lab:Asha-1

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तृतीय परिच्छेद संस्कृत वाङमय में सांख्यदर्शन इस खण्ड के अन्तर्गत हम उन ग्रन्थों में उपलब्ध सांख्यदर्शन का परिचय प्रस्तुत करेगें जिन्हें सांख्य सम्प्रदाय के ग्रन्थ मानने की परम्परा नहीं है। लेकिन जिनमें सांख्यदर्शन का उल्लेख व परिचय प्राप्त होता है। साथ ही ऐसे भी ग्रन्थ है जिनमें प्रस्तुत दर्शन सांख्यीय मान्यताओं के अनुरूप सांख्य सम्प्रदाय की शब्दावली में ही है। इस प्रकार के ग्रन्थों में प्रमुख है अहिर्बुध्न्यसंहिता, महाभारत (विशेष रूप से शांतिपर्व), श्रीमद्भागवत, भगवद्गीता, पुराण, उपनिषद्, चिकित्सकीय शास्त्र आदि। अहिर्बुध्न्यसंहिता[१] अहिर्बुध्न्यसंहिता पांचरात्र सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के 12वें अध्याय के 18वें श्लोक में सांख्यदर्शन को विष्णु के संकल्प रूप में उद्भूत बताकर कहा गया है- षष्टिभेदस्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने। प्राकृतं वैकृतं चेति मण्डले द्वे समासत:॥ कपिल के सांख्य दर्शन में साठ (पदार्थों) के भेद का विवेचन है (ऐसा) कहा जाता है। संक्षेप में प्राकृत तथा वैकृत मण्डल (भाग) है। प्राकृत मण्डल में 32 तथा वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ हैं। प्रथम मण्डल के पदार्थ 'तन्त्र' और द्वितीय मण्डल के पदार्थ 'काण्ड' कहे गए। प्राकृतमण्डल में निम्नलिखित पदार्थ हैं- ब्रह्मतंत्र, पुरुषतंत्र, शक्ति, नियत, कालतंत्र, गुणतंत्र, अक्षरतंत्र, प्राणतंत्र, कर्तृतंत्र समित (स्वामि) तन्त्र, ज्ञानक्रिया, मात्रतन्त्र तथा भूततन्त्र। इनमें गुणतन्त्र में सत्त्व, रजस्, तमस् ज्ञानतन्त्र में पंचज्ञानसाधन, क्रियातन्त्र में पंचकर्मसाधन, मात्रतन्त्र में पंवतन्मात्र, भूततन्त्र में पंचस्थूलभूत निहित मानें तो कुल 32 पदार्थ हो जाते हैं। वैकृत मण्डल में 28 पदार्थ निम्नालिखित हैं- कृत्यकाण्ड में पांच, भोगकाण्ड, वृत्तकाण्ड में एक-एक, क्लेशकाण्ड में पांच, प्रमाणकाण्ड में तीन, तथा ख्याति, धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य गुण, लिंग, दृष्टि, आनुश्रविक, दुख, सिद्धि, काषाय, समय तथा मोक्षकाण्ड। षष्टितन्त्र के विभिन्न साठ पदार्थों की इस प्रकार की गणना, सांख्य के प्रचलित व उपलब्ध ग्रन्थों में उल्लिखित साठ पदार्थों की गणना से भिन्न तो प्रतीत होती है तथापि सांख्यभिमत के सर्वथा अनुकूल है। सांख्यशास्त्रीय परम्परा में पांच विपर्यय, नौ तुष्टियाँ, आठ सिद्धियाँ, अट्ठाइस अशक्तियाँ तथा दस मौलिकार्थ-इस प्रकार साठ पदार्थ माने जाते है। सांख्यदर्शन, परम्परा में परिगणित 20 तत्त्व (ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, तन्मात्र तथा स्थूलभूत प्राकृत मण्डल में सम्मिलित हैं। साथ ही पुरुष और त्रिगुण भी सम्मिलित हैं। संहिता में तीनों गुणों के गुणतन्त्र के अन्तर्गत रखा गया लेकिन प्रकृति की पृथक् गणना नहीं की गई। प्राकृततन्त्र में मन, बुद्धि, अहंकार का संकेत स्पष्ट नहीं है, ऐसा उदयवीर शास्त्री स्वीकार करते हैं। किन्तु अणिमा सेनगुप्ता के अनुसार कर्तृतन्त्र में इनका अन्तर्भाव किया जा सकता है। क्योंकि ये तीन अन्त:करण पुरुष के समस्त भोग कर्म के आधारभूत हैं।[२] वैकृत मण्डल में प्रस्तुत अट्ठाइस पदार्थों में कुछ का सांख्यदर्शन में प्रसंगवश उल्लेख तो होता हैं तथापि इन्हें पृथक् तत्त्वरूप में नहीं जाना जाता। त्रिविध प्रमाण, बुद्धि के आठ भावों में से सात्त्विक भाव ज्ञान (ख्याति), धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, सिद्धि, (सिद्धिकाण्ड) मोक्ष आदि की चर्चा सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। पुरुषार्थ रूप भोग का भी वैकृत मण्डल में उल्लेख है। पंचविपर्यय कलेश रूप में उल्लिखित है। प्रकृति, परमात्मा तथा जीवात्मा (दो चेतन तत्त्वों) की मान्यता संहिताकार की जानकारी में रही होगी ऐसा माना जा सकता है।[३] यहां ब्रह्मशब्द प्रकृति के अर्थ में लिए जाने की संभावना युक्तिसंगत इसलिए नहीं कही जा सकती, क्योंकि प्रकृति और गुणत्रय की तात्विक अभिन्नता है और गुणतंत्र की गणना भी प्राकृत मण्डल में है। प्राकृत मण्डल में उल्लिखित नियति, काल, अक्षर, सामि पदार्थों का स्पष्ट कथन सांख्य साहित्य में नहीं पाया जाता, तथापि इनके किन्हीं अर्थों को सांख्य दर्शन में मान्य तत्त्वों के साथ सामंजस्य रूप में स्वीकार अवश्य किया जा सकता है। पुरुष और प्रकृति सत्ता की दृष्टि से अक्षर कहे जा सकते हैं।[४] इसी तरह सामि (स्वामी) अधिष्ठानुभूत परमात्मा के सम्बन्ध में समझा जा सकता हैं।[५] नियति यदि स्वभाव के अर्थ में लिया जाय तो सृष्टि वैषम्य की स्वाभाविता प्रकृति में तथा भोगापवर्गोन्मुखता जीवात्मा पुरुष के स्वभाव के रूप में लिया ही जा सकता है। अहिर्बुध्न्यसंहिता के इस षष्टिभेद के बारे में उदयवीर शास्त्री का मत है कि वार्षगण्य के योग संबंधी व्याख्या-ग्रन्थों के आधार पर और कुछ इधर-उधर से सुन-जानकर संहिताकार ने साठ पदार्थों की संख्या पूरी गिनाने का प्रयास किया[६]। दूसरी ओर अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि संहिताकार व्यक्तिगत (साक्षात्) रूप से षष्टितन्त्र के विषयवस्तु से परिचित रहे होंगे। अत: यह (संहिता) कपिल के मूल विचारों पर ही आधृत कही जा सकती है।[७] संहिताकार षष्टितन्त्र से सुपरिचित या अल्पपरिचित रहा हो या यत्र-तत्र उपलब्ध जानकारी के आधार पर साठ पदार्थों की गणना की हो- एक तथ्य स्पष्ट है कि षष्टितन्त्र के कपिलप्रोक्त सांख्यदर्शन का नाम होने के विषय में संदेह मात्र भी न था। यह सम्भवत: उसके अन्तर्गत प्रचलित हो गई हो जैसा कि भागवत और शांतिपर्व में भी परिलक्षित होता है।

