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==उपनयन / Upnayan==
 
==उपनयन का अर्थ==
 
'उपनयन' का अर्थ है "पास या सन्निकट ले जाना।" किन्तु किसके पास ले जाना? सम्भवत: आरम्भ में इसका तात्पर्य था "आचार्य के पास (शिक्षण के लिए) ले जाना।" हो सकता है; इसका तात्पर्य रहा हो नवशिष्य को विद्यार्थीपन की अवस्था तक पहुँचा देना। कुछ गृह्यसूत्रों से ऐसा आभास मिल जाता है, यथा हिरण्यकेशि॰<balloon title="हिरण्यकेशि॰, 1.5.2" style=color:blue>*</balloon> के अनुसार; तब गुरू बच्चे से यह कहलवाता है "मैं ब्रह्मसूत्रों को प्राप्त हो गया हूँ। मुझे इसके पास ले चलिए। सविता देवता द्वारा प्रेरित मुझे ब्रह्मचारी होने दीजिए।"<ref>अथैनमभिव्याहारयति। ब्रह्मचर्यमागामुप मा नयस्व ब्रह्मचारी भवानि देवेन सवित्रा प्रसूत:। हिरण्यकेशि0 (1.5.2); ब्रह्मचर्यमागामिति वाचयति ब्रह्मचार्यसानीति च। पार0 2.2; औ देखिए गोभिल0 (2.10.21)। "ब्रह्मचर्यमागाम्" एवं "ब्रह्मचार्यसानि" शतपथ0 (11.5.4.1) में भी आये हैं; और देखिए आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ (2.3.26) "ब्रह्मचर्य... प्रसूत:।" याज्ञवल्क्य (1.14) की व्याख्या में विश्वरूप ने लिखा है- "वेदाध्ययनायाचार्य समीपे नयनमुपनयनं तदेवोपनायनमित्युक्तं छन्दोनुरोधात्। तदर्थ वा कर्म।" हिरण्यकेशि0 (1.1.1) पर मातृदत्त को भी देखिए।</ref> मानवग्रह्यसूत्र एवं काठक॰ ने 'उपनयन' के स्थान पर 'उपायन' शब्द का प्रयोग किया है। काठक के टीकाकार आदित्यदर्शन ने कहा है कि उपानय, उपनयन, मौञ्चीबन्धन, बटुकरण, व्रतबन्ध समानार्थक हैं।
 
====उद्गम एवं विकास====
 
इस संस्कार के उद्गम एवं विकास के विषय में कुछ चर्चा हो जाना आवश्यक है, क्योंकि यह संस्कार सब संस्कारों में अति महत्वपूर्ण माना गया है। उपनयन संस्कार का मूल भारतीय एवं ईरानी है, क्योंकि प्राचीन जोराँस्ट्रिएन (पारसी) शास्त्रों के अनुसार पवित्र मेखला अधोवसन (लुंगी) का सम्बन्ध आधुनिक पारसियों से भी है। किन्तु इस विषय में हम प्रवेश नहीं करेंगे। हम अपने को भारतीय साहित्य तक ही सीमित रखेंगे। [[वेद|ऋग्वेद]]<balloon title="ऋग्वेद, 10.109.5" style=color:blue>*</balloon> में 'ब्रह्मचारी' शब्द आया है।<ref> ब्रह्मचारी चरति वेविषद् विष: स देवानां भवत्येकमंगम्। तेन जायामन्वविन्दद् बृहस्पति: सोमेन नीतां जुह्व न देवा:॥ ऋग्वेद 10.109.5; अथर्ववेद 5.17.5। सोम की ओर संकेत से ऋग्वेद (10.85.45) का 'सोमो ददद् गन्धर्वाय' स्मरण हो आता है। किसी मानवीय वर से परिणय होने के पूर्व प्रत्येक कुमारी सोम, गन्धर्व एवं अग्नि के रक्षण के भीतर कल्पित मानी गयी है।</ref> 'उपनयन' शब्द दो प्रकार से समझाया जा सकता है<ref> तत्रोपनयनशब्द: कर्मनामधेयम्।.... तच्च यौगिकमुद् भिद्न्यायात्। योगश्च भावव्युत्पत्या करणव्युत्पत्त्या वेत्याह भारूचि:। स यथा- उपसमीपे आचार्यादीनां बटोर्नयनं प्रापणमुपनयनम्। समीपे आचार्यादीनां नीयते बटुर्येन तदुपनयनमिति वा।... तत्र च भावयुत्पत्तिरेव साधीयसीति गम्यते। श्रौतार्थविधिसंभवात्। संस्कारप्रकाश, पृ0 334।</ref>--<br />
 
