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सांख्य दर्शन
{{बौध्द दर्शन}}
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प्रथम परिच्छेद
==महायान के प्रमुख आचार्य==
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सांख्य दर्शन की प्राचीनता और परम्परा
==नागार्जुन==
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महाभारत शनति पर्व, अध्याय 301 में कहा गया है—
*ह्रेनसांग के अनुसार अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे।
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महाभारत में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूपवर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शनविशेष के लिए नहीं वरन् मोक्षहेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।<ref>एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत</ref> इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्यदर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है।
*राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन [[कनिष्क]] के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण भारत के विदर्भ प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन एवं तन्त्र आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।
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'सांख्य' शब्द का अर्थ
*प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने माध्यमिक दर्शन का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
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सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। कपिल दर्शन में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्यदर्शन कहा जाता है।
*अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतवर्ष में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उपनिषद-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, किन्तु उसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्राय: सभी बौद्ध-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।
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'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है। डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र लिखते हैं- ''ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक सगत् की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्त्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की गई।''<ref>वही</ref> लेकिन आचार्य उदयवीर शास्त्री गणनार्थक निष्पत्ति को युक्तिसंगत नहीं मानते ''क्योंकि अन्य दर्शनों में भी पदार्थों की नियत गणना करके उनका विवेचन किया गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं।''<ref>सां. द.ऐ.प.</ref>
*नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थत: सत्ता का एक 'शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: असत्ता दूसरा 'उच्छेद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिहास कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थत: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्तित: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या माध्यमिक दर्शन है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे 'प्रतीत्य' शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहास करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।
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हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो ही रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविधरूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।<ref>सां. सि. पृष्ठ 20</ref>
*नागार्जुन के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें
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संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते।
#मूलमाध्यमिककारिका,
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तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥
#विग्रहव्यावर्तनी,
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                        शां. प. 306/42-43
#युक्तिषष्टिका,
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प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं। 'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शां. प. में कहा गया है-<ref>शा.प.</ref>
#शून्यतासप्तति,
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दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:।
#रत्नावली और  
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कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥
#वैदल्यसूत्र प्रमुख हैं। इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीरस्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं।
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अर्थात् (जहाँ किसी विशेष अर्थ् को अभीष्ट मानकर) उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत वाङमय में 'सांख्य' शब्द किसी भी प्रकार के मोक्षोन्मुख ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है या कपिलप्रणीत सांख्यदर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है? इसके उत्तर के लिए कतिपय प्रसंगों पर चर्चा अपेक्षित है।  
*भारतीय बौद्ध आचार्यों का कृतियों का तिब्बत के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन किया गया है।
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श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती ने चरकसंहिता के दो प्रसंगों को उद्धृत करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। वे उद्धरण हैं-<ref>वही</ref>
==आर्यदेव==
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(1) सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनर्वसुम्।
*आर्यदेव आचार्य नागार्जुन के पट्ट शिष्यों में से अन्यतम हैं। इनके और नागार्जुन के दर्शन में कुछ भी अन्तर नहीं है। उन्होंने नागार्जुन के दर्शन को ही सरल भाषा में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है। इनकी रचनाओं में चतु:शतक प्रमुख है, जिसे 'योगाचार चतु:शतक' भी कहते हैं। चन्द्रकीति के ग्रन्थों में इसका 'शतक' या 'शतकशास्त्र' के नाम से भी उल्लेख है। ह्रेनसांग ने इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया था। संस्कृत में यह ग्रन्थ पूर्णतया उपलब्ध नहीं है। सातवें से सोलहवें प्रकरण तक भोट भाषा से संस्कृत में रूपान्तरित रूप में उपलब्ध नहीं है। सातवें से सोलहवें प्रकरण तक भोट भाषा से संस्कृत में रूपान्तरित रूप में उपलब्ध होता है। यह रूपान्तरण भी शत-प्रतिशत ठीक नहीं है। प्रश्नोत्तर शैली में माध्यमिक सिद्धान्त बड़े ही रोचक ढंग से आर्यदेव ने प्रतिपादित किये हैं। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिन्हें आज के विद्वान भी उपस्थित करते हैं, जिनका आर्यदेव ने सुन्दर समाधान किया है।
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जगद्वितार्थ पप्रच्छ वह्निवंश: स्वसंशयम्॥
*ह्रेनसांग के अनुसार ये सिंहल देश से भारत आये थे। इनकी एक ही आंख थी, इसलिए इन्हें काणदेव भी कहा जाता था। इनके देव एवं नीलनेत्र नाम भी प्रसिद्ध थे। कुमारजीव ने ई.सन 405 में इनकी जीवनी का अनुवाद चीनी भाषा में किया था। 'चित्तविशुद्धिप्रकरण' ग्रन्थ भी इनकी रचना है- ऐसी प्रसिद्धि है। हस्तवालप्रकरण या मुष्टिप्रकरण भी इनका ग्रन्थ माना जाता है।
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यथा वा आदित्यप्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशमिति
परम्परा में जितना नागार्जुन को प्रामाणिक माना जाता है, उतना ही आर्यदेव को भी। इन दोनों आचार्यों के ग्रन्थ माध्यमिक परम्परा में मूलशास्त्र या आगम के रूप में माने जाते हैं।
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(2) अयनं पुनराख्यातमेतद् योगस्ययोगिभि:।
==धर्मकीर्ति==
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संख्यातधर्मै: सांख्यैश्च मुक्तौर्मोक्षस्य चायनम्॥
आचार्य दिङ्नाग ने जब प्रमाणसमुच्चय लिखकर बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीज वपन किया तो अन्य बौद्धेतर दार्शनिकों में उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। तदनुसार न्यायदर्शन के व्याख्याकारों में उद्योतकर ने, मीमांसक मत के आचार्य कुमारिल ने, जैन आचार्यां में आचार्य मल्लवादी ने दिङ्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी प्रमाणशास्त्र के विषय में अपने विचारों को सुव्यवस्थित करने का अवसर प्राप्त हुआ। ऐसे विद्वानों में आचार्य धर्मकीर्ति प्रमुख हैं, जिन्होंने दिङ्नाग  के दार्शनिक मन्तव्यों का सुविशद विवेचन किया तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि दार्शनिकों की जमकर समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल बौद्धेतर विद्वानों की ही आलोचना नहीं की, अपितु कुछ गौण विषयों में अपना मत दिङ्नाग से भिन्न रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन की भी, जिन्होंने दिङ्नाग के मन्तव्यों की अपनी समझ के अनुसार व्याख्या की थी, उनकी भी समालोचना कर बौद्ध प्रमाणशास्त्र को परिपुष्ट किया।
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सर्वभावस्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:।
*आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणशास्त्र विषयक सात ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में ही हैं। प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही इन ग्रन्थों में विशेष विवरण है। किन्तु एक बात असन्दिग्ध हैं कि धर्मकीर्ति के ग्रन्थों के प्रकाश में आने के बाद दिङ्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन गौण हो गया।
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योगं यथा साधयते सांख्य सम्पद्यते यथा॥
 