महाभारत (शांतिपर्व)

महाभारत के शांति पर्व में सांख्य दर्शन के विभिन्न रूपों का विस्तृत व स्पष्ट परिचय मिलता है। तत्व गणना का रूप यहां सांख्य शास्त्र के प्रचलित रूप में अनुकूल ही है। इसके अतिरिक्त सांख्य-परम्परा के अनेक प्राचीन आचार्यों तथा उनके उपदेशों का संकलन भी शांति पर्व में उपलब्ध है। जिस स्पष्टता के साथ सांख्य-महिमागान यहां किया गया है, उससे महाभारतकार के सांख्य के प्रति रुझान का संकेत मिलता है। पुराणों की ही तरह महाभारत में भी दर्शन के रूप में सांख्य को ही प्रस्तुत किया गया है। अत: यदि महाभारत के शांतिपर्व को हम सांख्य दर्शन का ही एक प्राचीन ग्रन्थ कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। महाभारत के शांति पर्व के अन्तर्गत सांख्य दर्शन के कुछ प्रसंगों पर विचार करने के उपरान्त हम उसमें प्रस्तुत सांख्य-दर्शन की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे।

  • अध्याय 300 शांति पर्व में युधिष्ठिर द्वारा सांख्य और योग में अन्तर पूछने पर भीष्म उत्तर देते हैं।

अनीश्वर: कथं मुच्येदित्येवं शत्रुकर्षन।
वदन्ति कारणै: श्रैष्ठ्यं योगा: सम्यक् मनीषिण:॥3॥

वदन्ति कारणं चेदं सांख्या: सम्यग्विजातय:।
विज्ञायेह गती: सर्वा विरक्तो विषयेषु य: ॥4॥

ऊर्ध्वं स देहात् सुव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा।
एतदाहुर्महाप्राज्ञा: सांख्ये वै मोक्षदर्शनम् ॥5॥

  • इसके उपरान्त कहते हैं- 'शौच, तप, दया, व्रतों के पालन आदि में दोनों समान हैं केवल दर्शन (दृष्टि या पद्धति) में अन्तर है।' इस पर युधिष्ठिर पुन: प्रश्न करते हैं कि जब व्रत, पवित्रता आदि में दोनों दर्शन समान हैं और परिणाम भी एक ही है तब दर्शन में समानता क्यों नही हैं? इसके उत्तर में भीष्म योग का विस्तृत परिचय देने के उपरान्त सांख्य विषयक जानकारी देते हैं। उक्त जानकारी के कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं-

प्रकृतिं चाप्यतिक्रम्य गच्छत्यात्मानमव्ययम्।
परं नारायणात्मानं निर्द्वन्द्वं प्रकृते: परम्॥<balloon title="301/96" style=color:blue>*</balloon> अर्थात जब जीवात्मा प्रकृति (और उसके विकारों) का अतिक्रमण कर लेता है तब वह द्वन्द्वरहित, प्रकृति से परे नारायण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
विमुक्त: पुण्यपापेभ्य: प्रविष्टस्तमनामयम्।
परमात्मानमगुणं न निवर्तति भारत ॥97

शिष्ट: तत्र मनस्तात इन्द्रियाणि च भारत
आगच्छन्ति यथाकालं गुरो: सन्देशकारिण:॥98 भावार्थ यह है कि पुण्यपाप से विमुक्त (साधक) अनामय अगुण परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है, वह फिर से इस संसार में नहीं लौटता। इस प्रकार जीवात्मा प्रारब्धवश गुरु के आदेश पालन कारने वाले शिष्य की भांति यथा समय गमनागमन करते हैं।
अक्षरं ध्रुवमेवोक्तं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।101
अनादिमध्यनिधनं निर्द्वन्द्वं कर्तृ शाश्वतम्।

कूटस्थं चैव नित्यं च यद् वदन्ति मनीषिण: ॥102॥

यत: सर्वा: प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रिया:। 103

इसके बाद इस स्थल पर सांख्य शास्त्र की प्रशंसा, महिमा का वर्णन है। इस प्रसंग पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सांख्य शास्त्र में जीवात्मा, परमात्मा तथा प्रकृति-तीन तत्त्वों को मान्यता प्राप्त है। अत: आरम्भ में जो अनीश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है वह सांख्य की अनीश्वरवादिता का द्योतक न होकर मोक्ष में उसकी उपयोगिता की अस्वीकृति मात्र है। सांख्य दर्शन में विवेक-ज्ञान ही मोक्ष में प्रमुख है।

  • अध्याय 302 से 308 तक कराल-जनक और वसिष्ठ-संवाद के रूप में सांख्य और योगदर्शन के विस्तृत परिचय का प्रसंग है। इस संवाद को प्राचीन इतिहास के रूप में प्रस्तुत करते हुए पहले क्षर और अक्षर तत्त्व का भेद, वर्गीकरण, लक्षण आदि का उल्लेख करके योग का परिचय देने के उपरान्त सांख्य शास्त्र का वर्णन। अध्याय 306 में वसिष्ठ- संवाद इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-

सांख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्यानदर्शनम्॥26॥

अव्यक्तमाहु: प्रकृतिं परा प्रकृतिवादिन:।
तस्मान्महत् समुत्पन्नं द्वितीयं राजसत्तम॥27॥

अहंकारस्तु महतस्तृतीयमिति न: श्रुत:।
पञ्चभूतान्यहंकारादाहु: सांख्यात्मदर्शिन:॥28॥

एता: प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश।
पञ्च चैव विशेषा वै तथा पञ्चेन्द्रियाणि च ॥29॥

तत्त्वानि चतुर्विंशत् परिसंख्याय तत्त्वत:।
सांख्या: सह प्रकृत्या तु निस्तत्त्व: पञ्चविंशक:॥43॥

यहां सांख्यशास्त्रीय परम्परा के अनुसार तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। इस वर्णन में 'सांख्यकारिका' से अति प्राचीन 'तत्त्वसमाससूत्र' की झलक मिलती है। अष्टौ प्रकृतय:<balloon title="(सूत्र-1)" style=color:blue>*</balloon> को यहां 'प्रकृतय: च अष्टौ' के रूप में तथा षोडश विकारा:<balloon title="(सूत्र-2)" style=color:blue>*</balloon> को विकाराश्च षोडश के रूप में प्रस्तुत किया गया। लगभग इसी तरह सांख्य तत्त्वों का वर्णन 310वें अध्याय में भी आता है।

  • अध्याय 318 में विश्वावसु प्रश्न करता है कि पच्चीसवें तत्त्व रूप जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न है अथवा भिन्न है। इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य कहते हैं-

