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==अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता==
 
==अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता==
दुर्भाग्य है कि अमीर खुसरो की हिन्दवी रचनाएँ लिखित रूप में प्राप्त नहीं होतीं। लोकमुख के माध्यम से चली आ रहीं उनकी रचनाओं की भाषा में निरन्तर परिवर्तन होता रहा होगा और आज वह जिस रूप में प्राप्त होती है वह उसका आधुनिक रूप है। फिर भी हम निस्सन्देह यह विश्वास कर सकते हैं कि ख़ुसरो ने अपने समय की खड़ी बोली अर्थात् हिन्दवी में भी अपनी पहेलियाँ, मुकरियाँ आदि रची होंगी। कुछ लोगों को अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता की प्रामाणिकता में सन्देह होता है। स्व0 प्रोफेसर शेरानी तथा कुछ अन्य आलोचक विद्वान् खालिकबोरी को भी प्रसिद्ध अमीर ख़ुसरो की रचना नहीं मानते। परन्तुखुसरो की हिन्दी कविता के सम्बन्ध में इतनी प्रबल लोकपरम्परा है कि उसपर अविश्वास नहीं किया जा सकता यह परम्परा बहुत पुरानी है। 'अरफतुलआसिती' के लेखक तकीओहदीजो 1606 ई॰ में [[जहाँगीर]] के दरबार में आये थे ख़ुसरो की हिन्दी कविता का जिक्र करते हैं। मीरत की 'मीर' अपने 'निकातुसस्वरा' में लिखते हैं कि उनके समय तक ख़ुसरो के हिन्दी गीत अति लोकप्रिय थे।<balloon title="(दे0 यूसुफ हुसन: 'ग्लिम्प्सेज आव मिडीवल इण्डियन कल्चर', पृ0 195" style=color:blue>*</balloon> इस सम्बन्ध में सन्देह को स्थान नहीं है कि अमीर खुसरो ने हिन्दवी में रचना की थी। यह आवश्य है कि उसका रूप समय के प्रवाह में बदलता आया हो। आवश्यकता यह है कि खुसरो ने हिन्दवी में रचना की थी। यह अवश्य है कि उसका रूप समय के प्रवाहमें बदलता आया हो। आवश्यकता यह है कि खुसरो की हिन्दी-कविता का यथासम्भव वैज्ञानिक सम्पादन करके उसके प्राचीनतम रूप को प्राप्त करने का यत्न किया जाय। काव्य की दृष्टि से भले ही उसमें उत्कृष्टता न हो, सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उसका मूल्य निस्सन्देह बहुत अधिक है।
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दुर्भाग्य है कि अमीर खुसरो की हिन्दवी रचनाएँ लिखित रूप में प्राप्त नहीं होतीं। लोकमुख के माध्यम से चली आ रहीं उनकी रचनाओं की भाषा में निरन्तर परिवर्तन होता रहा होगा और आज वह जिस रूप में प्राप्त होती है वह उसका आधुनिक रूप है। फिर भी हम निस्सन्देह यह विश्वास कर सकते हैं कि ख़ुसरो ने अपने समय की खड़ी बोली अर्थात् हिन्दवी में भी अपनी पहेलियाँ, मुकरियाँ आदि रची होंगी। कुछ लोगों को अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता की प्रामाणिकता में सन्देह होता है। स्व0 प्रोफेसर शेरानी तथा कुछ अन्य आलोचक विद्वान् खालिकबोरी को भी प्रसिद्ध अमीर ख़ुसरो की रचना नहीं मानते। परन्तुखुसरो की हिन्दी कविता के सम्बन्ध में इतनी प्रबल लोकपरम्परा है कि उसपर अविश्वास नहीं किया जा सकता यह परम्परा बहुत पुरानी है। 'अरफतुलआसिती' के लेखक तकीओहदीजो 1606 ई॰ में [[जहाँगीर]] के दरबार में आये थे ख़ुसरो की हिन्दी कविता का ज़िक्र करते हैं। मीरत की 'मीर' अपने 'निकातुसस्वरा' में लिखते हैं कि उनके समय तक ख़ुसरो के हिन्दी गीत अति लोकप्रिय थे।<balloon title="(दे0 यूसुफ हुसन: 'ग्लिम्प्सेज आव मिडीवल इण्डियन कल्चर', पृ0 195" style=color:blue>*</balloon> इस सम्बन्ध में सन्देह को स्थान नहीं है कि अमीर खुसरो ने हिन्दवी में रचना की थी। यह आवश्य है कि उसका रूप समय के प्रवाह में बदलता आया हो। आवश्यकता यह है कि खुसरो ने हिन्दवी में रचना की थी। यह अवश्य है कि उसका रूप समय के प्रवाहमें बदलता आया हो। आवश्यकता यह है कि खुसरो की हिन्दी-कविता का यथासम्भव वैज्ञानिक सम्पादन करके उसके प्राचीनतम रूप को प्राप्त करने का यत्न किया जाय। काव्य की दृष्टि से भले ही उसमें उत्कृष्टता न हो, सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उसका मूल्य निस्सन्देह बहुत अधिक है।
  
