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==सांख्य साहित्य==
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सांख्याचार्य और सांख्यवाङमय
*सांख्यसूत्र,
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मानव सभ्यता का भारतीय इतिहास विश्व में प्राचीनतम जीवित इतिहास है। हजारों वर्षों के इस काल में अनेकानेक प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तन के इस कालचक्र में इतिहास का बहुत सा अंश लुप्त हो जाना स्वाभाविक है। महाभारत में सांख्य दर्शन का हमेशा ही प्राचीन इतिहास के रूप में कथन हुआ है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकाल तक यह दर्शन सुप्रतिष्ठित हो चुका था। तत्त्वगणना और स्वरूप की विभिन्न प्रस्तुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तब तक सांख्यदर्शन अनेक रूपों में स्थापित हो चुका था और उनका संकलन महाभारत में किया गया। महाभारत ग्रंथ के काल के विषय में अन्य भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह ही मतभेद है। मतभेद मुख्यत: दो वर्गों (पाश्चात्य और भारतीय विद्वद्वर्गों) में माना जा सकता है। भारतीय विद्वदवर्ग भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग पाश्चात्त्य मत का समर्थक और दूसरा विशुद्ध रूप से भारतीय वाङमय के आधार पर मत रखने वाले विद्वानों का। पाश्चात्त्य मत के अनुसार महाभारत के मोक्षधर्मपर्व की रचना 200 वर्ष ई.पूर्व से 200 ई. के मध्य हुई।<ref>एन्सा.</ref> डॉ0 राजबलि पाण्डेय के अनुसार महाभारत ग्रन्थ का परिवर्तन ई.पू. 32 से .पू. 286 वर्ष की अवधि में तथा कुछ विद्वानों के अनुसार मोक्षधर्मपर्वपरिवर्द्धन शुंगकाल (ई.पू. 185 के आसपास) में हुआ।<ref>प्राचीन भारत पृ. 191, 206</ref> डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने ए.बी. कीथ के मत (ई.पू. 200 से 200 ई.) की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया कि वर्तमान महाभारत भी 600 वर्ष ई. पू. से बहुत पहले का होना चाहिए।<ref>सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा पृ. 23</ref> यह ठीक है कि महाभारत ग्रन्थ अपने विकासक्रम में कई व्यक्तियों द्वारा लम्बे समय तक परिवर्द्धित होता हुआ वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुआ है। लेकिन कब कितना और कौन सा अंश जोड़ा गया, इसके स्पष्ट प्रमाण के अभाव में भारतीय साक्ष्य को मान्य करते हुए वर्षगणना के बजाय इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में उपलब्ध सांख्यदर्शन अत्यन्त प्राचीन है और प्राचीन सांख्यदर्शन के विस्तृत परिचय के लिए महाभारत एक प्राचीनतम प्रामाणिक रचना है।  
*तत्त्वसमाससूत्र तथा
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==आचार्य-परम्परा==
*सांख्यकारिका सांख्य दर्शन के मूल प्रामणिक ग्रन्थ हैं। सांख्य साहित्य का अधिकांश इनकी टीकाओं, भाष्यों आदि के रूप में निर्मित हैं। चूंकि अनिरुद्ध के पूर्व सांख्य सूत्रों पर भाष्य आज उपलब्ध नहीं है जबकि कारिका-भाष्य उपलब्ध है अत: पहले कारिका के भाष्य अथवा टीकाओं का उल्लेख करके तब सूत्रों की टीकाओं का उल्लेख किया जायेगा।
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शांतिपर्व अध्याय 318 के अनुसार कुछ सांख्याचार्यों के नाम इस प्रकार हैं-
==सुवर्णसप्तति शास्त्र==
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जैगीषव्य, असितदेवल, पराशर, वार्षगण्य, भृगु, पञ्चशिख, कपिल, गौतम, आर्ष्टिषेण, गर्ग, नारद, आसुरि, पुलस्त्य, सनत्कुमार, शुक्र, कश्यप।
*यह बौद्ध भिक्षु परमार्थ द्वारा 550 ई.-569 ई. के मध्य चीनी भाषा में अनुवादित सांख्यकारिका का भाष्य है। किस भाष्य का यह चीनी अनुवाद है- इस पर कुछ विवाद है।
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इनके अतिरिक्त शांतिपर्व में विभिन्न स्थलों पर याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ का भी उल्लेख है। युक्तिदीपिका में जनक-वसिष्ठ का उल्लेख है। ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका के अनुसार कपिल, आसुरी और पञ्चशिख; माठरवृत्ति के अनुसार भार्गव, उलूक, वाल्मीकि, हारीत, देवल आदि; युक्तिदीपिका में जनक, वसिष्ठ के अतिरिक्त हारीत, वाद्वलि, कैरात, पौरिक, ऋषभेश्वर, पञ्चाधिकरण, पतञ्जलि, वार्षगण्य, कौण्डिन्य, मूक आदि नामों का उल्लेख है। शांतिपर्व तथा सातवें सनातन को भी योगवेत्ता सांख्यविशारद कहा गया है।
*आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार यह 'माठरवृत्ति' के नाम से उपलब्ध टीका का अनुवाद है। इस मत का आधार चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ तथा माठरवृत्ति में आश्चर्यजनक समानता है। *एस.एस. सूर्यनारायण शास्त्री ने परमार्थ और माठर की टीकाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि दोनों में महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर असमानता है। अत: माठरवृत्ति को परमार्थ कृत टीका का आधार नहीं कहा जा सकता।
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उपर्युक्त प्राचीन आचार्यों के अतिरिक्त सांख्यसूत्र, तत्त्वसमास व सांख्य कारिकाओं के व्याख्याकार भी सांख्याचार्य कहे जा सकते हैं। अत्यन्त प्राचीन आचार्यों का वर्णन करने से पूर्व सांख्यप्रणेता कपिल के बारे में उल्लेख करना आवश्यक होगा, क्योंकि कपिल एक हैं अथवा एक से अधिक, ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक, इस प्रकार के अनेक मत इनके विषय में प्रचलित हैं।
*चीनी भाषा से उक्त टीका का [[संस्कृत]] रूपांतरण श्री एन.अय्यास्वामी शास्त्री ने किया जो तिरुमल तिरुपति देवस्थान प्रेम द्वारा 1944 ई. में प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में श्री शास्त्री अनुयोगद्वार सूत्र तथा गुणरत्न कृत षड्दर्शनसमुच्चय के आधार पर किसी प्राचीन माठरवृत्ति या भाष्य के अस्तित्व की संभावना को माने जाने तथा वर्तमान माठरवृत्ति को 1000 ई. से पूर्व की रचना नहीं माने जाने का समर्थन करते हैं।
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सांख्यप्रवर्तक कपिल
*ए.बी. कीथ तथा सूर्यनारायण शास्त्री के अनुसार वर्तमान माठरवृत्ति तथा परमार्थ कृत चीनी अनुवाद किसी अन्य प्राचीन माठरभाष्य पर आधारित है। इस विषय पर अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर प्राय: यह माना जाता है कि परमार्थ कृत चीनी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थ जिसका संस्कृत रूपान्तरण सुवर्णसप्तति के नाम से हुआ है- ही सांख्य कारिका पर उपलब्ध प्राचीनतम भाष्य है।
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विद्यासहायवन्तं च आदित्यस्थं समाहितम्।
*सुवर्णसप्तति के अन्तर्वस्तु में उल्लेखनीय यह है कि इसके अनुसार सांख्य ज्ञान का प्रणयन चार [[वेद|वेदों]] से भी पूर्व हो चुका था। वेदों सहित समस्त सम्प्रदायों का दर्शन सांख्य पर ही अवलम्बित है। सुवर्णसप्तति सूक्ष्म (लिंग) शरीर को सात तत्त्वों का संघात मानती है। वे सात तत्त्व हैं- महत, अहंकार तथा पंच तन्मात्र।
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कपिलं प्राहुराचार्या: सांख्यनिश्चितनिश्चया:॥ शां.पं. 339/68
*आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इस मान्यता को भ्रमवश स्थापित माना है। उनके अनुसार सुवर्णसप्तति शास्त्र में 40वें कारिका की टीका में 'एतानि सप्त सूक्ष्मशरीरमित्युच्यते' लिखा है। इस पर श्री शास्त्री का कथन है कि यदि अन्य कहीं भी एकादश इन्द्रियों का निर्देश न होता तो सप्त तत्व का सूक्ष्मशरीर माना जा सकता था। उ.वी. शास्त्री ने कुछ उद्धरण सुवर्णसप्ततिशास्त्र से उद्धृत करते हुए यह दिखाने का प्रयास किया कि टीकाकार अठारह तत्त्वों का सूक्ष्म शरीर स्वीकार करते हैं। लेकिन शास्त्री जी द्वारा प्रस्तुत उद्धरण उनके विचार की पुष्टि नहीं करते। वे उद्धरण इस प्रकार हैं-
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श्रृणु में त्वमिदं सूक्ष्मं सांख्यानां विदितात्मनाम्।
#त्रयोदशविधकरणै: सूक्ष्मशरीरं संसारयति
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विहितं यतिभि: सर्वै: कपिलादिभिरीश्वरै:॥ शां. . 301/3
#तस्मात् सूक्ष्मशरीरं विहाय, त्रयोदशकं न स्थातुं क्षमते॥
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पंचम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम्।
#इदं सूक्ष्मशरीरं त्रयोदशकेन सह ... संसरति
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प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्॥ गरुडपुराण 1/18
#पंचतन्मात्ररूपं सूक्ष्मशरीरं त्रयोदशविधकरणैर्युक्त-
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श्रेय: किमत्र संसारे दु:खप्राये नृणामिति।
त्रिविधलोकसर्गान् संसरति।
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प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम्॥ विष्णुपुराण 2/13/54
*सभी उद्धरणों में त्रयोदश करणों के साथ सूक्ष्म शरीर के संसरण की बात कहीं गई है। अत: त्रयोदश करण तथा सूक्ष्म शरीर का पार्थक्य-स्वीकृति स्पष्ट है। चौथे उद्धरण में तो स्पष्टत: 'पंचतन्मात्ररूपं सूक्ष्मशरीरं' कहा गया है। हां एक बात अवश्य विचारणीय है, जिसकी चर्चा शास्त्री जी ने की है कि 'यदि व्याख्याकार सूक्ष्म शरीर में केवल सात तत्त्वों को मानता तो उसका यह-एकादश इन्द्रियों के साथ बुद्धि और अहंकार को जोड़कर त्रयोदश करण का सूक्ष्म शरीर के साथ निदेश करना सर्वथा असंगत हो जाता है<balloon title="सां.द.इ. पृष्ठ 391" style=color:blue>*</balloon>'।
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सांख्यप्रणेता या प्रवर्तक कपिल नामक मुनि हैं। शां. प. में ही 349वें अध्याय में निर्विवाद शब्दों में कहा है कि ''सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षि: स उच्चते''। प्राचीन वाङमय में प्राय: कपिल का उल्लेख परमर्षि, सिद्ध, मुनि आदि विशेषणों के साथ हुआ है। गीता में ''सिद्धानां कपिलो मुनि:'' कहकर उन्हें सिद्धों में श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया। विष्णुपुराण (2।14।9) में कपिल को विष्णु का अंश कहा गया। भागवत में उन्हें विष्णु का अवतार (1।3।10) कहा गया। इसके अतिरिक्त सांख्यसूत्र व कारिका के भाष्यकारों ने एकमतेन कपिल को सांख्यप्रवर्तक के रूप में ही स्वीकार किया। स्वनिर्मित कसौटियों के आधार पर कुछ विद्वान् भले ही कपिल की ऐतिहासिकता व्यक्त नहीं हैं- ऐसा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक ब्रह्मसुत, अग्नि के अवतार, विष्णु के अवतार आदि रूपों में कपिल के उल्लेखों का प्रश्न है- इनसे कपिल की ऐतिहासिकता पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। इन उल्लेखों के आधार पर एक से अधिक कपिलों को माना जाने पर भी दो सांख्यप्रवर्तक कपिलों की कोई परम्परा न होने से सांख्यप्रवर्तक कपिल एक ही हैं- ऐसी प्राचीन मान्यता को प्रामाणिक ही कहा जा सकता है।
*यहां यह कहा जा सकता है कि टीकाकार ने चूंकि कारिकाकार का आशय इसी रूप में समझा है अत: उसने सूक्ष्म शरीर को सप्ततत्त्वात्मक ही कहा और संसरण हेतु एकादशेन्द्रिय की अनिवार्यता को स्वीकार किया।<ref>टीकाकार का यह मन्तव्य स्वयं उदयवीर शास्त्री द्वारा प्रस्तुत उद्धरण में भी स्पष्ट हो जाता है- ''तत्सूक्ष्मशरीरमेकादशेन्द्रियसंयुक्तं'' में एकादशेन्द्रिय का सूक्ष्म शरीर से पृथक् निर्देश टीकाकार के इस आग्रह की पुष्टि करता है कि सूक्ष्म शरीर सात तत्त्वों का है। सूक्ष्म शब्द यहां शरीर नाम का नहीं अपि तु सूक्ष्मता का बोधक है।</ref> लेकिन कारण के रूप में 'त्रयोदशकरण' के मानने का कारिकाकार का स्पष्ट मत देख कर उसका वैसा ही उल्लेख किया।
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सांख्यशास्त्र महाभारत, रामायण, भागवत तथा उपनिषदों से भी प्राचीन है, ऐसा उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्यदर्शन से स्पष्ट होता है (जिसकी चर्चा आगे की जायेगी)। महाभारत में सांख्यसंबन्धी संवाद पुरातन इतिहास के रूप में उल्लिखित है। इससे सांख्यशास्त्र का हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हो जाने का स्पष्ट संकेत मिलता है। परिणामत: यदि सांख्यप्रवर्तक देवहूति-कर्दम-पुत्र कपिल को भी हजारों वर्ष पूर्व का मानें तो अत्युक्ति न होगी।
*यह भी कहा जा सकता है कि बुद्धि और अहंकार कारण तभी कहे जा सकते हैं जब भोग शरीर या संसरण शरीर उपस्थित हो। अत: संसरण के प्रसंग में त्रयोदशकरण कहना और सूक्ष्म (लिंग) शरीर के रूप में बुद्धि और अहंकार को कारण न मानकर मात्र तत्त्व मानना असंगत नहीं है। अथवा यदि यह असंगत है भी तो इसे असंगत कहना ही पर्याप्त है। व्याख्याकार पर अन्य मत का आरोपण संगत नहीं कहा जाएगा।
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भारतीय ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रम के संबन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों की खोज प्रणाली (पुरातत्त्व तथा भाषावैज्ञानिक) के साथ अतिप्राचीनता का सामञ्जस्य न होने तथा मानव की 'अति प्राचीनता' को भी 4-5 हजार वर्षों के भीतर ही बाँध देती है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में मान्य युगगणना भारतीय सभ्यता व संस्कृति को इससे कहीं अधिक प्राचीन घोषित करती हे। इतने लम्बे अन्तराल में कई भौगोलिक और भाषागत परिवर्तनों का हो जाना सहज है। अत: जब तक आधुनिक कही जाने वाली कसौटियाँ पूर्ण व स्पष्ट न हों, प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य को अप्रामाणिक घोषित करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।
==सांख्यवृत्ति==
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अस्तु, या तो यह कहें कि कपिल का समय अत्यन्त प्राचीन है या फिर रामायण, महाभारत के वर्णनों के आधार पर उन्हें इन युगों से बहुत पूर्व का मानें। विष्णुपुराण में- कपिल को सत्ययुग में अवतरित होकर लोककल्याणार्थ उत्कृष्ट ज्ञान का उपदेश दिया- कहकर कपिल के जन्मकाल का संकेत किया गया। अहिर्बुध्न्यसंहिता में लिखा है- त्रेतायुग के प्रांरभ में जब जगत् मोहाकुल हो गया तब कुछ लोककर्ता व्यक्तियों ने जगत् को पूर्ववत् लाने का प्रयास किया। उन लोककर्ताओं में एक व्यक्ति कपिल था।<ref>सांख्यदर्शन का इतिहास पृ. 49</ref> इस प्रकार कपिल का समय सत्ययुग के अन्त में या त्रेतायुग के आदि में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा मानने पर कितने वर्ष की गणना की जाय यह कहना कठिन है। तथापि आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुमानानुसार कर्दम ऋषि भारत में उस समय रहा होगा जब सरस्वती नदी अपनी पूर्ण धारा में प्रवाहित होती थी। सरस्वती नदी के सूख जाने के समय की ऐतिहासिकों ने जो समीप से समीप कल्पना की है वह, अबसे लगभग 25 सहस्र वर्ष पूर्व है।<ref>वही.</ref> कितने पूर्व, यह निर्णय करना कठिन होगा।
