जय केशव 5

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:५०, २ नवम्बर २०१३ का अवतरण (Text replace - " ।" to "।")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

उधर यवन महमूद गजनी में बैठा कुछ और ही सोच रहा था। टीकाटीक दोपहरी में यवन महमूद अपने आरामगाह में खड़ा बड़बड़ा रहा था। उसे अबुलफतह और नवासाशाह का न आना बार–बार खल रहा था। ये दोनों ही मजबूरी में धर्म परिवर्तन कर उसका साथ दे रहे थे। मसऊद जब भी समझाने की कोशिश करता वह यही कहता–"इन पर यकीन करना बेवकूफी के अलावा कुछ न होगा।" और सुनकर मसऊद आगे कुछ न कह पाता। आज उसके चेहरे पर पसीना झलक रहा था। कनीजों का पंखा झलना भी रास नहीं आ रहा था। वह द्वार की ओर देख रहा था, परंतु जब उसे कोई न आता दिखाई दिया तो उसने कनीजों को भी अपने पास से हटा दिया। उनके जाते ही उसने मसऊद को अपने पास बुलाया। मसऊद आते ही बोला – "हुक्म आलीजाह।" "मसऊद। हमारी फौजों का हवाला हमें शामों सहर मिलता रहना चाहिये।" "आलमपनाह। आपका हुक्म मिलते ही हम कूच कर देंगे। हमारी फौज हर तरह से तैयार खड़ी है।" कहते हुए मसऊद का स्वर कठोर हो उठा। महमूद गजनबी ने उसकी पीठ थपथपाई और पीठ थपथपाते हुए बोला–"यह बात गांठ बांध लो कि जिस मुल्क की फौज कायदे और क़ानून में नहीं रहती वहां का बादशाह कभी फतह हासिल नहीं कर सकता।" महमूद इतना कह गवाक्ष से बाहर झांकने लगा। मसऊद जो उसका प्रमुख हाथ था। उसकी बात सुनकर बोला–"हुजूर ने मसऊद की रग–रग में यह बातें बचपन से ही भर दी हैं। आलीजाह के हुक्म के मुताबिक एक लाख फौज मय जिरहबख्तर और आला हाथियारों से लैस शाही झंडे के नीचे हर समय तैयार खड़ी है जिनमें चालीस हजार घुड़सवार, पचास हजार तातारी, बिल्लोची और खूंखार पठान सिपाही भी है।" "लेकिन हिन्दुस्तानी तीरंदाजों का मुकाबला–"महमूद कुछ और कहता कि तभी द्वार पर खड़ा पहरेदार कोर्निश करता हुआ बोला–"आलम पनाह नवासाशाह तशरीफ लाये हैं।" नवासाशाह का नाम सुनकर महमूद का चेहरा एक बार तो भयानक हो उठा पुन: गंभीर होते हुए बोला–"उन्हें बाअदब अंदर आने दिया जाये।" थोड़ी देर बाद नवासाशाह आया और कोर्निश कर दोनों हाथ सामने बांधकर सर झुकाकार खड़ा हो गया। तो महमूद हंसकर बोला–"आइये नवासाशाह आइये। हम बहुत देर से आपका इंतजार कर रहे थे।" नवासाशाह को महमूद का एक–एक शब्द व्यंग्य न होकर बाण हो रहा था। स्वार्थ और लोभवश उसे एक विदेशी आक्रान्ता की हां में हां करना पड़ रहा था। वह सोचता ही रहता कि तभी महमूद के शब्दों ने पुन: उसे अपनी ओर आकृष्ट किया। वह कह रहा था–"आज हिन्दुस्तान के आप जैसे राजाओं का साथ न होता तो हिन्दुस्तान पर हमारी फतह नामुमकिन थी।" "मगर इस बार कन्नौज का राजा राज्यपाल हमारे लिए सबसे बड़ा और ताकतवर दुश्मन साबित होगा।" नवासाशाह ने धीरे से कहा। "यह तो वक्त बतायेगा। आप काम की बात बताइये कि आखिर आपके आदमी अपने काम में कहां तक कामयाब हुए ? उस काफिर मुसब्बिर ने मथुरा जाकर क्या किया ? जरीना कब और कहां आकर हमें वहां के राज बताने वाली है। आप हमारे वफादार हैं। यह तो आप भी जानते हैं कि अपना वतन छोड़कर न तो मुझे हिन्दुस्तान पर हुकूमत ही करनी है न ही वहां पर बसना है। हमारी तो दिली तमन्ना है कि वहां की फतह हासिल कर जल्द से जल्द आपको वहाँ का हाकिम घोषित कर दें।" "आलमपनाह। आपकी हर एक बात सही है। काश कि अहमद पकड़ा न गया होता ...।" "क्या कहते हो नवासाशाह....।" कहते हुए महमूद चौंक पड़ा। "जी। आलम पनाह मैंने यही सुना है।" "क्या ? तुम उसे शक्ल से पहचानते हो ?" "जी, नहीं। मैंने उसे कभी देखा नहीं है। फिर भी अबुलफतह उससे अच्छी तरह वाकिफ है। उसने यही कहलवाया था। नवासाशाह कुछ और कहता कि तभी शीलभद्र का भेजा हुआ अर्जुनसिंह जो अहमद बनकर गजनी आया हुआ था महमूद के सामने आया। उसने झुककर कोर्निश की तो गजनी का सुल्तान बोला – "नवासाशाह, जिसे तुम कैद में बता रहे थे यह वही अहमद है। मथुरा की मलिका पर मुहब्बत के डोरे डालकर हमारा अहमद पूरा कामयाबी के साथ हमारे सामने है।" महमूद कहता जा रहा था। नवासाशाह अहमद को ध्यान से देख रहा था। महमूद ने मसऊद की ओर देखा और बोला–"निहायत होशियारी और अक्लमंदी के बाद हम इसी नजीजे पर पहुंचे है कि मथुरा के हिमायती राजाओं को तोड़ा जाय और इस काम के लिये भी हमने अहमद को ही चुना है। अब अहमद ही बताए कि वह हमें कब और कहां आकर मिलेगा ?" "अमीरों के अमीर, अमीरे गजनी हिन्दोस्तान बे खौफ आयें। यह गुलाम किसी–न–किसी तरह पंजाब तक पहुंचने से पहले ही आप तक पहुंच जायेगा।" कहते हुए अर्जुनसिंह ने तीन बार कोर्निश की। "बहुत खूब हमें अपने दोस्तों पर फक्र है। आपको यकीन करना चाहिए कि महमूद दोस्तों के साथ कभी दगा नहीं करता। मैं हमेशा तुम्हारा ख्याल रखूंगा।" कह महमूद ने सभी को विदा किया। नवासाशाह और अर्जुनसिंह दोनों ने पहले तो शाही मेहमान-नवाजी का आनंद लिया। पुन: कुछ विश्राम करने के बाद दोनों अपने–अपने घोड़ों पर रास्ते का खाना–पीना लाद कर अपने देश के लिए रवाना हो गये। अर्जुनसिंह महामात्य से शीघ्र मिलना चाहता था। उसे यही चिन्ता थी कि किसी तरह शीघ्र मथुरा पहुंच कर वह महमूद के घृणित इरादों से राज्य को अवगत करा दे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