 
==कुछ रचनाएँ==
 
==कुछ रचनाएँ==

०६:०४, ५ जुलाई २०१० का अवतरण

अमीर ख़ुसरो
Amir-Khusro

अमीर ख़ुसरो / Amir Khusro / Amir Khusrow

(1253 ई. से 1325 ई.)

जन्म-बचपन

मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफ़द्दीन के पुत्र अमीर ख़ुसरो का जन्म सन् 1253 ई॰ में एटा (उत्तर प्रदेश) के पटियाली नामक क़स्बे में गंगा किनारे हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज़ ख़ाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (1266-1286 ई॰) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। अमीर ख़ुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं। ये दिल्ली के एक रईस अमी इमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। ये बादशाह बलबन के युद्ध मन्त्री थे। ये राजनीतिक दवाब के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। ख़ुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था। ख़ुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक़ था। इस पर बाद में ख़ुसरो ने 'तम्बोला' नामक एक मसनवी भी लिखी। इस मिले-जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर किशोर ख़ुसरो पर पड़ा। वे जीवन में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और वाक़ई ऐसा हुआ भी। ख़ुसरो के श्याम वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर सैफुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया उर्फ़ सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे। उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा ली थी। उस समय ख़ुसरो केवल सात वर्ष के थे। सात वर्ष की अवस्था में ख़ुसरो के पिता का देहान्त हो गया, किन्तु ख़ुसरो की शिक्षा-दीक्षा में बाधा नहीं आयी। अपने समय के दर्शन तथा विज्ञान में उन्होंने विद्वत्ता प्राप्त की, किन्तु उनकी प्रतिभा बाल्यावस्था में ही काव्योन्मुख थी। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और 20 वर्ष के होते-होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गये।

व्यावहारिक बुद्धि

जन्मज़ात कवि होते हुए भी ख़ुसरो में व्यावहारिक बुद्धि की कमी नहीं थी। सामाजिक जीवन की उन्होंने कभी अवहेलना नहीं की। जहाँ एक ओर उनमें एक कलाकार की उच्च कल्पनाशीलता थी, वहीं दूसरी ओर वे अपने समय के सामाजिक जीवन के उपयुक्त कूटनीतिक व्यवहार-कुशलता में भी दक्ष थे। उस समय बृद्धिजीवी कलाकारों के लिए आजीविका का सबसे उत्तम साधन राज्याश्रय ही था। ख़ुसरो ने भी अपना सम्पूर्ण जीवन राज्याश्रय में बिताया। उन्होंने ग़ुलाम, ख़िलजी और तुग़लक-तीन अफ़ग़ान राज-वंशों तथा 11 सुल्तानों का उत्थान-पतन अपनी आँखों से देखा। आश्चर्य यह है कि निरन्तर राजदरबार में रहने पर भी ख़ुसरो ने कभी भी उन राजनीतिक षड्यन्त्रों में किंचिन्मात्र भाग नहीं लिया जो प्रत्येक उत्तराधिकार के समय अनिवार्य रूप से होते थे। राजनीतिक दाँव-पेंच से अपने को सदैव अनासक्त रखते हुए ख़ुसरो निरन्तर एक कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे। ख़ुसरो की व्यावहारिक बुद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि वे जिस आश्रयदाता के कृपापात्र और सम्मानभाजक रहे, उसके हत्यारे उत्तराधिकारी ने भी उन्हें उसी प्रकार आदर और सम्मान प्रदान किया।