अबुध्यमानां प्रकृतिं बुध्यते पंचविशक:।
न तु बुध्यति गंधर्व प्रकृति: पञ्चविंशकम्॥70॥

पश्यंस्तथैव चापश्चन् पश्यत्यन्य: सदानघ।
षडविंशं पञ्चविंशं च चतुर्विशं च पश्यति॥72॥

न तु पश्यति पश्यंस्तु यश्चैनमनुपश्यति।
पञ्चविंशोऽभिमन्येत नान्योऽस्ति परतो मम॥73॥

यदा तु मन्यतेऽन्योऽहमन्य एष इति द्विज:।
तदा स केवलीभूत: षडविंशमनुपश्यति ॥77॥

अन्यश्च राजन्नयवरस्तथान्य: पञ्चविंशक:।
तत्स्थानाच्चानुपश्यन्ति एक एवेति साधव:॥78॥

संक्षिप्तार्थ इस प्रकार है- अचेतन प्रकृति को पच्चीसवां तत्त्वरूप पुरुष तो जानता है किन्तु प्रकृति उसे नहीं जानती। छब्बीसवां तत्त्व चौबीसवें तत्व (प्रकृति) पच्चीसवें तत्त्व (जीवात्मा) को जानता है। जब (जीवात्मा) यह समझ लेता है कि मैं अन्य हूं और यह (प्रकृति) अन्य है तब केवल (प्रकृतिसंसर्गरहित) हो, छब्बीसवें तत्त्व को देखता है। शांतिपर्व में दर्शन और अध्यात्म के विभिन्न उल्लेखों में सांख्य दर्शन न्यूनाधिक उपर्युक्त प्रसंगों के ही अनुरूप है। उपर्युक्त वर्णन के आधार पर सांख्य दर्शन की जो रूपरेखा बन सकती है, वह इस प्रकार है-

  • सांख्य दार्शनिक चौबीस, पच्चीस, छब्बीस तत्वों को मानते हैं। तदनुसार प्रकृति, जिसे अव्यक्त भी कहा जाता है एक तत्त्व है। प्रकृति से महत, अहंकार, पञ्चभूत (तन्मात्र) मन, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ पांच स्थूल भूत-इस तरह चौबीस तत्त्व हैं।
  • प्रचलित सांख्य, परम्परा में 'पुरुष' भी तत्त्व रूप में बिना जाता है जिसे यहां निस्तत्त्व मानकर पञ्चविंशक रूप में स्वीकार किया गया। इस तरह चौबीस अथवा पच्चीस के गणना भेद में परम्परा या कोई दोष नहीं हैं और कोई प्रचलित गणना से विरोध भी नहीं हैं। छब्बीसवें तत्त्व कहने में चौबीस तथा पच्चीस की गणना से सामंजस्य स्पष्ट हो जाता है। महाभारतकार को यह पूरी गणना सांख्य दर्शन के रूप में स्वीकार करने में संकोच नहीं था।<balloon title="शांति पर्व 308-7" style=color:blue>*</balloon> इसका अर्थ यह है कि उसके अनुसार सांख्य दर्शन में परमात्मा की सत्ता मान्य है।<balloon title="शांति पर्व के सांख्य के सेश्वर स्वरूप पर अणिमा सेनगुप्ता के निष्कर्ष के लिए द्रष्टव्य पृष्ठ- 64 –इ.सां. था।" style=color:blue>*</balloon>

अव्यक्तात्मा पुरुषो व्यक्तकर्मा
सोऽव्यक्ततत्त्वं गच्छति अन्तकाले।<balloon title="शांति पर्व 208/28 " style=color:blue>*</balloon> पुरुष का वास्तविक स्वरूप अव्यक्त है और कर्म व्यक्त रूप है। अत: अन्तकाल में वह अव्यक्त भाव को प्राप्त हो जाता है।

अव्यक्ताद् व्यक्तमुत्पन्नं व्यक्ताद्वस्तु परोऽक्षर:।
यस्मात्परतरं नास्ति तमस्मि शरणं गत:॥<balloon title="(शांति पर्व 209-65)" style=color:blue>*</balloon> जिस अव्यक्त से व्यक्त उत्पन्न होता है जो व्यक्त से परे व अक्षर है, जिससे परे अन्य कुछ भी नहीं है मैं उसकी शरण में जाता हूँ।

गुणादिनिर्गुणस्चाद्यो लक्ष्मीवांश्चेतनो व्ह्यज:।
सूक्ष्म: सर्वगतो योगी स महात्मा प्रसीदतु॥71॥

सांख्ययोगश्च ये चान्ये सिद्धाश्च परमार्षय:।
यं विदित्वा विभुच्यन्ते स महात्मा प्रसीदतु॥72॥

अव्यक्त: समधिष्ठाता ह्यचिन्त्य: सदसत्पर:।
आस्थिति: प्रकृतिश्रेष्ठ: स महात्मा प्रसीदतु॥73॥

अशरीर: शरीरस्थं समं सर्वेषु देहिषु॥

पश्यन्ति योगा: सांख्याश्च स्वशास्त्रकृतलक्षणा:।
इष्टानिष्टविमुक्तं हि तस्थौ ब्रहृमपरात्परम्॥<balloon title="318/101" style=color:blue>*</balloon>

  • उपर्युक्त उद्धरणों में ब्रह्म, अव्यक्त, प्रकृतिश्रेष्ठ, निर्गुण, चेतन अज, अधिष्ठाता, सदसत्पर: (कार्यकारण प्रकट अप्रकट से परे) आदि समस्त पद परमात्मा की ही ओर लक्षित हैं। फिर परमात्मा अशरीरी है लेकिन 'देहधारियों' में स्थित है। इस परमात्मा को ही अव्यक्त प्रकृति विकारादि में व्याप्त भी कहा गया है।
  • अव्यक्त शब्द को यद्यपि सांख्य दर्शन में प्रायश: प्रकृति के लिए प्रयुक्त माना गया है, लेकिन महाभारत में प्रयुक्त शब्द के प्रयोग के आधार पर श्री सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त इसे पुरुष के लिए भी प्रयुक्त मानते हैं।<balloon title="भारतीय दर्शन का इतिहास भाग-2 गीता दर्शन प्रकरण में द्रष्टव्य" style=color:blue>*</balloon>
  • सांख्य शास्त्रीय प्रकृति और उसकी त्रिगुणात्मकता का उल्लेख भी महाभारत में अनेकत्र हुआ है। एते प्रधानस्य गुणास्त्रय<balloon title="शांति पर्व 314/1" style=color:blue>*</balloon>,त्रिगुणाधर्मया<balloon title="शांति पर्व 217/9" style=color:blue>*</balloon>, तमोरजस्तथा सत्वंगुणान्<balloon title="आश्वमेधिक पर्व 36/4" style=color:blue>*</balloon>,आदि प्रयोगों से तथा सत्त्व रजस व तमस शब्दों के सांख्यीय अर्थ के अनेकश: प्रयोगों से तथा सृष्टिक्रम सम्बन्धी अधिकांश वर्णनों में सांख्यदर्शन का ही उल्लेख व प्रभाव परिलक्षित होता है। अध्याय 210 का यह सृष्टिवर्णन द्रष्टव्य है-

पुरुषाधिष्ठितान् भावान् प्रकृति: सूयते सदा।
हेतुयुक्तमत: पूर्वं जगत् सम्परिवर्तते॥25॥

