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०९:५४, ५ जनवरी २०१० का अवतरण
गीता अध्याय-3 श्लोक-20 / Gita Chapter-3 Verse-20
प्रसंग-
पूर्व श्लोक में भगवान् ने <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को लोक संग्रह की ओर देखते हुए कर्मों का करना उचित बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा होती है कि कर्म करने से किस प्रकार लोक संग्रह होता है ? अत: यही बात समझाने के लिये कहते हैं-
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।।20।।
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जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे । इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है ।।20।।
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It is through action (without attachment) alone that janaka and other wise men reached perfection. Having an eye to maintenance of the world order too you should take to action.(20)
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जनकादय: = जनकादि ज्ञानीजन भी (आसक्तिरहित) ; कर्मणा = कर्मद्वारा ; लोकसंग्रहम् = लोकसंग्रहको ; संपश्यन् = देखता हुआ ; अपि = भी (तूं) ; एव = ही ; संसिद्धिम् = परमसिद्धिको ; आस्थिता: = प्राप्त हुए हैं ; हि = इसलिये (तथा) ; कर्तुम् = कर्म करने को ; एव = ही ; अर्हसि = योग्य है ;
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