यह सांख्यकारिका की वृत्ति है। इसका प्रकाशन सन 1973 में गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा किया गया। इसका सम्पादन ई.ए. सोलोमन ने किया। उनके अनुसार यह सांख्यकारिका की प्राचीनतम टीका है। इसके रचयिता का नामोल्लेख नहीं है। सोलोमन के अनुसार यह संभवत: स्वयं कारिकाकार ईश्वरकृष्ण की रचना है और परमार्थ कृत चीनी अनुवाद का यह आधार रहा है। परमार्थ कृत चीनी भाषा के अनुवाद में 63वीं कारिका नहीं पाई जाती जबकि सांख्यवृत्ति में यह कारिका भाष्य सहित उपलब्ध है। सांख्यवृत्ति में 71वीं कारिका तक ही भाष्य किया गया है। 27वीं कारिका प्रचलित कारिका जैसी न होकर इस प्रकार है-
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परमर्षि कपिल की कृति
<poem>संकल्पमत्र मनस्तच्चेन्द्रियमुभयथा समाख्यातम्।
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कपिल के समय की ही तरह कपिल की कृति के बारे में भी आधुनिक विद्वानों में मतभेद और अनिश्चय व्याप्त है। जिनके मत में कपिल की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, उनके लिए कपिल की कृति की समस्या ही नहीं है।  
अन्तस्त्रिकालविषयं तस्मादुभयप्रचारं तत्॥</poem>
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लेकिन जो लोग कपिल के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके लिए यह एक समस्या है। उपलब्ध प्रमुख सांख्य-ग्रन्थ हैं-
ऐसा ही रूप युक्तिदीपिका में भी है। सांख्यवृत्ति का संभावित रचनाकाल ईसा की 6वीं शताब्दी है।
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(1) तत्त्वसमाससूत्र
==सांख्यसप्ततिवृत्ति==
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(2) पञ्चशिखसूत्र
ई.ए. सोलोमन द्वारा सम्पादित दूसरी पुस्तक है। यह भी सांख्यसप्तति की टीका है। इस पुस्तक का रचनाकाल भी प्राचीन माना गया। संभावना यह व्यक्त की गई कि सांख्यवृत्ति के निकट परवर्ती काल की यह रचना होगी। इसके रचयिता का पूरा नाम पाण्डुलिपि में उपलब्ध नहीं है। केवल 'मा' उपलब्ध है। यह माधव या माठर हो सकता है। अनुयोगद्वार सूत्र में सांख्याचार्यों की सूची में माधव का उल्लेख मिलता है। यह माठर ही रहा होगा<balloon title="एन्सायक्लोपीडिया पृष्ठ 168" style=color:blue>*</balloon>। यह 5वीं शताब्दी से पूर्व रहा होगा। सांख्यसप्तति वृत्ति 'माठरवृत्ति' के लगभग समान है। सोलोमन के अनुसार वर्तमान माठरवृत्ति इसी सांख्यकारिकावृत्ति का विस्तार प्रतीत होता है। माठरवृत्ति में [[पुराण|पुराणों]] को अधिक उद्धृत किया गया है जबकि इस पुस्तक में आयुर्वेदीय ग्रंन्थों के उद्धरण अधिक हैं। माठरवृत्ति की ही तरह इसमें भी 63 कारिकाएँ हैं<balloon title="एन्सायक्लोपीडिया, पृष्ठ 193" style=color:blue>*</balloon>।
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(3) सांख्यकारिका
==युक्तिदीपिका==
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(4) सांख्यप्रवचन सूत्र या सांख्यसूत्र
*युक्तिदीपिका भी सांख्यकारिका की एक प्राचीन व्याख्या है तथा अन्य व्याख्याओं की तुलना में अधिक विस्तृत भी है। इसके रचनाकाल या रचनाकार के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना कठिन है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने जयन्तभट्ट की न्यायमंजरी में 'यत्तु राजा व्याख्यातवान्-प्रतिराभिमुख्ये वर्तते' तथा युक्तिदीपिका में 'प्रतिना तु अभिमुख्यं' – के साम्य तथा वाचस्पति मिश्र द्वारा 'तथा च राजवार्तिकं' (72वीं कारिका पर तत्त्वकौमुदी) कहकर युक्तिदीपिका के आरंभ में दिए श्लोकों में से 10-12 श्लोकों को उद्धृत करते देख युक्तिदीपिकाकार का नाम 'राजा' संभावित माना है। साथ ही युक्तिदीपिका का अन्य प्रचलित नाम राजवार्तिक भी रहा होगा<balloon title="(सां.द.इ. पृष्ठ 477)" style=color:blue>*</balloon>  *सुरेन्द्रनाथदास गुप्त भी राजा कृत कारिकाटीका को राजवार्तिक स्वीकार करते हैं जिसका उद्धरण वाचस्पति मिश्र ने दिया है<balloon title="(भा.द.का.इ. भाग-1, पृष्ठ 203)" style=color:blue>*</balloon>।  उदयवीर शास्त्री के अनुसार युक्तिदीपिकाकार का संभावित समय ईसा की चतुर्थ शती है। जबकि डॉ0 रामचन्द्र पाण्डेय इसे दिङ्नाग (6वीं शती) तथा वाचस्पति मिश्र (नवम शती) के मध्य मानते हैं। युक्तिदीपिका में सांख्य के विभिन्न आचार्यों के मतों के साथ-साथ आलोचनाओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है। यदि युक्तिदीपिका की रचना शंकराचार्य के बाद हुई होती तो शंकर कृत सांख्य खण्डन पर युक्तिदीपिकाकार के विचार होते। अत: युक्तिदीपिकाकार को शंकरपूर्ववर्ती माना जा सकता है। युक्तिदीपिका में उपलब्ध सभी उद्धरणों के मूल का पता लगने पर संभव है रचनाकाल के बारे में और अधिक सही अनुमान लगाया जा सके।
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सांख्यकारिका को तो सभी विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत मानते हैं। पञ्चशिखसूत्र विभिन्न ग्रन्थों में, विशेषत: योगसूत्रों के व्यासभाष्य में उपलब्ध उदाहरणों का संकलन है। अब शेष रह जाती हैं दो रचनाएँ, जिन्हें कपिलकृत कहा जा सकता है। तत्त्वसमास तथा सांख्यसूत्र के व्याख्याकारों ने अलग-अलग इन्हें कपिल की ही कृति माना है। चूँकि ये रचनाएँ भाष्यों या व्याख्याकार के निर्देशों पर ही निर्भर करना पड़ता है। तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनतम व्याख्या क्रमदीपिका है जिसे आचार्य उदयवीर शास्त्री ने माठर वृत्ति से प्राचीन तथा ईश्वरकृष्णरचित कारिकाओं के पश्चात् माना है। तब तत्त्वसमाससूत्र की रचना और भी प्राचीन समय में मानी जा सकती है। भावागणेश के अनुसार उसने तत्त्वसमास की व्याख्या में 'समास' की पंचशिखकृत व्याख्या का अलम्बन लिया। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि भावागणेश पंचशिखकृत व्याख्या के अस्तित्व को मानता था। क्रमदीपिका और भावागणेशकृत (तत्त्वसमाससूत्रों की भावागणेशकृत व्याख्या) को क्रमदीपिका के आधार पर लिखे जाने की संभावना को स्वीकार किया। साथ ही वे क्रमदीपिका को पंचशिख की रचना भी नहीं मानते, फिर, एक और संभावना शास्त्री जी ने व्यक्त की कि दोनों का आधार एक अन्य व्याख्या जिसे पंचशिखकृत समझा गया हो- के आधार पर लिखी गई हो। दोनों ही स्थितियों में यह बात स्पष्ट स्वीकार की जा सकती है कि क्रमदीपिका तत्त्वसमास की उपलब्ध प्राचीन व्याख्या है जो पंचशिखकृत नहीं है। साथ ही पंचशिखकृत 'समाससूत्र' व्याख्या भी अस्तित्ववान् थी। यदि महाभारत शांतिपर्व में उल्लिखित पंचशिख और भावागणेश द्वारा संकेतित पंचशिख दो भिन्न व्यक्ति नहीं हैं।<ref>आचार्य उ.वी. शास्त्री ने दोनों उल्लेख एक ही पंचशिख का माना है सां. द.इ.</ref> तो तत्त्वसमाससूत्र को भी महाभारत-रचनाकाल से अत्यन्त प्राचीन मानना होगा। या फिर डॉ0 ए.बी.कीथ की तरह दो पंचशिखों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। लेकिन इसमें कोई स्पष्ट प्रमाण या परम्परा न होने से तत्त्वसंमास के व्याख्याकार पंचशिख को ही परम्परानुरूप महाभारत में उल्लिखित कपिल के प्रशिष्य के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कपिल को तत्त्वसमाससूत्र का रचयिता मानने की परम्परा के औचित्य को स्वीकार करना गलत नहीं होगा।<ref>एन्सा. में तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनता को मानते हुए भी इसका रचनाकाल 14 शताब्दी माना गया है। साथ ही इसे कपिल से सम्बन्धित करने को अनुचित कहा गया है।</ref>
*युक्तिदीपिका में अधिकांश कारिकाओं को सूत्र रूप में विच्छेद करके उनकी अलग-अलग व्याख्या की गई है। युक्तिदीपिका में समस्त कारिकाओं को चार प्रकरणों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकरण 1 से 14वीं कारिका तक, द्वितीय 15 से 21वीं कारिका तक, तृतीय प्रकरण 22 से 45वीं कारिका तक तथा शेष कारिकाएँ चतुर्थ प्रकरण में। प्रत्येक प्रकरण को आह्निकों में बांटा गया है। कुल आह्निक हैं। कारिका 11,12, 60-63 तथा 65, 66 की व्याख्या उपलब्ध नहीं है। साथ ही कुछ व्याख्यांश खण्डित भी हैं।
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'तत्त्वसमाससूत्र' किसी बृहत ग्रन्थ की विषयसूची प्रतीत होता है जिसमें सांख्य दर्शन को 22 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है। अत्यन्त संक्षिप्त होने से ही संभवत: इसे समाससूत्र कहा गया है। इस सूत्ररचना की आवश्यकता के रूप में दो संभावनाएँ हो सकती है। या तो परमर्षि कपिल ने पहले इन सूत्रों की रचना की बाद में इनके विस्तार के रूप में सांख्यसूत्रों को रचा ताकि आख्यायिकाओं और परवाद-खण्डन के माध्यम से सांख्यदर्शन को अधिक सुग्राह्य और तुलनात्मक 'प में प्रस्तुत किया जा सके या फिर पहले बृहत् सूत्रग्रन्थ की रचना हुई हो और फिर उसे संक्षिप्त सूत्रबद्ध किया गया हो। 'समास' शब्द से दूसरे विकल्प की अधिक सार्थकता सिद्ध होती है।
*सांख्य साहित्य में युक्तिदीपिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सांख्य के प्राचीन आचार्यों के विभिन्न मतों का संकेत युक्तिदीपिका में उपलब्ध है। वार्षगण्य-जिनकी कोई कृति आज उपलब्ध नहीं है, के मत का सर्वाधिक परिचय युक्तिदीपिका में ही उपलब्ध है। इसी तरह विन्ध्यवासी, पौरिक, पंचाधिकरण इत्यादि प्राचीन आचार्यों के मत भी युक्तिदीपिका में हैं। सांख्य परंपरा में अहंकार की उत्पत्ति महत से मानी गई है, लेकिन विंध्यवासी के मत में महत से अहंकार के अतिरिक्त पंचतन्मात्रायें भी उत्पन्न होती हैं। 22वीं कारिका की युक्तिदीपिका में विन्ध्यवासी का मत इस प्रकार रखा गया है।
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उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में 'सांख्यसूत्र' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके रचनाकार और रचनाकाल के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्त्य विद्वान् तथा उनके अनुसार विचारशैली वाले भारतीय विद्वान् सांख्यसूत्रों को ईश्वरकृष्णकृत कारिकाओं के बाद की रचना मानते हैं। यद्यपि इस संभावना को स्वीकार किया जाता है कि कुछ सूत्र अत्यन्त प्राचीन रहे हों तथापि वर्तमान रूप में सूत्र अनिरुद्ध या उसके पूर्वसमकालिक व्यक्ति द्वारा ही अर्थात् पद्रहवीं शती में रचित या संकलित हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र, डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि इसे कपिलप्रणीत और प्राचीन मानते हैं। सांख्यसूत्रों के सभी भाष्यकार टीकाकार भी इसे कपिलप्रणीत ही मानते हैं। इस विषय में दोनों पक्षों की युक्तियों का परिचय रोचक होगा।
*'महत: षाड्विशेषा:सृज्यन्ते तन्मात्राण्यहंकारश्चेति विंध्यवासिमतम्' पंचाधिकरण इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं- 'भौतिकानीन्द्रियाणीति पंचाधिकरणमतम्' (22वीं कारिका पर युक्तिदीपिका) संभवत: वार्षगण्य ही ऐसे सांख्याचार्य हैं जो मानते हैं कि प्रधानप्रवृत्तिरप्रत्ययापुरुषेणाऽपरिगृह्यमाणाऽदिसर्गे वर्तन्ते<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका)" style=color:blue>*</balloon>'  साथ ही वार्षगण्य के मत में एकादशकरण मान्य है जबकि प्राय: सांख्य परम्परा त्रयोदशकरण को मानती है युक्तिदीपिका के उक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय तक सांख्यदर्शन में अनेक मत प्रचलित हो चुके थे।
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ईश्वरकृष्णविरचित सांख्यकारिका में 72वीं कारिका में कहा गया ''सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्था: कृत्स्नस्य षष्टितंत्रस्य आख्यायिकाविरहिता: परवादविवर्जिताश्चेति''।
==जयमंगला==
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अर्थात् इस सप्तति (सत्तर श्लोकयुक्त) में जो विषय निरूपित हुए हैं वे निश्चित ही समस्त पष्टितन्त्र के विषय में हैं। यहाँ ये आख्यायिका एवं परमतखण्डन को वर्जित करके कहे गये हैं।
*यद्यपि इसके रचनाकाल के बारे में भी अनिश्चय की स्थिति है, तथापि विभिन्न निष्कर्षों के आधार पर इसका रचनाकाल 600 ई. या इसके बाद माना गया<balloon title="(19वीं कारिका पर युक्तिदीपिका,पृष्ठ 371 )" style=color:blue>*</balloon>है।  
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अब, उपलब्ध षडध्यायी सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके प्रथम तीन अध्यायों में कारिकाओं का कथ्य लगभग पूर्णत: समाहित है। शेष तीन अध्यायों में आख्यायिकाएँ और परमतखण्डन है। ईश्वरकृष्ण की घोषणा ओर उपलब्ध सांख्यसूत्रों को सामने रखकर बड़ी सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईश्वरकृष्ण का संकेत इसी ग्रन्थ की ओर होना चाहिए (कम से कम तब तक ऐसा माना जा सकता है कि जब तक आख्यायिका और परवादयुक्त कोई अन्य सांख्यग्रन्थ न मिल जाय) लेकिन इस सरल से लगने वाले निष्कर्ष में एक समस्या है 'षष्टितन्त्र' शब्द की। यह शब्द किसी ग्रन्थ का नाम है या साठ पदार्थों वाले शास्त्र का बोधक? षष्टितंत्र नामक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ईश्वरकृष्ण के संकेत के अनुसार ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध सांख्यसूत्र है। अत: षष्टितन्त्र और सांख्यसूत्र ये दो नाम एक ही ग्रन्थ के निरूपित हो जायें तब यह कहा जा सकता है कि कपिलप्रणीत षष्टितंत्र सांख्यसूत्र ही है।
*उदयवीर शास्त्री इसे 600 ई. तक लिखा जा चुका मानते हैं<balloon title="सां. द. इ. पृ. 453" style=color:blue>*</balloon>।
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आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार षष्टितंत्र शब्द कपिलप्रणीत ग्रन्थ का नाम हे। अपने मत की पुष्टि में शास्त्री जी ने सां. 2.5. द्वितीय अध्याय में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें ''षष्टितंत्र'' शब्द का प्रयोग हुआ है।  
*गोपीनाथ कविराज के अनुसार इसके रचयिता बौद्ध थे। रचयिता का नाम शंकर (शंकराचार्य या शंकरार्य) है। ये गोविन्द आचार्य के शिष्य थे- ऐसा जयमंगला के अन्त में उपलब्ध वाक्य से ज्ञात होता है। जयमंगला भी सांख्यकारिका की व्याख्या है।
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1. कल्पसूत्र में महावीर स्वामी को ''सट्ठितन्तविशारए'' (षष्टितन्त्रविशारद:) कहा गया है। इस वाक्य की व्याख्या में यशोविजय लिखता है- षष्टितंत्रं कपिलशास्त्रम्, तत्र विशारद:।
==गौडपादभाष्य==
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2. अहिर्बुध्न्यसंहिता- षष्टिभेदं स्मृतं तंत्रं सांख्यं नाम महामुने:।
सांख्यकारिकाओं की टीकाओं में संभवत: भाष्य नाम से यही ग्रंथ उपलब्ध है। परमार्थ कृत चीनी भाषा में टीका, सांख्यवृत्ति, सांख्यसप्ततिवृत्ति तथा माठरवृत्ति से इसका पर्याप्त साम्य है। विशेषकर सुवर्णसप्ततिशास्त्र (चीनी टीका का संस्कृत रूपांतर) के सप्ततत्त्वात्मक सूक्ष्म शरीर की मान्यता के समान आठ तत्त्वों के शरीर की चर्चा मात्र गौडपादभाष्य में ही उपलब्ध है। गौडपादभाष्य केवल 69 कारिकाओं पर ही उपलब्ध है। सांख्यकारिका तथा माण्डूक्यकारिका के भाष्यकार एक ही गौडपाद है या भिन्न, यह भी असंदिग्धत: नहीं कहा जा सकता।
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3. वेदान्तसूत्र पर आचार्य भास्करभाष्य- तत: कपिलप्रणीत- षष्टितन्त्राख्य...
