भजनशील व्यक्तियों के लिए रूप गोस्वामी के अमूल्य अपदेश है। श्रीभक्तिविनोद ठाकुर महाशय ने इसे श्रद्धा भक्ति के पथ के पथिकों के लिए एक आलोक–स्तम्भ के समान जान इस पर पीयूष वर्षिणी टीका लिखी है और इसका 'सुललित त्रिपदी' छन्द में पद्मानुवाद कर इसे सर्वसाधारण के लिए और भी उपयोगी बनाया है।

गोविन्द विरूदावली

यह अति सुन्दर अनुप्रास-अलंकार युक्त भाषा में अपनी झंकार से ही गोविन्द को प्रसन्न कर देने वाली गोविन्द की स्तुति है। इसके पीछे एक मनोहर किवदंती है। एक बार एक अनपढ़ चारण ने किसी अन्य देवता की स्तुति का गोविन्द जी के सम्मुख बड़े भाव से गान किया। स्तुति अनुप्रास भरी डिंगल भाषा में थी। गोविन्द उसे सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। स्तुति के समाप्त होने पर उनकी माला गले से खिसक पड़ी। इसे गोविन्द की प्रसन्नता का सूचक जान रूपगोस्वामी ने माला गोविन्द के प्रसाद रूप में चारण को दे दी। चारण के चले जाने पर उन्होंने गोविन्द देव से कहा- 'प्रभु चारण तो किसी अन्य देवता की स्तुति सुना रहा था। आप कैसे उस पर रीझ गये?'

गोविन्द ने उत्तर दिया- 'स्तुति अन्य देवता की थी तो क्या? सुना तो मुझे रहा था। इसी प्रकार मेरी स्तुति की रचना तुम करो।' तब रूप गोस्वामी ने इस विरूदावली की रचना की।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1) गीतावली को रसिक मोहन विद्या भूषण ने सनातन गोस्वामी की रचना कहा है (रूप-सनातन, शिक्षामृत, 2 य खण्ड, पृ. 448)। पर साधारण रूप से विद्वान इसे रूप की ही रचना मानते हैं। यह समझ में नहीं आता कि रूप गोस्वामी के पदों के संग्रह में जीव एक रचना सनातन गोस्वामी की क्यों जोड़ेंगे। "अकारूण्य: कृष्णो यदि मयि तवाग: कथमिदं मुधा मा रोदीर्म्मे कुरु परमिमाभुत्तर कृतिम्। तमालस्य स्कन्धे विनिहित भुजवर्ल्लाररियं यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठतितनु:॥
  2. -'सुन्दरी! श्रीनन्दनन्दन का प्रेम जिसके हृदय में उदित होता है, वही इसके वक्र-मधुर विक्रम को ठीक-ठीक जान सकता है। यह एक साथ पीड़ा और परमानन्द की सृष्टि करता है। इसकी पीड़ा सर्प शावक के विष का गर्व खण्डित करती है और इससे जो आनन्द धारा झरती है वह अमृत की मधुरिमा के अहंकार को भी संकुचित करती है।'