कोकिलावन

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
Asha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ११:३९, ३१ जुलाई २००९ का अवतरण (नया पृष्ठ: {{menu}}<br /> {{वन}} श्रेणी:ब्रज के वन category:कोश श्रेणी:धार्मिक स्थल ==कोक...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ


<sidebar>

  • सुस्वागतम्
    • mainpage|मुखपृष्ठ
    • ब्लॉग-चिट्ठा-चौपाल|ब्लॉग-चौपाल
      विशेष:Contact|संपर्क
    • समस्त श्रेणियाँ|समस्त श्रेणियाँ
  • SEARCH
  • LANGUAGES

__NORICHEDITOR__

  • ब्रज के वन
    • कोटवन|कोटवन
    • काम्यवन|काम्यवन
    • कुमुदवन|कुमुदवन
    • कोकिलावन|कोकिलावन
    • खदिरवन|खदिरवन
    • तालवन|तालवन
    • बहुलावन|बहुलावन
    • बिहारवन|बिहारवन
    • बेलवन|बेलवन
    • भद्रवन|भद्रवन
    • भांडीरवन|भांडीरवन
    • मधुवन|मधुवन
    • महावन|महावन
    • लौहजंघवन|लौहजंघवन
    • वृन्दावन|वृन्दावन

</sidebar>

कोकिलावन / कोलवन /Kokilavan / Kolvan

नन्दगांव से तीन मील उत्तर और जावट ग्राम से एक मील पश्चिम में कोकिलावन स्थित है । यहाँ अभी भी इस सुरक्षित रमणीय वन में मयूर-मयूरी, शुक-सारी, हंस-सारस आदि विविध प्रकार के पक्षी मधुर स्वर से कलरव करते रहते हैं तथा हिरण, नीलगाय आदि पशु भी विचरते हैं । ब्रजवासी लोग झुण्ड के झुण्ड में अपनी गायों को चराते हैं । विशेषत: इस वन में सैकड़ो कोकिलें मीठे स्वर से कुहू-कुहू शब्द के द्वारा वन प्रान्त को गुंजार कर देती हैं । ब्रज के अधिकांश वन नष्ट हो जाने पर भी यह वन कुछ सुरक्षित है इस वन की प्रदक्षिणा पौने दो कोस की है । ब्रजभूक्ति विलास के अनुसार कोकिलावन में रत्नाकर सरोवर और रासमण्डल अवस्थित हैं ।

प्रसंग

एक समय महाकौतुकी श्रीकृष्ण राधिकाजी से मिलने के लिए बड़े उत्कण्ठित थे, किन्तु सास जटिला, ननद कुटिला और पति अभिमन्यु की बाधा के कारण वे इस संकेत स्थल पर नहीं आ सके । बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के पश्चात् कृष्ण वहाँ किसी ऊँचे वृक्ष पर चढ़ गये और कोयल के समान बारम्बार मधुर रूप से कुहकने लगे । इस अद्भुत कोकिल के मधुर और ऊँचे स्वर को सुनकर सखियां के साथ राधिका कृष्ण के संकेत को समझ गयीं और उनसे मिलने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो उठीं । उस समय जटिला ने विशाखा को सम्बोधित करते हुए कहा- विशाखे ! मैंने कोकिलों की मधुर कूक बहुत सुनी है, किन्तु आज तो यह कोयल अद्भुत कोयल है । यदि आदेश हो तो हम इस निराली कोकिल को देख आएँ । वृद्धा ने प्रसन्न होकर उन्हें जाने का आदेश दे दिया । सखियाँ बड़ी प्रसन्न हुईं और इस कोकिलवन में प्रवेश किया तथा यहाँ श्रीकृष्ण से मिलकर बड़ी प्रसन्न हुई । इसलिए इसे कोकिला वन कहते हैं । भक्तिरत्नाकर में इसका बड़ा ही सरस वर्णन है[१]

रत्नाकर कुण्ड

सखियों ने अपने-अपने घरों से दूध लाकर इस सरोवर को प्रकट किया था । इस सरोवर से नाना प्रकार के रत्न निकलते थे, जिससे सखियाँ राधिका जी का श्रृंगार करती थीं।[२] समस्त पापों को क्षय करने वाला तथा धन-धान्य प्रदान करने वाला यह सरोवर भक्तो को श्रीराधाकृष्ण युगल की अहैतुकी भक्ति रूप महारत्न प्रदान करने वाला है ।

रास मण्डल

श्रीकृष्ण ने यहाँ गोपियों के साथ रासलीला सम्पन्न की थी तथा रास की समाप्ति के पश्चात इस कुण्ड में परस्पर जल सिञ्चन आदि क्रीड़ाएँ की थीं ।

आँजनौक

यह अष्टसखियों में से एक विख्यात श्रीविशाखा सखी का निवास-स्थान है । इनके पिता का नाम श्रीपावनगोप और माता का नाम देवदानी गोपी है।[३] नन्दगाँव से पाँच मील पूर्व–दक्षिण कोण में यह अवस्थित है । यहाँ कौतुकी कृष्ण ने अपनी प्राणवल्लभा श्रीराधाजी के नेत्रों में अञ्जन लगाया था । इसलिए यह लीला-स्थली आँजनौक नाम से प्रसिद्ध है ।

प्रसंग

एक समय राधिका ललिता-विशाखादि सखियों के साथ किसी निर्जन कुञ्ज में बैठकर सखियों के द्वारा वेश-भूषा धारणकर रही थीं । सखियों ने नाना प्रकार के अलंकारों एवं आभूषणों से उन्हें अलंकृत किया । केवल नेत्रों में अञ्जन लगाने जा रही थीं कि उसी समय अचानक कृष्ण ने मधुर बंशी बजाई । कृष्ण की बंशी ध्वनि सुनते ही राधिका उन्मत्त होकर बिना अञ्जन लगाये ही प्राणवल्लभ से मिलने के लिए परम उत्कण्ठित होकर चल दीं । कृष्ण भी उनकी उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रहे थे । जब वे प्रियतम से मिलीं तो कृष्ण उन्हें पुष्प आसन पर बिठाकर तथा उनके गले में हाथ डालकर सतृष्ण नेत्रों से उनके अंग-प्रत्यंग की शोभा का निरीक्षण करने लगे । परन्तु उनके नेत्रों में अञ्जन न देखकर सखियों से इसका कारण पूछा । सखियों ने उत्तर दिया कि हम लोग इनका श्रृंगार कर रही थीं । प्राय: सभी श्रृंगार हो चुका था, केवल नेत्रों में अञ्जन लगाना बाकी था , किन्तु इसी बीच आपकी वंशी की मधुर ध्वनि सुनकर आप से मिलने के लिए अनुरोध करने पर भी बिना एक क्षण रूके चल पड़ीं, ऐसा सुनकर कृष्ण रसावेश में आकर स्वयं अपने हाथों से उनके नेत्रों में अञ्जन लगाकर दर्पण के द्वारा उनकी रूप माधुरी का उनको आस्वादन कराकर स्वयं भी आस्वादन करने लगे । इस लीला के कारण इस स्थान का नाम आँजनौक है यहाँ रासमण्डल है, जहाँ रासलीला हुई थी । गाँव के दक्षिण में किशोरी कुण्ड है। कुण्ड के पश्चिम तट पर अञ्जनी शिला है, जहाँ श्रीकृष्ण ने श्रीराधाजी को बैठाकर अञ्जन लगाया था । [४]

बिजवारी

नन्दगाँव से डेढ़ मील दक्षिण-पूर्व तथा खायरो गाँव से एक मील दक्षिण में यह गाँव स्थित है । इस स्थान का वर्तमान नाम बिजवारी है ।

प्रसंग

जब अक्रूरजी श्रीराम और कृष्ण दोनों भाईयों को मथुरा ले जा रहे थे, तब यहीं पर दोनों भाई रथ पर बैठे । उनके विरह में गोपियाँ व्याकुल होकर एक ही साथ हा प्राणनाथ ! ऐसा कहकर मूर्छित होकर भूतल पर गिर गई । उस समय सबको ऐसा प्रतीत हुआ, मानो आकाश से विद्युतपुञ्ज गिर रहा हो । विद्युतपुञ्ज का अपभ्रंश शब्द बिजवारी है अक्रूरजी दोनों भाईयों को लेकर बिजवारी से पिसाई, साहार तथा जैंत आदि गाँवों से होकर अक्रूर घाट पहुँचे और वहाँ स्नानकर मथुरा पहुँचे थे बिजवारी और नन्दगाँव के बीच में अक्रूर—स्थान है, जहाँ शिलाखण्ड के ऊपर श्रीकृष्ण के चरण चिह्न हैं ।

परसों

रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण ने गोपियों की विरह दशा से व्याकुल होकर उनको यह संदेश भेजा कि मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि परसों यहाँ अवश्य ही लौट आऊँगा । तब से इस गाँव का नाम परसों हो गया । गोवर्धन-बरसाने के रास्ते में यह गाँव स्थित है। सी और परसों दोनों गाँव पास-पास में हैं । 'शीघ्र ही आऊँगा' बार-बार कहा था । इस शीघ्र शब्द से ही इस लीला-स्थली का नाम 'सी' पड़ा है । [५]

कामई

यह अष्टसखियों में प्रमुख सखी विशाखाजी जन्म स्थान है । यह गाँव बरसाना से पाँच मील तथा उमराव गाँव से साढ़े चार मील दक्षिण-पश्चिम में अवस्थित है । कामई के दक्षिण में सी और परसों गाँव हैं ।

करेहला

यह ललिताजी का जन्मस्थान है । करहाला गोपी के पुत्र गोवर्धन मल्ल अपनी पत्नी चन्द्रावली के साथ यहाँ कभी-कभी रहता था । कभी-कभी सखीथरा (सखी-स्थली गोवर्धन के निकट) में रहता था । चन्द्रावली के पिता का नाम चन्द्रभानु गोप और माता का नाम इन्दुमती गोपी था । चन्द्रावली जी राधिका की ज्येष्ठी बहन हैं । वृषभानु महाराज पाँच भाई थे । -वृषभानु, चन्द्रभानु रत्नभानु, सुभानु और श्रीभानु । वृषभानुजी सबसे बड़े थे । राधिका इन्हीं वृषभानुजी की कन्या होने के कारण राधिका और चन्द्रावली दोनों बहनें लगतीं थीं । पद्मा आदि यूथेश्वरियाँ इस स्थान पर रहकर चन्द्रावली से कृष्ण का मिलन कराने के लिए प्रयत्न करती थीं यहाँ कंकण कुण्ड, कदम्ब खण्डी, झूला, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीविट्ठलेश तथा श्रीगोकुलनाथजी की बैठकें है। । यह स्थान कामई से एक मील उत्तर में हैं । भाद्रपूर्णिमा तिथि में बूढ़ीलीला प्रसंग में यहाँ रासलीला होती है ।

लुधौली

यह पीसाई गाँव से आधा मील पश्चिम में है यहाँ पर ललिताजी ने श्रीराधा कृष्ण दोनों का मिलन कराया था । दोनों परस्पर मिलकर यहाँ अत्यन्त लुब्ध हो गये थे । लुब्ध होने के कारण इस स्थान का नाम लुधौली पड़ा । गाँव के बाहर उत्तर में ललिताकुण्ड है, जहाँ दोनों का मिलन हुआ था । कुण्ड के पूर्वी तट पर ललितबिहारी जी का दर्शन है ।