==माठरवृत्ति==
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4. शारीरक भाष्य (2/9/9) – स्मृतिश्च तन्त्राख्या परमर्षिप्रणीता
सांख्यकारिका की एक अन्य टीका है जिसके टीकाकार कोई माठरचार्य हैं। माठर वृत्ति की, गौडपादभाष्य तथा सुवर्णसप्ततिशास्त्र (परमार्थकृत चीनी अनुवाद) से काफी समानता है। इस समानता के कारण आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इसे ही चीनी अनुवाद का आधार माना है। संभवत: इसीलिए उन्होंने सुवर्णसप्तति में सूक्ष्मशरीर विषयक तत्त्वात्मक वर्णन को अठारह तत्त्वों के संघात की मान्यता के रूप में दर्शाने का प्रयास किया। यद्यपि सुवर्णसप्ततिकार के मत का माठर से मतभेद अत्यन्त स्पष्ट है। माठरवृत्ति में पुराणादि के उद्धरण तथा मोक्ष के संदर्भ में अद्वैत वेदान्तीय धारणा के कारण डा. आद्या प्रसाद मिश्र भी डॉ0 उमेश मिश्र, डॉ0 जानसन, एन. अय्यास्वामी शास्त्री की भांति माठरवृत्ति को 1000 ई. के बाद की रचना मानते है। ई.. सोलोमन द्वारा सम्पादित सांख्यसप्ततिवृत्ति के प्रकाशन से दोनों की समानता एक अन्य संभावना की ओर अस्पष्टत: संकेत करती है कि वर्तमान माठरवृत्ति सांख्यसप्ततिवृत्ति का ही विस्तार है। इस संभावना को स्वीकार करने का एक संभावित कारण सूक्ष्म शरीर विषयक मान्यता भी मानी जा सकती है। 40वीं कारिका की टीका में माठर सूक्ष्म शरीर में त्रयोदशकरण तथा पंचतन्मात्र स्वीकार करते हैं। यही परम्परा अन्य व्याख्याओं में स्वीकार की गई है। जबकि सुवर्णसप्तति में सात तत्त्वों का उल्लेख है। जो हो, अभी तो यह शोध का विषय है कि माठरवृत्ति तथा सुवर्णसप्तति का आधार सप्ततिवृत्ति को माना जाय या इन तीनों के मूल किसी अन्य ग्रन्थ की खोज की जाय।
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5. वाक्यपदीय के व्याख्याकार ऋषभदेव ने लिखा है- षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायम्
==तत्त्वकौमुदी==
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6. जयमंगला- बहुधा कृतं तन्त्रं षष्टितन्त्राख्यं षष्टिखण्डं कृतमिति
यह सांख्यकारिका की विख्यात टीका है। इसके रचनाकार मैथिल ब्राह्मण वाचस्पति मिश्र हैं। वाचस्पति मिश्र षड्दर्शनों के व्याख्याकार हैं। साथ ही शंकर दर्शन के विख्यात आचार्य भी हैं जिनकी 'भामती' प्रसिद्ध है। तत्त्वकौमुदी का प्रकाशन डॉ0 गंगानाथ झा के सम्पादन में 'ओरियण्टल बुक एजेन्सी, पूना' द्वारा 1934 ई. में हुआ। तत्त्वकौमुदी का एक संस्करण हम्बर्ग से 1967 ई. में प्रकाशित हुआ, जिसे श्री एस.ए. श्रीनिवासन ने 90 पाण्डुलिपियों की सहायता से तैयार किया। वाचस्पति मिश्र ईसा के नवम शतक में किसी समय रहे हैं। तत्त्वकौमुदी सांख्यकारिका की उपलब्ध प्राचीन टीकाओं में अन्यतम स्थान रखती है। कारिका-व्याख्या में कहीं भी ऐसा आभास नहीं मिलता जो वाचस्पति के अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट करता हो। यह वाचस्पति मिश्र की विशेषता कही जा सकती है कि उन्होंने तटस्थभावेन सांख्यमत को ही युक्तिसंगत दर्शन के रूप में दिखाने का प्रयास किया। डॉ0 उमेश मिश्र के विचार में सांख्य रहस्य को स्पष्ट करने में कौमुदीकार सफल नहीं रहे। लगभग ऐसा ही मत एन्सायक्लोपीडिया में भी व्यक्त किया गया, जबकि डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र के अनुसार यह टीका मूल के अनुक रहस्यों के उद्घाटन में समर्थ हुई है।
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7. विस्तरत्वात् षष्टितन्त्रस्य संक्षिप्तसूचिसत्त्वानुग्रहार्थसप्तातिकारम्भ:
==तत्त्वकौमुदी की टीकाएँ<balloon title="यह विवरण एन्सायक्लोपीडिया भाग-4 के आधार पर है" style=color:blue>*</balloon>==
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उपर्युक्त उद्धरणों में क्रमांक 5 में तो षष्टितंत्र ग्रंथनाम प्रतीत होता है, यद्यपि षष्टितंत्र ग्रन्थ का अर्थ षष्टितंत्र का ग्रन्थ अर्थात् साठ पदार्थों वाले सिद्धान्त अथवा ज्ञान का ग्रन्थ – ऐसा भी किया जा सकता है। क्रमांक 6 में भी यदि सिद्धान्त या ज्ञान का संक्षिप्त ऐसा प्रचलित अर्थ न लिया जाय तो 'षष्टितंत्र' ग्रन्थ का- इस अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। उद्धरण क्रमांक 3 में भी 'षष्टितंत्र' नामक कपिलप्रणीत अर्थ लिया जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में 'तंत्र' शब्द ज्ञान या सिद्धान्त के अर्थ में लेने का आग्रह हो तो भी अर्थसंगति को उचित कहा जा सकता है। यद्यपि क्रमांक 3.4. स्पष्टत: ग्रन्थ नाम का संकेत देते हैं।
#तत्त्वविभाकर- वंशीधर मिश्र कृत यह टीका संभवत: 1750 ई. सन के लगभग लिखी गई। इसका प्रकाशन 1921 ई. में हुआ।
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अत: आचार्य उदयवीर शास्त्री के मत को स्वीकार करने में अनौचित्य नहीं है। तथापि ऐसी 'बाध्यता' का संकेत उद्धरणों में नहीं है। दूसरी ओर श्री रामशंकर भट्टाचार्य का विचार है कि षष्टितंत्र शब्द किसी ग्रन्थनाम का ज्ञापक शब्द नहीं बल्कि सांख्यशास्त्रपरक है जिसमें पदार्थों को साठ भागों में विभक्त कर विचार किया गया था।<ref>सांख्यतत्त्वकौमुदी ज्योतिष्मती व्याख्या 72वीं कारिका पर।</ref> इसमें उनकी युक्ति यह है कि जब पूर्वकारिका (69) में कारिकाकार ने कहा कि उन्होंन 'एतत्' (अर्थात् पुरुषार्थ ज्ञान जो परमर्षिभाषित था और जिसको मुनि ने आसुरी को दिया था) को-जो शिष्यपरम्परागत है- संक्षिप्त किया है, तब पुन: इस कथन का क्या स्वारस्य होता है। कि प्रस्तुत सांख्यकारिका नामक ग्रन्थ में जितने प्रतिपाद्य विषय हैं, वे 'कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रनामग्रन्थविशेषस्य' है? जिस स्वारस्य की यहां जिज्ञासा की गई वह तो है। कारिका में कहा गया है कि ''यह संक्षिप्त आख्यायिका और परवादविवर्जित है। अब या तो कपिलासुरीपञ्चशिखपरम्परा में आख्यायिका और परमतखण्डन की प्रचुरता का कोई प्रमाण हो या फिर षष्टितंत्र का कोई ग्रन्थ हो जिसमें ये निहित हों। सांख्यशास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ऐसा एक ही ग्रन्थ है 'सांख्यसूत्र'। अत: 'कृत्स्नस्य' का स्वारस्य यह दर्शाने में है कि षष्टितंत्र में प्रस्तुत दर्शन का संक्षिप्त किया गया है न कि पूरे ग्रन्थ का (क्योंकि आख्यायिका-परवाद छोड़ दिया गया)।
#तत्त्वकौमुदी व्याख्या- भारतीयति कृत व्याख्या बाबू कौलेश्वर सिंह पुस्तक विक्रेता [[वाराणसी]] द्वारा प्रकाशित।
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षष्टितंत्र सांख्यविद्यापरक शब्द हो या सांख्यग्रन्थनामपरक हो, इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि यह तन्त्र कपिल प्रोक्त, कृत या प्रणीत है। पञ्चशिख का प्रसिद्ध सूत्र ''आदिविद्वान निमार्णचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरो जिज्ञासमानाय तंत्रं प्रोवाच'' युक्तिदीपिका के आरंभ में 14वें श्लोक में ''पारमर्धस्य तंत्र'' अनुयोगद्वारसूत्र  41 में कपिल-सट्ठियन्तं अहिर्बुध्न्यसंहिता के पूर्वोक्त उद्धरण आदि पर्याप्त प्रमाण हैं। षष्टितंत्र लिखित हो या मौखिक, कपिलप्रणीत तो है ही। अत: यदि ऐसा कोई संकलन उपलब्ध हो जिसे षष्टितन्त्र कहा जाता हो और जिसमें आख्यायिका एवं परवाद हों तो उसे कपिलप्रणीत कहने में कोई विसंगति नहीं है। ऐसा ग्रन्थ है सांख्यसूत्र। इस ग्रन्थ को अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु कपिलसूत्र ही मानते हैं तथा आधुनिक विद्वानों में आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र तथा डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि भी कपिलरचित मानते हैं। जबकि श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती, मैक्समूलर, लार्सन, कीथ आदि इसे एक अर्वाचीन कृति मानते हैं। सांख्यसूत्रों को अर्वाचीन घोषित करने के पीछे निम्नलिखित तर्क प्राय: दिए जाते हैं।  
#आवरणवारिणी- कौमुदी की यह टीका महामहोपाध्याय कृष्णनाथ न्यायपंचानन रचित हैं।
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1. 15वीं शती से पूर्व सूत्रों पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है। वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अन्य दर्शन सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखा है- ने भी कारिका पर भाष्य लिखा है। यदि सूत्र कपिलप्रणीत होते तो वाचस्पति मिश्र उस पर ही भाष्य लिखते।
#विद्वत्तोषिणी- बालराम उदासीन कृत कौमुदी व्याख्या मूलत: अपूर्ण है, तथापि पंडित रामावतार शर्मा द्वारा पूर्ण की गई।
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2. दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यकारिका के उद्धरण तो मिलते हैं। लेकिन सूत्रों को किसी में उद्धृत नहीं किया गया।
#गुणमयी- तत्त्वकौमुदी की यह टीका महामहोपाध्याय रमेशचंद्र तर्क तीर्थ की रचना है।  
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3. सूत्र में न्याय-वैशेषिक आदि का खण्डन है जबकि कपिल इनसे अन्यन्त प्राचीन माने जाते हैं।
#पूर्णिमा- पंचानन तर्करत्न की कृति है।
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4. 'सूत्र' में अनेक सूत्र ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि को उद्धृत किया गया है।  
#किरणावली- श्री कृष्ण वल्लभाचार्य रचित।
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5. कुछ सूत्र इतने विस्तृत हैं कि वे सूत्र न होकर कारिका ही प्रतीत होते हैं। संभवत: वे कारिका से यथावत् लिए गए हैं।
#सांख्यतत्त्व कौमुदी प्रभा- डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र
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ध्यान से देखने पर उपर्युक्त सभी युक्तियाँ तर्कसंगत न होकर केवल मान्यता मात्र प्रतीत होती हैं। किसी ग्रन्थ पर भाष्य का उपलब्ध होना उस ग्रन्थ की भाष्यकार के समय से पूर्ववर्तिता का प्रमाण तो हो सकता है लेकिन भाष्य का न होना ग्रन्थ के न होने में प्रमाण नहीं होता। उलटे यह ऐतिहासिक शोध का विषय होना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ पर भाष्य क्यों नहीं लिखा गया होगा? भारतीय इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति और विकास की अवस्था का वैदिक दर्शनों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तब तक उस सांख्यदर्शन का जिसे महाभारत में सुप्रतिष्ठित माना गया था, अध्ययन-अध्यापन नगण्य हो चला था। इस अवस्था में सांख्यसूत्रों पर भाष्य की आवश्यकता अनुभूत न होना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि ईश्वरकृष्ण द्वारा कारिकाओं की रचना के बाद सूत्रों की अपेक्षा सुग्राह्य होने से कारिकाएँ अधिक प्रचलित हो गई हों। फिर, ईश्वर या परमात्मा जैसे शब्दों के न होने से, दुखनिवृत्ति प्रमुख लक्ष्य होने से, बौद्धकाल और उसके बाद भारत में राजनैतिक उथल-पुथल विदेशी आक्रमण आदि से भग्नशान्ति समाज में पलायनवादी प्रवृत्ति की उत्पत्ति और प्रसार ने पलायनवादी दार्शनिक विचारों को प्रश्रय दिया हो। परिणामस्वरूप वेदान्त की विशिष्ट धारा का खण्डन अथवा मण्डन ही वैचारिक केन्द्र बन गए हों। ऐसी अवस्था में संसार को तुच्छ मानने और मनुष्य के अस्तित्व के बजाय परमात्मा पर पूर्णत: आश्रित रहने वाले दर्शनों का ही प्रचार-प्रसार का होना ह्रासोन्मुख समाज में स्वाभाविक है। सांख्यदर्शन में पुरुषबहुत्व और परमात्मा से उसकी पृथक् सत्तामान्य है। ऐसा दर्शन पलायनवादी परिस्थितियों में लुप्त होने लगा हो तो क्या आश्चर्य? संभवत: इसीलिए गत दो हजार वर्षों में बौद्ध और वेदान्त पर जितना लिखा गया उसकी तुलना में शुद्ध तर्कशास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त शेष दर्शन सम्प्रदायों पर नगण्य लेख हुआ। इस अवधि में सांख्यकारिका के भी अंगुलियों पर गिने जाने योग्य भाष्य ही लिखे गये। ऐसे में संभव है सांख्यसूत्र अथवा उन पर भाष्य सर्वथा अप्रचलित हो गए हों। और भी कारण ढूँढ़े जा सकते हैं सारांश यह कि भाष्यों का उपलब्ध न होना किसी अवधि में किसी ग्रन्थ के अप्रचलन को तो निगमित कर सकता है, उसके अनस्तित्व को सिद्ध नहीं करता। फिर, अनिरुद्ध, महादेव वेदान्ती, विज्ञानभिक्षु आदि को सांख्यसूत्र के कपिलप्रणीत होने पर संदेह नहीं हुआ। हमारी जानकारी में पाश्चात्त्य प्राच्यविद्याविशारदों की स्थापनाओं से पूर्व तक की भारतीय परम्परा सांख्यसूत्रों को कपिल-प्रणीत ही मानती रही है। ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये सूत्र कपिलप्रणीत नहीं हैं।
#तत्त्वप्रकाशिका- डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर
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यही समाधान सांख्यसूत्रों के उद्धरणों की कथित अनुपलब्धि के विषय में भी हो सकता है। यह कहना ही गलत है कि प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यसूत्रों के उद्धरण नहीं मिलते। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े ही यत्न से कई उद्धरण प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों से ढूँढ़ कर प्रस्तुत किये हैं।<ref>सां. द.इ.</ref>
#सारबोधिनी- शिवनारायण शास्त्री
