कैकेयी

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कैकेयी / Kaikeyi

अयोध्या के महाराज दशरथ की पत्नी कैकेयी के चरित्र की कल्पना आदि कवि वाल्मीकि की कथागत शिल्पयोजना की कुशलता का प्रमाण है। यद्यपि पौराणिक एवं अन्य रामायणों के ऐतिहासिक साक्ष्यों से कैकेयी कैकयनरेश की पुत्री ठहरती हैं, किन्तु इसके लिए प्रमाणों का सर्वथा अभाव है। सम्पूर्ण राम कथा में कैकेयी की महत्ता का कारण उनकी वस्तुनिष्ठा है, आदर्शवादिता नहीं। उनका महत्त्व इस दृष्टि से नहीं है कि वे भरत सदृश आदर्शनिष्ठ पुत्र की माता हैं, अपितु इसलिए कि वे मुख्य कथा को अपने उद्देश्य तक पहुँचने के लिए एक अप्रत्याशित मोड़ देती हैं। वाल्मीकि रामायण में कैकेयी स्वाभिमानिनी, सौंदर्यवती एवं सांसारिक लिप्सा के प्रति आकर्षित रमणी के रूप में आती हैं। वाल्मीकि उन्हें प्रारम्भ से ही इस रूप में चित्रित करते हैं कि अपने स्वार्थपूर्ण अधिकार की प्राप्ति के लिए वे स्वभावत: राम को वन भेजने जैसा क्रूर कर्म करने में भी संकोच नहीं करतीं मन्थरा द्वारा प्रेरणा तथा उत्तेजना पाना वस्तुत: प्रासंगिक मात्र है। वस्तुस्थिति को समझकर वे सौभाग्यमद से गर्वित, क्रोधाग्नि से तिलमिलाती हुई कोप- भवन में प्रविष्ट हो जाती हैं सम्पूर्ण अयोध्या को शोक- संतप्त करने का कारण वनकर भी उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता और वे अन्त तक वस्तुनिष्ठ ही बनी रहती हैं। उनके चरित्र को वाल्मीकि ने नायक-विरोधी कथागत तत्त्वों से निर्मित किया है। कैकेयी के विवाह आदि के सम्बन्ध में वाल्मीकि रामायण के अनन्तर राम-कथाकाव्यों में कहीं-कहीं किंचित् भिन्नता मिलती है। 'पउम चरिउ' (पुष्पदत्त) में कैकेयी को ही 'अग्रमहिषी' कहा गया है। दशरथ की प्रथम विवाहित रानी वे ही थीं। 'दशरथ जातक' में कहा गया है कि दशरथ अपनी राजमहिषी की मृत्यु के अनन्तर दूसरी रानी से विवाह करते हैं, जिससे भरत का जन्म होता है। 'पद्म पुराण' में भरत की माता का नाम 'सुरूपा' मिलता है। वाल्मीकि रामायण की परम्परा में लिखे गये काव्यों और नाटकों में कैकेयी को राम-वनवास के लिए दोषी ठहराया गया है। उनके लिए असहिष्णु, कलंकिनी आदि न जाने कितने सम्बोधनों का प्रयोग करके उनकी निन्दा की गयी है। इसी दिशा में उनके कलंक को दूर करने के लिए 'अध्यात्म रामायण' में सम्भवत: सर्वप्रथम सरस्वती के प्रेरणा की कल्पना की गयी है। तुलसीदास उसी आदर्श को लेकर सम्पूर्ण रामायण में उनके चरित्र को कलुषित होने से बचाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु फिर भी तुलसी की दृष्टि में उनका चरित्र सम्पूर्णत: धुल नहीं पाता। उनके साथ कवि की सहानुभूति कभी नहीं जुड़ पाती। अत: अयोध्यावासियों के मुँह से उनके लिए 'पापिन' 'कलंकिनी' आदि अनेक सम्बोधनों का प्रयोग तो वे करवाते ही हैं, साथ ही स्वयं भी अवसर पाकर 'कुटिल' 'नीच' कहने में संकोच नहीं करते। तुलसी की कैकेयी अन्त तक एकान्त-नीरव, भयावह एंव ग्लानियुक्त ही बनी रहती है। कवि उन्हें पश्चात्ताप करने का अवसर भी नहीं देता। तुलसीदास के अनन्तर लिखे गये राम- साहित्य में कैकेयी के चरित्र-निर्माण की ओर कोई कवि सजग नहीं हो सका। आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त ने अपने 'साकेत' में जनजीवन की जागरण तथा युग-युग से पीड़ित भारतीय नारी के उत्थान की भावना से प्रेरित होकर कैकेयी के चिर-लांछित4, निन्दित और दु:खपर्यवसायी चरित्र को उज्जवल करने का प्रयत्न किया है। मैथिलीशरण गुप्त ने उनके निन्दित कार्य का कारण न तो दैवी प्रभाव बताया है और न मन्थरा अथवा स्वयं उसके प्रभाव की कुटिलता: वरन् उन्होंने कैकेयी को सरलस्वभाव, सहज वात्सल्यमयी, वाल्सल्य की साक्षात् प्रतिमा माता के रूप में चित्रित करते हुए दिखाया है कि जब उनके मन में यह सन्देह पैदा हो जाता है कि राज्याभिषेक के अवसर पर न बुलाने का कारण उनके चरित्र पर सन्देह करना है, तभी उनका आत्माभिमान जाग उठता है और वह आवेशयुक्त होकर सारा विवेक खो बैठती हैं। इस प्रकार मैथिलीशरण गुप्त की कैकेयी वाल्मीकि की कैकेयी की भाँति यथार्थवादी वस्तुनिष्ठ स्वभाव की नारी नहीं हैं, वरन् अत्यन्त भावनाशील, संवेदनशील और भावप्रवण नारी हैं, जिसका वात्सल्य उन्हें अन्धा और विवेकहीन बना देता है। चित्रकूट की सभा में उनके व्यक्तित्व की सराहनीय विशेषताओं का उद्घाटन होता है और उन्हें अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होता है और वे 'रघुकुल की अभागिन रानी' के रूप में अपना दोष भी स्वीकार करती हैं। वे क्षमा-याचना के ही सबल तर्को का प्रयोग नहीं करतीं, अपितु राम के पुन: प्रत्यागमन के लिए अपने अधिकार एवं विनय के प्रयोग से भी पीछे नहीं हटतीं। इस दृष्टि से कैकेयी के चरित्र का स्वाभाविक विकास 'साकेत' में उपलब्ध होता है। राम-काव्य के अन्य कवियों ने कैकेयी के चरित्र—चित्रण में किसी उल्लेखनीय विशेषता का संकेत नहीं किया है। (सहायक ग्रन्थ- रामकथा: डा0 कामिल बुल्के, हिन्दी परिषद्, विश्वविद्यालय, इलाहाबाद: तुलसीदास: डा0 माताप्रसाद गुप्त, हिन्दी परिषद् , विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।) --- यो0 प्र0 सिंह

