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− | *समुद्र तटवर्ती एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उस वृक्ष की डालियों पर अनेक मुनिगण बैठा करते थे। एक बार गरूड़ भोजन करने के निमित्त उस बरगद की एक शाखा पर जा बैठे। उनके भार से शाखा टूट गयी। यह देखकर उस शाखा के निवासी वैखानस, माष, बालखिल्य इत्यादि सब इकट्ठे हो गये। मुनियों की रक्षा के निमित्त गरूड़ ने एक पांव के सहारे शाखा पर बैठकर हाथी व कच्छप का मांस खाया तथा उस सौ योजन तक विस्तृत शाखा को निषाद देश पर गिरा दिया, जो पूर्णत: नष्ट हो गया। <ref>वाल्मीकि रामायण, अरण्य कांड, सर्ग 35,श्लोक 27-33</ref> | + | *समुद्र तटवर्ती एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उस वृक्ष की डालियों पर अनेक मुनिगण बैठा करते थे। एक बार गरूड़ भोजन करने के निमित्त उस बरगद की एक शाखा पर जा बैठे। उनके भार से शाखा टूट गयी। यह देखकर उस शाखा के निवासी वैखानस, माष, बालखिल्य इत्यादि सब इकट्ठे हो गये। मुनियों की रक्षा के निमित्त गरूड़ ने एक पांव के सहारे शाखा पर बैठकर हाथी व कच्छप का मांस खाया तथा उस सौ [[योजन]] तक विस्तृत शाखा को निषाद देश पर गिरा दिया, जो पूर्णत: नष्ट हो गया। <ref>वाल्मीकि रामायण, अरण्य कांड, सर्ग 35,श्लोक 27-33</ref> |
*अमृत की खोज में निकले हुए गरूड़ ने अपनी भूख शांत करने के लिए कछुए (विभावसु) तथा हाथी (सुप्रतीक) को चोंच में दबा रखा था तथा बैठने का स्थान खोज रहे थे। एक पुराने बरगद ने उन्हें आमंत्रित किया। वे जिस शाखा पर बैठे, वह टूट गयी। उसी शाखा पर बालखिल्य ऋषि लटककर तपस्या कर रहे थे। गरूड़ ने हाथी और कछवे को पंजों में दबाकर वटवृक्ष की उस शाखा को चोंच में दबा लिया तथा उड़ने लगे। उन्हें भय था कि कहीं भी बैठने से ऋषि-हत्या का पाप लगेगा। उड़ते-उड़ते वे अपने पिता [[कश्यप]] के पास पहुंचे जिन्होंने ऋषियों से प्रार्थना की कि वे शाखा का परित्याग कर दें। ऋषियों के शाखा छोड़ देने के उपरांत गरूड़ ने वह शाखा एक निर्जन पर्वत शिखर पर छोड़ दी। <ref>महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], अध्याय 29, श्लोक 42 से 44 तक, अध्याय 30, 1 से 25 तक</ref> | *अमृत की खोज में निकले हुए गरूड़ ने अपनी भूख शांत करने के लिए कछुए (विभावसु) तथा हाथी (सुप्रतीक) को चोंच में दबा रखा था तथा बैठने का स्थान खोज रहे थे। एक पुराने बरगद ने उन्हें आमंत्रित किया। वे जिस शाखा पर बैठे, वह टूट गयी। उसी शाखा पर बालखिल्य ऋषि लटककर तपस्या कर रहे थे। गरूड़ ने हाथी और कछवे को पंजों में दबाकर वटवृक्ष की उस शाखा को चोंच में दबा लिया तथा उड़ने लगे। उन्हें भय था कि कहीं भी बैठने से ऋषि-हत्या का पाप लगेगा। उड़ते-उड़ते वे अपने पिता [[कश्यप]] के पास पहुंचे जिन्होंने ऋषियों से प्रार्थना की कि वे शाखा का परित्याग कर दें। ऋषियों के शाखा छोड़ देने के उपरांत गरूड़ ने वह शाखा एक निर्जन पर्वत शिखर पर छोड़ दी। <ref>महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]], अध्याय 29, श्लोक 42 से 44 तक, अध्याय 30, 1 से 25 तक</ref> | ||
*[[विष्णु]] क्षीर सागर में सो रहे थे। विरोचन के पुत्र एक दैत्य ने ग्राह का रूप धारण करके विष्णु का दिव्य मुकुट हर लिया था। विष्णु ने [[कृष्ण]] के रूप में अवतार लिया। एक बार वे गोमंत पर्वत पर बैठे [[बलराम]] से बात कर रहे थे कि गरूड़ दैत्यों को हराकर वह दिव्य मुकुट ले आया तथा उसने वह कृष्ण को पहना दिया।<ref> हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 41 ।</ref> | *[[विष्णु]] क्षीर सागर में सो रहे थे। विरोचन के पुत्र एक दैत्य ने ग्राह का रूप धारण करके विष्णु का दिव्य मुकुट हर लिया था। विष्णु ने [[कृष्ण]] के रूप में अवतार लिया। एक बार वे गोमंत पर्वत पर बैठे [[बलराम]] से बात कर रहे थे कि गरूड़ दैत्यों को हराकर वह दिव्य मुकुट ले आया तथा उसने वह कृष्ण को पहना दिया।<ref> हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 41 ।</ref> |
०८:१५, १२ जनवरी २०१० का अवतरण
गरूड़ / Garuda
- समुद्र तटवर्ती एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उस वृक्ष की डालियों पर अनेक मुनिगण बैठा करते थे। एक बार गरूड़ भोजन करने के निमित्त उस बरगद की एक शाखा पर जा बैठे। उनके भार से शाखा टूट गयी। यह देखकर उस शाखा के निवासी वैखानस, माष, बालखिल्य इत्यादि सब इकट्ठे हो गये। मुनियों की रक्षा के निमित्त गरूड़ ने एक पांव के सहारे शाखा पर बैठकर हाथी व कच्छप का मांस खाया तथा उस सौ योजन तक विस्तृत शाखा को निषाद देश पर गिरा दिया, जो पूर्णत: नष्ट हो गया। [१]
- अमृत की खोज में निकले हुए गरूड़ ने अपनी भूख शांत करने के लिए कछुए (विभावसु) तथा हाथी (सुप्रतीक) को चोंच में दबा रखा था तथा बैठने का स्थान खोज रहे थे। एक पुराने बरगद ने उन्हें आमंत्रित किया। वे जिस शाखा पर बैठे, वह टूट गयी। उसी शाखा पर बालखिल्य ऋषि लटककर तपस्या कर रहे थे। गरूड़ ने हाथी और कछवे को पंजों में दबाकर वटवृक्ष की उस शाखा को चोंच में दबा लिया तथा उड़ने लगे। उन्हें भय था कि कहीं भी बैठने से ऋषि-हत्या का पाप लगेगा। उड़ते-उड़ते वे अपने पिता कश्यप के पास पहुंचे जिन्होंने ऋषियों से प्रार्थना की कि वे शाखा का परित्याग कर दें। ऋषियों के शाखा छोड़ देने के उपरांत गरूड़ ने वह शाखा एक निर्जन पर्वत शिखर पर छोड़ दी। [२]
- विष्णु क्षीर सागर में सो रहे थे। विरोचन के पुत्र एक दैत्य ने ग्राह का रूप धारण करके विष्णु का दिव्य मुकुट हर लिया था। विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया। एक बार वे गोमंत पर्वत पर बैठे बलराम से बात कर रहे थे कि गरूड़ दैत्यों को हराकर वह दिव्य मुकुट ले आया तथा उसने वह कृष्ण को पहना दिया।[३]
- शर्त में हार के कारण विनता कद्रू की दासी बन गयी। कद्रू पुत्र नाग थे तथा विनता पुत्र गरूड़ था। कद्रू ने गरूड़ को प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करने जाते देखा तो एक दिन नागों को भी साथ ले जाने के लिए कहा। गरूड़ मान गया। सूर्य के निकट पहुंचने से पहले ही नाग ताप से आकुल हो उठे। उनके मना करने पर भी गरूड़ उन्हें सूर्य के निकट ले गया। वे झुलस गये। वापस लौटने पर कद्रू बहुत रूष्ट हुई। नागों की शांति के लिए कद्रू के कहने से गरूड़ ने रसातल से गंगाजल लाकर उन पर छिड़का। [४]
टीका-टिप्पणी
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