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सांख्य दर्शन प्रथम परिच्छेद सांख्य दर्शन की प्राचीनता और परम्परा महाभारत शनति पर्व, अध्याय 301 में कहा गया है— महाभारत में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूपवर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शनविशेष के लिए नहीं वरन् मोक्षहेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।[१] इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्यदर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है। 'सांख्य' शब्द का अर्थ सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। कपिल दर्शन में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्यदर्शन कहा जाता है। 'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है। डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र लिखते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक सगत् की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्त्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की गई।[२] लेकिन आचार्य उदयवीर शास्त्री गणनार्थक निष्पत्ति को युक्तिसंगत नहीं मानते क्योंकि अन्य दर्शनों में भी पदार्थों की नियत गणना करके उनका विवेचन किया गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं।[३] हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो ही रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविधरूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।[४] संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते। तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥

                       शां. प. 306/42-43

प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं। 'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शां. प. में कहा गया है-[५] दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:। कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥ अर्थात् (जहाँ किसी विशेष अर्थ् को अभीष्ट मानकर) उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत वाङमय में 'सांख्य' शब्द किसी भी प्रकार के मोक्षोन्मुख ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है या कपिलप्रणीत सांख्यदर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है? इसके उत्तर के लिए कतिपय प्रसंगों पर चर्चा अपेक्षित है। श्रीपुलिन बिहारी चक्रवर्ती ने चरकसंहिता के दो प्रसंगों को उद्धृत करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। वे उद्धरण हैं-[६] (1) सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनर्वसुम्। जगद्वितार्थ पप्रच्छ वह्निवंश: स्वसंशयम्॥ यथा वा आदित्यप्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशमिति (2) अयनं पुनराख्यातमेतद् योगस्ययोगिभि:। संख्यातधर्मै: सांख्यैश्च मुक्तौर्मोक्षस्य चायनम्॥ सर्वभावस्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:। योगं यथा साधयते सांख्य सम्पद्यते यथा॥ प्रथम प्रसंग में श्री चक्रवर्ती संख्या को सम्यक्-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुक्त मानते हैं और द्वितीय प्रसंग में स्पष्टत: सांख्यदर्शनबोधक। यहाँ यह विचारणीय है कि चरकसंहिताकार के समय तक एक व्यवस्थित दर्शन के रूप में कपिलोक्त दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतिष्ठित था और चरकसंहिताकार इस तथ्य से परिचित थे। तब प्रथम प्रसंग में 'सांख्य' शब्द के उपयोग के समय एक दर्शनसम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उक्त शब्द का उपयोग किया गया होगा। संभव है कपिलप्रोक्त दर्शन मूल में चिकित्सकीय शास्त्र में भी अपनी भूमिका निभाता रहा हो और उस दृष्टि से चिकित्सकीय शास्त्र को भी सांख्य कहा गया हो।[७] इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत मिलता है[८] अत: दोनों प्रसंगों में विद्वान्, ज्ञान आदि शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है। अहिर्बुध्न्यसंहिता के बारहवें अध्याय में कहा गया है- सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कपिलादृषे:। उदितो यादृश: पूर्वं तादृशं श्रृणु मेऽधुना॥18॥ षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने:॥19॥ यहाँ 'सांख्य' शब्द को सम्यक् ज्ञान व कापिलदर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। सांख्यरूप में (सम्यक् ज्ञानरूप में) पूर्व में कपिल द्वारा संकल्प जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है- मुझसे सुनो। महामुनि का साठ पदार्थों के विवेचन से युक्त शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक् ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थों में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत शांतिपर्व का यह कथन कि 'अमूर्त परमात्मा का आकार सांख्यशास्त्र है'- से पर्याप्त साम्य स्मरण हो आता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में प्रयुक्त 'सांख्ययोगाधिगम्यम्' (6/13) की व्याख्या तत्स्थाने न कर शारीरक भाष्य (2/1/3) में शंकर ने 'सांख्य' शब्द को कपिलप्रोक्त शास्त्र से अन्यथा व्याख्यायित करने का प्रयास किया। शंकर कहते हैं- यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्य- योगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई विसंगति नहीं होगी कि यहाँ सांख्य पद वैदिक ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन किस प्रकार के वैदिक ज्ञान का लक्ष्य किया गया है, यह विचारणीय है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में जिस दर्शन को प्रस्तुत किया गया है वह 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं' के त्रैत का दर्शन है। ऋग्वेद के 'द्वा सुपर्णा'- मंत्रांश से भी त्रिविध अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्यदर्शन भी प्रायश: त्रैतवादी ही है। डॉ0 आद्याप्रसाद मिश्र ने ठीक ही कहा है- त्रैत मौलिकसांख्य की अपनी विशिष्टता थी, इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक सांख्यदर्शन के इसी त्रैतवाद की पृष्ठभूमि में श्वेताश्वतर की रचना हुई।[९] अत: इस अर्थ में सांख्य शब्द 'वैदिकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण किया जाये तब भी निष्कर्ष में इसका लक्ष्यार्थ कपिलोक्त दर्शन ही गृहीत होता है। भगवद्गीता में सांख्य-योग शब्दों का प्रयोग भी विचारणीय है क्योंकि विद्वानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। द्वितीय अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कहा गया है- एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु। अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।[१०] जबकि आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े विस्तार से इसे कपिलप्रोक्त 'सांख्य' के अर्थ में निरूपित किया। उक्त श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यह सब सांख्य बुद्धि (ज्ञान) कहा है अब योग बुद्धि (ज्ञान) सुनो। यहाँ विचारणीय यह है कि यदि 'सांख्य' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य 'बुद्धि' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय 'ज्ञान' काभाव तो सांख्य के 'ख्याति' में आ ही जाता है। 'सांख्य' बुद्धि में यह ध्वनित होता है कि 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है।, उसकी बुद्धि या 'ज्ञान' की बात कही गई है। वह प्रणाली (चिन्तन की) या मार्ग गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होगा। गीता में जिस मुक्तभाव से सांख्यदर्शन के पारिभाषिक शब्दों या अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है उससे यही स्पष्ट होता है कि वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य शब्द को गीता का एक पारिभाषिक शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कपिल का सांख्यशास्त्र ही निरूपित होता है। भगवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा गया है- लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ गीता 3।3॥ यहाँ भी दो प्रकार के मार्गों या निष्ठा की चर्चा की गई हैं- एक ज्ञानमार्ग दूसरा कर्म-मार्ग। विचारणीय यह है कि जब कर्मयोगेन योगिनां कहा जा सकता है तब ज्ञानयोगेन ज्ञानिना' न कहकर सांख्यानां क्यों कहा गया? निश्चय ही ज्ञानयोगियों के 'ज्ञान' के विशेष स्वरूप का उल्लेख अभीष्ट था। वह विशेष ज्ञान कपिलोक्त शास्त्र ही है, यह गीता तथा महाभारत के शान्तिपर्व से स्पष्ट हो जाता है। यदेव योगा: पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते[११] इसीलिए शान्तिपर्व में वसिष्ठ की ही तरह[१२] गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं-[१३] सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:। शांतिपर्व तथा गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही गई है- एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।[१४] गीता महाभारत का ही अंश है। अत: प्रचलित शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित है। गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द भी (चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो) कपिलप्रोक्त शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए। महाभारत के शांतिपर्व में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्पष्ट है कि उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इसमें प्रस्तुत सांख्यदर्शन की चर्चा आगे की जायेगी। यहाँ इतना ही उल्लेखनीय है कि कपिल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्यदर्शन की शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है कि यह एक अत्यन्त युक्तिसंगत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर विद्वानों का आकृष्ट होना, उस पर विचार करना और अपने विचारों को उक्त दर्शन से समर्थित या संयुक्त बताना बहुत स्वाभाविक है। जिस तरह वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में गीता का इतना महत्त्व है कि प्राय: सभी आचार्यों ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को गीतानुसारी बताने का प्रयास किया। इसी तरह ज्ञान के विभिन्न पक्षों में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपने विचारों को सांख्य रूप ही दे दिया हो तो क्या आश्चर्य? ऐसे विकास की प्रक्रिया में मूलदर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का जन्म भी हो जाना स्वाभाविक है। अपनी रुचि, उद्देश्य और आवश्यकता के अनुसार विद्वान् विभिन्न पक्षों में से किसी को गौण, किसी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थरचना भी करते हैं। अत: किसी एक मत को मूल कहकर शेष को अन्यथा घोषित कर देना उचित प्रतीत नहीं होता। समस्त वैदिक साहित्य वेदों की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकतानुसार विभिन्न कालों में प्रस्तुति ही है। कभी कर्म यज्ञ आदि को महत्त्वपूर्ण मानकर तो कभी जीवन्त जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत किया गया। इससे किसी एक पक्ष को अवैदिक कहने का तो कोई औचित्य नहीं। परमर्षि कपिल ने भी वेदों को दार्शनिक ज्ञान को तर्कबुद्धि पर आधृत करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इसमें तर्कबुद्धि की पहुँच से परे किसी विषय को छोड़ दिया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कपिल दर्शन को अवैदिक नहीं कहा जा सकता। सांख्यदर्शन की वेदमूलकता सांख्य दर्शन की वैदिकता पर विचार करने से पूर्व वैदिक का अभिप्राय स्पष्ट करना