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०५:१६, २४ अक्टूबर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-3 श्लोक-20 / Gita Chapter-3 Verse-20
प्रसंग-
पूर्व श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को लोक संग्रह की ओर देखते हुए कर्मों का करना उचित बतलाया; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि कर्म करने से किस प्रकार लोकसंग्रह होता है ? अत: यही बात समझाने के लिये कहते हैं-
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।।20।।
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जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे । इसलिये तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है ।।20।।
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It is through action (without attachment) alone that janaka and other wise men reached perfection. Having an eye to maintenance of the world order too you should take to action.(20)
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जनकादय: = जनकादि ज्ञानीजन भी (आसक्तिरहित) ; कर्मणा = कर्मद्वारा ; लोकसंग्रहम् = लोकसंग्रहको ; संपश्यन् = देखता हुआ ; अपि = भी (तूं) ; एव = ही ; संसिद्धिम् = परमसिद्धिको ; आस्थिता: = प्राप्त हुए हैं ; हि = इसलिये (तथा) ; कर्तुम् = कर्म करने को ; एव = ही ; अर्हसि = योग्य है ;
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