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न्याय-वैशेषिक आदि के खण्डन का होना, ब्रह्मसूत्र आदि का उद्धृत होना सांख्यसूत्र के अर्वाचीन होने का प्रमाण नहीं है। इनके आधार पर इन्हें मूलग्रन्थ में प्रक्षिप्त ही माना जाना चाहिए। कारिकावत् सूत्रों के बारे में भी उल्टा निष्कर्ष निकाला गया है। कारिका को प्राचीन मान लेने के कारण ही सूत्र को कारिका के आधार पर रचित-माना जा सकता है। अन्यथा कारिकाएँ सूत्र के आधार पर रची गई- ऐसा क्यों न माना जाय जबकि कपिलसूत्र को प्राचीन मानने की सुदीर्ध परम्परा है।  
#सुषमा- हरिराम शुक्ल तत्त्वकौमुदी पर इतनी व्याख्याएँ उसकी प्रसिद्धि और महत्ता का स्पष्ट प्रमाण हैं।
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इस प्रकार सांख्य-सूत्रों को कारिका से अर्वाचीन मानना केवल 'मान्यता' है, प्रामाणिक नहीं। अत: जब तक ऐसा स्पष्ट प्रमाण कि उपलब्ध सांख्यसूत्र कपिलप्रणीत नही है, उपलब्ध न हो, प्रामाणिक परम्परा को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है।  
==सांख्यचन्द्रिका==
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सांख्यसूत्रपरिचय
सांख्यकारिका की एक अर्वाचीन व्याख्या है जिसके व्याख्याकार नारायणतीर्थ हैं। नारायणतीर्थ सत्रहवीं शती के हैं। इन्हें अन्य भारतीय दर्शनों का भी अच्छा ज्ञान था। सांख्य-चंद्रिका ही संभवत: एक मात्र व्याख्या है जिसमें छठी कारिका में 'सामान्यतस्तु दृष्टात' का अर्थ सामान्यतोदृष्ट अनुमान न लेकर 'सामान्यत: तु दृष्टात्' अर्थ में ही स्वीकार किया।
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सांख्यसूत्र का प्रचलित नाम 'सांख्यप्रवचनसूत्र' है। सूत्र सर्वप्रथम अनिरुद्ध 'वृत्ति' के रूप में प्राप्त है। स्वतंत्र रूप से सूत्रग्रंथ उपलब्ध न होने से सूत्रसंख्या, अधिकरण, अध्याय-विभाग आदि के बारे में वृत्तिकार अनिरुद्ध तथा तदनुरूप कृत भाष्यकार विज्ञानभिक्षु की कृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। सांख्यप्रवचनसूत्र 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 164 सूत्र हैं। इसे अनिरुद्ध विषयाध्याय कहते हैं। इस अध्याय में सांख्य की विषयवस्तु का परिचय दिया गया है। सूत्र 1-6 में दु:खत्रय, उनसे निवृत्ति के दृष्ट उपायों की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख है। सूत्र 8-60 में बन्ध की समस्या पर विचार किया गया। पुरुष के असंग होने से उसका बन्धन नहीं कहा जा सकता। कर्म, भोग आदि बुद्धि के त्रिगुणात्मक विकारों के धर्म होने से इन्हें भी बन्ध का कारण नहीं कहा जा सकता। बन्ध का कारण प्रकृति, पुरुष में भेदविस्मृति का अविवेक है। शेष सूत्रों में प्रकृति, विकृति, आदि का  नामोल्लेख, प्रमाणविचार, प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि, सत्कार्यवाद- निरूपण आदि की चर्चा है। प्रकृति और पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में हेतु की भी चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मात्र 47 सूत्र हैं। इस अध्याय को प्रधानकार्याध्याय कहा जाता है। इन सूत्रों में प्रधान के कार्य महत्, अहंकार, इन्द्रियादि की चर्चा की गई। करणों की वृत्तियों का उल्लेख भी किया गया। तृतीय अध्याय में 84 सूत्र हैं। अनिरुद्ध इस अध्याय को वैराग्याध्याय कहते हैं। इस अध्याय में प्रकृति के स्थूल कार्य, सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर, आत्मा की विभिन्न योनियों में गति तथा पर-अपर वैराग्य की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में 32 सूत्र हैं जिनमें आख्यायिकाओं के द्वारा विवेकज्ञान के साधनों को प्रदर्शित किया गया है। 130 सूत्रों के पांचवें अध्याय में परमतखण्डन है। यहाँ विभिन्न कारणों से ईश्वर के कर्मफलदातृत्व का निषेध किया गया है। साथ ही वेदों की (शब्दराशिरूप में) अनित्यता का, सत्ख्याति, असत्ख्याति, अन्यथाख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि का खण्डन करते हुए सदसत्ख्याति को स्थापित किया गया। छठे अध्याय में 61 सूत्र हैं। इन सूत्रों में सांख्यमत जिसे पूर्वाध्यायों में विस्तार से प्रस्तुत किया गया हे- को संक्षेप में उपसंहृय किया गया।
==सांख्यतरुवसन्त==
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उपलब्ध सांख्यप्रवचनसूत्र के अध्यायों में विषयप्रस्तुति का क्रम ईश्वरकृष्ण की 62वीं कारिका के अनुरूप ही है। सांख्यसिद्धान्त की पूर्ण चर्चा तो प्रथम तीन अध्यायों में ही निहित है। अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्ण ने आख्यायिका और परमतखण्डन को छोड़ दिया है।
यह सांख्यकारिका की अर्वाचीन व्याख्या है। इसमें विज्ञानभिक्षु की ही तरह परमात्मा की सत्ता को स्वीकार किया गया है। सांख्य तथा वेदान्त समन्वय के रूप में इस व्याख्या को जाना जाता है। तीसरी कारिका की व्याख्या के प्रसंग में तरुवसन्तम् में लिखा है-
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आचार्य उदयवीर शात्री ने सूत्रों की अन्तरंग परीक्षा करके सांख्यसूत्र में प्रक्षेपों को संकलित किया। उनके अनुसार प्रथम अध्याय में 19वें सूत्र के बाद विषयवस्तु अथवा कथ्य की संगति 55वें सूत्र से है। 20-54 सूत्रों में अप्रासंगिक विषयान्तर होने से शास्त्री जी इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं। इन सूत्रों में ''न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत्'' (1/25), न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीते: (1/42), शून्यं तत्त्वं भावो (1/44) तथा 'पाटलिपुत्र' आदि को देखकर न केवल इसकी अप्रासंगिकता का बोध होता है अपितु कपिल के बहुत बाद में स्थापित मतों के खण्डन की उपस्थिति भी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु इन सूत्रों में बौद्धमत का खण्डन देखते हैं। उदयवीर शास्त्री का मत है कि इन सूत्रों का प्रक्षेप शंकराचार्य के प्रादुर्भाव के उपरांत हुआ होगा। इसी तरह पाँचवें अध्याय में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा में सूत्र 84 से 115 तक 32 सूत्रों को शास्त्री जी ने प्रक्षिप्त घोषित किया है, जो कि उचित प्रतीत होता है।
<poem>पुरुष एक: सनातन: स निर्विशेष: चितिरूप.... पुमान्
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सांख्यसूत्र और कारिका के दर्शन में सिद्धान्तरूप में विरोध या भेद नहीं है तथापि कतिपय साधारण भेद अवश्य प्रतीत होते हैं। पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में सांख्यसूत्र में हेतु दो समूहो में या वर्गों में है। प्रथम वर्ग सूत्र 1/140-42 में और द्वितीय वर्ग सूत्र 1/143-44 में। संघातपरार्थत्वात्, त्रिगुणादिविपर्ययात्, अधिष्ठानाच्चेति 1/140-42) प्रथम समूह है। अनिरुद्ध विज्ञानभिक्षु सहित प्राय: टीकाकारों ने 'अधिष्ठानात् च इति' के भाष्य में हेतु समाप्ति को स्वीकार किया है। भोक्तृभावत्, कैवल्थार्थप्रवृत्तेश्च, ये 2 सूत्र पुन: हेतु निर्देश करते हैं। जबकि सांख्यकारिका में पाँचों हेतु एक साथ दिए गए हैं। एक अन्य भेद प्रमाणविषयक है। सूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण है जबकि कारिका में दृष्ट व्याख्याकारों ने दृष्ट को प्रत्यक्ष माना है। जिससे निश्चयात्मकता का भाव स्पष्ट होता है जबकि सूत्रगत प्रमा की परिभाषा को ध्यान में रखा जाये जहाँ 'असन्निकृष्टार्थपरिच्छिती प्रमा' कहा गया है तो प्रत्यक्ष में ही नहीं अनुमान और शब्द प्रमाणजन्य प्रमा भी निश्चयात्मक निरूपित होती है। सूत्र में अनुमान प्रमाण के भेदों का उल्लेख नहीं है किन्तु कारिका में 'त्रिविधमनुमानम्' स्वीकार किया गया है। कारिकाओं में त्रिगुण साम्य के रूप में प्रकृति को कहीं परिभाषित नहीं किया गया। इस विपरीत सूत्र में 1/61 में सत्त्वरजस्तमस् की साम्यावस्था का स्पष्ट उल्लेख है। सांख्यकारिकाएँ चूँकि संक्षिपत प्रस्तुति है इसलिए सूत्रों से अन्तर होना स्वाभाविक है।
अविविक्त संसार भुक् संसार पालकश्चेति द्विकोटिस्थो वर्तर्ते।
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आसुरि
विविक्त: परम: पुमानेक एव । स आदौ सर्गमूलनिर्वाहाय
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आसुरि कपिल मुनि के शिष्य और सांख्याचार्य पचंशिख के गुरु थे। महाभारत के शांतिपर्व में पंचशिख को आसुरि का प्रथम शिष्य कहा गया है।<ref>शां. .</ref> यहाँ आसुरि के बारे में कहा गया है कि उन्होंने तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली थी। ज्ञानसिद्धि के द्वारा उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञभेद को समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखाई देता है उसका ज्ञान उन्होंने प्रतिपादित किया।<ref>वही</ref> शां.प. के ही 318वे अध्याय में उल्लिखित सांख्याचार्यों के नामों की सूची में भी आसुरि का नामोल्लेख है। पञ्चशिखसूत्र में भी 'परमर्षि ने जिज्ञासु आसुरि को ज्ञान दिया' कहकर आसुरि के कपिलशिष्य होने का स्पष्ट संकेत दिया।<ref>सां.द. में उ.वी. शास्त्री संकलित प्रथम सूत्र।</ref> ईश्वरकृष्णकृत 70वीं कारिका में ''एतत् पवित्रमग्यं मुनिरासुरये प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्'' कहकर कपिल के शिष्य और पञ्चशिख के गुरु रूप में आसुरि का उल्लेख किया। सांख्यकारिका के भाष्यकारों ने भी इस गुरुशिष्य परम्परा को यथावत् स्वीकार किया। इतनी स्पष्ट परम्परा के आधार पर आसुरि की ऐतिहासिकता सिद्ध है। कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा आसुरि के अनैतिहासिक होने के अप्रामाणिक आग्रह का आद्याप्रसाद मिश्र ने निराकरण किया है।<ref>सां. द. ऐ.प.</ref> माठरवृत्ति के आरंभ में प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आसुरि गृहस्थ थे। फिर वे दु:खत्रय के अभिघात के कारण गृहस्थ आश्रम से विरत हो कपिल मुनि के शिष्य हो गये।<ref>माठरवृत्ति प्रथम कारिका पर। ऐसा ही प्रसंग 70वीं कारिका पर जयमंगला में।</ref>
ज्ञानेन विविक्तौऽपि इच्छया अविविक्तो भवति।</poem> इन विचारों का समर्थन श्री अभय मजूमदार ने भी किया है<balloon title="सांख्य कन्सेप्ट आफ पर्सनालिटी" style=color:blue>*</balloon>। तरुवसंत के रचयिता मुडुम्ब नरसिंह स्वामी है। इसका प्रकांशन डॉ0 पी.के. शशिधरन के सम्पादन में मदुरै कामराज विश्वविद्यालय द्वारा 1981 में हुआ।
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आसुरि की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आसुरि के नाम से उद्धृत एक श्लोक में पुरुष के भोग के विषय में उनका मत प्राप्त होता है। तदनुसार जिस प्रकर स्वच्छ जल में चन्द्र प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार असंग पुरुष में बुद्धि का प्रतिबिम्बित होना उसका भोग कहलाता है। सांख्यसूत्र में 'चिदवसानो भोग:' कहकर ऐसा ही मत प्रस्तुत किया गया है।  
==सांख्यसूत्रवृत्ति==
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पंचशिख
*कपिल प्रणीत सूत्रों की व्याख्या की यह पहली उपलब्ध पुस्तक है। इसका 'वृत्ति' नाम स्वयं रचयिता अनिरुद्ध द्वारा ही दिया गया है<balloon title="वृत्ति: कृताऽनिरुद्धेन सांख्यसूत्रस्य धीमता।" style=color:blue>*</balloon>। अनिरुद्ध सूत्रों को सांख्यप्रवचनसूत्र भी कहते हैं जिसे बाद के व्याख्याकारों, टीकाकारों ने भी स्वीकार किया। वृत्तिकार विज्ञानभिक्षु से पूर्ववर्ती है ऐसा प्राय: विद्वान स्वीकार करते हैं तथापि इनके काल के विषय में मतभेद है। सांख्यसूत्रों के व्याख्याचतुष्टय के सम्पादक जनार्दन शास्त्री पाण्डेय अनिरुद्ध का समय 11वीं शती स्वीकार करते हैं जैसा कि उदयवीर शास्त्री प्रतिपादित करते हैं प्राय: विद्वान् इसे 1500 ई. के आसपास का मानते हैं। रिचार्ड गार्बे सांख्यसूत्रवृत्ति के रचयिता को ज्योतिष ग्रन्थ 'भास्वतिकरण' के रचयिता भावसर्मन् पुत्र अनिरुद्ध से अभिन्न होने को भी संभावित समझते हैं जिनका जन्म 1464 ई. में माना जाता है।  
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ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है ''एतत् पवित्रमग्यम् मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्''॥ आसुरि ने षष्टितन्त्र का ज्ञान पंचशिख को दिया और पंचशिख ने उसे बहुविध, व्यापक या विस्तत किया। माठरवृत्ति के अनुसार ''पंचशिखेन मुनिना... षष्टितंत्राख्य षष्टिखण्डं कृतमिति। तत्रैव हि ''षष्टिरर्था व्याख्याता:''। युक्तिदीपिका के अनुसार ''बहुभ्यो जनकवसिष्ठादिभ्य: समाख्यातम्<ref>70वीं कारिका पर माठरवृत्ति तथा युक्तिदीपिका</ref> साथ ही भावागणेश के अनुसार उनके तत्त्वसमाससूत्र का तत्त्वयाथार्थ्यदीपन पंचशिख की व्याख्या पर आधृत हे। इस तरह सांख्यशास्त्रीय परम्परा में सांख्याचार्य के रूप में तो पंचशिख विख्यात है ही, महाभारत में भी ऊहापोहप्रवीण, पंचरात्रविशारद, पंचज्ञ, अन्नादि पंच कोशों के शिखा स्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता के रूप में पंचशिख का उल्लेख किया गया। शांतिपर्व में ही पंचशिख संवादों को प्राचीन इतिहास के रूप में स्मरण किया गया। इसका अर्थ है कि पंचशिख का समय 800 वर्ष ई.पू. के बहुत पहले, संभवत: हजारों वर्ष पूर्व रहा होगा। पंचशिख आसुरि के प्रथम शिष्य थे और आसुरि कपिल-शिष्य थे। अत: पंचशिख को कपिल के काल के उत्तरसमकालीन के रूप में अर्थात् त्रेतायुग के आरंभ में अथवा कृतयुग के अन्त में ही रखा जाना चाहिए। पंचशिख की माता कपिला नामक ब्राह्मणी थी। आचार्य पंचशिख ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया, वे दीर्घायु थे। आचार्य पंचशिख के दर्शन का परिचय यहाँ महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
*अनिरुद्ध सांख्य दर्शन को अनियतपादार्थवादी कहते हैं<balloon title="सां. सू. 1/45, 46 पर अनिरुद्धवृत्ति" style=color:blue>*</balloon>। अनियतपादार्थवादी का यदि यह आशय है कि तत्त्वों की संख्या नियत नहीं है, तो अनिरुद्ध का यह मत उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि सांख्य में 25 तत्त्व 60 पदार्थ आदि नियत गणना तो प्रचलित है हि। यदि पदार्थों के स्वरूप की अनियतता से आशय है तो यह सांख्य विरुद्ध नहीं होगा, क्योंकि सत्व रजस तमस के अभिनव, आश्रय, मिथुन, जनन विधि से अनेकश: पदार्थ रचना संभव है और इसका नियत संख्या या स्वरूप बताया नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त अनिरुद्धवृत्ति की एक विशेषता यह भी हे कि उसमें सूक्ष्म या लिंग शरीर 18 तत्त्वों का (सप्तदश+एकम्) माना गया है। फिर भोग और प्रमा दोनों को ही अनिरुद्ध बुद्धि में स्वीकार करते हैं।
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मिथिला में जनकवंशी राजा जनकदेव के समक्ष विभिन्न नास्तिक मतों का निराकरण करते हुए सांख्यशास्त्र को प्रस्तुत किया गया।<ref>शा.प. अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद।</ref>
*अनिरुद्ध द्वारा स्वीकृत सूत्र पाठ विज्ञानभिक्षु के स्वीकृत पाठों से अनेक स्थलों पर भिन्न हैं। अनिरुद्धवृत्ति<balloon title="सूत्र 1/109" style=color:blue>*</balloon> में 'सौक्ष्म्यादनुलपब्धि' है, जब भिक्षुभाष्य में 'सौक्ष्यम्यातदनुपलिब्धि' पाठ है। यद्यपि अर्थ दृष्ट्या इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथापित ईश्वरकृष्ण की 8वीं कारिका के आधार पर 'सौक्ष्द्वम्यात्तदनुपलब्धि' का प्रचलन हो गया- ऐसा कहा जा सकता है। ध्यातव्य है कि सूत्र 1/124 में अनिरुद्धवृत्ति के अनुसार 'अव्यापि' शब्द नहीं मिलता न ही उसका अनिरुद्ध द्वारा अर्थ किया गया, जबकि विज्ञानभिक्षु के सूत्रभाष्य में न केवल 'अव्यापि' शब्द सूत्रगत है अपि तु भिक्षु ने कारिका को उद्धृत करते हुए 'अव्यापि' का अर्थ भी किया है। इसी तरह सूत्र 3/73 में अनिरुद्धवृत्ति में 'रूपै:सप्तभि... विमोच्यत्येकेन रूपेण' पाठ है जबकि भिक्षुकृत पाठ कारिका 63 के समान 'विमोच्यत्येकरूपेण' है। ऐसा प्रतीत होता है कि सांख्यसूत्रों का प्राचीन पाठ अनिरुद्धवृत्त् में यथावत् रखा गया जबकि विज्ञानभिक्षु ने कारिका के आधार पर पाठ स्वीकार किया। साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि अनिरुद्ध ने कारिकाओं को कहीं भी उद्धृत नहीं किया तथापि कहीं-कहीं कारिकागत शब्दों का उल्लेख अवश्य किया है यथा सूत्र 1/108 की वृत्ति में 'अतिसामीप्यात्' 'मनोऽनवस्थानात्' 'व्यवधानात्' आदि। जबकि विज्ञानभिक्षु ने प्राय: सभी समान प्रसंगों पर कारिकाओं को उद्धृत किया है।  
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आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है; यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूह मात्र है। यद्यपि यह सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण), इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है, क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकास और धातु प्रकट हुए हैं।
==सांख्यप्रवचनभाष्य==
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श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपाद कहते हैं। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, अत: इन्हें दुख नहीं प्राप्त होते हैं। जो लोग मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हों उन सबको चाहिए कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करें। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं।
*सांख्यप्रवचनसूत्र पर आचार्य विज्ञानभिक्षु का भाष्य है। आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सांख्यमत पुन: प्रतिष्ठित किया। विज्ञानभिक्षु का समय आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार सन 1350 ई. के पूर्व का होना चाहिए। अधिकांश विद्वान इन्हें 15वीं-16वीं शताब्दी का मानते हैं। विज्ञानभिक्षु की कृतियों में सांख्यप्रवचनभाष्य के अतिरिक्त योगवार्तिक, योगसार संग्रह, विज्ञानामृतभाष्य, सांख्यसार आदि प्रमुख रचनायें हैं। सांख्य दर्शन की परंपरा में विज्ञानभिक्षु ने ही सर्वप्रथम सांख्यमत को श्रुति और स्मृतिसम्मत रूप में प्रस्तुत किया। [[सांख्य दर्शन]] पर लगे अवैदिकता के आक्षेप का भी इन्होंने सफलता पूर्वक निराकरण किया। अपनी रचनाओं के माध्यम से आचार्य ने सांख्य दर्शन का जो अत्यन्त प्राचीन काल में सुप्रतिष्ठित वैदिक दर्शन माना जाता था, का विरोध परिहार करते हुए परिमार्जन किया।
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ज्ञानेन्द्रियों की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। एक ज्ञानेन्द्रिय विषय से संयुक्त होकर चित्त के साथ संयुक्त होती है। यहाँ चित्त अन्त:करण के अर्थ में प्रयुक्त है। विषय, ज्ञानेन्द्रिय और चित्त इन तीन के संयोग से विषयज्ञान होता है।
*'''सांख्यकारिका-व्याख्या''' के आधार पर प्रचलित सांख्यदर्शन में कई स्पष्टीकरण व संशोधन विज्ञानभिक्षु ने किया। प्राय: सांख्यदर्शन में तीन अंत:करणों की चर्चा मिलती है। सांख्यकारिका में भी अन्त:करण त्रिविध<balloon title="(कारिका 33)" style=color:blue>*</balloon> कहकर इस मत को स्वीकार किया। लेकिन विज्ञानभिक्षु अन्त:करण को एक ही मानते हैं। उनके अनुसार 'यद्यप्येकमेवान्त:करणं वृत्तिभेदेन त्रिविधं लाघवात्' सा.प्र.भा. 1/64)। आचार्य विज्ञानभिक्षु से पूर्व कारिकाव्याख्याओं के आधार पर प्रचलित दर्शन में दो ही शरीर सूक्ष्म तथा स्थूल मानने की परम्परा रही है। लेकिन आचार्य विज्ञानभिक्षु तीन शरीरों की मान्यता को युक्तिसंगत मानते हैं। सूक्ष्म शरीर बिना किसी अधिष्ठान के नहीं रहा सकता, यदि सूक्ष्म शरीर का आधार स्थूल शरीर ही हो तो स्थूल शरीर से उत्क्रान्ति के पश्चात लोकान्तर गमन सूक्ष्म शरीर किस प्रकार कर सकता है? विज्ञानभिक्षु के अनुसार सूक्ष्म शरीर बिना अधिष्ठान शरीर के नहीं रह सकता अत: स्थूल शरीर को छोड़कर शरीर ही है<balloon title="(वही- 1/12)" style=color:blue>*</balloon>। । 'अङगुष्ठमात्र:पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जना हृदये सन्निविष्ट:<balloon title="कठोपनिषद् 1॥6। 17" style=color:blue>*</balloon>', अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं स<balloon title="(महाभारत वनपर्व 397/17)" style=color:blue>*</balloon>- आदि श्रुति-स्मृति के प्रमाण से अधिष्ठान शरीर की सिद्धि करते हैं।
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अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतनसत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ कहलाता है। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलकर अपनी वैयक्तिकता को त्याग देती हैं उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़  जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित होकर उत्तम गति को प्राप्त होता है।
*अन्य सांख्याचार्यों से लिंग शरीर के विषय में विज्ञानभिक्षु भिन्न मत रखते हैं। वाचस्पति मिश्र, माठर, शंकराचार्य आदि की तरह अनिरुद्ध तथा महादेव वेदान्ती ने भी लिंग शरीर को अट्ठारह तत्त्वों का स्वीकार किया। इनके विपरीत विज्ञानभिक्षु ने सूत्र 'सप्तदशैकम् लिंगम्<balloon title="3/9)" style=color:blue>*</balloon>' की व्याख्या करते हुए 'सत्रह' तत्त्वों वाला 'एक' ऐसा स्वीकार करते हैं। विज्ञानभिक्षु अनिरुद्ध की इस मान्यता की कि सांख्यदर्शन अनियतपदार्थवादी है- कटु शब्दों में आलोचना करते हैं<balloon title="सांख्यानामनियतपदार्थाम्युपगम इति मूढप्रलाप उपेक्षणीय:। सां.प्र.भा. 1/61" style=color:blue>*</balloon> अनिरुद्ध ने कई स्थलों पर सांख्य दर्शन को अनियत पदार्थवादी कहा है। 'किं चानियतपदार्थवादास्माकम्<balloon title="सां. सू. 1/।45" style=color:blue>*</balloon>', 'अनियतपदार्थवादित्वात्सांख्यानाम्<balloon title="(5/85)" style=color:blue>*</balloon>' इसकी आलोचना में विज्ञानभिक्षु इसे मूढ़ प्रलाप घोषित करते हैं। उनका कथन है कि -'एतेन सांख्यानामनियतपदार्थाभ्युपगम इति मूढ़प्रलाप उपेक्षणीय:<balloon title="(सा.प्र.भा. 1/61)" style=color:blue>*</balloon>' । विज्ञानभिक्षुकृत यह टिप्पणी उचित ही है। सांख्यदर्शन में वर्ग की दृष्टि से जड़ चेतन, अजतत्त्वों की दृष्टि से भोक्ता, भोग्य और प्रेरक तथा समग्ररूप से तत्त्वों की संख्या 24, 25 वा 26 आदि माने गए हैं। अत: सांख्य को अनियतपदार्थवादी कहना गलत है। हां, एक अर्थ में यह अनियत पदार्थवादी कहा जा सकता है यदि पदार्थ का अर्थ इन्द्रिय जगत् में गोचन नानाविधि वस्तु ग्रहण किया जाय। सत्त्व रजस् तमस् की परस्पर अभिनव, जनन, मिथुन, प्रतिक्रियाओं से असंख्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनके बारे में नियतरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
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संक्षिप्त
*अनिरुद्ध प्रत्यक्ष के दो भेद-निर्विकल्प तथा सविकल्प, की चर्चा करते हुए सविकल्प प्रत्यक्ष को स्मृतिजन्य अत: मनोजन्य, मानते हैं। विज्ञानभिक्षु इसका खण्डन करते हैं। विज्ञानभिक्षु अनिरुद्धवृत्ति को लक्ष्य कर कहते हैं- 'कश्चित्तु सविकल्पकं तु मनोमात्रजन्यमिति' लेकिन 'निर्विकल्पकं सविकल्पकरूपं द्विविधमप्यैन्द्रिकम्' हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने भोग विषयक अनिरुद्ध मत का भी विज्ञान भिक्षु की मान्यता से भेद का उल्लेख किया है<balloon title="(सां. द.इ. पृष्ठ 348-49)" style=color:blue>*</balloon>।  तदनुसार अनिरुद्ध ज्ञान भोग आदि का संपाइन बुद्धि में मानते हैं। विज्ञानभिक्षु उक्त मत उपेक्षणीय कहते हुए कहते हैं। 'एवं हि बुद्धिरेव ज्ञातृत्वे चिदवसानो भोग: इत्यागामी सूत्रद्वयविरोध: पुरुषों प्रभाणाभावश्च। पुरुषलिंगस्य भोगस्य बुद्धावेव स्वीकारात्<balloon title="(सा.प्र.भा. 1/99)" style=color:blue>*</balloon>'। यदि ज्ञातृत्व भोक्तृत्वादि को बृद्धि में ही मान लिया गया तब चिदवसानो भोग:<balloon title="(सूत्र 1/104)" style=color:blue>*</balloon>  व्यर्थ हो जायेगा। साथ ही भोक्तृभावात् कहकर पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में दिया गया प्रमाण भी पुरुष की अपेक्षा बुद्धि की ही सिद्धि करेगा। तब पुरुष को प्रमाणित किस तरह किया जा सकेगा।
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1. एन्सा.— एन्सायक्लोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4
*सांख्य दर्शन को स्वतंत्र प्रधान कारणवादी घोषित कर सांख्यविरोधी प्रकृति पुरुष संयोग की असंभावना का आक्षेप लगाते हैं। विज्ञानभिक्षु प्रथम सांख्याचार्य है, जिन्होंने संयोग के लिए ईश्वरेच्छा को माना। विज्ञानभिक्षु ईश्वरवादी दार्शनिक थे। लेकिन सांख्य दर्शन में ईश्वर प्रतिषेध को वे इस दर्शन की दुर्बलता मानते हैं<balloon title="(सां. प्र.भा. 1/92)" style=color:blue>*</balloon>। विज्ञानभिक्षु के अनुसार सांख्य दर्शन में ईश्वर का खण्डन प्रमाणापेक्षया ही है। ईश्वर की सिद्धि प्रमाणों (प्रत्यक्षानुमान) से नहीं की जा सकती इसलिए सूत्रकार ईश्वरासिद्धे:<balloon title="(सूत्र 1/92)" style=color:blue>*</balloon> कहते है। यदि ईश्वर की सत्ता की अस्वीकृत वांछित होती तो 'ईश्वराभावात्'- ऐसा सूत्रकार कह देते। इस प्रकार विज्ञानभिक्षु सांख्य दर्शन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके योग, वेदान्त तथा श्रुति-स्मृति की धारा में सांख्य दर्शन को ला देते हैं, जैसा कि [[महाभारत]] [[पुराण|पुराणादि]] में वह उपलब्ध था। इस तरह विज्ञानभिक्षु सांख्य दर्शन को उसकी प्राचीन परम्परा के अनुसार ही व्याख्यायित करते हैं। ऐसा करके वे सांख्य, योग तथा वेदान्त के प्रतीयमान विरोधों का परिहार कर समन्वय करते हैं। प्रतिपाद्य विषय में प्रमुखता का भेद होते हुए भी सिद्धान्तत: ये तीनों ही दर्शन श्रुति-स्मृति के अनुरूप विकसित दर्शन हैं। अद्वैताचार्य शंकर ने विभिन्न आस्तिक दर्शनों का खण्डन करते हुए जिस तरह अद्वैतावाद को ही श्रुतिमूलक दर्शन बताया उससे यह मान्यता प्रचलित हो चली थी कि इनका वेदान्त से विरोध है। विज्ञानभिक्षु ही ऐसे प्रथम सांख्याचार्य हैं जिन्होंने किसी दर्शन को 'मल्ल' घोषित न कर एक ही धरातल पर समन्वित रूप में प्रस्तुत किया।
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2. इ.सां.था. इवोल्युशन आफ सांख्य स्कूल आफ थॉट
#सांख्यसूत्रवृत्तिसार-अनिरुद्धवृत्ति का सारांश ही है जिसके रचयिता महादेव वेदान्ती हैं।
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3. ओ.डे. सां.सि.- ओरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ सांख्य सिस्टम आफ थाट