यहां प्रकृति की पुरुषाधिष्ठितता और जगत् (व्यक्त) की हेतुमत्ता में सांख्य सूत्र 'तन्सन्निधानादधिष्ठातृत्वं<balloon title="(1/96)" style=color:blue>*</balloon>' माठर तथा गौडपाद द्वारा उद्धृत षष्ठितंत्र के सूत्र 'पुरुषाधिष्ठितं प्रधानं प्रवतर्तते' तथा 'हेतुमदनित्यं<balloon title="(सूत्र 1/124)" style=color:blue>*</balloon>' स्पष्ट प्रतिध्वनित होते हैं- मूलप्रकृतियों ह्यष्टौ<balloon title="(शांति पर्व-210/28)" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वसमाससूत्र का संकेत देता है। इसी क्रम में आगे षोडशविकारों का वर्णन सांख्यनुसार है। इसी संवादक्रम में 211वें अध्याय में 4 था श्लोक सांख्य सूत्र 1/164 की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत है।

  • शांति पर्व श्लोक-

तद्वदव्यक्तजा भावा: कर्तृकारणलक्षणा:।
           अचेतनाश्चेतयितु: कारणादभिसंहिता:॥

  • सांख्य सूत्र हैं- 'उपरागात्कर्तृत्वं चित्सान्निध्याच्चिध्यात्'। महाभारत में सत्त्व, रजस व तमस की सुख-दु:ख मोहात्मकता अथवा प्रीत्यप्रीति विषादात्मकता का भी विस्तृत वर्णन होता है<balloon title="शांति पर्व अध्याय 174, 212" style=color:blue>*</balloon>। तथापि यहां गुणों का उल्लेखविस्तार तत्त्वमीमांसीय दृष्टि के साथ मनोवैज्ञानिक भाव अथवा गुणों के रूप में अधिक पाया जाता है।
  • मोक्षप्राप्ति में हेतु महाभारत में प्राय: सांख्यानुरूप ही है। सांख्य परम्परा में व्यक्त, अव्यक्त और 'ज्ञ' के विवेक से मुक्ति की बात कहीं गई है, शांति पर्व अध्याय में कहा गया है-

<balloon title=विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम्। यो यथावद्विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते॥<balloon title="217/37" style=color:blue>*</balloon> ज्ञानवान पुरुष जब यह जान लेता है कि 'मैं' अन्य हूं यह प्रकृति अन्य है- तब वह प्रकृतिरहित शुद्ध स्वरूपस्थ हो जाता है<balloon title="(307/20)" style=color:blue>*</balloon>

  • इस प्रकार महाभारत में प्रस्तुत दर्शन पूर्णत: सांख्य दर्शन ही है। जो प्रमुख अन्तर दोनों में प्रतीत होता है वह है परमात्मा ब्रह्म या पुरुषोत्तम की स्वीकृति।

भगवद्गीता में सांख्य दर्शन

भगवद्गीता में विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों ने अपने अनुकूल दर्शन का अन्वेषण किया और तदनुरूप उसकी व्याख्या की। लेकिन जिन सिद्वान्तों पर सांख्य परम्परा के रूप में एकाधिकार माना जाता है। उनका गीता में होना-ऐसा तथ्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो विद्वान सांख्य दर्शन को निरीश्वरवादी या अवैदिक मानकर विचार करते हैं वे अवश्य ही गीता में सांख्य दर्शन के दर्शन नहीं कर पाते हैं। इस पर भी प्राचीन सांख्य जिसका महाभारत में चित्रण है, अवश्य ही गीता में स्वीकार किया जाता है। भगवद्गीता में कहा गया है-

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावति।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥13/19

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भौक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥20॥ प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, समस्त विकास और गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं। कार्यकारणकर्तृव्य (परिणाम) का हेतु प्रकृति तथा सुख-दु:ख भोक्तृत्व का हेतु पुरुष है।

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

  • मेरी (परमात्मा की) अध्यक्षता (अधिष्ठातृत्व) में ही प्रकृति चराचर जगत की सृष्टि करती है। इस प्रकार भगवद्गीता तीन तत्त्वों को मानती है-
  1. प्रकृति,
  2. पुरुष एवं
  3. परमात्मा। वैदिक साहित्य में 'पुरुष' पर चेतन तत्व के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्त्व निरूपित होते हैं। गीता में सृष्टि का मूलकारण प्रकृति को ही माना गया है। परमात्मा उसका अधिष्ठान है- इस अधिष्ठातृत्व को निमित्त कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृति के रूप में जीव-प्रकृति को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। परमात्मा स्वयं इस जगत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति और प्रलय का नियंत्रण करता है।<balloon title="गीता 7/5,6" style=color:blue>*</balloon>
  • गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं<balloon title="गीता 7/12-14" style=color:blue>*</balloon>।' परमात्मा की माया कहने में जहां माया या प्रकृति से सम्बन्ध की सूचना मिलती है वहीं संबंध के लिए अनिवार्य भिन्नता का भी संकेत मिलता है। परमात्मा प्रकृति में अन्तर्व्याप्त और बहिर्व्याप्त है। इसीलिए परमात्मा के व्यक्त होने या अव्यक्त रहने का कोई अर्थ नहीं होता। व्यक्त अव्यक्त सापेक्षार्थक शब्द है। परमात्मा के व्यक्त होने की कल्पना को गीताकार अबुद्धिपूर्व कथन मानते हैं<balloon title="अव्यक्तं व्यक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:" style=color:blue>*</balloon>। अत: जब परमात्मा की माया से सृष्टयुत्पत्ति कही जाती है तब उसका आशय यह नहीं होता कि परमात्मा अपनी चमत्कारी शक्ति से व्यक्त होता है, बल्कि यह कि उसकी अव्यक्त नाम्नी माया या त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही व्यक्त होती है। इससे भी उपादान कारणभूत प्रकृति की पृथक सत्ता की स्वीकृति झलकती है। परमात्मा स्वयं जगदरूप में नहीं आता बल्कि जगत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है<balloon title="समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् 13/31" style=color:blue>*</balloon>। समस्त कार्य (क्रिया) प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं। परमात्मा अनादि, निर्गुण, अव्यय होने से शरीर में रहते हुए भी अकर्ता-अलिप्त रहता है<balloon title="गीता 13/31" style=color:blue>*</balloon>। (यह) शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ है<balloon title="गीता 13/1,2" style=color:blue>*</balloon>। इससे भी जीव तथा देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्पष्ट होता है।
  • सांख्य शास्त्र में मान्य त्रिगुणात्मक प्रकृति गीता को भी मान्य है। सृष्टि का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से रहित हो<balloon title="गीता 18/40" style=color:blue>*</balloon>। शांति पर्व में प्रस्तुत सांख्य तथा तत्त्वसमासोक्त अष्टप्रकृति को भी गीता स्वीकार करती है। यहाँ पांच सूक्ष्म भूत (तन्मात्र), बुद्धि, अहंकार तथा मन इन आठ को अष्टप्रकृति के रूप में कहा गया है<balloon title="गीता 7/4" style=color:blue>*</balloon>। सांख्यशास्त्र में मान्य अष्टप्रकृति के अन्तर्गत मन का उल्लेख नहीं है। गीता में मन को सम्मिलित कर, मूलप्रकृति का लोप कर दिया गया। मन स्वयं कुछ उत्पन्न नहीं करता। अत: उसे प्रकृति कहना संगत प्रतीत नहीं होता। अत: तो यहां मन का अर्थ प्रकृति लिया जाय अथवा सांख्य में जो अनेक रूप प्रचलित थे उनमें से एक भेद यहां स्वीकार कर लिया जाये।
  • प्रकृतिरूप क्षेत्र के विकार, उनके गुणधर्म आदि की चर्चा करते हुए कहा गया है- महाभूत, अहंकार, बुद्धि, एकादश इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय विषय इनका कारणभूत- सब क्षेत्र के स्वरूप में निहित है। इसे अव्यक्त कहा गया है।