पीसाई

गोचारण के समय कृष्ण को प्यास लगने पर बलदेव जी ने जल लाकर उनको पिलाया था इसीलिए इस गाँव का नाम प्यासाई अर्थात् प्यास आई पड़ा है । यहाँ तृष्णा कुण्ड और विशाखा कुण्ड हैं । गाँव के पास ही उत्तर-पश्चिम में मनोहर कदम्ब खण्डी हैं । यह गाँव करेहला से डेढ़ मील उत्तर में स्थित है ।

सहार

यह नन्दजी के सबसे बड़े भाई उपानन्दजी का निवास स्थान है । ये परमबुद्धिमान और सब प्रकार से महाराज नन्द के परामर्शदाता थे । ये नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे इन्हीं उपानन्द के पुत्र सुभद्र थे, जिन्हें श्रीकृष्ण अपने सहोदर ज्येष्ठ भ्राता के समान आदर करते थे सुभद्रा सखा ज्योतिष आदि समस्त कलाओं में पारदर्शी और कृष्ण के प्रति अत्यन्त स्नेहशील थे । ये गोचारण के समय सब प्रकार की विपदाओं से कृष्ण की रक्षा करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते थे इन्हीं सुभद्र की पत्नी का नाम कुन्दलता है कृष्ण उनके जीवन सर्वस्य थे । ये बड़ी परिहासप्रिया थीं तथा राधाकृष्ण का परस्पर मिलन कराने में अत्यन्त पटु थीं । यशोदा के आदेश से ये श्रीमती राधिका को जावट से रंधन कार्य के लिए अपने साथ लाती थीं ।

साँखी

यह लीलास्थान नरी से एक मील पश्चिम तथा सहार से दो मील उत्तर में है । यहीं पर श्रीकृष्ण ने शंखचूड़ा का बधकर उसके मस्तक से मणि निकाल कर श्रीबलदेवजी को दी थी ।

प्रसंग

एक दिन गोवर्धन की तलहटी में राधाकुण्ड के निकट सखा मण्डली के साथ कृष्ण तथा सखीमण्डली के साथ राधाजी परस्पर रंगीली होली खेलने में व्यस्त थीं । उसी समय शंखचूड़ नामक असुर गोपियों के पकड़कर ले भागा । श्रीकृष्ण और बलदेव ने शाल के वृक्षों को हाथ में लेकर उसे मारने के लिए पीछा किया । इन दोनों का प्रचण्ड वेग से आते हुए देखकर वह गोपियों को छोड़कर अकेले ही बड़े वेग से भागा, किन्तु कृष्ण ने दाऊ भैया को गोपियों की रक्षा के लिए वहाँ रखकर अकेले ही उसका पीछा किया तथा यहाँ आने पर शंखचूड़ का बंधकर उसके मस्तक से मणि निकाल ली । उन्होंने वह मणि बलदेवजी को दे दी । बलदेवजी ने उस मणि को धनिष्ठा के माध्यम से राधिका के पास भिजवा दिया । राधिकाजी ने उसे बड़े आदर के साथ ग्रहण कर लिया । इसके पास ही रामकुण्ड है । जिसको रामतला भी कहते हैं ।

छत्रवन(छाता)

मथुरा दिल्ली राजमार्ग पर मथुरा से लगभग 20 मील उत्तर-पश्चिम तथा पयगाँव से चार मील दक्षिण-पश्चिम में अवस्थित है । छत्रवन का वर्तमान नाम छाता है । गाँव के उत्तर-पूर्व कोने में सूर्यकुण्ड, दक्षिण-पश्चिम कोण में चन्द्रकुण्ड स्थित है । चन्द्रकुण्ड के तट पर दाऊजी का मन्दिर विराजमान है । यहीं पर श्रीदाम आदि सखाओं ने श्रीकृष्ण को सिंहासन पर बैठाकर ब्रज का छत्रपति महाराजा बनाकर एक अभूतपूर्व लीला अभिनय का कौतुक रचा था । श्रीबलरामजी कृष्ण के बाएं बैठकर मंत्री का कार्य करने लगे । श्रीदाम ने कृष्ण के सिर के ऊपर छत्र धारण किया, अर्जुन चामर ढुलाने लगे, मधुमंगल सामने बैठकर विदूषक का कार्य करने लगे, सुबल ताम्बूल बीटिका देने लगे तथा सुबाहु और विशाल आदि कुछ सखा प्रजा का अभिनय करने लगे । छत्रपति महाराज कृष्ण ने मधुमंगल के माध्यम से सर्वत्र घोषणा करवा दी कि-महाराज छत्रपति नन्दकुमार- यहाँ के एकछत्र राजा हैं । यहाँ अन्य किसी का अधिकार नहीं हैं। गोपियाँ प्रतिदिन मेरे इस बाग को नष्ट करती हैं, अत: वे सभी दण्डनीय हैं । इस प्रकार श्रीकृष्ण ने सखाओं के साथ यह अभिनय लीला कौतुकी क्रीड़ा की थीं । इसलिए इस गाँव का नाम छत्रवन या छाता हुआ ।

उमराओ

छत्रवन से लगभग चार-पाँच मील पूर्व दिशा में उमराओ गाँव अवस्थित है । श्रीकृष्ण की दूहाई सुनकर सखियों ने ललिता के पास कृष्ण के विरूद्ध शिकायत की । [६]ललिताजी ने क्रोधित होकर कहा ऐसा कौन है ? जो राधिका के राज्य को अपने अधिकार में कर सकता है । हम इसका प्रतिकार करेंगी । ऐसा कहकर राधिकाजी को एक सुन्दर सिंहासन पर पधराकर उमराव होने की घोषणा की । उमराओ का तात्पर्य राज्य के अधिपति से है । चित्रा सखी ने उनके सिर पर छत्र धारण किया, विशाखा चामर ढुलाने लगी ललिताजी राधिका के बाँए बैठकर मंत्री का कार्य करने लगी । कोई सखी उन्हें पान का बीड़ा देने लगी तथा अवशिष्ट सखियाँ प्रजा का अभिनय करने लगीं । राधिकाजी ने सिंहासन पर बैठकर सखियों को आदेश दिया- जाओ, जो मेरे राज्य पर अधिकार करना चाहता है, उसे पराजित कर तथा बाँधकर मेरे सामने उपस्थित करो ।<ref>मोर राज्य अधिकार करे येई जन । पराभव करि तारे आन एई क्षण ।। (भक्तिरत्नाकर)<ref> उमराव का आदेश पाकर सहस्त्र-सहस्त्र सखियों ने हाथों में पुष्प छड़ी लेकर युद्ध के लिए यात्रा की । अर्जुन, लवंग, भृग्ङ, कोकिल, सुबल और मधुमग्ङल उन्हें देखकर इधर-उधर भागने लगे, परन्तु किसी चतुर सखी ने मधुमग्ङल को पकड़ लिया और उसे पुष्प माला द्वारा बाँधकर उमराव के चरणों में उपस्थित किया तथा कुछ गोपियाँ मधुमग्ङल को दो- चार गंल्चे भी जड़कर बोलीं- हमारे उमराव के राज्य पर अधिकार करने का इतना साहस ? अभी हम तुम्हें दण्ड देती हैं । मधुमग्ङल पराजित सेनापति की भाँति सिर नीचे कर कहने लगा- ठीक है ! हम पराजित हैं, किन्तु दण्ड ऐसा दो कि हमारा पेट भरे। ऐसा सुनकर महारानी राधिका हँसकर बोली- यह कोई पेटू ब्राह्मण है, इसे मुक्त कर दो । सखियों ने उसे पेटभर लड्डू खिलाकर छोड़ दिया । मधुमग्ङल लौटकर छत्रपति महाराजा कृष्ण को अपने बँध जाने का विवरण सुनाकर रोने का अभिनय करने लगा । ऐसा सुनकर कृष्ण ने मधुमग्ङल और सखाओं को लेकर उमराओ के ऊपर आक्रमण कर दिया । जब श्रीमती राधिका ने अपने प्राण वल्लभ श्रीकृष्ण को देखा तब बड़ी लज्जित होकर अपने उमराव वेश को दूर करने के लिए चेष्टा करने लगीं । सखियाँ हँसती हुई उन्हें ऐसा करने से रोकने लगीं । मधुमग्ङल ने छत्रपति बने हुए श्रीकृष्ण को उमराव राधिका के दक्षिण में बैठा दिया । दोनों में संधि हुई तथा कृष्ण ने राधिकाजी का आधिपत्य स्वीकार किया । मधुमग्ङल ने श्रीमती राधिका के प्रति हाथ जोड़कर कहा- कृष्ण का अंगरूपी राज्य अब तुम्हारे अधिकार में हैं । अब जो चाहो इनसे भेंट ग्रहण कर सकती हो। सारी सखियाँ और सखा इस अभिनय क्रीड़ा-विलास को देखकर बड़े आनन्दित हुय । उमराव लीला के कारण इस गाँव का नाम उमराओ है । यह स्थान राधास्थली के रूप में भी प्रसिद्ध है । तत्पश्चात् पूर्णमासीजी ने यहाँ पर राधिका को ब्रजेश्वरी के रूप में अभिषिक्त किया । यहाँ किशोरी कुण्ड भी है । श्रीलोकनाथ गोस्वामी यहीं पर भजन करते थे । किशोरी कुण्ड से ही श्रीराधाविनोद-विग्रह प्रकट हुए थे । ये श्रीराधाविनोद जी ही लोकनाथ गोस्वामी आराध्यदेव हैं । अब यह श्रीविग्रह जयपुर में विराजमान हैं ।