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प्रथम प्रसंग में श्री चक्रवर्ती संख्या को सम्यक्-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुक्त मानते हैं और द्वितीय प्रसंग में स्पष्टत: सांख्यदर्शनबोधक। यहाँ यह विचारणीय है कि चरकसंहिताकार के समय तक एक व्यवस्थित दर्शन के रूप में कपिलोक्त दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतिष्ठित था और चरकसंहिताकार इस तथ्य से परिचित थे। तब प्रथम प्रसंग में 'सांख्य' शब्द के उपयोग के समय एक दर्शनसम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उक्त शब्द का उपयोग किया गया होगा। संभव है कपिलप्रोक्त दर्शन मूल में चिकित्सकीय शास्त्र में भी अपनी भूमिका निभाता रहा हो और उस दृष्टि से चिकित्सकीय शास्त्र को भी सांख्य कहा गया हो।<ref>ओडे सां/सि.</ref> इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत मिलता है<ref>वही</ref> अत: दोनों प्रसंगों में विद्वान्, ज्ञान आदि शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है।
'''कृतियाँ'''
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अहिर्बुध्न्यसंहिता के बारहवें अध्याय में कहा गया है-
 
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सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कपिलादृषे:।
आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
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उदितो यादृश: पूर्वं तादृशं श्रृणु मेऽधुना॥18॥
#प्रमाणवार्तिक,
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षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने:॥19॥
#प्रमाणविनिश्चय,
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यहाँ 'सांख्य' शब्द को सम्यक् ज्ञान व कापिलदर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। सांख्यरूप में (सम्यक् ज्ञानरूप में) पूर्व में कपिल द्वारा संकल्प जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है- मुझसे सुनो। महामुनि का साठ पदार्थों के विवेचन से युक्त शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक् ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थों में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत शांतिपर्व का यह कथन कि 'अमूर्त परमात्मा का आकार सांख्यशास्त्र है'- से पर्याप्त साम्य स्मरण हो आता है।
#न्यायबिन्दु,
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श्वेताश्वतर उपनिषद् में प्रयुक्त 'सांख्ययोगाधिगम्यम्' (6/13) की व्याख्या तत्स्थाने न कर शारीरक भाष्य (2/1/3) में शंकर ने 'सांख्य' शब्द को कपिलप्रोक्त शास्त्र से अन्यथा व्याख्यायित करने का प्रयास किया। शंकर कहते हैं- ''यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्य- योगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते'' संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई विसंगति नहीं होगी कि यहाँ सांख्य पद वैदिक ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन किस प्रकार के वैदिक ज्ञान का लक्ष्य किया गया है, यह विचारणीय है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में जिस दर्शन को प्रस्तुत किया गया है वह 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं' के त्रैत का दर्शन है। ऋग्वेद के 'द्वा सुपर्णा'- मंत्रांश से भी त्रिविध अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्यदर्शन भी प्रायश: त्रैतवादी ही है। डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र ने ठीक ही कहा है- ''त्रैत मौलिकसांख्य की अपनी विशिष्टता थी, इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक सांख्यदर्शन के इसी त्रैतवाद की पृष्ठभूमि में श्वेताश्वतर की रचना हुई।''<ref>सां. द. ऐ. प.</ref> अत: इस अर्थ में सांख्य शब्द 'वैदिकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण किया जाये तब भी निष्कर्ष में इसका लक्ष्यार्थ कपिलोक्त दर्शन ही गृहीत होता है।  
#हेतुबिन्दु,
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भगवद्गीता में सांख्य-योग शब्दों का प्रयोग भी विचारणीय है क्योंकि विद्वानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। द्वितीय अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कहा गया है- ''एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु''। अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।<ref>इ.सा.धा.</ref> जबकि आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े विस्तार से इसे कपिलप्रोक्त 'सांख्य' के अर्थ में निरूपित किया। उक्त श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यह सब सांख्य बुद्धि (ज्ञान) कहा है अब योग बुद्धि (ज्ञान) सुनो। यहाँ विचारणीय यह है कि यदि 'सांख्य' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य 'बुद्धि' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय 'ज्ञान' काभाव तो सांख्य के 'ख्याति' में आ ही जाता है। 'सांख्य' बुद्धि में यह ध्वनित होता है कि 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है।, उसकी बुद्धि या 'ज्ञान' की बात कही गई है। वह प्रणाली (चिन्तन की) या मार्ग गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होगा। गीता में जिस मुक्तभाव से सांख्यदर्शन के पारिभाषिक शब्दों या अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है उससे यही स्पष्ट होता है कि वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य शब्द को गीता का एक पारिभाषिक शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कपिल का सांख्यशास्त्र ही निरूपित होता है।
#वादन्याय,
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भगवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा गया है-
#सम्बन्धपरीक्षा एवं
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
#सन्तानान्तरसिद्धि। इनके अतिरिक्त प्रमाणवार्तिक के स्वार्थानुमान परिच्छेद की वृत्ति एवं सम्बन्धपरीक्षा की टीका भी स्वयं धर्मकीर्ति ने लिखी है।
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ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ गीता 3।3॥
*आचार्य धर्मकीर्ति के इस ग्रन्थों का प्रधान और पूरक के रूप में भी विभाजन किया जाता है। तथा हि-न्यायबिन्दु की रचना तीक्ष्णबुद्धि पुरुषों के लिए, प्रमाणविनिश्चय की रचना मध्यबुद्धि पुरुषों के लिए तथा प्रमाणवार्तिक का निर्माण मन्दबुद्धि पुरुषों के लिए हैं- ये ही तीनों प्रधान ग्रन्थ है।, जिनमें प्रमाणों से सम्बद्ध सभी वक्तव्यों का सुविशद निरूपण किया गया है। अवशिष्ट चार ग्रन्थ पूरक के रूप में हैं। तथाहि-स्वार्थानुमान से सम्बद्ध हेतुओं का निरूपण 'हेतुबिन्दु' में है। हेतुओं का अपने साध्य के साथ सम्बन्ध का निरूपण 'सम्बन्धपरीक्षा' में है। परार्थानुमान से सम्बद्ध विषयों का निरूपण 'वादन्याय' में है। अर्थात इसमें परार्थानुमान के अवयवों का तथा जय-पराजय की व्यवस्था कैसे हो- इसका विशेष प्रतिपादन किया गया है।
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यहाँ भी दो प्रकार के मार्गों या निष्ठा की चर्चा की गई हैं- एक ज्ञानमार्ग दूसरा कर्म-मार्ग। विचारणीय यह है कि जब ''कर्मयोगेन योगिनां'' कहा जा सकता है तब ''ज्ञानयोगेन ज्ञानिना''' न कहकर ''सांख्यानां'' क्यों कहा गया? निश्चय ही ''ज्ञानयोगियों'' के 'ज्ञान' के विशेष स्वरूप का उल्लेख अभीष्ट था। वह विशेष ज्ञान कपिलोक्त शास्त्र ही है, यह गीता तथा महाभारत के शान्तिपर्व से स्पष्ट हो जाता है। ''यदेव योगा: पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते''<ref>शां.प. गीता</ref> इसीलिए शान्तिपर्व में वसिष्ठ की ही तरह<ref>शां.प.</ref> गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं-<ref>गीता</ref>
*आचार्य धर्मकीर्ति दक्षिण के त्रिमलय में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने प्रारम्भिक अध्ययन वैदिक दर्शनों का किया था। तदनन्तर वसुबन्धु के शिष्य धर्मपाल, जो उन दिनों अत्यन्त वृद्ध हो चुके थे, उनके पास विशेष रूप से [[बौद्ध दर्शन]] का अध्ययन करने के लिए वे नालन्दा पहुँचे। उनको तर्कशास्त्र में विशेष रुचि थी, इसलिए दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन से उन्होंने प्रमाणशास्त्र का विशेष अध्ययन किया तथा अपनी प्रतिभा के बल से दिङ्नाग के प्रमाणशास्त्र में ईश्वरसेन से भी आगे बढ़ गये। तदनन्तर अपना अगला जीवन उन्होंने वाद-विवाद और प्रमाणवार्तिक आदि सप्त प्रमाणशास्त्रों की रचना में बिताया। अन्त में कलिंग देश में उनकी मृत्यु हुई।
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सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:
 
