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==महाभारत (शांतिपर्व)==
 
[[महाभारत]] के शांति पर्व में [[सांख्य दर्शन]] के विभिन्न रूपों का विस्तृत व स्पष्ट परिचय मिलता है। तत्व गणना का रूप यहां सांख्य शास्त्र के प्रचलित रूप में अनुकूल ही है। इसके अतिरिक्त सांख्य-परम्परा के अनेक प्राचीन आचार्यों तथा उनके उपदेशों का संकलन भी शांति पर्व में उपलब्ध है। जिस स्पष्टता के साथ सांख्य-महिमागान यहां किया गया है, उससे महाभारतकार के सांख्य के प्रति रुझान का संकेत मिलता है। [[पुराण|पुराणों]] की ही तरह महाभारत में भी दर्शन के रूप में सांख्य को ही प्रस्तुत किया गया है। अत: यदि महाभारत के शांतिपर्व को हम सांख्य दर्शन का ही एक प्राचीन ग्रन्थ कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। महाभारत के शांति पर्व के अन्तर्गत सांख्य दर्शन के कुछ प्रसंगों पर विचार करने के उपरान्त हम उसमें प्रस्तुत सांख्य-दर्शन की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे।
 
*अध्याय 300 शांति पर्व में [[युधिष्ठिर]] द्वारा सांख्य और योग में अन्तर पूछने पर [[भीष्म]] उत्तर देते हैं।
 
<poem>
 
अनीश्वर: कथं मुच्येदित्येवं शत्रुकर्षन।
 
वदन्ति कारणै: श्रैष्ठ्यं योगा: सम्यक् मनीषिण:॥3॥
 
  
वदन्ति कारणं चेदं सांख्या: सम्यग्विजातय:।
 
विज्ञायेह गती: सर्वा विरक्तो विषयेषु य: ॥4॥
 
 
ऊर्ध्वं स देहात् सुव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा।
 
एतदाहुर्महाप्राज्ञा: सांख्ये वै मोक्षदर्शनम् ॥5॥
 
</poem>
 
*इसके उपरान्त कहते हैं- 'शौच, तप, दया, व्रतों के पालन आदि में दोनों समान हैं केवल दर्शन (दृष्टि या पद्धति) में अन्तर है।' इस पर युधिष्ठिर पुन: प्रश्न करते हैं कि जब व्रत, पवित्रता आदि में दोनों दर्शन समान हैं और परिणाम भी एक ही है तब दर्शन में समानता क्यों नही हैं? इसके उत्तर में भीष्म योग का विस्तृत परिचय देने के उपरान्त सांख्य विषयक जानकारी देते हैं। उक्त जानकारी के कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं-
 
<poem>
 
प्रकृतिं चाप्यतिक्रम्य गच्छत्यात्मानमव्ययम्।
 
परं नारायणात्मानं निर्द्वन्द्वं प्रकृते: परम्॥<balloon title="301/96" style=color:blue>*</balloon> अर्थात जब जीवात्मा प्रकृति (और उसके विकारों) का अतिक्रमण कर लेता है तब वह द्वन्द्वरहित, प्रकृति से परे नारायण स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
 
विमुक्त: पुण्यपापेभ्य: प्रविष्टस्तमनामयम्।
 
परमात्मानमगुणं न निवर्तति भारत ॥97
 
 
शिष्ट: तत्र मनस्तात इन्द्रियाणि च भारत
 
आगच्छन्ति यथाकालं गुरो: सन्देशकारिण:॥98 भावार्थ यह है कि पुण्यपाप से विमुक्त (साधक) अनामय अगुण परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है, वह फिर से इस संसार में नहीं लौटता। इस प्रकार जीवात्मा प्रारब्धवश गुरु के आदेश पालन कारने वाले शिष्य की भांति यथा समय गमनागमन करते हैं।
 
अक्षरं ध्रुवमेवोक्तं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।101
 
अनादिमध्यनिधनं निर्द्वन्द्वं कर्तृ शाश्वतम्।
 
 
कूटस्थं चैव नित्यं च यद् वदन्ति मनीषिण: ॥102॥
 
 
यत: सर्वा: प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रिया:। 103
 
</poem>
 
इसके बाद इस स्थल पर सांख्य शास्त्र की प्रशंसा, महिमा का वर्णन है। इस प्रसंग पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सांख्य शास्त्र में जीवात्मा, परमात्मा तथा प्रकृति-तीन तत्त्वों को मान्यता प्राप्त है। अत: आरम्भ में जो अनीश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है वह सांख्य की अनीश्वरवादिता का द्योतक न होकर मोक्ष में उसकी उपयोगिता की अस्वीकृति मात्र है। सांख्य दर्शन में विवेक-ज्ञान ही मोक्ष में प्रमुख है।
 
*अध्याय 302 से 308 तक कराल-[[जनक]] और [[वसिष्ठ]]-संवाद के रूप में सांख्य और योगदर्शन के विस्तृत परिचय का प्रसंग है। इस संवाद को प्राचीन इतिहास के रूप में प्रस्तुत करते हुए पहले क्षर और अक्षर तत्त्व का भेद, वर्गीकरण, लक्षण आदि का उल्लेख करके योग का परिचय देने के उपरान्त सांख्य शास्त्र का वर्णन। अध्याय 306 में वसिष्ठ- संवाद इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-
 
<poem>
 
सांख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्यानदर्शनम्॥26॥
 
 
अव्यक्तमाहु: प्रकृतिं परा प्रकृतिवादिन:।
 
तस्मान्महत् समुत्पन्नं द्वितीयं राजसत्तम॥27॥
 
 
अहंकारस्तु महतस्तृतीयमिति न: श्रुत:।
 
पञ्चभूतान्यहंकारादाहु: सांख्यात्मदर्शिन:॥28॥
 
 
एता: प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश।
 
पञ्च चैव विशेषा वै तथा पञ्चेन्द्रियाणि च ॥29॥
 
 
तत्त्वानि चतुर्विंशत् परिसंख्याय तत्त्वत:।
 
सांख्या: सह प्रकृत्या तु निस्तत्त्व: पञ्चविंशक:॥43॥
 
</poem>
 
यहां सांख्यशास्त्रीय परम्परा के अनुसार तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। इस वर्णन में 'सांख्यकारिका' से अति प्राचीन 'तत्त्वसमाससूत्र' की झलक मिलती है। अष्टौ प्रकृतय:<balloon title="(सूत्र-1)" style=color:blue>*</balloon>  को यहां 'प्रकृतय: च अष्टौ' के रूप में तथा षोडश विकारा:<balloon title="(सूत्र-2)" style=color:blue>*</balloon>  को विकाराश्च षोडश के रूप में प्रस्तुत किया गया। लगभग इसी तरह सांख्य तत्त्वों का वर्णन 310वें अध्याय में भी आता है।
 
*अध्याय 318 में विश्वावसु प्रश्न करता है कि पच्चीसवें तत्त्व रूप जीवात्मा परमात्मा से अभिन्न है अथवा भिन्न है। इसके उत्तर में [[याज्ञवल्क्य]] कहते हैं-
 
<poem>अबुध्यमानां प्रकृतिं बुध्यते पंचविशक:।
 
न तु बुध्यति गंधर्व प्रकृति: पञ्चविंशकम्॥70॥
 
 
पश्यंस्तथैव चापश्चन् पश्यत्यन्य: सदानघ।
 
षडविंशं पञ्चविंशं च चतुर्विशं च पश्यति॥72॥
 
 
न तु पश्यति पश्यंस्तु यश्चैनमनुपश्यति।
 
पञ्चविंशोऽभिमन्येत नान्योऽस्ति परतो मम॥73॥
 
 
यदा तु मन्यतेऽन्योऽहमन्य एष इति द्विज:।
 
तदा स केवलीभूत: षडविंशमनुपश्यति ॥77॥
 
 
अन्यश्च राजन्नयवरस्तथान्य: पञ्चविंशक:।
 
तत्स्थानाच्चानुपश्यन्ति एक एवेति साधव:॥78॥</poem>
 
संक्षिप्तार्थ इस प्रकार है- अचेतन प्रकृति को पच्चीसवां तत्त्वरूप पुरुष तो जानता है किन्तु प्रकृति उसे नहीं जानती। छब्बीसवां तत्त्व चौबीसवें तत्व (प्रकृति) पच्चीसवें तत्त्व (जीवात्मा) को जानता है। जब (जीवात्मा) यह समझ लेता है कि मैं अन्य हूं और यह (प्रकृति) अन्य है तब केवल (प्रकृतिसंसर्गरहित) हो, छब्बीसवें तत्त्व को देखता है। शांतिपर्व में दर्शन और अध्यात्म के विभिन्न उल्लेखों में सांख्य दर्शन न्यूनाधिक उपर्युक्त प्रसंगों के ही अनुरूप है। उपर्युक्त वर्णन के आधार पर सांख्य दर्शन की जो रूपरेखा बन सकती है, वह इस प्रकार है-
 
*सांख्य दार्शनिक चौबीस, पच्चीस, छब्बीस तत्वों को मानते हैं। तदनुसार प्रकृति, जिसे अव्यक्त भी कहा जाता है एक तत्त्व है। प्रकृति से महत, अहंकार, पञ्चभूत (तन्मात्र) मन, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ पांच स्थूल भूत-इस तरह चौबीस तत्त्व हैं।
 
*प्रचलित सांख्य, परम्परा में 'पुरुष' भी तत्त्व रूप में बिना जाता है जिसे यहां निस्तत्त्व मानकर पञ्चविंशक रूप में स्वीकार किया गया। इस तरह चौबीस अथवा पच्चीस के गणना भेद में परम्परा या कोई दोष नहीं हैं और कोई प्रचलित गणना से विरोध भी नहीं हैं। छब्बीसवें तत्त्व कहने में चौबीस तथा पच्चीस की गणना से सामंजस्य स्पष्ट हो जाता है। महाभारतकार को यह पूरी गणना सांख्य दर्शन के रूप में स्वीकार करने में संकोच नहीं था।<balloon title="शांति पर्व 308-7" style=color:blue>*</balloon> इसका अर्थ यह है कि उसके अनुसार सांख्य दर्शन में परमात्मा की सत्ता मान्य है।<balloon title="शांति पर्व के सांख्य के सेश्वर स्वरूप पर अणिमा सेनगुप्ता के निष्कर्ष के लिए द्रष्टव्य पृष्ठ- 64 –इ.सां. था।" style=color:blue>*</balloon>
 
<poem>
 
अव्यक्तात्मा पुरुषो व्यक्तकर्मा
 
सोऽव्यक्ततत्त्वं गच्छति अन्तकाले।<balloon title="शांति पर्व 208/28 " style=color:blue>*</balloon> पुरुष का वास्तविक स्वरूप अव्यक्त है और कर्म व्यक्त रूप है। अत: अन्तकाल में वह अव्यक्त भाव को प्राप्त हो जाता है।
 
 
अव्यक्ताद् व्यक्तमुत्पन्नं व्यक्ताद्वस्तु परोऽक्षर:।
 
यस्मात्परतरं नास्ति तमस्मि शरणं गत:॥<balloon title="(शांति पर्व 209-65)" style=color:blue>*</balloon> जिस अव्यक्त से व्यक्त उत्पन्न होता है जो व्यक्त से परे व अक्षर है, जिससे परे अन्य कुछ भी नहीं है मैं उसकी शरण में जाता हूँ।
 
 
गुणादिनिर्गुणस्चाद्यो लक्ष्मीवांश्चेतनो व्ह्यज:।
 
सूक्ष्म: सर्वगतो योगी स महात्मा प्रसीदतु॥71॥
 
 
सांख्ययोगश्च ये चान्ये सिद्धाश्च परमार्षय:।
 
यं विदित्वा विभुच्यन्ते स महात्मा प्रसीदतु॥72॥
 
 
अव्यक्त: समधिष्ठाता ह्यचिन्त्य: सदसत्पर:।
 
आस्थिति: प्रकृतिश्रेष्ठ: स महात्मा प्रसीदतु॥73॥
 
 
अशरीर: शरीरस्थं समं सर्वेषु देहिषु॥
 
 
पश्यन्ति योगा: सांख्याश्च स्वशास्त्रकृतलक्षणा:।
 
इष्टानिष्टविमुक्तं हि तस्थौ ब्रहृमपरात्परम्॥<balloon title="318/101" style=color:blue>*</balloon></poem>
 
*उपर्युक्त उद्धरणों में ब्रह्म, अव्यक्त, प्रकृतिश्रेष्ठ, निर्गुण, चेतन अज, अधिष्ठाता, सदसत्पर: (कार्यकारण प्रकट अप्रकट से परे) आदि समस्त पद परमात्मा की ही ओर लक्षित हैं। फिर परमात्मा अशरीरी है लेकिन 'देहधारियों' में स्थित है। इस परमात्मा को ही अव्यक्त प्रकृति विकारादि में व्याप्त भी कहा गया है।
 
*अव्यक्त शब्द को यद्यपि सांख्य दर्शन में प्रायश: प्रकृति के लिए प्रयुक्त माना गया है, लेकिन महाभारत में प्रयुक्त शब्द के प्रयोग के आधार पर श्री सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त इसे पुरुष के लिए भी प्रयुक्त मानते हैं।<balloon title="भारतीय दर्शन का इतिहास भाग-2 गीता दर्शन प्रकरण में द्रष्टव्य" style=color:blue>*</balloon> 
 
*सांख्य शास्त्रीय प्रकृति और उसकी त्रिगुणात्मकता का उल्लेख भी महाभारत में अनेकत्र हुआ है। एते प्रधानस्य गुणास्त्रय<balloon title="शांति पर्व 314/1" style=color:blue>*</balloon>,त्रिगुणाधर्मया<balloon title="शांति पर्व 217/9" style=color:blue>*</balloon>, तमोरजस्तथा सत्वंगुणान्<balloon title="आश्वमेधिक पर्व 36/4" style=color:blue>*</balloon>,आदि प्रयोगों से तथा सत्त्व रजस व तमस शब्दों के सांख्यीय अर्थ के अनेकश: प्रयोगों से तथा सृष्टिक्रम सम्बन्धी अधिकांश वर्णनों में सांख्यदर्शन का ही उल्लेख व प्रभाव परिलक्षित होता है। अध्याय 210 का यह सृष्टिवर्णन द्रष्टव्य है-
 
<poem>
 
पुरुषाधिष्ठितान् भावान् प्रकृति: सूयते सदा।
 
हेतुयुक्तमत: पूर्वं जगत् सम्परिवर्तते॥25॥
 
</poem>
 
यहां प्रकृति की पुरुषाधिष्ठितता और जगत् (व्यक्त) की हेतुमत्ता में सांख्य सूत्र 'तन्सन्निधानादधिष्ठातृत्वं<balloon title="(1/96)" style=color:blue>*</balloon>' माठर तथा गौडपाद द्वारा उद्धृत षष्ठितंत्र के सूत्र 'पुरुषाधिष्ठितं प्रधानं प्रवतर्तते' तथा 'हेतुमदनित्यं<balloon title="(सूत्र 1/124)" style=color:blue>*</balloon>'  स्पष्ट प्रतिध्वनित होते हैं- मूलप्रकृतियों ह्यष्टौ<balloon title="(शांति पर्व-210/28)" style=color:blue>*</balloon>  तत्त्वसमाससूत्र का संकेत देता है। इसी क्रम में आगे षोडशविकारों का वर्णन सांख्यनुसार है। इसी संवादक्रम में 211वें अध्याय में 4 था श्लोक सांख्य सूत्र 1/164 की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत है।
 
*शांति पर्व श्लोक-
 
<poem>
 
तद्वदव्यक्तजा भावा: कर्तृकारणलक्षणा:।
 
अचेतनाश्चेतयितु: कारणादभिसंहिता:॥
 
</poem>
 
*सांख्य सूत्र हैं- 'उपरागात्कर्तृत्वं चित्सान्निध्याच्चिध्यात्'। महाभारत में सत्त्व, रजस व तमस की सुख-दु:ख मोहात्मकता अथवा प्रीत्यप्रीति विषादात्मकता का भी विस्तृत वर्णन होता है<balloon title="शांति पर्व अध्याय 174, 212" style=color:blue>*</balloon>। तथापि यहां गुणों का उल्लेखविस्तार तत्त्वमीमांसीय दृष्टि के साथ मनोवैज्ञानिक भाव अथवा गुणों के रूप में अधिक पाया जाता है।
 
*मोक्षप्राप्ति में हेतु महाभारत में प्राय: सांख्यानुरूप ही है। सांख्य परम्परा में व्यक्त, अव्यक्त और 'ज्ञ' के विवेक से मुक्ति की बात कहीं गई है, शांति पर्व अध्याय में कहा गया है-
 
<balloon title=विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम्।
 
यो यथावद्विजानाति स वितृष्णो विमुच्यते॥<balloon title="217/37" style=color:blue>*</balloon> ज्ञानवान पुरुष जब यह जान लेता है कि 'मैं' अन्य हूं यह प्रकृति अन्य है- तब वह प्रकृतिरहित शुद्ध स्वरूपस्थ हो जाता है<balloon title="(307/20)" style=color:blue>*</balloon>
 
*इस प्रकार महाभारत में प्रस्तुत दर्शन पूर्णत: सांख्य दर्शन ही है। जो प्रमुख अन्तर दोनों में प्रतीत होता है वह है परमात्मा ब्रह्म या पुरुषोत्तम की स्वीकृति।
 
==भगवद्गीता में सांख्य दर्शन==
 
[[गीता|भगवद्गीता]] में विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों ने अपने अनुकूल दर्शन का अन्वेषण किया और तदनुरूप उसकी व्याख्या की। लेकिन जिन सिद्वान्तों पर सांख्य परम्परा के रूप में एकाधिकार माना जाता है। उनका गीता में होना-ऐसा तथ्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो विद्वान [[सांख्य दर्शन]] को निरीश्वरवादी या अवैदिक मानकर विचार करते हैं वे अवश्य ही गीता में सांख्य दर्शन के दर्शन नहीं कर पाते हैं। इस पर भी प्राचीन सांख्य जिसका [[महाभारत]] में चित्रण है, अवश्य ही गीता में स्वीकार किया जाता है। भगवद्गीता में कहा गया है-
 
<poem>
 
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावति।
 
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥13/19
 
 
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
 
पुरुष: सुखदु:खानां भौक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥20॥ प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, समस्त विकास और गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं। कार्यकारणकर्तृव्य (परिणाम) का हेतु प्रकृति तथा सुख-दु:ख भोक्तृत्व का हेतु पुरुष है।
 
 
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
 
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥
 
</poem>
 
*मेरी (परमात्मा की) अध्यक्षता (अधिष्ठातृत्व) में ही प्रकृति चराचर जगत की सृष्टि करती है। इस प्रकार भगवद्गीता तीन तत्त्वों को मानती है-
 
#प्रकृति,
 
#पुरुष एवं
 
#परमात्मा। वैदिक साहित्य में 'पुरुष' पर चेतन तत्व के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्त्व निरूपित होते हैं। गीता में सृष्टि का मूलकारण प्रकृति को ही माना गया है। परमात्मा उसका अधिष्ठान है- इस अधिष्ठातृत्व को निमित्त कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृति के रूप में जीव-प्रकृति को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। परमात्मा स्वयं इस जगत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति और प्रलय का नियंत्रण करता है।<balloon title="गीता 7/5,6" style=color:blue>*</balloon>
 
*गीता में श्री[[कृष्ण]] कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं<balloon title="गीता 7/12-14" style=color:blue>*</balloon>।' परमात्मा की माया कहने में जहां माया या प्रकृति से सम्बन्ध की सूचना मिलती है वहीं संबंध के लिए अनिवार्य भिन्नता का भी संकेत मिलता है। परमात्मा प्रकृति में अन्तर्व्याप्त और बहिर्व्याप्त है। इसीलिए परमात्मा के व्यक्त होने या अव्यक्त रहने का कोई अर्थ नहीं होता। व्यक्त अव्यक्त सापेक्षार्थक शब्द है। परमात्मा के व्यक्त होने की कल्पना को गीताकार अबुद्धिपूर्व कथन मानते हैं<balloon title="अव्यक्तं व्यक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:" style=color:blue>*</balloon>। अत: जब परमात्मा की माया से सृष्टयुत्पत्ति कही जाती है तब उसका आशय यह नहीं होता कि परमात्मा अपनी चमत्कारी शक्ति से व्यक्त होता है, बल्कि यह कि उसकी अव्यक्त नाम्नी माया या त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही व्यक्त होती है। इससे भी उपादान कारणभूत प्रकृति की पृथक सत्ता की स्वीकृति झलकती है। परमात्मा स्वयं जगदरूप में नहीं आता बल्कि जगत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है<balloon title="समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् 13/31" style=color:blue>*</balloon>। समस्त कार्य (क्रिया) प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं। परमात्मा अनादि, निर्गुण, अव्यय होने से शरीर में रहते हुए भी अकर्ता-अलिप्त रहता है<balloon title="गीता 13/31" style=color:blue>*</balloon>। (यह) शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ है<balloon title="गीता 13/1,2" style=color:blue>*</balloon>। इससे भी जीव तथा देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्पष्ट होता है।
 
*सांख्य शास्त्र में मान्य त्रिगुणात्मक प्रकृति गीता को भी मान्य है। सृष्टि का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से रहित हो<balloon title="गीता 18/40" style=color:blue>*</balloon>। शांति पर्व में प्रस्तुत सांख्य तथा तत्त्वसमासोक्त अष्टप्रकृति को भी गीता स्वीकार करती है। यहाँ पांच सूक्ष्म भूत (तन्मात्र), बुद्धि, अहंकार तथा मन इन आठ को अष्टप्रकृति के रूप में कहा गया है<balloon title="गीता 7/4" style=color:blue>*</balloon>। सांख्यशास्त्र में मान्य अष्टप्रकृति के अन्तर्गत मन का उल्लेख नहीं है। गीता में मन को सम्मिलित कर, मूलप्रकृति का लोप कर दिया गया। मन स्वयं कुछ उत्पन्न नहीं करता। अत: उसे प्रकृति कहना संगत प्रतीत नहीं होता। अत: तो यहां मन का अर्थ प्रकृति लिया जाय अथवा सांख्य में जो अनेक रूप प्रचलित थे उनमें से एक भेद यहां स्वीकार कर लिया जाये।
 
*प्रकृतिरूप क्षेत्र के विकार, उनके गुणधर्म आदि की चर्चा करते हुए कहा गया है- महाभूत, अहंकार, बुद्धि, एकादश इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय विषय इनका कारणभूत- सब क्षेत्र के स्वरूप में निहित है। इसे अव्यक्त कहा गया है।
 
*क्षर तथा अक्षर तत्त्व का निरूपण करते हुए कहा गया है क्षररूप प्रकृति अधिभूत है तथा पुरुष अधिदैवत है और समस्त देह में परमात्मा अधियज्ञ है<balloon title="गीता 8/4" style=color:blue>*</balloon>। सृष्टि रूपी यज्ञ में देवता रूपी पुरुष (जीवात्मा) के लिए भोग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के लिए है और इसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। इसीलिए परमात्मा की भी पृथक सत्ता की मान्यता प्रस्तुत की गई है। एक स्थल पर कहा गया है कि इस संसार में क्षर तथा अक्षर या नाशवान परिवर्तनशील तथा जीवात्मा अक्षर है उत्तम पुरुष अन्य है जिसे परमात्मा कहते हैं। वह तीनों लोकों में प्रवेश कर सबका पालन करता है, वह अविनाशी ईश्वर है। वह क्षर और अक्षर से उत्तम है उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है<balloon title="गीता 15/16,18" style=color:blue>*</balloon>। इस तरह पुन: जीवात्मा-परमात्मा में भेद दर्शाया गया।
 
*कार्यकारण-श्रृंखला में व्यक्त समस्त जगत का मूल हेतु प्रकृति है और जीवात्मा सुख दु:खादि के भोग में हेतु है। परमात्मा इस सबसे परे इनका भर्ता भोक्ता है। इस तरह जो जान लेता है वह मुक्त हो जाता है। प्रकृतिस्थ हुआ पुरुष गुण संग होकर प्रकृति के गुणों का भोग करता हुआ शुभाशुभ योनियों में जन्म लेता रहता है<balloon title="गीता 12/21" style=color:blue>*</balloon>। सत्त्व रजस प्रकृति से व्यक्त गुण ही अव्यय पुरुष को देह में बांधते हैं<balloon title="गीता 14/5" style=color:blue>*</balloon>। इन गुणों के अतिरिक्त कर्ता अन्य कुछ भी नहीं है- ऐसा जब साधक जान लेता है तो गुणों से परे मुझे जान कर परमात्मा को प्राप्त होता है<balloon title="गीता 14/19" style=color:blue>*</balloon>। इस तरह गीता व्यक्ताव्यक्तज्ञ ज्ञान से मुक्ति का निरूपण करती है।
 
*गीता दर्शन का सांख्य रूप विवेचन उदयवीर शास्त्री ने अत्यन्त विस्तार से किया है<balloon title="सां.द.इ.पृष्ठ 449-84" style=color:blue>*</balloon>। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि महाभारत के अंगभूत होने से शांतिपर्वान्तर्गत सांख्य दर्शन का ही गीता भी अवलम्बन करती हें। हां, प्रचलित विद्वान मान्यतानुसार निरीश्वर सांख्य गीता को इष्ट नहीं है।
 

०८:५५, ९ फ़रवरी २०१० का अवतरण