धनशिंगा

उमराओ गाँव के पास ही धनशिंगा गाँव है । धनशिंगा धनिष्ठा सखी का गाँव है । धनिष्ठाजी कृष्ण पक्षीय सखी है । ये सदैव यशोदाजी के घर में विविध प्रकार सेवाओं में नियुक्त करती है। । विशेषत: दूती का कार्य करती हुई कृष्ण से राधिकाजी को मिलाती है । कोसी या कुशस्थली- मथुरा-दिल्ली राजमार्ग पर, मथुरा से लगभग 38 मील और छत्रवन से लगभग 10 मील की दूरी पर यह स्थित है । यहाँ कृष्ण ने नन्दबाबा को कुशस्थली का (द्वारका धाम)दर्शन कराया था । जहाँ द्वारकाधाम का दर्शन कराया था, वहाँ गोमती कुण्ड है, जो गाँव के पश्चिम में विराजमान है । यहाँ किसी समय श्रीमती राधिका ने विशेष भग्ङि के द्वारा कृष्ण से पूछा था- कोऽसि ? तुम कौन हो ? इसीलिए इस स्थान का नाम कोऽसिकोसीवन है । प्रसग्ङ- किसी समय श्रीकृष्ण श्रीमती राधिका से मिलने के लिए बड़े उत्कण्ठित होकर श्रीमती राधिका के भवन के कपाट को खट-खटा रहे थे । भीतर से श्रीमती राधिका ने पूछा-कोऽसि ? श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया –मैं कृष्ण हूँ । राधिका- (कृष्ण शब्द का एक अर्थ काला नाग भी होता है ) यदि तुम कृष्ण अर्थात् काले नाग हो तो तुम्हारी यहाँ क्या आवश्यकता है ? क्या मुझे डँसना चाहते हो? तुम वन में जाओ । यहाँ तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं । श्रीकृष्ण-नहीं प्रियतमे ! मैं घनश्याम हूँ । राधिका- (घनश्याम अर्थ काला बादल ग्रहणकर )यदि तुम घनश्याम हो तो तुम्हारी यहाँ आवश्यकता नहीं है । यहाँ बरस कर मेरे आगंन में कीचड़ मत करो । तुम वन और खेतों में जाकर वहीं बरसो । श्रीकृष्ण- प्रियतमे ! मैं चक्री हूँ । राधिका- (चक्री शब्द का अर्थ कुलाल अथवा मिट्टी के बर्तन बनाने वाला कोई विवाह उत्सव नहीं है । जहाँ विवाह-उत्सव इत्यादि हों वहाँ तुम अपने मिट्टी के बर्तनों को लेकर जाओ । श्रीकृष्ण- प्रियतमे ! मैं मधुसूदन हूँ । राधिका- (मधुसूदन का दूसरा अर्थ भ्रमर ग्रहणकर) यदि तुम मधुसूदन (भ्रमर) हो तो शीघ्र ही यहाँ से दूर कहीं पुष्पोद्यान में पुष्पों के ऊपर बैठकर उनका रसपान करो । यहाँ पर पुष्पाद्यान नहीं है । श्रीकृष्ण-अरे ! मैं तुम्हारा प्रियतम हरि हूँ । राधिका ने हँसकर कहा- (हरि शब्द का अर्थ बन्दर या सिंह ग्रहणकर) यहाँ बन्दरों और सिंहों की क्या आवश्यकता है ? क्या तुम मुझे नोचना चाहते हो ? तुम शीघ्र किसी गम्भीर वन में भाग जाओ । हम बन्दरों और सिंहों से डरती हैं । इस प्रकार श्रीमती राधिका प्रियतम हरि से नाना प्रकार का हास-परिहास करती हैं । वे हम पर प्रसन्न हों । इस हास-परिहास की लीलाभूमि को कोसी वन कहते हैं । रणवाड़ी-आरबाड़ी से एक मील उत्तर और छाता से तीन मील दक्षिण-पश्चिम में रणवाड़ी गाँव स्थित है । नन्दनन्दन श्रीकृष्ण साक्षात्-मन्मथ-मन्मथ हैं । श्रीमती राधिकाजी महाभाव की साक्षात् मूर्ति स्वरूपा है कृष्ण के काम को पूर्ण करना ही उनका कार्य है एक दूसरे को आनन्दित करने के लिए यहाँ दोनों विविध प्रकार की केलिद्वारा स्मरयुद्ध में संलग्न रहते हैं । रणवाड़ी का तात्पर्य स्मरविलास या विविध प्रकार के क्रीड़ाविलास के स्थान से है । प्रसग्ङ-आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले यहाँ कृष्ण दास नामक बंगाली बाबा भजन करते थे । एक समय इनके मन में भारत के तीर्थों का दर्शन करनेकी उत्कट अभिलाषा हुई । संयोगवश यहाँ के कोई ब्राह्मण द्वारका जा रहे थे उन्होंने कृष्णदास बाबा से अपने साथ चलने के लिए आग्रह किया । इनके मन में पहले से ही कुछ ऐसी ही लालसा थी, अत: ये भी द्वारका जाने के लिए प्रस्तुत हो गये । दोनों बहुत-से तीर्थों का दर्शन करते हुए अंत में द्वारका धाम पहुँचे । द्वारका में प्रवेश करने के लिए तप्तमुद्र-(तपाये हुए चक्र का चह्न) धारण करना पड़ता है । कृष्णदास बाबाजी ने भी तप्तमुद्रा धारण कर ली । फिर अन्यान्य तीर्थों का भ्रमण करते हुए रणबाड़ी में लौटे, किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि अब उनका मन भजन में आविष्ट नहीं हो रहा था । चेष्टा करने पर भी अष्टकालीय लीलाओं का स्मरण नहीं हो पाता वे बड़े व्याकुल हो गये । वे राधाकुण्ड पर स्थित अपने मित्र सिद्ध कृष्णदास बाबाजी के पास इसका कारण जानने के लिए गये, किन्तु सिद्ध बाबाजी ने उनको देखकर अपना मुख फेर लिया और बोले आप श्रीमती राधिका की कृपा से वंचित हो गये हैं । आपने उनका एकान्तिक आनुगत्य छोड़कर द्वारका की तप्तमुद्रा धारण की है । इसका तात्पर्य यह है कि आपने श्रीरूक्मिणी, सत्यभामा आदि द्वारका की महिषियों का आनुगत्य स्वीकार कर लिया है । अत: इस शरीर में श्रीमती राधिका कृपा असम्भव है । आप यहाँ से तुरन्त चले जाइए । अन्यथा श्रीमती राधिका की कृपा से मुझे भी वञ्चित होना होगा । हताश होकर ये रणबाड़ी लौट आये । अपनी भजनकुटी का कपाट बंदकर लिया तथा अन्न-जल का त्याग कर दिया । विरहाग्नि से इनके शरीर में दाह उत्पन्न हुआ । भीतर की अग्नि फूट पड़ी तथा तीन दिनों में उनकी पार्थिव देह भस्मीभूत हो गई गाँव के लोगों ने तीन दिनों के बाद भजनकुटी का कपाट तोड़ दिया । उन्होंने बाबाजी को नहीं, बल्कि उनके भस्म को ही देखा सभी लोग ठगे-से रह गये । तब से प्रतिवर्ष पौष मास की अमावस्या के दिन यहाँ के ब्रजवासी इनका तिरोभाव उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाते है । नरीसेमरी- इसका शुद्ध एवं पूर्व नाम किन्नरी श्यामरी है । छाता से चार मील दक्षिण-पूर्व में सेमरी गाँव स्थित हैं । समेरी के पास ही दक्षिण दिशा में एक मील दूर नरी गाँव है । सेमरी गाँव में यूथेश्वरी श्यामला सखी का निवास था । प्रसग्ङ- किसी समय मानिनी श्रीराधिका का मान भग्ङ नहीं हो रहा था । ललिता, विशाखादि सखियों ने भी बहुत चेष्टाएँ कीं, किन्तु मान और भी अधिक बढ़ता गया । अन्त में सखियां के परामर्श से श्रीकृष्ण श्यामरी सखी बनकर वीणा बजाते हुए यहाँ आये । श्रीमती राधिका श्यामरी सखी का अद्भुत रूप तथा वीणा की स्वर लहरियों पर उतराव और चढ़ाव के साथ मूर्छना आदि रागों से अलंकृत संगीत को सुनकर ठगी-सी रह गई । उन्होंने पूछा-सखि ! तुम्हारा नाम क्या है ? और तुम्हारा निवास-स्थान कहाँ हैं । ? सखी बने हुए कृष्ण ने उत्तर दिया- मेरा नाम श्यामरी है । मैं स्वर्ग की किन्नरी हूँ । श्रीमती राधिका श्यामरी किन्नरी का वीणावाद्य एवचं सुललित संगीत सुनकर अत्यन्त विह्वल हो गईं और अपने गले से रत्नों का हार श्यामरी किन्नरी के गले अर्पण