कालिदास

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कालिदास

महाकवि कालिदास कब हुए और कितने हुए इस पर विवाद होता रहा है। विद्वानों के अनेक मत हैं। 150 वर्ष ई पू से 450 ईसवी तक कालिदास हुए होंगे ऐसा माना जाता है। नये अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि इनका काल गुप्त काल रहा होगा।


कालिदास द्वारा शूरसेन जनपद का वर्णन

महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन माने जाते हैं। रधुवंश में कालिदास ने शूरसेन जनपद, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन तथा यमुना का उल्लेख किया है इंदुमती के स्वयंवर में विभिन्न प्रदेशों से आये हुए राजाओं के साथ उन्होंने शूरसेन राज्य के अधिपति सुषेण का भी वर्णन किया है।[१] मगध, अंसु, अवंती, अनूप, कालिंग और अयोध्या के बड़े राजाओं के बीच शूरसेन-नरेश की गणना की गई है। कालिदास ने जिन विशेषणों का प्रयोग सुषेण के लिए किया है उन्हें देखने से ज्ञात होता है कि वह एक प्रतापी शासक था, जिसकी कीर्ति स्वर्ग के देवता भी गाते थे और जिसने अपने शुद्ध आचरण से माता-पिता दोनों के वशों को प्रकाशित कर दिया था। [२] इसके आगे सुषेण की विधिवत् यज्ञ करने वाला, शांत प्रकृति का शासक बताया गया है, जिसके तेज से शत्रु लोग घवड़ाते थे।

यहाँ मथुरा और यमुना की चर्चा करते हुए कालिदास ने लिखा है कि जब राजा सुषेण अपनी प्रेयसियों के साथ मथुरा में यमुना-विहार करते थे तब यमुना-जल का कृष्णवर्ण गंगा का उज्जवल लहरों-सा प्रतीत होता था।[३] यहाँ मथुरा का उल्लेख करते समय संभवत: कालिदास को समय का ध्यान नहीं रहा। इंदुमती (जिसका विवाह अयोध्या-नरेश अज के साथ हुआ) के समय में मथुरा नगरी नहीं थी। वह तो अज की कई पीढ़ी बाद शत्रुघ्न के द्वारा बसाई गई । टीकाकार मल्लिनाथ के उक्त श्लोक की टीका करते समय ठीक ही इस संबंध में आपत्ति की है।[४] कालिदास ने अन्यत्र शत्रुध्न के द्वारा यमुना-तट पर भव्य मथुरा नगरी के निर्माण का कथन किया है ।[५] शत्रुध्न के पुत्रों शूरसेन और सुबाहु का क्रमश: मथुरा तथा विदिशा के अधिकारी होने का भी वर्णन रघुवंश में मिलता है।[६]

कालिदास द्वारा उल्लिखित शूरसेन के अधिपति सुषेण का नाम काल्पनिक प्रतीत होता है। पौराणिक सूचियों या शिलालेखों आदि में मथुरा के किसी सुषेण राजा का नाम नहीं मिलता। कालिदास ने उन्हें 'नीप-वंश' का कहा है।[७] परंतु यह बात ठीक नहीं जँचती। नीप दक्षिण पंचाल के एक राजा का नाम था, जो मथुरा के यादव-राजा भीम सात्वत के समकालीन थे। उनके वंशज नीपवंशी कहलाये।

कालिदास ने वृन्दावन और गोवर्धन का भी वर्णन किया है। वृन्दावन के वर्णन से ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में इस वन का सौंदर्य बहुत प्रसिद्ध था और यहाँ अनेक प्रकार के फूल वाले लता-वृक्ष विद्यमान थे।

कालिदास ने वृंदावन की उपमा कुबेर के चैत्ररथ नाम उद्यान से दी है। [८] गोवर्धन की शोभा का वर्णन करते हुए महाकवि कहते है-"हे इंदुमति, तुम गोवर्धन पर्वत के उन शिलातलों पर बैठा करना जो वर्षा के जल से धोये जाते है। तथा जिनसें शिलाजीत जैसी सुगंधि निकलती रहती है। वहाँ तुम गोवर्धन की रमणीक कन्दराओं में वर्षा ऋतु में मयूरों का नृत्य देखा करना।[९]

कालिदास के उपयुर्क्त वर्णनों से तत्कालीन शूरसेन जनपद की महत्वपूर्ण स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। आर्यावर्त के प्रसिद्ध राजवंशों के साथ उन्होंने शूर् सेन के अधिपति का उल्लेख किया है। 'सुषेण' नाम काल्पनिक होते हुए भी कहा जा सकता है कि शूरसेन-वंश की गौरवपूर्ण परंपरा ई० पाँचवी शती तक अक्षुण्ण थी। वृंदावन, गोवर्धन तथा यमुना संबंधी वर्णनों से ब्रज की तत्कालीन सुषमा भी का अनुमान लगाया जा सकता है।

