अहल्या

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अहल्या / Ahalya

गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ तप करते थे। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में इंद्र ने मुनिवेश में आकर अहल्या से संभोग की इच्छा प्रकट की। अहल्या यह जानकर कि इंद्र स्वयं आए हैं और उसे चाहते हैं- इस अधम कार्य के लिए उद्यत हो गयी। जब इंद्र लौट रहे थे तब गौतम वहां पहुंचे। गौतम के शाप से इंद्र के अंडकोश नष्ट हो गये और अहल्या अपना शरीर त्याग, केवल हवा पीती हुई सब प्राणियों से अदृश्य होकर कई हज़ार वर्ष के लिए उसी आश्रम में राख के ढेर पर लेट गयी। गौतम ने कहा कि इस स्थिति से उसे मोक्ष तभी मिलेगा जब दाशरथी राम यहां आकर उसका आतिथ्य ग्रहण करेंगे। गौतम स्वयं हिमवान् के एक शिखर पर चले गये और तपस्या करने लगे।

इंद्र ने स्वर्ग में पहुंचकर समस्त देवताओं को यह बात बतायी, साथ ही यह भी कहा कि ऐसा अधम काम करके गौतम को श्राप देने के लिए बाध्य कर, इंद्र ने गौतम के तप को क्षीण कर दिया है। इंद्र का अंडकोष नष्ट हो गया था। अत: देवताओं ने मेष (भेड़ा) का अंडकोष इंद्र को प्रदान किया। तभी से इंद्र मेषवृण कहलाए तथा वृषहीन भेड़ा अर्पित करना पुष्कल-फलदायी माना जाने लगा। वनवास के दिनों में राम-लक्ष्मण ने, तपोबल से प्रकाशमान, आश्रम में अहल्या को ढूंढ़कर उसके चरण-स्पर्श किए। अहल्या उनका आतिथ्य-सत्कार कर शापमुक्त हो गयी तथा गौतम के साथ सानंद विहार करने लगी। [१]


ब्रह्मा ने एक अनुपम सुंदरी कन्या का निर्माण किया जिसे पोषण के लिए गौतम को दे दिया। उसके युवती होने पर गौतम निर्विकार भाव से उसे लेकर ब्रह्मा के पास पहुंचा। अनेक अन्य देवता भी उसे भार्या-रूप में प्राप्त करना चाहते थे। ब्रह्मा ने सबसे कहा कि पृथ्वी की दो बार परिक्रमा करके जो सबसे पहले आयेगा उसी को अहल्या दी जायेगी। सब देवता परिक्रमा के लिए चले गये और गौतम ने अर्धप्रसूता कामधेनु की दो प्रदक्षिणाएं कीं। उसका महत्त्व सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी की प्रदक्षिणा के समान ही माना जाता है। ब्रह्मा ने अहल्या से उसका विवाह कर दिया। एक दिन इंद्र गौतम का रूप धारण् कर उसके अंत:पुर में पहुंच गया। अहल्या तथा अन्य रक्षक उसे गौतम ही समझते रहे, तभी गौतम और उनके शिष्य वहां पहुंचे। गौतम ने रूष्ट होकर अहल्या को सूखी नदी होने का शाप दिया, साथ ही कहा कि गौतमी से मिल जाने पर वह पूर्ववत् हो जायेगी। इंद्र को भी पाप शमन के निमित्त गौतमी में स्नान करना पड़ा। 'गौतमी-स्नान' के उपरांत वह सहस्त्राक्ष हो गया। [२]

टीका-टिप्पणी

  1. बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, सर्ग 48-4-33, 49-1.24
  2. ब्रह्म पुराण, 87