करने के लिए प्रस्तुत हुई, किन्तु श्यामरी किन्नरी ने हाथ जोड़कर उनके श्रीचरणों में निवदेन किया कि आप कृपाकर अपना मान रूपी रत्न मुझे प्रदान करें । इतना सुनते ही श्रीमती राधिकाजी समझ गई कि ये मेरे प्रियतम ही मुझसे मान रत्न मांग रहे हैं । फिर तो प्रसन्न होकर उनसे मिलीं । सखियाँ भी उनका परस्पर मिलन कराकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । इस मधुर लीला के कारण ही इस स्थान का नाम किन्नरी से नरी तथा श्यामरी से सेमरी हो गया है । वृन्दावनलीलमृत के अनुसार हरि शब्द के अपभ्रंश क रूप में इस गाँव का नाम नरी हुआ है । दूसरा प्रसग्ङ- जिस समय कृष्ण-बलदेव ब्रज छोड़कर मथुरा के लिए प्रस्थान करने लगे, अक्रूर ने उन दोनों को रथ पर चढ़ाकर बड़ी शीघ्रता से मथुरा की ओर रथ को हाँक दिया । गोपियाँ खड़ी हो गई और एकटक से रथ की ओर देखने लगी । किन्तु धीर-धीरे रथ आँखों से ओझल हो गया, धीरे-धीरे उड़ती हुई धूल भी शान्त हो गई । तब वे हा हरि ! हा हरि! कहती हुई पछाड़ खाकर धरती पर गिर पड़ी । इस लीला की स्मृति की रक्षा के लिए महाराज वज्रनाभ ने वहाँ जो गाँव बैठाया, वह गाँव ब्रज में हरि नाम से प्रसिद्ध हुआ । धीरे-धीरे हरि शब्द का ही अपभ्रंश नरी हो गया । नरी गाँव में किशोरी कुण्ड, सक्ङर्षण कुण्ड और श्रीबलदेवजी का दर्शन है । खदीरवन(खायरो)- इसका वर्तमान नाम खायरो है । छाता से तीन मील दक्षिण तथा जावट से तीन मील दक्षिण पूर्व में खायरो ग्राम स्थित है । यह कृष्ण के गोचारण का स्थान है । यहाँ सग्ङम में कुण्ड है, जहाँ गोपियों के साथ कृष्ण का सग्ङम अर्थात् मिलन हुआ था । इसी के तट पर लोकनाथ गोस्वामी निर्जन स्थान में साधन-भजन करते थे । पास में ही कदम्बखण्डी है । यह परम मनोरम स्थल है । यहाँ कृष्ण एवं बलराम सखाओं के साथ तरह-तरह की बाल्य लीलाएँ करते थे खजूर पकने के समय कृष्ण सखाओं के साथ यहाँ गोचारण के लिए आते तथा पके हुए खजूरों को खाते थे । प्रसग्ङ- एक समय कंस का भेजा हुआ बकासुर बड़ी डीलडोल वाले बगले का रूप धारणकर कृष्ण को ग्रास करने के लिए यहाँ उपस्थित हुआ । उसने अपना एक निचला चोंच पृथ्वी में तथा ऊपर का चोंच आकाश तक फैला दिया तथा कृष्ण को ग्रास करने के लिए बड़ी तेजी से दौड़ा । उस समय उसकी भयंकर आकृति को देखकर समस्त सखालोग डरकर बड़े जोर से चिल्लाये 'खायो रे ! खायो रे ! किन्तु कृष्ण ने निर्भीकता से अपने एक पैर से उसकी निचली चोंच को और एक हाथ से ऊपरी चोंच को पकड़कर उसको घास फूस की भाँति चीर दिया । सखालोग बड़े उल्लासित हुए । 'खायो रे ! खायो रे !' इस लीला के कारण इस गाँव का नाम खायारे पड़ा है । यहाँ खरीद के पेड़ होने के कारण भी इस गाँव का नाम खदीर वन पड़ा है । खदीर (कत्था) पान का एक प्रकार का मसाला है । कृष्ण ने बकासुर को मारने के लिए खदेड़ा था । खदेड़ने के कारण भी इस गाँव का नाम खदेड़वन या खदीरवन है । बकथरा-जावट के पास खायरो और आँजनौक के बीच में यह गाँव स्थित है । यहाँ कृष्ण ने बकासुर को मारा था । इस गाँव का नाम चिल्ली भी है । बकासुर की चोंच को पकड़कर कृष्ण ने बीच से चीर दिया था । इसलिए इस गाँव का नाम चिल्ली भी है । नेओछाक-यहाँ गोचारण के समय सखाओं के साथ श्रीकृष्ण दोपहर में भोजन करते थे । माँ यशोदा कृष्ण- बलदेव के लिए और अन्यान्य माताएँ अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर का कलेवा भेजती थीं तथा कृष्ण बलराम क्रीड़ा-कौतुक, हास-परिहासपूर्वक उन्हें पाते थे । छाक शब्द का अर्थ कलेवा या भोजन सामग्री से है । नेओछाक का तात्पर्य है छाक लो । भण्डागोर- रणबाड़ी से दो मील उत्तर-पश्चिम में यह स्थान स्थित है । इसका वर्तमान नाम भादावली है यहाँ भी श्रीनन्दमहाराज का भण्डार गृह था । यह गोचारण का भी स्थान है । खाँपुर- भादावली से एक मील दक्षिण में यह स्थान स्थित है । रणबाड़ी में फाग(होली) खेलने के पश्चात् सखियों के साथ श्रीराधाकृष्ण ने विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों को खाया था । बैठान(बैठन)- कोकिलावन से ढाई मील उत्तर में बड़ी बैठन गाँव स्थित है । इससे आधा मील उत्तर में छोटी बैठन है । दोनों ग्राम पास-पास में है। यहाँ नन्दमहाराज उपानन्द आदि सभी वृद्धगोप एक साथ बैठकर श्रीकृष्ण बलराम के हित के लिए विविध प्रकार का परामर्श करते थे । परामर्श वाले स्थान को बैठक भी कहते हैं । कभी-कभी श्रीसनातन गोस्वामी लीला स्मृति के लिए कुछ दिन यहाँ रहकर भजन करते थे । ब्रजवासी उनके प्रीतियुक्त व्यवहार से मुग्ध होकर बड़े आग्रह से उन्हें कुछ उन और वहाँ रहने के लिए अनुरोध करने लगते । श्रील सनातन गोस्वामी उनके आग्रह से कुछ दिन और ठहर जाते । बड़ी बैठन के दक्षिण-पूर्व में कृष्णकुण्ड है, जो कृष्ण को अत्यन्त प्रिय है कृष्ण सखाओं के साथ इसमें स्नान और जल क्रीड़ाएँ करते थे । छोटी बैठन में कुन्तल कुण्ड है, जहाँ सखालोग कृष्ण का श्रृंगार करते थे बड़ी बैठन में दाऊजी कामन्दिर और छोटी में साक्षीगोपालजी का मन्दिर है । बड़ोखोर- पूर्व नाम बड़ो खोर है । यह बैठन ग्राम से पश्चिम में है । यहाँ राधाकृष्ण दोनों से कुञ्ज द्वार रूद्धकर क्रीड़ा विलास किया था । यहाँ चरणगग्ङा और चरणपहाड़ी है । गाँव का वर्तमान नाम बैन्दोखर है । चरणपहाड़ी- छोटी बैठन से एक मील उत्तर में चरणपहाड़ी है । यहाँ गो, गोप, श्रीकृष्ण एवं बलदेव के चरण चिह्न हैं, इसलिए इसे चरणपहाड़ी कहते हैं । प्रसंग- एक समय श्रीकृष्ण सखामण्डली के साथ गोचारण करते हुए यहाँ उपस्थित हुए । गाएँ दूर घास चर रही थीं । सखालोग भी दूर थे कृष्ण को कौतुक सूझा । उन्होंने चरणपहाड़ी के ऊपर एक वृक्ष के नीचे त्रिभग्ङ ललित मुद्रा में खड़े होकर अपनी वंशी में ऐसा राग छेड़ दिया कि वंशीध्वनि को सुनकर पर्वत तक भी पिघल गया । ग्वालबाल और गऊओं की तो बात ही क्या, हिरण-हिरणियाँ तथा अन्य पशु-पक्षी भी आकृष्ट होकर कृष्ण की ओर भागे इसलिए यहाँ गोप, गोपी, हिरण एवं ऊँट आदि के भी चरणचिह्न अक्ङित हो गये ये सब चरणचिह्न एक ओर केवल आते समय के ही हैं, जाते समय के नहीं हैं, क्योंकि कृष्ण की वंशध्वनि बन्द होने पर पत्थरों के फिर जैसे के तैसे पूर्व स्थिति में हो जाने पर लौटते समय उनके चरणों के चिह्न अति नहीं हुए । कृष्ण की वंशीध्वनि के प्रभाव का स्मरणचिह्न आज भी यहाँ अक्ङित है । पास ही चरणगग्ङा है । जहाँ पर कृष्ण ने चरण धोये हैं । श्रीकृष्णेर पादपद्मचिह्न ए रहिल । एई हेतु चरण पहाड़ी नाम हईल ।।