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शांतिपर्व तथा गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही गई है-
'''समय'''
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एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।<ref>शां.प. में 'सपश्यति' के स्थान पर 'स बुद्धिमान्' है। </ref>
 
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गीता महाभारत का ही अंश है। अत: प्रचलित शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित है। गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द भी (चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो) कपिलप्रोक्त शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए।
तिब्बती परम्परा के अनुसार आचार्य कुमारिल और आचार्य धर्मकीर्ति समकालीन थे। कुमारिल ने दिङ्नाग का खण्डन तो किया है, किन्तु धर्मकीर्ति का नहीं, जबकि धर्मकीर्ति ने कुमारिल का खण्डन किया है। ऐसी स्थिति में कुमारिल आचार्य धर्मकीर्ति के वृद्ध समकालीन ही हो सकते हैं। आचार्य धर्मकीर्ति ने तर्कशास्त्र का अध्ययन ईश्वरसेन से किया था, किन्तु उनके दीक्षागुरु प्रसिद्ध विद्वान एवं नालन्दा के आचार्य धर्मपाल थे। धर्मपाल को वसुबन्धु का शिष्य कहा गया है। वसुबन्धु का समय चौथी शताब्दी निश्चित किया गया है। धर्मपाल के शिष्य शीलभद्र ईसवीय वर्ष 635 में विद्यमान थे, जब ह्रेनसांग नालन्दा पहुँचे थे। अत: यह मानना होगा कि जिस समय धर्मकीर्ति दीक्षित हुए, उस समय धर्मपाल मरणासन्न थे। इस दृष्टि से विचार करने पर धर्मकीर्ति का काल 550-600 हो सकता है।
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महाभारत के शांतिपर्व में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्पष्ट है कि उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इसमें प्रस्तुत सांख्यदर्शन की चर्चा आगे की जायेगी। यहाँ इतना ही उल्लेखनीय है कि कपिल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्यदर्शन की शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है कि यह एक अत्यन्त युक्तिसंगत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर विद्वानों का आकृष्ट होना, उस पर विचार करना और अपने विचारों को उक्त दर्शन से समर्थित या संयुक्त बताना बहुत स्वाभाविक है। जिस तरह वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में गीता का इतना महत्त्व है कि प्राय: सभी आचार्यों ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को गीतानुसारी बताने का प्रयास किया। इसी तरह ज्ञान के विभिन्न पक्षों में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपने विचारों को सांख्य रूप ही दे दिया हो तो क्या आश्चर्य? ऐसे विकास की प्रक्रिया में मूलदर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का जन्म भी हो जाना स्वाभाविक है। अपनी रुचि, उद्देश्य और आवश्यकता के अनुसार विद्वान् विभिन्न पक्षों में से किसी को गौण, किसी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थरचना भी करते हैं। अत: किसी एक मत को मूल कहकर शेष को अन्यथा घोषित कर देना उचित प्रतीत  नहीं होता। समस्त वैदिक साहित्य वेदों की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकतानुसार विभिन्न कालों में प्रस्तुति ही है। कभी कर्म यज्ञ आदि को महत्त्वपूर्ण मानकर तो कभी जीवन्त जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत किया गया। इससे किसी एक पक्ष को अवैदिक कहने का तो कोई औचित्य नहीं। परमर्षि कपिल ने भी वेदों को दार्शनिक ज्ञान को तर्कबुद्धि पर आधृत करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इसमें तर्कबुद्धि की पहुँच से परे किसी विषय को छोड़ दिया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कपिल दर्शन को अवैदिक नहीं कहा जा सकता।
*आचार्य धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का खण्डन [[वैशेषिक दर्शन]] में व्योमशिव ने, [[मीमांसा दर्शन]] में शालिकनाथ ने, [[न्याय दर्शन]] में जयन्त और वाचस्पति मिश्र ने, वेदान्त में भी वाचस्पति मिश्र ने तथा [[जैन दर्शन]] में अकलङ्क आदि आचार्यों ने किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों ने उन आक्षेपों का यथासम्भव निराकरण किया है। धर्मकीर्ति के टीकाकारों को तीन वर्ग में विभक्त किया जाता है।
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सांख्यदर्शन की वेदमूलकता
#प्रथम वर्ग के पुरस्कर्ता देवेन्द्रबुद्धि माने जाते हैं, जो धर्मकीर्ति के साक्षात शिष्य थे और जिन्होंने शब्दप्रधान व्याख्या की है। देवेन्द्र बुद्धि ने प्रमाणवार्तिक की दो बार व्याख्या लिखकर धर्मकीर्ति को दिखाई और दोनों ही बार धर्मकीर्ति ने उसे निरस्त कर दिया। अन्त में तीसरी बार असन्तुष्ट रहते हुए भी उसे स्वीकार कर लिया और मन में यह सोचकर निराश हुए कि वस्तुत: मेरा प्रमाण शास्त्र यथार्थ रूप में कोई समझ नहीं सकेगा। शाक्यबुद्धि एवं प्रभाबुद्धि आदि भी इसी प्रथम वर्ग के आचार्य हैं।
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सांख्य दर्शन की वैदिकता पर विचार करने से पूर्व वैदिक का अभिप्राय स्पष्ट करना अभीष्ट है। एक अर्ध वैदिक कहने का तो यह है कि जो दर्शन वेदों में है वही सांख्यदर्शन में भी हो। वेदों में बताये गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र रूप से विचार किया गया हो, तो यह भी वैदिक ही कहा जायेगा। अब वेदों में किस प्रकार का दर्शन है, इस विषय में मतभेद तो संभव है लेकिन परस्पर विरोधी मतवैभिन्न्य हो, तो, निश्चय ही उनमें से अवैदिक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्वरूपचर्चा में, जगत् जीव के साथ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिक कहे जा सकते हैं, यदि वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेकिन यदि कोई दर्शन परमात्मा की सत्ता को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही किया जाता है। इस मत में कितनी सत्यता या प्रामाणिकता है यह सांख्यदर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने पर स्वत: हो जावेगा। यहाँ केवल सांख्यदर्शन की वैदिकता को दिखाने का प्रयास किया जायेगा।
#दूसरे वर्ग के ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने शब्दप्रधान व्याख्या का मार्ग छोड़कर धर्मकीर्ति के तत्त्वज्ञान को महत्त्व दिया। इस वर्ग के पुरस्कर्ता आचार्य धर्मोत्तर है। धर्मोत्तर का कार्यक्षेत्र कश्मीर रहा, अत: उनकी परम्परा को कश्मीर-परम्परा भी कहते हैं। वस्तुत: धर्मकीर्ति के मन्तव्यों का प्रकाशन धर्मोत्तर-परम्परा भी कहते है। वस्तुत: धर्मकीर्ति के मन्तव्यों के प्रकाशन धर्मोत्तर द्वारा ही हुआ है। ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन ने भी धर्मोत्तर कृत प्रमाणविनिश्चय की टीका पर टीका लिखी है, किन्तु वह अनुपलब्ध है। इसी परम्परा में शङ्करानन्द ने भी प्रमाणवार्तिक पर एक विस्तृत व्याख्या लिखना शुरू किया, किन्तु वह अधूरी रही।