अभीष्ट है। एक अर्ध वैदिक कहने का तो यह है कि जो दर्शन वेदों में है वही सांख्यदर्शन में भी हो। वेदों में बताये गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र रूप से विचार किया गया हो, तो यह भी वैदिक ही कहा जायेगा। अब वेदों में किस प्रकार का दर्शन है, इस विषय में मतभेद तो संभव है लेकिन परस्पर विरोधी मतवैभिन्न्य हो, तो, निश्चय ही उनमें से अवैदिक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्वरूपचर्चा में, जगत् जीव के साथ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिक कहे जा सकते हैं, यदि वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेकिन यदि कोई दर्शन परमात्मा की सत्ता को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही किया जाता है। इस मत में कितनी सत्यता या प्रामाणिकता है यह सांख्यदर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने पर स्वत: हो जावेगा। यहाँ केवल सांख्यदर्शन की वैदिकता को दिखाने का प्रयास किया जायेगा। महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों में, सांख्य में तथा योगशास्त्र में जो कुद भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आगत है। इसे अतिरंजित कथन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतिरिक्त सांख्यशास्त्र और योगशास्त्र भी प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनमें विचारसाम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो मिलती ही है कि वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं। शान्तिपर्व में ही कपिल-स्यूमरश्मि का संवाद (अध्याय 268-270) प्राचीन इतिहास के रूप में भीष्म ने प्रस्तुत किया। इसमें कपिल को सत्त्वगुण में स्थित ज्ञानवान् कहकर परिचित कराया गया। महाभारतकार ने कपिल का सांख्य-प्रवर्तक के रूप में उल्लेख किया, सांख्याचार्यों की सूची में भी एक ही कपिल का उल्लेख किया और स्यूमरश्मि-संवाद में उल्लिखित कपिल का सांख्य-प्रणेता कपिल से पार्थक्य दिखाने का कोई संकेत नहीं दिया, तब यह मानने में कोई अनौचित्य नहीं है कि यह कपिल सांख्य-प्रणेता कपिल ही हैं।[१५] उपर्युक्त संवाद में स्यूमरश्मि द्वारा कपिल पर वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह का आक्षेप लगाने पर कपिल कहते हैं- नाहं वेदान् विनिन्दामि (शा.प. 268।12) इसी संवादक्रम में कपिल पुन: कहते हैं वेदा: प्रमाणं लोकानां न वेदा: पृष्ठत: कृता:[१६] फिर वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं।[१७] वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्। एवं वेद विदित्याहुरतोऽन्य वातरेचक:॥ सर्वे विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्। वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥ उक्त विचारयुक्त कपिल को अवैदिक कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। फिर, कपिलप्रणीत सूत्र द्वारा वेद के स्वत:प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 'निजशक्यभिव्यक्ते स्वत:प्रमाण्यम्' (5/51) इस सूत्र में अनिरुद्ध, विज्ञानभिक्षु आदि भाष्यकारों ने स्वत:प्रामाण्य को स्पष्ट किया है। सांख्यकारिका में 'आप्तश्रुतिराप्तवचनम्' (का.5) कहकर वेदप्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 5वीं कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र कहते हैं- तच्च स्वत:प्रामाण्यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजनितत्वेन सकलदोषाशंकाविनिर्मुत्वेन युक्तं भवति। इतना ही नहीं, वेदमूलस्मृतीतिहासपुराणवाक्यजनितमपि ज्ञानं युक्तं भवति कहा है। वेदाश्रित स्मृति इतिहास-पुराण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब निर्दोष माना जाता है, तब वेद की तो बात ही क्या? इसी कारिका की वृत्ति में माठर कहते है- अत: ब्रह्मादय: आचार्या:, श्रुतिर्वेदस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्। इस तरह सांख्यशास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत:प्रामाण्य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्यशास्त्र को अवैदिक या वेदविरुद्ध कहना कथमपि समीचीन नहीं जान पड़ता। सांख्यदर्शन में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली भी इसे वैदिक निरूपित करने में एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्ध में वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। लेकिन 'पुरुष' शब्द का दर्शनशास्त्रीय प्रयोग करते ही जिस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्यदर्शन है। इसी तरह अव्यक्त, महत्, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस् आदि शब्द भी सांख्यदर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अत: चाहे वैदिक साहित्य से ये शब्द सांख्य में आए हों या सांख्यपरम्परा से इनमें गए हों, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सांख्यदर्शन वैदिक है। षड्दर्शन में सांख्यदर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।

  1. एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत
  2. वही
  3. सां. द.ऐ.प.
  4. सां. सि. पृष्ठ 20
  5. शा.प.
  6. वही
  7. ओडे सां/सि.
  8. वही
  9. सां. द. ऐ. प.
  10. इ.सा.धा.
  11. शां.प. गीता
  12. शां.प.
  13. गीता
  14. शां.प. में 'सपश्यति' के स्थान पर 'स बुद्धिमान्' है।
  15. श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती इस प्रसंग में कपिल को सांख्य-प्रणेता कपिल माने जाने की संभावना को तो स्वीकार करते हैं लेकिन वेदों तथा अन्य स्थानों पर कपिल के उल्लेख तथा सांख्य-प्रणेता कपिल से उनके सम्बन्ध के विषय पर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में इसे प्रामाणिक नहीं मानते। (ओ.डे.सां.सि. पृष्ठ)
  16. शां.प.अ. 268-70
  17. वही अ. 268-70