राज्याश्रय

सबसे पहले सन् 1270 ई॰ में ख़ुसरो को सम्राट् गयासुद्दीन बलवन के भतीजे, कड़ा (इलाहाबाद) के हाकिम अलाउद्दीन मुहम्मद कुलिश ख़ाँ (मलिक छज्जू) का राज्याश्रय प्राप्त हुआ। एक बार बलवन के द्वितीय पुत्र नसीरूद्दीन बुगरा खां की प्रशंसा में क़सीदा लिखने के कारण मलिक छज्जू उनसे अप्रसन्न हो गया और ख़ुसरो को बुगरा ख़ाँ का आश्रय ग्रहण करना पड़ा। जब बुगरा ख़ाँ लखनौती का हाकिम नियुक्त हुआ तो ख़ुसरो भी उसके साथ चले गये। किन्तु वे पूर्वी प्रदेश के वातावरण में अधिक दिन नहीं रह सके और बलवन के ज्येष्ठ पुत्र सुल्तान मुहम्मद का निमन्त्रण पाकर दिल्ली लौट आये। ख़ुसरो का यही आश्रयदाता सर्वाधिक सुसंस्कृत और कला-प्रेमी था। सुल्तान मुहम्मद के साथ उन्हें मुल्तान भी जाना पड़ा और मुग़लों के साथ उसके युद्ध में भी सम्मिलित होना पड़ा।

बन्दी ख़ुसरो

इस युद्ध में सुल्तान मुहम्मद की मृत्यु हो गयी और ख़ुसरो बन्दी बना लिये गये। ख़ुसरो ने बड़े साहस और कुशलता के साथ बन्दी-जीवन से मुक्ति प्राप्त की। परन्तु इस घटना के परिणामस्वरूप ख़ुसरो ने जो मर्सिया लिखा वह अत्यन्त हृदयद्रावक और प्रभावशाली है। कुछ कुछ दिनों तक वे अपनी माँ के पास पटियाली तथा अवध के एक हाकिम अमीर अली के यहाँ रहे। परन्तु शीघ्र ही वे दिल्ली लौट आये।

रचनाएँ

दिल्ली में पुन: उन्हें मुईजुद्दीन कैकबाद के दरबार में राजकीय सम्मान प्राप्त हुआ। यहाँ उन्होंने सन् 1289 ई॰ में 'मसनवी किरानुससादैन' की रचना की। ग़ुलाम वंश के पतन के बाद जलालुद्दीन ख़िलजी दिल्ली का सुल्तान हुआ। उसने ख़ुसरो को अमीर की उपाधि से विभूषित किया। ख़ुसरो ने जलालुद्दीन की प्रशंसा में 'मिफ्तोलफ़तह' नामक ग्रन्थ की रचना की। जलालुद्दीन के हत्यारे उसके भतीजे अलाउद्दीन ने भी सुल्तान होने पर अमीर ख़ुसरो को उसी प्रकार सम्मानित किया और उन्हें राजकवि की उपाधि प्रदान की अलाउद्दीन की प्रशंसा में खुसरो ने जो रचनाएँ की वे अभूतपूर्व थीं। ख़ुसरो की अधिकांश रचनाएँ अलाउद्दीन के राजकाल की ही है। 1298 से 1301 ई॰ की अवधि में उन्होंने पाँच रोमाण्टिक मसनवियाँ-

  • 1. 'मल्लोल अनवर'
  • 2. 'शिरीन खुसरो'
  • 3. 'मजनू लैला'
  • 4. 'आईने-ए-सिकन्दरी
  • 5. 'हश्त विहिश्त'

ये पंच-गंज नाम से प्रसिद्ध हैं। ये मसनवियाँ खुसरो ने अपने धर्म-गुरु शेख निज़ामुद्दीन औलिया को समर्पित कीं तथा उन्हें सुल्तान अलाउद्दीन को भेंट कर दिया। पद्य के अतिरिक्त ख़ुसरो ने दो गद्य-ग्रन्थों की भी रचना की-

  • 1. 'खज़ाइनुल फ़तह', जिसमें अलाउद्दीन की विजयों का वर्णन है
  • 2. 'एजाज़येखुसरवी', जो अलंकारग्रन्थ हैं। अलाउद्दीन के शासन के अन्तिम दिनों में ख़ुसरो ने देवलरानी ख़िज्रख़ाँ नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मसनवी लिखी।

अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी उसके छोटे पुत्र क़ुतुबद्दीन मुबारकशाह के दरबार में भी ख़ुसरो ससम्मान राजकवि के रूप में बने रहे, यद्यपि मुबारकशाह ख़ुसरो के गुरु शेख निज़ामुद्दीन से शत्रुता रखता था। इस काल में ख़ुसरो ने नूहसिपहर नाम ग्रन्थ की रचना की जिसमें मुबारकशाह के राज्य-कला की मुख्य मुख्य घटनाओं का वर्णन है।