       (भक्तिरत्नाकर)

रसौली- चरणपहाड़ी और कोटवन के बीच में रसौली गाँव है । यहाँ पर कृष्ण और गोपियां की प्रसिद्ध शारदीय रासलीला सम्पन्न हुई थी । कामर- यहाँ श्रीकृष्ण काम(प्रेम) में व्याकुल होकर श्रीमती राधिका के आगमन पथ की ओर निहार रहे थे काम में व्यस्त होने के कारण इस स्थान का नाम कामर हुआ है । इसमें गोपी कुण्ड, गोपी जलविहार, हरिकुण्ड, मोहन कुण्ड, मोहनजी का मन्दिर और दुर्वासाजी का मन्दिर है । प्रसग्ङ- एक समय श्रीकृष्ण श्रीमती राधिका से मिलने के लिए अत्यन्त विह्वल हो गये । वे श्रीमती राधिका के आगमन-मार्ग की ओर व्याकुल होकर बार-बार देखने लगे । अंत में उन्होंने अपनी मधुर मुरली में उनका नाम पुकारा, जिससे श्रीमती राधिका सखियों के साथ आकर्षित होकर चली आईं । कृष्ण बड़े आनन्द से उनसे मिले । गोपियों को एक कौतुक सूझा । उन्होंने प्रियतम की कारी कामर(कम्बल) चुपके से उठाकार छिपा दी । श्रीकृष्ण अपनी पिरय कामर खोजने लगे भक्त कविवर श्रीसूरदासजी ने इस झाँकी का सरस चित्रण किया है । कन्हैया मैया से उलाहना दे रहे हैं- मैया मेरी कामर चोर लई । मैं बन जात चरावन गैया सूनी देख लई ।। एक कहे कान्हा तेरी कामर जमुना जात बही । एक कहे कान्हा तेरी कामर सुरभि खाय गई ।। एक कहे नाचो मेरे आगे लै देहुँ जु नई । सूरदास जसुमति के आगे अँसुवन धार बही ।। -मैया री ! मैं गऊओं को चराने के लिए वन में गया था । गायों के बहुत दूर निकल जाने पर मैं भी अपनी कामर को वहीं छोड़कर उनके पीछे-पीछे मैं लौटा तो अपनी कामर न पाकर मैंने सखियों से पूछा- मेरी कामर कहाँ गई ? यदि तुम लोगों ने लिया है तो उसे लौटा दो, किन्तु वे कहती हैं –कन्हैया ! तेरी कामर तो जमुना में बहती हुई जा रही थीं । मैंने खुद ही उसे बहते हुए देखा है । दूसरी कहती है-कन्हैया ! मैंने देखा तेरी कामर को एक गईया खा गई । मैया ! बता भला गईया मेरी कामर कैसे खाय सके है । दूसरी कहती है-कन्हैया तू मेरे सामने नाचेगा, तो तुझे दूसरी नई कामर मँगा दूँगी । मैया ! ये सखियाँ मुझे नाना प्रकार से खिजाती हैं । ऐसा कहते-कहते कन्हैया के आँखों में आँसू उमड़ आये । मैरूज्ञ ने लाला को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया । कामर-कामर पुकारने से ही इस गाँव का नाम कामर पड़ा हे । कामर से तात्पर्य काले कम्बल से है । बासोसि- शेषशाई से दो मील उत्तर में बासोसि गाँव स्थित है । यहाँ पर श्रीकृष्ण के श्रीअग्ङ का सुन्दर सुगन्ध ग्रहणकर भँवरे उन्मत्त हो उठते थे तथा वे कृष्ण के चारों ओर उन्मत्त होकर गुञ्जार करने लगते थे । बास शब्द का अर्थ सुगन्ध से है। इसीलिए इस स्थान का नाम बासोसि हुआ । सखियों के साथ राधाकृष्ण यहाँ क्रीड़ा-विलास में उन्मत्त हो जाते थे । उनके श्रीअग्ङों की सुगन्ध से, फाग में उड़े अबीर, गुलाल, चन्दन आदि से वहाँ सर्वत्र सुगन्ध भर जाता था । पयगाँव- यह स्थान कोसी से छह मील पूर्व में है । यद्यपि माताएँ कृष्ण बलराम और अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर के लिए घर से छाक भेज देती थीं, फिर भी एक समय जब छाक मिलने में विलम्ब होने के कारण श्रीकृष्ण और सखाओं का बड़ी भूख लगी तो उन्होंने इस गाँव में जाकर पय अर्थात् दूध पान किया था, इसलिए यह गाँव पयगाँव के नाम से प्रसिद्ध हुआ । गाँव के उत्तर में पयसरोवर तथा कदम्ब और तमाल वृक्षों से सुसज्जित मनोहर कदम्बखण्डी है । कोटवन- कोसी तथा होडल के बीच में दिल्ली-मथुरा राजमार्ग के आसपास कोटवन है । इसका पूर्व नाम कोटरवन है । यह स्थान चरण पहाड़ी से चार मील उत्तर और कुछ पूर्व में है यहाँ शीतल कुण्ड है और सूर्यकुण्ड दर्शनीय है । यह कृष्ण के गोचारण और क्रीड़ा-विलास का स्थान है । शेषशाई- वासोली से डेढ़ मील दक्षिण तथा कुछ पूर्व दिशा में यक लीला स्थली विराजमान है । पास में ही क्षीरसागर ग्राम है । क्षीरसागर के पश्चिमी तट पर मन्दिर में भगवान् अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे हैं तथा लक्ष्मीजी उनकी चरण सेवा कर रही हैं । प्रसग्ङ-किसी समय कौतुकी कृष्ण श्रीमती राधिका एवं सखियों के साथ यहाँ विलास कर रहे थे । किसी प्रसग्ङ में उनके बीच में अनन्तशायी भगवान् विष्णु की कथा-चर्चा उठी । श्रीमती राधिका के हृदय में अनन्तशायी विष्णु की शयन लीला देखने की प्रबल इच्छा हो गयी ।अत: कृष्ण ने स्वयं उन्हें लीला का दर्शन कराया । अनन्तशायी के भाव में आविष्ट हो श्रीकृष्ण ने क्षीरसागर के मध्य सहस्त्र दल कमल के ऊपर शयन किया और श्रीमती राधिका ने लक्ष्मी के आवेश में उनके चरणों की सेवा की । गोपी-मण्डली इस लीला का दर्शनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हुई । श्रील रघुनाथदास गोस्वामी ने ब्रजविलास स्तव में इस लीला को इंगित किया है । अतिशय कोमलाग्ङी श्रीमती राधिका श्रीकृष्ण के अतिश कोमल सुमनोहर चरण कमलों को अपने वक्षस्थल के समीप लाकर भी उन्हें अपने वक्षस्थल पर इस भय से धारण नही कर सकीं कि कहीं हमारे कर्कश कुचाग्र के स्पर्श से उन्हें कष्ट न हो । उन शेषशायी कृष्ण के मनोरम गोष्ठ में मेरी स्थिति हो । श्रीचैतन्य महाप्रभु ब्रजदर्शन के समय यहाँ पर उपस्थित हुए थे तथा इस लीलास्थली का दर्शनकर प्रेमाविष्ट हो गये । यहाँ मनोहर कदम्ब वन है, यहीं पर प्रौढ़नाथ तथा हिण्डोले का दर्शन है । पास ही श्रीवल्लभाचार्य जी की बैठक है । खामी गाँव- इसका अन्य नाम खम्बहर है । यह गाँव ब्रज की सीमा पर स्थित है । श्रीवज्रनाभ महाराज ने ब्रज की सीमा का निर्णय करने के लिए यहाँ पर पत्थर का एक खम्बा गाढ़ा था । पास ही वनचारी गाँव भी है । ये दोनों गाँव ब्रज की उत्तर-पश्चिम सीमा पर होड़ल से चार मील उत्तर-पूर्व में स्थित हैं । यहाँ लक्ष्मीनारायण और महादेवीजी के दर्शन है । खयेरो- इसका दूसरा नाम खरेरो भी है । द्वारकापुरी से आकर यहाँ बलदेवजी ने सखाओं से खैर अर्थात् मग्ङल समाचार पूछा था । यह गोचारण का स्थान है । यह स्थान शेषशाई से चार मील दक्षिण में (कुछ पूर्व में) स्थित है । बनछौली- यह गाँव खरेरो से ढ़ाई मील पूर्व तथा पयगाँव से चार मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है । यहाँ पर कृष्ण की रासलीला हुई थी । ऊजानी- यह गाँव पयगाँव से चार मील उत्तर-पूर्व में छाता –शेरगढ़ राजमार्ग के निकट स्थित है । श्रीकृष्ण की सुमधर वंशीध्वनि को सुनकर यमुनाजी उल्टी बहने लगी थीं । ऊजानी शब्द का अर्थ उल्टी बहने से है । आज भी यह दृश्य यहाँ दर्शनीय है । खेलन वन- इसका नामान्तर शेरगढ़ है । यह स्थान ऊजानी से दो मील दक्षिण-पूर्व में अवस्थित है । यहाँ पर गोचारण के समय श्रीकृष्ण और श्रीबलराम सखाओं के साथ विविध प्रकार के खेल खेलते थे । श्रीमती राधिका भी यहाँ अपनी सखियों के साथ खेलती थीं । इन्हीं सब कारणों से इस स्थान का नाम खेलन वन है ।--------------------------------------- (1) 'यस्य श्रीमच्चरणकमले कोमले कोमलापि' श्रीराधाचैर्निजसुखकृते सन्नयन्ती कुचाग्रे । भीतापयारादय नहि दधातयस्य कार्कशयदोषात स श्रीगोष्ठे प्रथयतु सदा शेषशायी स्थिति न: । (स्तवावली ब्रजविलास, श्लोक-91) प्रसग्ङ-एक समय नन्दबाबा गोप, गोपी और गऊओं के साथ यहीं पर निवास कर रहे थे । वृषभानु बाबा भी अपने पूरे परिवार और गोधन के साथ इधर ही कहीं निवास कर रहे थे । 'जटिला और कुटिला' दोनों ही अपने को ब्रज में पतिव्रता नारी समझती थीं । ऐसा देखकर एक दिन कृष्ण ने अस्वस्थ होने का बहाना किया । उन्होंने इस प्रकार दिखलाया कि मानो उनके प्राण निकल रहे हों । यशोदाजी ने वैद्यों तथा मंत्रज्ञ ब्राह्मणों को बुलवाया , किन्तु वे कुछ भी नहीं कर सके । अंत में योगमाया पूर्णिमाजी वहाँ उपस्थित हुईं । उन्होंने कहा-यदि कोई पतिव्रता नारी मेरे दिये हुए सैंकड़ों छिद्रों से युक्त इस घड़े में यमुना का जल भर लाये और मैं मंत्रद्वारा कृष्ण का अभिषेक कर दूँ तो कन्हैया अभी स्वस्थ हो सकता है, अन्यथा बचना असंभव है यशोदाजी ने जटिला-कुटिला को बुलवाया और उनसे उस विशेष घड़े में यमुना जल लाने के लिए अनुरोध किया । बारी-बारी से वे दोनों यमुना के घाट पर जल भरने के लिए गई, किन्तु जल की एक बिन्दु भी उस घड़े में लाने में असमर्थ रहीं । वे यमुना घाट पर उक्त कलस को रखकर उधर-से-उधर ही घर लौट गयीं । अब योगमाया पूर्णिमाजी के परामर्श से मैया यशादाजी ने रीमती राधिका से सहस्त्र छिद्रयुक्त उस घड़े में यमुनाजल लाने के लिए अनुरोध किया । उनके बार-बार अनुरोध करने पर श्रीमती राधिका उस सहस्त्र छिद्रयुक्त घड़े में यमुनाजल भरकर ले आईं । एक बूंद जल भी उस घड़े में से नीचे नहीं गिरा । पूर्णमासीजी ने उस जल से कृष्ण का अभिषेक किया । अभिषेक करते ही कृष्ण सम्पूर्णरूप से स्वस्थ हो गये । सारे ब्रजवासी इस अद्भुत घटना को देखकर विस्मित हो गये । फिर तो सर्वत्र ही राधिकाजी के पातिव्रत्य धर्म की प्रशंसा होने लगी । यहाँ बलराम कुण्ड, खेलनवन, गोपी घाट, श्रीराधागोविन्दजी, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन दर्शनीय हैं । रामघाट- शेरगढ़ दो मील पूर्व में यमुना के तट पर रामघाट स्थित है । इस गाँव का वर्तमान नाम ओबे है । यहाँ बलदेवजी ने रासला की थी । द्वारका में रहते-रहते श्रीकृष्ण बलराम को बहुत दिन बीत गये । उनके विरह में ब्रजवासी बड़े ही व्याकुल थे । उनको सांत्वना देने के लिए श्रीकृष्ण ने श्रीबलदेव को ब्रज में भेजा था । उस समय नन्दगोकुल यहीं आस-पास निवास कर रहा था । बलदेवजी ने चैत्र और वैशाखा दो मास नन्द ब्रज में रहकर माता-पिता, सखा और गोपियों को सांत्वना देने की भरपूर चेष्टा की । अंत में गोपियों की विरह-व्याकुलता को दूर करने के लिए उनके साथ नृत्य और गीत पूर्ण रास का आयोजनी किया, किन्तु उनका यह रास अपने यूथ की ब्रजयुवतियों के साथ ही सम्पन्न हुआ । उस समय वरूणदेव की प्रेरणा से परम सुगन्धमयी वारूणी (वृक्षों मधुर रस) बहने लगी । प्रियाओं के साथ बलदेवजी उस सुगन्धमयी वारूणी (मधु) का पानकर रास-विलास में प्रमत्त हो गये जल-क्रीड़ा तथा गोपियों की पिपासा शान्त करने के लिए उन्होंने कुछ दूर पर बहती हुई यमुनाजी को बुलाया, किन्तु न आने पर उन्होंने अपने हलके द्वारा यमुनाजी को आकर्षित किया । फिर गोपियों के साथ यमुनाजल में जलविहार आदि क्रीड़ाएँ कीं । आज भी यमुना अपना स्वाभाविक प्रवाह छोड़कर रामघाट पर प्रवाहित होती हैं । यहाँ शंका होती है । कि श्रीकृष्ण की प्रियतमा गोपियों के साथ बलदेवजी ने कैसे रास किया ? रस की दृष्टि से यह सर्वथा अनुचित है । साथ ही कृष्ण प्रिया यमुना जो विशाखास्वरूप् हैं, उन्हें बलदेवजी का आकर्षण करना अनुचित जान पड़ता है । तत्त्व-ज्ञान के अभाव में ही ऐसी शंकाएँ उठती हैं । साधारण लोग अप्राकृत रास का तत्त्व नहीं समझ पाते । श्रीकृष्ण-बलराम के रास में प्राकृत लाम्पट्य अथवा लौकिक भोगमय कामना लेशमात्र भी संभव नहीं है । दूसरी बात बलदेवजी ने केवल अपने यूथ की प्रियाओं के साथ ही रास किया था फुटनोट के श्लोक में यह बात स्पष्ट है । यमुनाजी स्वयं विशाखाजी हैं । वे कृष्ण प्रिया हैं तथा श्रीमती राधिका की प्रधान सहेली हैं । समुद्रगामिनी यमुना विशाखास्वरूपिणी यमुनाजी का प्रकाश हैं । उन्हीं को बलदेवजी ने अपने हलकी नींक से खींचा था, श्रीकृष्णप्रिया यमुना को (1) द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवमेव च । राम: क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन् ।। (2) ततश्च प्रश्यात्र वसन्तवेषौ श्रीरामकृष्णौ ब्रजसुन्दरीभि: । विक्रीडतु: स्व स्व यूथेश्वरीभि: समं रसज्ञौ कल धौत मण्डितौ ।। नृत्यनतौ गोपीभि: सार्द्ध गायन्तौ रसभावितौ ।

गायन्तीभिश्च रामाभिर्नृत्यन्तीभिश्च शोभितौ ।।
       (श्रीमुरारिगुप्तकृत श्रीकृष्णचैतन्यचरित)

