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− | तेरहवें से पंद्रहवें श्लोक तक अपने सगुण-निर्गुण और विराट् रूप की उपासनाओं का वर्णन करके भगवान् ने उन्नीसवें श्लोक तक समस्त विश्व को अपना बतलाया, समस्त विश्व मेरा ही स्वरूप होने के कारण | + | तेरहवें से पंद्रहवें श्लोक तक अपने सगुण-निर्गुण और विराट् रूप की उपासनाओं का वर्णन करके भगवान् ने उन्नीसवें श्लोक तक समस्त विश्व को अपना बतलाया, समस्त विश्व मेरा ही स्वरूप होने के कारण <balloon link="index.php?title=इन्द्र" title="देवताओं के राजा इन्द्र कहलाते हैं। जिसे वर्षा का देवता माना जाता है । ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">इन्द्र</balloon> और अन्य देवों की उपासना भी प्रकारान्तर से मेरी ही उपासना है, परंतु ऐसा न जानकर फलासक्ति-पूर्वक पृथक्-पृथक् भाव से उपासना करने वालों को मेरी प्राप्ति न होकर विनाशी फल ही मिलता है । इसी बात को दिखलाने के लिये अब दो श्लोकों में भगवान् उस उपासना का फल सहित वर्णन करते हैं – |
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− | तीनों | + | तीनों <balloon link="index.php?title=वेद " title="वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई । ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">वेदों</balloon> में विधान किये हुए सकाम कर्मों को करने वाले, <balloon link="index.php?title=सोम रस" title="वेदों में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं जो अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है।¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">सोमरस</balloon> को पीने वाले, पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं ।।20।। |
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− | त्रैविद्या: = तीनों वेदों में विधान किये हुए सकाम कर्मों को करने वाले (और) ; सोमपा: = सोमरस को पीने वाले ; प्रार्थयन्ते = चाहते हैं ; ते = वे | + | त्रैविद्या: = तीनों वेदों में विधान किये हुए सकाम कर्मों को करने वाले (और) ; सोमपा: = सोमरस को पीने वाले ; प्रार्थयन्ते = चाहते हैं ; ते = वे पुरुष ; पुण्यम् = अपने पुण्यों के फलरूप ; सुरेन्द्रलोकम् = इन्द्रलोक को ; पूतपापा: = पापों से पवित्र हुए पुरुष ; माम् = मेरे को ; यज्ञै: = यज्ञों के द्वारा ; इष्टा = पूजकर ; स्वर्गतिम् = स्वर्ग की प्राप्ति को ; आसाद्य = प्राप्त होकर ; दिवि = स्वर्ग में ; दिव्यान् = दिव्य ; देवभोगान् = देवताओं के भोगों को ; अश्नन्ति = भोगते हैं ; |
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१२:५१, २१ मार्च २०१० के समय का अवतरण
गीता अध्याय-9 श्लोक-20 / Gita Chapter-9 Verse-20
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