भारतीय मिथक कोश कैकेयी— (पेज नं0-75 से 76 तक देखें) कैकेयी पुरातन काल की बात है, एक बार देवासुर संग्राम में इंद्र की सहायता के लिए दशरथ और कैकेयी गये। वैजयंत नामक नगर में संबर नाम से विख्यात, अनेक मायाओं का ज्ञाता तिमिध्वज रहता थां उसने इंद्र को युद्ध के लिए चुनौती दी थी। रात को सोये हुए घायल सैनिकों को बिछौनों से खींचकर दैत्य लोग मार डालते थे। भयंकर युद्ध करते हुए दशरथ भी घायल होकर अचेत हो गये। राजा के अचेत होने पर कैकेयी उन्हें रणक्षेत्र से बाहर ले आयी थी, अत: प्रसन्न होकर दशरथ ने दो वरदान देने का वादा किया था। राम के राज्याभिषेक के विषय में सुनकर, मंथरा की प्रेरणा से कैकेयी ने एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे से राम के लिए 14 वर्ष तक वनवास मांगा। राम को बुलाकर कैकेयी ने अपने दो वर मांगने की बात बतलायी। राम सहर्ष वनगमन की तैयारी में लग गये। बा0 रा0, अयोध्याकांड, सर्ग 9, श्लोक 11-66, सर्ग 10, 11, 12, 18, 19 उन्होंने अपना समस्त धन ब्राह्मण और निर्धन लोगों में बांट दिया तथा वनगमन के लिए उद्यत हुए। दशरथ ने उन्हें विदा करते हुए कहा कि मेरा समस्त कोष तथा सेना राम के साथ बन जायेगी। इस पर क्रुद्ध होकर कैकेयी ने कहा कि धनविहीन राज्य भरत नहीं लेंगे, अत: दशरथ को मन मारकर चुप रहना पड़ा। बा0 रा0, अयोध्या कांड, सर्ग 19-36 तक, अयोध्या की प्रजा राम को छोड़ने बहुत दूर तक गयी। सबसे पहला पड़ाव तमसा नदी के तट पर पड़ा। वहां जब सब लोग सो गए तब राम ने उन्हें सोता छोड़कर, सुमंत के रथ में सीता और लक्ष्मण समेत प्रस्थान किया। बा0 रा0, अयोध्याकांड सर्ग 46-48 कैकेयी दशरथ की पत्नी थी। उसके दो पुत्र हुए-भरत तथा शत्रुघ्न। अपने विवाह के समय स्वयंवर के शेष राजाओं से दशरथ का संग्राम हुआ था, जिसमें कैकेयी ने सारथी का कार्य किया था। अत: दशरथ ने उसे वर देने का निश्चय किया था। दशरथ राम को राज्य सौंपकर प्रव्रज्या लेना चाहते थे। भरत को भी विरक्ति का उद्बोधन हुआ, उस समय दशरथ से कैकेयी ने भरत के लिए राज्य मांगा। कैकेयी दुश्चिंता में थी कि पति भी जा रहे हैं और पुत्र भी प्रब्रज्या लेना चाहता है। फलत: राम-लक्ष्मण को बुलाकर दशरथ ने अपने पूर्वप्रदत्त वर के अनुसार भरत का राज्याभिषेक करने की सूचना दे दी। भरत को भी तैयार किया कि वह राज्य ग्रहण करे। राम तथा लक्ष्मण सीता सहित परिजनों से आज्ञा लेकर प्रवास पर चले गये। पउ0 च0, 31-32।-