नहीं । इस प्रकार भी इस शंका का समाधान किया जा सकता है । श्रीनित्यानन्द प्रभु ब्रजमण्डल भ्रमण के समय यहाँ पधारे थे । इस विहार भूमि का दर्शनकर वे भावविष्ट हो गये थे । यहाँ बलरामजी के मन्दिर के पास ही एक अश्वत्थ वृक्ष है, जो बलरामजी के सखा के रूप में प्रसिद्ध हैं । यहीं वह रासलीला हुई थीं । ब्रह्मघाट-रामघाट के पास ही अत्यन्त मनोरम ब्रह्मघाट स्थित है, जहाँ ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण-आराधना के द्वारा बछड़े चुराने का अपराध क्षमा कराया था । कच्छवन- रामघाट के पास ही कच्छवन है । यहाँ पर कृष्ण सखाओं के साथ कछुए बनकर खेला करते थे । भूषणवन- कच्छवन के पास ही भूषणवन है । यहाँ गोचारण के समय सखाओं ने विविध प्रकार के पुष्पों से कृष्ण को भूषित किया था । इसलिए इसका नाम भषणवन है । गुञ्जवन-भूषणवन के पास ही गुञ्जवन है । यहाँ गोपियों ने गुञ्जा की माला से कृष्ण का अद्भुत श्रृंगार किया था तथा कृष्ण ने गुञ्जामाला के द्वारा श्रीमती राधिकाका श्रृंगार किया था । बिहारवन- रामघाट से डेढ़ मील दक्षिण- पश्चिम में बिहारवन है यहाँ बिहारीजी का दर्शन और बिहारकुण्ड है । यहाँ पर ब्रजबिहारी कृष्ण ने राधिका के सहित गोपियों के साथ रासविहार किया एवं अन्यान्य नाना प्रकार के क्रीड़ा-विलास किये थे । श्रीयमुना के पास ही यह एक रमणीय स्थल है ब्रज के अधिकांश वनों के कट जाने पर भी अभी तक बिहारवन का कुछ अंश सुरक्षित है । अभी भी इसमें हजारों मयूर 'के-का' रव करते हैं, वर्षा के दिनों में पंख फैलाकर नृत्य करते हैं, कोयलें कुहकती हैं । इसमें अभी भी सुन्दर-सुन्दर कृञ्ज, कदम्बखण्डी तथा नाना प्रकार की लताएँ वर्तमान हैं । इनका दर्शन करने से कृष्णलीला की मधुर स्मृतियाँ जग उठती हैं । यहाँ की गोशाला में बड़ी सुन्दर-सुन्दर गऊएँ, फुदकते हुए बछड़े और मत्त साँड़ श्रीकृष्ण की गोचारण लीला की मधुर स्मृति जागृत करते हैं । अक्षयवट- इसे भाण्डीरवट भी कहते हैं । यह रामघाट से दो मील दक्षिण में स्थित है वटवृक्ष की छाया में श्रीकृष्ण-बलराम सखाओं के साथ विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ विशेषत: मल्लयुद्ध करते थे तथा यहाँ पर बलदेवजी ने प्रलम्बासुर का वध किया था । प्रसग्ङ-किसी समय गोचारण करते हुए श्रीकृष्ण-बलराम गऊओं को हरे-भरे मैदान में चरने के लिए छोड़कर सखाओं के साथ दलों में विभक्त: होकर खेल रहे थे एक दल के अध्यक्ष कृष्ण तथा दूसरे दल के बलदेव जी बने । इस खेल में यह शर्त थी कि जो दल पराजित होगा वह जीतने वाले दल के सदस्यों को अपने कंधों पर बैठाकर भाण्डीरवट से नियत स्थान की दूरी तक लेकर जायेगा तथा वहाँ से लौटकर भाण्डीरवट तक लायेगा । कंस द्वारा प्रेरित प्रलम्बासुर भी सुन्दर सखा का रूप धारणकर कृष्ण के दल में प्रविष्ट हो गया । कृष्ण ने भी जान- बूझकर नये सखा को प्रोत्साहन देकर अपने दल में रखा । खेल में श्रीकृष्ण श्रीदाम के द्वारा और प्रलम्बासुर श्रीबलराम के द्वारा पराजित हुए । शर्त के अनुसार श्रीकृष्ण श्रीदाम को और प्रलम्बासुर बलराम को कंधे पर बैठाकर नियत स्थान की तरफ भागने लगे । कृष्ण अपने गन्तव्य स्थान की ओर चल रहे थे किन्तु दुष्ट प्रलम्बासुर बलदेव को कंधे पर बैठाकर नियतस्थान की ओर भागने लगा कुछ ही देर में उसने अपना विकराल राक्षस का रूप धारण कर लिया । वह कंस के आदेशानुसार पहले बलदेवजी का बधकर बाद में कृष्ण का भी बध करना चाहता था । बलदेवप्रभु पहले तो कुछ किंकर्तव्य विमूढ़-से दीखे, किन्तु कृष्ण का इशारा पाकर अपने मुष्टि का के आघात से असुर का मस्तक विदीर्ण कर दिया ।वह रूधिर वमन करता हुआ पृथ्वी पर लौटने लगा सखाओं के साथ कृष्ण वहाँ उपस्थित हुए तथा बलराम को आलिग्ङन करते हुए उनके बल और धैर्य की प्रशंसा करने लगे । दूसरा प्रसग्ङ- साथ लीला- एक दिन सखियां के साथ श्रीमती राधिका श्रीकृष्ण के विलास कर रहीं थीं । उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'प्राणवल्लभ ! आप बड़ी डीगें हाँकते हैं कि मल्लविद्या-विशारदों को भी मैंने परास्त किया है इतना होने पर भी आप श्रीदाम से कैसे पराजित हो गये श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- यह सम्पूर्ण रूप से मिथ्या है सम्पूर्ण विश्व में मुझे कोई भी नहीं जीत सकता । मैं कभी भी श्रीदाम से नहीं हारा । सा सुनकर राधिकाजी ने कहा- यदि ऐसी बात है तो हम गोपियाँ आपसे मल्लयुद्ध करने के लिए प्रस्तुत हैं । यदि आप हमें पराजित कर देंगे तो हम समझेंगी कि आप यथार्थ में सर्वश्रेष्ठ मल्ल हैं । फिर गोपियों ने मल्लवेश धारण किया । श्रीमती राधिका के साथ कृष्ण का मल्लयुद्ध हुआ, जिसमें कृष्ण सहज ही परास्त हो गये सखियां ने ताली बजाकर श्रीमतीजी का अभिनन्दन किया । मल्लयुद्ध और श्रीकृष्ण तथा सखाओं के कसरत करने का स्थान होने के कारण अक्षयवटन के पास के गाँव का नाम काश्रट हो गया । काश्रट शब्द का अर्थ है- कसरत करना या कुश्ती करना । प्राचीन वटवृक्ष के अन्तर्हि होने पर उसके स्थान पर और नया वटवृक्ष लगाया गया । भाण्डीरवन स्थित भाण्डीरवट दूसरी लीला-स्थली है, जो यमुना के दूसरे तट अवस्थित है । आगियारा गाँव नामान्तर आरा -काश्रट गाँव से दो मील दक्षिण-पश्चिम में आगियारा गाँव है इसका नामान्तर आरा या आगियारा गाँव है । कृष्ण के गोचारण स्थली में मुञ्जाटवी के मध्य यह स्थान स्थित है । प्रसग्ङ- सखाओं के साथ श्रीकृष्ण भाण्डीरवट की छाया में खेल रहे थे । पास ही गऊएँ यमुनाजल पानकर हरी-भरी घासों से पूर्ण मैदान में चर रहीं थीं । चरते-चरते वे कुछ दूर मुञ्जाटवी में पहुँचीं । गर्मी के दिन थे चिलचिलाती हुई धूप पड़ रही थीं । मुञ्ज के पौधे सूख गये थे । नीचे बालू तप रही थीं । कृष्ण को पीछे छोड़कर जल तथा छाया विहीन इस मुञ्जवन में गऊओं ने प्रवेश किया । सघन मुञ्जों के कारण वे मार्ग भी भूल गईं । प्यास और गर्मी के मारे गऊएँ छटपटाने लगीं । सखा लोग भी कृष्ण और बलराम को छोड़कर गऊओं को ढूँढ़ते हुए वहीं पहुँचे । इनकी अवस्था भी गऊओं जैसी हुई । वे भी गर्मी और प्यास से छटपटाने लगे । इसी बीच दुष्टकंस के अनुचरों ने मुञ्जवन में आग लगा दी । आग हवा के साथ क्षणभर में चारों ओर फैल गई । आग की लपटों ने गऊओं और ग्वाल बालों को घेर लिया । वे बचने का और कोई उपाय न देख कृष्ण और बलदेव को पुकारने लगे । उनकी पुकार सुनकर कृष्ण औ बलदेव वहाँ झट उपस्थित हुए । श्रीकृष्ण ने सखाओं को एक क्षण के लिए आँख बंद करने के लिए कहा । उनके आँख बंद करते ही श्रीकृष्ण ने पलक झपकते ही उस भीषण दावाग्नि को पान कर लिया । सखाओं ने आँख खोलते ही देखा कि वे सभी भाण्डीरवट की सुशीतल छाया में कृष्ण बलदेव के निकट खड़े हैं तथा पास में गऊएँ भी आराम से बैठीं हुईं जुगाली कर रहीं हैं । कृष्ण के शरणागत होने पर संसाररूपी दावाग्नि से प्रपीड़ित जीव का उससे सहज ही उद्धार हो जाता है । यह लीला यहीं पर हुई थीं । मुञ्जाटवी का दूसरा नाम ईषिकाटवी भी है । यमुना के उस पार भाण्डीर गाँव है । यह भाण्डीर गाँव ही मुञ्जाटवी है । तपोवन- यह स्थान अक्षयवट की पूर्व दिशा में एक मील दूर यमुना के तट पर अवस्थित है । गाप कन्याओ ने 'श्रीकृष्ण ही हमारे पति हों' इस कामना से आराधना की थीं कहते हैं ये गोपकन्याएँ वे है जो पूर्व जन्म में दण्डकारण्य में श्रीकृष्ण को पाने की लालसा से तपस्या में रत थे तथा श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से द्वापर में गोपीगर्भ से जन्मे थे इनमें जनकपुरकी राजकन्याएँ भी सम्मिलित थीं, जो सीता की भाँति श्रीरामचन्द्रजी से विवाह करना चाहती थीं । वे भी श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से द्वारपरयुग के अंत में ब्रज में गोपकन्याओं के रूप में जन्मी थीं । इन्हीं गोपकुमारियों की श्रीकृष्ण प्रप्ति के लिए आराधना स्थल है यह तपोवन । ब्रज की श्रीललिता विशाखा आदि नित्यसिद्धा गोपियाँ अन्तरग्ङस्वरूपशक्ति श्रीमती राधिकाजी की कायव्यूह स्वरूपा हैं । उन्हें तप करने की कोई भी आवश्यकता नहीं । गोपीघाट- यहाँ उपरोक्त गोपियाँ यमुना में सनान करती थीं । इसलिए इसका नाम गोपी घाट है । चीरघाट - यह लीलास्थली अक्षयवट से दो मील पश्चिम में स्थित है । गोपकुमारियों ने 'श्रीकृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों', इस आशय से एक मास तक नियमित रूप से नियम व्रतादि का पालन करते हुए कात्यायनी देवी की पूजा की थीं । व्रत के अंत में कुछ प्रियनर्म सखाओं के साथ श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र हरण किये तथा उन्हें उनकी अभिलाषा पूर्ण होने का वरदान दिया था । यमुना के तट पर यहाँ कात्यायनी देवी का मन्दिर है। गाँव का वर्तमान नाम सियारो है । नन्दघाट- यह सथान गोपी घाट से दो मील दक्षिण और अक्षयवट से एक मील दक्षिण पूर्व में स्थित है । प्रसग्ङ-एक बार महाराज नन्द ने एकादशी का व्रत किया और द्वादशी लगने पर रात्रि की बेला में ही वे इसी घाट पर स्नान कर रहे थे । यह आसुरिक (1 )कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरू ते नम: ।।

(2 )एवं मासं व्रतं चेरू: कुमार्य: कृष्णचेतस: । भद्रकालीं समानर्चुर्भूयान्नन्दसुत: पति: ।। बेला थी इसलिए वरूण के दूत उन्हें पकड़कर वरूणदेव के सामने ले गये यमुनाजी में महाराज नन्द के अदृश्य हाने का समाचार पाकर ब्रजवासी लोग बड़े दुखी हुए । ब्रजवासियों का क्रन्दन देखकर श्रीकृष्ण, बलरामजी को उनकी देख-रेख करने के लिए वहीं छोड़कर स्वयं वरूणलोक में गये । वहाँ वरूणदेव ने कृष्ण को देखकर नाना-प्रकार से उनकी स्तव-स्तुति की और उपहारस्वरूप नानाप्रकार के मणि-मुक्ता रत्नालंकार आदि भेंटकर अपने इस कृत्य के लिए क्षमा याचना की । श्रीकृष्ण पिता श्रीनन्द महाराजजी को लेकर इसी स्थान पर पुन: ब्रजवासियों से मिले । दूसरा प्रसग्ङ-एक समय जीव गोस्वामी ने किसी दिग्विजयी पण्डित को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था । वह दिग्विजयी पण्डित श्रील रूपगोस्वामी के ग्रन्थों का संशोधन करना चाहता था । बालक जीव गोस्वामी इसे सह नहीं सके । वृन्दावन में यमुनाक घाट पर पराजित होने पर दिग्विजयी पण्डित बालक की विद्धत्ता की भूयसी प्रशंसा करता हुआ व श्रील रूपगोस्वामी से परिचय पूछा । श्रील रूपगोस्वमी ने नम्रता के साथ उत्तर दिया- यह मेरे भाई का पुत्र तथा मेरा शिष्य है । श्रील रूप गोस्वामी समझ गये कि जीव ने इसके साथ शास्त्रार्थ किया है । दिग्विजयी पण्डित के चले जाने के बाद श्रीलरूपगोस्वामी ने कहा-जीव ! तुम इतनी सी बात भी सहन नहीं कर सकते ? अभी भी तुम्हारे अन्दर प्रतिष्ठा की लालसा है । अत: तुम अभी यहाँ से चले जाओ । श्रील जीवगोस्वामी, श्रील रूपगोस्वामी के कठोर शासन वाक्य को सुनकर बड़े दुखी हुए । वे वृन्दावन से नन्दघाट के निकट यमुना के किनारे सघन निर्जनवन में किसी प्रकार बड़े कष्ट से रहने लगे । वे यमुना के तट पर मगरों की माँद में रहते । कभी-कभी आटा में जल मिलाकर वैसे ही पी लेते, तो कभी उपवास रहते । इस प्रकार श्रीगुरूदेव के विरह में तड़फते हुए जीवन यापन करने लगे । कुछ ही दिनों में शरीर सूखकर काँटा हो गया । उन्हीं दिनों श्रील सनातन गोस्वामी ब्रजपरिक्रमा के बहाने नन्दघाट पर उपस्थित हुए । वहाँ ब्रजवासियों के मुख से एक किशोर गौड़ीय बाल के साधु की कठोर आराधना एवं उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा सुनकर वे जीव गोस्वामी के पास पहुँचे तथा सांत्वना देकर उसे अपने साथ वृन्दावन ले आये । अपनी भजनकुटी में जीव को छोड़कर वे अकेले ही रूप गोस्वामी के पास पहुँचे । श्रील रूप गोस्वामी उस समय जीवों पर दया के संबन्ध में उपस्थित वैष्णवों के सामने व्याख्या कर रहे थे । श्रील सनातन गोस्वामी ने उस व्याख्या के बीच में ही श्रीरूप गोस्वामी से पूछा-तुम दूसरों को तो जीव पर दया करने का उपदेश दे रहे हो किन्तु स्वयं जीव पर दया क्यों नही करते ? श्रील रूप गोस्वामी ने बड़े भाई और गुरू श्रील सनातन गोस्वामी की पहेली का रहस्य जानकर श्रीजीव को अपने पास बुलाकर उनकी चिकित्सा कराई तथा पुन: अपनी सेवा में नियुक्तकर उन्हें अपने पास रख लिया । नन्दघाट में रहते हुए श्रीजीव गोस्वामी ने अपने षट्सन्दर्भ रूप प्रसिद्ध ग्रन्थ का प्रणयन किया था । यहाँ पर अभी भी श्रीजीव गोस्वामी का स्थान जीव गोस्वामी की गुफाके रूप में प्रसिद्ध है । भैया भयगाँव-श्रीनन्द महाराज वरूण के दूतों को देखकर यहाँ भयभीत हो गये थे । इसलिए वज्रनाभ ने इस गाँव का नाम भयगाँव रखा । भयगाँव नन्दघाट से संलग्न है । गांग्रली- चीरघाट से दो मील दक्षिण और कुछ पूर्व दिशा में तथा भय गाँव से दो मील उत्तर में गांग्रली अवस्थित है । बसई गाँव या वत्सवन- नन्दघाटी से चार मील दक्षिण- पश्चिम में यह स्थान स्थित है । ब्रह्माजी ने यहाँ बछड़ों और ग्वालबालों का हरण किया था । इसलिए इस स्थान का नाम वत्सवन या बच्छवन है । गाँव का वर्तमान नाम बसई गाँव है । यहाँ श्रीवत्सविहारी जी का मन्दिर , ग्वाल मण्डलीजी का स्थान, ग्वालकुण्ड, हरि बोल तीर्थ और श्रीवल्लभाचार्यजी की बैठक दर्शनीय स्थल हैं । प्रसग्ङ- एक समय श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ में यमुनातट पर बछड़ों को चरा रहे थे बछड़े चरते-चरते इस वन में पहुँच गये । इधर कृष्ण सखाओं के साथ यतुनातट की कोमल बालुका में नाना प्रकार की कीड़ाएँ करने लगे उधर बछड़े चरते-चरते जब इस वन में पहुँचे तो चतुर्मुख ब्रह्माजी ने, जो इससे पूर्व अघासुर की आत्मा को कृष्ण के चरणों में प्रवेशकर मुक्त होते देख बड़े आश्चर्यचकित हुए थे, भगवान् श्रीकृष्ण की कुछ और भी मधुर लीलाओं का दर्शन करने की इच्छा से उन बछड़ों को एक गुफा में छिपा दिया । बछड़ों को न देखकर कृष्ण और ग्वाल-बाल बड़े चिन्तित हुए । कृष्ण सखाओं को वहीं छोड़कर बछड़ों को खोजने के लिए चल पड़े । जब बछड़े नही मिले, तब कृष्ण पुन: यमुनातट पर पहुँचे, जहाँ सखाओं को छोड़कर गये थे इधर ब्रह्माजी ने कृष्ण की अनुपस्थिति में सखाओं को भी कहीं छिपा दिया । षडैश्वर्यपूर्ण सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण ब्रह्माजी की करतूत समझ गये । इसलिए वे साथ-ही-साथ अपने -आप सारे बछड़े, ग्वाल बाल, उनकी लकुटियाँ, वस्त्र, वेणु, श्रृंग आदि का रूप धारणकर पूर्ववत् क्रीड़ा करने लगे । यह क्रम एक वर्ष तक चलता रहा । यहाँ तक कि बलदेवजी भी इस रहस्य को नहीं जान सके वर्ष पूरा होने पर बलदेवजी ने कुछ अलौकिक बातों को देखकर भाँप लिया कि स्वयं कृष्ण ही ये सारे बछड़े, ग्वाल-बाल बनकर लीला कर रहे हैं । उसी समय ब्रह्माजी यह देखकर चकित हो गये कि गुफा में बंद ग्वाल-बाल और बछड़े ज्यों के त्यों शयन अवस्था में हैं । इधर कृष्ण बछड़ों और ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत् लीला कर रहे हैं । ऐसा देखकर वे भौंचक्के से रह गये । श्रीकृष्ण ने योगमाया का पर्दा हटा दिया । ब्रह्माजी श्रीकृष्ण की स्वयं भगवत्ता एवं उनकी आश्चर्यमयी लीला देखकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणामकर स्तव-स्तुति करने लगे । उन्होंने ब्रज गोकुल में जन्म पाने के लिए तथा ब्रजरज से अभिसिक्त होने के लिए प्रार्थना की । इसीलिए इस वन का नाम वत्सवन है । उनाई अथवा जनाई गाँव- यह स्थान बाजना से डेढ़ मील दक्षिण में स्थित है । यहाँ श्रीकृष्ण सखाओं के साथ बैठकर भोजन लीला कर रहे थे, जिससे ब्रह्मा को मोह उत्पन्न हुआ । अंत में कृष्ण ने अनग्रहकर ब्रह्माजी का मोह दूर किया और अपने को जना दिया । उस समय ब्रह्मा ने इस विश्व को कृष्णमय देखा(जाना) इसलिए इस स्थान का नाम जनाई गाँव है । बालहारा- यहाँ ब्रह्माजी ने ग्वालबालों का हरण किया था । अतएव इस स्थान का नाम बालहारा है । परखम-यह स्थान जनाई गाँव से एक मील पश्चिम में है । यहाँ ब्रह्माजी ने कृष्ण की परीक्षा ली थी । अतएव इस स्थान का नाम परखम पड़ा है । सखाओं के साथ बैठकर कृष्ण को उनका उच्छिष्ट भोजन करते देखकर उनकी भगवत्ता की परीक्षा के लिए ब्रह्माजी की इच्छा हुई परीक्षा की इच्छा के लिए इस स्थान का नाम परखम हुआ । सेई-परखम से डेढ़ मील दक्षिण-पूर्व तथा पसौली से चार मील दूरी पर यह स्थान स्थित है । कृष्ण की माया से मोहित ब्रह्माजी ने गोप-बालकों और बछड़ों का हरणकर किसी गुप्त स्थान में रख दिया था । किन्तु एक वर्ष बाद कृष्ण के निकट आने पर उन्होंने गोपबालकों कृष्ण के साथ पहले की भाँति गोचारण करते देखा । उस समय वे विचार करने लगे कि कन्दरा में रखे हुए गोपबालक और बछड़े सेई (वही हैं) या नहीं । फिर सोये हुए ग्वालबालों को (1)नौमीड्य तेऽभ्रवषे तडिदम्बराय गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय । वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु लक्ष्मश्रिये मृदुपदेपशुपाग्ङजाय ।। देखा । वे सन्देहग्रस्त हो गये कि क्या सेई(वही हैं) । बार-बार सेई कहने से इस स्थान का नाम सेई अथवा ग्वालबाल और बछड़ों के सहित पूर्ववत् कृष्ण को देखकर निश्चित किया कि सेई- ये वही स्वयं-भगवान् कृष्ण हैं । चौमा- यहाँ ब्रह्माजी ने भयभीत होकर अनुताप करते हुए अपने चार मुखों से श्रीकृष्ण की स्तुति की थी । इसलिए इस स्थान का नाम चौमुँहा हुआ । यह स्थान परखम से एक मील पश्चिम तथा मथुरा से चार कोस पश्चिम में मथुरा दिल्ली मार्ग पर स्थित है । चौमुँहा से एक मील दूर अझई नाम गाँव है । यहाँ प्राचीन ब्रह्माजी का दर्शन है । यह बहुत ही रमणीय स्थान है चौमुँहा का वर्तमान नाम चौमा (चार मुखोंवाला )है । पसौली-सपौली, अघवन और सर्पस्थली इसके नामान्तर है। । अजगर सर्परूप धारी अघासुर को श्रीकृष्ण ने यहाँ मारकर उसका उद्धार किया था । परखम से दो मील दूर उत्तर-पश्चिम में यह स्थान स्थित है । चौमुँहा ग्रामे ब्रह्माआंसि कृष्णपाशे । करये कृष्ण स्तुति अशेष विशेषे ।। प्रसग्ङ- एक समय श्रीकृष्ण ग्वालबालकों के साथ बछड़े चराते-चराते इस वन में पहुँचे । पूतना का भाई अघ(पाप) की प्रतिमूर्ति अघासुर अपनी बहन की मृत्यु का बदला लेने के लिए वहाँ पहुँचा । भयानक विशालकाय अजगर का रूप धारणकर मार्ग में लेट गया । उसका एक जबड़ा जमीनपर तथा दूसरा आकाश को छू रहा था । उसका मुख एक गुफाके समान तथा जिह्वा उसमें घुसने के मार्ग के समान दीख रही थीं । ग्वालबाल, बछड़ों को लेकर खेल-ही-खेल में उसके मुख में प्रवेश कर गये । किन्तु उसने अपना मुख बंद नहीं किया ; क्योंकि वह विशेषरूप से कृष्ण को निगलना चाहता था, किन्तु कृष्ण कुछ पीछे रह गये थे श्रीकृष्ण ने ग्वालबालों को दूर से संकेत किया कि इसमें प्रवेश न करें ।किन्तु ग्वालबाल श्रीकृष्ण के बलपर निशंक होकर उसमें प्रवेश कर ही गये । श्रीकृष्ण भी सखाओं को बचाने के लिए पीछे से उसके मुख में प्रवेश कर गये । ऐसा देखकर अघासुर ने अपना मुख बंद कर लिया । श्रीकृष्ण अपने शरीर को बढ़ाकर उसके गले ऐसे अटक गये, जिससे उसका कण्ठ अवरूद्ध हो गया और श्वास रूक गया । थोड़ी देर में ही उसका ब्रह्मारन्ध्र फट गया और उसमें से एक ज्योति निकलकर आकाश में स्थित हो गई ।

इधर श्रीकृष्ण गोपबालकर और बछड़ों को अपनी अमृतयी दृष्टि से जीवन प्रदानकर जैसे ही अघासुर के मुख से निकले, त्योंहि ब्रह्माजी और देवताओं के देखते-देखते वह ज्योति कृष्ण के चरणों में प्रवेश कर गई । अघासुर का उद्धारकर कृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन लौट आये । वही स्थली सर्पस्थली, सँपोली, पसौली या अधवन के नाम से जानी जाती है । जैंत-अघासुर का वध हो जाने के बाद आकाश में स्थि देवताओं ने 'भगवान् श्रीकृष्ण की जय हो ! जय हो !' की ध्वनि से आकाश और आस-पास के वन प्रदेश को गुञ्जा दिया । ग्वालबालों ने भी आनन्द से उनके स्वर में स्वर मिलाकर 'जय हो ! जय हो ! ' की ध्वलि से आकाश मण्डल को परिव्याप्त कर दिया । इस प्रकार श्रीकृष्ण की अघासुर पर विजयगाथा की स्मृति को अपने अंक में धारणकर यह स्थली जैंत नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ के एक तालाब में सर्प की मूर्ति है । उसे इस प्रकार कला से निर्मित किया गया है कि कुण्ड में पानी चाहे जितना भी बढ़े-घटे वह सर्पमूर्ति सदैव पानी के ऊपर में ही दिखाई देती है । छटीकरासे यह स्थान तीन मील दूर है । सेयानो- इसका वर्तमान नाम सिहोना है । अघासुर बध का समाचार जब वृद्ध ब्रजवासियों को मिला तो वृद्ध-वृद्ध गोप और गोपियाँ कृष्ण की प्रशंसा करते हुए बार-बार कहने लगें 'कृष्ण सेयानो होय गयो है, सेयानो होय गयो है । ' इस सेयानो का तात्पर्य बुद्धिमान और बलवान से है । महाराज वज्रनाभ ने सेयानो है, इस शब्द के अनुसार इस स्थान का नाम सेयानो गाँव रख दिया । अझई से दो मील दूर यह स्थान स्थित है । यहाँ सनक, सनन्द, सनत, सनातन-इन चार कुमारों के श्रीविग्रह दर्शनीय हैं । तरौली- यह गाँव बसोली से दो मील उत्तर-पश्चिम में तथा श्यामरी गाँव से एक मील पूर्व कुछ उत्तर दिशा में तथा बरोली से एक मील पूर्व में स्थित है । बरौली-तरोली और बरौली गाँव पास-पास हैं । ये कृष्णलीला के स्थान (1) ततोऽतिदृष्टा: स्वकृतोऽकृतार्हणं,

पुष्पै सुरा अप्सरसश्च नर्तनै: ।

गीतै: सुगा वाद्यधराश्च वाद्यकै: स्तवैश्च विप्रा जयनि: स्वनैर्गणा: ।। हैं । यहाँ से जाने के समय आगे पीठर गाँव पड़ता है । तमालवन तथा कृष्णकुण्ड टीला- तमाल वृक्षों सघनवन से परिमण्डित, श्रीश्रीराधाकृष्ण के मिलन और रसमयी क्रीड़ाओं का स्थान है एक समय रसिकबिहारी श्रीकृष्ण सखियों के साथ राधाजी से इसी तमालकुञ्ज में मिले । तमालवृक्षों से लिपटी हुई ऊपर तक फैली नाना प्रकार की लताएँ वल्लरियाँ बड़ी सुहावनी लग रही थीं । श्रीकृष्ण ने प्रियाजी को इंगित कर पूछा- 'यह लता तमाल वृक्ष से लिपटी हुईं क्या कह रही हैं ? 'श्रीमती राधिका ने मुस्कराकर उत्तर दिया- 'स्वाभाविकरूप से इस लता ने तमाल वृक्ष का अवलम्बनकर उसे अपनी बेलो, पत्तों और पुष्पों से आच्छादित कर रखा है यह वृक्ष का सौभाग्य है कि वृक्ष में फल और पुष्प नही रहने पर भी लताएँ अपने पल्लवों और पुष्पों से इस वृक्ष का का सौन्दर्य अधिक बढ़ा रही है । ' इसी समय पवन के एक झोंकने लता को झकझोर दिया । यह देखकर किशोर-किशोरी दोनों युगल भाव में विभोर हो गये । यह तमालवन इस स्मृति को संजोए हुए अभी भी वर्तमान है । आटस- कृष्ण की परमानन्दमय मधुर-लीलाओं का दर्शन और आस्वादन करने के पूर्ण अधिकारी तो ब्रजवासी ही हैं । फिर भी चतुर्मुख ब्रह्मा, महादेव शंकर, देवर्षि नारद तथा बहुत से ऋषि-महर्षि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिए ब्रजभूमि की बहुत सी लीलास्थलियों में निवास कर रहे हैं अष्टावक्रमुनि की आराधना का यह स्थल आटस गाँव के नाम से प्रसिद्ध है । अष्टावक्र शब्द से अपभ्रंश होकर आटस नाम हुआ है । यह जनाई गाँव से चार मील तथा वृन्दावन से छह मील की दूरी है ।

देवीआटस- आटस से एक मील दूरी पर यह गाँव स्थित है  यहा गाँव यशोदा के गर्भ से एक साथ उत्पन्न कृष्ण की अनुजा एकांशा देवी का स्थान है । वसुदेवी जी इन्हें गोकुल से अपने साथ कंस कारागार में लाये थे । देवकी के सन्तान होने का समाचार पाकर कंस कारागार में देवकी  की गोद से एकांशा को छीनकर पृथ्वी  पर पटक देने  के लिए जब उसे हाथों से आकाश की तरफ उठाया तो देवी अष्टभुजा दुर्गारूप धारणकर कंस का तिरस्कारकर आकाश में अन्तर्धान हो कर इस स्थान में प्रकट हुई । वज्रनाभजी ने इस लीला की स्मृति में यह गाँव बसाया था । 

मघेरा- जब कृष्ण और बलदेव अक्रूर के साथ रथ पर बैठकर ब्रज से मथुरा जा रहे थे, उस समय ब्रजवासी लोग उनके विरह में व्याकुल होकर मार्ग की ओर देख रहे थे तथा रथ के चले जाने पर उसकी धूल को देखते रहे । धूल के शान्त हो जाने पर भी उस मार्ग की ओर देखते रहे । मग हेरा अथवा मार्ग की ओर देखने से महाराज वज्रनाभ ने इस लीला की स्मृति के लिए इस गाँव का नाम मघेरा रखा था ।

छूनराक- सौभरीऋषि का यहीं पर आश्रम था । यह स्थान वृन्दावन स्थित कालीयह्नद के समीप ही एक मील पश्चिम में अवस्थित है । 

शकरोया- देवराजइन्द्र श्रीकृष्ण और ब्रजवासियों के चरणों में अपराध करने के कारण अपराधी थे । उन्होंने अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए इस स्थान पर श्रीकृष्ण की आराधना की थी । इसलिए इन्द्र की आराधना का यह स्थल शकरोया नाम से प्रसिद्ध है । देवराज इन्द्र का एक नाम शक्र भी है । शक्र से शकरोया नाम पड़ा है । बराहर- इस स्थान पर गोचारण के समय श्रीकृष्ण ने सखाओं के साथ वराह रूप के आवेश में क्रीड़ा की थी । इस गाँव का वर्तमान नाम बरारा है । यह हाजरा गाँव से एक मील दक्षिण- पश्चिम में स्थित है । एई बराहर ग्रामे वराहरूपे ते । खेलाईला कृष्णप्रिया सखार सहिते ।।

      (भक्तरत्नाकर)

हारासली- यहाँ श्रीकृष्ण की रासलीला स्थली है । पास ही सुरूखुरू गाँव है । सेईसे डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में माई -बसाई नामक दो गाँव हैं । माई के उत्तर-पूर्व में बसाई गाँव है ।

टीका-टिप्पणी

  1. जावटेर पश्चिमे ए वन मनोहर । लक्ष-लक्ष कोकिल कूहरे निरन्तर ।। एकदिन कृष्ण एई वनेते आसिया । कोकिल-सदृश शब्द करे हर्ष हईया ।। सकल कोकिल हईते शब्द सुमधुर । ये सुने बारेक तार धैर्य जाय दूर ।। जटिला कहये विशाखारे प्रियवाणी । कोकिलेर शब्द ऐछे कभु नाहि शुनि ।। विशाखा कहये-एई मो सभार मने । यदि कह ए कोकिले देखि गिया वने ।। वृद्धा कहे-जाओ ! शुनि उल्लास अशेष । राई सखीसह वने करिला प्रवेश ।। हईल महाकौतुक सुखेर सीमा नाई । सकलेई आसिया मिलिला एक ठाँई ।। कोकिलेर शब्दे कृष्ण मिले राधिकारे । ए हेतु 'कोकिलावन' कहये इहारे ।।(भक्तिरत्नाकर)
  2. सख्या: क्षीरसमुद्भुत रत्नाकरसरोवरे । नाना प्रकाररत्नानामुद्भवे वरदे नम: ।। नारद पंचरात्र
  3. अञ्जपुरे समाख्याते सुभानुर्गोप: संस्थित: । देवदानीति विख्याता गोपिनी निमिषसुना । तयो: सुता समुत्पन्ना विशाखा नाम विश्रुता ।।
  4. 'रसेर आवेशे कृष्ण अञ्जन लईया । दिलेन राधिका नेत्रे महा हर्ष हईया ।।'
  5. मथुरा हईते शीघ्र करिब गमन । एई हेतु शीघ्र सी, कहये सर्वजन ।। भक्तिरत्नाकर
  6. ललितादि सखी क्रोधे कहे बार बार । राधिकार राज्य के करये अधिकार । ऐछे कत कहि ललितादि सखीगण । राधिकारे उमराओ कैला ईक्षण ।।(भक्तिरत्नाकर)