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महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों में, सांख्य में तथा योगशास्त्र में जो कुद भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आगत है। इसे अतिरंजित कथन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतिरिक्त सांख्यशास्त्र और योगशास्त्र भी प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनमें विचारसाम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो मिलती ही है कि वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं।
#तीसरे वर्ग में धार्मिक दृष्टि को महत्त्व देने वाले धर्मकीर्ति के टीकाकार हैं। उनमें प्रज्ञाकर गुप्त प्रधान है। उन्होंने स्वार्थानुमान को छोड़कर शेष तीन परिच्छेदों पर 'अलङ्कार' नामक भाष्य लिखा, जिसे 'प्रमाणवार्तिकालङ्कार भाष्य' कहते हैं। इस श्रेणी के टीकाकारों में प्रमाणवार्तिक के प्रमाणपरिच्छेद का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि उसमें भगवान बुद्ध की सर्वज्ञता तथा उनके धर्मकाय आदि की सिद्धि की गई है। प्रज्ञाकर गुप्त का अनुसरण करने वाले आचार्य हुए है। 'जिन' नामक आचार्य ने प्रज्ञाकर के विचारों की पुष्टि की है। रविगुप्त प्रज्ञाकर के साक्षात शिष्य थे। ज्ञानश्रीमित्र भी इसी परम्परा के अनुयायी थे। ज्ञानश्री के शिष्य यमारि ने भी अलङ्कार की टीका की। कर्णगोमी ने स्वर्थानुमान परिच्छेद ने चारों परिच्छेदों पर टीका लिखी है, किन्तु उसे शब्दार्थपरक व्याख्या ही मानना चाहिए।
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शान्तिपर्व में ही कपिल-स्यूमरश्मि का संवाद (अध्याय 268-270) प्राचीन इतिहास के रूप में भीष्म ने प्रस्तुत किया। इसमें कपिल को सत्त्वगुण में स्थित ज्ञानवान् कहकर परिचित कराया गया। महाभारतकार ने कपिल का सांख्य-प्रवर्तक के रूप में उल्लेख किया, सांख्याचार्यों की सूची में भी एक ही कपिल का उल्लेख किया और स्यूमरश्मि-संवाद में उल्लिखित कपिल का सांख्य-प्रणेता कपिल से पार्थक्य दिखाने का कोई संकेत नहीं दिया, तब यह मानने में कोई अनौचित्य नहीं है कि यह कपिल सांख्य-प्रणेता कपिल ही हैं।<ref>श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती इस प्रसंग में कपिल को सांख्य-प्रणेता कपिल माने जाने की संभावना को तो स्वीकार करते हैं लेकिन वेदों तथा अन्य स्थानों पर कपिल के उल्लेख तथा सांख्य-प्रणेता कपिल से उनके सम्बन्ध के विषय पर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में इसे प्रामाणिक नहीं मानते। (ओ.डे.सां.सि. पृष्ठ)</ref>
*धर्मकीर्ति के ग्रन्थों की टीका-परम्परा केवल संस्कृत में ही नहीं रही, अपितु जब बौद्ध धर्म का प्रसार एवं विकास तिब्बत में हो गया तो वहाँ के अनेक भोट विद्वानों ने भी तिब्बती भाषा में स्वतन्त्र टीकाएं प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थों पर लिखीं तथा उनका अध्ययन-अध्यापन आज भी तिब्बती परम्परा में प्रचलित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिङ्नाग के द्वारा जो बौद्ध प्रमाणशास्त्र का बीजवपन किया गया, वह धर्मकीर्ति और उनके अनुयायियों के प्रयासों से विशाल वटवृक्ष के रूप मं परिणत हो गया।
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उपर्युक्त संवाद में स्यूमरश्मि द्वारा कपिल पर वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह का आक्षेप लगाने पर कपिल कहते हैं- ''नाहं वेदान् विनिन्दामि'' (शा.प. 268।12) इसी संवादक्रम में कपिल पुन: कहते हैं ''वेदा: प्रमाणं लोकानां न वेदा: पृष्ठत: कृता:''<ref>शां.प.अ. 268-70</ref> फिर वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं।<ref>वही अ. 268-70</ref>
==बोधिधर्म==
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वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्।
बोधिधर्म एक भारतीय बौद्ध भिक्षु एवं विलक्षण योगी थे। इन्होंने 520 या 526 ई. में चीन जाकर ध्यान-सम्प्रदाय (जैन बुद्धिज्म) का प्रवर्तन किया। ये दक्षिण भारत के कांचीपुरम के राजा सुगन्ध के तृतीय पुत्र थे। इन्होंने अपनी चीन-यात्रा समुद्री मार्ग से की। वे चीन के दक्षिणी समुद्री तट केन्टन बन्दरगाह पर उतरे।
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एवं वेद विदित्याहुरतोऽन्य वातरेचक:॥
*प्रसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध अद्भुत ध्यानयोगी थे। वे सर्वदा ध्यान में लीन रहते थे। कहा जाता है कि उन्होंने सत्य-सम्बन्धी परमगुह्य ज्ञान एक क्षण में महाकाश्यप में सम्प्रेषित किया और यही बौद्ध धर्म के ध्यान सम्प्रदाय की उत्पत्ति का क्षण था। महाकाश्यप से यह ज्ञान आनन्द में सम्प्रेषित हुआ। इस तरह यह ज्ञानधारा गुरु-शिष्य परम्परा से निरन्तर प्रवाहित होती रही। भारत में बोधधर्म इस परम्परा के अट्ठाइसवें और अन्तिम गुरु हुए।
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सर्वे विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
*इस वार उत्तरी चीन के तत्कालीन राजा बू-ति ने उनके दर्शन की इच्छा की। वे एक श्रद्धावान बौद्ध उपासक थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अनेक महनीय कार्य किये थे। अनेक स्तूप, विहार एवं मन्दिरों का निर्माण कराया था एवं संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद कराया था। राजा के निमन्त्रण पर बोधिधर्म की उनसे नान-किंग में भेंट हुई । उन दोनों में निम्न प्रकार से धर्म संलाप हुआ।
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वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥
'''बू-ति'''-भन्ते, मैंने अनेक विहार आदि का निर्माण कराया है तथा अनेक बौद्ध धर्म के संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कराया है तथा अनेक व्यक्तियों को बोद्ध भिक्षु बनने की अनुमति प्रदान की है। क्या इन कार्यों से मुझे पुण्य-लाभ हुआ है?
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उक्त विचारयुक्त कपिल को अवैदिक कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। फिर, कपिलप्रणीत सूत्र द्वारा वेद के स्वत:प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 'निजशक्यभिव्यक्ते स्वत:प्रमाण्यम्' (5/51) इस सूत्र में अनिरुद्ध, विज्ञानभिक्षु आदि भाष्यकारों ने स्वत:प्रामाण्य को स्पष्ट किया है। सांख्यकारिका में 'आप्तश्रुतिराप्तवचनम्' (का.5) कहकर वेदप्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 5वीं कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र कहते हैं- ''तच्च स्वत:प्रामाण्यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजनितत्वेन सकलदोषाशंकाविनिर्मुत्वेन युक्तं भवति।'' इतना ही नहीं, ''वेदमूलस्मृतीतिहासपुराणवाक्यजनितमपि ज्ञानं युक्तं भवति'' कहा है। वेदाश्रित स्मृति इतिहास-पुराण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब निर्दोष माना जाता है, तब वेद की तो बात ही क्या? इसी कारिका की वृत्ति में माठर कहते है- ''अत: ब्रह्मादय: आचार्या:, श्रुतिर्वेदस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्।'' इस तरह सांख्यशास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत:प्रामाण्य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्यशास्त्र को अवैदिक या वेदविरुद्ध कहना कथमपि समीचीन नहीं जान पड़ता।
 
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सांख्यदर्शन में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली भी इसे वैदिक निरूपित करने में एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्ध में वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। लेकिन 'पुरुष' शब्द का दर्शनशास्त्रीय प्रयोग करते ही जिस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्यदर्शन है। इसी तरह अव्यक्त, महत्, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस् आदि शब्द भी सांख्यदर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अत: चाहे वैदिक साहित्य से ये शब्द सांख्य में आए हों या सांख्यपरम्परा से इनमें गए हों, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सांख्यदर्शन वैदिक है। षड्दर्शन में सांख्यदर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।
'''बोधिधर्म'''- बिलकुल नहीं।
 
 
 
'''बू-ति'''- वास्तविक पुण्य क्या है?
 
 
 
'''बोधिधर्म'''- विशुद्ध प्रज्ञा, जो शून्य, सूक्ष्म, पूर्ण एवं शान्त है।
 
किन्तु इस पुण्य की प्राप्ति संसार में संभव नहीं है।
 
 
 
'''बू-ति'''- सबसे पवित्र धर्म सिद्धान्त कौन है?
 
 
 
'''बोधिधर्म'''- जहाँ सब शून्यता है, वहाँ पवित्र कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
 
 
 
'''बू-ति'''- तब मेरे सामने खड़ा कौन बात कर रहा है?
 
 
 
'''बोधिधर्म'''- मैं नहीं जानता।
 
*उपर्युक्त संवाद के आधार पर बोधिधर्म एक रूक्ष स्वभाव के व्यक्ति सिद्ध होते हैं। उन्होंने सम्राट के पुण्य कार्यों का अनुमोदन भी नहीं किया। बाहर के कठोर दिखाई देने पर भी उनके मन में करुणा थी। वस्तुत: उन्होंने राजा को बताया कि दान देना, विहार बनवाना, आदि पुण्य कार्य अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं, वे अनित्य हैं। इस प्रकार उन्होंने सम्राट को अहंभाव से बचाया और शून्यता के उच्च सत्य का उपदेश किया, जो पुण्य-पाप पवित्र-अपवित्र सत-असत आदि द्वन्द्वों और प्रपञ्चों से अतीत है।
 
*उपर्युक्त भेंट के बाद बोधिधर्म वहाँ रहने में कोई लाभ न देखकर याङ्-त्सी-नदी पार करके उत्तरी चीन के बेई नामक राज्य में चले गये। इसके बाद उनका अधिकतर समय उन राज्य की राजधानी लो-याङ के समीप शुग-शन पर्वत पर स्थित 'शाश्व-शान्ति' (श्वा-लिन्) नामक विहार में बीता, जिसका निर्माण पांचवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुआ था। इस भव्य विहार का दर्शन करते ही बोधिधर्म मन्त्रमुग्ध हो गए और हाथ जोड़े चार दिन तक विहार के सामने खड़े रहे। यहीं नौ वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान की भावना की। वे दीवार के सामने खड़े रहे। यहीं नौ  वर्ष तक रहते हुए बोधिधर्म ने ध्यान की भावना की। वे दीवार की ओर मुख करके ध्यान किया करते थे। जिस मठ में बोधिधर्म ने ध्यान किया, वह आज भी भग्नावस्था में विद्यमान है।
 
*आचार्य बोधिधर्म ने चीन में ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना मौन रहकर चेतना के धरातल पर की। बड़ी कठोर परीक्षा के बाद उन्होंने कुछ अधिकारी व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया। बाद में यही ध्यान-सम्प्रदाय कोरिया और जापान में जाकर विकसित हुआ।
 
*बोधिधर्म के प्रथम शिष्य और उत्तराधिकारी का नाम शैन-क्कंग था, जिसे शिष्य बनने के बाद उन्होंने हुई-के नाम दिया। पहले वह कनफ्यूशस मत का अनुयायी था। बोधिधर्म की कीर्ति सुनकर वह उनका शिष्य बनने के लिए आया था। सात दिन और सात रात तक दरवाजे पर खड़ा रहा, किन्तु बोधिधर्म ने मिलने की अनुमति नहीं थी। जाड़े की रात में मैदान में खड़े रहने के कारण बर्फ उनके घुटनों तक जम गई, फिर भी गुरु ने कृपा नहीं की। तब शैन-क्कंग् ने तलवार से अपनी बाई बाँह काट डाली और उसे लेकर गुरु के समीप उपस्थित हुआ और बोला कि उसे शिष्यत्व नहीं मिला तो वह अपने शरीर का भी बलिदान कर देगा। तब गुरु ने ओर ध्यान देकर पूछा कि तुम मुझसे क्या चाहते हो? शैन-क्कंग ने बिलखते हुए कहा कि मुझे मन की शान्ति चाहिए। बोधिधर्म ने कठोरतापूर्वक कहा कि अपने मन को निकाल कर मेरे सामने रखो, मैं उसे शान्त कर दूँगा। तब शैन्-क्कंग् ने रोते हुए कहा कि मैं मन को कैसे निकाल कर आप को दे सकता हूँ? इस पर कुछ विनम्र होकर करुणा करते हुए बोधिधर्म ने कहा- मैं तुम्हारे मन को शान्त कर चुका हूँ। तत्काल शैन्-क्कांग को शान्ति का अनुभव हुआ, उसके सारे संदेह दूर हो गए और बौद्धिक संघर्ष सदा के लिए मिट गए। शैन्-क्कांग चीन में ध्यान सम्प्रदाय के द्वितीय धर्मनायक हुए।
 
*उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त बोधिधर्म के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में अधिक कुछ भी ज्ञात नहीं है। चीन से प्रस्थान करने से पूर्व उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछा। उनमें से एक शिष्य ने कहा कि मेरी समझ में सत्य विधि और निषेध दोनों से परे हैं। सत्य के संचार का यही मार्ग है। बोधिधर्म ने कहा- तुम्हें मेरी त्वचा प्राप्त है। इनके बाद दूसरी भिक्षुणी शिष्या बोली कि सत्य का केवल एक बाद दर्शन होता है, फिर कभी नहीं, बोधिधर्म ने कहा कि तुम्हें मेरा मांस प्राप्त है। इसके बाद तीसरे शिष्य ने कहा कि चारों महाभूत और पाँचों स्कन्ध शून्य हैं और असत् है। सत् रूप में ग्रहण करने योग्य कोइर वस्तु नहीं है। बोधिधर्म  ने कहा कि तुम्हें मेरी हड्डियाँ प्राप्त हैं। अन्त में हुई-के ने आकर प्रणाम किया और कुछ बोले नहीं, चुपचाप अपने स्थान पर खड़े रहे। बोधिधर्म ने इस शिष्य से कहा कि तुम्हें मेरी चर्बी प्राप्त है।
 
*इसके बाद ही बोधिधर्म अन्तर्धान हो गए। अन्तिम बार जिन लोगों ने उन्हें देखा, उनका कहना है कि वे नंगे पैन त्सुग्-लिंग पर्वतश्रेणी में होकर पश्चिम की ओर जा रहे थे और अपना एक जूता हाथ में लिए थे। इन लोगों के कहने पर बाद में लोयांग में बोधिधर्म की समाधि खोली गई, किन्तु उसमें एक जूते के अलावा और कुछ न मिला। कुछ लोगों का कहना है कि बोधिधर्म चीन से लौटकर भारत आए। जापान में कुछ लोगों का विश्वास है कि वे चीन से जापान गए और नारा के समीप कतयोग-यामा शहर में एक भिखारी के रूप में उन्हें देखा गया।
 
*बोधिधर्म ने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, किन्तु ध्यान सम्प्रदाय के इतिहास ग्रन्थों में उनके कुछ वचनों या उपदेशों का उल्लेख मिलता है। जापान में एक पुस्तक 'शोशित्सु के छह निबन्ध' नाम प्रचलित है, जिसमें उनके छह निबन्ध संगृहीत माने जाते हैं। सुजुकी की राज में इस पुस्तक में निश्चित ही कुछ वचन बोधिधर्म के हैं, किन्तु सब निबन्ध बोधिधर्म के नहीं हैं। चीन के तुन-हुआङ् नगर के 'सहस्त्र बुद्ध गुहा विहार' के ध्वंसावशेषों में हस्तलिखित पुस्तकों को एक संग्रह उपलब्ध हुआ था, जिसमें एक प्रति बोधिधर्म द्वारा प्रदत्त प्रवचनों से सम्बन्धित है। इसमें शिष्य के प्रश्न और बोधिधर्म के उत्तर खण्डित रूप में संगृहीत हैं। इसे बोधिधर्म के शिष्यों ने लिखा था। इस समय यह प्रति चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित है।
 
*ध्यान सम्प्रदाय में सत्य की अनुभूति में प्रकृति का महान् उपयोग है। प्रकृति ही ध्यानी सन्तों का शास्त्र है। ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया में वे प्रकृति का सहारा लेते हैं और उसी के निगूढ प्रभाव के फलस्वरूप चेतना में सत्य का तत्क्षण अवतरण सम्भव मानते हैं।
 
*बोधिधर्म के विचारों के अनुसार वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिए प्रज्ञा की अन्तर्दृष्टि की आवश्यक है, जो तथता तक सीधे प्रवेश कर जाती है। इसके लिए किसी तर्क या अनुमान की आवश्यकता नहीं है। इसमें न कोई विश्लेषण है, न तुलनात्मक चिन्तन, न अतीत एवं अनागत के बारे में सोचना है, न किसी निर्णय पर पहुँचना है, अपितु प्रत्यक्ष देखना ही सब कुछ है। इसमें संकल्प-विकल्प और शब्दों के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इसमें केवल 'ईक्षण' की आवश्यकता है। स्वानुभूति ही इसका लक्ष्य है, किन्तु 'स्व' का अर्थ नित्य आत्मा आदि नहीं है।
 
*ध्यान सम्प्रदाय एशिया की एक महान् उपलब्धि है। यह एक अनुभवमूलक साधना-पद्धति है। यह इतना मौलिक एवं विलक्षण है, जिसमें धर्म और दर्शन की रूढियों, परम्पराओं, विवेचन-पद्धितियों, तर्क एवं शब्द प्रणालियों से ऊबा एवं थका मानव विश्रान्ति एवं सान्त्वना का अनुभव करता है। इसकी साहित्यिक एवं कलात्मक अभिव्यक्तियाँ इतनी महान् एवं सर्जनशील हैं कि उसका किसी भाषा में आना उसके विचारात्मक पक्ष को पुष्ट करता है। इसने चीन, कोरिया और जापान की भूमि को अपने ज्ञान और उदार चर्याओं द्वारा सींचा है तथा इन देशों के सांस्कृतिक अभ्युत्थान में अपूर्व योगदान किया है।
 
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१२:४९, ४ फ़रवरी २०१० का अवतरण

सांख्य दर्शन प्रथम परिच्छेद सांख्य दर्शन की प्राचीनता और परम्परा महाभारत शनति पर्व, अध्याय 301 में कहा गया है— महाभारत में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूपवर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शनविशेष के लिए नहीं वरन् मोक्षहेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।[१] इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्यदर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है। 'सांख्य' शब्द का अर्थ सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। कपिल दर्शन में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्यदर्शन कहा जाता है। 'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है। डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र लिखते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक सगत् की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्त्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की गई।[२] लेकिन आचार्य उदयवीर शास्त्री गणनार्थक निष्पत्ति को युक्तिसंगत नहीं मानते क्योंकि अन्य दर्शनों में भी पदार्थों की नियत गणना करके उनका विवेचन किया गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं।[३] हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो ही रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविधरूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।[४] संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते। तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥

                       शां. प. 306/42-43

प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं। 'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शां. प. में कहा गया है-[५] दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:। कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥ अर्थात् (जहाँ किसी विशेष अर्थ् को अभीष्ट मानकर) उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत वाङमय में 'सांख्य' शब्द किसी भी प्रकार के मोक्षोन्मुख ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है या कपिलप्रणीत सांख्यदर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है? इसके उत्तर के लिए कतिपय प्रसंगों पर चर्चा अपेक्षित है। श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती ने चरकसंहिता के दो प्रसंगों को उद्धृत करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। वे उद्धरण हैं-[६] (1) सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनर्वसुम्। जगद्वितार्थ पप्रच्छ वह्निवंश: स्वसंशयम्॥ यथा वा आदित्यप्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशमिति (2) अयनं पुनराख्यातमेतद् योगस्ययोगिभि:। संख्यातधर्मै: सांख्यैश्च मुक्तौर्मोक्षस्य चायनम्॥ सर्वभावस्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:। योगं यथा साधयते सांख्य सम्पद्यते यथा॥ प्रथम प्रसंग में श्री चक्रवर्ती संख्या को सम्यक्-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुक्त मानते हैं और द्वितीय प्रसंग में स्पष्टत: सांख्यदर्शनबोधक। यहाँ यह विचारणीय है कि चरकसंहिताकार के समय तक एक व्यवस्थित दर्शन के रूप में कपिलोक्त दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतिष्ठित था और चरकसंहिताकार इस तथ्य से परिचित थे। तब प्रथम प्रसंग में 'सांख्य' शब्द के उपयोग के समय एक दर्शनसम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उक्त शब्द का उपयोग किया गया होगा। संभव है कपिलप्रोक्त दर्शन मूल में चिकित्सकीय शास्त्र में भी अपनी भूमिका निभाता रहा हो और उस दृष्टि से चिकित्सकीय शास्त्र को भी सांख्य कहा गया हो।[७] इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत मिलता है[८] अत: दोनों प्रसंगों में विद्वान्, ज्ञान आदि शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है। अहिर्बुध्न्यसंहिता के बारहवें अध्याय में कहा गया है- सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कपिलादृषे:। उदितो यादृश: पूर्वं तादृशं श्रृणु मेऽधुना॥18॥ षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने:॥19॥ यहाँ 'सांख्य' शब्द को सम्यक् ज्ञान व कापिलदर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। सांख्यरूप में (सम्यक् ज्ञानरूप में) पूर्व में कपिल द्वारा संकल्प जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है- मुझसे सुनो। महामुनि का साठ पदार्थों के विवेचन से युक्त शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक् ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थों में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत शांतिपर्व का यह कथन कि 'अमूर्त परमात्मा का आकार सांख्यशास्त्र है'- से पर्याप्त साम्य स्मरण हो आता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में प्रयुक्त 'सांख्ययोगाधिगम्यम्' (6/13) की व्याख्या तत्स्थाने न कर शारीरक भाष्य (2/1/3) में शंकर ने 'सांख्य' शब्द को कपिलप्रोक्त शास्त्र से अन्यथा व्याख्यायित करने का प्रयास किया। शंकर कहते हैं- यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्य- योगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई विसंगति नहीं होगी कि यहाँ सांख्य पद वैदिक ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन किस प्रकार के वैदिक ज्ञान का लक्ष्य किया गया है, यह विचारणीय है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में जिस दर्शन को प्रस्तुत किया गया है वह 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं' के त्रैत का दर्शन है। ऋग्वेद के 'द्वा सुपर्णा'- मंत्रांश से भी त्रिविध अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्यदर्शन भी प्रायश: त्रैतवादी ही है। डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र ने ठीक ही कहा है- त्रैत मौलिकसांख्य की अपनी विशिष्टता थी, इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक सांख्यदर्शन के इसी त्रैतवाद की पृष्ठभूमि में श्वेताश्वतर की रचना हुई।[९] अत: इस अर्थ में सांख्य शब्द 'वैदिकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण किया जाये तब भी निष्कर्ष में इसका लक्ष्यार्थ कपिलोक्त दर्शन ही गृहीत होता है। भगवद्गीता में सांख्य-योग शब्दों का प्रयोग भी विचारणीय है क्योंकि विद्वानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। द्वितीय अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कहा गया है- एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु। अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।[१०] जबकि आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े विस्तार से इसे कपिलप्रोक्त 'सांख्य' के अर्थ में निरूपित किया। उक्त श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यह सब सांख्य बुद्धि (ज्ञान) कहा है अब योग बुद्धि (ज्ञान) सुनो। यहाँ विचारणीय यह है कि यदि 'सांख्य' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य 'बुद्धि' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय 'ज्ञान' काभाव तो सांख्य के 'ख्याति' में आ ही जाता है। 'सांख्य' बुद्धि में यह ध्वनित होता है कि 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है।, उसकी बुद्धि या 'ज्ञान' की बात कही गई है। वह प्रणाली (चिन्तन की) या मार्ग गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होगा। गीता में जिस मुक्तभाव से सांख्यदर्शन के पारिभाषिक शब्दों या अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है उससे यही स्पष्ट होता है कि वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य शब्द को गीता का एक पारिभाषिक शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कपिल का सांख्यशास्त्र ही निरूपित होता है। भगवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा गया है- लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ गीता 3।3॥ यहाँ भी दो प्रकार के मार्गों या निष्ठा की चर्चा की गई हैं- एक ज्ञानमार्ग दूसरा कर्म-मार्ग। विचारणीय यह है कि जब कर्मयोगेन योगिनां कहा जा सकता है तब ज्ञानयोगेन ज्ञानिना' न कहकर सांख्यानां क्यों कहा गया? निश्चय ही ज्ञानयोगियों के 'ज्ञान' के विशेष स्वरूप का उल्लेख अभीष्ट था। वह विशेष ज्ञान कपिलोक्त शास्त्र ही है, यह गीता तथा महाभारत के शान्तिपर्व से स्पष्ट हो जाता है। यदेव योगा: पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते[११] इसीलिए शान्तिपर्व में वसिष्ठ की ही तरह[१२] गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं-[१३] सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:। शांतिपर्व तथा गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही गई है- एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।[१४] गीता महाभारत का ही अंश है। अत: प्रचलित शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित है। गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द भी (चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो) कपिलप्रोक्त शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए। महाभारत के शांतिपर्व में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्पष्ट है कि उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इसमें प्रस्तुत सांख्यदर्शन की चर्चा आगे की जायेगी। यहाँ इतना ही उल्लेखनीय है कि कपिल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्यदर्शन की शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है कि यह एक अत्यन्त युक्तिसंगत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर विद्वानों का आकृष्ट होना, उस पर विचार करना और अपने विचारों को उक्त दर्शन से समर्थित या संयुक्त बताना बहुत स्वाभाविक है। जिस तरह वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में गीता का इतना महत्त्व है कि प्राय: सभी आचार्यों ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को गीतानुसारी बताने का प्रयास किया। इसी तरह ज्ञान के विभिन्न पक्षों में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपने विचारों को सांख्य रूप ही दे दिया हो तो क्या आश्चर्य? ऐसे विकास की प्रक्रिया में मूलदर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का जन्म भी हो जाना स्वाभाविक है। अपनी रुचि, उद्देश्य और आवश्यकता के अनुसार विद्वान् विभिन्न पक्षों में से किसी को गौण, किसी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थरचना भी करते हैं। अत: किसी एक मत को मूल कहकर शेष को अन्यथा घोषित कर देना उचित प्रतीत नहीं होता। समस्त वैदिक साहित्य वेदों की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकतानुसार विभिन्न कालों में प्रस्तुति ही है। कभी कर्म यज्ञ आदि को महत्त्वपूर्ण मानकर तो कभी जीवन्त जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत किया गया। इससे किसी एक पक्ष को अवैदिक कहने का तो कोई औचित्य नहीं। परमर्षि कपिल ने भी वेदों को दार्शनिक ज्ञान को तर्कबुद्धि पर आधृत करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इसमें तर्कबुद्धि की पहुँच से परे किसी विषय को छोड़ दिया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कपिल दर्शन को अवैदिक नहीं कहा जा सकता। सांख्यदर्शन की वेदमूलकता सांख्य दर्शन की वैदिकता पर विचार करने से पूर्व वैदिक का अभिप्राय स्पष्ट करना अभीष्ट है। एक अर्ध वैदिक कहने का तो यह है कि जो दर्शन वेदों में है वही सांख्यदर्शन में भी हो। वेदों में बताये गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र रूप से विचार किया गया हो, तो यह भी वैदिक ही कहा जायेगा। अब वेदों में किस प्रकार का दर्शन है, इस विषय में मतभेद तो संभव है लेकिन परस्पर विरोधी मतवैभिन्न्य हो, तो, निश्चय ही उनमें से अवैदिक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्वरूपचर्चा में, जगत् जीव के साथ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिक कहे जा सकते हैं, यदि वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेकिन यदि कोई दर्शन परमात्मा की सत्ता को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही किया जाता है। इस मत में कितनी सत्यता या प्रामाणिकता है यह सांख्यदर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने पर स्वत: हो जावेगा। यहाँ केवल सांख्यदर्शन की वैदिकता को दिखाने का प्रयास किया जायेगा। महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों में, सांख्य में तथा योगशास्त्र में जो कुद भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आगत है। इसे अतिरंजित कथन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतिरिक्त सांख्यशास्त्र और योगशास्त्र भी प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनमें विचारसाम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो मिलती ही है कि वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं। शान्तिपर्व में ही कपिल-स्यूमरश्मि का संवाद (अध्याय 268-270) प्राचीन इतिहास के रूप में भीष्म ने प्रस्तुत किया। इसमें कपिल को सत्त्वगुण में स्थित ज्ञानवान् कहकर परिचित कराया गया। महाभारतकार ने कपिल का सांख्य-प्रवर्तक के रूप में उल्लेख किया, सांख्याचार्यों की सूची में भी एक ही कपिल का उल्लेख किया और स्यूमरश्मि-संवाद में उल्लिखित कपिल का सांख्य-प्रणेता कपिल से पार्थक्य दिखाने का कोई संकेत नहीं दिया, तब यह मानने में कोई अनौचित्य नहीं है कि यह कपिल सांख्य-प्रणेता कपिल ही हैं।[१५] उपर्युक्त संवाद में स्यूमरश्मि द्वारा कपिल पर वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह का आक्षेप लगाने पर कपिल कहते हैं- नाहं वेदान् विनिन्दामि (शा.प. 268।12) इसी संवादक्रम में कपिल पुन: कहते हैं वेदा: प्रमाणं लोकानां न वेदा: पृष्ठत: कृता:[१६] फिर वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं।[१७] वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्। एवं वेद विदित्याहुरतोऽन्य वातरेचक:॥ सर्वे विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्। वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥ उक्त विचारयुक्त कपिल को अवैदिक कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। फिर, कपिलप्रणीत सूत्र द्वारा वेद के स्वत:प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 'निजशक्यभिव्यक्ते स्वत:प्रमाण्यम्' (5/51) इस सूत्र में अनिरुद्ध, विज्ञानभिक्षु आदि भाष्यकारों ने स्वत:प्रामाण्य को स्पष्ट किया है। सांख्यकारिका में 'आप्तश्रुतिराप्तवचनम्' (का.5) कहकर वेदप्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 5वीं कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र कहते हैं- तच्च स्वत:प्रामाण्यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजनितत्वेन सकलदोषाशंकाविनिर्मुत्वेन युक्तं भवति। इतना ही नहीं, वेदमूलस्मृतीतिहासपुराणवाक्यजनितमपि ज्ञानं युक्तं भवति कहा है। वेदाश्रित स्मृति इतिहास-पुराण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब निर्दोष माना जाता है, तब वेद की तो बात ही क्या? इसी कारिका की वृत्ति में माठर कहते है- अत: ब्रह्मादय: आचार्या:, श्रुतिर्वेदस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्। इस तरह सांख्यशास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत:प्रामाण्य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्यशास्त्र को अवैदिक या वेदविरुद्ध कहना कथमपि समीचीन नहीं जान पड़ता। सांख्यदर्शन में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली भी इसे वैदिक निरूपित करने में एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्ध में वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। लेकिन 'पुरुष' शब्द का दर्शनशास्त्रीय प्रयोग करते ही जिस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्यदर्शन है। इसी तरह अव्यक्त, महत्, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस् आदि शब्द भी सांख्यदर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अत: चाहे वैदिक साहित्य से ये शब्द सांख्य में आए हों या सांख्यपरम्परा से इनमें गए हों, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सांख्यदर्शन वैदिक है। षड्दर्शन में सांख्यदर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।

  1. एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत
  2. वही
  3. सां. द.ऐ.प.
  4. सां. सि. पृष्ठ 20
  5. शा.प.
  6. वही
  7. ओडे सां/सि.
  8. वही
  9. सां. द. ऐ. प.
  10. इ.सा.धा.
  11. शां.प. गीता
  12. शां.प.
  13. गीता
  14. शां.प. में 'सपश्यति' के स्थान पर 'स बुद्धिमान्' है।
  15. श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती इस प्रसंग में कपिल को सांख्य-प्रणेता कपिल माने जाने की संभावना को तो स्वीकार करते हैं लेकिन वेदों तथा अन्य स्थानों पर कपिल के उल्लेख तथा सांख्य-प्रणेता कपिल से उनके सम्बन्ध के विषय पर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में इसे प्रामाणिक नहीं मानते। (ओ.डे.सां.सि. पृष्ठ)
  16. शां.प.अ. 268-70
  17. वही अ. 268-70