क्षर तथा अक्षर तत्त्व का निरूपण करते हुए कहा गया है क्षररूप प्रकृति अधिभूत है तथा पुरुष अधिदैवत है और समस्त देह में परमात्मा अधियज्ञ है।[८] सृष्टि रूपी यज्ञ में देवता रूपी पुरुष (जीवात्मा) के लिए भोग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के लिए है और इसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। इसीलिए परमात्मा की भी पृथक् सत्ता की मान्यता प्रस्तुत की गई है। एक स्थल पर कहा गया है कि इस संसर में क्षर तथा अक्षर या नाशवान् परिवर्तनशील तथा जीवात्मा अक्षर है उत्तम पुरुष अन्य है जिसे परमात्मा कहते हैं। वह तीनों लोकों में प्रवेश कर सबका पालन करता है, वह अविनाशी ईश्वर है। वह क्षर और अक्षर से उत्तम है उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है।[९] इस तरह पुन: जीवात्मा-परमात्मा में भेद दर्शाया गया। कार्यकारण-श्रृंखला में व्यक्त समस्त जगत् का मूल हेतु प्रकृति है और जीवात्मा सुख दु:खादि के भोग में हेतु है। परमात्मा इस सबसे परे इनका भर्ता भोक्ता है। इस तरह जो जान लेता है वह मुक्त हो जाता है। प्रकृतिस्थ हुआ पुरुष गुणसंग होकर प्रकृति के गुणों का भोग करता हुआ शुभाशुभ योनियों में जन्म लेता रहता है।[१०] सत्त्व रजस् प्रकृति से व्यक्त गुण ही अव्यय पुरुष को देह में बांधते हैं।[११] इन गुणों के अतिरिक्त कर्ता अन्य कुछ भी नहीं है- ऐसा जब साधक जान लेता है तो गुणों से परे मुझे जान कर परमात्मा को प्राप्त होता है।[१२] इस तरह गीता व्यक्ताव्यक्तज्ञ ज्ञान से मुक्ति का निरूपण करती है। गीता दर्शन का सांख्य रूप विवेचन उदयवीर शास्त्री ने अत्यन्त विस्तार से किया है।[१३] निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि महाभारत के अंगभूत होने से शांतिपर्वान्तर्गत सांख्यदर्शन का ही गीता भी अवलम्बन करती हें। हां, प्रचलित विद्वान्मान्यतानुसार निरीश्वर सांख्य गीता को इष्ट नहीं है। उपनिषदों में सांख्य दर्शन- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोऽनाशया शोचति मुह्यमान:। जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक:॥ यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्। तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्यमुपैति॥ मुण्डकोपनिषद् 3/1/1-3 दो सुन्दर वर्ण वाले पक्षी एक ही वृक्ष पर सखा-भाव से सदा साथ-साथ रहते हैं। उनमें से एक तो फल भोग करता है और दूसरा भोग न करते हुए देखता रहता है। एक ही वृक्ष पर रहने पर भी वृक्ष पर 'ईशत्व' न होने से मोहित होकर चिन्तित रहता है। वह जिस समय अपने से भिन्न ईश्वर और उसकी महिमावान् शोकरहित पक्षी देखता है, जब जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष को देखता है तब वह विद्वान् पुण्य-पाप त्याग कर उसके समान शुद्ध और परम साम्य को प्राप्त हो जाता है। आलंकारिक काव्यमय रूप से महाभारत में प्रस्तुत त्रैतवादी सांख्य का इस मंत्र में स्पष्ट निरूपण दीखता है। वृक्ष(प्रकृति) पर बैठे दो पक्षी हैं। एक वृक्ष के फलों का भोग कर रहा है। (जीवात्मा) दूसरा शोकरहितभाव से देख रहा है परमात्मा। इस तरह प्रकृति और परमात्मा-जीवात्मा निरूपण ही वास्तव में कपिल सांख्य का आधार बना। इस त्रैत को श्वेताश्वतर उपनिषद् में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया- यहां दो चेतन तत्त्वों का उल्लेख है एक अनीश और भोक्ता है और दूसरा विश्व का ईश, भर्ता है। एक प्रकृति है जो जीवात्मा के भोग के लिए नियुक्त है। इस तरह तीन अज अविनाशी तत्त्व हैं, शाश्वत तत्त्व (ब्रह्म) है इन्हें जानकर (व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्) मुक्ति प्राप्त होती है। श्वेताश्वतर में इस प्रसंग में एक अन्य रूप से सांख्यसम्मत त्रैतावाद का उल्लेख है- अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां वह्वी: प्रजा सृजामानां सरूपा:। अजो हि एको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:॥ [१४] यहां लोहित शुक्ल कृष्ण वर्ण क्रमश: रजस्, सत्त्व तथा तमस्-त्रिगुण के लिए प्रयुक्त है। इन तीन गुणों से युक्त एक अजा (अजन्मा) तत्त्व है। इसका भोग करता हुआ एक अज तत्त्व है तथा भोग रहित एक और अज तत्त्व (परमात्मा) है। इस प्रकार यह उपनिषद्वाक्य त्रिगुणात्मक प्रसवधर्मि (सृजन करने वाली) प्रकृति का उल्लेख भी करती है। परमात्मा को मायावी कहकर प्रकृति को ही माया कहा गया है।[१५] इस प्रसंग में पुन: मायावी और माया से बन्धे हुए अन्य तत्त्व जीवात्मा का उल्लेख भी है।[१६] सांख्यसम्मत तत्त्वों का सांख्यपरम्परा की पदावली में ही कठोपतिषद् इस प्रकार वर्णन करती है।[१७] इन्द्रियेम्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तमम्। सत्त्वादधिमहानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्। अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च॥ यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्त्वं च गच्छति। (2।3।7-8) इन समस्त इन्द्रियों से युक्त आत्मा-जीवात्मा-को भोक्ता कहा गया है। सांख्य दर्शन में तो पुरुष के अस्तित्व हेतु दी गई युक्तियों में भोक्तृत्व को पुरुष का लक्षण भी माना गया है। इन शब्दों के प्रयोग से तथा उक्त वर्णन से इन उपनिषदों पर सांख्यदर्शन के प्रभाव का पता चलता है। छान्दोग्योपनिषद् में सृष्टिरचना के संदर्भ में कहा गया है कि पहले सत् ही था। उसने ईक्षण किया- मैं बहुत हो जाऊँ'य उसने तेज का सृजन किया। इसी तरह तेज से अप् तथा अप् से अन्न के सृजन का वर्णन है। इस वर्णन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सत् तेज या अप् नहीं हो गया वरन् सत् सृजन किया। अत: उसे ही उपादान मान लेने का कोई ठोस आधार नहीं है। वास्तव में सत् में अव्यक्त भाव से स्थित तेज अप् अन्न का सृजन किया- ऐसा भाव है। तेज अप्, अन्न क्रमश: सांख्योक्त सत्त्व, रजस् व तमस् ही है। इस प्रसंग में बताया गया तेजस् अग्निरूप रक्त वर्ण का अप् शुक्ल वर्ण का तथा अन्न कृष्ण वर्ण का है। प्रत्येक पदार्थ में ये तीनों ही सत्य हैं। शेष वाचारम्मणं विकार मात्र हैं। इन तीन का सृजन करके वह जीवात्मा से उसमें प्रविष्ट हुआ। प्रवेश से चेतन-अचेतन द्वैत की सांख्यसम्मत मान्यता की स्थापना ही होती है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इस प्रसंग को अनेन तथा अनुप्रवेश्य शब्दों के आधार पर परमात्मा तथा जीवात्मा दो चेतन तत्त्वों का अर्थ ग्रहण किया।[१८] इसी प्रसंग में जिस त्रिवृत की चर्चा की गई है वह त्रिगुण की परस्पर क्रिया के रूप में ही समझी जा सकती है। मैत्र्युपनिषद् में तो सांख्यतत्त्वों का उन्हीं शब्दों में उल्लेख है। पुरुषश्चेता प्रधानानान्त:स्थ: स एव भोक्ता प्राकृतमन्नं भुङक्ता इति... प्राकृतमन्न त्रिगुणभेद परिणामात्मान्महदाद्यं विशेषान्तं लिंगम्, आदि उपनिषदों में सांख्य सिद्धान्तों का मिलना इस बात का सूचक है कि सांख्य पर उपनिषत् प्रभाव है और सांख्यशास्त्र का उपनिषदों पर प्रभाव है। भागवत में सांख्यदर्शन माता देतहूति की जिज्ञासा को शान्त करते हुए परमर्षि कपिल बताते हैं-[१९] अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुण: प्रकृते: पर:। प्रत्याग्धामास्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम्॥ कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदु:। भोक्तृत्वे सुखद:खानां पुरुषं प्रकृते: परम्। यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्। प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत्। पञ्चभि: पञ्चभिर्ब्रह्य चतुर्भिदशभिस्तथा॥ एतच्चतुर्विंशतिकं गणं: प्राधानिकं विदु:॥ प्रकृतेगुर्णसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि। चेष्टा यत: स भगवान् काल इत्युपलक्षित:॥ इसके अनन्तर महदादि तत्त्वों की उत्पत्ति कही गई। सांख्यकारिकोक्त मत से भिन्न अहंकार से उत्पन्न होने वाले तत्त्वों का यहां उल्लेख है। यहां वैकारिक अहंकार से मन की उत्पत्ति कही गई है। कारिका में भी मन को सात्विक अहंकार से उत्पन्न माना गया है। फिर तैजस अहंकार से बुद्धितत्त्व की उत्पत्ति कही गई। इससे पूर्व परमात्मा की तेजोमयी माया से महत्तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। ऐसा प्रतीत होता है कि भागवतकार महत् तथा बुद्धि को भिन्न मानते हैं, जबकि सांख्यशास्त्र में महत् और बुद्धि को पर्यायार्थक माना गया। तैजस अहंकार से इन्द्रियों की उत्पत्ति बताई गई है जबकि कारिकाकार ने मन सहित समस्त इन्द्रियों को सात्त्विक अहंकार से माना है। तामस अहंकार से तन्मात्रोत्पत्ति भागवत तथा सांख्यशास्त्रीय मत में समान है। भिन्नता यह है कि भागवत में तामसाहंकार से शब्द तन्मात्र से आकाश तथा आकाश से श्रोत्रेन्द्रिय की उत्पत्ति कही गई। इसी तरह क्रमश: तन्मात्रोत्पत्ति को समझाया गया है।[२०] सांख्य दर्शन में पुरुष को अकर्ता, निर्गुण, अविकारी माना गया है। और तदनुरूप उसे प्रकृति के विकारों से निर्लिप्त माना गया है। तथापि अज्ञानतावश वह गुण कर्तृत्व को स्वयं के कर्तृत्व के रूप में देखने लगता है। और देह संसर्ग से किए हुए पुण्य पापादि कर्मों के दोष से विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ संसार में रहता हैं यही बात श्रीमदभागवत में कही गई है।[२१] प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै:। अविकारादकर्तृत्वान्निगुर्णत्वाज्जलार्कवत्॥ स एष यर्हि प्रकृतेर्गुष्णभिविषज्जते। अहंक्रियाविमूढात्मा कर्ताऽस्मीत्यभिमन्यते॥ भागवत के एकादश स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलग-अलग संख्या में गणना का सुन्दर समन्वय करते हुए यह बतलाया गया है कि मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह समन्वय उचित और सरल हो या न हो, इतना तो स्पष्ट है कि सांख्य के विभिन्न रूप प्रचलित हो चले थे और भागवतकार इन्हें विषमता न मानकर कपिल के दर्शन के ही रूप मानते थे। अन्य पुराण:- भागवत पुराण विद्वानों के लिए ऐतिहासिक ग्रन्थ मात्र नहीं वरन् जनसामान्य श्रद्धालुओं में भी अत्यन्त ख्यातिलब्ध है। अत: उक्त ग्रन्थ का पृथक् उल्लेख किया गया। सृष्टि प्रलयादि विषयों पर सभी पुराणों में मतैक्य है। अत: यहां प्रमुखत: विष्णुपुराण के ही अंश, जिनसे सांख्य दर्शन का स्वरूप परिचय हो सके-प्रस्तुत किए जा रहे हैं- तद्ब्रह्म परमं नित्यमजमक्षय्यमव्ययम्। एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च निर्मलम्॥ तदेव सर्वमेवैतद् व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत्। तथा पुरूषरूपेण कालरूपेण च स्थितम्॥ वि.पु. 1/2/13,14 यह ब्रह्म नित्य अजन्मा अक्षय अव्यय एकरूप और निर्मल है। वही इन सब व्यक्त-अव्यक्त रूप (जगत्) से तथा पुरुष और काल रूप से स्थित है। अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमै:। प्रोच्यते प्रकृति: सूक्ष्मा नित्यं सदसदात्मकम्। (वि.पु. 1/2/19) [२२] प्रकृतिर्या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी। पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि॥ परमात्मा च सर्वेषामाधार: परमेश्वर:॥ (6/4/39,40) व्यक्त जगत् का अव्यक्त कारण सदसदात्मक प्रकृति कही जाती है। प्रकृति और पुरुष दोनों ही (प्रलय काले) परमात्मा में लीन हो जाते हैं। प्रकृति का स्वरूप बताया गया है:- सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रयमुदाहतम्। साम्यावस्थितिमेतेषामव्यक्तां प्रकृतिं विदु:॥ (कूर्म/उत्तर खण्ड 6/26) [२३] प्रधानपुरुषौ चापि प्रविश्यात्मेच्छया हरि:। क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥29॥ यथा सन्निधिमात्रेण गन्ध: क्षोभाय जायते। मनसो नोपकर्तृत्वात्तथाऽसौ परमेश्वर:॥30॥ प्रधानतत्त्वमुद्भूतं महान्तं तत्समावृणोत्। सात्त्वि को राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान्॥34॥ वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामस:॥35॥ त्रिविधोऽयमहंकारो महत्तत्त्वादजायत॥36॥ तन्मात्राण्यविशाणि अविशेषास्ततो हि ते ।45। न शान्ता नापि धोरास्ते न मूढाश्चविशेषिण:। भूततन्मात्रसर्गोऽयमंहकारात्तु तामसात्॥46॥ तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका दश। एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिका: स्मृता:॥46 पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च प्रधानानुग्रहेण च। महदाद्या विशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति ते॥54॥ तस्मिन्नण्डेऽभवद्विप्र सदेवासुरमानुष:॥58॥ वि.पु. प्रथम अंश द्वितीय अध्याय आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुध:। उत्पन्नज्ञानवैराग्य: प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम्॥ वही षष्ठ अंश पंचम अध्याय। श्लोक.1 परमात्मा प्रधान या प्रकृति और पुरुष में प्रवेश करके उन्हें प्रेरित करता है। तब सर्गक्रिया आरंभ होती है। यद्यपि मूलत: प्रकृति, पुरुष, काल, विष्णु के ही अन्य रूप हैं, तथापि सर्ग-चर्चा में प्रेरिता तथा प्रधान पुरुष को भिन्न किन्तु अपृथक् ही ग्रहण किया जाता है। तन्मात्र अविशेष हैं जिनकी उत्पत्ति तामस अहंकार से होती है। सुख-दु:ख मोहात्मक अनुभूति तन्मात्रों की नहीं होती। ये जब विशेष इन्द्रियद्वारा ग्राह्य होते हैं। आशय यह है कि ये अविशेष विशेष के बिना नहीं जाने जाते है। राजस अहंकार से पञ्चकर्मेन्द्रियाँ तथा पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा वैकारिक अथवा सात्त्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति का समर्थन विज्ञानभिक्षु भी करते है। तथापि कारिकामत में सात्त्विक अहंकार से एकादशेन्द्रिय की उत्पत्ति मानी गई है। चरकसंहिता में सांख्यदर्शन अतिप्राचीन काल में ही सांख्यदर्शन का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से ज्ञान के सभी पक्षों से संबंधित शास्त्रों में सांख्योक्त तत्त्वों की स्वीकृति तथा प्रकृति-पुरुष संबंधी मतों का उल्लेख है। चरकसंहिता में शारीरस्थानम् में पुरुष के संबंध में अनेक प्रश्न उठाकर उनका उत्तर दिया गया है। जिसमें सांख्यदर्शन का ही पूर्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। शारीरस्थानम् के प्रथम अध्याय में प्रश्न किया गया-[२४] कतिधा पुरुषों धीमन्! धातुभेदेन भिद्यते। पुरुष: कारणं कस्मात् प्रभव: पुरुषस्य क:॥ किमज्ञो ज्ञ: स नित्य: किमनित्यो निदर्शित:। प्रकृति: का विकारा: के, किं लिंगं पुरुषस्य य॥ इनके अतिरिक्त पुरुष की स्वतंत्रता, व्यापकता, निष्क्रियता, कतृर्त्व, साक्षित्व आदि पर प्रश्न उठाए गए। उनका उत्तर इस प्रकार दिया गया।[२५] खादयश्चेतना षष्ठा धातव: पुरुष: स्मृत:। चेतनाधातुरप्येक: स्मृत: पुरुषसंज्ञक:॥ पुनश्च धातुभेदेन चतुर्विशतिक: स्मृत। मनोदशेन्द्रियाण्यर्था: प्रकृतिश्चाष्टधातुकी॥ यहां पुरुष के तीन भेद बताए गए हैं- षड्धातुज, चेतना धातुज तथा चतुर्विशतितत्त्वात्मक। षड्धातुज पुरुष वास्तव में चेतनायुक्त पञ्चतत्त्वात्मक है। पांच महाभूत रूपी पुरि में रहने वाला आत्मतत्त्व, चेतना चिकित्सकीय दृष्टि से प्रयोत्य है। दूसरा पुरुष एक धातु अर्थात् चेतना तत्त्व मात्र है। तीसरा पुरुष चौबीस तत्त्वयुक्त है। चौबीस तत्त्वयुक्त इस पुरुष को ही 'राशिपुरुष' भी कहा गया है। इस राशिपुरुष में कर्म, कर्मफल, ज्ञान सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि धटित होते हैं।[२६] इन तत्त्वों के संयुक्त न रहने पर अर्थात् मात्र चेतन तत्व की अवस्था में तो सुख-दु:खादि भोग ही नहीं होते[२७] और नही चेतन तत्त्व का अनुमान ही संभव हैं। इस प्रकार से कथित पुरुष के मुख्य रूप से दो ही भेद माने जा सकते हैं। षड्धातुज का तो चतुर्विंशतिक में या राशिपुरुष रूप में अन्तर्भाव हो जाता है। एक धातु रूप चेतन तत्त्व दूसरा पुरुष है इन दोनों की उत्पत्ति के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया- प्रभवो न ह्यनादित्वाद्विद्यते परमात्मन:। पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छाद्वेषकर्मज:॥ शारीस्थानम 1/53 अनादि:पुरुषो नित्यो विपरीतस्तु हेतुज: सदकारणवन्नित्यं दृष्टं हेतुजमन्यथा॥1/59 अव्यषक्तमात्मा क्षेत्रज्ञ: शाश्वतो विभुश्व्यय:। तस्म्माद्यदन्यत्तद्व्यक्तं वक्ष्यते चापरं द्वयम्॥61 अनादिपुरुष (परमात्मा) तथा राशिपुरुष का यह वैधर्म्य विचारणीय है। ईश्वरकृष्ण की कारिका में पुरुष को व्यक्त के समान तथा विपरीत भी कहा गया है। व्यक्त को हेतुमत् आदि कहकर तदनुरूप पुरुष है तद्विपरीत भी पुरुष है। न तो कारिका में और न ही शारीरस्थानम् के उपर्युक्त वर्णन में इन्हें एक ही पुरुष के लक्षण मानने का आग्रह संकेत है। बुद्धचरितम् में सांख्य दर्शन- प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य अश्वघोष की काव्य रचना 'बुद्धचरितम्' में भी सांख्य दर्शन आचार्य अराठ के दर्शन के रूप में मिलता है। अश्वघोष का जीवनकाल ईसा की प्रथम शताब्दि में माना जाता है। बुद्धचरितम् में सांख्य शब्द से किसी दर्शन का उल्लेख न होने पर अराड दर्शन के सांख्य दर्शन कहने में कोई असंगति नहीं है। बुद्धचरितम् के अनुसार अराड कपिल की दर्शन-परम्परा के आचार्य थे। अराड जिस सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हैं उसे प्रतिबुद्ध कपिल का कहते हैं। सशिष्य: कपिलश्चेह प्रतिबुद्ध इति स्मृत: (द्वादश: सर्ग:) अपने दर्शन के प्रवक्ता के रूप में वे जैगीषव्य जनक वृद्ध पाराशर के प्रति भी सम्मान व्यक्त करते हैं इसके अतिरिक्त अराड दर्शन में प्रस्तुत व प्रयुक्त पदावली भी महाभारत में प्रस्तुत सांख्य का ही स्मरण कराती है। बुद्धचरितम् में सांख्य दर्शन को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है- श्रूयतामयमस्माकम् सिद्धान्त: श्रृण्वतां वर। यथा भवति संसारो यथा चैव निवर्तते॥ प्रकृतिश्च विकारश्च जन्म मृत्युर्जरैव च। तत्वावसत्वमित्युक्तं स्थिरं सत्वं परे हि तत्॥ तत्र तु प्रकृतिर्नाम विद्धि प्रकृतिकोविद। पञ्चभूतान्यहंकारं बुद्धिमव्यक्तमेव च॥ अस्य क्षेत्रस्य विज्ञानात् इति संज्ञि च। क्षेत्रज्ञ इति चात्मानं कथयन्त्यात्मचिंतका:॥ अज्ञान कनंर्म तृषणा च ज्ञेया: संसारहेतव:। स्थितोऽस्मिन्स्त्रये जन्तुस्तत् सत्त्वं नाभिवर्तते॥ इत्यविद्या हि विद्वान् स पञ्चपर्वा समीहते। तमो मोह महामोह तामिस्त्रद्वयमेव च॥ द्रष्टा श्रोता च मन्ता च कार्यकारणमेव च। अहमित्येवमागम्य संसारे परिवर्तते॥ (द्वादश सर्ग से संकलित) व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के भेदज्ञान से अपवर्ग प्राप्ति सांख्य का मान्य सिद्धान्त है। बुद्धचरितम् के अनुसार प्रतिबुद्धि, अबुद्ध, व्यक्त तथा अव्यक्त के सम्यक् ज्ञान से पुरुष को संसारचक्र से मुक्ति मिलती है मोक्षावस्था शाश्वत और अपरिवर्तनशील है। इस अवस्था में वह दुख और अज्ञान से मुक्त होता है। (परमात्मा) को नित्य तथा व्यक्त पुरुष को अनित्य कहा गया है। अठारहवीं कारिका में पुरुषबहुत्व के लिए दिए गए हेतु जीवात्मा के लिए ही है। जिस के विपर्यास से साक्षी अर्कता आदि लक्षण वाला पुरुष सिद्ध होता है। चरकसंहिता के उपर्युक्त उल्लेख तथा कारिका के दर्शन के उक्त स्थलों पर अभी पर्याप्त सूक्ष्म स्पष्टीकरण अपेक्षित है। शारीरस्थानम् मं कितने पुरुष है? प्रश्न के उत्तर में पुरुष के भेद बताये गये हैं। इस प्रसंग में ये एक ही पुरुषतत्त्व या चेतनतत्त्व के भिन्न-भिन्न रूप हैं- ऐसा संकेत न होने से अनादि पुरुष जो कि नित्य अकारण (अहेतुक) है तथा आदि पुरुष (राशिपुरुष) जो अनित्य है ऐसे दो भेद तो ग्रहण किए जा सकते हैं। इस प्रसंग में जो पुरुषसंबंधी बातें कही गई हैं। उन्हें राशिपुरुषसंबंधी ही समझना चाहिए क्योंकि चिकित्सकीय शास्त्र का संबंध उस पुरुष से ही है। प्रकृति और विकारों के संबंध में पूदे गए प्रश्नों के उत्तर में कहा है- खादीनि बुद्धिरव्यक्तमहंकारस्तथाऽष्टम:। भूतप्रकृतिरुद्दिष्टा चिकाराश्चैव षोडश॥ बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चार्था विकारा इति संज्ञिता:॥ शा.स्था. 1/63, 64 जायते बुद्धिरव्यक्तताद् बुद्धयाहमिति मन्यते। परम् खादीन्यहंकारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम्॥ 66॥ यहां यह बात ध्यान में रखना होगा 'उद्दिष्टा', 'संज्ञिता', 'मन्यते', आदि पद यह सूचित करते हैं कि अत्रोक्त मत पूर्व में ही स्थापित और प्रचलित थे। 'यथाक्रम' भी सूचित करता है कि इससे पूर्व में ही एक क्रम तत्त्वोत्पत्ति का स्थापित हो चुका था और यहां उसका अनुकरण ही किया गया है। स्पष्ट है पूर्व में ही स्थापित यह मत सांख्य दर्शन का है। चरकसंहिता के शारीरस्थानम् के पांचवे अध्याय में मोक्ष संबंधी विचार इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है- मोहेच्छाद्वेषकर्ममूला प्रवृत्ति:........ एवमहंकारादिभिदोर्षै: भ्राम्यमाणो नातिवर्तते प्रवृत्तिं: सा च मूलमघस्य॥10

