कालिय नाग

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कालियदह / Kaliydah

विभिन्न कथाएँ

  • कद्रु का पन्नग जाति का एक नागराज, जो पहले रमण द्वीप में रहता था। गरूड़ (सर्प जिसका भक्ष है) इसे न सताएं इसलिए कालिय प्रतिमास उसका भोजन भेज दिया करता था। एक बार वह स्वयं गरूड़ का भक्ष खा गया। इससे कुपित गरूड़ ने कालिय पर आक्रमण कर दिया। भयभीत कालिय नंदगांव के पास यमुना में जा छिपा। उसके विष से यमुना का जल जहरीला हो गया। उसे पीकर गाएं और गोप मरने लगे। एक बार जब खेलते समय गेंद यमुना में गिर जाने से कृष्ण उसे निकालने के लिए यमुना में कूदे तो वे कालिय के फण पर नाचने लगे। उन्होंने गरूड़ से निर्भयता का वरदान देकर कालिय को पुन: रमण द्वीप भेज दिया। यमुना का यह स्थान आज भी 'कालियदह' कहलाता है।
  • काली नाग के लिए 'नागराज' भी कहा जाता है। गरूड़ के भय से यह नागों के निवास-स्थान रमणक द्वीप से भागकर सौमरि मुनि के शाप से गरूड़संरक्षित ब्रजभूमि में एक दह में आकर रहने लगा था। इसी के नाम से 'ब्रज' में यमुना तट पर कालीदह नामक स्थान प्रसिद्ध है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसके वहाँ रहने से वह स्थान उजाड़-सा हो गया था। एक बार कृष्ण जब छोटे थे तो खेलते उस स्थान में पहुँचकर दह में गिर पड़े। कालिय ने अन्य नागों के साथ कृष्ण को घेर लिया। ब्रज के गोप-गोपियाँ, नन्द-यशोदा आदि इससे अत्यन्त चिन्तित हुए। अन्त में कृष्ण ने इसे अपने वश में कर लिया तथा इसके फन पर खड़े होकर नृत्य किया। ब्रज-मण्डल में ऐसी प्रसिद्धि है कि कृष्ण के उस समय के अंकित पद-चिन्ह आज तक काले नागों में देखें जा सकते हैं। कृष्ण ने कालियनाग को पुन: अपने समूह के साथ रमणीक द्वीप में जाकर रहने की आज्ञा दे दी थी। गरूड़ ने उस पर कृष्ण के पदाचिन्ह अंकित देखकर उसे क्षमा कर दिया। हिन्दी कृष्ण-भक्त कवियों में सूरदास, ब्रजवासीदास (ब्रजविलास) तथा भागवत के भावानुवादों आदि में कालीदमन की कथा आयी है। भक्तकवियों ने कालियनाग को कृष्ण का भक्त एवं कृपाभागी के रूप में चित्रित किया है।
  • इसका वर्तमान नाम कालियदह है। श्रीकृष्ण ने कालिय नाग का यहीं दमन किया था। पास में ही केलि-कदम्ब है, जिसपर चढ़कर श्रीकृष्ण कालीयह्रद में बड़े वेग से कूदे थे। कालिय नाग के विष से आस-पास के वृक्ष-लता सभी जलकर भस्म हो गये थे। केवल यही एक केलि–कदम्ब बच गया था। इसका कारण यह है कि महापराक्रमी गरूड़ अपनी माता विनता को अपनी विमाता कद्रू के दासीपन से मुक्त कराने के लिए देवलोक से अमृत का कलश लेकर इस केलि-कदम्ब के ऊपर कुछ देर के लिए बैठे थे। उसके गंध या छींटे के प्रभाव से यह केलि-कदम्ब बच रहा था।
  • कालिय नाग भी बड़ा पराक्रमी था। जब उसने कृष्ण को अपने फेंटे में बाँध लिया, उस समय कृष्ण कुछ असहाय एवं निश्चेष्ट हो गये। उस समय नागपत्नियाँ, जो कृष्ण की परम भक्त थीं, प्रार्थना करने लगीं कि भगवद विरोधी पति की स्त्री होने के बदले हम विधवा होना ही अधिक पसन्द करती हैं। किन्तु, ज्योंही कृष्ण नाग के फेंटे से निकल कर उसके मस्तक पर पदाघात करते हुए नृत्य करने लगे, उस समय कालिय अपने सहस्त्रों मुखों से रक्त उगलते हुए भगवान के शरणागत हो गया। उस समय नाग-पत्नियाँ उसके शरणागत भाव से अवगत होकर, हाथ जोड़कर कृष्ण से उसे जीवन-दान के लिए प्रार्थना करने लगीं। श्रीकृष्ण ने उनकी स्तव-स्तुति से प्रसन्न होकर कालिय नाग को अभय प्रदान कर सपरिवार रमणक द्वीप में जाने के लिए आदेश दिया तथा उसे अभय देते हुए बोले-अब तुम्हें गरूड़जी का भय नहीं रहेगा। वे तुम्हारे फणों पर मेरे चरणचिह्न को देखकर तुम्हारे प्रति शत्रुता भूल जायेंगे। नाग-पत्नियों ने यह प्रार्थना की थी- हे देव ! आपके जिस पदरज की प्राप्ति के लिए श्री लक्ष्मीदेवी ने अपनी सारी अन्य अभिलाषाओं को छोड़कर चिरकाल तक व्रत धारण करती हुई तपस्या की थी, किन्तु वे विफल-मनोरथ हुई, उसी दुर्लभ चरणरेणु को कालिया नाग न जाने किस पुण्य के प्रभाव से प्राप्त करने का अधिकारी हुआ है।

कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे

तवाडिघ्ररेणुस्पर्शाधिकार: ।

यद्वाच्छया श्रीर्ललनाऽऽचरत्तपो

विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ (श्रीमद्भा0 10/16/36)

श्रीमद्भागवत के गौड़ीय टीकाकारों का यहाँ सुसिद्धान्तपूर्ण विचार है। कालिय पर भगवान की अहैतुकी कृपा का कारण और कुछ नहीं बल्कि कालिय नाग की पत्नियों की श्रीकृष्ण के प्रति अहैतुकी भक्ति ही है। क्योंकि भगवद-कृपा भक्त-कृपा की अनुगामिनी है।