1. बच्चे को आचार्य के सन्निकट ले जाना,<br />
 
2. वह संस्कार या कृत्य जिसके द्वारा बालक आचार्य के पास ले जाया जाता है। <br />
 
पहला अर्थ आरम्भिक है, किन्तु कालान्तर में जब विस्तारपूर्वक यह कृत्य किया जाने लगा तो दूसरा अर्थ भी प्रयुक्त हो गया। आपस्तम्बधर्मसूत्र<balloon title="आपस्तम्बधर्मसूत्र, 1.1.1.19" style=color:blue>*</balloon> ने दूसरा अर्थ लिया है। उसके अनुसार उपनयन एक संस्कार है जो उसके लिए किया जाता है, जो विद्या सीखना चाहता है; "यह ऐसा संस्कार है जो विद्या सीखने वाले को गायत्री मन्त्र सिखाकर किया जाता है।" स्पष्ट है, उपनयन प्रमुखतया गायत्री-उपदेश (पवित्र गायत्री मन्त्र का उपदेश) है। इस विषय में [[जैमिनीय उपनिषद]]<balloon title="जैमिनीयोपनिषद , 6.1.35" style=color:blue>*</balloon> भी द्रष्टव्य है।<ref>संस्कारस्य तदर्थत्वाद् विद्यायाँ पुरूषश्रुति:। जैमिनि 6.1.35; 'विद्यायामेबैषा श्रुति: (वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत)। उपनयनस्य संस्कारस्य तदर्थत्वात्। विद्यार्थमुपाध्यायस्य समीपमानीयते नादृष्टार्थ नापि कंट कुडयं वा कतुम्। दृष्टार्थमेव सैषा विद्यायां पुरूषश्रुति:। कथमवगभ्यते। आचार्यकरणमेतदवगभ्यते। कुत:। आत्मनेपददर्शनात्।' शबर। </ref>
 
====उपनयन संस्कार के लक्षण====
 
ऋग्वेद<balloon title="ऋग्वेद, 3.8.4" style=color:blue>*</balloon> से पता चलता है कि गृह्यसूत्रों में वर्णित उपनयन संस्कार के कुछ लक्षण उस समय भी विदित थे।<ref>युवा सुवासा: परिवीत आगात् स उ श्रेयान्भबति जायमान:। तं धीरास: कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो मनसा देवयन्त:॥ ऋग्वेद, 3।8।4; आश्वलायनगृह्यसूत्र (1.19.8) के अनुसार बच्चे को अलंकृत किया जाता है और नये वस्त्र दिये जाते हैं 'अलंकृतं कुमारं... अहतेन वाससा संवीतं' ... आदि; एवं देखिए 1.20.8--'युवा सुवासा: परिवीत आगादित्यर्श्रर्बेनैनं प्रदक्षिणमावर्तयेत्।'</ref> वहाँ एक युवक के समान यूप (बलि-स्तम्भ) की प्रशंसा की गयी है;.."यहाँ युवक आ रहा है, वह भली भाँति सज्जित है (युवक मेखला द्वारा तथा यूप रशन द्वारा); वह, जब उत्पन्न हुआ, महत्ता प्राप्त करता है; हे चतुर ऋषियों, आप अपने हृदयों में देवों के प्रति श्रद्धा रखते हैं और स्वस्थ विचार वाले हैं, इसे ऊपर उठाइए।" यहाँ "उन्नयन्ति" में वही धातु है, जो उपनयन में है। बहुत-से गृह्मसूत्रों ने इस मन्त्र को उद्धृत किया है, यथा- आश्वलायन॰<balloon title="आश्वलायन, 1.20.8" style=color:blue>*</balloon>, पारस्कर॰।<balloon title="पारस्कर॰, 2.2" style=color:blue>*</balloon> तैत्तिरीय संहिता<balloon title="तैत्तिरीय संहिता, 3.10.5" style=color:blue>*</balloon> में तीन ऋणों के वर्णन में 'ब्रह्मचारी' एवं 'ब्रह्मचर्य' शब्द आये हैं- 'ब्राह्मण जब जन्म लेता है तो तीन वर्गों के व्यक्तियों का ऋणी होता है; ब्रह्मचर्य में ऋषियों के प्रति (ऋणी होता है), यज्ञ में देवों के प्रति तथा सन्तति में पितरों के प्रति; जिसको पुत्र होता है, जो यज्ञ करता है और जो ब्रह्मचारी रूप में गुरू के पास रहता है, वह अनृणी हो जाता है।"<ref>ज्ञायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवाँ जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्य: प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो य: पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी। तै0 संहिता 6।3।10।5 ।</ref> उपनयन एवं ब्रह्मचर्य के लक्षणों पर प्रकाश [[वेद|वेदों]] एवं [[ब्राह्मण साहित्य]] में उपलब्ध हो जाता है। [[वेद|अथर्ववेद]]<balloon title="अथर्ववेद, 11.7.1-26" style=color:blue>*</balloon> का एक पूरा सूक्त ब्रह्मचारी (वैदिक छात्र) एवं ब्रह्मचर्य के विषय में अतिशयोक्ति की प्रशंसा से पूर्ण है।<ref>ब्रह्मचारीष्णंश्चरति रोदसी उभे तस्मिन्देवा: संमनसो भवन्ति। स दाधार पृथिवीं दिवं च स आचार्य तपसा पिपर्ति ॥ अथर्ववेद 11.7।.। [[गोपथ ब्राह्मण]] (2.1) में यह श्लोक व्याख्यायित है। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्त:। अथर्ववेद 11.7.3; यही भावना आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.1.1.16-18) में भी पायी जाती है, यथा- स हि विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म। शरीर मेव मातापितरौ जनयत:। [[शतपथ ब्राह्मण]] (11.5.4.12) से मिलाइए- आचार्यों गर्भीभवति हस्तमाश्राम दक्षिणम्। तृतीयस्यां स जायते सावित्र्या सह ब्राह्मण:॥ ब्रह्मचार्येति सभिषा समिद्ध: कार्ष्ण वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रु:। अथर्ववेद 11.7.6।</ref>
 
  
[[तैत्तिरीय ब्राह्मण]]<balloon title="तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.10.11" style=color:blue>*</balloon> में [[भारद्वाज]] के विषय में एक गाथा है, जिसमें कहा गया है कि भरद्वाज अपनी आयु के तीन भागों (75 वर्षों) तक ब्रह्मचारी रहे। उनसे [[इन्द्र]] ने कहा था कि उन्होंने इतने वर्षों तक वेदों के बहुत ही कम अंश (3 पर्वतों की ढेरी में से 3 मुट्ठियाँ) सीखे हैं, क्योंकि वेद तो असीम हैं। मनु के पुत्र नाभानेदिष्ठ की गाथा से पता चलता है कि वे अपने गुरू के यहाँ ब्रह्मचारी रूप से रहते थे, तभी उन्हें पिता की सम्पत्ति का कोई भाग नहीं मिला।<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण 22.9 एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.1.9.15" style=color:blue>*</balloon> गृह्यसूत्रों में वर्णित ब्रह्मचर्य-जीवन के विषय में शतपथ-ब्राह्मण<balloon title="शतपथ-ब्राह्मण, 11.5.4" style=color:blue>*</balloon> में भी बहुत-कुछ प्राप्त होता हैं, जो बहुत ही संक्षेप में यों है- बालक कहता है- 'मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया हूँ' और मुझे ब्रह्मचारी हो जाने दीजिए।' गुरू पूछता है- 'तुम्हारा नाम क्या है?' तब गुरू (आचार्य) उसे पास में ले लेता है,(उप नयति)। तब गुरू बच्चे का हाथ पकड़ लेता है और कहता है- 'तुम इन्द्र के ब्रह्मचारी हो, [[अग्नि]] तुम्हारे गुरू हैं, मैं तुम्हारा गुरू हूँ" (यहाँ पर गुरू उसका नाम लेकर सम्बोधित करता है)। 'तब वह बालक को भूतों को दे देता हैं, अर्थात् भौतिक तत्त्वों में नियोजित कर देता है। गुरू शिक्षा देता है 'जल पिओ, काम करो (गुरू के घर में), अग्नि में समिधा डालो, (दिन में) न सोओ।' वह सावित्री मन्त्र दुहराता है। पहले बच्चे के आने के एक वर्ष उपरान्त सावित्री का पाठ होता था, फिर 6 मासों, 24 दिनों, 12 दिनों, 3 दिनों के उपरान्त। किन्तु ब्राह्मण बच्चे के लिए उपनयन के दिन ही पाठ किया जाता था, पहले प्रत्येक पाद अलग-अलग फिर आधा और तब पूरा मन्त्र दुहराया जाता था। ब्रह्मचारी हो जाने पर मधु खाना वर्जित हो जाता था।<balloon title="शतपथब्राह्मण 11.5.4.1-17" style=color:blue>*</balloon>
 
 
शतपथब्राह्मण<balloon title="शतपथब्राह्मण, 5.1.5.17" style=color:blue>*</balloon> एवं तैत्तिरीयोपनिषद्<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद्, 1.11" style=color:blue>*</balloon> में 'अन्तेवासी'<balloon title="शतपथब्राह्मण 11.5.4.1-17" style=color:blue>*</balloon> शब्द आया है। शतपथब्राह्मण<balloon title="शतपथब्राह्मण, 11.3.3.2" style=color:blue>*</balloon> का कथन है "जो ब्रह्मचर्य ग्रहण् करता है, वह लम्बे समय की यज्ञावधि ग्रहण करता है।" गोपथब्राह्मण<balloon title="गोपथब्राह्मण, 2.3" style=color:blue>*</balloon>, बौधायनधर्मसूत्र<balloon title="बौधायनधर्मसूत्र, 1.2.53" style=color:blue>*</balloon> आदि में भी ब्रह्मचर्य-जीवन की ओर संकेत मिलता है। पारिक्षित जनमेजय हंसों (आहवनीय एवं दक्षिण नामक अग्नियों) से पूछतें हैं- पवित्र क्या है? तो वे दोनों उत्तर देते हैं- ब्रह्मचर्य (पवित्र) है।<balloon title="गोपथ ब्राह्मण 2.5" style=color:blue>*</balloon> गोपथ ब्राह्मण<balloon title="गोपथ ब्राह्मण, 2.5" style=color:blue>*</balloon> के अनुसार सभी वेदों के पूर्ण पाण्डित्य के लिए 48 वर्ष का छात्र-जीवन आवश्यक है। अत: प्रत्येक वेद के लिए 12 वर्ष की अवधि निश्चित सी थी। ब्रह्मचारी की भिक्षा-वृत्ति, उसके सरल जीवन आदि पर गोपथब्राह्मण प्रभूत प्रकाश डालता है।<balloon title="गोपथब्राह्मण 2.7" style=color:blue>*</balloon>
 
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि आरम्भिक काल में उपनयन अपेक्षाकृत पर्याप्त सरल था। भावी विद्यार्थी समिधा काष्ठ के साथ (हाथ में लिये हुए) गुरू के पास आता था और उनसे अपनी अभिकांक्षा प्रकट कर ब्रह्मचारी रूप में उनके साथ ही रहने देने की प्रार्थना करता था। गृह्यसूत्रों में वर्णित किया-संस्कार पहले नहीं प्रचलित थे। कठोपनिषद् (1.1.15), मुण्डकोपनिषद् (2.1.7), छान्दोग्योपनिषद् (6.1.1) एवं अन्य उपनिषदों में ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक सम्भवत: सबसे प्राचीन उपनिषद् हैं। ये दोनों मूल्यवान् वृत्तान्त उपस्थित करती है। उपनिषदों के काल में ही कुछ कृत्य अवश्य प्रचलित थे, जैसा कि छान्दोग्य0 (5.11.7) से ज्ञात होता है।<ref>दीर्धसत्रं वा एष अपैति यो ब्रह्मचर्यमुपैति। शतपथ0 11.3.3.2। बौधायनधर्मसूत्र (1.2.52) में भी यह उद्धृत है। "अपोऽशान" शब्द का भोजन करने के पूर्व एवं अन्त में "अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" एवं "अमृतापिधानमसि स्वाहा" नामक शब्दों के साथ जलाचमन की ओर संकेत है। देखिए संस्कारतत्व पृ0 893। ये दोनों मन्त्र आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ (2.10.3-4) में आये हैं।</ref> जब प्राचीनशाल औपमन्यव एवं अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधा लेकर अश्वपति केकय के पास पहुँचे तो वे (अश्वपति) उनसे बिना उनयन की क्रियाएँ किये ही बातें करने लगे। जब सत्यकाम जाबाल ने अपने गोत्र का सच्चा परिचय दे दिया तो गौतम हारिद्रुमत ने कहा-"हे प्यारे बच्चे, जाओ समिधा ले आओ, मैं तुम्हें दीक्षित करूँगा। तुम सत्य से हटे नहीं" (छान्दोग्य0 4.4.5)।<ref>ते ह समित्पाणय: पूर्वाह्ले प्रतिचकमिरे तान्हानुपनीयैवैतदुवाच। छान्दोग्य0 5.2.7; समिधं सोभ्याहरोप त्वा नेष्ये न सत्यादगा इति। छान्दोग्य0 4.4.5; उपैम्यहं भवन्तमिति वाचा ह स्मैव पूर्व उपयन्ति स होपायनकीर्त्योवास। बृहदारण्यकोपनिषद् 6.2.7।</ref> अति प्राचीन काल में सम्भवत: पिता ही अपने पुत्र को पढ़ाता था।<ref>देखिए बृह0 उ0 6.2.1 "अनुशिष्टो न्वसि पित्रेत्योमिति होवाच।" याज्ञवक्ल (1.15) की टीका में विश्वरूप ने लिखा है- गुरूग्रहणं तु मुख्यं पितुयपनेतृत्वमिति। तथा च श्रुति:। तस्मात्पुत्रमनु शिष्टं लोक्यमाहुरिति। आचार्योपनयनं तु ब्राह्मणस्यानुकल्प:।</ref> किन्तु तैत्तिरीयसंहिता एवं ब्राह्मणों के कालों से पता चलता है कि छात्र साधारणत: गुरू के पास जाते थे और उसके यहाँ रहते थे। उद्दालक आरूणि ने, जो स्वयं ब्रह्मचारी एवं पहुँचे हुए दार्शनिक थे, अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मचारी रूप से वेदाध्ययन के लिए गुरू के पास जाने को प्रेरित किया।<ref>श्वेतकेतुर्हारूणेय आस तं ह पितोवाच श्वेतावाच श्वेतकेतो वस ब्रह्मचर्य... स ह द्वादशवर्ष उपेत्य चतुर्विशतिवर्ष: सर्वान्वेदानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध एयाय तं ह पितोवाच श्वेतकेतो... उत तमादेशमप्राक्ष्य: येनाश्रुतं श्रुतं भवति। छान्दोग्य0 6.1.1.1-2।</ref> छान्दोग्योपनिषद् में ब्रह्मचर्याश्रम का भी वर्णन हुआ है, जहाँ पर विद्यार्थी (ब्रह्मचारी) अपने अन्तिम दिन तक गुरूगेह में रहकर शरीर को सुखाता रहा है (छा0 2.23.1), यहाँ पर नैष्ठिक ब्रह्मचारी की ओर संकेत है। इस उपनिषद् में गोत्र-नाम (4.4.4), भिक्षा-वृत्ति (4.3.5), अग्नि-रक्षा (4.10.1-2), पशु-पालन (4.4.5) का भी वर्णन है। उपनयन करने की अवस्था पर औपनिषदिक प्रकाश नहीं प्राप्त होता, यद्यपि हमें यह ज्ञात है कि श्वेतकेतु ने जब ब्रह्मचर्य धारण किया तो उनकी अवस्था 12 वर्ष की थी। साधारणत: विद्यार्थी-जीवन 12 वर्ष का था (छान्दोग्य0 2.23.1, 4.10.1 तथा 6.1.2), यद्यपि इन्द्र के ब्रह्मचर्य की अवधि 101 वर्ष की थी (छान्दोग्य0 8.2.3)। एक स्थान पर छान्दोग्योपनिषद् (2.23.1) ने जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्य की चर्चा की है।
 
अब हम सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित उपनयनसंस्कार का वर्णन करेंगे। इस विषय में एक बात स्मरणीय है कि इस संस्कार से सम्बन्धित सभी बातें सभी स्मृतियों में नहीं पायी जातीं औ न उनमें विविध विषयों का एक अनुक्रम में वर्णन ही पाया जाता है। इतना ही नहीं, वैदिक मन्त्रों के प्रयोग के विषय में सभी सूत्र एकमत नहीं हैं। अब हम क्रम से उपनयन संस्कार के विविध रूपों पर प्रकाश डालेंगे।
 
उपनयन के लिए उचित अवस्था एवं काल
 
आश्वंलायनगृह्यसूत्र (1.19.1-6) के मत से ब्राह्मणकुमार का उपनयन गर्भाधान या जन्म से लेकर आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का 11वें वर्ष में एवं वैश्य का 12वें वर्ष में होना चाहिए; यही नहीं, क्रम से 16वें, 22वें एवं 24वें वर्ष तक भी उपनयन का समय बना रहता है।<ref>अष्टमे वर्षे ब्राह्मणमुपनयेत्। गर्भाष्टमे वा। एकादशे क्षत्रियम्। द्वादशे वैश्यम्। आ षोडशाद् ब्राह्मणस्यानतीत: काल:। आ द्वार्विशात्क्षत्रियस्य। आ चतुर्विंशाद्वैश्यस्य। आश्वलायनगृह्यसूत्र 1.19.1-6।</ref> आपस्तम्ब (10।2), शांखायन (2।1), बौधायन (2।5।2), भारद्वाज (1।1) एवं गोभिल (2।10) गृह्यसूत्र तथा याज्ञवल्क्य (1।14) , आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.1.1.19) स्पष्ट कहते हैं कि वर्षों की गणना गर्भाधान से होनी चाहिए। यही बात महाभाष्य में भी है। पारस्करगृह्यसूत्र (2.2) के मत से उपनयन गर्भाधान या जन्म से आठवें वर्ष में होना चाहिए, किन्तु इस विषय में कुलधर्म का पालन भी करना चाहिए। याज्ञवल्क्य (1.14) ने भी कुलधर्म की बात चलायी है। शांखायनगृह्यसूत्र (2.1.1) ने गर्भाधान से 8वाँ या 10वाँ वर्ष, मानव (1.22.1) ने 7वाँ या 9वाँ वर्ष, काठक (41.1-3) ने तीनों वर्णों के लिए क्रम से 7वाँ, 9वाँ एवं 11वाँ वर्ष स्वीकृत किया है; किन्तु यह छूट केवल क्रम से आध्यात्मिक, सैनिक एवं धन-संग्रह की महत्ता के लिए ही दी गयी है। आध्यात्मिकता, लम्बी आय एवं धन की अभिकांक्षा वाले ब्राह्मण पिता के लिए पुत्र का उपनयन गर्भाधान से 5वें, 8वें एवं 9वें वर्ष में भी किया जा सकता है (वैखानस 3.3)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (41.1.1.21) एवं बौधायन गृह्यसूत्र' (2.5) ने आध्यात्मिक महत्ता, लम्बी आयु, दीप्ति, पर्याप्त भोजन, शारीरिक बल एवं पशु के लिए क्रम से 7वाँ, 8वाँ, 9वाँ, 10वाँ, 11वाँ एवं 12वाँ वर्ष स्वीकृत किया है।
 
अत: जन्म से 8वाँ, 11वाँ एवं 12वाँ वर्ष क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए प्रमुख समय माना जाता रहा है। 5वें वर्ष से 11वें वर्ष तक ब्राह्मणों के लिए गौण, 9वें वर्ष से 16 वर्ष तक क्षत्रियों के लिए गौण माना जाता रहा है। ब्राह्मणों के लिए 12वें से 16वें तक गौणतर काल तथा 16वें के उपरान्त गौंणतम काल माना गया है (देखिए संस्कारप्रकाश, पृ0 342)।
 
आपस्तम्बगृह्य0 एवं आपस्तम्बधर्म0 (1.1.1.19), हिरण्यकेशिगृह्य0 (1.1) एवं वैखानस के मत से तीनों वर्णों के लिए क्रम से शुभ मुहूर्त पड़ते हैं वसन्त, ग्रीष्म एवं शरद् के दिन। भारद्वाज0 (1.1) के अनुसार वसन्त ब्राह्मण के लिए, ग्रीष्म या हेमन्त क्षत्रिय के लिए, शरद् वैश्य के लिए, वर्षा बढ़ई के लिए या शिशिर सभी के लिए मान्य है। भारद्वाज ने वहीं यह भी कहा है कि उपनयन मास के शुक्लपक्ष में किसी शुभ नक्षत्र में, भरसक पुरूष नक्षत्र में करना चाहिए।
 
कालान्तर के धर्मशास्त्रकारों ने उपनयन के लिए मासों, तिथियों एवं दिनों के विषय में ज्योतिष-सम्बन्धी विधान बड़े विस्तार के साथ दिये हैं, जिन पर लिखना यहाँ उचित एवं आवश्यक नहीं जान पड़तां किन्तु थोड़ा-बहुत लिख देना आवश्यक है, क्योंकि आजकल ये ही विधान मान्य हैं। वृद्धगार्ग्य ने लिखा है कि माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं, किन्तु अन्य लोगों ने माघ से लेकर पाँच मास ही उपयुक्त ठहराये हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियाँ बहुधा छोड़ दी जाती हैं। जब शुक्र सूर्य के बहुत पास हो और देखा न जा सके, जब सूर्य राशि के प्रथम अंश में हो, अनध्याय के दिनों में तथा गलग्रह में उपनयन नहीं करना चाहिए।<ref>नष्टे चन्द्रेऽस्तगे शुक्रे निरंशे चैव भास्करे। कर्तव्यभौपनयनं नानध्याये गलगृहे॥... त्रयोदशीचतुष्कं तु सप्तभ्यादित्रयं तथा। चतुर्ष्येकादशी प्रोक्ता अष्टावेते गलग्रहा:॥ स्मृतिचन्द्रिका, जिल्द 1, पृ0 27। </ref> बृहस्पति, शुक्र, मंगल एवं बुध क्रम से ऋग्वेद एवं अन्य वेदों के देवता माने जाते हैं। अत: इन वेदों के अध्ययनकर्ताओं का उनके देवों के वारों में ही उपनयन होना चाहिए। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं। (सामवेद के छात्रों एवं क्षत्रियों के लिए मंगल मान्य है)। नक्षत्रों में हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रवती अच्छे माने जाते हैं विशिष्ट वेद वालों के लिए नक्षत्र-सम्बन्धी अन्य नियमों की चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है। एक नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शततारका को छोड़कर सभी अन्य नक्षत्र सबके लिए अच्छे हैं। लड़के की कुण्डली के लिए चन्द्र एवं बृहस्पति ज्योतिष-रूप से शक्तिशाली होने चाहिए। बृहस्पति का सम्बन्ध ज्ञान एवं सुख से है, अत: उपनयन के लिए उसकी परम महत्ता गायी गयी है। यदि बृहस्पति एवं शुक्र न दिखाई पड़ें तो उपनयन नहीं किया जा सकता। अन्य ज्योतिष-सम्बन्धी नियमों का उद्घाटन यहाँ स्थानाभाव के कारण नहीं किया जायगा।
 
वस्त्र
 
ब्रह्मचारी दो वस्त्र धारण करता था, जिनमें एक अधोभाग के लिए (वासस्) और दूसरा ऊपरी भाग के लिए (उत्तरीय)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.1.2.39-9.1.3.1-2) के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य ब्रह्मचारी के लिए वस्त्र क्रम से पटुआ के सूत का, सन के सूत का एवं मृगचर्म का होता था। कुछ धर्मशास्त्रकारों के मत से अधोभाग का वस्त्र रूई के सूत का (ब्राह्मणों के लिए लाल रंग, क्षत्रियों के लिए मजीठ रंग एवं वैश्यों के लिए हल्दी रंग) होना चाहिएं वस्त्र के विषय में बहुत मतभेद हैं।<ref>वास:। शाणीक्षौमाजिनानि। काषायं चैके वस्त्रमुपदिशन्ति। मांजिष्ठं राजन्यस्य। हारिद्रं वेश्यस्य। आप0 ध0 1.1.2.39-41-1.1.3.1-2; शुक्लमहतं वासो ब्राह्मणस्य, मांजिष्ठं क्षत्रियस्य। हारिद्रं कौशेयं वा वैश्यस्त। सर्वेषां वा तान्तवमरक्तम्। वसिष्ठ0 11.64-67। देखिए पारस्कर (2.5)- ऐणेयमजिनमुत्तरीयं ब्राह्मणस्य रौरवं राजन्यस्याजं गव्यं वा वैश्यस्य सर्वेषां वा गव्यमसति प्रधानत्वात्। </ref> आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.1.3.7-8) ने सभी वर्णों के लिए भेड़ का चर्म (उत्तरीय के लिए) या कम्बल विकल्प रूप से स्वीकार कर लिया है।
 
अधोभाग या ऊपरी भाग के परिधान के विषय में ब्राह्मण-ग्रन्थों में भी संकेत मिलता है (आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.1.3.9)। जो वैदिक ज्ञान बढ़ाना चाहे उसके अधोवस्त्र एवं उत्तरीय मृगचर्म के, जो सैनिक शक्ति चाहे उसके लिए रूई का वस्त्र और जो दोनों चाहे वह दोनों प्रकार के वस्त्रों का उपयोग करे।<ref>ब्रह्मवृद्धिमिच्छन्नजिनान्येव वसीत क्षत्रवृद्धिमिच्छन्वस्त्राण्येवोभयवृद्धिमिच्छन्नुभयमिति हि ब्राह्मणम्। अजिनं त्वेतोत्तरं धारयेत्। आपस्तम्बधर्मसूत्र 1.1.3.9-10। मिलाइए भारद्वाजगृह्य सूत्र (1.1)- यदजिनं धारयेदब्रह्मवर्चसवद्वासो धारयेत्सत्रं वर्धयेदुभयं धार्यमुभयोर्वृद्धया इति विज्ञायते; मिलाइए गोपथब्राह्मण (2.4)- न तान्तवं वसीत यस्तान्तवं वसते क्षयं वर्धते न ब्रह्म तस्मात्तान्तवं न वसीत ब्रह्म वर्धतां मा क्षत्रमिति। </ref>
 
दण्ड
 
दण्ड किस वृक्ष का बनाया जाय, इस विषय में भी बहुत मतभेद रहा है। आश्वलायनगृह्य0 (1.19.13 एवं 1.20.1) के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रम से पलाश, उदुम्बर एवं बिल्व का दण्ड होना चाहिए, या कोई भी वर्ण उनमें से किसी एक का दण्ड बना सकता है। आपस्तम्बगृह्य सूत्र (11.15-16) के अनुसार ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए क्रम से पलाश न्यग्रोध की शाखा (जिसका निचला भाग दण्ड का ऊपरी भाग माना जाय) एवं बदर या उदुम्बर का दण्ड होना चाहिए। यही बात आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.1.2.38) में भी पायी जाती है। इसी प्रकार बहुत से मत हैं जिनका उद्घाटन अनावश्यक है।<ref>(देखिए गौतम 1.21; बौधायनधर्मसूत्र 2.5.17; गौतम 1.22-23; पारस्करगृह्यसूत्र 2.5; काठकगृह्यसूत्र 41.22; मनु 2.45 आदि</ref>
 
पूर्वकाल में सहारे के लिए, आचार्य के पशुओं को नियन्त्रण में रखने के लिए, रात्रि में जाने पर सुरक्षा के लिए एंव नदी में प्रवेश करते समय पथप्रदर्शन के लिए दण्ड की आवश्यकता पड़ती थी।<ref>दण्डाजिनोपवीतानि मेखलां चैव धारयेत्। याज्ञवल्क्य 1.29; तत्र दण्डस्य कार्यमवलम्बनं गवादिनिवारणं तमोवगाहनमप्सु प्रवेशनमित्यादि। अपरार्क।</ref>
 
बालक के वर्ण के अनुसार दण्ड की लम्बाई में अन्तर था। आश्वलायनगृह्यसूत्र (1.19.13), गौतम (1.25), वसिष्ठधर्मसूत्र (11.55-57), पारस्करगृह्यसूत्र (2.5), मनु (2.46) के मतों से ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्व का दण्ड क्रम से सिर तक, मस्तक तक एवं नाक तक लम्बा होना चाहिए। शांखायनगृह्यसूत्र (2.1.21-23) ने इस अनुक्रम को उलट दिया है, अर्थात् इसके अनुसार ब्राह्मण का दण्ड सबसे छोटा एवं वैश्य का सबसे बड़ा होना चाहिए। गौतम (1.26) का कहना है कि दण्ड घुना हुआ नहीं होना चाहिए। उसकी छाल लगी रहनी चाहिए, ऊपरी भाग टेढ़ा होना चाहिए। किन्तु मनु (2.47) के अनुसार दण्ड सीधा, सुन्दर एवं अग्निस्पर्श से रहित होना चाहिए। शांखायनगृह्यसूत्र (2.13.2-3) के अनुसार ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह किसी को अपने एवं दण्ड के बीच से निकलने न दे, यदि दण्ड, मेखला एवं यज्ञोपवीत टूट जायें तो उसे प्रायश्चित करना चाहिए (वैसा ही जैसा कि विवाह के समय वरयात्रा का रथ टूटने पर किया जाता है)। ब्रह्मचर्य के अन्त में यज्ञोपवीत, दण्ड, मेखला एवं मृगचर्म को जल में त्याग देना चाहिए। ऐसा करते समय वरूण के मन्त्र (ऋग्वेंद 1.24.6) का पाठ करना चाहिए या केवल 'ओम्' का उच्चारण करना चाहिए।<ref>उपवीतं च दण्डे बध्नाति। तदप्येतत्। यज्ञोपवीतदण्डं च मेखलामजिंन तथा। जुहुयादप्सु व्रते पूर्णे वारूण्यर्चा रसेन। शांखायनगृह्य0 2.39-31; 'रस' का अर्थ है 'ओम्'।</ref> मनु (2.64) एवं विष्णुधर्मसूत्र (27.29) ने भी यही बात कही है।
 
मेखला
 
गौतम (1.15), आश्वलायनगृह्य0 (1.19.11), बौधायनगृह्य0 (2.5.13), मनु (2.42), काठकगृह्य0 (41.12), भारद्वाज0 (1.2) तथा अन्य लोगों के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य बच्चे के लिए क्रम से मुञ्ज, मूर्वा (जिससे प्रत्यंचा बनती है) एवं पटुआ की मेखला (करधनी) होनी चाहिए। मनु (2.42-43) ने पारस्करगृह्यसूत्र एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र (1.1.2.35-37)<ref>ज्या राजन्यस्य मौञ्जी वायोमिश्रिता। आवीसूत्रं वैश्यस्य। सैरी तामली वेत्येके। आपस्तम्बधर्नसूत्र 1.1.2.34-37। गोभिल (2.10.10) की टीका में तामल को शण (सन) कहा गया है। </ref> की भाँति ही नियम कहे हैं किन्तु विकल्प से कहा है कि क्षत्रियों के लिए मूँज तथा लोह से गुंथी हुई हो सकती है तथा वैश्यों के लिए सूत का धागा या जुए की रस्सी या तामल (सन) की छाल का धागा हो सकता है। बौधायनगृह्य0 (2.5.13) ने मूँज की मेखला सबके लिए मान्य कही है। मेखला में कितनी गाँठे होनी चाहिए, यह प्रवेरों की संख्या पर निर्भर है।
 
उपनयन-विधि
 
आश्वलायनगृह्यसूत्र में उपनयन संस्कार का संक्षिप्त विवरण दिया हुआ है, जो पठनीय है। स्थानाभाव के कारण वह वर्णन यहाँ उपस्थित नहीं किया जा रहा है। उपनयन-विधि का विस्तार आपस्तम्बगृह्यसूत्र, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र एवं गोभिलगृह्यसूत्र में पाया जाता है। कुछ बातें यहाँ दी जा रही हैं, जिससे मतैक्य एवं मतान्तर पर कुछ प्रकाश पड़ जाय। आश्वलायन एवं आपस्तम्ब तथा कुछ अन्य सूत्रकारों ने जनेऊ के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है, किन्तु हिरण्यकेशि0 (1.2.6), भारद्वाज0 (1.3) एवं मानव0 (1.22.3) ने होग के पूर्व यज्ञोपवीत धारण करना बतलाया है। बौधयन0 (2.5.7) का कहना है कि यज्ञोपवीत पाने के उपरान्त ही बटुक "यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:॥" नामक अति प्रसिद्ध मन्त्र का उच्चारण करता है, पवित्र जनेऊ को "यज्ञोपवीतम्" मन्त्र के साथ तथा कृष्ण मृगचर्म को "मित्रस्य चक्षु:" कहकर देता है। यही बात संस्कारतत्त्व (पृष्ठ 934) में भी पायी जाती है। संस्काररत्नमाला ने होम के पूर्व यज्ञोपवीत पहनने को कहा है। यज्ञोपवीत के उद्गम एवं विकास के विषय में हम आगे पढ़ेगे। इस अवसर पर धर्मशास्त्रकारों ने चौलकर्म कर लेने को कहा है। आरम्भिक काल में चौलकर्म स्वयं आचार्य करता था। निम्नलिखित विधियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं—
 
(क) आपस्तम्बगृह्यसूत्र (10.9), मानव0 (1.23.12), बौधायन0 (2.5.10), खादिर0 (2.4) एवं
 
भारद्वाज0 (1.8) ने बटुक को होम के उपरान्त अग्नि के उत्तर दाहिने पैर से प्रस्तर पर चढ़ने को कहा है। प्रस्तर पर पैर रखना दृढ निश्चय का द्योतक है।
 
(ख) मानव0 (1.22.3) एवं खादिर0 (41.10) ने होम के उपरान्त "दधिक्राव्णो अकारिषम्" (­ऋ0 4।39।6, तैत्तिरीयसंहिता 1।5।4।11) मंत्र को दुहराते हुए दधि तीन बार खाने को कहा है।
 
(ग) पारस्करगृह्यसूत्र (2.2), भारद्वाज0 (1.7), आपस्तम्ब0 (2.1-4), आपस्तम्ब-मन्त्रपाठ (2.3.27-30), बौधायनगृ0 (2.5.25, शाट्यायनक को उद्धृत कर), मानव0 (1.22.4-5) एवं खादिर0 (2.4.12) के मत से बटुक से आचार्य उसका नाम पूछता है और वह बताता है। आचार्य उससे यह भी पूछता है "तुम किसके ब्रह्मचारी हो?"
 
सभी स्मृतियों में यह बात पायी जाती है कि उपनयन तीनों वर्णों में होता था। उपनयन-विधि के विषय में बहुत से भेद-विभेद हैं, जिनकी चर्चा करना यहाँ अनावशृयक है। कालान्तर के लेखकों ने मन्त्रों को जोड़-जोड़कर विस्तार बढ़ा दिया है।
 

०५:५९, ५ अप्रैल २०१० के समय का अवतरण