निवृत्तिरपवर्ग: तत्परं प्रशान्तं तदक्षरं तद्ब्रह्म स मोक्ष: ॥11॥ सर्वभाव स्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह: योगं यथा साधयते सांख्यं संपद्यते यथा॥16॥

पश्यत: सर्वभावान् हि सर्वावस्थासु सर्वदा। ब्रह्मभूतस्य संयोगो न शुद्धस्योपपद्यते॥21॥

नात्मन: करणाभावाल्लिगमप्युपलभ्यते। स सर्वकारणत्यागान्मुक्त इत्यभिधीयते॥22॥

  1. इसके अन्तर्गत सांख्यदर्शन का परिचय आचार्य उदयवीर शास्त्रीकृत सां.द.इ. तथा अणिम सेनगुप्ताकृत ESST के आधार पर तैयार किया गया है।
  2. इ.सां. स्कूल पृष्ठ 103 तथा ओ.डे.सि. पृष्ठ 119 भी द्रष्टव्य
  3. इ.सां. स्कूल पृष्ठ - 103
  4. शां. प. 107/11, 12
  5. इ.सां. स्कूल पृष्ठ- 103
  6. सां. द. इ. पृष्ठ 212-13
  7. इ.सां. स्कूल पृष्ठ 104
  8. वही 8/4
  9. वही 15/16,18
  10. वही 12/21
  11. वही 14/5
  12. वही 14/19
  13. सां.द.इ.पृष्ठ 449-84
  14. श्वेताश्वतर उप 4/5
  15. वही 4/10
  16. वही 4/9
  17. कठोपनिषद् 2/3/6,8
  18. सां.सि. पृष्ठ 50
  19. श्रीमद्भागवत तृतीय स्कन्ध 26वां अध्याय द्रष्टव्य
  20. वही श्लोक 32-46
  21. भागवत 3/27/1,2)
  22. वायुपुराण 1/4/28 भी
  23. ब्रह्मवैवर्तपुराण 2/1/19 भी
  24. चरकसंहिता, शारीरस्थानम् 1/3, 4
  25. वही 16, 17
  26. वही 37, 38
  27. वही, क्रियोपभोगे भूतानां नित्यं पूरुषसंज्ञक: