गंगावतरण

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गंगावतरण / Gangavataran / Reincarnation of Ganges

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सगर

सगर, राम से बहुत पहले राजा हुए हैं । वह बहुत वीर और साहसी थे । उनका राज्य जब बहुत फैल गया तो राजा ने यज्ञ किया । पुराने समय में अश्वमेध यज्ञ होता था । इस यज्ञ में एक घोड़ा पूजा करके छोड़ दिया जाता और घोड़े के पीछे राजा की सेना रहती । अगर किसी ने उस घोड़े को पकड लिया तो सेना युध्द करके उसे छुड़ाती थी । जब घोड़ा चारों ओर घूमकर वापस आ जाता था तो यज्ञ किया जाता और वह राजा चक्रवर्ती माना जाता ।

यज्ञ का घोड़ा

राजा सगर इसी प्रकार का यज्ञ कर रहे थे । भारतवर्ष के सारे राजा सगर को चक्रवर्ती मानते थे, पर राजा इंद्र को सगर की प्रसिध्दि देखकर जलन होती थी । जब उसे मालूम हुआ कि सगर अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं तो वह चुपके से सगर द्वारा पूजा करके छोड़े हुए घोड़े को चुरा ले गया और बहुत दूर कपिल मुनि की गुफा में जाकर बांध दिया । दूसरे दिन जब घोड़े को छोड़ने का समय पास आया तो पता चला कि अश्वशाला में घोड़ा नहीं है । यज्ञ-भूमि में शोक छा गया । सेना ने खोजा पर घोड़ा न मिला तो महाराज के पास समाचार पहुंचा । महाराज ने सुना और सोच में पड़ गये । राजा सगर की बड़ी रानी का एक बेटा था, उनका नाम असमंजस था । असमंजस बालकों को परेशान करता था । सगर ने लोगों की पुकार सुनी और अपने बेटे असमंजस को देश से निकाल दिया । असमंजस का पुत्र था अंशुमान । राजा सगर की छोटी रानियों के बहुत से बेटे थे । कहा जाता है कि ये साठ हजार थे । सगर के ये पुत्र बहुत बलवान और चतुर थे और तरह-तरह की विद्याओं को जानते थे । जब सेना घोड़े का पता लगाकर हार गये तो महाराज ने अपने साठ हजार पुत्रों को बुलाया और कहा, ‘‘पुत्रो, चोर ने सूर्यवंश का अपमान किया है । तुम सब जाओ और घोड़े का पता लगाओ ।’’ राजकुमारों ने घोड़े को खोजना शुरु किया। गांवों और कस्बों में खोजा, साधुओं के आश्रमों में गये, तपोवनों में गये और योगियों की गुफाओं में पहुंचे । पर्वतों के बर्फीले सफेद शिखरों पर पहुंचे, वन-वन घूमे, पर यज्ञ का घोड़ा उनको कहीं नहीं दिखाई दिया ।

साठ हज़ार राजकुमार

खोजते-खोजते वे धरती के छोर के आगे समुद्र था । चूंकि सगर के पुत्रों ने समुद्र की इतनी खोजबीन की, इसलिए समुद्र ‘सागर’ भी कहलाने लगा । घोड़ा नहीं मिला, फिर भी राजकुमार हारे नहीं । वे आगे बढ़ रहे थे कि हवा चल पड़ी । एक लता हिली और एक शिला दिखाई पड़ी । शिला हटाई जाने लगी । शिला के पीछे एक गुफा का मुंह निकल आया । राजकुमार गुफा में गये । वहाँ उन्होंने देखा कि एक बहुत पुराना पेड़ है । उसके नीचे एक ऋषि बैठे है । वह अपनी समाधि में लीन थे । ऋषि के पीछे कुछ दूर पर एक पेड़ था । उसके तने से घोड़ा बंधा था । राजकुमार दौड़कर घोड़े के पास गये और घोड़े को पहचान लिया । ऋषि को देखा, तो उनका क्रोध बढ़ गया । राजकुमारों ने बहुत शोर मचाया । उनमें से एक का हाथ ऋषि के शरीर पर पड़ा तो ऋषि की देह कांपी और वह समाधि से जागे ।