कालिदास के नाटक `मालविकाग्निमित्र' से ज्ञात होता है कि सिंधु नदी के तट पर अग्निमित्र के लड़के वसुमित्र की मुठभेड़ यवनों से हुई और भीषण संग्राम के बाद यवनों की पराजय हुई। यवनों के इस आक्रमण का नेता सम्भवत: मिनेंडर था। इस राजा का नाम प्राचीन बौद्ध साहित्य में 'मिलिंद' मिलता है।

महान कवि और नाटककार

कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे । कालिदास नाम का शाब्दिक अर्थ है, " काली का सेवक"। कालिदास शिव के भक्त थे । उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की । कलिदास अपनी अलंकार युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं । उनके ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएं बेमिसाल । संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं । उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक सौन्दर्य के साथ साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है । उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि और व्यास की परम्परा में है । कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे । लेकिन कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे । कालिदास की शादी विद्योत्तमा नाम की राजकुमारी से हुई ।


  • संस्कृत साहित्य और भारतीय प्रतिभा के उज्ज्वल नक्षत्र । कालिदास के जीवनवृत्त के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ लोग उन्हें बंगाली मानते हैं। कुछ का कहना है, वे कश्मीरी थे। कुछ उन्हें उत्तर प्रदेश का भी बताते हैं। परंतु बहुसंख्यक विद्वानों की धारणा है कि वे मालवा के निवासी और उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य के नव-रत्नों में से एक थे। विक्रमादित्य का समय ईसा से 57 वर्ष पहले माना जाता है। जो विक्रमी संवत् का आरंभ भी है। इस वर्ष विक्रमादित्य ने भारत पर आक्रमण करनेवाले शकों को पराजित किया था।
  • कालिदास के संबंध में यह किंवदंती भी प्रचलित है कि वे पहले निपट मूर्ख थे। कुछ धूर्त पंडितों ने षड्यंत्र करके उनका विवाह विद्योत्तमा नाम की परम विदुषी से करा दिया। पता लगने पर विद्योत्तमा ने कालिदास को घर से निकाल दिया। इस पर दुखी कालिदास ने भगवती की आराधना की और समस्त विद्याओं का ज्ञान अर्जित कर लिया।

कालिदास रचित ग्रंथों की तालिका बहुत लंबी है। पर विद्वानों का मत है कि इस नाम के और भी कवि हुए हैं जिनकी ये रचनाएं हो सकती हैं। विक्रमादित्य के नवरत्न कालिदास की सात रचनाएं प्रसिद्ध है। इनमें से चार काव्य-ग्रंथ हैं- रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत और ऋतुसंहार। तीन नाटक हैं-अभिज्ञान शाकुंतलम्, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीय। इस रचनाओं के कारण कालिदास की गणना विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवियों और नाटककारों में होती है। उनकी रचनाओं का साहित्य के साथ-साथ ऐतिहासिक महत्व भी है। संस्कृत साहित्य के 6 काव्य ग्रंथों की गणना सर्वोपरि की जाती है। इनमें अकेले कालिदास के तीन ग्रंथ-रघुवंश, कुमारसंभव और मेघदूत है। ये 'लघुत्रयी' के नाम से भी जाने जाते हैं। शेष तीन में भारवि (किरातर्जुनीय), माघ (शिशुपाल वध) और श्रीहर्ष (नैषधीयचरित) की रचनाएं आती हैं।


रचनाएं

कालिदास की प्रमुख रचनाएं

नाटक:

  1. अभिज्ञान शाकुन्तलम्,
  2. विक्रमोवशीर्यम् और
  3. मालविकाग्निमित्रम्।

महाकाव्य:

  1. रघुवंशम् और
  2. कुमारसंभवम्

खण्डकाव्य:

  1. मेघदूतम् और
  2. ऋतुसंहार

टीका-टिप्पणी

  1. रघुवंश,सर्ग 6,45-51
  2. "सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकन्तरगीतकीर्तिम्।"
  3. "यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारि -विहारकाले ।"
  4. "कालिन्दीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्म्मास्यत इति वक्ष्यति तत्कथमधुना मथुरासम्भव, इति चिन्त्यम् ।"
  5. "उपकूलं स कालिन्द्याः पुरी पौरुषभूषणः ।
    निर्ममे निर्ममोसSर्थेषु मथुरां मधुराकृतिः ।।
    या सौराज्यप्रकाशाभिर्वभौ पौरविभूतिभिः ।
    स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशिता ।।" (रघु. 15,28-29)

  6. "शत्रुघातिनी शत्रुघ्न सुबाहौ च बहुश्रुते ।
    मथुराविदिशे सून्वोर्निदधे पूर्वजोत्सुकः ।।"(रघु. 15,36)
  7. रघुवंश, 6,46
  8. "संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तर पुष्पशय्ये ।
    वृन्दावने चैत्ररथादनूने निर्विश्यतां सुन्दरि यौवनश्रीः ।।" (रघु. 6,50)
  9. 'अध्यास्य चाम्भः पृषतोक्षितानि शैलेयगन्धीनि शिलातलानि ।
    कलापिनां प्रावृषि प्श्य नृत्यं कान्तासु गोवर्धनकन्दरासु ।।" (रघु., 6,51)