#भाष्यसार विज्ञानभिक्षुकृत सांख्यप्रवचनभाष्य का सार है जिसके रचयिता नागेश भट्ट हैं।
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4. भा.द. आ.अ.- भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन
#सर्वोपकारिणी टीका यह अज्ञात व्यक्ति की तत्त्वसमास सूत्र पर टीका है।
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5. शा.प.- महाभारत शांति पर्व
#सांख्यसूत्रविवरण तत्व समास सूत्र पर अज्ञात व्यक्ति की टीका है।  
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6. सां. का.- सांख्यकारिका
#क्रमदीपिका भी तत्त्वसमास सूत्र की टीका है कर्ता का नाम ज्ञात नही है।  
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7. सां.द.इ.- सांख्य दर्शन का इतिहास
#तत्त्वायाथार्थ्यदीपन- तत्वसमास को यह टीका विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश की रचना है यह भिक्षु विचारानुरूप टीका है।  
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8. सां.द.ऐ.प.- सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा
#सांख्यतत्त्व विवेचना- यह भी तत्वसमास सूत्र की टीका है जिसके रचयिता षिमानन्द या क्षेमेन्द्र हैं।
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9. सां.प्र.भा.- सांख्यप्रवचन भाष्य
#सांख्यतत्त्वालोक- सांख्ययोग सिद्धान्तों पर हरिहरानन्द आरण्य की कृति है।
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10. सां.सि.- सांख्य सिद्धान्त
#पुराणेतिहासयो: सांख्ययोग दर्शनविमर्श: - नामक पुस्तक पुराणों में उपलब्ध सांख्यदर्शन की तुलनात्मक प्रस्तुति है। इसके लेखक डा. श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी हैं। और इसका प्रकाशन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से सन् 1979 ई. में हुआ।
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11. सां.सू.- सांख्यसूत्र
#सांख्ययोगकोश:- लेखक आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी वाराणसी से सन्  1974 ई. में प्रकाशित।
 
#श्रीरामशंकर भट्टाचार्य ने सांख्यसार की टीका तथा तत्त्वयाथार्थ्यदीपन सटिप्पण की रचना की। दोनों ही पुस्तकें प्रकाशित हैं<balloon title="आधुनिक काल में रचित अन्य कुछ रचनाओं के लिए द्रष्टव्य एन्सायक्लापीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4" style=color:blue>*</balloon>।<ref></ref>
 
 
 
==टीका टिप्पणी==
 
<references/>
 
[[Category:कोश]]
 
[[Category:दर्शन]]
 
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१३:२७, ६ फ़रवरी २०१० का अवतरण

सांख्याचार्य और सांख्यवाङमय मानव सभ्यता का भारतीय इतिहास विश्व में प्राचीनतम जीवित इतिहास है। हजारों वर्षों के इस काल में अनेकानेक प्राकृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। परिवर्तन के इस कालचक्र में इतिहास का बहुत सा अंश लुप्त हो जाना स्वाभाविक है। महाभारत में सांख्य दर्शन का हमेशा ही प्राचीन इतिहास के रूप में कथन हुआ है। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकाल तक यह दर्शन सुप्रतिष्ठित हो चुका था। तत्त्वगणना और स्वरूप की विभिन्न प्रस्तुतियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तब तक सांख्यदर्शन अनेक रूपों में स्थापित हो चुका था और उनका संकलन महाभारत में किया गया। महाभारत ग्रंथ के काल के विषय में अन्य भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह ही मतभेद है। मतभेद मुख्यत: दो वर्गों (पाश्चात्य और भारतीय विद्वद्वर्गों) में माना जा सकता है। भारतीय विद्वदवर्ग भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। एक वर्ग पाश्चात्त्य मत का समर्थक और दूसरा विशुद्ध रूप से भारतीय वाङमय के आधार पर मत रखने वाले विद्वानों का। पाश्चात्त्य मत के अनुसार महाभारत के मोक्षधर्मपर्व की रचना 200 वर्ष ई.पूर्व से 200 ई. के मध्य हुई।[१] डॉ0 राजबलि पाण्डेय के अनुसार महाभारत ग्रन्थ का परिवर्तन ई.पू. 32 से ई.पू. 286 वर्ष की अवधि में तथा कुछ विद्वानों के अनुसार मोक्षधर्मपर्वपरिवर्द्धन शुंगकाल (ई.पू. 185 के आसपास) में हुआ।[२] डॉ0 आद्या प्रसाद मिश्र ने ए.बी. कीथ के मत (ई.पू. 200 से 200 ई.) की समीक्षा करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया कि वर्तमान महाभारत भी 600 वर्ष ई. पू. से बहुत पहले का होना चाहिए।[३] यह ठीक है कि महाभारत ग्रन्थ अपने विकासक्रम में कई व्यक्तियों द्वारा लम्बे समय तक परिवर्द्धित होता हुआ वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुआ है। लेकिन कब कितना और कौन सा अंश जोड़ा गया, इसके स्पष्ट प्रमाण के अभाव में भारतीय साक्ष्य को मान्य करते हुए वर्षगणना के बजाय इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में उपलब्ध सांख्यदर्शन अत्यन्त प्राचीन है और प्राचीन सांख्यदर्शन के विस्तृत परिचय के लिए महाभारत एक प्राचीनतम प्रामाणिक रचना है।

आचार्य-परम्परा

शांतिपर्व अध्याय 318 के अनुसार कुछ सांख्याचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- जैगीषव्य, असितदेवल, पराशर, वार्षगण्य, भृगु, पञ्चशिख, कपिल, गौतम, आर्ष्टिषेण, गर्ग, नारद, आसुरि, पुलस्त्य, सनत्कुमार, शुक्र, कश्यप। इनके अतिरिक्त शांतिपर्व में विभिन्न स्थलों पर याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ का भी उल्लेख है। युक्तिदीपिका में जनक-वसिष्ठ का उल्लेख है। ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका के अनुसार कपिल, आसुरी और पञ्चशिख; माठरवृत्ति के अनुसार भार्गव, उलूक, वाल्मीकि, हारीत, देवल आदि; युक्तिदीपिका में जनक, वसिष्ठ के अतिरिक्त हारीत, वाद्वलि, कैरात, पौरिक, ऋषभेश्वर, पञ्चाधिकरण, पतञ्जलि, वार्षगण्य, कौण्डिन्य, मूक आदि नामों का उल्लेख है। शांतिपर्व तथा सातवें सनातन को भी योगवेत्ता सांख्यविशारद कहा गया है। उपर्युक्त प्राचीन आचार्यों के अतिरिक्त सांख्यसूत्र, तत्त्वसमास व सांख्य कारिकाओं के व्याख्याकार भी सांख्याचार्य कहे जा सकते हैं। अत्यन्त प्राचीन आचार्यों का वर्णन करने से पूर्व सांख्यप्रणेता कपिल के बारे में उल्लेख करना आवश्यक होगा, क्योंकि कपिल एक हैं अथवा एक से अधिक, ऐतिहासिक व्यक्ति हैं या काल्पनिक, इस प्रकार के अनेक मत इनके विषय में प्रचलित हैं। सांख्यप्रवर्तक कपिल विद्यासहायवन्तं च आदित्यस्थं समाहितम्। कपिलं प्राहुराचार्या: सांख्यनिश्चितनिश्चया:॥ शां.पं. 339/68 श्रृणु में त्वमिदं सूक्ष्मं सांख्यानां विदितात्मनाम्। विहितं यतिभि: सर्वै: कपिलादिभिरीश्वरै:॥ शां. प. 301/3 पंचम: कपिलो नाम सिद्धेश: कालविप्लुतम्। प्रोवाचाऽऽसुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम्॥ गरुडपुराण 1/18 श्रेय: किमत्र संसारे दु:खप्राये नृणामिति। प्रष्टुं तं मोक्षधर्मज्ञं कपिलाख्यं महामुनिम्॥ विष्णुपुराण 2/13/54 सांख्यप्रणेता या प्रवर्तक कपिल नामक मुनि हैं। शां. प. में ही 349वें अध्याय में निर्विवाद शब्दों में कहा है कि सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षि: स उच्चते। प्राचीन वाङमय में प्राय: कपिल का उल्लेख परमर्षि, सिद्ध, मुनि आदि विशेषणों के साथ हुआ है। गीता में सिद्धानां कपिलो मुनि: कहकर उन्हें सिद्धों में श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया गया। विष्णुपुराण (2।14।9) में कपिल को विष्णु का अंश कहा गया। भागवत में उन्हें विष्णु का अवतार (1।3।10) कहा गया। इसके अतिरिक्त सांख्यसूत्र व कारिका के भाष्यकारों ने एकमतेन कपिल को सांख्यप्रवर्तक के रूप में ही स्वीकार किया। स्वनिर्मित कसौटियों के आधार पर कुछ विद्वान् भले ही कपिल की ऐतिहासिकता व्यक्त नहीं हैं- ऐसा उल्लेख किसी प्राचीन ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक ब्रह्मसुत, अग्नि के अवतार, विष्णु के अवतार आदि रूपों में कपिल के उल्लेखों का प्रश्न है- इनसे कपिल की ऐतिहासिकता पर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। इन उल्लेखों के आधार पर एक से अधिक कपिलों को माना जाने पर भी दो सांख्यप्रवर्तक कपिलों की कोई परम्परा न होने से सांख्यप्रवर्तक कपिल एक ही हैं- ऐसी प्राचीन मान्यता को प्रामाणिक ही कहा जा सकता है। सांख्यशास्त्र महाभारत, रामायण, भागवत तथा उपनिषदों से भी प्राचीन है, ऐसा उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्यदर्शन से स्पष्ट होता है (जिसकी चर्चा आगे की जायेगी)। महाभारत में सांख्यसंबन्धी संवाद पुरातन इतिहास के रूप में उल्लिखित है। इससे सांख्यशास्त्र का हजारों वर्ष पूर्व स्थापित हो जाने का स्पष्ट संकेत मिलता है। परिणामत: यदि सांख्यप्रवर्तक देवहूति-कर्दम-पुत्र कपिल को भी हजारों वर्ष पूर्व का मानें तो अत्युक्ति न होगी। भारतीय ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा घटनाक्रम के संबन्ध में पाश्चात्त्य विद्वानों की खोज प्रणाली (पुरातत्त्व तथा भाषावैज्ञानिक) के साथ अतिप्राचीनता का सामञ्जस्य न होने तथा मानव की 'अति प्राचीनता' को भी 4-5 हजार वर्षों के भीतर ही बाँध देती है। दूसरी ओर भारतीय परम्परा में मान्य युगगणना भारतीय सभ्यता व संस्कृति को इससे कहीं अधिक प्राचीन घोषित करती हे। इतने लम्बे अन्तराल में कई भौगोलिक और भाषागत परिवर्तनों का हो जाना सहज है। अत: जब तक आधुनिक कही जाने वाली कसौटियाँ पूर्ण व स्पष्ट न हों, प्राचीन भारतीय साहित्य के साक्ष्य को अप्रामाणिक घोषित करना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। अस्तु, या तो यह कहें कि कपिल का समय अत्यन्त प्राचीन है या फिर रामायण, महाभारत के वर्णनों के आधार पर उन्हें इन युगों से बहुत पूर्व का मानें। विष्णुपुराण में- कपिल को सत्ययुग में अवतरित होकर लोककल्याणार्थ उत्कृष्ट ज्ञान का उपदेश दिया- कहकर कपिल के जन्मकाल का संकेत किया गया। अहिर्बुध्न्यसंहिता में लिखा है- त्रेतायुग के प्रांरभ में जब जगत् मोहाकुल हो गया तब कुछ लोककर्ता व्यक्तियों ने जगत् को पूर्ववत् लाने का प्रयास किया। उन लोककर्ताओं में एक व्यक्ति कपिल था।[४] इस प्रकार कपिल का समय सत्ययुग के अन्त में या त्रेतायुग के आदि में स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा मानने पर कितने वर्ष की गणना की जाय यह कहना कठिन है। तथापि आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुमानानुसार कर्दम ऋषि भारत में उस समय रहा होगा जब सरस्वती नदी अपनी पूर्ण धारा में प्रवाहित होती थी। सरस्वती नदी के सूख जाने के समय की ऐतिहासिकों ने जो समीप से समीप कल्पना की है वह, अबसे लगभग 25 सहस्र वर्ष पूर्व है।[५] कितने पूर्व, यह निर्णय करना कठिन होगा। परमर्षि कपिल की कृति कपिल के समय की ही तरह कपिल की कृति के बारे में भी आधुनिक विद्वानों में मतभेद और अनिश्चय व्याप्त है। जिनके मत में कपिल की ऐतिहासिकता संदिग्ध है, उनके लिए कपिल की कृति की समस्या ही नहीं है। लेकिन जो लोग कपिल के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनके लिए यह एक समस्या है। उपलब्ध प्रमुख सांख्य-ग्रन्थ हैं- (1) तत्त्वसमाससूत्र (2) पञ्चशिखसूत्र (3) सांख्यकारिका (4) सांख्यप्रवचन सूत्र या सांख्यसूत्र सांख्यकारिका को तो सभी विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत मानते हैं। पञ्चशिखसूत्र विभिन्न ग्रन्थों में, विशेषत: योगसूत्रों के व्यासभाष्य में उपलब्ध उदाहरणों का संकलन है। अब शेष रह जाती हैं दो रचनाएँ, जिन्हें कपिलकृत कहा जा सकता है। तत्त्वसमास तथा सांख्यसूत्र के व्याख्याकारों ने अलग-अलग इन्हें कपिल की ही कृति माना है। चूँकि ये रचनाएँ भाष्यों या व्याख्याकार के निर्देशों पर ही निर्भर करना पड़ता है। तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनतम व्याख्या क्रमदीपिका है जिसे आचार्य उदयवीर शास्त्री ने माठर वृत्ति से प्राचीन तथा ईश्वरकृष्णरचित कारिकाओं के पश्चात् माना है। तब तत्त्वसमाससूत्र की रचना और भी प्राचीन समय में मानी जा सकती है। भावागणेश के अनुसार उसने तत्त्वसमास की व्याख्या में 'समास' की पंचशिखकृत व्याख्या का अलम्बन लिया। इससे इतना तो कहा ही जा सकता है कि भावागणेश पंचशिखकृत व्याख्या के अस्तित्व को मानता था। क्रमदीपिका और भावागणेशकृत (तत्त्वसमाससूत्रों की भावागणेशकृत व्याख्या) को क्रमदीपिका के आधार पर लिखे जाने की संभावना को स्वीकार किया। साथ ही वे क्रमदीपिका को पंचशिख की रचना भी नहीं मानते, फिर, एक और संभावना शास्त्री जी ने व्यक्त की कि दोनों का आधार एक अन्य व्याख्या जिसे पंचशिखकृत समझा गया हो- के आधार पर लिखी गई हो। दोनों ही स्थितियों में यह बात स्पष्ट स्वीकार की जा सकती है कि क्रमदीपिका तत्त्वसमास की उपलब्ध प्राचीन व्याख्या है जो पंचशिखकृत नहीं है। साथ ही पंचशिखकृत 'समाससूत्र' व्याख्या भी अस्तित्ववान् थी। यदि महाभारत शांतिपर्व में उल्लिखित पंचशिख और भावागणेश द्वारा संकेतित पंचशिख दो भिन्न व्यक्ति नहीं हैं।[६] तो तत्त्वसमाससूत्र को भी महाभारत-रचनाकाल से अत्यन्त प्राचीन मानना होगा। या फिर डॉ0 ए.बी.कीथ की तरह दो पंचशिखों के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा। लेकिन इसमें कोई स्पष्ट प्रमाण या परम्परा न होने से तत्त्वसंमास के व्याख्याकार पंचशिख को ही परम्परानुरूप महाभारत में उल्लिखित कपिल के प्रशिष्य के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में कपिल को तत्त्वसमाससूत्र का रचयिता मानने की परम्परा के औचित्य को स्वीकार करना गलत नहीं होगा।[७] 'तत्त्वसमाससूत्र' किसी बृहत ग्रन्थ की विषयसूची प्रतीत होता है जिसमें सांख्य दर्शन को 22 सूत्रों में प्रस्तुत किया गया है। अत्यन्त संक्षिप्त होने से ही संभवत: इसे समाससूत्र कहा गया है। इस सूत्ररचना की आवश्यकता के रूप में दो संभावनाएँ हो सकती है। या तो परमर्षि कपिल ने पहले इन सूत्रों की रचना की बाद में इनके विस्तार के रूप में सांख्यसूत्रों को रचा ताकि आख्यायिकाओं और परवाद-खण्डन के माध्यम से सांख्यदर्शन को अधिक सुग्राह्य और तुलनात्मक 'प में प्रस्तुत किया जा सके या फिर पहले बृहत् सूत्रग्रन्थ की रचना हुई हो और फिर उसे संक्षिप्त सूत्रबद्ध किया गया हो। 'समास' शब्द से दूसरे विकल्प की अधिक सार्थकता सिद्ध होती है। उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में 'सांख्यसूत्र' भी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके रचनाकार और रचनाकाल के विषय में आधुनिक विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्त्य विद्वान् तथा उनके अनुसार विचारशैली वाले भारतीय विद्वान् सांख्यसूत्रों को ईश्वरकृष्णकृत कारिकाओं के बाद की रचना मानते हैं। यद्यपि इस संभावना को स्वीकार किया जाता है कि कुछ सूत्र अत्यन्त प्राचीन रहे हों तथापि वर्तमान रूप में सूत्र अनिरुद्ध या उसके पूर्वसमकालिक व्यक्ति द्वारा ही अर्थात् पद्रहवीं शती में रचित या संकलित हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र, डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि इसे कपिलप्रणीत और प्राचीन मानते हैं। सांख्यसूत्रों के सभी भाष्यकार टीकाकार भी इसे कपिलप्रणीत ही मानते हैं। इस विषय में दोनों पक्षों की युक्तियों का परिचय रोचक होगा। ईश्वरकृष्णविरचित सांख्यकारिका में 72वीं कारिका में कहा गया सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्था: कृत्स्नस्य षष्टितंत्रस्य आख्यायिकाविरहिता: परवादविवर्जिताश्चेति। अर्थात् इस सप्तति (सत्तर श्लोकयुक्त) में जो विषय निरूपित हुए हैं वे निश्चित ही समस्त पष्टितन्त्र के विषय में हैं। यहाँ ये आख्यायिका एवं परमतखण्डन को वर्जित करके कहे गये हैं। अब, उपलब्ध षडध्यायी सूत्रों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके प्रथम तीन अध्यायों में कारिकाओं का कथ्य लगभग पूर्णत: समाहित है। शेष तीन अध्यायों में आख्यायिकाएँ और परमतखण्डन है। ईश्वरकृष्ण की घोषणा ओर उपलब्ध सांख्यसूत्रों को सामने रखकर बड़ी सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईश्वरकृष्ण का संकेत इसी ग्रन्थ की ओर होना चाहिए (कम से कम तब तक ऐसा माना जा सकता है कि जब तक आख्यायिका और परवादयुक्त कोई अन्य सांख्यग्रन्थ न मिल जाय) लेकिन इस सरल से लगने वाले निष्कर्ष में एक समस्या है 'षष्टितन्त्र' शब्द की। यह शब्द किसी ग्रन्थ का नाम है या साठ पदार्थों वाले शास्त्र का बोधक? षष्टितंत्र नामक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ईश्वरकृष्ण के संकेत के अनुसार ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध सांख्यसूत्र है। अत: षष्टितन्त्र और सांख्यसूत्र ये दो नाम एक ही ग्रन्थ के निरूपित हो जायें तब यह कहा जा सकता है कि कपिलप्रणीत षष्टितंत्र सांख्यसूत्र ही है। आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार षष्टितंत्र शब्द कपिलप्रणीत ग्रन्थ का नाम हे। अपने मत की पुष्टि में शास्त्री जी ने सां. 2.5. द्वितीय अध्याय में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनमें षष्टितंत्र शब्द का प्रयोग हुआ है। 1. कल्पसूत्र में महावीर स्वामी को सट्ठितन्तविशारए (षष्टितन्त्रविशारद:) कहा गया है। इस वाक्य की व्याख्या में यशोविजय लिखता है- षष्टितंत्रं कपिलशास्त्रम्, तत्र विशारद:। 2. अहिर्बुध्न्यसंहिता- षष्टिभेदं स्मृतं तंत्रं सांख्यं नाम महामुने:। 3. वेदान्तसूत्र पर आचार्य भास्करभाष्य- तत: कपिलप्रणीत- षष्टितन्त्राख्य... 4. शारीरक भाष्य (2/9/9) – स्मृतिश्च तन्त्राख्या परमर्षिप्रणीता 5. वाक्यपदीय के व्याख्याकार ऋषभदेव ने लिखा है- षष्टितन्त्रग्रन्थश्चायम् 6. जयमंगला- बहुधा कृतं तन्त्रं षष्टितन्त्राख्यं षष्टिखण्डं कृतमिति 7. विस्तरत्वात् षष्टितन्त्रस्य संक्षिप्तसूचिसत्त्वानुग्रहार्थसप्तातिकारम्भ: उपर्युक्त उद्धरणों में क्रमांक 5 में तो षष्टितंत्र ग्रंथनाम प्रतीत होता है, यद्यपि षष्टितंत्र ग्रन्थ का अर्थ षष्टितंत्र का ग्रन्थ अर्थात् साठ पदार्थों वाले सिद्धान्त अथवा ज्ञान का ग्रन्थ – ऐसा भी किया जा सकता है। क्रमांक 6 में भी यदि सिद्धान्त या ज्ञान का संक्षिप्त ऐसा प्रचलित अर्थ न लिया जाय तो 'षष्टितंत्र' ग्रन्थ का- इस अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। उद्धरण क्रमांक 3 में भी 'षष्टितंत्र' नामक कपिलप्रणीत अर्थ लिया जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त सभी उद्धरणों में 'तंत्र' शब्द ज्ञान या सिद्धान्त के अर्थ में लेने का आग्रह हो तो भी अर्थसंगति को उचित कहा जा सकता है। यद्यपि क्रमांक 3.4. स्पष्टत: ग्रन्थ नाम का संकेत देते हैं। अत: आचार्य उदयवीर शास्त्री के मत को स्वीकार करने में अनौचित्य नहीं है। तथापि ऐसी 'बाध्यता' का संकेत उद्धरणों में नहीं है। दूसरी ओर श्री रामशंकर भट्टाचार्य का विचार है कि षष्टितंत्र शब्द किसी ग्रन्थनाम का ज्ञापक शब्द नहीं बल्कि सांख्यशास्त्रपरक है जिसमें पदार्थों को साठ भागों में विभक्त कर विचार किया गया था।[८] इसमें उनकी युक्ति यह है कि जब पूर्वकारिका (69) में कारिकाकार ने कहा कि उन्होंन 'एतत्' (अर्थात् पुरुषार्थ ज्ञान जो परमर्षिभाषित था और जिसको मुनि ने आसुरी को दिया था) को-जो शिष्यपरम्परागत है- संक्षिप्त किया है, तब पुन: इस कथन का क्या स्वारस्य होता है। कि प्रस्तुत सांख्यकारिका नामक ग्रन्थ में जितने प्रतिपाद्य विषय हैं, वे 'कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रनामग्रन्थविशेषस्य' है? जिस स्वारस्य की यहां जिज्ञासा की गई वह तो है। कारिका में कहा गया है कि यह संक्षिप्त आख्यायिका और परवादविवर्जित है। अब या तो कपिलासुरीपञ्चशिखपरम्परा में आख्यायिका और परमतखण्डन की प्रचुरता का कोई प्रमाण हो या फिर षष्टितंत्र का कोई ग्रन्थ हो जिसमें ये निहित हों। सांख्यशास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में ऐसा एक ही ग्रन्थ है 'सांख्यसूत्र'। अत: 'कृत्स्नस्य' का स्वारस्य यह दर्शाने में है कि षष्टितंत्र में प्रस्तुत दर्शन का संक्षिप्त किया गया है न कि पूरे ग्रन्थ का (क्योंकि आख्यायिका-परवाद छोड़ दिया गया)। षष्टितंत्र सांख्यविद्यापरक शब्द हो या सांख्यग्रन्थनामपरक हो, इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि यह तन्त्र कपिल प्रोक्त, कृत या प्रणीत है। पञ्चशिख का प्रसिद्ध सूत्र आदिविद्वान निमार्णचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरो जिज्ञासमानाय तंत्रं प्रोवाच युक्तिदीपिका के आरंभ में 14वें श्लोक में पारमर्धस्य तंत्र अनुयोगद्वारसूत्र 41 में कपिल-सट्ठियन्तं अहिर्बुध्न्यसंहिता के पूर्वोक्त उद्धरण आदि पर्याप्त प्रमाण हैं। षष्टितंत्र लिखित हो या मौखिक, कपिलप्रणीत तो है ही। अत: यदि ऐसा कोई संकलन उपलब्ध हो जिसे षष्टितन्त्र कहा जाता हो और जिसमें आख्यायिका एवं परवाद हों तो उसे कपिलप्रणीत कहने में कोई विसंगति नहीं है। ऐसा ग्रन्थ है सांख्यसूत्र। इस ग्रन्थ को अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु कपिलसूत्र ही मानते हैं तथा आधुनिक विद्वानों में आचार्य उदयवीर शास्त्री, डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र तथा डॉ0 गजानन शास्त्री मुसलगांवकर आदि भी कपिलरचित मानते हैं। जबकि श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती, मैक्समूलर, लार्सन, कीथ आदि इसे एक अर्वाचीन कृति मानते हैं। सांख्यसूत्रों को अर्वाचीन घोषित करने के पीछे निम्नलिखित तर्क प्राय: दिए जाते हैं। 1. 15वीं शती से पूर्व सूत्रों पर कोई भाष्य उपलब्ध नहीं है। वाचस्पति मिश्र, जिन्होंने अन्य दर्शन सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थों पर भाष्य लिखा है- ने भी कारिका पर भाष्य लिखा है। यदि सूत्र कपिलप्रणीत होते तो वाचस्पति मिश्र उस पर ही भाष्य लिखते। 2. दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यकारिका के उद्धरण तो मिलते हैं। लेकिन सूत्रों को किसी में उद्धृत नहीं किया गया। 3. सूत्र में न्याय-वैशेषिक आदि का खण्डन है जबकि कपिल इनसे अन्यन्त प्राचीन माने जाते हैं। 4. 'सूत्र' में अनेक सूत्र ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका आदि को उद्धृत किया गया है। 5. कुछ सूत्र इतने विस्तृत हैं कि वे सूत्र न होकर कारिका ही प्रतीत होते हैं। संभवत: वे कारिका से यथावत् लिए गए हैं। ध्यान से देखने पर उपर्युक्त सभी युक्तियाँ तर्कसंगत न होकर केवल मान्यता मात्र प्रतीत होती हैं। किसी ग्रन्थ पर भाष्य का उपलब्ध होना उस ग्रन्थ की भाष्यकार के समय से पूर्ववर्तिता का प्रमाण तो हो सकता है लेकिन भाष्य का न होना ग्रन्थ के न होने में प्रमाण नहीं होता। उलटे यह ऐतिहासिक शोध का विषय होना चाहिए कि उक्त ग्रन्थ पर भाष्य क्यों नहीं लिखा गया होगा? भारतीय इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि बौद्ध दर्शन की उत्पत्ति और विकास की अवस्था का वैदिक दर्शनों के प्रचार-प्रसार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। तब तक उस सांख्यदर्शन का जिसे महाभारत में सुप्रतिष्ठित माना गया था, अध्ययन-अध्यापन नगण्य हो चला था। इस अवस्था में सांख्यसूत्रों पर भाष्य की आवश्यकता अनुभूत न होना आश्चर्यजनक नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि ईश्वरकृष्ण द्वारा कारिकाओं की रचना के बाद सूत्रों की अपेक्षा सुग्राह्य होने से कारिकाएँ अधिक प्रचलित हो गई हों। फिर, ईश्वर या परमात्मा जैसे शब्दों के न होने से, दुखनिवृत्ति प्रमुख लक्ष्य होने से, बौद्धकाल और उसके बाद भारत में राजनैतिक उथल-पुथल विदेशी आक्रमण आदि से भग्नशान्ति समाज में पलायनवादी प्रवृत्ति की उत्पत्ति और प्रसार ने पलायनवादी दार्शनिक विचारों को प्रश्रय दिया हो। परिणामस्वरूप वेदान्त की विशिष्ट धारा का खण्डन अथवा मण्डन ही वैचारिक केन्द्र बन गए हों। ऐसी अवस्था में संसार को तुच्छ मानने और मनुष्य के अस्तित्व के बजाय परमात्मा पर पूर्णत: आश्रित रहने वाले दर्शनों का ही प्रचार-प्रसार का होना ह्रासोन्मुख समाज में स्वाभाविक है। सांख्यदर्शन में पुरुषबहुत्व और परमात्मा से उसकी पृथक् सत्तामान्य है। ऐसा दर्शन पलायनवादी परिस्थितियों में लुप्त होने लगा हो तो क्या आश्चर्य? संभवत: इसीलिए गत दो हजार वर्षों में बौद्ध और वेदान्त पर जितना लिखा गया उसकी तुलना में शुद्ध तर्कशास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त शेष दर्शन सम्प्रदायों पर नगण्य लेख हुआ। इस अवधि में सांख्यकारिका के भी अंगुलियों पर गिने जाने योग्य भाष्य ही लिखे गये। ऐसे में संभव है सांख्यसूत्र अथवा उन पर भाष्य सर्वथा अप्रचलित हो गए हों। और भी कारण ढूँढ़े जा सकते हैं सारांश यह कि भाष्यों का उपलब्ध न होना किसी अवधि में किसी ग्रन्थ के अप्रचलन को तो निगमित कर सकता है, उसके अनस्तित्व को सिद्ध नहीं करता। फिर, अनिरुद्ध, महादेव वेदान्ती, विज्ञानभिक्षु आदि को सांख्यसूत्र के कपिलप्रणीत होने पर संदेह नहीं हुआ। हमारी जानकारी में पाश्चात्त्य प्राच्यविद्याविशारदों की स्थापनाओं से पूर्व तक की भारतीय परम्परा सांख्यसूत्रों को कपिल-प्रणीत ही मानती रही है। ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये सूत्र कपिलप्रणीत नहीं हैं। यही समाधान सांख्यसूत्रों के उद्धरणों की कथित अनुपलब्धि के विषय में भी हो सकता है। यह कहना ही गलत है कि प्राचीन ग्रन्थों में सांख्यसूत्रों के उद्धरण नहीं मिलते। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े ही यत्न से कई उद्धरण प्राचीन तथा अर्वाचीन ग्रन्थों से ढूँढ़ कर प्रस्तुत किये हैं।[९] न्याय-वैशेषिक आदि के खण्डन का होना, ब्रह्मसूत्र आदि का उद्धृत होना सांख्यसूत्र के अर्वाचीन होने का प्रमाण नहीं है। इनके आधार पर इन्हें मूलग्रन्थ में प्रक्षिप्त ही माना जाना चाहिए। कारिकावत् सूत्रों के बारे में भी उल्टा निष्कर्ष निकाला गया है। कारिका को प्राचीन मान लेने के कारण ही सूत्र को कारिका के आधार पर रचित-माना जा सकता है। अन्यथा कारिकाएँ सूत्र के आधार पर रची गई- ऐसा क्यों न माना जाय जबकि कपिलसूत्र को प्राचीन मानने की सुदीर्ध परम्परा है। इस प्रकार सांख्य-सूत्रों को कारिका से अर्वाचीन मानना केवल 'मान्यता' है, प्रामाणिक नहीं। अत: जब तक ऐसा स्पष्ट प्रमाण कि उपलब्ध सांख्यसूत्र कपिलप्रणीत नही है, उपलब्ध न हो, प्रामाणिक परम्परा को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं है। सांख्यसूत्रपरिचय सांख्यसूत्र का प्रचलित नाम 'सांख्यप्रवचनसूत्र' है। सूत्र सर्वप्रथम अनिरुद्ध 'वृत्ति' के रूप में प्राप्त है। स्वतंत्र रूप से सूत्रग्रंथ उपलब्ध न होने से सूत्रसंख्या, अधिकरण, अध्याय-विभाग आदि के बारे में वृत्तिकार अनिरुद्ध तथा तदनुरूप कृत भाष्यकार विज्ञानभिक्षु की कृति पर ही निर्भर करना पड़ता है। सांख्यप्रवचनसूत्र 6 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में 164 सूत्र हैं। इसे अनिरुद्ध विषयाध्याय कहते हैं। इस अध्याय में सांख्य की विषयवस्तु का परिचय दिया गया है। सूत्र 1-6 में दु:खत्रय, उनसे निवृत्ति के दृष्ट उपायों की अपर्याप्तता आदि का उल्लेख है। सूत्र 8-60 में बन्ध की समस्या पर विचार किया गया। पुरुष के असंग होने से उसका बन्धन नहीं कहा जा सकता। कर्म, भोग आदि बुद्धि के त्रिगुणात्मक विकारों के धर्म होने से इन्हें भी बन्ध का कारण नहीं कहा जा सकता। बन्ध का कारण प्रकृति, पुरुष में भेदविस्मृति का अविवेक है। शेष सूत्रों में प्रकृति, विकृति, आदि का नामोल्लेख, प्रमाणविचार, प्रत्यक्ष से ईश्वर की असिद्धि, सत्कार्यवाद- निरूपण आदि की चर्चा है। प्रकृति और पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में हेतु की भी चर्चा है। द्वितीय अध्याय में मात्र 47 सूत्र हैं। इस अध्याय को प्रधानकार्याध्याय कहा जाता है। इन सूत्रों में प्रधान के कार्य महत्, अहंकार, इन्द्रियादि की चर्चा की गई। करणों की वृत्तियों का उल्लेख भी किया गया। तृतीय अध्याय में 84 सूत्र हैं। अनिरुद्ध इस अध्याय को वैराग्याध्याय कहते हैं। इस अध्याय में प्रकृति के स्थूल कार्य, सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर, आत्मा की विभिन्न योनियों में गति तथा पर-अपर वैराग्य की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में 32 सूत्र हैं जिनमें आख्यायिकाओं के द्वारा विवेकज्ञान के साधनों को प्रदर्शित किया गया है। 130 सूत्रों के पांचवें अध्याय में परमतखण्डन है। यहाँ विभिन्न कारणों से ईश्वर के कर्मफलदातृत्व का निषेध किया गया है। साथ ही वेदों की (शब्दराशिरूप में) अनित्यता का, सत्ख्याति, असत्ख्याति, अन्यथाख्याति, अनिर्वचनीयख्याति आदि का खण्डन करते हुए सदसत्ख्याति को स्थापित किया गया। छठे अध्याय में 61 सूत्र हैं। इन सूत्रों में सांख्यमत जिसे पूर्वाध्यायों में विस्तार से प्रस्तुत किया गया हे- को संक्षेप में उपसंहृय किया गया। उपलब्ध सांख्यप्रवचनसूत्र के अध्यायों में विषयप्रस्तुति का क्रम ईश्वरकृष्ण की 62वीं कारिका के अनुरूप ही है। सांख्यसिद्धान्त की पूर्ण चर्चा तो प्रथम तीन अध्यायों में ही निहित है। अत: सांख्यकारिका में ईश्वरकृष्ण ने आख्यायिका और परमतखण्डन को छोड़ दिया है। आचार्य उदयवीर शात्री ने सूत्रों की अन्तरंग परीक्षा करके सांख्यसूत्र में प्रक्षेपों को संकलित किया। उनके अनुसार प्रथम अध्याय में 19वें सूत्र के बाद विषयवस्तु अथवा कथ्य की संगति 55वें सूत्र से है। 20-54 सूत्रों में अप्रासंगिक विषयान्तर होने से शास्त्री जी इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं। इन सूत्रों में न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत् (1/25), न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीते: (1/42), शून्यं तत्त्वं भावो (1/44) तथा 'पाटलिपुत्र' आदि को देखकर न केवल इसकी अप्रासंगिकता का बोध होता है अपितु कपिल के बहुत बाद में स्थापित मतों के खण्डन की उपस्थिति भी आश्चर्यजनक प्रतीत होती है। अनिरुद्ध और विज्ञानभिक्षु इन सूत्रों में बौद्धमत का खण्डन देखते हैं। उदयवीर शास्त्री का मत है कि इन सूत्रों का प्रक्षेप शंकराचार्य के प्रादुर्भाव के उपरांत हुआ होगा। इसी तरह पाँचवें अध्याय में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा में सूत्र 84 से 115 तक 32 सूत्रों को शास्त्री जी ने प्रक्षिप्त घोषित किया है, जो कि उचित प्रतीत होता है। सांख्यसूत्र और कारिका के दर्शन में सिद्धान्तरूप में विरोध या भेद नहीं है तथापि कतिपय साधारण भेद अवश्य प्रतीत होते हैं। पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में सांख्यसूत्र में हेतु दो समूहो में या वर्गों में है। प्रथम वर्ग सूत्र 1/140-42 में और द्वितीय वर्ग सूत्र 1/143-44 में। संघातपरार्थत्वात्, त्रिगुणादिविपर्ययात्, अधिष्ठानाच्चेति 1/140-42) प्रथम समूह है। अनिरुद्ध विज्ञानभिक्षु सहित प्राय: टीकाकारों ने 'अधिष्ठानात् च इति' के भाष्य में हेतु समाप्ति को स्वीकार किया है। भोक्तृभावत्, कैवल्थार्थप्रवृत्तेश्च, ये 2 सूत्र पुन: हेतु निर्देश करते हैं। जबकि सांख्यकारिका में पाँचों हेतु एक साथ दिए गए हैं। एक अन्य भेद प्रमाणविषयक है। सूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण है जबकि कारिका में दृष्ट व्याख्याकारों ने दृष्ट को प्रत्यक्ष माना है। जिससे निश्चयात्मकता का भाव स्पष्ट होता है जबकि सूत्रगत प्रमा की परिभाषा को ध्यान में रखा जाये जहाँ 'असन्निकृष्टार्थपरिच्छिती प्रमा' कहा गया है तो प्रत्यक्ष में ही नहीं अनुमान और शब्द प्रमाणजन्य प्रमा भी निश्चयात्मक निरूपित होती है। सूत्र में अनुमान प्रमाण के भेदों का उल्लेख नहीं है किन्तु कारिका में 'त्रिविधमनुमानम्' स्वीकार किया गया है। कारिकाओं में त्रिगुण साम्य के रूप में प्रकृति को कहीं परिभाषित नहीं किया गया। इस विपरीत सूत्र में 1/61 में सत्त्वरजस्तमस् की साम्यावस्था का स्पष्ट उल्लेख है। सांख्यकारिकाएँ चूँकि संक्षिपत प्रस्तुति है इसलिए सूत्रों से अन्तर होना स्वाभाविक है। आसुरि आसुरि कपिल मुनि के शिष्य और सांख्याचार्य पचंशिख के गुरु थे। महाभारत के शांतिपर्व में पंचशिख को आसुरि का प्रथम शिष्य कहा गया है।[१०] यहाँ आसुरि के बारे में कहा गया है कि उन्होंने तपोबल से दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली थी। ज्ञानसिद्धि के द्वारा उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञभेद को समझ लिया था। जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपों में दिखाई देता है उसका ज्ञान उन्होंने प्रतिपादित किया।[११] शां.प. के ही 318वे अध्याय में उल्लिखित सांख्याचार्यों के नामों की सूची में भी आसुरि का नामोल्लेख है। पञ्चशिखसूत्र में भी 'परमर्षि ने जिज्ञासु आसुरि को ज्ञान दिया' कहकर आसुरि के कपिलशिष्य होने का स्पष्ट संकेत दिया।[१२] ईश्वरकृष्णकृत 70वीं कारिका में एतत् पवित्रमग्यं मुनिरासुरये प्रददौ। आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम् कहकर कपिल के शिष्य और पञ्चशिख के गुरु रूप में आसुरि का उल्लेख किया। सांख्यकारिका के भाष्यकारों ने भी इस गुरुशिष्य परम्परा को यथावत् स्वीकार किया। इतनी स्पष्ट परम्परा के आधार पर आसुरि की ऐतिहासिकता सिद्ध है। कतिपय पाश्चात्त्य विद्वानों के द्वारा आसुरि के अनैतिहासिक होने के अप्रामाणिक आग्रह का आद्याप्रसाद मिश्र ने निराकरण किया है।[१३] माठरवृत्ति के आरंभ में प्रस्तुत प्रसंग के अनुसार आसुरि गृहस्थ थे। फिर वे दु:खत्रय के अभिघात के कारण गृहस्थ आश्रम से विरत हो कपिल मुनि के शिष्य हो गये।[१४] आसुरि की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आसुरि के नाम से उद्धृत एक श्लोक में पुरुष के भोग के विषय में उनका मत प्राप्त होता है। तदनुसार जिस प्रकर स्वच्छ जल में चन्द्र प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार असंग पुरुष में बुद्धि का प्रतिबिम्बित होना उसका भोग कहलाता है। सांख्यसूत्र में 'चिदवसानो भोग:' कहकर ऐसा ही मत प्रस्तुत किया गया है। पंचशिख ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है एतत् पवित्रमग्यम् मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिरपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम्॥ आसुरि ने षष्टितन्त्र का ज्ञान पंचशिख को दिया और पंचशिख ने उसे बहुविध, व्यापक या विस्तत किया। माठरवृत्ति के अनुसार पंचशिखेन मुनिना... षष्टितंत्राख्य षष्टिखण्डं कृतमिति। तत्रैव हि षष्टिरर्था व्याख्याता:। युक्तिदीपिका के अनुसार बहुभ्यो जनकवसिष्ठादिभ्य: समाख्यातम्[१५] साथ ही भावागणेश के अनुसार उनके तत्त्वसमाससूत्र का तत्त्वयाथार्थ्यदीपन पंचशिख की व्याख्या पर आधृत हे। इस तरह सांख्यशास्त्रीय परम्परा में सांख्याचार्य के रूप में तो पंचशिख विख्यात है ही, महाभारत में भी ऊहापोहप्रवीण, पंचरात्रविशारद, पंचज्ञ, अन्नादि पंच कोशों के शिखा स्वरूप ब्रह्म के ज्ञाता के रूप में पंचशिख का उल्लेख किया गया। शांतिपर्व में ही पंचशिख संवादों को प्राचीन इतिहास के रूप में स्मरण किया गया। इसका अर्थ है कि पंचशिख का समय 800 वर्ष ई.पू. के बहुत पहले, संभवत: हजारों वर्ष पूर्व रहा होगा। पंचशिख आसुरि के प्रथम शिष्य थे और आसुरि कपिल-शिष्य थे। अत: पंचशिख को कपिल के काल के उत्तरसमकालीन के रूप में अर्थात् त्रेतायुग के आरंभ में अथवा कृतयुग के अन्त में ही रखा जाना चाहिए। पंचशिख की माता कपिला नामक ब्राह्मणी थी। आचार्य पंचशिख ने एक हजार वर्ष तक यज्ञ किया, वे दीर्घायु थे। आचार्य पंचशिख के दर्शन का परिचय यहाँ महाभारत के शांतिपर्व के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। मिथिला में जनकवंशी राजा जनकदेव के समक्ष विभिन्न नास्तिक मतों का निराकरण करते हुए सांख्यशास्त्र को प्रस्तुत किया गया।[१६] आत्मा का न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकार में ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला संघात है; यह भी शरीर, इन्द्रिय और मन का समूह मात्र है। यद्यपि यह सब पृथक्-पृथक् हैं तो भी एक दूसरे का आश्रय लेकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। प्राणियों के शरीर में उपादान के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी ये पाँच धातु हैं। ये स्वभाव से ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पाँच तत्त्वों के समाहार से ही अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण हुआ है। शरीर में ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण), इनका समुदाय समस्त कर्मों का संग्राहक गण है, क्योंकि इन्हीं से इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकास और धातु प्रकट हुए हैं। श्रोत्र आदि इन्द्रियों में उनके विषयों का विसर्जन (त्याग) करने से सम्पूर्ण तत्त्वों के यथार्थ निश्चय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चय को अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान् ब्रह्मपाद कहते हैं। इसके विपरीत जिनकी दृष्टि में यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, अत: इन्हें दुख नहीं प्राप्त होते हैं। जो लोग मुक्ति के लिए प्रयत्नशील हों उन सबको चाहिए कि सम्पूर्ण कर्मों में अहंता, ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करें। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शम, दम आदि साधनों में तत्पर) होने का झूठा दावा करते हैं उन्हें अविद्या आदि दु:खदायी क्लेश प्राप्त होते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की कार्यप्रणाली इस प्रकार है। एक ज्ञानेन्द्रिय विषय से संयुक्त होकर चित्त के साथ संयुक्त होती है। यहाँ चित्त अन्त:करण के अर्थ में प्रयुक्त है। विषय, ज्ञानेन्द्रिय और चित्त इन तीन के संयोग से विषयज्ञान होता है। अध्यात्म तत्व का चिन्तन करने वाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतनसत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ कहलाता है। जिस तरह नदियाँ समुद्र में मिलकर अपनी वैयक्तिकता को त्याग देती हैं उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। यही मोक्ष है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दु:ख का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित होकर उत्तम गति को प्राप्त होता है। संक्षिप्त 1. एन्सा.— एन्सायक्लोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4 2. इ.सां.था. इवोल्युशन आफ सांख्य स्कूल आफ थॉट 3. ओ.डे. सां.सि.- ओरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ सांख्य सिस्टम आफ थाट 4. भा.द. आ.अ.- भारतीय दर्शन : आलोचन और अनुशीलन 5. शा.प.- महाभारत शांति पर्व 6. सां. का.- सांख्यकारिका 7. सां.द.इ.- सांख्य दर्शन का इतिहास 8. सां.द.ऐ.प.- सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा 9. सां.प्र.भा.- सांख्यप्रवचन भाष्य 10. सां.सि.- सांख्य सिद्धान्त 11. सां.सू.- सांख्यसूत्र

  1. एन्सा.
  2. प्राचीन भारत पृ. 191, 206
  3. सांख्य दर्शन की ऐतिहासिक परम्परा पृ. 23
  4. सांख्यदर्शन का इतिहास पृ. 49
  5. वही.
  6. आचार्य उ.वी. शास्त्री ने दोनों उल्लेख एक ही पंचशिख का माना है सां. द.इ.
  7. एन्सा. में तत्त्वसमाससूत्र की प्राचीनता को मानते हुए भी इसका रचनाकाल 14 शताब्दी माना गया है। साथ ही इसे कपिल से सम्बन्धित करने को अनुचित कहा गया है।
  8. सांख्यतत्त्वकौमुदी ज्योतिष्मती व्याख्या 72वीं कारिका पर।
  9. सां. द.इ.
  10. शां. प.
  11. वही
  12. सां.द. में उ.वी. शास्त्री संकलित प्रथम सूत्र।
  13. सां. द. ऐ.प.
  14. माठरवृत्ति प्रथम कारिका पर। ऐसा ही प्रसंग 70वीं कारिका पर जयमंगला में।
  15. 70वीं कारिका पर माठरवृत्ति तथा युक्तिदीपिका
  16. शा.प. अध्याय के कुछ श्लोकों का अनुवाद।