मुनि का श्राप

उनकी आंखें खुलीं । उनकी आंखों में तेज भरा था । वह तेज राजकुमारों के ऊपर पड़ा तो राजकुमार जल उठे । जब ऋषि की आंखें पूरी तरह से खुलीं तो उन्होंने अपने सामने बहुत सी राख की ढेरियां पड़ी पाई । ये राख की ढेरियां साठ हजार थी ।

साठ हजार राजकुमारों को गये बहुत दिन हो गये । उनकी कोई खबर न आयी । राजा सगर की चिंतित हो गये । तभी एक दूत ने बताया कि बंगाल से कुछ मछुवारे आये हैं, उन्होंने बताया कि उन्होंने राजकुमारों को एक गुफा में घुसते देखा और वे अभी तक उस गुफा से निकलकर नहीं आये ।

सगर सोच में पड़ गये । राजकुमार किसी बड़ी मुसीबत में फंस गये हैं । राजा ने ऊंच-नीच सोची और अपने पोते अंशुमान को बुलाया ।

अंशुमान के आने पर सगर ने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे साठ हजार चाचा बंगाल में सागर के किनारे एक गुफा में घुसते हुए देखे गये हैं, पर उसमें से निकलते हुए उनको अभी तक किसी ने नहीं देखा है ।’’

सगर ने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे साठ हजार....’’

अंशुमान का चेहरा खिल उठा । वह बोला, ‘‘ बस ! यही समाचार है । यदि आप आज्ञा दें तो मैं जाऊं और पता लगाऊं ।”

सगर बोले, ‘‘जा, अपने चाचाओं का पता लगा ।” जब अंशुमान जाने लगा तो बूढ़े राजा सगर ने उसे फिर छाती से लगाया और आशीष देकर उसे विदा किया । अंशुमान इधर-उधर नहीं घूमा । वह सीधा उसी गुफा के दरवाजे पर पहुंचा । गुफा के दरवाजे पर वह ठिठक गया । उसने कुल के देवता सूर्य को प्रणाम किया और गुफा के भीतर पैर रखा । अंधेरे से उजाले में पहुंचा तो अचानक रुककर खड़ा हो गया । उसने देखा दूर-दूर तक राख की ढेरियां फैली हुई थीं । वह थोड़ा ही आगे गया कि एक गम्भीर आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बेटा अंशुमान, यह घोड़ा बहुत दिनों से तुम्हारी राह देख रहा है ।”

अंशुमान चौंका । उसने देखा एक दुबले-पतले ऋषि हैं, जो घोड़े के निकट खड़े है । अंशुमान रुका । उसने धरती पर सिर टेककर ऋषि को नमस्कार किया “आओ बेटा, अंशमान, यह घोड़ा तुम्हारी राह देख रहा है ।”

ऋषि बोले, ‘‘बेटा अंशुमान, तुम भले कामों में लगो । मैं कपिल मुनि तुमको आशीष देता हूं ।”

अंशुमान ने उन महान कपिल को प्रणाम किया । कपिल बोले, “जो होना था, वह हो गया ।”

अंशुमान ने हाथ जोड़कर पूछा, “क्या हो गया, ऋषिवर ?” ऋषि ने राख की ढेरियों की ओर इशारा करके कहा, “ये साठ हजार ढेरियां तुम्हारे चाचाओं की हैं, अंशुमान !”

अंशुमान के मुंह से चीख निकल गई । उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली ऋषि ने समझाया, “धीरज धरो बेटा, मैंने जब आंखें खोलीं तो तुम्हारी चाचाओं को जलते पाया । उनका अहंकार उभर आया था । वे समझदारी से दूर हट गये थे । उनका अधर्म भड़का और वे जल गये । मैं देखता रह गया । कुछ न कर सका ।”

अंशुमान ने कहा, “ऋषिवर !”

कपिल बोले, “बेटा, दुखी मत होओ । घोड़े को ले जाओ और अपने बाबा को धीरज बंधाओ । महाप्रतापी राजा सगर से कहना कि आत्मा अमर है । देह के जल जाने से उसका कुछ नहीं बिगड़ता ।”

अंशुमान ने कपिल के सामने सिर झुकाया और कहा, “ऋषिवर ! मैं आपकी आज्ञा का पालन करुंगा । पर मेरे चाचाओं की अकाल मौत हुई है । उनको शांति कैसे मिलेगी ?”

कपिल ने कुछ देर सोचा और बोले, “बेटा, शांति का उपाय तो है, पर काम बहुत कठिन है ।”

अंशुमान ने सिर झुकाकर कहा, “ऋषिवर ! सूर्यवंशी कामों की कठिनता से नहीं डरते ।”

कपिल बोले, “गंगा जी धरती पर आयें और उनका जल इन राख की ढेरियों को छुए तो तुम्हारे चाचा तर जायंगे ।”

अंशुमान ने पूछा, “ गंगाजी कौन हैं और कहां रहती है ?”

कपिल ने बताया, “गंगाजी विष्णु के पैरों के नखों से निकली हैं और ब्रह्मा के कमण्डल में रहती हैं ।”

अंशुमान ने पूछा, “ गंगाजी को धरती पर लाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?”

ऋषि ने कहा, “ तुमको ब्रह्मा की विनती करनी होगी । जब ब्रह्मा तप पर रीझ जायंगे तो प्रसन्न होकर गंगाजी को धरती पर भेज देंगे । उससे तुम्हारे चाचाओं का ही भला नहीं होगा और भी करोंड़ों आदमी लाभ उठा सकेंगे ।”

अंशुमान ने हाथ उठाकर वचन दिया कि जबतक गंगाजी को धरती पर नहीं उतार लेंगे, तब तक मेरे वंश के लोग चैन नहीं लेंगे । कपिल मुनि ने अपना आशीष दिया ।

अंशुमान सूर्य वंश के थे । इसी कुल के सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र को सब जानते हैं । अंशुमान ने ब्रह्माजी की विनती की । बहुत कड़ा तप किया, अपनी जान दे दी, पर ब्रहाजी प्रसन्न नहीं हुए । अंशुमान के बेटे राजा दिलीप ने पिता के वचन को अपना वचन समझा और बड़ा भारी तप किया । ऐसा तप किया कि ऋषि और मुनि चकित हो गये । उनके सामने सिर झुका दिया । पर ब्रह्मा उनके तप पर भी नही रीझे ।

भगीरथ

दिलीप के बेटे थे भगीरथ । भगीरथ के सामने बाबा का वचन और पिता का तप था । उन्होंने तप में मन लगा दिया ।

सभी देवताओं को खबर लगी । देवों ने सोचा, “गंगाजी हमारी हैं । जब वह उतरकर धरती पर चली जायेगीं तो हमें कौन पूछेगा ?” देवताओं ने सलाह की और उर्वशी और अलका को बुलाया । उनसे कहा राजा भगीरथ के पास जाओ और कोशिश करो कि वह अपने तप से डगमगा जायें । अलका और उर्वशी ने भगीरथ को देखा । एक सादा सा आदमी अपनी धुन में था । उन दोनों ने भगीरथ के चारों ओर बसंत बनाया । चिड़ियां चहकने लगीं । कलियां चटकने लगी । मंद पवन बहने लगा । लताएं झूमने लगीं । कुंज मुस्कराने लगे । दोनों अप्सराएं नाचीं । मोहिनी फैलाई और चाहा कि भगीरथ तप को छोड़ दें । पर भगीरथ पर असर नहीं हुआ । जब उर्वशी का लुभाव बढ़ा तो भगीरथ के तप का तेज बढ़ा । दोनों हारीं और लौट गई । उनके लौटते ही ब्रह्मा पसीज गये । वह सामने आये और बोले, “बेटा, वर मांग ! ”

भगीरथ ने कहा " गंगा को धरती पर भेजिए "

भगीरथ की बात सुनकर ब्रह्मा जी ने क्षण भर सोचा, फिर बोले, “ऐसा ही होगा, भगीरथ ।” ब्रह्मा जी बोले, “ऐसा ही होगा, भगीरथ !”

ब्रह्मा जी के मुंह से यह वचन निकले और उनके हाथ का कमण्डल बड़े जोर से कांपने लगा । ऐसा लगता था जैसे कि वह टुकड़े-टुकड़े हो जायगा । थोड़ी देर बाद उसमें से एक स्वर सुनाई दिया, “ब्रह्मा, ये तुमने क्या किया ? तुमने भगीरथ को क्या वर दे डाला ?”

ब्रह्मा बोले, “मैंने ठीक ही किया है, गंगा !”

गंगा चौंकीं और बोलीं, “तुम मुझे धरती पर भेजना चाहते हो और कहते हो कि तुमने ठीक ही किया है !”

“हां, देवी !” ब्रह्मा ने कहा ।

“कैसे ?” गंगा ने पूछा ।

ब्रह्मा ने बताया, “देवी, आप संसार का दु:ख दूर करने के लिए पैदा हुई हैं । आप अभी मेरे कमण्डल में बैठी हैं । अपना काम नहीं कर रही हैं ।”

गंगा ने कहा, “ब्रह्मा, धरती पर पापी, पाखंडी, पतित रहते हैं । तुम मुझे उन सबके बीच भेजना चाहते हो ?”

ब्रह्मा बोले, “देवी, आप बुरे को भला बनाने के लिए, पापी को उबारने के लिए, पाखंड मिटाने के लिए, पतित को तारने के लिए, कमजोरों को सहारा देने के लिए और नीचों को उठाने के लिए ही बनी हैं।”

गंगा ने कहा, “ब्रह्मा !”

ब्रह्मा बोले, “देवी, बुरों की भलाई करने के लिए तुमको बुरों के बीच रहना होगा । पापियों को उबारने के लिए पापियों के बीच रहना होगा । पाखंड को मिटाने के लिए पाखंड के बीच रहना होगा । पतितों को तारने के लिए पतितों के बीच रहना होगा । कमजोरों को सहारा देने के लिए कमजोरों के बीच रहना होगा और नीचों को उठाने के लिए नीचों के बीच निवास करना होगा । तुम अपने धर्म को पहचानों, अपने करम को जानों ।”

गंगा थोड़ी देर चुप रहीं । फिर बोलीं, “ब्रह्मा, तुमने मेरी आंखें खोल दी हैं । मैं धरती पर जाने को तैयार हूं । पर धरती पर मुझे संभालेगा कौन ?” ब्रह्मा ने भगीरथ की ओर देखा ।

भगीरथ ने उनसे पूछा, “आप ही बताइये ।”

शिव

ब्रह्मा बोले, “तुम भगवान शिव को प्रसन्न करो । यदि वह तैयार हो गये तो गंगा को संभाल लेंगे और गंगा धरती पर उतर आयंगी ।” ब्रह्मा उपाय बताकर चले गये । भगीरथ अब शिव को रिझाने के लिए तप करने लगे ।

भगवान शिव शंकर हैं । महादेव हैं । वह दानी है, सदा देते रहते है और सोचते रहते हैं कि लोग और मांगें तो और दें । भगीरथ ने बड़े भक्ति भाव से विनती की । हिमालय के कैलाश पर निवास करने वाले शंकर रीझ गये । भगीरथ के सामने आये और अपना डमरु खड़-खड़ाकर बोले, “मांग बेटा, क्या मांगता है ?”

भगीरथ बोले, “भगवान, शंकर की जय हो ! गंगामैया धरती पर उतरना चाहती हैं, भगवन ! कहती हैं.....”

शिव ने भगीरथ को आगे नहीं बोलने दिया । वह बोले, “भगीरथ, तुमने बहुत बड़ा काम किया है । मैं सब बातें जानता हूं । तुम गंगा से विनती करो कि वह धरती पर उतरें । मैं उनको अपने मस्तक पर धारण करुंगा ।”

भगीरथ ने आंखें ऊपर उठाई, हाथ जोड़े और गंगाजी से कहने लगे, “मां, धरती पर आइये । मां, धरती पर आइये । भगवान शिव आपको संभाल लेंगे ।”

भगीरथ गंगाजी की विनती में लगे और उधर भगवान शिव गंगा को संभालने की तैयार करने लगे । गंगा ने ऊपर से देखा कि धरती पर शिव खड़े हैं । देखने में वह छोटे से लगते हैं । बहुत छोटे से । वह मुस्कराई । यह शिव मुझे संभालेंगे ? मेरे वेग को संभालेंगे ? मेरे तेज को संभालेंगे ? इनका इतना साहस ? मैं इनको बता दूंगी कि गंगा को संभालना सरल काम नहीं है ।

गंगावतरण

भगीरथ ने विनती की । शिव होशियार हुए और गंगा आकाश से टूट पड़ीं । गंगा उतरीं तो आकाश सफेदी से भर गया । पानी की फुहारों से भर गया । रंग-बिरंगे बादलों से भर गया । गंगा उतरीं तो आकाश में शोर हुआ । गंगा उतरीं तो ऐसी उतरीं कि जैसे आकाश से तारा गिरा हो, अंगारा गिरा हो, उनकी कड़क से आसमान कांपने लगा। दिशाएं थरथराने लगी । पहाड़ हिलने लगे और धरती डगमगाने लगी । गंगा उतरीं तो देवता डर गये और दांतों तले उंगली दबा ली ।

गंगा उतरीं तो भगीरथ की आंखें बंद हो गई । वह शांत रहे । भगवान का नाम जपते रहे । थोड़ी देर में धरती का हिलना बंद हो गया । कड़क शांत हो गई और आकाश की सफेदी गायब हो गई । भगीरथ ने भोले भगवान की जटाओं में गंगाजी के लहराने का सुर सुना । भगीरथ को ज्ञान हुआ कि गंगाजी शिव की जटा में फंस गई हैं । वह उमड़ती हैं । उसमें से निकलने की राह खोजती हैं, पर राह मिलती नहीं है । गंगाजी घुमड़-घुमड़कर रह जाती हैं । बाहर नहीं निकल पातीं ।

भगीरथ समझ गये । वह जान गये कि गंगाजी भोले बाबा की जटा में कैद हो गई है । भगीरथ ने भोले बाबा को देखा । वह शांत खड़े थे । भगीरथ ने उनके आगे घुटने टेके और हाथ जोड़कर बैठ गये और बोले, “हे कैलाश के वासी, आपकी जय हो ! आपकी जय हो ! आप मेरी विनती मानिये और गंगाजी को छोड़ दीजिये !”

भगीरथ ने बहुत विनती की तो शिवशंकर रीझ गये । उनकी आंखें चमक उठीं । हाथ से जटा को झटका दिया तो पानी की एक बूंद धरती पर गिर पड़ी । बूंद धरती पर शिलाओं के बीच गिरी, फूली और धारा बन गई । वह उमड़ी और बह निकली । उसमें से कलकल का स्वर निकलने लगा । उसकी लहरें उमंग-उमंगकर किनारों को छूने लगीं । गंगा धरती पर आ गई । भगीरथ ने जोर से कहा, “गंगामाई की जय !”

गंगामाई ने कहा, “भगीरथ, रथ पर बैठो और मेरे आगे-आगे चलो ।” भगीरथ रथ पर बैठे । आगे-आगे उनका रथ चला, पीछे-पीछे गंगाजी बहती हुई चलीं । वे हिमालय की शिलाओं में होकर आगे बढ़े । घने वनों को पार किया और मैदान में उतर आये । ऋषिकेश पहुंचे और हरिद्वार आये । आगे गढ़मुक्तेश्वर पहुंचे ।

आगे चलकर गंगाजी ने पूछा, “क्यों भगीरथ, क्या मुझे तुम्हारी राजधानी के दरवाजे पर भी चलना होगा ?”

भगीरथ ने हाथ जोड़कर कहा, “नहीं माता, हम आपको जगत की भलाई के लिए धरती पर लाये हैं । अपनी राजधानी की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं ।”

गंगा बहुत खुश हुई । बोलीं, “भगीरथ, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं । आज से मैं अपना नाम भी भागीरथी रख लेती हूं ।”

भगीरथ ने गंगामाई की जय बोली और वह आगे बढ़े । सोरों, इलाहाबाद, बनारस, पटना होते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे । साठ हजार राख की ढेरियां उनके पवित्र जल में डूब गई । वह आगे बढ़ीं तो उनको सागर दिखाई दिया । सागर को देखते ही खिलखिलाकर हंस पड़ीं और बोलीं, “बेटा भगीरथ, अब तुम लौट जाओ । मैं यहीं सागर में विश्राम करुंगी ।”

तब से गंगा आकाश से हिमालय पर उतरती हैं । सत्रह सौ मील धरती सींचती हुई सागर में विश्राम करने चली जाती हैं । वह कभी थकती नहीं, अटकती नहीं । वह तारती हैं, उबारती हैं और भलाई करती हैं । यही उनका काम है । वह इसमें सदा लगी रहती हैं ।