निज़ामुद्दीन औलिया

ख़ुसरो की अन्तिम ऐतिहासिक मसनवी 'तुग़लक' नामक है जो उन्होंने गयासुद्दीन तुगलक के राज्य-काल में लिखी और जिसे उन्होंने उसी सुल्तान को समर्पित किया। सुल्तान के साथ ख़ुसरो बंगाल के आक्रमण में भी सम्मिलित थे। उनकी अनुपस्थिति में ही दिल्ली में उनके गुरु शेख निज़ामुद्दीन मृत्यु हो गयी। इस शोक को अमीर ख़ुसरो सहन नहीं कर सके और दिल्ली लौटने पर 6 मास के भीतर ही सनृ 1325 ई॰ में ख़ुसरो ने भी अपनी इहलीला समाप्त कर दी। ख़ुसरो की समाधि शेख की समाधि के पास ही बनायी गयी।

शेख निज़ामुद्दीन औलिया अफ़ग़ान-युग के महान सूफ़ी सन्त थे। अमीर ख़ुसरो आठ वर्ष की अवस्था से ही उनके शिष्य हो गये थे और सम्भवत: गुरु की प्रेरणा से ही उन्होंने काव्य-साधना प्रारम्भ की। यह गुरु का ही प्रभाव था कि राज-दरबार के वैभव के बीच रहते हुए भी ख़ुसरो हृदय से रहस्यवादी सूफी सन्त बन गये। ख़ुसरो ने अपने गुरु का मुक्त कंठ से यशोगान किया है और अपनी मसनवियों में उन्हें सम्राट से पहले स्मरण किया है।

उन्होंने स्वयं कहा है-मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा ख़ुसरो को हिन्दी खड़ी बोली का पहला लोकप्रिय कवि माना जाता है। एक बार की बात है। तब ख़ुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थे। तुगलक ख़ुसरो को तो चाहता था मगर हज़रत निजामुद्दीन के नाम तक से चिढता था। ख़ुसरो को तुगलक की यही बात नागवार गुज़रती थी। मगर वह क्या कर सकता था, बादशाह का मिज़ाज। बादशाह एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था तभी चिढक़र उसने ख़ुसरो से कहा कि हज़रत निज़ामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेश दे दें कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे दिल्ली छोड़ क़र चले जाएं।। ख़ुसरो को बडी तक़लीफ़ हुई, पर अपने सन्त को यह संदेश कहा और पूछा अब क्या होगा?

कुछ नहीं ख़ुसरो! तुम घबराओ मत। हनूज दिल्ली दूरअस्त-यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है। सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गई। रास्ते में ही एक पड़ाव के समय वह जिस ख़ेमे में ठहरा था, भयंकर अंधड़ से वह टूट-कर गिर गया और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। तभी से यह कहावत "अभी दिल्ली दूर है" पहले ख़ुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई। अमीर ख़ुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें अपने ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के निधन का समाचार मिला। समाचार क्या था? ख़ुसरो की दुनिया लुटने की ख़बर थी। वे सन्नीपात की अवस्था में दिल्ली पहुँचे, धूल-धूसरित ख़ानक़ाह के द्वार पर खडे हो गए और साहस न कर सके अपने पीर की मृत देह को देखने का। आख़िरकार जब उन्होंने शाम के ढलते समय पर उनकी मृत देह देखी तो उनके पैरों पर सर पटक-पटक कर मूर्छित हो गए। और उसी बेसुध हाल में उनके होंठों से निकला,

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।

चल ख़ुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस।।

अपने प्रिय के वियोग में ख़ुसरो ने संसार के मोहजाल काट फेंके। धन-सम्पत्ति दान कर, काले वस्त्र धारण कर अपने पीर की समाधि पर जा बैठे-कभी न उठने का दृढ निश्चय करके। और वहीं बैठ कर प्राण विसर्जन करने लगे। कुछ दिन बाद ही पूरी तरह विसर्जित होकर ख़ुसरो के प्राण अपने प्रिय से जा मिले। पीर की वसीयत के अनुसार अमीर ख़ुसरो की समाधि भी अपने प्रिय की समाधि के पास ही बना दी गई।

हिन्दी की तूती

अमीर ख़ुसरो मुख्य रूप से फ़ारसी के कवि हैं। फ़ारसी भाषा पर उनका अप्रतिम अधिकार था। उनकी गणना महाकवि फ़िरदौसी, शेख़ सादि्क़ और निज़ामी फ़ारस के महाकवियों के साथ होती है। फ़ारसी काव्य के लालित्य और मार्दव के कारण ही अमीर ख़ुसरो को 'हिन्दी की तूती' कहा जाता है। ख़ुसरो का फ़ारसी काव्य चार वर्गो में विभक्त किया जा सकता है-

  • ऐतिहासिक मसनवी जिसमें किरानुससादैन, मिफ़तोलफ़तह, देवलरानी खिज्रखाँ, नूहसिपहर और तुग़लकनामा नामकी रचनाएँ आती हैं;
  • रोमाण्टिक मसनवी-जिसमें मतलऊ लअनवार, शिरीन ख़ुसरी, आईन-ए-सिकन्दरी, मजनू-लैला और हश्त विहश्त गिनी जाती है;
  • दीवान-जिसमें तुह्फ़ तुम सिगहर, वास्तुलहयात आदि ग्रन्थ आते हैं;
  • गद्य रचनाएँ- 'एजाज़येख़ुसरवी' और 'ख़ज़ाइनुलफ़तह तथा मिश्रित' – जिसमें वेदऊलअजाइब' , 'मसनवी शहरअसुब', 'चिश्तान' और 'ख़ालितबारी' नाम की रचनाएँ परिगणित हैं।

यद्यपि ख़ुसरो की महत्ता उनके फ़ारसी काव्य पर आश्रित है, परन्तु उनकी लोकप्रियता का कारण उनकी हिन्दवी की रचनाएँ ही हैं। हिन्दवी में काव्य-रचना करनेवालों में अमीर ख़ुसरो का नाम सर्वप्रमुख है। अरबी, फ़ारसी के साथ-साथ अमीर ख़ुसरो को अपने हिन्दवी ज्ञान पर भी गर्व था। उन्होंने स्वयं कहा है- 'मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो! मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा। "अमीर ख़ुसरो ने कुछ रचनाएँ हिन्दी या हिन्दवी में भी की थीं, इसका साक्ष्य स्वयं उनके इस कथन में प्राप्त होता है-" जुजवे चन्द नज़्में हिन्दी नज़रे दोस्तां करदाँ अस्त।" उनके नाम से हिन्दी में पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने और कुछ ग़ज़लें प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त उनका फ़ारस-हिन्दी कोश खालिकबारी भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है।

अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता

दुर्भाग्य है कि अमीर खुसरो की हिन्दवी रचनाएँ लिखित रूप में प्राप्त नहीं होतीं। लोकमुख के माध्यम से चली आ रहीं उनकी रचनाओं की भाषा में निरन्तर परिवर्तन होता रहा होगा और आज वह जिस रूप में प्राप्त होती है वह उसका आधुनिक रूप है। फिर भी हम निस्सन्देह यह विश्वास कर सकते हैं कि ख़ुसरो ने अपने समय की खड़ी बोली अर्थात् हिन्दवी में भी अपनी पहेलियाँ, मुकरियाँ आदि रची होंगी। कुछ लोगों को अमीर ख़ुसरो की हिन्दी कविता की प्रामाणिकता में सन्देह होता है। स्व0 प्रोफेसर शेरानी तथा कुछ अन्य आलोचक विद्वान् खालिकबोरी को भी प्रसिद्ध अमीर ख़ुसरो की रचना नहीं मानते। परन्तुखुसरो की हिन्दी कविता के सम्बन्ध में इतनी प्रबल लोकपरम्परा है कि उसपर अविश्वास नहीं किया जा सकता यह परम्परा बहुत पुरानी है। 'अरफतुलआसिती' के लेखक तकीओहदीजो 1606 ई॰ में जहाँगीर के दरबार में आये थे ख़ुसरो की हिन्दी कविता का ज़िक्र करते हैं। मीरत की 'मीर' अपने 'निकातुसस्वरा' में लिखते हैं कि उनके समय तक ख़ुसरो के हिन्दी गीत अति लोकप्रिय थे।<balloon title="(दे0 यूसुफ हुसन: 'ग्लिम्प्सेज आव मिडीवल इण्डियन कल्चर', पृ0 195" style=color:blue>*</balloon> इस सम्बन्ध में सन्देह को स्थान नहीं है कि अमीर खुसरो ने हिन्दवी में रचना की थी। यह आवश्य है कि उसका रूप समय के प्रवाह में बदलता आया हो। आवश्यकता यह है कि खुसरो ने हिन्दवी में रचना की थी। यह अवश्य है कि उसका रूप समय के प्रवाहमें बदलता आया हो। आवश्यकता यह है कि खुसरो की हिन्दी-कविता का यथासम्भव वैज्ञानिक सम्पादन करके उसके प्राचीनतम रूप को प्राप्त करने का यत्न किया जाय। काव्य की दृष्टि से भले ही उसमें उत्कृष्टता न हो, सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उसका मूल्य निस्सन्देह बहुत अधिक है।

कुछ रचनाएँ

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ||

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ||

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क़ आं मेह |
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ||

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, ग़रीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

प्रेम भटी का मदवा पिलाइके

मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ

बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा

अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

ख़ुसरो निजाम के बल बल जाए

मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

ख़ुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार, जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.

सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन, पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन.