"गीता कर्म योग" के अवतरणों में अंतर

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== कर्म योग गीता ==
 
== कर्म योग गीता ==
=== बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य ===
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===बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य===
'''किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।<balloon title="पंडितों को भी इस विषय में मोह हो जाया करता है कि कर्म कौन–सा है, और अकर्म कौन–सा है। इस स्थान पर अकर्म शब्द को 'कर्म के अभाव' और 'बुरे कर्म' दोनों  अर्थों में यथासम्भव लेना चाहिए।" style=color:blue>*</balloon>- गीता 4.16।'''<br />
 
  
'''भगवद्गीता''' के आरम्भ में परस्पर–विरूद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण [[अर्जुन]] जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौका आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो सन्यास लेकर और संसार को छोड़कर वन में चले जाते हैं अथवा जो कमजोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रहकर ही जिन महान तथा कार्यकर्त्ता पुरूषों को अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह [[युधिष्ठिर]] को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं।
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'''तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।<balloon title="इसलिए तू योग का आश्रय ले। कर्म करने की जो रीति, चतुराई या कुशलता है उसे योग कहते हैं। यह 'योग' शब्द की व्याख्या अर्थात् लक्षण है। इसके संबंध में अधिक विचार इसी प्रकरण में आगे चलकर किया है।" style=color:blue>*</balloon>गीता 2.50।'''
  
<blockquote>उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।</blockquote>
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यदि किसी मनुष्य को किसी शास्त्र के जानने की इच्छा पहले ही से न हो तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे अधिकार रहित मनुष्य को उस शास्त्र की शिक्षा देना मानो चलनी ही में दूध दुहना है। शिष्य को तो उस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं; परन्तु गुरू को भी निरर्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है। [[जैमिनि]] और बादरायण के आरंभ में इसी कारण से '''अथातो धर्मजिज्ञासा''' और '''अथातो ब्रह्माजिज्ञासा''' कहा हुआ है। जैसे ब्रह्मोपदेश मुमुक्षुओं को और धर्मोपदेश धर्मेच्छुओं को देना चाहिए, वैसे ही कर्म शास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिए जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिए। इसीलिए हमने पहले प्रकरण में 'अथातो' कहकर, दूसरे प्रकरण में कर्म–जिज्ञासा का स्वरूप और कर्म–योगशास्त्र का महत्व बतलाया है। जब तक पहले ही से इस बात का अनुभव न कर लिया जाए कि अमुक काम में अमुक रूकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देने वाला शास्त्र का महत्व ध्यान में नहीं आता; और महत्व को न जानने से केवल रटा हुआ शास्त्र समय पर ध्यान में रहता भी नहीं है। यही कारण है कि जो सदगुरू हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिष्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं, और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जाग्रत करने का प्रयत्न किया करते हैं।
  
'''‘कोरियोलेनस’''' नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा’’। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाजे के पास आ पहुँचा। उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके मातृभूमि के सम्बन्ध में उसको उपदेश दिया। अंत में उसको रोम के शत्रुओं को दिए हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाए जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई अवश्यकता नहीं। हमारा [[महाभारत]] ग्रंथ ऐसे अनेकों उदाहरणों की एक बड़ी खान ही है। ग्रंथ के आरम्भ<balloon title="महाभारत, आदिपर्व 2" style=color:blue>*</balloon> में वर्णन करते हुए स्वंय [[व्यास]] जी ने उसको 'सूक्ष्मार्थन्याययुक्तं', 'अनेकसमयान्वितं' आदि विशेषण दिए गए हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गायी गयी है कि 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्' अर्थात; जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में भी है, और जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है<balloon title="महाभारत, आदिपर्व 62.53" style=color:blue>*</balloon>। सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े–बड़े प्राचीन पुरूषों ने कैसा बर्ताव किया, इसका सुलभ आख्यानों के द्वारा साधाराणजनों को बोध करा देने के लिए ही 'भारत' का 'महाभारत' हो गया है। नहीं तो सिर्फ 'भारतीय युद्ध' अथवा 'जय' नामक इतिहास का वर्णन करने के लिए अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी।
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[[गीता]] में कर्मयोग शास्त्र का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब [[अर्जुन]] के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृवध और गुरूवध होगा तथा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जाएगा, उसमें शामिल होना उचित है या अनुचित; और जब वह युद्ध से पराड़्मुख होकर सन्यास लेने को तैयार हुआ और जब भगवान के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ कि 'समय पर किए जाने वाले कर्म का त्याग करना मूर्खता और दुर्बलता का सूचक है। इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं, उलटा दुष्कीर्ति अवश्य होगी।' तब श्री भगवान ने पहले
  
'''अब''' यह प्रश्न किया जा सकता है कि [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिए; हमारे–तुम्हारे लिए इतने गहरे पानी में बैठने की क्या आवश्यकता है? क्या [[मनु]] आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात स्पष्ट नियम नहीं बना दिए हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करे? किसी की हिंसा मत करो, नीति से चलो, सच बोलो, गुरू और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय तो ऊपर लिखे कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के झगड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता है? परंतु इसके विरूद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि जब तक इस संसार के सब लोग उक्त आज्ञाओं के अनुसार बर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सज्जनों को क्या करना चाहिए? क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण दुष्टजनों के फंदे में अपने को फँसा लें? या अपनी रक्षा के लिए 'जैसे को तैसा' होकर उन लोगों का प्रतिकार करें? इसके सिवाय एक बात और भी है। यद्यपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाणभूत मान लें, तथापि कार्य–कर्त्ताओं को अनेक बार ऐसे मौके आते हैं कि उस समय उक्त साधारण नियमों में से दो या दो से अधिक नियम एकदम लागू होते हैं। उस समय 'यह करूं या वह करूं' इस चिन्ता में पड़कर मनुष्य पागल–सा हो जाता है। अर्जुन पर ऐसा ही मौका आ पड़ा था। परन्तु अर्जुन के सिवाय और लोगों पर भी ऐसे कठिन अवसर अक्सर आया करते हैं।
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'''अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे'''
  
'''इस''' बात का मार्मिक विवेचन महाभारत में कई स्थानों पर किया गया है। उदाहरणार्थ; मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिए नीतिधर्म के पाँच नियम बतलाए हैं– 'अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:<balloon title="मनुस्मृति 10.63" style=color:blue>*</balloon>' अर्थात्; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया वाचा और मन की शुद्धता, एवं इन्द्रिय–निग्रह। इन नीतिधर्मों में से एक अहिंसा का ही विचार कर लीजिए। 'अहिंसा परमो धर्म:<balloon title="महाभारत, आदिपर्व 11.13" style=color:blue>*</balloon>' यह तत्व सिर्फ़ हमारे वैदिक धर्म में ही नहीं, किंतु अन्य सब धर्मों में भी प्रधान माना गया है।
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<blockquote>'''अर्थात'''; जिस बात का शोक नहीं करना चाहिए उसी का तो तू शोक कर रहा है और साथ–साथ ब्रह्मज्ञान की भी बड़ी बड़ी बातें छाँट रहा है, कहकर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया। अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी। गत प्रकरण में हमने यह दिखलाया है कि अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में अनेक अड़चनें आती हैं, इसलिए कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है। विचारवान पुरूषों को ऐसी युक्ति अर्थात 'योग' का स्वीकार करना चाहिए जिससे सांसारिक कर्मों का लोप तो होने न पाए और कर्माचरण करने वाला किसी पाप या बंधन में भी न फँसे– यह कहकर श्री[[कृष्ण]] ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है-</blockquote>
  
[[बौद्ध]] और ईसाई धर्म–ग्रंथों में जो आज्ञाएँ हैं उनमें अहिंसा को मनु की आज्ञा के समान पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ़ किसी की जान ले लेना ही हिंसा नहीं है। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को दु:ख देने का भी समावेश किया जाता है अर्थात किसी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दु:खी न करना ही अहिंसा है। इस संसार में सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिए कि हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाए और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो; तो उस समय हमें क्या करना चाहिये? क्या 'अहिंसा परमो धर्म:' कहकर ऐसे आततायी मनुष्य की उपेक्षा की जाय? या, यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय? मनु जी कहते हैं–
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'''तस्माद्योगाय युज्यस्व''',  
<poem>'''गुरूं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।'''
 
'''आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।'''</poem>
 
<blockquote>अर्थात्; 'ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरू है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है।' शास्त्रकार कहते हैं कि<balloon title="मनुस्मृति 8.350" style=color:blue>*</balloon> ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है। आत्मरक्षा का यह हक कुछ मर्यादा के भीतर आधुनिक फौजदारी कानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्मरक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूण हत्या सबसे अधिक निंदनीय मानी गयी है; परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिए? [[यज्ञ]] में पशु का वध करना [[वेद]] ने भी प्रशस्त माना है<balloon title="मनुस्मृति 8.350, 5.31" style=color:blue>*</balloon>; परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है<balloon title="महाभारत, शान्तिपर्व, 337; अनुशासनपर्व, 115.59" style=color:blue>*</balloon>। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकड़ो जीव–जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है? महाभारत<balloon title="महाभारत, शान्तिपर्व, 15.29" style=color:blue>*</balloon> में अर्जुन कहते हैं–</blockquote>
 
<poem>'''सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।'''
 
'''पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।।'''</poem>
 
<blockquote>अर्थात्; 'इस जगत में ऐसे–ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलाएं तो उतने से ही उन जन्तुओं का नाश हो जाता है।' ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि 'हिंसा मत करो, हिंसा मत करो' तो उससे क्या लाभ होगा? इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में शिकार करने का समर्थन किया गया है। वनपर्व में एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिव्रता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिए उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने उसे किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने माता–पिता का बड़ा पक्का भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्व समझाकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता? 'जीवो जीवस्य जीवनम्<balloon title="भागवत पुराण, 1.13.49" style=color:blue>*</balloon>'– यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपातकाल में तो 'प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्' यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों<balloon title="मनुस्मृति, 5.28; महाभारत, शान्तिपर्व, 15.21" style=color:blue>*</balloon> ही ने नहीं कहा है; किन्तु [[उपनिषद|उपनिषदों]] में भी स्पष्ट कहा है<balloon title="वेदान्तसूत्र, 3.4.28; छान्दोग्य उपनिषद, 5.2.1; बृहदारण्यकोपनिषद, 9.1.14" style=color:blue>*</balloon>। यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा? यदि क्षात्र धर्म नष्ट हो जाए तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी? सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम– अहिंसा में भी कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है।
 
अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति आदि गुण शास्त्रों आदि में कहे गए हैं; परन्तु सब समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा? सदा शान्त रहने वाले मनुष्यों के बाल–बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किए बिना नहीं रहेंगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके [[प्रह्लाद]] ने अपने नाती, राजा [[बलि]] से कहा है–</blockquote>
 
<poem>'''न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।'''
 
...
 
'''तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता।।'''</poem>
 
<blockquote>अर्थात; 'सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसी लिए हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिए कुछ अपवाद भी कहे हैं<balloon title="महाभारत, वनपर्व, 28.6, 8" style=color:blue>*</balloon>। इसके बाद कुछ मौकों का वर्णन किया गया है जो क्षमा के लिए उचित हैं; तथापि प्रह्लाद ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि इन मौकों का पहचानने का तत्व या नियम क्या है। यदि इन मौकों को पहचाने बिना, सिर्फ़ अपवादों का ही कोई उल्लेख करे तो वह दुराचरण समझा जाएगा। इसलिए यह जानना अत्यंत आवश्यक और अति महत्वपूर्ण है कि इन मौकों को पहचानने का नियम क्या है।<br />
 
दूसरा तत्व 'सत्य' है, जो कि सब देशों और धर्मों में भली–भाँति माना जाता है और प्रमाण समझा जाता है। सत्य का वर्णन कहाँ तक किया जाए? [[वेद]] में सत्य की महिमा के विषय में यह कहा गया है कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति के पहले 'ऋतं' और 'सत्य' उत्पन्न हुए; और सत्य ही से [[आकाश]], [[पृथ्वी]], [[वायु देव|वायु]] आदि पंच महाभूत स्थिर हैं – 'ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत<balloon title="ऋग्वेद, 10.190.1" style=color:blue>*</balloon>', 'सत्येनोत्तभिता भूमिः<balloon title="ऋग्वेद, 10.85.1" style=color:blue>*</balloon>'। 'सत्य' शब्द का धात्वर्थ भी यही है – 'रहने वाला' अर्थात; 'जिसका कभी अभाव न हो' अथवा 'त्रिकाल अभादित'। इसी लिए सत्य के विषय में कहा गया है कि 'सत्य के सिवाय और कोई धर्म नहीं है, सत्य ही परब्रह्म है।' महाभारत में कई जगह इस वचन का उल्लेख किया गया है कि 'नास्ति सत्यात्परो धर्मः<balloon title="महाभारत, शान्तिपर्व, 162.24" style=color:blue>*</balloon>'  और यह भी लिखा है किः–</blockquote>
 
<poem>'''अश्वमेधसहस्त्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।'''
 
'''अश्वमेधसहस्त्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।'''</poem>
 
अर्थात; 'हज़ार [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] और सत्य की तुलना की जाए तो सत्य ही अधिक होगा<balloon title="महाभारत, आदिपर्व' 74.102" style=color:blue>*</balloon>'। यह वर्णन सामान्य सत्य के विषय में हुआ। सत्य के विषय में मनु जी एक विशेष बात और कहते हैं<balloon title="मनुस्मृति, 4.256" style=color:blue>*</balloon>:-
 
<poem>'''वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः सृताः।'''
 
'''तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।'''</poem>
 
<blockquote>अर्थात; 'मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिए शब्द के समान अन्य कोई साधन नहीं है। वही सब व्यवहारों का आश्रय–स्थान और वाणी का मूल स्त्रोत है। जो मनुष्य उसको मलिन कर डालता है, अर्थात जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूँजी ही की चोरी करता है।' इसी लिए मनु ने कहा है कि 'सत्यपूतां वदेद्वाचं<balloon title="मनुस्मृति, 6.46" style=color:blue>*</balloon>'– जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाए। और अन्य धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिए [[उपनिषद]] में भी कहा है 'सत्यं वद। धर्मं चर<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद, 1.11.1" style=color:blue>*</balloon>'। जब बाणों की शैया पर पड़े–पड़े [[भीष्म]] पितामह शान्ति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठर को सब धर्मों के उपदेश दे चुके थे, तब प्राण छोड़ने के पहले 'सत्येषु यतितर्व्य वः सत्यं हि परमं बलं' इस वचन को सब धर्मों का सार समझ कर उन्होंने सत्य के ही अनुसार व्यवहार करने के लिए सब लोगों को उपदेश किया है<balloon title="महाभारत, अनुशासनपर्व, 167.50" style=color:blue>*</balloon>। बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है।</blockquote>
 
  
'''क्या''' इस बात की कभी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयंसिद्ध और चिरस्थायी है, उसके लिए भी कुछ अपवाद होंगे? परन्तु दुष्टजनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत ही कठिन है। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किए जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे हैं। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगें कि वे आदमी कहाँ चले गए? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोलकर सब हाल कह दोगे, या उन अपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्व का धर्म है। मनु कहते हैं 'नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः<balloon title="मनुस्मृति, 2.110; महाभारत, शांन्तिपर्व, 287.34" style=color:blue>*</balloon>'– जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए। और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे, तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान हूँ–हूँ कर देना और बात को बना देना चाहिए– 'जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्।' अच्छा, क्या हूँ–हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है?
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<blockquote>'''अर्थात'''; तू भी इसी युक्ति को स्वीकार कर। यही 'योग' कर्मयोगशास्त्र है और जबकि यह बात प्रगट है कि अर्जुन पर आया हुआ संकट कुछ लोक–विलक्षण या अनोखा नहीं था। ऐसे अनेक छोटे–बड़े संकट संसार में सभी लोगों पर आया करते हैं। तब तो यह बात आवश्यक है कि इस कर्मयोगशास्त्र का जो विवेचन [[गीता|भगवद्गीता]] में किया गया है, उसे हर एक मनुष्य सीखे। किसी शास्त्र के प्रतिपादन में कुछ मुख्य और गूढ़ अर्थ को प्रगट करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अतएव उनके सरल अर्थ को पहले जान लेना चाहिए और यह भी देख लेना चाहिए कि उस शास्त्र के प्रतिपदान की मूल शैली कैसी है, नहीं तो फिर उसके समझने में कई प्रकार की अपत्तियाँ और बाधाएँ होती हैं। इसलिए कर्मयोगशास्त्र के कुछ मुख्य शब्दों के अर्थ की परीक्षा यहाँ पर की जाती है।</blockquote>
  
'''महाभारत'''<balloon title="महाभारत, आदिपर्व, 215.34" style=color:blue>*</balloon> में कई स्थानों में कहा है 'न व्याजेन चरेद्धर्मं' धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, अपितु तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा, यदि हूँ– हूँ करके कुछ बात बना लेने का भी समय न हो, तो क्या करना चाहिए? मान लीजिए, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है कि तुम्हारा धन कहीँ है? यदि कुछ उत्तर दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिए? सब धर्मों का रहस्य जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण ऐसे ही चोरों की कहानी का दृष्टांत देकर कर्णपर्व<balloon title="महाभारत, कर्णपर्व, 69.61" style=color:blue>*</balloon> में अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत अध्याय<balloon title="महाभारत, शांतिपर्व, सत्यानृत अध्याय, 109.15, 16" style=color:blue>*</balloon> में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं–
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'''सबसे पहला शब्द ‘कर्म’ है।''' ‘कर्म’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है, उसका अर्थ 'करना, व्यापार, हलचल' होता है और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है, अर्थात यही अर्थ गीता में विवक्षित है। ऐसा कहने का कारण यही है कि मीमांसाशास्त्र में और अन्य स्थानों पर भी इस शब्द के जो संकुचित अर्थ दिए गए हैं, उनके कारण पाठकों के मन में कुछ भ्रम उत्पन्न होने न पाएँ। किसी भी धर्म को ही ले लीजिए, उसमें ईश्वर प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है। प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार देखा जाए तो [[यज्ञ]]–याग ही वह कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रंथों में यज्ञ–याग की विधि बताई गई है; परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्पर विरोधी वचन भी पाए जाते हैं। अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के लिए ही जैमिनि के पूर्व मीमांसाशास्त्र का प्रचार होने लगा। जैमिनि के मतानुसार वैदिक और श्रौत यज्ञ–याग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है। मनुष्य जो कुछ करता है, वह सब यज्ञ के लिए ही करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिए और धान्य संग्रह करना है तो भी यज्ञ के लिए ही<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व, 26.25" style=color:blue>*</balloon>। जबकि यज्ञ करने की आज्ञा [[वेद|वेदों]] ने ही दी है, तब यज्ञ के लिए मनुष्य कुछ भी कर्म करे वह उसको बंधक कभी नहीं होगा। वह कर्म यज्ञ का एक साधन है, वह स्वतंत्र रीति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिए यज्ञ से जे फल मिलने वाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है, उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता। परन्तु यज्ञ के लिए किए गए ये कर्म यद्यपि स्वतंत्र फल के देने वाले नहीं हैं, तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्गप्राप्ति (अर्थात मीमांसकों के मतानुसार एक प्रकार की सुखप्राप्ति) होती है और इस स्वर्गप्राप्ति के लिए ही यज्ञकर्त्ता मनुष्य बड़े चाव से यज्ञ करता है। इसी से स्वयं यज्ञकर्म 'पुरूषार्थ' कहलाता है; क्योंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की प्राप्ति होती है और जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे 'पुरूषार्थ' कहते हैं<balloon title="जैमिनि सूत्र 4.1.1 और 2" style=color:blue>*</balloon>
<poem>'''अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।'''
 
'''अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरन्वाप्यकूजनात्।'''
 
'''श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्।।'''</poem>
 
<blockquote>अर्थात; 'यह बात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके, तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।' इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है, अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ़ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयतार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही है और न ही अहिंसा। शांतिपर्व<balloon title="महाभारत, शांतिपर्व, 329.13; 287.19" style=color:blue>*</balloon> में सनत्कुमार के आधार पर [[नारद]] जी [[शुकदेव|शुक]] जी से कहते हैं–</blockquote>
 
<poem>'''सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।'''
 
'''यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम।।'''</poem>
 
'''सच''' बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सभी प्राणियों का हित हो। क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।' 'यद्भूतहितं' पद को देखकर आधुनिक उपयोगिता–वादी अंग्रेजों का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रक्षिप्त कहना चाहे, तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि यह वचन महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण और व्याध के संवाद में दो–तीन बार आया है। उनमें से एक जगह तो 'अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम् पाठ है<balloon title="महाभारत, वनपर्व, 209.73" style=color:blue>*</balloon>, और दूसरी जगह 'यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा<balloon title="महाभारत, वनपर्व, 208.4" style=color:blue>*</balloon>', ऐसा पाठ भेद किया गया है। सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने [[द्रोणाचार्य]] से 'नरो वा कुंजरो वा' कहकर उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है, और कुछ नहीं।
 
  
'''ऐसी''' ही और अन्य बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोलकर किसी खूनी की जान बचायी जाए। शास्त्रों में खून करने वाले आदमी के लिए देहान्त, प्रायश्चित अथवा वधदंड की सज़ा कही गई है, इसी लिए वह सज़ा पाने अथवा वध करने के योग्य है। सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय, अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या और अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है<balloon title="मनुस्मृति, 8.89–99; महाभारत, आदिपर्व, 7.3" style=color:blue>*</balloon>। परन्तु जब कर्णपर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो तो उस समय क्या करना चाहिए? ग्रीन नामक एक अंग्रेज़ ग्रंथकार ने अपने 'नीतिशास्त्र का उपोद्घात' नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। यद्यपि, मनु और [[याज्ञवल्क्य]] ऐसे प्रसंगों की गणना सत्यापवाद में करते हैं, तथापि यह भी उसके मत में गौण बात है। इसी लिए अंत में उन्होंने इस अपवाद के लिए भी प्रायश्चित बतलाया है– 'तत्पावनाय निर्वाप्यश्चरूः सारस्वतो द्विजैः<balloon title="याज्ञवल्क्य स्मृति. 2.83; मनुस्मृति. 8.104–106" style=color:blue>*</balloon>।
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'''यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा ‘ऋतु’ शब्द है''', इसलिए ‘यज्ञार्थ’ के बदले ‘ऋत्वर्थ’ भी कहा करते हैं। इस प्रकार सब कर्मों के दो वर्ग हो गएः– एक 'यज्ञार्थ' (ऋत्वर्थ) कर्म, अर्थात जो स्वतंत्र रीति से फल नहीं देते, अतएव अबंधक हैं; और दूसरे 'पुरूषार्थ' कर्म, अर्थात् जो पुरूष को लाभकारी होने के कारण बंधक हैं। [[संहिता]] और [[ब्राह्मण साहित्य|ब्राह्मण ग्रंथों]] में यज्ञ–याग आदि का ही वर्णन है। यद्यपि [[ऋग्वेद]] संहिता में [[इन्द्र]] आदि देवताओं के स्तुति संबंधी सूक्त हैं, तथापि मीमांसक–गण कहते हैं कि सब श्रुति ग्रंथ [[यज्ञ]] आदि कर्मों के ही प्रतिपादक हैं क्योंकि उनका विनियोग यज्ञ के ही समय में किया जाता है। इन कर्मठ, याज्ञिक या केवल कर्मवादियों का कहना है कि वेदोक्त यज्ञ–याग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग प्राप्ति होती है, नहीं तो नहीं होती; चाहे ये यज्ञ अज्ञानता से किए जाएँ या ब्रह्मज्ञान से। यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राह्य माने गए हैं, तथापि उनकी योग्यता ब्रह्मज्ञान से कम ठहराई गई है। इसलिए निश्चय किया गया है कि यज्ञ–याग से स्वर्ग प्राप्ति भले ही हो जाए, परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मज्ञान की ही नितान्त आवश्यकता है।
  
'''कुछ''' बड़े अंग्रेज़ों ने जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोष देने का यत्न किया है। इसीलिए यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक और नीतिशास्त्र के अंग्रेज़ ग्रंथकार क्या कहते हैं। क्राइस्ट का शिष्य पॉल बाइबिल में कहता है कि 'यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात्; ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है), तो इससे मैं पापी क्योंकर हो सकता हूँ<balloon title="रोम. 3.7" style=color:blue>*</balloon>'? ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। यह बात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्रज्ञ, किसी को धोखा देकर या भुलाकर धर्म भ्रष्ट करके, न्याय नहीं मानेंगे। परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद–रहित है। उदाहरणार्थ; यह देखिए कि सिजविक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कॉलेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है। कर्म और अकर्म के संदेह का निर्णय, जिस तत्व के आधार पर, यह ग्रंथकार किया करता है, उसको 'सबसे अधिक लोगों का सबसे अधिक सुख' (बहुत लोगों का बहुत सुख) कहते हैं। इसी नियम के अनुसार यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय, और इसी प्रकार बीमार आदमियों को (यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड़ जाने का भय हो) अपने शत्रुओं को, चोरों को और (यदि बिना बोले काम न सिमटता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करें, उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है।<balloon title="Sidgwick’s Methods of Ethics, Book III. Chap. XI • 6.p.355 (7th Ed.). Also, see pp.315-317 (same Ed.)." style=color:blue>*</balloon>
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'''भगवद्गीता''' के दूसरे अध्याय में जिन यज्ञ–याग आदि काम्य कर्मों का वर्णन किया गया है
  
'''मिल''' के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी इसी अपवाद का समावेश किया गया है।<balloon title="Mill’s Utilitarianism, Chap. II.pp.33-34 (15th Ed. Longmans 1907)." style=color:blue>*</balloon> इन अपवादों के अतिरिक्त सिजवकि अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि 'यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिए, तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्यवाही गुप्त रखनी पड़ती है, वे औरों के साथ तथा व्यापारी अपने ग्राहकों से हमेशा सच ही बोला करें<balloon title="Sidgwick’s Methods of Ethics, Book IV. Chap. III • 7.p.454(7th Ed.); and Book II. Chap. V. • 3p.169." style=color:blue>*</balloon>' किसी अन्य स्थान में वह लिखता है कि यही रियायत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है। लेस्ली स्टीफ़न नाम का एक और अंग्रेज़ ग्रंथकार है। उसने नीतिशास्त्र का विवेचन आधिभौतिक दृष्टि से किया है। वह भी अपने ग्रंथ में ऐसे ही उदाहरण देकर अन्त में लिखता है कि, 'किसी कार्य के परिणाम की ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिए। यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूठ बोलने से ही कल्याण होगा, तो मैं सत्य बोलने के लिए कभी तैयार ही नहीं रहूंगा। मेरे यह विश्वास से यह भाव भी हो सकता है कि, इस समय झूठ बोलना ही मेरा कर्त्तव्य है<balloon title="Leslie Stephen’s Science of Ethics, Chap. IX • 29.p.369 (2nd Ed.). “And the certainty might be of such a kind as to make me think it a duty to lie." style=color:blue>*</balloon>' ग्रीन साहब ने नीतिशास्त्र का विचार आध्यात्मिक दृष्टि से किया है।
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'''वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः'''<balloon title="गीता 2.42" style=color:blue>*</balloon>– वे ब्रह्मज्ञान के बिना किए जाने वाले उपर्युक्त यज्ञ–याग आदि कर्म ही हैं। इसी तरह यह भी मीमांसकों ही के मत का अनुकरण है कि
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'''यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः'''<balloon title="गीता. 3.9" style=color:blue>*</balloon>,
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<blockquote>'''अर्थात'''; यज्ञार्थ किए गए कर्म बंधक नहीं हैं, शेष सब कर्म बंधक हैं। इन यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों के अतिरिक्त, अर्थात् श्रौत कर्मों के अतिरिक्त और भी चातुर्वरार्य के भेदानुसार दूसरे आवश्यक कर्म मनुस्मृति आदि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं; जैसे क्षत्रिय के लिए युद्ध और वैश्य के लिए वाणिज्य। पहले पहल इन वर्णाश्रम कर्मों का प्रतिपादन स्मृति–ग्रंथों में किया गया था, इसलिए इन्हें ‘स्मार्त कर्म’ या ‘स्मार्त यज्ञ’ भी कहते हैं। इन श्रौत और स्मार्त कर्मों के सिवाय और भी धार्मिक कर्म हैं जैसे व्रत, उपवास आदि। इनका विस्तृत प्रतिपादन पहले पहल सिर्फ़ [[पुराण|पुराणों]] में किया गया है, इसलिए इन्हें 'पौराणिक कर्म' कह सकेंगे। इन सब कर्मों के और भी तीन ‘नित्य, नैमित्तिक और काम्य’ भेद किए गए हैं। स्नान, संध्या आदि जो हमेशा किए जाने वाले कर्म हैं उन्हें नित्यकर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती, परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है। नैमित्तिक कर्म उन्हें कहते हैं जिन्हें पहले किसी कारण के उपस्थित हो जाने से करना पड़ता है, जैसे अनिष्ट ग्रहों की शान्ति, प्रायश्चित आदि। जिसके लिए हम शान्ति और प्रायश्चित करते हैं, वह निमित्त कारण यदि पहले न हो गया हो तो हमें नैमित्तिक कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जब हम कुछ विशेष इच्छा रखकर उसकी सफलता के लिए शास्त्रानुसार कोई कर्म करते हैं तब उसे काम्य–कर्म कहते हैं; जैसे वर्षा होने के लिए या पुत्रप्राप्ति के लिए यज्ञ करना। नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों के सिवाय और भी कर्म हैं, जैसे मदिरापान इत्यादि जिन्हें शास्त्रों ने त्याज्य कहा है; इसलिए ये कर्म निषिद्ध कहलाते हैं।</blockquote>
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'''नित्य कर्म कौन–से हैं,''' नैमित्तिक कौन–से हैं और काम तथा निषिद्ध कर्म कौन से हैं, ये सब बातें धर्मशास्त्रों में निश्चित कर दी गईं हैं। यदि कोई किसी धर्मशास्त्री से पूछे कि अमुक कर्म पुरायप्रद है या पापकारक, तो वह सबसे पहले इस बात का विचार करेगा कि शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार वह कर्म यज्ञार्थ है या पुरूषार्थ, नित्य है या नैमित्तिक अथवा काम्य है या निषिद्ध। और इन बातों पर विचार करके फिर वह अपना निर्णय करेगा। परन्तु भगवद्गीता की दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक और विस्तीर्ण है। मान लीजिए कि अमुक एक कर्म शास्त्रों में निषिद्ध नहीं माना गया है, अथवा वह विहित्त कर्म ही कहा गया है; जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए विहित्त कर्म था, तो इतने से ही यह सिद्ध नहीं होता कि हमें वह कर्म हमेशा करते ही रहना चाहिए, अथवा उस कर्म का करना हमेशा श्रेयस्कर ही होगा। यह बात पिछले प्रकरण में कही गई है कि कहीं कहीं तो शास्त्र की आज्ञा भी परस्पर विरूद्ध होती है। ऐसे समय में मनुष्य को किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिए? इस बात का निर्णय करने के लिए कोई युक्ति है या नहीं? यदि है, तो वह कौन सी है? बस यही [[गीता]] का मुख्य विषय है। इस विषय में कर्म के उपर्युक्त अनेक भेदों पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं। यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों तथा चातुर्वण्य के कर्मों के विषय में मीमांसकों ने जो सिद्धान्त दिए हैं, वे गीता में प्रतिपादित कर्मयोग से कहाँ तक मिलते हैं, यह दिखाने के लिए प्रसंगानुसार गीता में मीमांसकों के कथन का भी कुछ विचार किया गया है और अंतिम अध्याय<balloon title="गीता' 18.9" style=color:blue>*</balloon> में इस पर भी विचार किया गया है कि ज्ञानी पुरूष को यज्ञ–याग आदि कर्म करना चाहिए या नहीं। परन्तु गीता के मुख्य प्रतिपाद्य विषय का क्षेत्र इससे भी व्यापक है, इसलिए गीता में ‘कर्म’ शब्द का केवल ‘श्रौत अथवा स्मार्त कर्म’ इतना ही संकुचित अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए, किन्तु उससे भी अधिक व्यापक रूप में लेना चाहिए।
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'''सारांश, मनुष्य जो कुछ करता है''' – जैसे खाना, पीना, खेलना, रहना, उठना–बैठना, श्वासोच्छ्वास करना, हँसना, रोना, सूँघना, देखना, बोलना, सुनना, चलना, लेना–देना, सोना, जागना, मारना, लड़ना, मनन और ध्यान करना, आज्ञा और निषेध करना, दान देना, यज्ञ–याग करना, खेती और व्यापार–धंधा करना, इच्छा करना, निश्चय करना, चुप रहना इत्यादि इत्यादि – ये सब भगवद्गीता के अनुसार ‘कर्म’ ही हैं; चाहे वे कर्म कायिक हों, वाचिक हों अथवा मानसिक हों<balloon title="गीता. 5.8, 9)" style=color:blue>*</balloon> और तो क्या, जीना–मरना भी कर्म ही तो हैं, और मौका आने पर यह भी विचार करना पड़ता है कि 'जीना या मरना' इन दो कर्मों में से किसको स्वीकार किया जाए? इस विचार के उपस्थित होने पर कर्म शब्द का अर्थ 'कर्त्तव्य कर्म' अथवा 'विहित्त कर्म' हो जाता है।<balloon title="गीता, 4.19" style=color:blue>*</balloon> मनुष्य के कर्म के विषय में यहाँ तक विचार हो चुका। अब इसके आगे बढ़कर सब चर–अचर सृष्टि के भी एवं अचेतन वस्तु के भी व्यापार में ‘कर्म’ शब्द का ही उपयोग होता है। इस विषय का विचार आगे कर्म–विपाक–प्रक्रिया में किया जाएगा।
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'''कर्म शब्द से भी अधिक भ्रमकारक शब्द 'योग' है।''' आजकल इस शब्द का रूढ़ार्थ 'प्राणायाम आदि साधनों से चित्त–वृत्तियों या इन्द्रियों का निरोध करना', अथवा 'पातंजल सूत्रोक्त समाधि या ध्यानयोग' है। [[उपनिषद|उपनिषदों]] में भी इसी अर्थ से इस शब्द का प्रयोग हुआ है।<balloon title="कठोपनिषद. 9.11" style=color:blue>*</balloon> परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि यह संकुचित अर्थ भगवद्गीता में विविक्षित नहीं है। 'योग' शब्द 'युज्' धातु से बना है जिसका अर्थ 'जोड़, मेल, मिलाप, एकता, एकत्र–अवस्थिति' इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति की प्राप्ति के 'उपाय, साधन, युक्ति या कर्म' को भी योग कहते हैं। यही सब अर्थ [[अमरकोष]] में इस तरह से दिए हुए हैं-
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'''योगः संहननोपाय ध्यानसंगति युक्तिषु।'''
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'''फलित ज्योतिष''' में कोई ग्रह यदि इष्ट अथवा अनिष्ट हों तो उन ग्रहों का 'योग' इष्ट या अनिष्ट कहलाता है; और 'योगक्षेम' पद में 'योग' शब्द का अर्थ 'अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना' लिया गया है।<balloon title="गीता, 9.22" style=color:blue>*</balloon>  भारतीय युद्ध के समय [[द्रोणाचार्य]] को अजेय देखकर श्री[[कृष्ण]] ने कहा है कि
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'''एको हि योगोऽस्य भवेद्वधाय'''<balloon title="महाभारत. द्रोण पर्व,  181.31" style=color:blue>*</balloon>
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<blockquote>'''अर्थात'''; द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग (साधन या युक्ति) है और आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा है कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए [[जरासंध]] आदि राजाओं को योग ही से कैसे मारा था। उद्योगपर्व<balloon title="महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 172" style=color:blue>*</balloon>  में कहा गया है कि जब [[भीष्म]] ने [[अम्बा]], [[अम्बिका]] और [[अम्बालिका]] को हरण किया तब अन्य राजा लोग 'योग योग' कहकर उनका पीछा करने लगे थे। [[महाभारत]] में 'योग' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में अनेक स्थानों पर हुआ है। [[गीता]] में योग, योगी अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक शब्द लगभग अस्सी बार पाए गए हैं; परन्तु चार–पाँच स्थानों के सिवाय<balloon title="गीता. 9.12 और 23" style=color:blue>*</balloon> योग शब्द से 'पातंजल योग' अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है। सिर्फ़ 'युक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल' यही अर्थ कुछ हेर फेर से सारी गीता में पाए जाते हैं अतएव हम कह सकते हैं कि गीता शास्त्र के व्यापक शब्दों में 'योग' भी एक शब्द है।</blockquote>
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'''परन्तु योग शब्द के''' उक्त सामान्य अर्थों में से ही; जैसे साधन, कुशलता, युक्ति आदि से ही काम नहीं चल सकता, क्योंकि वक्ता की इच्छा के अनुसार यह साधन सन्यास का हो सकता है, कर्म और चित्त–निरोध का हो सकता है, और मोक्ष का अथवा और भी किसी का हो सकता है। उदाहरणार्थ; कहीं कहीं गीता में अनेक प्रकार की व्यक्त सृष्टि निर्माण करने की ईश्वरी कुशलता और अद्भुत सामर्थ्य को 'योग' कहा गया है<balloon title="गीता 7.25; 9.5; 10.7; 11.8" style=color:blue>*</balloon>; और इसी अर्थ में भगवान को 'योगेश्वर' कहा गया है।<balloon title="गीता 18.75" style=color:blue>*</balloon> परन्तु यह कुछ गीता के 'योग' शब्द का मुख्य अर्थ नहीं है। इसलिए यह बात स्पष्ट रीति से प्रगट कर देने के लिए कि योग शब्द से किस विशेष प्रकार की कुशलता, साधन, युक्ति अथवा उपाय को गीता में विवक्षित समझना चाहिए, उस ग्रंथ में ही योग शब्द की यह निश्चित व्याख्या की गई है –
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'''योगः कर्मसु कौशलम्'''<balloon title="गीता 2.50" style=color:blue>*</balloon>
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<blockquote>'''अर्थात'''; कर्म करने की किसी विशेष प्रकार की कुशलता, युक्ति, चतुराई अथवा शैली को योग कहते हैं। शांकर भाष्य में भी 'कर्मसु कौशलम्' का यही अर्थ लिया गया है – 'कर्म में स्वभाव सिद्ध रहने वाले बंधन को तोड़ने की युक्ति।' यदि सामान्यतः देखा जाए तो एक ही कर्म को करने के लिए अनेक योग और उपाय होते हैं। परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो, उसी को योग कहते हैं। जैसे द्रव्य उपार्जन करना एक कर्म है; इसके अनेक उपाय या साधक हैं जैसे कि – चोरी करना, जालसाजी करना, भीख माँगना, सेवा करना, ऋण लेना, मेहनत करना आदि, यद्यपि धातु के अर्थानुसार इनमें से हर एक को योग कह सकते हैं तथापि यथार्थ में 'द्रव्य–प्राप्ति योग' उसी उपाय को कहते हैं जिससे हम अपनी स्वतंत्रता रखकर मेहनत करते हुए धर्म प्राप्त कर सकें। जब स्वयं भगवान ने योग शब्द की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या गीता में कर दी है-</blockquote>
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'योगः कर्मसु कौशलम्'– 'अर्थात' कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति को योग कहते हैं; तब सच पूछो तो इस शब्द के मुख्य अर्थ के विषय में कुछ भी शंका नहीं रहनी चाहिए। परन्तु स्वयं भगवान की बतलाई हुई इस व्याख्या पर ध्यान न देकर गीता के अनेक टीकाकारों ने योग शब्द के अर्थ की खूब खींचातानी की है और गीता का मथितार्थ भी मनमाना निकाला है। अतएव इस भ्रम को दूर करने के लिए योग शब्द का कुछ और भी स्पष्टीकरण होना चाहिए। यह शब्द पहले पहल गीता के दूसरे अध्याय में आया है और वहीं इसका स्पष्ट अर्थ भी बतला दिया गया है। पहले सांख्यशास्त्र के अनुसार भगवान ने [[अर्जुन]] को यह समझा दिया कि युद्ध क्यों करना चाहिए; इसके बाद उन्होंने कहा कि 'अब हम तुम्हें योग के अनुसार उपपत्ति बतलाते हैं<balloon title="गीता 2.39" style=color:blue>*</balloon>, और फिर इसका वर्णन किया है जो कि लोग हमेशा यज्ञ–यागादि काम्य कर्मों में ही निमग्न रहते हैं, उनकी बुद्धि फलाशा से कैसी व्यग्र हो जाती है।<balloon title="गीता 2.41–49" style=color:blue>*</balloon> इसके पश्चात उन्होंने यह उपदेश दिया है कि 'बुद्धि को अव्यग्र स्थिर या शान्त रखकर आसक्ति को छोड़ दे, परन्तु कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़' और योगस्थ होकर कर्मों का आचरण कर'।<balloon title="गीता. 2.48" style=color:blue>*</balloon> यहीं पर योग शब्द का यह स्पष्ट अर्थ भी कह दिया है कि 'सिद्धि और असिद्धि दोनों में समबुद्धि रखने को योग कहते हैं।' इसके बाद यह कहकर कि 'फल की आशा से कर्म करने की अपेक्षा समबुद्धि का यह योग ही श्रेष्ठ है'<balloon title="गीता. 2.49" style=color:blue>*</balloon>, और 'बुद्धि की समता हो जाने पर कर्म करने वाले को कर्मसंबंधी पाप–पुण्य की बाधा नहीं होती; इसलिए तू इस 'योग' को प्राप्त कर।'
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तुरंत ही '''योग का यह लक्षण''' फिर भी बतलाया है कि 'योगः कर्मसु कौशलम्'<balloon title="गीता. 2.50" style=color:blue>*</balloon>। इससे सिद्ध होता है कि पाप–पुण्य से अलिप्त रहकर कर्म करने की जो समत्व बुद्धिरूप की विशेष युक्ति पहले बतलाई गई है, वही 'कौशल' है और इसी कुशलता अर्थात युक्ति से कर्म करने को गीता में 'योग' कहा गया है। इसी अर्थ को अर्जुन ने आगे चलकर 'योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन'<balloon title="गीता. 9.33" style=color:blue>*</balloon>  इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है। इसके संबंध में कि ज्ञानी मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिए, श्री [[शंकराचार्य]] के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का सन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। इन्हीं दो मार्गों को गीता में सन्यास और कर्मयोग कहा है।<balloon title="गीता 5.2" style=color:blue>*</balloon> 
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'''सन्यास कहते हैं त्याग को, और गीता कहते हैं मेल को'''; अर्थात कर्म के त्याग और कर्म के मेल ही के उक्त दो भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इन्हीं दो भिन्न भिन्न मार्गों को लक्ष्य करके आगे 'सांख्ययोगौ' (सांख्य और योग) ये संक्षिप्त नाम भी दिए गए हैं।<balloon title="गीता. 5.4" style=color:blue>*</balloon> बुद्धि को स्थिर करने के लिए पातंजलयोग शास्त्रों के आसनों का वर्णन छठवें अध्याय में है सही; परन्तु वह किसके लिए है? तपस्वी के लिए नहीं, किन्तु वह कर्मयोगी अर्थात युक्ति पूर्वक कर्म करने वाले मनुष्य को 'समता' की युक्ति सिद्ध कर लेने के लिए बतलाया गया है। नहीं तो फिर 'तपस्विभ्योऽधिको योगी' इस वाक्य का कुछ अर्थ ही नहीं हो सकता। इसी तरह इस अध्याय<balloon title="गीता 9.49" style=color:blue>*</balloon> के अंत में अर्जुन को जो उपदेश दिया गया है कि '''तस्माद्योगी भवार्जुन''', उसका अर्थ ऐसा नहीं हो सकता कि 'हे अर्जुन! तू पातंजल योग का अभ्यास करने वाला बन जा।' इसलिए उक्त उपदेश का अर्थ
  
'''आप''' उक्त प्रसंगों का उल्लेख करके स्पष्ट रीति से कह सकते हैं कि ऐसे समय नीतिशास्त्र मनुष्य के संदेह की निवृत्ति कर नहीं सकता। अन्त में आपने यह सिद्धान्त लिखा है कि, 'नीतिशास्त्र यह नहीं कहता कि किसी साधारण नियम के अनुसार, सिर्फ़ यह समझकर कि वह नियम है, हमेशा चलने में कुछ विशेष महत्व है; किन्तु उसका कथन सिर्फ़ यही है कि सामान्यतः उस नियम के अनुसार चलना हमारे लिए श्रेयस्कर है। इसका कारण यह है कि ऐसे समय हम लोग केवल नीति के लिए अपनी लोभमूलक नीच मनोवृत्तियों को त्यागने की शिक्षा पाया करते हैं<balloon title="Green’s Prolegomena to Ethics, • 315.p.379 (5th cheaper edition)." style=color:blue>*</balloon>।' नीतिशास्त्र पर ग्रंथ लिखने वाले बेन, बेबेल आदि अन्य अंग्रेज़ पंडितों का भी ऐसा ही मत है<balloon title="Bain’s Mental and Moral Science, p.445 (Ed. 1875); and Whewell’s Elements of Morality, Book II. Chaps. XIII and XIV. (4th Ed. 1864)." style=color:blue>*</balloon>।<br />
 
यदि उक्त अंग्रेज़ ग्रंथकारों के मतों की तुलना हमारे धर्मशास्त्रकारों के बनाए हुए नियमों के साथ की जाए, तो यह बात सहज ही ध्यान में आ जाएगी कि सत्य के विषय में अभिमानी कौन है। इसमें संदेह नहीं है कि हमारे शास्त्रों में कहा है किः–
 
 
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'''न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले।'''
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'''योगस्थः कुरू कर्माणि'''<balloon title="गीता 2.48" style=color:blue>*</balloon>,
'''प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।।'''
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'''तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्'''<balloon title="गीता 2.50" style=color:blue>*</balloon>,
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'''योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत'''<balloon title="गीता 4.42" style=color:blue>*</balloon> इत्यादि वचनों के अर्थ के समान ही होना चाहिए।
 
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<blockquote>अर्थात; 'हँसी में स्त्रियों के साथ, विवाह के समय जब जान पर आ बने तब और सम्पत्ति की रक्षा के लिए झूठ बोलना पाप नहीं है<balloon title="महाभारत, आदिपर्व, 82.19; और शान्तिपर्व, 109 तथा मनुस्मृति, 8.110" style=color:blue>*</balloon>'। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्रियों के साथ हमेशा झूठ ही बोलना चाहिए। जिस भाव से सिजविक साहब ने 'छोटे लड़के, पागल और बीमार आदमी' के विषय में अपवाद कहा है, वही भाव [[महाभारत]] के उक्त कथन का भी है। अंग्रेज़ ग्रंथकार पारलौकिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। उन लोगों ने तो खुल्लम–खुल्ला यहाँ तक प्रतिपादन किया है कि व्यापारियों का अपने लाभ के लिए झूठ बोलना अनुचित नहीं है। किन्तु यह बात हमारे शास्त्रकारों को सम्मत नहीं है। इन लोगों ने कुछ ऐसे ही मौकों पर झूठ बोलने की अनुमति दी है, जबकि केवल सत्य शब्दोच्चारण (अर्थात केवल वाचिक सत्य) और सर्वभूतहित (अर्थात वास्तविक सत्य) में विरोध हो जाता है और व्यवहार की दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है। इनकी राय है कि सत्य आदि नीतिधर्म नित्य, अर्थात सब समय एक समान अबाधित हैं; अतएव यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा–सा पाप ही है और इसी लिए प्रायश्चित भी कहा गया है।</blockquote>  
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'''अर्थात''' उसका यही अर्थ लेना उचित है कि 'हे अर्जुन! तू युक्ति से कर्म करने वाला योगी अर्थात् कर्मयोगी हो।' क्योंकि यह कहना ही संभव नहीं है कि 'तू पातंजल योग का आश्रय लेकर युद्ध के लिए तैयार रह।' इसके पहले ही साफ़ साफ़ कहा गया है कि 'कर्मयोगेण योगिनाम्'<balloon title="गीता 3.3" style=color:blue>*</balloon> अर्थात योगी पुरूष कर्म करने वाले होते हैं। [[महाभारत]]<balloon title="महाभारत शान्ति पर्व, 348.56" style=color:blue>*</balloon> के  नारायणीय अथवा भागवत धर्म के विवेचन में भी कहा गया है कि इस धर्म के लोग अपने कर्मों का त्याग किए बिना ही युक्तिपूर्वक कर्म करके ही (सप्रयुक्तेन कर्मणा) परमेश्वर की प्राप्ति कर लेते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योगी' और 'कर्मयोगी' दोनों ही शब्द गीता में समानार्थक हैं और इनका अर्थ 'युक्ति से कर्म करने वाला' होता है तथापि बड़े भारी 'कर्मयोग' शब्द का प्रयोग करने के बदले गीता और महाभारत में छोटे से 'योग' शब्द का ही अधिक उपयोग किया गया है। 'मैंने तुम्हें जो यह योग बतलाया है इसी को पूर्वकाल में विवस्वान से कहा था<balloon title="गीता. 4.1" style=color:blue>*</balloon>; और विवस्वान ने मनु को बतलाया था। परंतु उस योग के नष्ट हो जाने पर फिर वही योग आज तुझसे कहना पड़ा।' इस अवतरण में भगवान ने जो योग शब्द का तीन बार उच्चारण किया है उसमें पातंजल योग का विवक्षित होना नहीं पाया जाता है, किन्तु 'कर्म करने की किसी प्रकार की विशेष युक्ति, साधन या मार्ग' अर्थ ही लिया जा सकता है। इसी तरह जब [[संजय]] [[कृष्ण]]–[[अर्जुन]] संवाद को गीता में योग कहता है<balloon title="गीता. 18.75" style=color:blue>*</balloon> तब भी यही अर्थ पाया जाता है। श्री शंकराचार्य स्वयं सन्यास मार्ग वाले थे; तो भी उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं और योग शब्द का अर्थ श्री भगवान द्वारा की हुई व्याख्या के अनुसार कभी '''सम्यग्दर्शनोपाय कर्मानुष्ठानम्'''<balloon title="गीता 4.42" style=color:blue>*</balloon> और कभी 'योगः युक्तिः'<balloon title="गीता 10.7" style=color:blue>*</balloon> किया है। इसी तरह महाभारत में भी योग और ज्ञान दोनों शब्दों के अर्थ के विषय में स्पष्ट लिखा है कि
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'''प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्'''<balloon title="महाभारत आश्वमेधिक पर्व, " style=color:blue>*</balloon>  
  
'''संभव''' है कि आजकल के आधिभौतिक पंडित इन प्रायश्चितों को निरर्थक हौवा कहेंगे; परन्तु जिन्होंने ये प्रायश्चित कहे हैं और जिन लोगों के लिए ये कहे गए हैं, वे दोनों ऐसा नहीं समझते। वे तो उक्त सत्य–अपवाद को गौण ही मानते हैं। और इस विषय की कथाओं में भी यही अर्थ प्रतिपादित किया गया है। देखिए, [[युधिष्ठिर]] ने संकट के समय एक ही बार दबी हुई आवाज से 'नरो वा कुंजरो वा' कहा था। इसका फल यह हुआ कि उसका रथ, जो पहले जमीन से एक अंगुल ऊपर चलता था, अब और मामूली लोगों के रथों के समान धरती पर चलने लगा और अन्त में एक क्षण भर के लिए उसे नरकलोक में रहना पड़ा<balloon title="महाभारत, द्रोण पर्व, 191.57, 58 तथा स्वर्गारोहण पर्व, 3.15" style=color:blue>*</balloon>। दूसरा उदाहरण [[अर्जुन]] का ही ले लीजिए। अश्वमेध पर्व<balloon title="महाभारत, अश्वमेध पर्व, 81.10" style=color:blue>*</balloon> में लिखा है कि यद्यपि अर्जुन ने [[भीष्म]] का वध क्षात्रधर्म के अनुसार किया था, तथापि उसने [[शिखंडी]] के पीछे छिपकर यह काम किया था। इसी लिए उसको अपने पुत्र [[बभ्रुवाहन]] से पराजित होना पड़ा। इन सब बातों से यही प्रगट होता है कि विशेष प्रसंगों के लिए कहे गए उक्त अपवाद मुख्य या प्रमाण नहीं माने जा सकते। हमारे शास्त्रकारों का अंतिम और तात्विक सिद्धान्त वही है जो [[महादेव]] ने [[पार्वती]] से कहा हैः–
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<blockquote>अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। शांतिपर्व के अंत में नारायणीयोपाख्यान में 'सांख्य' और 'योग' शब्द तो इसी अर्थ में अनेक बार आए हैं और इसका भी वर्णन किया गया है कि ये दोनों मार्ग सृष्टि के आरंभ में क्यों और कैसे निर्माण किए गए।<balloon title="महाभारत शान्ति पर्व,  240 और 348" style=color:blue>*</balloon>  पहले प्रकरण में महाभारत से जो वचन उद्घृत किए गए हैं उनसे यह स्पष्टतया मालूम हो गया है कि यही नारायणीय अथवा भागवत धर्म भगवद्गीता का प्रतिपाद्य तथा प्रधान विषय है। इसलिए कहना पड़ता है कि सांख्य और योग शब्दों का जो प्राचीन और पारिभाषिक अर्थ '''सांख्य=निवृत्ति; योग=प्रवृत्ति''' नारायणीय धर्म में दिया गया है, वही अर्थ गीता में भी विवक्षित है। यदि इसमें किसी को कोई शंका हो तो गीता में दी हुई इस व्याख्या से 'समत्वं योग उच्यते' या 'योगः कर्मसु कौशलम्' तथा उपर्युक्त 'कर्मयोगेण योगिनाम्' इत्यादि गीता के वचनों से उस शंका का समाधान हो सकता है। इसलिए अब यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक धर्म ग्रंथों की कौन कहे; यह 'योग' शब्द [[संस्कृत]] और [[पालि भाषा|पाली]] भाषाओं के बौद्ध धर्म ग्रंथों में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उदाहरणार्थ, संवत 335 के लगभग लिखे गए मिलिंदप्रश्न नामक पाली–ग्रंथ में 'पुब्बयोगो' (पूर्वयोग) शब्द आया है और वहीं उसका अर्थ 'पुब्बकम्म' (पूर्वकर्म) किया गया है।<balloon title="मिलिन्द प्रश्न. 1.4" style=color:blue>*</balloon> इसी तरह [[अश्वघोष]] कविकृत, जो शालिवाहन [[शक]] के आरंभ में हो गया है– [[बुद्धचरित]] नामक संस्कृत काव्य के पहले सर्ग के पचासवें श्लोक में यह वर्णन हैः–</blockquote>
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'''आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात्तथा।'''
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'''आचार्यकं योगविधौ द्विजानामप्राप्तमन्यैर्जनको जगाम।'''
'''ये मृषा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः।।'''
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<blockquote>अर्थात 'ब्राह्मणों को योग–विधि की शिक्षा देने में राजा [[जनक]] आचार्य (उपदेष्टा) हो गए, इनके पहले यह आचार्यत्व किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ था।' यहाँ पर योगविधि का अर्थ निष्काम कर्मयोग की विधि ही समझना चाहिए; क्योंकि गीता आदि अनेक ग्रंथ मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि जनक जी के बर्ताव का यही रहस्य है और अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित<balloon title="बुद्धचरित 9.19 और 20" style=color:blue>*</balloon> में यह दिखलाने के लिए कि 'गृहस्थाश्रम में रहकर भी मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जा सकती है' जनक का उदाहरण दिया है। जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है और यह बात बौद्धधर्म ग्रंथों से भी सिद्ध होती है, इसलिए गीता के 'योग' शब्द का भी यही अर्थ लगाना चाहिए; क्योंकि गीता के कथनानुसार<balloon title="गीता 3.20" style=color:blue>*</balloon> जनक का ही मार्ग उसमें प्रतिपादित किया गया है। सांख्य और योगमार्ग के विषय में अधिक विचार आगे किया जाएगा। प्रस्तुत प्रश्न यही है कि गीता में 'योग' शब्द का उपयोग किस अर्थ में किया गया है।</blockquote>
<blockquote>अर्थात; 'जो लोग इस जगत में स्वार्थ के लिए, परार्थ के लिए या मजाक में भी कभी झूठ नहीं बोलते, इन्हीं को स्वर्ग की प्राप्ति होती है<balloon title="महाभारत, अनुशासन पर्व, 144.19" style=color:blue>*</balloon>'। अपनी प्रतिज्ञा या वचन को पूरा करना सत्य ही में शामिल है। भगवान [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] और [[भीष्म|भीष्म पितामह]] कहते हैं, 'चाहे [[हिमालय|हिमालय पर्वत]] अपने स्थान से हट जाए, परन्तु हमारा वचन टल नहीं सकता<balloon title="महाभारत, आदि पर्व 103 तथा उद्योग पर्व 81.48" style=color:blue>*</balloon>'[[भृर्तहरि]] ने भी सत्पुरूषों का वर्णन इस प्रकार किया हैः–</blockquote>
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'''तेजस्विनः सुखमसूनपि सत्यंजन्ति सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्।।'''
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जब एक बार यह सिद्ध हो गया कि गीता में 'योग' का प्रधान अर्थ कर्मयोग और 'योगी' का प्रधान अर्थ कर्मयोगी है, तो फिर यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय क्या है। स्वयं भगवान अपने उपदेश को 'योग' कहते हैं<balloon title="गीता 4.1–3" style=color:blue>*</balloon>; बल्कि छठवें (6.33) अध्याय में अर्जुन ने और गीता के अंतिम उपसंहार (18.75) में संजय ने भी गीता के उपदेश को योग ही कहा है। इसी तरह गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प हैं, उनमें भी साफ़ साफ़ कह दिया है कि गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय 'योगशास्त्र' है। परन्तु जान पड़ता है कि उक्त संकल्प के शब्दों के अर्थ पर किसी भी टीकाकार ने ध्यान नहीं दिया। आरंभ के दो पदों '''श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु''' के बाद इस संकल्प में दो शब्द 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' और भी जोड़े गए हैं।
<blockquote>अर्थात; 'तेजस्वी पुरूष आनन्द से अपनी जान भी देंगे, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कभी नहीं करेंगे<balloon title="नीतिशतक, 110" style=color:blue>*</balloon>।' इसी तरह श्री [[राम|रामचंद्र]] जी के एक–पत्नीव्रत के साथ उनका एक बाण और एक वचन का व्रत भी प्रसिद्ध है। जैसा इस सुभाषित में कहा है,</blockquote>
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#पहले दो शब्दों का अर्थ है – '''भगवान से गाए गए उपनिषद में'''; और
'''द्विःशरं नाभिसंघत्ते रामो द्विर्नाभिभाषते'''
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#पिछले दो शब्दों का अर्थ '''ब्रह्मविद्या का योगशास्त्र अर्थात कर्मयोग शास्त्र''' है, जो कि इस गीता का विषय है।
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'''ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान एक ही बात है''' और इसके प्राप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरूष के लिए दो निष्ठाएँ या मार्ग खुले हुए हैं।<balloon title="गीता 3.3" style=color:blue>*</balloon> एक सांख्य अथवा सन्यास मार्ग– अर्थात वह मार्ग जिसमें कर्मों का त्याग न करके ऐसी युक्ति से कर्मयोग करते रहना चाहिए कि जिससे मोक्ष–प्राप्ति में कुछ भी बाधा न हो। पहले मार्ग का दूसरा नाम 'ज्ञान–निष्ठा' भी है जिसका विवेचन [[उपनिषद|उपनिषदों]] में अनेक ऋषियों ने और अन्य ग्रंथकारों ने भी किया है। परंतु ब्रह्मविद्या के अंतर्गत कर्मयोग का या योगशास्त्र का तात्विक विवेचन भागवद्गीता के सिवाय अन्य ग्रंथों में नहीं है। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है कि अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प गीता की सब प्रतियों में पाया जाता है और इससे प्रगट होता है कि गीता की सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी। इस संकल्प के रचियता ने इस संकल्प में 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' इन दो पदों को व्यर्थ ही नहीं जोड़ दिया है; किन्तु उसने गीताशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय की अपूर्वता दिखाने ही के लिए उक्त पदों को उस संकल्प में आधार और हेतु सहित स्थान दिया है। अतः इस बात का भी सहज निर्णय हो सकता है कि गीता पर अनेक सांप्रदायिक टीकाओं के होने के पहले, गीता का तात्पर्य कैसे और क्या समझा जाता था। यह हमारे सौभाग्य की बात है कि इस कर्मयोग का प्रतिपादन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया है, जो इस योगमार्ग के प्रवर्तक और इन सब योगों के साक्षात ईश्वर '''योगेश्वर=योग+ईश्वर''' है; और लोकहित के लिए उन्होंने अर्जुन को उसका रहस्य बतलाया है। गीता के 'योग' और 'योगशास्त्र' शब्दों से हमारे 'कर्मयोग' और 'कर्मयोग शास्त्र' शब्द कुछ बड़े हैं सही; परन्तु अब हमने कर्मयोग शास्त्र सरीखा बड़ा नाम ही इस ग्रंथ और प्रकरण को देना इसलिए पसंद किया है कि जिसमें गीता के प्रतिपाद्य विषय के संबंध में कुछ भी संदेह न रह जाए।
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'''एक ही कर्म को करने के जो अनेक योग''', साधन या मार्ग हैं उनमें से सर्वोत्तम और शुद्ध मार्ग कौन हैं? उसके अनुसार नित्य आचरण किया जा सकता है या नहीं? नहीं किया जा सकता तो कौन कौन से अपवाद उत्पन्न होते हैं? जिस मार्ग को हमने उत्तम मान लिया है, वह उत्तम क्यों है? जिस मार्ग को हम बुरा समझते हैं, वह बुरा क्यों है? यह अच्छापन या बुरापन किसके द्वारा या किस आधार पर ठहराया जा सकता है अथवा इस अच्छेपन या बुरेपन का रहस्य क्या है?– इत्यादि बातें जिस शास्त्र के आधार से निश्चित की जाती हैं, उसको 'कर्मयोग–शास्त्र' या गीता के संक्षिप्त रूपानुसार 'योगशास्त्र' कहते हैं। अच्छा या बुरा दोनों ही साधारण शब्द हैं; इन्हीं के समान अर्थ में कभी कभी शुभ–अशुभ, हितकर–अहितकर, श्रेयस्कर–अश्रेयस्कर, पाप–पुण्य, धर्म–अधर्म इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ करता है। कार्य–अकार्य, कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य, न्याय–अन्याय इत्यादि शब्दों का भी अर्थ वैसा ही होता है। तथापि इन शब्दों का उपयोग करने वालों का सृष्टि–रचना–विषयक मत भिन्न भिन्न होने के कारण कर्मयोग–शास्त्र के निरूपण के पंथ भी भिन्न भिन्न हो गए हैं। किसी भी शास्त्र को ले लीजिए, उसके विषयों की चर्चा साधारणतः तीन प्रकार से की जाती है।
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#इस जड़ सृष्टि के पदार्थ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि वे हमारी इन्द्रियों को गोचर होते हैं; इसके परे उनमें और कुछ नहीं है; इस दृष्टि से उनके विषय में विचार करने की एक पद्धति है जिसे आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; [[सूर्य]] को देवता न मानकर केवल पाञ्चभौतिक जड़ पदार्थों का एक गोला मानें; और उष्णता, प्रकाश, वज़न, दूरी और आकर्षण इत्यादि उसके केवल गुणाधर्मों की ही परीक्षा करें तो उसे सूर्य का आधिभौतिक विवेचन कहेंगे। दूसरा उदाहरण पेड़ का ही ले लीजिए। इसका विचार न करके कि पेड़ के पत्ते निकलना, फूलना, फलना आदि क्रियाएँ किस के अंतर्गत व किस शक्ति के द्वारा होती हैं, जब केवल बाहरी दृष्टि से विचार किया जाता है कि ज़मीन में बीज बोने से अंकुर फूटते हैं, फिर वे बढ़ते हैं और उसी के पत्ते, शाखा, फूल इत्यादि दृश्य विकार प्रगट होते हैं, तब उसे पेड़ का आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। रसायन शास्त्र, पदार्थ–विज्ञान शास्त्र, विद्युत शास्त्र आदि आधुनिक शास्त्रों का विवेचन इसी ढंग का होता है। आधिभौतिक पंडित यह भी माना करते हैं कि उक्त रीति से किसी वस्तु के दृश्य गुणों का विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता है – सृष्टि के पदार्थों का इससे अधिक विचार करना निष्फल है।
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#जब उक्त दृष्टि को छोड़कर इस बात का विचार किया जाता है कि जड़ सृष्टि के पदार्थों के मूल में क्या है, क्या इन पदार्थों का व्यवहार केवल उनके गुण–धर्मों से ही होता है या उनके लिए किसी तत्व का आधार भी है; तब केवल आधिभौतिक विवेचन से ही अपना काम नहीं चलता, हमको कुछ आगे पैर बढ़ाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब हम यह मानते हैं कि यह पञ्चभौतिक सूर्य नामक एक देव का अधिष्ठान है और इसी के द्वारा इस अचेतन गोले (सूर्य) के सब व्यापार या व्यवहार होते रहते हैं; तब उसको उस विषय का आधिदैविक विवेचन कहते हैं। इस मत के अनुसार यह माना जाता है कि पेड़ में, पानी में, हवा में, अर्थात सब पदार्थों में अनेक देव हैं जो उन जड़ तथा अचेतन पदार्थों से भिन्न तो हैं; किन्तु उनके व्यवहारों को वही चलाते हैं।
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#परन्तु जब यह माना जाता है कि जड़ सृष्टि के हज़ारों जड़ पदार्थों में हज़ारों स्वतंत्र देवता नहीं हैं; किन्तु बाहरी सृष्टि के सब व्यवहारों को चलाने वाली मनुष्य के शरीर में आत्म–स्वरूप से रहने वाली और मनुष्य को सारी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करा देने वाली एक ही चित शक्ति है जो कि इंद्रियातीत है और जिसके द्वारा ही इस जगत का सारा व्यवहार चल रहा है; तब उस विचार पद्धति को आध्यात्मिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; अध्यात्मवादियों का मत है कि सूर्य, [[चन्द्र]] आदि का व्यवहार यहाँ तक कि वृक्षों के पत्तों का हिलना भी, इसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से हुआ करता है; सूर्य, चन्द्र आदि में या अन्य स्थानों में भिन्न भिन्न तथा स्वतंत्र देवता नहीं हैं। प्राचीन काल से किसी भी विषय का विवेचन करने के लिए ये तीन मार्ग प्रचलित हैं और इनका उपयोग [[उपनिषद]] ग्रंथों में भी किया गया है। उदाहरणार्थ; ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं या प्राण श्रेष्ठ हैं, इस बात का विचार करते समय [[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक]] आदि उपनिषदों में एक बार उक्त इन्द्रियों के [[अग्नि]] आदि देवताओं को और दूसरा बार उनके सूक्ष्म रूपों (अध्यात्म) को लेकर उनके बलाबल का विचार किया गया है<balloon title="बृहदारण्यकोपनिषद 1.5.21 और 22; छान्दोग्य उपनिषद 1.2 और 3; कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद  2.8" style=color:blue>*</balloon> और गीता के सातवें अध्याय के अन्त में तथा आठवें के आरम्भ में ईश्वर के स्वरूप का जो विचार बतलाया गया है, वह भी इसी दृष्टि से किया गया है। '''अध्यात्मविद्या विद्यानाम्'''<balloon title="गीता. 10.32" style=color:blue>*</balloon> इस वाक्य के अनुसार हमारे शास्त्रकारों ने उक्त तीन मार्गों में से आध्यात्मिक विवरण को ही अधिक महत्व दिया है।
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आजकल उपर्युक्त तीन शब्दों (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) के अर्थ को थोड़ा सा बदलकर प्रसिद्ध आधिभौतिक फ्रेञ्च पंडित कोंट<ref>फ्रांस देश में ऑगस्ट कोंट (Auguste Comte) नामक एक बड़ा पंडित गत शताब्दी में हो चुका है। इसने समाजशास्त्र पर एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखकर बतलाया है कि समाज रचना का शास्त्रीय रीति से किस प्रकार विवेचन करना चाहिए। अनेक शास्त्रों की आलोचना करके इसने यह निश्चय किया है कि किसी भी शास्त्र को ले लो, उसका विवेचन पहले पहल Theological पद्धति से किया जाता है; फिर Metaphysical पद्धति से होता है और अन्त में उसको Positive स्वरूप मिलता है। इन्हीं तीन पद्धतियों को हमने इस ग्रंथ में आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक; ये तीन प्राचीन नाम दिए हैं। ये पद्धतियाँ कुछ कोंट की निकाली हुई नहीं हैं; ये सब पुरानी ही हैं। तथापि उसने उनका ऐतिहासिक क्रम नई रीति से बाँधा है और उनमें आधिभौतिक (Positive) पद्धति को ही श्रेष्ठ बतलाया है; बस इतना ही कोंट का नया शोध है। कोंट के अनेक ग्रंथों का अंग्रेज़ी में भाषान्तर हो गया है।"</ref> ने आधिभौतिक विवेचन को ही अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है कि सृष्टि के मूल तत्व को खोजते रहने से कुछ लाभ नहीं है; यह तत्व अगम्य है अर्थात इसको समझ लेना कभी भी संभव नहीं। इसलिए इसकी कल्पित नींव पर किसी शास्त्र की इमारत को खड़ा कर देना न तो संभव है और न ही उचित। असभ्य और जंगली मनुष्यों ने पहले पहल जब पेड़, बादल और ज्वालामुखी पर्वत आदि को देखा, तब उन लोगों ने अपने भोलेपन से इन सब पदार्थों को देवता ही मान लिया। यह कोंट के मतानुसार ‘आधिदैविक’ विचार हो चुका। परन्तु मनुष्यों ने उक्त कल्पनाओं को शीघ्र ही त्याग दिया; वे समझने लगे कि इन सब पदार्थों में कुछ न कुछ आत्मतत्व अवश्य भरा हुआ है। कोंट के मतानुसार मानवी ज्ञान की उन्नति की यह दूसरी सीढ़ी है। इसे वह ‘आध्यात्मिक’ कहता है। परन्तु जब इस रीति से सृष्टि का विचार करने पर भी प्रत्यक्ष उपयोगी शास्त्रीय ज्ञान की कुछ वृद्धि नहीं हो सकी, तब अंत में मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के दृश्य गुण–धर्मों का ही और भी अधिक विचार करने लगा, जिससे वह रेल और तार सरीखे उपयोगी आविष्कारों को ढूँढ़ कर बाह्य सृष्टि पर अपना अधिक प्रभाव जमाने लग गया है। इस मार्ग को कोंट ने ‘आधिभौतिक’ नाम दिया है। उसने निश्चित किया है कि किसी भी शास्त्र या विषय का विवेचन करने के लिए अन्य मार्गों की अपेक्षा यही आधिभौतिक मार्ग का अवलम्ब करना चाहिए। इस मार्ग का अवलम्ब करके इस पंडित ने इतिहास की आलोचना की और सब व्यवहार–शास्त्रों का यही मथितार्थ निकाला है कि इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का परम धर्म यही है कि वह समस्त मानव जाति पर प्रेम रख कर सब लोगों के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्न करता रहे। मिल और स्पेन्सर आदि अंग्रेज़ पंडित इसी मत के पुरस्कर्ता कहे जा सकते हैं। इसके उलटा कान्ट, हेगेल, शोपेनहर आदि जर्मन तत्वज्ञानी पुरूषों ने नीतिशास्त्र के विवेचन के लिए इस आधिभौतिक पद्धति को अपूर्ण माना है। हमारे वेदान्तियों की नई आध्यात्मिक दृष्टि से ही नीति के समर्थन करने के मार्ग को आज–कल उन्होंने यूरोप में फिर भी स्थापित किया है।
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एक ही अर्थ विवक्षित होने पर भी 'अच्छा और बुरा' के पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का, जैसे 'कार्य–अकार्य' और 'धर्म्य–अधर्म्य' का उपयोग क्यों होने लगा? इसका कारण यही है कि विषय प्रतिपादन का मार्ग या दृष्टि प्रत्येक की भिन्न भिन्न होती है। [[अर्जुन]] के सामने यह प्रश्न था कि जिस युद्ध में [[भीष्म]][[द्रोण]] आदि का वध करना पड़ेगा, उसमें शामिल होना उचित है या नहीं।<balloon title="गीता 2.7" style=color:blue>*</balloon> यदि इसी प्रश्न का उत्तर देने का मौका किसी आधिभौतिक पंडित पर आता, तो वह पहले इस बात का विचार करता कि भारतीय युद्ध से स्वयं अर्जुन को दृश्य हानि–लाभ कितना होगा और कुल समाज पर उसका क्या परिणाम होगा? यह विचार करके तब उसने निश्चय किया होता कि युद्ध करना न्याय है या अन्याय। इसका कारण यह है कि किसी कर्म के अच्छेपन या बुरेपन का निर्णय करते समय ये आधिभौतिक पंडित यही सोचा करते हैं कि इस संसार में उस कर्म का आधिभौतिक परिणाम अर्थात प्रत्यक्ष बाह्य परिणाम क्या हुआ या होगा – ये लोग इस आधिभौतिक कसौटी के सिवाय और किसी साधन या कसौटी को नहीं मानते। परन्तु ऐसे उत्तर से अर्जुन का समाधान होना संभव नहीं था। उसकी दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक थी। उसे केवल अपने सांसारिक हित का विचार नहीं करना था; किन्तु उसे पारलौकिक दृष्टि से यह भी विचार कर लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं। उसे ऐसी बातों पर कुछ भी शंका नहीं थी कि युद्ध में भीष्म, द्रोण आदि का वध होने पर तथा राज्य मिलने पर मुझे ऐच्छिक सुख मिलेगा या नहीं; और मेरा अधिकार लोगों को [[दुर्योधन]] से अधिक सुखदायक होगा या नहीं। उसे यही देखना था कि मैं जो कर रहा हूँ वह 'धर्म्य' है या 'अधर्म्य', अथवा 'पुण्य' है या 'पाप'; और गीता का विवेचन भी इसी दृष्टि से किया गया है। केवल गीता में ही नहीं; किन्तु कई स्थानों पर [[महाभारत]] में भी कर्म–अकर्म का जो विवेचन है वह पारलौकिक अर्थात अध्यात्म–दृष्टि से ही किया गया है; और वहाँ किसी भी कर्म का अच्छापन या बुरापन दिखलाने के लिए प्रायः सर्वत्र 'धर्म' और 'अधर्म' दो ही शब्दों का उपयोग किया गया है। परन्तु 'धर्म' और उसका प्रतियोगी 'अधर्म'; ये दोनों शब्द अपने व्यापक अर्थ के कारण कभी कभी भ्रम उत्पन्न कर दिया करते हैं; इसलिए यहाँ पर इस बात की कुछ अधिक मीमांसा करना आवश्यक है कि कर्मयोग–शास्त्र में इन शब्दों का उपयोग मुख्यतः किस अर्थ में किया जाता है।
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नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक सुख का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?' तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – [[वैदिक धर्म|वैदिक]], [[बौद्ध]], [[जैन]], ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। इसी तरह स्वर्ग–प्राप्ति के लिए साधनभूत यज्ञ–याग आदि वैदिक विषयों की मीमांसा करते समय 'अथातो धर्मजिज्ञासा' आदि धर्मसूत्रों में भी धर्म शब्द का यही अर्थ लिया गया है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। इसके सिवाय राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यवहारिक धर्म अथवा केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरूषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले धर्म शब्द में ही यदि मोक्ष का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरूषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती। अर्थात्; यह कहना पड़ता है कि 'धर्म' पद से इस स्थान पर संसार के सैकड़ों नीतिधर्म ही शास्त्रकारों को अभिप्रेत हैं। इन्हीं को हम लोग आजकल कर्त्तव्य, कर्म, नीति, नीतिधर्म अथवा सदाचरण कहते हैं। परन्तु प्राचीन [[संस्कृत]] ग्रंथों में 'नीति' अथवा 'नीतिशास्त्र' शब्दों का उपयोग विशेष करके राजनीति के लिए ही किया जाता है, इसलिए पुराने जमाने में कर्त्तव्य–कर्म अथवा सदाचार के सामान्य विवेचन को ‘नीति–प्रवचन’ न कहकर 'धर्म–प्रवचन' कहा करते थे। परन्तु 'नीति' और 'धर्म' दो शब्दों का यह पारिभाषिक भेद सभी संस्कृत ग्रंथों में नहीं माना गया है। इसलिए हमने भी इस ग्रंथ में 'नीति', 'कर्त्तव्य' और 'धर्म' शब्दों का उपयोग एक ही अर्थ में किया गया है; और मोक्ष का विचार जिस स्थान पर करना है, उस प्रकरण के 'अध्यात्म' और 'भक्तिमार्ग' ये स्वतंत्र नाम रखे हैं। महाभारत में 'धर्म' शब्द अनेक स्थानों पर आया है, और जिस स्थान पर कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म–संगत है' उस स्थान पर धर्म शब्द से कर्त्तव्य–शास्त्र अथवा तत्कालीन समाज–व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है; तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण में मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शांतिपर्व के उत्तरार्ध में 'मोक्ष–धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है। इसी तरह मन्वादि स्मृति–ग्रंथों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विशिष्ट कर्मों, अर्थात् चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन करते समय केवल धर्म शब्द का ही अनेक स्थानों पर कई बार उपयोग किया गया है। और, भगवद्गीता में भी जब भगवान अर्जुन से यह कह कर लड़ने के लिए कहते हैं कि '''स्वधर्ममपि चाऽवेक्ष्य'''<balloon title="गीता 2.31" style=color:blue>*</balloon> तब, और इसके बाद
  
[[हरिश्चंद्र]] ने तो अपने स्वप्न में दिए हुए वचन को सत्य करने के लिए डोम की नीच सेवा भी की थी। इसके उलटा, [[वेद]] में यह वर्णन है कि [[इन्द्र]] आदि देवताओं ने [[वृत्तासुर]] के साथ जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन्हें मेट दिया और उसको मार डाला। ऐसी ही कथा [[पुराण|पुराणों]] में [[हिरण्यकशिपु]] की है। व्यवहार में भी कुछ कौल–क़रार ऐसे होते हैं कि जो न्यायालय में बे–कायदा समझे जाते हैं या जिनके अनुसार चलना अनुचित माना जाता है। अर्जुन के विषय में ऐसी ही एक कथा महाभारत<balloon title="महाभारत, कर्ण पर्व, 69" style=color:blue>*</balloon> में है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मुझसे कहेगा कि 'तू अपना [[गांडीव धनुष]] किसी दूसरे को दे दे! उसका सिर में तुरन्त ही काट डालूँगा।' इसके बाद युद्ध में जब युधिष्ठिर [[कर्ण]] से पराजित हुए तब उन्होंने निराश होकर अर्जुन से कहा, 'तेरा गांडीव हमारे किस काम का है? तू उसे छोड़ दे!' यह सुनकर अर्जुन हाथ में तलवार ले युधिष्ठिर को मारने दौड़ा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण वहीं थे। उन्होंने तत्वज्ञान की दृष्टि से सत्य धर्म का मार्मिक विवेचन करके अर्जुन को यह उपदेश दिया कि, 'तू मूढ़ है, तुझे अब तक सूक्ष्म–धर्म मालूम नहीं हुआ है। तुझे वृद्ध जनों से इस विषय की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, '''न वृद्धाः सेवितास्त्वया'''– तूने वृद्ध जनों की सेवा नहीं की है। यदि तू प्रतिज्ञा की रक्षा करना ही चाहता है तो युधिष्ठिर की निर्भर्त्सना कर, क्योंकि सभ्य जनों की निर्भर्त्सना मृत्यु ही के समान है।'
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'''स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः'''<balloon title="गीता. 3.35" style=color:blue>*</balloon>
  
'''इस''' प्रकार बोध करके उन्होंने अर्जुन को ज्येष्ठ भ्रातृवध के पाप से बचाया। इस समय भगवान श्रीकृष्णा ने जो सत्यानृत–विवेक अर्जुन को बताया है, उसी को आगे चलकर शांतिपर्व के सत्यानृत नामक अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है<balloon title="महाभारत, शांति पर्व. 109" style=color:blue>*</balloon>। यह उपदेश व्यवहार में लोगों के ध्यान में रहना चाहिए। इसमें संदेह नहीं है कि इन सूक्ष्म प्रसंगों को जानना बहुत ही कठिन काम है। देखिए, इस संसार में सत्य की अपेक्षा भ्रातृधर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है; और [[गीता]] में यह निश्चित किया गया है कि बंधुप्रेम की अपेक्षा क्षात्रधर्म प्रबल है।
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<blockquote>'''इस स्थान पर भी 'धर्म' शब्द''' 'इस लोक के चातुर्वर्ण्यं के धर्म' के अर्थ के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है। पुराने जमाने के ऋषियों ने श्रम–विभाग रूप चातुर्वर्ण्य संस्था इसलिए चलाई गई थी कि समाज के सब व्यवहार सरलता से होते जाएं, किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या वर्ग पर ही सारा बोझ न पड़ने पाए और समाज का सभी दिशाओं से संरक्षण और पोषण भली भाँति होता रहे। यह बात भिन्न है कि कुछ समय के बाद चारों वर्णों के लोग केवल जाति–मात्रोपजीवी हो गए; अर्थात् सच्चे स्वकर्म को भूलकर वे केवल नामधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र हो गए। इसमें संदेह नहीं है कि आरंभ में यह व्यवस्था समाज धारणार्थ ही की गई थी; और यदि चारों वर्णों में से कोई भी एक वर्ण अपना धर्म अर्थात् कर्त्तव्य छोड़ दे, अर्थात् यदि कोई वर्ण समूल नष्ट हो जाए और उसकी स्थानपूर्ति दूसरे लोगों से न की जाए तो कुल समाज उतना ही पंगु होकर धीरे–धीरे नष्ट भी होने लग जाता है अथवा वह निष्कृट अवस्था में तो अवश्य ही पहुँच जाता है। यद्यपि यह बात सच है कि यूरोप में ऐसे अनेक समाज हैं जिनका अभ्युदय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था चाहे न हो, परन्तु चारों वर्णों के सब धर्म, ज्ञाति–रूप से नहीं तो गुण–विभाग रूप ही से जागृत अवश्य रहते हैं।</blockquote>
  
'''जब''' अहिंसा और सत्य के विषय में इतना वाद–विवाद है तब आश्चर्य की बात नहीं कि यही हाल नीतिधर्म के तीसरे तत्व, अर्थात अस्तेय का भी हो। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि न्याय–पूर्वक प्राप्त की हुई किसी की सम्पत्ति को चुरा ले जाने या लूट लेने की स्वतंत्रता दूसरों को मिल जाए तो द्रव्य का संचय करना बंद हो जाएगा, समाज की रचना बिगड़ जाएगी, चारों तरफ अनवस्था हो जाएगी और सभी की हानि होगी। परन्तु इस समय के भी अपवाद हैं। जब दुर्भिक्ष के समय मोल लेने, मज़दूरी करने या भिक्षा मांगने से भी अनाज नहीं मिलता; तब ऐसी आपत्ति में यदि कोई मनुष्य चोरी करके आत्म–रक्षा करे, तो क्या वह पापी समझा जाएगा?
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'''सारांश,''' जब हम धर्म शब्द का प्रयोग व्यवहारिक दृष्टि से करते हैं तब हम यही देखा करते हैं कि सब समाज का धारण और पोषण कैसे होता है। [[मनु]] ने कहा है कि – '''असुखोदर्क''' अर्थात् जिसका कारण दुःख कारक होता है उस धर्म को छोड़ देना चाहिए<balloon title="मनुस्मृति, 4.176" style=color:blue>*</balloon> और शांतिपर्व के सत्यानृताध्याय<balloon title="शान्ति पर्व, 109.12" style=color:blue>*</balloon> में धर्म धर्म–अधर्म का विवेचन करते हुए भीष्म और उसके पूर्व कर्ण पर्व में श्री [[कृष्ण]] कहते हैं किः–
  
'''महाभारत'''<balloon title="महाभारत, शांति पर्व, 141" style=color:blue>*</balloon> में यह कथा है कि किसी समय बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहा और [[विश्वामित्र]] पर बहुत बड़ी आपत्ति आई। तब उन्होंने किसी श्वपच (चांडाल) के घर से कुत्ते का मांस चुराया और वे इस अभक्ष्य भोजन से अपनी रक्षा करने के लिए प्रवृत्त हुए। उस समय श्वपच ने विश्वामित्र को '''पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः'''<ref>मनु और [[याज्ञवल्क्य]] ने कहा है कि कुत्ता, बंदर आदि जिन जानवरों के पाँच–पाँच बख होते हैं उन्हीं में से खरगोश, कछुआ, गोह आदि पाँच प्रकार के जानवरों का मांस भक्ष्य है, (मनुस्मृति. 5.18; याज्ञवल्क्यस्मृति, 1.177)। इन पाँच जानवरों के अतिरिक्त मनु जी ने 'खड्ग' अर्थात गेंड़े को भी भक्ष्य माना है। परन्तु टीकाकार का कथन है कि इस विषय में विकल्प है। इस विकल्प को छोड़ देने पर शेष पाँच ही जानवर रहते हैं और उन्हीं का मांस भक्ष्य समझा गया है। 'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' का यही अर्थ है; तथापि मीमांसकों के मतानुसार इस व्यवस्था का भावार्थ यही है कि जिन लोगों को मांस खाने की सम्मति दी गई है, वे उक्त पञ्चनखी पाँच जानवरों के सिवाय और किसी जानवर का मांस न खाएँ। इसका भावार्थ यह नहीं है कि इन जानवरों का मांस खाना ही चाहिए। इस पारिभाषिक अर्थ को वे लोग 'परिसंख्या' कहते हैं। 'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' इसी परिसंख्या का मुख्य उदाहरण है जबकि मांस खाना ही निषिद्ध माना गया है तब इन पाँच जानवरों का मांस खाना भी निषिद्ध ही समझा जाना चाहिए। मनुस्मृति. 5.18</ref> इत्यादि ‘शास्त्रार्थ बतला कर अभक्ष्य–भक्षण; और वह भी चोरी से न करने के विषय में बहुत उपदेय किया। परन्तु विश्वामित्र ने उसको डाँट कर यह उत्तर दियाः–
 
 
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'''पिबन्त्येवोदकं गावो मंडूकेषु रूवत्स्वपि।'''
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'''धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।'''
'''न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः।।'''
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'''यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।।'''
 
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<blockquote>'अरे! यद्यपि मेढ़क टर्र–टर्र किया करते हैं तो भी गौएँ पानी पीना बंद नहीं करतीं। चुप रह! मुझको धर्म–ज्ञान बताने का तेरा अधिकार नहीं है। व्यर्थ अपनी प्रशंसा मत कर।' उसी समय विश्वामित्र ने यह भी कहा कि '''जीवितं  मरणात्श्रेयो जीवन्धर्ममवाप्नुयात्'''– अर्थात; यदि जिंदा रहेंगे तो धर्म का आचरण कर सकेंगे; इसी लिए धर्म की दृष्टि से मरने की अपेक्षा जीवित रहना अधिक श्रेयस्कर है। मनु जी ने अजीगर्त, वामदेव आदि अन्यायी ऋषियों के उदाहरण दिए हैं जिन्होंने ऐसे संकट के समय में इसी प्रकार आचरण किया है (मनुस्मृति. 10.105–108)। हाब्स नामक अंग्रेज़ ग्रंथकार लिखता है कि 'किसी कठिन अकाल के समय जब अनाज मोल न मिले या दान भी न मिले, तब यदि पेट भरने के लिए कोई चोरी या साहस कर्म करे, तो उसका यह अपराध माफ़ समझा जाता है।<balloon title="Hobbes’ Leviathan, Part II. Chap. XXVII. P.139 (Morley’s Universal Library Edition). Mill’s Utilitarianism, Chap. V.P.95. (15th Ed.) – “Thus, to save a life, it may not only be allowable but a duty to steal etc.”" style=color:blue>*</balloon>' और मिल ने तो यहाँ तक लिखा है कि ऐसे समय चोरी करके अपना जीवन बचाना मनुष्य का कर्त्तव्य है।</blockquote>
 
  
'''मरने''' से जिंदा रहना श्रेष्ठ है’ – क्या विश्वामित्र का यह तत्व सर्वथा अपवाद–रहित कहा जा सकता है? नहीं! इस जगत में सिर्फ़ जिन्दा रहना ही कुछ पुरूषार्थ नहीं है। कौए भी काक–बलि खा कर कई वर्ष तक जीते रहते हैं। यही सोचकर वीरपत्नी विदुला अपने पुत्र से कहती है कि बिछौने पर पड़े–पड़े सड़ जाने या घर में सौ वर्ष की आयु को व्यर्थ व्यतीत करने की अपेक्षा, यदि तू एक क्षण भी अपने पराक्रम की ज्योति प्रगट करके मर जाएगा तो अच्छा होगा – '''मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरं।'''<balloon title="महाभारत. उद्योग पर्व, 132.15" style=color:blue>*</balloon> यदि यह बात सच है कि आज नहीं तो कल, अंत में सौ वर्ष के बाद मरना जरूर है<balloon title="भागवत पुराण 10.1.38; गीता, 2.27" style=color:blue>*</balloon>; तो फिर उसके लिए रोने या डरने से क्या लाभ है? आध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से तो आत्मा नित्य और अमर है; इसलिए मृत्यु का विचार करते समय, सिर्फ़ इस शरीर का ही विचार करना बाकी रह जाता है। अच्छा; यह तो सब जानते हैं कि यह शरीर नाशवान है। परन्तु आत्मा के कल्याण के लिए इस जगत में जो कुछ करना है, उसका एकमात्र साधन यही नाशवान मनुष्य–देह है।
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''''धर्म' शब्द 'धृ' अर्थात् 'धारण करना' धातु से बना है।''' धर्म से ही सब प्रजा बँधी हुई है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे (सब प्रजा का) धारण होता है वही धर्म है।'<balloon title="महाभारत कर्ण. 69.59" style=color:blue>*</balloon> यदि यह धर्म छूट जाए तो समझ लेना चाहिए कि समाज के सारे बंधन भी टूट गए, और यदि समाज के बंधन टूटे तो आकर्षण–शक्ति के बिना आकाश में सूर्यादि ग्रहमालाओं की जो दशा हो जाती है अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिए उक्त शोचनीय अवस्था में पड़कर समाज को नाश से बचाने के लिए व्यास जी ने कई स्थानों पर कहा है कि, 'यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो।' महाभारत के अन्त में यही कहा है किः–
  
'''इसी''' लिए मनु ने कहा है कि '''आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि''' – अर्थात; स्त्री और सम्पत्ति की अपेक्षा हमको पहले स्वयं अपनी ही रक्षा करनी चाहिए<balloon title="मनुस्मृति. 7.213" style=color:blue>*</balloon>। यद्यपि मनुष्य–देह दुर्लभ और नाशवान भी है, तथापि जब उसका नाश करके उससे भी अधिक किसी शाश्वत वस्तु की प्राप्ति कर लेनी होती है (जैसे देश, धर्म और सत्य के लिए अपनी प्रतिज्ञा, व्रत और विरद की रक्षा के लिए एवं इज्ज़त, कीर्ति और सर्वभूत–हित के लिए) तब, ऐसे समय पर अनेक महात्माओं ने इस तीव्र कर्त्तव्याग्नि में आनन्द से अपने प्राणों की भी आहुति दे दी है। जब राजा [[दिलीप]] अपने गुरू [[वसिष्ठ]] की गाय की रक्षा करने के लिए, सिंह को अपने शरीर का बलिदान देने को तैयार हो गया, तब वह सिंह से बोला कि 'हमारे समान पुरूषों की इस पाञ्चभौतिक शरीर के विषय में अनावस्था रहती है, अतएव तू मेरे इस जड़ शरीर के बदले मेरे यश रूपी शरीर की ओर ध्यान दे'<balloon title="रघुवंश, 2.57" style=color:blue>*</balloon>। कथासरित–सागर और नागानन्द नाटक में यह वर्णन है कि सर्पों की रक्षा करने के लिए जीमूतवाहन ने [[गरुड़]] को स्वयं अपना शरीर अर्पण कर दिया। मृच्छकटिक नाटक में चारूदत्त कहता हैः–
 
 
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'''न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितं यशः।'''
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'''ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येषः च कश्चिच्छृणोति माम्।'''
'''विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्मसमः किलं।।'''<balloon title="मृच्छकटिक, 10.27" style=color:blue>*</balloon>
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'''धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते।।'''
 
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''''मैं''' मृत्यु से नहीं डरता; मुझे यही दुःख है कि मेरी कीर्ति कलंकित हो गई। यदि कीर्ति शुद्ध रहे और मृत्यु भी आ जाए, तो मैं उसको पुत्र के उत्सव के समान मानूंगा।' इसी तत्व के आधार पर [[महाभारत]] में राजा शिबि और [[दधीचि]] ऋषि की कथाओं का वर्णन किया है<balloon title="महाभारत, 1.100 तथा 131; शांति पर्व, 342" style=color:blue>*</balloon>। जब [[यमराज|धर्मराज]] श्येन पक्षी का रूप धारण करके, कपोत के पीछे उड़े और जब वह कपोत अपनी रक्षा के लिए राजा शिबि की शरण में गया तब राजा ने स्वयं अपने शरीर का मांस काटकर उस श्येन पक्षी को दे दिया और शरणागत कपोत की रक्षा की। वृत्तासुर नाम का देवताओं का एक शत्रु था। उसको मारने के लिए दधीचि ऋषि की हड्डियों के वज्र की आवश्यकता हुई। तब सब देवता मिलकर उक्त ऋषि के पास गए और बोले '''शरीरत्यागं लोकहितार्थ भवान् कर्तुमर्हति''' – हे महाराज! लोगों के कल्याण के लिए आप देह का त्याग कीजिए। यह विनती सुन दधीचि ऋषि ने बड़े आनन्द से अपना शरीर त्याग दिया और अपनी हड्डियाँ देवताओं को दे दीं।
 
  
'''एक''' समय की बात है कि इन्द्र, ब्राह्मण का रूप धारण करके दानशूर कर्ण के पास कवच और कुण्डल मांगने आए। कर्ण इन कवच–कुण्डलों को पहने हुए ही जन्मा था। जब [[सूर्य]] ने जाना कि इन्द्र कवच–कुण्डल मांगने जा रहा है, तब उसने पहले ही से कर्ण को सूचना दे दी थी कि तुम अपने कवच–कुण्डल किसी को दान मत देना। यह सूचना देते समय सूर्य ने कर्ण से कहा कि 'इसमें संदेह नहीं है कि तू बड़ा दानी है, परन्तु यदि तू अपने कवच–कुण्डल दान में दे देगा तो तेरे जीवन ही की हानि हो जाएगी। इसलिए तू इन्हें किसी को न देना। मर जाने पर कीर्ति का क्या उपयोग है? – '''मृतस्य कीर्त्या किं कार्यम्'''। यह सुनकर कर्ण ने स्पष्ट उत्तर दिया कि '''जीवितेनापि मे रक्ष्या कीर्तिस्तद्विद्धि मे व्रतम्''' – अर्थात; जान चली जाए तो भी कुछ परवाह नहीं। परन्तु अपनी कीर्ति की रक्षा करना ही मेरा व्रत है<balloon title="महाभारत, 1.299.38" style=color:blue>*</balloon>। सारांश यह है कि 'यदि मर जाएगा तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी और जीत जाएगा तो [[पृथ्वी]] का राज्य मिलेगा' इत्यादि क्षात्र–धर्म<balloon title="गीता, 2.37" style=color:blue>*</balloon> और 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः'<balloon title="गीता, 3.35" style=color:blue>*</balloon> यह सिद्धांत उक्त तत्व पर ही अवलंबित है। इसी तत्व के अनुसार श्री [[समर्थ रामदास|समर्थ रामदास स्वामी]] कहते हैं 'कीर्ति की ओर देखने से सुख नहीं है और सुख की ओर देखने से कीर्ति नहीं मिलती<balloon title="समर्थ रामदास कृत दासबोध, 12.10.19; 18.10.25" style=color:blue>*</balloon>; और वे उपदेश भी करते हैं कि 'हे सज्जन मन! ऐसा काम करो जिससे मरने पर कीर्ति बनी रहे।'  
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'अरे! भुजा उठा कर मैं चिल्ला रहा हूँ, परन्तु कोई भी नहीं सुनता! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो?' अब इससे पाठकों के ध्यान में यह बात अच्छी तरह जम जाएगी कि [[महाभारत]] में जिस धर्म दृष्टि से पाँचवां [[वेद]] अथवा 'धर्म–संहिता' मानते हैं, उस 'धर्म–संहिता' शब्द के 'धर्म' शब्द का मुख्य अर्थ क्या है। यही कारण है कि पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों ही पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रंथों के साथ ही धर्मग्रंथ के नाते से '''नारायणं नमस्कृत्य''' इन प्रतीक शब्दों के द्वारा महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्य पाठ में कर दिया गया है।
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'''धर्म–अधर्म''' के उपर्युक्त निरूपण को सुनकर कोई यह प्रश्न करे कि यदि तुम्हें 'समाज धारणा' और दूसरे प्रकरण के सत्यानृत विवेक में कथित 'सर्वभूतहित'; ये दोनों ही तत्व मान्य हैं तो तुम्हारी दृष्टि में और आधिभौतिक दृष्टि में भेद ही क्या है? क्योंकि ये दोनों ही तत्व बाह्यतः प्रत्यक्ष दिखने वाले और आधिभौतिक ही हैं। इस प्रश्न का विस्तृत विचार अगले प्रकरणों में किया गया है। यहाँ इतना ही कहना बस है कि, यद्यपि हमको यह तत्व मान्य है कि समाज–धारणा ही धर्म का मुख्य बाह्य उपयोग है, तथापि हमारे मत की विशेषता यह है कि वैदिक अथवा अन्य सब धर्मों का जो परम उद्देश्य आत्म–कल्याण या मोक्ष है, उस पर भी हमारी दृष्टि बनी है। समाज–धारणा को ही ले लीजिए, चाहे सर्व–भूतहित ही को; यदि ये बाह्योपयोगी तत्व हमारे आत्म–कल्याण के मार्ग में बाधा डालें तो हमें इनकी जरूरत नहीं। हमारे आयुर्वेद ग्रंथ यदि यह प्रतिपादन करते हैं कि वैद्यकशास्त्र भी शरीर रक्षा के द्वारा मोक्ष प्रप्ति का साधन होने के कारण संग्रहणीय है; तो यह कदापि संभव नहीं कि जिस शास्त्र में इस विषय का विचार किया गया है कि सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिए, उस कर्मयोग शास्त्र को हमारे शास्त्रकार आध्यात्मिक मोक्षज्ञान से अलग बतलाएं। इसलिए हम समझते हैं कि जो कर्म हमारे मोक्ष अथवा हमारी आध्यात्मिक उन्नति के अनुकूल हों वही पुण्य है, वही धर्म है और वही शुभ कर्म है; और जो कर्म उसके प्रतिकूल हों वही पाप है, अधर्म है और अशुभ है। यही कारण है कि हम 'कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य', 'पाप–पुण्य', 'कार्य–अकार्य' शब्दों के बदले 'धर्म' और 'अधर्म' शब्दों का ही (यद्यपि वे दो अर्थ के, अतएव कुछ संभव हों तो भी) अधिक उपयोग करते हैं। यद्यपि बाह्य सृष्टि के व्यवहारिक कर्मों अथवा व्यापारों का विचार करना ही प्रधान विषय हो, तो भी उक्त कर्मों के बाह्य परिणाम के विचार के साथ ही यह विचार भी हम लोग हमेशा किया करते हैं कि ये व्यापार हमारी आत्मा के कल्याण के अनुकूल हैं या प्रतिकूल। यदि आधिभौतिक–वादी से कोई यह प्रश्न करे कि 'मैं अपना हित छोड़कर लोगों का हित क्यों करूं?' तो वह इसके सिवाय और क्या समाधान–कारक उत्तर दे सकता है कि 'यह तो सामान्यतः मनुष्य स्वभाव ही है।' हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इसके परे पहुँची हुई है और उस व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि से ही महाभारत में कर्मयोग–शास्त्र का विचार किया गया है एवं श्रीमद्भगवदगीता में वेदान्त का निरूपण भी इतने के लिए ही किया गया है। प्राचीन यूनानी पंडितों की भी यही राय है कि 'अत्यंत हित' अथवा 'सद्गुण की पराकाष्ठा' के समान मनुष्य का कुछ न कुछ परम उद्देश्य कल्पित करके फिर उसी दृष्टि से कर्म–अकर्म का विवेचन करना चाहिए; और [[अरस्तू]] ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रंथ<balloon title="अरस्तू नीतिशास्त्र, 1.7, 8)" style=color:blue>*</balloon> में कहा है कि आत्मा के हित में ही इन सब बातों का समावेश हो जाता है। तथापि इस विषय में आत्मा के हित के लिए जितनी प्रधानता देनी चाहिए थी, उतनी अरस्तू ने दी नहीं है। हमारे शास्त्रकारों में यह बात नहीं है। उन्होंने निश्चित किया है कि आत्मा का कल्याण अथवा आध्यात्मिक पूर्णावस्था ही प्रत्येक मनुष्य का पहला और परम उद्देश्य है। अन्य प्रकार के हितों की अपेक्षा इसी को प्रधान जानना चाहिए और इसी के अनुसार कर्म–अकर्म का विचार करना चाहिए; आध्यात्म विद्या को छोड़कर कर्म–अकर्म का विचार करना ठीक नहीं है। जान पड़ता है कि वर्तमान समय में पश्चिमी देशों के कुछ पंडितों ने भी कर्म–अकर्म के विवेचन की इसी पद्धति को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ; जर्मन तत्वज्ञानी कान्ट ने पहले 'शुद्ध (व्यवसायात्मिक) बुद्धि की मीमांसा' नामक आध्यात्मिक ग्रंथ को लिखकर फिर उसकी पूर्ति के लिए 'व्यवहारिक (वासनात्मक) बुद्धि की मीमांसा' नाम का नीतिशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखा है<balloon title="कान्ट एक जर्मन तत्वज्ञानी था। इसे अर्वाचीन तत्वज्ञान–शास्त्र का जनक समझते हैं। इसके Oritique of Pure Reason (शुद्ध बुद्धि की मीमांसा) और Oritique of Practical Reason (वासनात्मक बुद्धि की मीमांसा) ये दो ग्रंथ प्रसिद्ध है। ग्रीन के ग्रंथ का नाम Prolegomena to Ethics है।" style=color:blue>*</balloon>; और इंग्लैंड में भी ग्रीन ने अपने 'नीतिशास्त्र के उपोद्धात' का सृष्टि के मूलभूत आत्मतत्व से ही आरंभ किया है। परन्तु इन ग्रंथों के बदले केवल आधिभौतिक पंडितों के ही नीतिग्रंथ आजकल हमारे यहाँ अंग्रेज़ी शालाओं में पढ़ाए जाते हैं; जिसका परिणाम यह देख पड़ता है कि गीता में बतलाए गए कर्मयोग–शास्त्र के मूलतत्वों का हम लोगों में अंग्रेज़ी सीखे हुए बहुतेरे विद्वानों को भी स्पष्ट बोध नहीं होता। उक्त विवेचन से ज्ञात हो जाएगा कि व्यवहारिक नीति–बंधनों के लिए अथवा समाज धारणा की व्यवस्था के लिए हम 'धर्म' शब्द का उपयोग क्यों करते हैं। [[महाभारत]], [[गीता|भगवद्गीता]] आदि [[संस्कृत]] ग्रंथों में तथा भाषा ग्रंथों में भी व्यवहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं।
  
'''यहाँ''' प्रश्न हो सकता है कि यद्यपि परोपकार से कीर्ति होती है तथापि मृत्यु के बाद कीर्ति का क्या उपयोग है? अथवा किसी सभ्य मनुष्य को अपकीर्ति की अपेक्षा मर जाना<balloon title="गीता, 2.34" style=color:blue>*</balloon>; या जिंदा रहने से परोपकार करना अधिक प्रिय क्यों होना चाहिए? इस प्रश्न का उचित उत्तर देने के लिए आत्म–अनात्म विचार में प्रवेश करना होगा। और इसी के साथ कर्म–अकर्म शास्त्र का भी विचार करके यह जान लेना होगा कि किस मौके पर जान देने के लिए तैयार होना उचित या अनुचित है। यदि इस बात का विचार नहीं किया जाएगा तो जान देने से यश की प्राप्ति तो दूर ही रही, परन्तु मूर्खता से आत्महत्या करने का पाप मत्थे चढ़ जाएगा।
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भारतीय युद्ध में एक समय [[कर्ण]] के रथ का पहिया [[पृथ्वी]] ने निगल लिया था; उसको उठाकर ऊपर लाने के लिए जब कर्ण अपने रथ से नीचे उतरा तब [[अर्जुन]] उसका वध करने के लिए उद्यत हुआ। यह देखकर कर्ण ने कहा, '''निःशस्त्र शत्रु को मारना धर्मयुद्ध नहीं है।''' इसे सुनकर श्री [[कृष्ण]] ने कर्ण को कई पिछली बातों का स्मरण दिलाया, जैसे कि – [[द्रौपदी]] का वस्त्र हरण कर लिया गया था, सब लोगों ने मिलकर अकेले [[अभिमन्यु]] का वध कर डाला था इत्यादि; और प्रत्येक प्रसंग में यह प्रश्न किया है कि 'हे कर्ण! उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था?' इन सब बातों का वर्णन महाराष्ट्र कवि मोरोपंत जी ने किया है और महाभारत में भी इसी प्रसंग पर 'कते धर्मस्तदा गतः' प्रश्न में 'धर्म' शब्द का ही प्रयोग किया गया है तथा अंत में कहा गया है कि जो इस प्रकार का अधर्म करे, उसके साथ उसी तरह का बर्ताव करना ही उसको उचित दण्ड देना है। सारांश; क्या संस्कृत और क्या भाषा, सभी ग्रंथों में 'धर्म' शब्द का प्रयोग उन सब नीति नियमों के बारे में किया गया है जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा अध्यात्म दृष्टि से बनाए गए हैं; इसलिए उसी शब्द का उपयोग हमने भी इस ग्रंथ में किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा 'शिष्टाचार' को धर्म की बुनियाद कह सकते हैं जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा प्रचलित किए गए हों और जो सर्वमान्य हो चुके हों। इसलिए महाभारत<balloon title="महाभारत, अनुशासन पर्व,  104.157" style=color:blue>*</balloon> में एवं स्मृति ग्रंथों में 'आचारप्रभवो धर्मः' अथवा 'आचारः परमोधर्मः'<balloon title="मनुस्मृति, 1.108" style=color:blue>*</balloon>, अथवा धर्म का मूल बतलाते समय '''वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः'''<balloon title="मनुस्मृति, 2.12" style=color:blue>*</balloon> इत्यादि वचन कहे गए हैं। परन्तु कर्मयोग–शास्त्र में इतने से ही काम नहीं चल सकता; इस बात का भी पूरा और मार्मिक विचार करना पड़ता है कि उक्त आचार की प्रवृत्ति ही क्यों हुई – इस आचार की प्रवृत्ति ही का कारण क्या है।
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''''धर्म' शब्द की दूसरी एक और व्याख्या''' प्राचीन ग्रंथों में दी गई है; उसका भी यहाँ थोड़ा विचार करना चाहिए। यह व्याख्या मीमांसकों की है 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः।'<balloon title="जैमिनी सूत्र 1.1.2" style=color:blue>*</balloon>  किसी अधिकारी पुरूष का यह कहना अथवा आज्ञा करना कि 'तू अमुक काम कर' अथवा 'मत कर', 'चोदना' यानी प्रेरणा है। जब तक इस बात का कोई प्रबंध नहीं कर दिया जाता, तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतंत्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल निबंध या प्रबंध के कारण धर्म निर्माण हुआ। धर्म की यह व्याख्या कुछ अंश में प्रसिद्ध अंग्रेज़ ग्रंथकार हॉब्स के मत से मिलती है। असभ्य तथा जंगली अवस्था में प्रत्येक मनुष्य का आचरण समय समय पर उत्पन्न होने वाली मनोवृत्तियों की प्रबलता के अनुसार हुआ करता है। परन्तु धीरे धीरे कुछ समय के बाद यह मालूम होने लगता है कि इस प्रकार का मनमाना बर्ताव श्रेयस्कर नहीं है; और यह विश्वास होने लगता है कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापारों की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार बर्ताव करने ही में सब लोगों का कल्याण है; तब प्रत्येक मनुष्य ऐसी मर्यादाओं का पालन कायदे के तौर पर करने लगता है जो शिष्टाचार से, अन्य रीति से सुदृढ़ हो जाया करती हैं। जब इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है तब उन्हीं का एक शास्त्र बन जाता है। पूर्व काल में विवाह–व्यवस्था का प्रचार नहीं था। पहले पहल उसे [[श्वेतकेतु]] ने चलाया और [[शुक्राचार्य]] ने मदिरापान को निषिद्ध ठहराया। यह न देखकर, कि इन मर्यादाओं को नियुक्त करने में श्वेतकेतु अथवा शुक्राचार्य का क्या हेतु था, केवल इसी बात पी ध्यान देकर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कर्त्तव्य इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शब्द की 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः' व्याख्या बन गई है। धर्म भी हुआ तो पहले उसका महत्व किसी व्यक्ति के ध्यान में आता है और तभी उसकी प्रवृत्ति होती है। 'खाओ–पिओ, चैन करो' ये बातें किसी को सिखलाना नहीं पड़ती; क्योंकि ये इंद्रियों के स्वाभाविक धर्म ही हैं। मनु जी ने जो कहा है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने'<balloon title="मनुस्मृति, 5.56" style=color:blue>*</balloon>– अर्थात् मांस भक्षण करना अथवा मद्यपान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म विरूद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्।' समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के सुख के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व,  294.29" style=color:blue>*</balloon> में भी कहा गया हैः–
  
'''माता''', पिता, गुरू आदि वन्दनीय और पूजनीय पुरूषों की पूजा तथा शुश्रूषा करना भी सर्वमान्य धर्मों में से एक प्रधान धर्म समझा जाता है। यदि ऐसा न हो तो कुटुंब, गुरूकुल और सारे समाज की व्यवस्था ठीक–ठीक कभी रह न सकेगी। यही कारण है कि सिर्फ़ स्मृति–ग्रंथों ही में नहीं, किंतु उपनिषदों में भी 'सत्यं वद, धर्मं चर’' कहा गया है। और जब शिष्य का अध्ययन पूरा हो जाता और वह अपने घर जाने लगता, तब प्रत्येक गुरू का यही गुरू का यही उपदेश होता था कि 'मातृ देवो भव पितृ देवो भव,आचार्य देवो भव'<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद, 1.11.1 और 2" style=color:blue>*</balloon>। महाभारत के ब्राह्मण–व्याध आख्यान का तात्पर्य भी यही है<balloon title="महाभारत वनपर्व,. अध्याय 213" style=color:blue>*</balloon>। परंतु इस धर्म में भी कभी–कभी अकल्पित बाधा खड़ी हो जाती है। देखिए, मनु जी कहते हैं–
 
 
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'''उपाध्यायान्दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता।'''
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'''आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।'''
'''सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।।'''<balloon title="मनुस्मृति, 2.145" style=color:blue>*</balloon>
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'''धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।'''
 
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<blockquote>'दस उपाध्यायों से आचार्य और सौ आचार्यों से पिता एवं हजार पिताओं से माता का गौरव अधिक है।' इतना होने पर भी यह कथा प्रसिद्ध है कि [[परशुराम]] की माता ने कुछ अपराध किया था, इसलिए उसने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता को मार डाला<balloon title="महाभारत वनपर्व, 119.14" style=color:blue>*</balloon>। महाभारत के शांतिपर्व के चिरकारिकोपाख्यान में अनेक साधक–बाधक प्रमाणों सहित इस बात का विस्तृत विवेचन किया गया है कि पिता की आज्ञा से माता का वध करना श्रेयस्कर है या पिता की आज्ञा का भंग करना श्रेयस्कर है<balloon title="महाभारत, शांतिपर्व, 295" style=color:blue>*</balloon>।</blockquote>
 
  
'''इससे''' स्पष्ट माना जाता है कि महाभारत के समय ऐसे सूक्ष्म प्रसंगों की नीतिशास्त्र की दृष्टि से चर्चा करने की पद्धति जारी थी। यह बात छोटों से लेकर बड़ों तक सब लोगों को मालूम है कि पिता की प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए पिता की आज्ञा से रामचन्द्र ने चौदह वर्ष तक वनवास किया, परन्तु माता के सम्बन्ध में जो न्याय ऊपर कहा गया है, वही पिता के सम्बन्ध में भी उपयुक्त होने के समय कभी–कभी आ सकता है। जैसे कि मान लीजिए, कोई लड़का अपने पराक्रम से राजा हो गया और उसका पिता अपराधी होकर इंसाफ के लिए उसके सामने लाया गया। इस अवस्था में वह लड़का क्या करे?–राजा के नाते से अपने अपराधी पिता को दण्ड दे या उसको अपना पिता समझकर छोड़ दे? मनु जी कहते हैं:
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<blockquote>अर्थात्  'आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिए एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्य और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का (अर्थात् इन स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने का)। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है, वह पशु के समान ही है!' आहारादि स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में भागवत का श्लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन से भगवान कहते हैं –</blockquote>
 
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'''पिताचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।'''
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'''इंद्रियस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वषौ व्यवस्थितौ।'''
'''नादण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति।।'''
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'''तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपंथिनौ।।'''<balloon title="गीता 3.34" style=color:blue>*</balloon>
 
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<blockquote>'पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित – इनमें से कोई भी यदि अपने धर्म के अनुसार न चले तो वह राजा के लिए अदण्ड्य नहीं हो सकता; अर्थात राजा उसको उचित दण्ड दे'<balloon title="मनुस्मृति, 8.335; महाभारत, शांतिपर्व, 121.60" style=color:blue>*</balloon>। इस जगह पुत्र धर्म की योग्यता से राजधर्म की योग्यता अधिक है। इस बात का उदाहरण यह है कि [[सूर्य वंश]] के महा–पराक्रमी [[सगर]] राजा ने असमंजस नामक अपने लड़के को देश से निकाल दिया था; क्योंकि वह दुराचरणी था और प्रजा को दुःख दिया करता था<balloon title="महाभारत. वनपर्व, 107; रामायण. 1.38 में" style=color:blue>*</balloon>।</blockquote>
 
  
'''मनुस्मृति''' में भी यह कथा है कि [[आंगिरस]] नामक एक ऋषि को छोटी अवस्था में ही बहुत ज्ञान हो गया था; इसलिए उसके काका–मामा आदि बड़े बूढ़े नातीदार उसके पास अध्ययन करने लग गए थे। एक दिन पाठ पढ़ाते–पढ़ाते आंगिरस ने कहा 'पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्।' बस, यह सुनकर सब वृद्धजन क्रोध से लाल हो गए और कहने लगे कि यह लड़का मस्त हो गया है! उसको उचित दण्ड दिलाने के लिए उन लोगों ने देवताओं से शिकायत की। देवताओं ने दोनों ओर का कहना सुन लिया और यह निर्णय लिया कि 'आंगिरस ने जो कुछ तुम्हें कहा, वही न्याय है।' इसका कारण यह है किः–
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<blockquote>'प्रत्येक इंद्रिय में अपने अपने उपभोग्य अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में जो प्रीति अथवा द्वेष होता है, वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं होना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं।' तब भगवान भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते हैं जो स्वाभाविक मनोवृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। मनुष्य की इंद्रियाँ उसे पशु के समान आचरण करने के लिए कहा करती हैं और उसकी बुद्धि इसके विरूद्ध दिशा में खींचा करती हैं। इस कलहाग्नि में जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतकृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिए और वही धन्य भी हैं।</blockquote>
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'''न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।'''
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'''धर्म को 'आचार–प्रभाव' कहिए, 'धारणात् धर्म' मानिए''' अथवा 'चोदनालक्षण धर्म' समझिए; धर्म की यानी व्यवहारिक नीतिबंधनों की कोई भी व्याख्या ले लीजिए, परन्तु जब धर्म–अधर्म का संशय उत्पन्न होता है तब उसका निर्णय करने के लिए उपर्युक्त तीनों लक्षणों का कुछ उपयोग नहीं होता। पहली व्याख्या से सिर्फ़ यही मालूम होता है कि धर्म का मूल स्वरूप क्या है; उसका बाह्य उपयोग दूसरी व्याख्या से मालूम होता है; और तीसरी व्याख्या से यही बोध होता है कि पहले पहल किसी ने धर्म की मर्यादा निश्चित कर दी है। परन्तु अनेक आचारों में भेद पाया जाता है; एक ही कर्म के अनेक परिणाम होते हैं और अनेक ऋषियों की आज्ञा अर्थात् 'चोदना' भी भिन्न भिन्न है। इन कारणों से संशय के समय धर्म निर्णय के लिए किसी दूसरे मार्ग को ढूँढ़ने की आवश्यकता होती है। यह मार्ग कौन–सा है? यही प्रश्न यक्ष ने [[युधिष्ठिर]] से किया था। इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया है किः–
'''यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।'''
 
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<blockquote>'सिर के बाल सफ़ेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता; देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरूण होने पर भी ज्ञानवान हो'<balloon title="मनुस्मृति, 2.156 और महाभारत, 1.133.11; शल्यपर्व. 51.47" style=color:blue>*</balloon>। यह तत्व मनु जी और व्यास जी ही को नहीं, किंतु बुद्ध को भी मान्य था, क्योंकि मनुस्मृति के इस श्लोक का पहला चरण ‘धम्मपद’<ref>‘धम्मपद’ ग्रंथ का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘प्राच्यधर्म–पुस्तकमाला’ (Sacred Books of the East Vol. X.) में किया गया है और चुल्लवग्ग का अनुवाद भी उसी माला के Vol. XVII और XX में प्रकाशित हुआ है। धम्मपद का पाली श्लोक यह हैः–</blockquote>
 
<poem>न तेन थेरो होति येनस्स पलितं सिरो।
 
परिपक्को वयो तस्स मोघजिण्णो ति वुच्चति।।</poem>
 
<blockquote>‘थेर’ शब्द बुद्ध भिक्षुओं के लिए प्रसुक्त हुआ है। यह संस्कृत शब्द ‘स्थविर’ का अपभ्रंश है।</ref> नाम के प्रसिद्ध नीतिविषयक पाली भाषा के बौद्ध ग्रंथ में अक्षरशः आया है<balloon title="धम्मपद. 290" style=color:blue>*</balloon> और उसके आगे यह भी कहा है कि जो सिर्फ़ अवस्था ही से वृद्ध हो गया है, उसका जीना व्यर्थ है। यथार्थ में धर्मिष्ठ और वृद्ध होने के लिए सत्य, अहिंसा आदि की आवश्यकता है। ‘चुल्लवसा’ नामक दूसरे ग्रंथ<balloon title="चुल्लवसा, 6.13.1" style=color:blue>*</balloon> में स्वयं [[बुद्ध]] की यह आज्ञा है कि यद्यपि धर्म का निरूपण करने वाला भिक्षु नया हो, तथापि वह ऊँचे आसन पर बैठे और उन वयोवृद्ध भिक्षुओं को भी उपदेश करे जिन्होंने उसके पहले दीक्षा पाई हो।</blockquote>
 
  
'''यह''' कथा सब लोग जानते हैं कि [[प्रह्लाद]] ने अपने पिता [[हिरण्यकशिपु]] की अवज्ञा करके भगवत प्राप्ति कैसे कर ली थी। इससे यह जान पड़ता है कि जब कभी कभी पिता–पुत्र के सर्वमान्य नाते से भी कोई दूसरा अधिक बड़ा सम्बन्ध उपस्थित होता है, तब उतने समय के लिए निरूपार हो कर पिता–पुत्र का नाता भूल जाना पड़ता है। परन्तु ऐसे अवसर के न होते हुए भी, यदि कोई मुँह–जोड़ लड़का उक्त नीति का अवलंब करके, अपने पिता को गालियाँ देने लगे, तो वह केवल पशु के समान समझा जाएगा। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है कि '''गुरूर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः''' – अर्थात; गुरू तो माता–पिता से भी अधिक श्रेष्ठ है। परन्तु महाभारत ही में यह भी लिखा है कि एक समय मरूत्त राजा के गुरू ने लोभवश होकर स्वार्थ के लिए उसका त्याग किया तब मरूत्त ने कहाः–
 
 
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'''गुरूरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।'''
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'''तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
'''उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।।'''
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धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः।।'''
 
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<blockquote>'यदि कोई गुरू इस बात का विचार न करे कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, और यदि वह अपने ही घमंड में रहकर टेढ़े रास्ते से चले, तो उसका शासन करना उचित है।' उक्त श्लोक महाभारत में चार स्थानों में पाया जाता है।<balloon title="महाभारत, आदि पर्व, 142.52, 53; उद्योग पर्व, 179.24; शान्ति पर्व,  57.7; 140.48" style=color:blue>*</balloon> इनमें से पहले स्थान में वही पाठ है जो ऊपर दिया गया है; अन्य स्थानों में चौथे चरण के बदले 'दण्डो भवति शाश्वतः' अथवा 'परित्यागो विधीयते' यह पाठांतर भी है। परंतु [[वाल्मीकि]]–[[रामायण]]<balloon title="रामायण, 2.21.13" style=color:blue>*</balloon> में जहाँ यह श्लोक है; वहाँ ऐसा ही पाठ है जैसा ऊपर दिया गया है। इसलिए हमने इस ग्रंथ में उसी को स्वीकार किया है। उसी के आधार पर [[भीष्म|भीष्म पितामह]] ने [[परशुराम]] से और [[अर्जुन]] ने [[द्रोणाचार्य]] से युद्ध किया। और जब प्रह्लाद ने देखा कि अपने गुरू, जिन्हें हिरण्यकशिपु ने नियत किया है, भगवत्प्राप्ति के विरूद्ध उपदेश कर रहे हैं; तब उसने इसी तत्व के अनुसार उसका निषेध किया है। शांतिपर्व में स्वयं भीष्म पितामह श्री[[कृष्ण]] से कहते हैं कि यद्यपि गुरू लोग पूजनीय हैं तथापि उनको भी नीति की मर्यादा का अवलंब करना चाहिए; नहीं तो–</blockquote>
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'''यदि तर्क को देखें तो वह चंचल है,''' अर्थात् 'जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क से निष्पन्न हो जाते हैं; श्रुति अर्थात् वेदाज्ञा देखी जाए तो वह भी भिन्न भिन्न है और यदि स्मृति शास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाए। अच्छा, इस (व्यवहारिक) धर्म का मूल तत्व देखा जाए तो वह भी अंधकार में छिप गया है, अर्थात् वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिए महा–जन जिस राह से गए हों, वही (धर्म का) मार्ग है'<balloon title="महाभारत, वन पर्व,  312.115" style=color:blue>*</balloon> ठीक है! परन्तु महा–जन किस को कहना चाहिए? उसका अर्थ 'बड़ा अथवा बहुत–सा जनसमूह' नहीं हो सकता क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म–अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाए मार्ग से जाना, मानो [[कठोपनिषद]] में वर्णित '''अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः''' वाली नीति ही को चरितार्थ करना है। अब यदि महाजन का अर्थ 'बड़े बड़े सदाचारी पुरूष’ लिया जाए, और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है तो उन महा–जनों के आचरण मे भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्री [[राम|रामचन्द्र]] ने [[अग्नि]] द्वारा शुद्ध हो जाने पर भी अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद ही के लिए किया; और [[सुग्रीव]] को अपने पक्ष में मिलाने के लिए उससे 'तुल्यारिमित्र' – अर्थात् जो तेरा शत्रु है वही मेरा भी शत्रु है, और जो तेरा मित्र है वह मेरा भी मित्र है; इस प्रकार की संधि करके बेचारे [[बालि]] का वध किया, यद्यपि उसने श्री रामचंद्र जी का कुछ अपराध नहीं किया था! [[परशुराम]] ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला! यदि [[पांडव|पांडवों]] का आचरण देखा जाए तो कोई [[अहल्या]] का सतीत्व भ्रष्ट करने वाला है, और कोई [[ब्रह्मा]] मृगरूप से अपनी ही कन्या की अभिलाष करने के कारण रूद्र के बाण से विद्ध होकर आकाश में पड़ा हुआ है।<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण, 3.33" style=color:blue>*</balloon>
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'''समयत्यागिनो लुब्धान् गुरूनपि च केशव।'''
 
'''निहन्ति समरे पापान् क्षत्रियः स हि धर्मवित्।।'''
 
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<blockquote>'हे केशव! जो गुरू मर्यादा, नीति अथवा शिष्टाचार का भंग करते हैं और जो लोभी या पापी हैं, उन्हें लड़ाई में मारने वाला क्षत्रिय ही धर्मज्ञ कहलाता है'।<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व, 55.19" style=color:blue>*</balloon> इसी तरह तैत्तिरीयोपनिषद में भी प्रथम 'आचार्य देवो भव' कहकर उसी के आगे कहा है कि हमारे जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो, औरों का नहीं, – '''यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि।'''<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद. 1.11.2" style=color:blue>*</balloon> इससे उपनिषदों का यह सिद्धान्त प्रगट होता है कि यद्यपि पिता और आचार्य को देवता के समान मानना चाहिए, तथापि यदि वे शराब पीते हों तो पुत्र और छात्र को अपने पिता या आचार्य का अनुकरण नहीं करना चाहिए; क्योंकि नीति, मर्यादा और धर्म का अधिकार मां–बाप या गुरू से भी अधिक बलवान होता है।
 
</blockquote>
 
'''मनु''' जी की निम्न आज्ञा का भी यही रहस्य है – 'धर्म की रक्षा करो; यदि कोई धर्म का नाश करेगा, अर्थात धर्म की आज्ञा के अनुसार आचरण नहीं करेगा, तो वह उस मनुष्य का नाश किए बिना नहीं रहेगा'।<balloon title="मनुस्मृति. 8.14–16" style=color:blue>*</balloon> राजा तो गुरू से भी अधिक श्रेष्ठ एक देवता है<balloon title="मनुस्मृति, 7.8 और महाभारत, शांतिपर्व, 68.40" style=color:blue>*</balloon> परंतु वह भी इस धर्म से मुक्त नहीं हो सकता; यदि वह इस धर्म का त्याग कर देगा तो उसका नाश हो जाएगा; यह बात मनुस्मृति में कही गई है और महाभारत में वही भाव, वेन तथा खनीनेत्र राजाओं की कथा में व्यक्त किया गया है।<balloon title="मनुस्मृति, 7.41 और 8.128; महाभारत, शांतिपर्व, 59.92–100 तथा आश्वमेधिक पर्व, 4" style=color:blue>*</balloon>
 
  
'''अहिंसा''', सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रिय–निग्रह की भी गणना सामान्य धर्म में की जाती है।<balloon title="मनुस्मृति, 10.93" style=color:blue>*</balloon> काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के शत्रु हैं, इसलिए जब तक मनुष्य इनको जीत नहीं लेगा, तब तक समाज का कल्याण नहीं होगा। यह उपदेश सब शास्त्रों में किया गया है। [[विदुर]] नीति और [[गीता|भगवद्गीता]] में भी कहा हैः–
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इन्हीं बातों को मन में लाकर उत्तर–रामचरित्र नाटक में [[भवभूति]] ने [[लव कुश|लव]] के मुख से कहलाया है कि 'वृद्धास्ते न विचारणीय चरिताः' – इन वृद्धों के कृत्यों का बहुत विचार नहीं करना चाहिए। अंग्रेज़ी में शैतान का इतिहास लिखने वाले एक ग्रंथकार ने लिखा है कि शैतान के साथियों और देवदूतों के झगड़े का हाल देखने से मालूम होता है कि कई बार देवताओं ने ही दैत्यों को कपटजाल में फाँस लिया है। इसी प्रकार [[कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद]]<balloon title="कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद, 3.1 और ऐतरेय ब्राह्मण, 7.28" style=color:blue>*</balloon> में [[इन्द्र]] प्रतर्दन से कहता है कि 'मैंने वृत्र को (यद्यपि वह ब्राह्मण था) मार डाला। अरून्मुख सन्यासियों के टुकड़े करके भेड़ियों को खाने के लिए दिए और अपनी कई प्रतिज्ञाओं को भंग करके [[प्रह्लाद]] के नातेदारों द्वारा गोत्रजों का तथा पौलोम और कालखंज नामक दैत्यों का वध किया, (इससे) मेरा एक बाल भी बांका नहीं हुआ।
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'''त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशकमात्मनः।'''
 
'''कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्।।'''
 
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<blockquote>'काम, क्रोध और लोभ ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। इनसे हमारा नाश होता है, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए'।<balloon title="गीता, 19.21; महाभारत, उद्योग पर्व, 32.70" style=color:blue>*</balloon> परन्तु गीता ही में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का यह वर्णन किया है '''धर्माविरूद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ''' – हे अर्जुन! प्राणीमात्र में जो ‘काम’ धर्म के अनुकूल है वही मैं हूँ।<balloon title="गीता. 7.11" style=color:blue>*</balloon> इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो 'काम’ धर्म के विरूद्ध है, वही नरक का द्वार है, उसके अतिरिक्त जो दूसरे प्रकार का 'काम' है अर्थात जो कि धर्म के अनुकूल है, वह ईश्वर को मान्य है।</blockquote>
 
  
'''मनु''' ने भी यही कहा है '''परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ''' – जो अर्थ और काम, धर्म के विरूद्ध हों, उनका त्याग कर देना चाहिए।<balloon title="मनुस्मृति, 4.179" style=color:blue>*</balloon> यदि सब प्राणी कल से 'काम' का त्याग कर दें और मृत्युपर्यंत ब्रह्मचर्य–व्रत से रहने का निश्चय कर लें, तो सौ–पचास वर्ष ही में सारी सजीव सृष्टि का लय हो जाएगा और जिस सृष्टि की रचना के लिए भगवान बार–बार अवतार धारण करते हैं, उसका अल्पकाल ही में उच्छेद हो जाएगा।
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'''तस्य मे तत्र न लोम च मा मीयते!'''  
  
'''यह''' बात सच है कि काम और क्रोध मनुष्य के शत्रु हैं; परन्तु कब? जब वे अनिवार्य हो जाएँ तब। यह बात मनु आदि शास्त्रकारों को सम्मत है कि सृष्टि का काम जारी रखने के लिए उचित मर्यादा के भीतर काम और क्रोध की अत्यंत आवश्यकता है।<balloon title="मनुस्मृति,  5.59" style=color:blue>*</balloon> इन प्रबल मनोवृत्तियों का उचित रीति से निग्रह करना ही सब सुधारों का प्रधान उद्देश्य है। उनका नाश करना कोई सुधार नहीं कहा जा सकता; क्योंकि [[भागवत पुराण|भागवत]] में कहा गया है किः–
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<blockquote>यदि कोई कहे कि 'तुम्हें इन महात्माओं के बुरे कर्मों की ओर ध्यान देने का कुछ भी कारण नहीं है; जैसा कि [[तैत्तिरीयोपनिषद]]<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद , 1.11.2" style=color:blue>*</balloon> में बतलाया है, उनके जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो और सब छोड़ दो। उदाहरणार्थ; परशुराम के समान पिता की आज्ञा का पालन करो' तो वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिए साधन है क्या? इसलिए अपनी करनी का उक्त प्रकार से वर्णन कर इंद्र प्रतर्दन से फिर कहता है कि 'जो पूर्ण आत्मज्ञानी है उसे मातृवध, पितृवध, भ्रूणहत्या और स्तेय (चोरी) इत्यादि किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता। इस बात को तू भली–भाँति समझ ले और फिर यह भी समझ ले कि आत्मा किसे कहते हैं। ऐसा करने से तेरे सारे संशय की निवृत्ति हो जाएगी।' इसके बाद इंद्र ने प्रतर्दन को आत्मविद्या का उपदेश दिया।</blockquote>
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'''लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना।'''
 
'''व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा।।'''<balloon title="भागवत पुराण11.5.11" style=color:blue>*</balloon>
 
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<blockquote>'इस दुनिया में किसी से यह कहना नहीं पड़ता है कि तुम मैथुन, मांस और मदिरा का सेवन करो; ये बातें मनुष्य को स्वभाव ही से पसंद हैं। इन तीनों की कुछ व्यवस्था कर देने के लिए अर्थात, इनके उपयोग को कुछ मर्यादित करके व्यवस्थित कर देने के लिए (शास्त्रकारों ने) अनुक्रम से विवाह, सोमयाग और सौत्रामणी [[यज्ञ]] की योजना की है। परन्तु इस पर भी निवृत्ति अर्थात निष्काम आचरण इष्ट है।' यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जब 'निवृत्ति' शब्द का सम्बन्ध पञ्चम्यन्त पद के  साथ होता है तब उसका अर्थ 'अमुक वस्तु से निवृत्ति अर्थात अमुक क्रम का सर्वथा त्याग' हुआ करता है; तो कर्म योग में 'निवृत्ति'  विशेषण कर्म ही के लिए उपयुक्त हुआ है, इसलिए 'निवृत्त कर्म' का अर्थ 'निष्काम बुद्धि से किया जाने वाला कर्म' होता है। यही अर्थ [[मनुस्मृति]] और [[भागवत पुराण]] में स्पष्ट रीति से पाया जाता है।<balloon title="मनुस्मृति, 12.89; भागवत पुराण, 11.10.1 और 7.15.47" style=color:blue>*</balloon> क्रोध के विषय में किरातकाव्य में<balloon title="किरातकाव्य1.33" style=color:blue>*</balloon>  भारवि का कथन है किः–</blockquote>
 
'''अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः।'''
 
'जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वेष दोनों ही बराबर हैं।' क्षात्रधर्म के अनुसार देखा जाए तो बिदुला ने यही कहा है किः–
 
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'''एतावानेव पुरूषो यदमर्षी यदक्षमी।'''
 
'''क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान्।।'''
 
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<blockquote>'जिस मनुष्य को (अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता, वही पुरूष कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ़ नहीं है वह नपुंसक ही के समान है।'<balloon title="महाभारत, उद्योग पर्व, 132.33" style=color:blue>*</balloon> इस बात का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है कि इस जगत के व्यवहार के लिए न तो सदा तेज या क्रोध ही उपयोगी है और न ही क्षमा। यही बात लोभ के विषय में भी कही जा सकती है क्योंकि सन्यासी को भी मोक्ष की इच्छा होती ही है।
 
</blockquote>
 
[[व्यास]] जी ने [[महाभारत]] में अनेक स्थानों पर भिन्न–भिन्न कथाओं के द्वारा यह प्रतिपादन किया है कि शूरता, धैर्य, दया, शील, मित्रता, समता आदि सब सद्गुण, अपने–अपने विरूद्ध गुणों के अतिरिक्त देशकाल आदि से मर्यादित हैं। यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एक ही सद्गुण सभी समय शोभा देता है। भर्तृहरि का कथन हैः–<br />
 
'''विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।'''
 
  
''''संकट''' के समय धैर्य, अभ्युदय के समय (अर्थात जब शासन करने का सामर्थ्य हो तब) क्षमा, सभा में वक्तृता और युद्ध में शूरता शोभा देती है।'<balloon title="नीतिशास्त्र, 93" style=color:blue>*</balloon> शांति के समय ‘उत्तर’ के समान बक–बक करने वाले पुरूष कुछ कम नहीं हैं। घर बैठे–बैठे अपनी स्त्री की नथनी में से तीर चलाने वाले कर्मवीर बहुतेरे होंगे; उनमें से रणभूमि पर धनुर्धर कहलाने वाला एक–आध ही देख पड़ता है! धैर्य आदि सद्गुण ऊपर लिखे समय पर ही शोभा देते हैं। इतना ही नहीं; किन्तु ऐसे मौकों के बिना उनकी सच्ची परीक्षा भी नहीं होती। सुख के साथी तो बहुतेरे हुए करते हैं; परन्तु '''निकषग्रावा तु तेषां विपत्''' – विपत्ति ही उनकी परीक्षा की सच्ची कसौटी है। 'प्रसंग' शब्द ही में देशकाल के अतिरिक्त पात्र आदि बातों का भी समावेश हो जाता है।
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'''सारांश यह है कि 'महाजनो येन गतः स पन्थाः'''' यह युक्ति यद्यपि सामान्य लोगों के लिए सरल है, तो भी सब बातों में इससे निर्वाह नहीं हो सकता और अंत में महाजनों के आचरणों का सच्चा तत्व कितना भी गूढ़ हो तो भी आत्मज्ञान में घुसकर विचारवान पुरूषों को उसे ढूँढ़ निकालना ही पड़ता है। 'न देवचरितं चरेत्' – देवताओं के केवल बाहरी चरित्र के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिए। इस उपदेश का रहस्य भी यही है। इसके सिवाय कर्म–अकर्म का निर्णय करने के लिए कुछ लोगों ने एक और सरल युक्ति बतलाई है। उनका कहना है कि कोई भी सदगुण हो, उसकी अधिकता न होने देने के लिए हमें हमेशा यत्न करते ही रहना चाहिए क्योंकि इस अधिकता से ही अंत में सदगुण दुर्गुण बन बैठता है। जैसे दान देना सचमुच सदगुण है, परंतु '''अति दानाद्धलिर्बद्धः''' दान की अधिकता होने से ही राजा [[बलि]] फाँसा गया था। प्रसिद्ध यूनानी पंडित अरस्तू ने अपने नीति–शास्त्र के ग्रंथ में कर्म–अकर्म के निर्णय की यही युक्ति बतलाई है और स्पष्टतया दिखलाया है कि प्रत्येक सदगुण की अधिकता होने पर दुर्दशा कैसे हो जाती है। [[कालिदास]] ने भी [[रघुवंश]] में वर्णन किया है कि केवल शूरता व्याघ्र सरीखे श्वापद का क्रूर काम है और केवल नीति भी डरपोकापन है, इसलिए अतिथि राजा तलवार और राजनीति के योग्य मिश्रण से अपने राज्य का प्रबंध करता था।<balloon title="रघुवंश 17.47" style=color:blue>*</balloon> [[भर्तहरि]] ने भी कुछ गुण–दोषों का वर्णन कर कहा है कि ज्यादा बोलना वाचालता का लक्षण है और कम बोलना घुम्मापन है, यदि ज्यादा खर्च करे तो उड़ाऊ और कम करे तो कंजूस, आगे बढ़े तो दुःसाहसी और पीछे हटे तो ढीला, अतिशय आग्रह करे तो ज़िद्दी और न करे तो चंचल, ज्यादा खुशामद करे तो नीच और ऐंठ दिखलाए तो घमंडी है; परन्तु इस प्रकार की स्थूल कसौटी से अंत तक निर्वाह नहीं हो सकता क्योंकि 'अति' किसे कहते हैं और 'नियमित' किसे कहते हैं – इसका भी तो कुछ निर्णय होना चाहिए न; तथा यह निर्णय कौन किस प्रकार करे? किसी एक को अथवा किसी एक मौके पर जो बात ‘अति’ होगी, वही दूसरे को अथवा दूसरे मौके पर कम हो जाएगी। [[हनुमान]] जी को, पैदा होते ही [[सूर्य]] को पकड़ने के लिए उड़ान मारना कोई कठिन काम नहीं मालूम पड़ा<balloon title="वाल्मीकि रामायण. 7.35" style=color:blue>*</balloon>; परन्तु यही बात औरों के लिए कठिन क्या, असंभव ही जान पड़ती है। इसलिए जब धर्म–अधर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो तो तब प्रत्येक मनुष्य को ठीक वैसा ही निर्णय करना पड़ता है जैसा श्येन ने राजा [[शिबि]] से कहा हैः–
  
'''समता''' से बढ़कर कोई भी गुण श्रेष्ठ नहीं है। भगवद्गीता में स्पष्ट रीति से लिखा है '''समः सर्वेषु भूतेषु''' – यही सिद्ध पुरूषों का लक्षण है। परन्तु समता कहते किसे हैं? यदि कोई मनुष्य योग्यता–अयोग्यता का विचार न करके सब लोगों का समान दान करने लगे तो क्या हम उसे अच्छा कहेंगे? इस प्रश्न का निर्णय भगवद्गीता में ही इस प्रकार किया गया है– '''देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं विदुः'''– देश, काल और पात्रता का विचार कर जो दान किया जाता है, वही सात्विक कहलाता है।<balloon title="गीता. 17.20" style=color:blue>*</balloon> काल की मर्यादा सिर्फ़ वर्तमान काल के लिए ही नहीं होती। ज्यों–ज्यों समय बदलता जाता है, त्यों–त्यों व्यावहारिक धर्म में भी परिवर्तन होता जाता है। इसलिए जब प्राचीन समय की किसी बात की योग्यता या अयोग्यता का निर्णय करना हो, तब उस समय के धर्म–अधर्म संबंधी विश्वास का भी अवश्य विचार करना पड़ता है। मनु और व्यास कहते हैं–
 
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'''अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे।'''
 
'''अन्ये कलियुगे नृणां युगहासानुरूपतः।।'''
 
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<blockquote>'युगमान के अनुसार कृत, [[त्रेता युग|त्रेता]], [[द्वापर युग|द्वापर]] और [[कलि युग|कलि]] के धर्म भी भिन्न–भिन्न होते हैं।' मनुस्मृति<balloon title="मनुस्मृति, 1.85; महाभारत, शांतिपर्व. 2.59.8" style=color:blue>*</balloon> महाभारत<balloon title="महाभारत, आदिपर्व. 122; और 79" style=color:blue>*</balloon> में यह कथा है कि प्राचीन काल में स्त्रियों के लिए विवाह की मर्यादा नहीं थी, वे इस विषय में स्वतंत्र और अनावृत्त थीं। परन्तु जब इस आचरण का बुरा परिणाम देख पड़ा, तब श्वेतकेतु ने विवाह की मर्यादा स्थापित कर दी और मदिरापान का निषेध भी पहले पहल [[शुक्राचार्य]] ही ने किया। तात्पर्य यह है कि जिस समय ये नियम जारी नहीं थे, उस समय के धर्म–अधर्म का और उसके बाद के धर्म–अधर्म का निर्णय भिन्न–भिन्न रीति से किया जाना चाहिए। इसी तरह यदि वर्तमान समय का प्रचलित धर्म आगे बदल जाए तो उसके साथ भविष्य काल के धर्म–अधर्म का विवेचन भी भिन्न रीति से किया जाएगा। कालमान के अनुसार देशाचार, कुलाचार और जातिधर्म का भी विचार करना पड़ता है, क्योंकि आचार ही सब धर्मों की जड़ है। तथापि आचारों में भी बहुत भिन्नता हुआ करती है। पितामह [[भीष्म]] कहते हैं किः–</blockquote>
 
 
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'''न हि सर्वहितः कश्चिदाचारः संप्रवर्तते।'''
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'''अविरोधात्तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्तम।
'''तेनैवान्यः प्रभवति सोऽपरं बाधते पुनः।।'''
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विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरूलाघवम्।
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बाधा विद्यते यत्र तं धर्मे समुपाचरेत्।।'''
 
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<blockquote>'ऐसा आचार नहीं मिलता जो हमेशा सब लोगों को समान हितकारक हो। यदि किसी एक आचार को स्वीकार किया जाए तो दूसरा उससे बढ़कर मिलता है। यदि इस दूसरे आचार को स्वीकार किया जाए तो वह तीसरे आचार का विरोध करता हैमनुस्मृति'<balloon title="महाभारत, शांतिपर्व, 259.17, 18" style=color:blue>*</balloon> जब आचारों में ऐसी भिन्नता पाई जाए तब भीष्म पितामह के कथन के अनुसार तारतम्य अथवा सार–असार दृष्टि से विचार करना चाहिए।</blockquote>
 
  
'''कर्म'''–अकर्म या धर्म–अधर्म के विषय में सब संदेहों का यदि निर्णय करने लगें तो दूसरा महाभारत ही लिखना पड़ेगा। उक्त विवेचन से पाठकों के ध्यान में यह बात आ जाएगी कि गीता के आरंभ में क्षात्रधर्म और बंधुप्रेम के बीच झगड़ा उत्पन्न हो जाने से [[अर्जुन]] पर जो कठिनाइयाँ आईं, वे कुछ लोक विलक्षण नहीं हैं। इस संसार में ऐसी कठिनाइयाँ कार्यकर्त्ताओं और बड़े–बड़े आदमियों पर अनेकों बार आया ही करती हैं; और जब ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं तब कभी अहिंसा और आत्मरक्षा के बीच, कभी सत्य और सर्वभूतहित में, कभी शरीर रक्षा और कीर्ति में और कभी भिन्न–भिन्न नातों से उपस्थित होने वाले कर्त्तव्यों में झगड़ा होने लगता है। शास्त्रोक्त सामान्य तथा सर्वमान्य नीति–नियमों से काम नहीं चलता और उनके लिए अनेक अपवाद उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे विकट समय पर साधारण मनुष्यों से लेकर बड़े–बड़े पंडितों को भी यह जानने की स्वाभाविक इच्छा होती है कि कार्य–अकार्य की व्यवस्था; अर्थात कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य धर्म का निर्णय करने के लिए कोई चिरस्थायी नियम अथवा मुक्ति है या नहीं।  
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<blockquote>अर्थात् परस्पर विरूद्ध धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता और गुरूता देखकर ही प्रत्येक मौके पर अपनी बुद्धि के द्वारा सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिए।<balloon title="महाभारत, वन पर्व,  131.11, 12 और मनुस्मृति, 9.299" style=color:blue>*</balloon> परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इतने ही से धर्म–अधर्म के सार–असार का विचार करना ही शंका के समय धर्म निर्णय की एक सच्ची कसौटी है। क्योंकि व्यवहार में अनेक बार देखा जाता है कि अनेक पंडित लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सार–असार का विचार भी भिन्न भिन्न प्रकार से किया करते हैं। यही अर्थ उपर्युक्त 'तर्कोऽप्रतिष्ठः' वचन में कहा गया है। इसलिए अब हमें यह जानना चाहिए कि धर्मः अधर्म संशय के इन प्रश्नों का अचूक निर्णय करने के लिए अन्य कोई साधन या उपाय हैं या नहीं। यदि हैं, तो कौन से हैं, और यदि अनेक उपाय हों तो उसमें श्रेष्ठ कौन हैं। बस; इस बात का निर्णय कर देना ही शास्त्र का काम है।</blockquote>
  
'''यह''' बात सच है कि शास्त्रों में दुर्भिक्ष जैसे संकट के समय 'आपद्धर्म' कह कर कुछ सुविधाएँ दी गई हैं। उदाहरणार्थ, स्मृतिकारों ने कहा है कि यदि आपत्काल में ब्राह्मण किसी का भी अन्न ग्रहण कर ले तो वह दोषी नहीं होता, और उषस्तिचाकायण के इसी तरह बर्ताव करने की कथा भी [[छान्दोग्य उपनिषद|छांदोग्योपनिषद]]<balloon title="याज्ञवल्क्यस्मृति 3.41; छान्दोग्य उपनिषद, 1.10" style=color:blue>*</balloon> में है। परन्तु इसमें और उक्त कठिनाइयों में बहुत भेद है। दुर्भिक्ष जैसे आपत्काल में शास्त्रधर्म और भूख, प्यास आदि इन्द्रियवृत्तियों के बीच में ही झगड़ा हुआ करता है। उस समय हमको इन्द्रियाँ एक ओर खींचा करती हैं और शास्त्रधर्म दूसरी ओर खींचा करता है। परन्तु जिन कठिनाइयों का वर्णन ऊपर किया गया है, उनमें से बहुतेरी ऐसी हैं कि उस समय इन्द्रिय वृत्तियों का और शास्त्र का कुछ भी विरोध नहीं हो तो किन्तु ऐसे–ऐसे दो धर्मों में परस्पर विरोध उत्पन्न हो जाता है जिन्हें शास्त्रों ही ने विहित कहा है, और फिर उस समय सूक्ष्म विचार करना पड़ता है कि किस बात को स्वीकार किया जाए। यद्यपि कोई मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार इनमें से कुछ बातों का निर्णय प्राचीन सत्पुरूषों के ऐसे ही समय पर किए हुए बर्ताव से कर सकता है; तथापि ऐसे अनेक मौके हैं कि जब बड़े–बड़े बुद्धिमानों का भी मन चक्कर में पड़ जाता है। कारण यह है कि जितना अधिक विचार किया जाता है, उतनी ही अधिक उपपत्तियाँ और तर्क उत्पन्न होते जाते हैं और अंतिम निर्णय असंभव सा हो जाता है। जब उचित निर्णय होने नहीं पाता, तब अधर्म या अपराध हो जाने की भी संभावना होती है।
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शास्त्र का यही लक्षण भी है कि '''अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम्'''  
  
'''इस''' दृष्टि से विचार करने पर मालूम होता है कि धर्म–अधर्म या कर्म–अकर्म का विवेचन एक स्वतंत्र शास्त्र ही है जो न्याय तथा व्याकरण से भी अधिक गहन है। प्राचीन [[संस्कृत]] ग्रंथों में 'नीतिशास्त्र' शब्द का उपयोग प्रायः राजनीति–शास्त्र ही के विषय में किया गया है और कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के विवेचन को 'धर्मशास्त्र' कहते हैं। परन्तु आजकल 'नीति' शब्द ही में कर्त्तव्य अथवा सदाचरण का भी समावेश किया जाता है। इसलिए हमने वर्तमान पद्यति के अनुसार इस ग्रंथ में धर्म–अधर्म या कर्म–अकर्म के विवेचन को ही 'नीतिशास्त्र' कहा है। नीति, कर्म–अकर्म या धर्म–अधर्म के विवेचन का यह शास्त्र बड़ा गहन है। यह भाव प्रगट करने के लिए '''सूक्ष्मा गतिर्हिं धर्मस्य''' – अर्थात; धर्म या व्यावहारिक नीति–धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है, यह वचन [[महाभारत]] में कई जगह पर उपयुक्त हो चुका है। पाँच [[पांडव|पांडवों]] ने मिलकर अकेली [[द्रौपदी]] के साथ विवाह कैसे किया? द्रौपदी के वस्त्रहरण के समय भीष्म, द्रोण आदि सत्पुरूष शून्य हृदय होकर चुपचाप क्यों बैठे रहे?
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<blockquote>अर्थात् अनेक शंकाओं के उत्पन्न होने पर सबसे पहने उन विषयों के मिश्रण को अलग अलग कर दे जो समझ में नहीं आ सकते हैं, फिर उसके अर्थ को सुगम और स्पष्ट कर दे, और जो बातें आँखों से देख न पड़ती हों, उनका अथवा आगे होने वाली बातों का भी यथार्थ ज्ञान करा दे। जब हम इस बात को सोचते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के सीखने से आगे होने वाले ग्रहणों का भी सब हाल मालूम हो जाता है, जब उक्त लक्षण के 'परोक्षार्थस्य दर्शकम्' इस दूसरे भाग की सार्थकता अच्छी तरह देख पड़ती है। परन्तु अनेक संशयों का समाधान करने के लिए पहले यह जानना चाहिए कि वे कौन सी शंकाएँ हैं। इसलिए प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथकारों की यह रीति है कि किसी भी शास्त्र का सिद्धान्त पक्ष बतलाने के पहले, उस विषय में जितने पक्ष हो गए हों; उनका विचार करके उनके दोष और उनकी न्यूनताएँ दिखलाई जाती हैं। इसी रीति को स्वीकार कर [[गीता]] में कर्म–अकर्म निर्णय के लिए प्रतिपादन किया हुआ सिद्धान्त पक्षीय योग अर्थात् युक्ति बतलाने के पहले इसी काम के लिए जो अन्य युक्तियाँ पंडित लोग बतलाया करते हैं, उन पर भी विचार करें।</blockquote>
  
'''दुष्ट''' [[दुर्योधन]] की ओर से युद्ध करते समय भीष्म और द्रोणाचार्य ने अपने पक्ष का समर्थन करने के लिए जो यह सि़द्धान्त बतलाया कि '''अर्थस्य पुरूषो दासः दासस्त्वर्थो कस्यचित्''' – पुरूष अर्थ (सम्पत्ति) का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं हो सकता<balloon title="महाभारत, भीष्म पर्व, 43.35" style=color:blue>*</balloon>, यह सच है या झूठ? यदि सेवाधर्म को कुत्ते की वृत्ति के समान निन्दनीय माना है, जैसे '''सेवा श्ववृत्तिराख्याता'''<balloon title="मनुस्मृति. 409" style=color:blue>*</balloon>, तो अर्थ के दास हो जाने के बदले भीष्म आदि ने दुर्योधन की सेवा ही का त्याग क्यों नहीं कर दिया? इनके समान और भी कई प्रश्न होते हैं जिनका निर्णय करना बहुत कठिन है, क्योंकि इनके विषय में प्रसंग के अनुसार भिन्न–भिन्न मनुष्यों के भिन्न–भिन्न अनुमान या निर्णय हुआ करते हैं। यही नहीं समझना चाहिए कि धर्म के तत्व सिर्फ़ सूक्ष्म ही हैं –'''सूक्ष्मा गतिर्हिं धर्मस्य'''<balloon title="महाभारत. 10.70" style=color:blue>*</balloon>; किन्तु महाभारत<balloon title="महाभारत, वन पर्व,  208.2" style=color:blue>*</balloon> में यह भी कहा है कि '''बहुशाखा ह्यनंतिका''' – अर्थात्; उसकी शाखाएँ भी अनेक हैं और उससे निकलने वाले अनुमान भी भिन्न भिन्न हैं। तुलाधार और जाजलि के संवाद में धर्म का विवेचन करते समय तुलाधार भी यही कहता है कि '''सूक्ष्मत्वान्न स विज्ञातुं शक्यते बहुनिह्नवः''' – अर्थात; धर्म बहुत सूक्ष्म और चक्कर में डालने वाला होता है, इसलिए वह समझ में नहीं आता।<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व,  291.37" style=color:blue>*</balloon>
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यह बात सच है कि ये युक्तियाँ हमारे यहाँ पहले विशेष प्रचार में थीं; विशेष करके परिश्रमी पंडितों ने ही वर्तमान समय में उनका प्रचार किया है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चर्चा इस ग्रंथ में न की जाए। क्योंकि न केवल तुलना ही के लिए, किन्तु गीता के आध्यात्मिक कर्मयोग का महत्व ध्यान मं  आने के लिए भी इन युक्तियों को संक्षेप में भी क्यों न हो, जान लेना अत्यंत आवश्यक है।
  
'''महाभारतकार''' व्यास जी इन सूक्ष्म प्रसंगों को अच्छी तरह जानते थे। इसलिए उन्होंने यह समझा देने के उद्देश्य ही से अपने धर्म में अनेक भिन्न भिन्न कथाओं का संग्रह किया है कि प्राचीन समय के सत्पुरूषों ने ऐसे कठिन मौकों पर कैसा बर्ताव किया था। परन्तु शास्त्र–पद्यति से सब विषयों का विवेचन करके उसका सामान्य रहस्य महाभारत सरीखे धर्मग्रंथों में कहीं न कहीं बतला देना आवश्यक था। इस रहस्य या मर्म का प्रतिपादन अर्जुन की कर्त्तव्य–मूढ़ता को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने पहले जो उपदेश दिया था, उसी के आधार पर व्यास जी ने भगवद्गीता में किया है। इससे 'गीता' महाभारत का रहस्योपनिषद और शिरोभूषण हो गई है और महाभारत गीता के प्रतिपादन मूलभूत कर्मतत्वों का उदाहरण सहित विस्तृत व्याख्यान हो गया है।
 
 
'''इस''' बात की ओर उन लोगों को अवश्य ध्यान देना चाहिए, जो यह कहा करते हैं कि महाभारत ग्रंथ में 'गीता' पीछे से घुसेड़ दी गई है। हम तो यही समझते हैं कि यदि गीता की कोई अपूर्वता या विशेषता है तो वह यही है कि जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। कारण यह है कि यद्यपि केवल मोक्षशास्त्र, अर्थात वेदान्त का प्रतिपादन करने वाले [[उपनिषद]] आदि, तथा अहिंसा आदि सदाचार के सिर्फ़ नियम बतलाने वाले स्मृति आदि, अनेक ग्रंथ हैं; तथापि वेदान्त के गहन तत्वज्ञान के आधार पर 'कार्याकार्यव्यवस्थिति' करने वाला गीता के समान कोई दूसरा प्राचीन ग्रंथ संस्कृत साहित्य में देख नहीं पड़ता। गीता भक्तों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि 'कार्याकार्यव्यवस्थिति' शब्द गीता<balloon title="गीता, 19.24" style=color:blue>*</balloon> ही में प्रयुक्त हुआ है, यह शब्द हमारी मनगढ़ंत नहीं है। भगवद्गीता के ही समान योग वसिष्ठ में ही वसिष्ठ मुनि ने श्री रामचन्द्र जी को ज्ञान–मूलक प्रवृत्ति मार्ग का ही उपदेश किया है। परन्तु यह ग्रंथ गीता के बाद बना है और उसमें गीता का ही अनुकरण किया गया है। अतएव ऐसे ग्रंथों से गीता की उस अपूर्वता या विशेषता में, जो ऊपर कही गई है, कोई बाधा नहीं होती।
 
  
  
  
 
[[Category:कोश]]
 
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०७:३३, १२ मार्च २०१० का अवतरण


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कर्म योग गीता

बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।<balloon title="इसलिए तू योग का आश्रय ले। कर्म करने की जो रीति, चतुराई या कुशलता है उसे योग कहते हैं। यह 'योग' शब्द की व्याख्या अर्थात् लक्षण है। इसके संबंध में अधिक विचार इसी प्रकरण में आगे चलकर किया है।" style=color:blue>*</balloon>गीता 2.50।

यदि किसी मनुष्य को किसी शास्त्र के जानने की इच्छा पहले ही से न हो तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे अधिकार रहित मनुष्य को उस शास्त्र की शिक्षा देना मानो चलनी ही में दूध दुहना है। शिष्य को तो उस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं; परन्तु गुरू को भी निरर्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है। जैमिनि और बादरायण के आरंभ में इसी कारण से अथातो धर्मजिज्ञासा और अथातो ब्रह्माजिज्ञासा कहा हुआ है। जैसे ब्रह्मोपदेश मुमुक्षुओं को और धर्मोपदेश धर्मेच्छुओं को देना चाहिए, वैसे ही कर्म शास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिए जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिए। इसीलिए हमने पहले प्रकरण में 'अथातो' कहकर, दूसरे प्रकरण में कर्म–जिज्ञासा का स्वरूप और कर्म–योगशास्त्र का महत्व बतलाया है। जब तक पहले ही से इस बात का अनुभव न कर लिया जाए कि अमुक काम में अमुक रूकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देने वाला शास्त्र का महत्व ध्यान में नहीं आता; और महत्व को न जानने से केवल रटा हुआ शास्त्र समय पर ध्यान में रहता भी नहीं है। यही कारण है कि जो सदगुरू हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिष्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं, और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जाग्रत करने का प्रयत्न किया करते हैं।

गीता में कर्मयोग शास्त्र का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब अर्जुन के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृवध और गुरूवध होगा तथा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जाएगा, उसमें शामिल होना उचित है या अनुचित; और जब वह युद्ध से पराड़्मुख होकर सन्यास लेने को तैयार हुआ और जब भगवान के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ कि 'समय पर किए जाने वाले कर्म का त्याग करना मूर्खता और दुर्बलता का सूचक है। इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं, उलटा दुष्कीर्ति अवश्य होगी।' तब श्री भगवान ने पहले

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे

अर्थात; जिस बात का शोक नहीं करना चाहिए उसी का तो तू शोक कर रहा है और साथ–साथ ब्रह्मज्ञान की भी बड़ी बड़ी बातें छाँट रहा है, कहकर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया। अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी। गत प्रकरण में हमने यह दिखलाया है कि अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में अनेक अड़चनें आती हैं, इसलिए कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है। विचारवान पुरूषों को ऐसी युक्ति अर्थात 'योग' का स्वीकार करना चाहिए जिससे सांसारिक कर्मों का लोप तो होने न पाए और कर्माचरण करने वाला किसी पाप या बंधन में भी न फँसे– यह कहकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है-

तस्माद्योगाय युज्यस्व,

अर्थात; तू भी इसी युक्ति को स्वीकार कर। यही 'योग' कर्मयोगशास्त्र है और जबकि यह बात प्रगट है कि अर्जुन पर आया हुआ संकट कुछ लोक–विलक्षण या अनोखा नहीं था। ऐसे अनेक छोटे–बड़े संकट संसार में सभी लोगों पर आया करते हैं। तब तो यह बात आवश्यक है कि इस कर्मयोगशास्त्र का जो विवेचन भगवद्गीता में किया गया है, उसे हर एक मनुष्य सीखे। किसी शास्त्र के प्रतिपादन में कुछ मुख्य और गूढ़ अर्थ को प्रगट करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अतएव उनके सरल अर्थ को पहले जान लेना चाहिए और यह भी देख लेना चाहिए कि उस शास्त्र के प्रतिपदान की मूल शैली कैसी है, नहीं तो फिर उसके समझने में कई प्रकार की अपत्तियाँ और बाधाएँ होती हैं। इसलिए कर्मयोगशास्त्र के कुछ मुख्य शब्दों के अर्थ की परीक्षा यहाँ पर की जाती है।

सबसे पहला शब्द ‘कर्म’ है। ‘कर्म’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है, उसका अर्थ 'करना, व्यापार, हलचल' होता है और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है, अर्थात यही अर्थ गीता में विवक्षित है। ऐसा कहने का कारण यही है कि मीमांसाशास्त्र में और अन्य स्थानों पर भी इस शब्द के जो संकुचित अर्थ दिए गए हैं, उनके कारण पाठकों के मन में कुछ भ्रम उत्पन्न होने न पाएँ। किसी भी धर्म को ही ले लीजिए, उसमें ईश्वर प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है। प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार देखा जाए तो यज्ञ–याग ही वह कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रंथों में यज्ञ–याग की विधि बताई गई है; परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्पर विरोधी वचन भी पाए जाते हैं। अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के लिए ही जैमिनि के पूर्व मीमांसाशास्त्र का प्रचार होने लगा। जैमिनि के मतानुसार वैदिक और श्रौत यज्ञ–याग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है। मनुष्य जो कुछ करता है, वह सब यज्ञ के लिए ही करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिए और धान्य संग्रह करना है तो भी यज्ञ के लिए ही<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व, 26.25" style=color:blue>*</balloon>। जबकि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों ने ही दी है, तब यज्ञ के लिए मनुष्य कुछ भी कर्म करे वह उसको बंधक कभी नहीं होगा। वह कर्म यज्ञ का एक साधन है, वह स्वतंत्र रीति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिए यज्ञ से जे फल मिलने वाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है, उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता। परन्तु यज्ञ के लिए किए गए ये कर्म यद्यपि स्वतंत्र फल के देने वाले नहीं हैं, तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्गप्राप्ति (अर्थात मीमांसकों के मतानुसार एक प्रकार की सुखप्राप्ति) होती है और इस स्वर्गप्राप्ति के लिए ही यज्ञकर्त्ता मनुष्य बड़े चाव से यज्ञ करता है। इसी से स्वयं यज्ञकर्म 'पुरूषार्थ' कहलाता है; क्योंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की प्राप्ति होती है और जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे 'पुरूषार्थ' कहते हैं<balloon title="जैमिनि सूत्र 4.1.1 और 2" style=color:blue>*</balloon>।

यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा ‘ऋतु’ शब्द है, इसलिए ‘यज्ञार्थ’ के बदले ‘ऋत्वर्थ’ भी कहा करते हैं। इस प्रकार सब कर्मों के दो वर्ग हो गएः– एक 'यज्ञार्थ' (ऋत्वर्थ) कर्म, अर्थात जो स्वतंत्र रीति से फल नहीं देते, अतएव अबंधक हैं; और दूसरे 'पुरूषार्थ' कर्म, अर्थात् जो पुरूष को लाभकारी होने के कारण बंधक हैं। संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ–याग आदि का ही वर्णन है। यद्यपि ऋग्वेद संहिता में इन्द्र आदि देवताओं के स्तुति संबंधी सूक्त हैं, तथापि मीमांसक–गण कहते हैं कि सब श्रुति ग्रंथ यज्ञ आदि कर्मों के ही प्रतिपादक हैं क्योंकि उनका विनियोग यज्ञ के ही समय में किया जाता है। इन कर्मठ, याज्ञिक या केवल कर्मवादियों का कहना है कि वेदोक्त यज्ञ–याग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग प्राप्ति होती है, नहीं तो नहीं होती; चाहे ये यज्ञ अज्ञानता से किए जाएँ या ब्रह्मज्ञान से। यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राह्य माने गए हैं, तथापि उनकी योग्यता ब्रह्मज्ञान से कम ठहराई गई है। इसलिए निश्चय किया गया है कि यज्ञ–याग से स्वर्ग प्राप्ति भले ही हो जाए, परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मज्ञान की ही नितान्त आवश्यकता है।

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में जिन यज्ञ–याग आदि काम्य कर्मों का वर्णन किया गया है –

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः<balloon title="गीता 2.42" style=color:blue>*</balloon>– वे ब्रह्मज्ञान के बिना किए जाने वाले उपर्युक्त यज्ञ–याग आदि कर्म ही हैं। इसी तरह यह भी मीमांसकों ही के मत का अनुकरण है कि

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः<balloon title="गीता. 3.9" style=color:blue>*</balloon>,

अर्थात; यज्ञार्थ किए गए कर्म बंधक नहीं हैं, शेष सब कर्म बंधक हैं। इन यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों के अतिरिक्त, अर्थात् श्रौत कर्मों के अतिरिक्त और भी चातुर्वरार्य के भेदानुसार दूसरे आवश्यक कर्म मनुस्मृति आदि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं; जैसे क्षत्रिय के लिए युद्ध और वैश्य के लिए वाणिज्य। पहले पहल इन वर्णाश्रम कर्मों का प्रतिपादन स्मृति–ग्रंथों में किया गया था, इसलिए इन्हें ‘स्मार्त कर्म’ या ‘स्मार्त यज्ञ’ भी कहते हैं। इन श्रौत और स्मार्त कर्मों के सिवाय और भी धार्मिक कर्म हैं जैसे व्रत, उपवास आदि। इनका विस्तृत प्रतिपादन पहले पहल सिर्फ़ पुराणों में किया गया है, इसलिए इन्हें 'पौराणिक कर्म' कह सकेंगे। इन सब कर्मों के और भी तीन ‘नित्य, नैमित्तिक और काम्य’ भेद किए गए हैं। स्नान, संध्या आदि जो हमेशा किए जाने वाले कर्म हैं उन्हें नित्यकर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती, परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है। नैमित्तिक कर्म उन्हें कहते हैं जिन्हें पहले किसी कारण के उपस्थित हो जाने से करना पड़ता है, जैसे अनिष्ट ग्रहों की शान्ति, प्रायश्चित आदि। जिसके लिए हम शान्ति और प्रायश्चित करते हैं, वह निमित्त कारण यदि पहले न हो गया हो तो हमें नैमित्तिक कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जब हम कुछ विशेष इच्छा रखकर उसकी सफलता के लिए शास्त्रानुसार कोई कर्म करते हैं तब उसे काम्य–कर्म कहते हैं; जैसे वर्षा होने के लिए या पुत्रप्राप्ति के लिए यज्ञ करना। नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों के सिवाय और भी कर्म हैं, जैसे मदिरापान इत्यादि जिन्हें शास्त्रों ने त्याज्य कहा है; इसलिए ये कर्म निषिद्ध कहलाते हैं।

नित्य कर्म कौन–से हैं, नैमित्तिक कौन–से हैं और काम तथा निषिद्ध कर्म कौन से हैं, ये सब बातें धर्मशास्त्रों में निश्चित कर दी गईं हैं। यदि कोई किसी धर्मशास्त्री से पूछे कि अमुक कर्म पुरायप्रद है या पापकारक, तो वह सबसे पहले इस बात का विचार करेगा कि शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार वह कर्म यज्ञार्थ है या पुरूषार्थ, नित्य है या नैमित्तिक अथवा काम्य है या निषिद्ध। और इन बातों पर विचार करके फिर वह अपना निर्णय करेगा। परन्तु भगवद्गीता की दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक और विस्तीर्ण है। मान लीजिए कि अमुक एक कर्म शास्त्रों में निषिद्ध नहीं माना गया है, अथवा वह विहित्त कर्म ही कहा गया है; जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए विहित्त कर्म था, तो इतने से ही यह सिद्ध नहीं होता कि हमें वह कर्म हमेशा करते ही रहना चाहिए, अथवा उस कर्म का करना हमेशा श्रेयस्कर ही होगा। यह बात पिछले प्रकरण में कही गई है कि कहीं कहीं तो शास्त्र की आज्ञा भी परस्पर विरूद्ध होती है। ऐसे समय में मनुष्य को किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिए? इस बात का निर्णय करने के लिए कोई युक्ति है या नहीं? यदि है, तो वह कौन सी है? बस यही गीता का मुख्य विषय है। इस विषय में कर्म के उपर्युक्त अनेक भेदों पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं। यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों तथा चातुर्वण्य के कर्मों के विषय में मीमांसकों ने जो सिद्धान्त दिए हैं, वे गीता में प्रतिपादित कर्मयोग से कहाँ तक मिलते हैं, यह दिखाने के लिए प्रसंगानुसार गीता में मीमांसकों के कथन का भी कुछ विचार किया गया है और अंतिम अध्याय<balloon title="गीता' 18.9" style=color:blue>*</balloon> में इस पर भी विचार किया गया है कि ज्ञानी पुरूष को यज्ञ–याग आदि कर्म करना चाहिए या नहीं। परन्तु गीता के मुख्य प्रतिपाद्य विषय का क्षेत्र इससे भी व्यापक है, इसलिए गीता में ‘कर्म’ शब्द का केवल ‘श्रौत अथवा स्मार्त कर्म’ इतना ही संकुचित अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए, किन्तु उससे भी अधिक व्यापक रूप में लेना चाहिए।

सारांश, मनुष्य जो कुछ करता है – जैसे खाना, पीना, खेलना, रहना, उठना–बैठना, श्वासोच्छ्वास करना, हँसना, रोना, सूँघना, देखना, बोलना, सुनना, चलना, लेना–देना, सोना, जागना, मारना, लड़ना, मनन और ध्यान करना, आज्ञा और निषेध करना, दान देना, यज्ञ–याग करना, खेती और व्यापार–धंधा करना, इच्छा करना, निश्चय करना, चुप रहना इत्यादि इत्यादि – ये सब भगवद्गीता के अनुसार ‘कर्म’ ही हैं; चाहे वे कर्म कायिक हों, वाचिक हों अथवा मानसिक हों<balloon title="गीता. 5.8, 9)" style=color:blue>*</balloon> और तो क्या, जीना–मरना भी कर्म ही तो हैं, और मौका आने पर यह भी विचार करना पड़ता है कि 'जीना या मरना' इन दो कर्मों में से किसको स्वीकार किया जाए? इस विचार के उपस्थित होने पर कर्म शब्द का अर्थ 'कर्त्तव्य कर्म' अथवा 'विहित्त कर्म' हो जाता है।<balloon title="गीता, 4.19" style=color:blue>*</balloon> मनुष्य के कर्म के विषय में यहाँ तक विचार हो चुका। अब इसके आगे बढ़कर सब चर–अचर सृष्टि के भी एवं अचेतन वस्तु के भी व्यापार में ‘कर्म’ शब्द का ही उपयोग होता है। इस विषय का विचार आगे कर्म–विपाक–प्रक्रिया में किया जाएगा।

कर्म शब्द से भी अधिक भ्रमकारक शब्द 'योग' है। आजकल इस शब्द का रूढ़ार्थ 'प्राणायाम आदि साधनों से चित्त–वृत्तियों या इन्द्रियों का निरोध करना', अथवा 'पातंजल सूत्रोक्त समाधि या ध्यानयोग' है। उपनिषदों में भी इसी अर्थ से इस शब्द का प्रयोग हुआ है।<balloon title="कठोपनिषद. 9.11" style=color:blue>*</balloon> परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि यह संकुचित अर्थ भगवद्गीता में विविक्षित नहीं है। 'योग' शब्द 'युज्' धातु से बना है जिसका अर्थ 'जोड़, मेल, मिलाप, एकता, एकत्र–अवस्थिति' इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति की प्राप्ति के 'उपाय, साधन, युक्ति या कर्म' को भी योग कहते हैं। यही सब अर्थ अमरकोष में इस तरह से दिए हुए हैं-

योगः संहननोपाय ध्यानसंगति युक्तिषु।

फलित ज्योतिष में कोई ग्रह यदि इष्ट अथवा अनिष्ट हों तो उन ग्रहों का 'योग' इष्ट या अनिष्ट कहलाता है; और 'योगक्षेम' पद में 'योग' शब्द का अर्थ 'अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना' लिया गया है।<balloon title="गीता, 9.22" style=color:blue>*</balloon> भारतीय युद्ध के समय द्रोणाचार्य को अजेय देखकर श्रीकृष्ण ने कहा है कि

एको हि योगोऽस्य भवेद्वधाय<balloon title="महाभारत. द्रोण पर्व, 181.31" style=color:blue>*</balloon>

अर्थात; द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग (साधन या युक्ति) है और आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा है कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए जरासंध आदि राजाओं को योग ही से कैसे मारा था। उद्योगपर्व<balloon title="महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 172" style=color:blue>*</balloon> में कहा गया है कि जब भीष्म ने अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को हरण किया तब अन्य राजा लोग 'योग योग' कहकर उनका पीछा करने लगे थे। महाभारत में 'योग' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में अनेक स्थानों पर हुआ है। गीता में योग, योगी अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक शब्द लगभग अस्सी बार पाए गए हैं; परन्तु चार–पाँच स्थानों के सिवाय<balloon title="गीता. 9.12 और 23" style=color:blue>*</balloon> योग शब्द से 'पातंजल योग' अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है। सिर्फ़ 'युक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल' यही अर्थ कुछ हेर फेर से सारी गीता में पाए जाते हैं अतएव हम कह सकते हैं कि गीता शास्त्र के व्यापक शब्दों में 'योग' भी एक शब्द है।

परन्तु योग शब्द के उक्त सामान्य अर्थों में से ही; जैसे साधन, कुशलता, युक्ति आदि से ही काम नहीं चल सकता, क्योंकि वक्ता की इच्छा के अनुसार यह साधन सन्यास का हो सकता है, कर्म और चित्त–निरोध का हो सकता है, और मोक्ष का अथवा और भी किसी का हो सकता है। उदाहरणार्थ; कहीं कहीं गीता में अनेक प्रकार की व्यक्त सृष्टि निर्माण करने की ईश्वरी कुशलता और अद्भुत सामर्थ्य को 'योग' कहा गया है<balloon title="गीता 7.25; 9.5; 10.7; 11.8" style=color:blue>*</balloon>; और इसी अर्थ में भगवान को 'योगेश्वर' कहा गया है।<balloon title="गीता 18.75" style=color:blue>*</balloon> परन्तु यह कुछ गीता के 'योग' शब्द का मुख्य अर्थ नहीं है। इसलिए यह बात स्पष्ट रीति से प्रगट कर देने के लिए कि योग शब्द से किस विशेष प्रकार की कुशलता, साधन, युक्ति अथवा उपाय को गीता में विवक्षित समझना चाहिए, उस ग्रंथ में ही योग शब्द की यह निश्चित व्याख्या की गई है –

योगः कर्मसु कौशलम्<balloon title="गीता 2.50" style=color:blue>*</balloon>

अर्थात; कर्म करने की किसी विशेष प्रकार की कुशलता, युक्ति, चतुराई अथवा शैली को योग कहते हैं। शांकर भाष्य में भी 'कर्मसु कौशलम्' का यही अर्थ लिया गया है – 'कर्म में स्वभाव सिद्ध रहने वाले बंधन को तोड़ने की युक्ति।' यदि सामान्यतः देखा जाए तो एक ही कर्म को करने के लिए अनेक योग और उपाय होते हैं। परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो, उसी को योग कहते हैं। जैसे द्रव्य उपार्जन करना एक कर्म है; इसके अनेक उपाय या साधक हैं जैसे कि – चोरी करना, जालसाजी करना, भीख माँगना, सेवा करना, ऋण लेना, मेहनत करना आदि, यद्यपि धातु के अर्थानुसार इनमें से हर एक को योग कह सकते हैं तथापि यथार्थ में 'द्रव्य–प्राप्ति योग' उसी उपाय को कहते हैं जिससे हम अपनी स्वतंत्रता रखकर मेहनत करते हुए धर्म प्राप्त कर सकें। जब स्वयं भगवान ने योग शब्द की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या गीता में कर दी है-

'योगः कर्मसु कौशलम्'– 'अर्थात' कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति को योग कहते हैं; तब सच पूछो तो इस शब्द के मुख्य अर्थ के विषय में कुछ भी शंका नहीं रहनी चाहिए। परन्तु स्वयं भगवान की बतलाई हुई इस व्याख्या पर ध्यान न देकर गीता के अनेक टीकाकारों ने योग शब्द के अर्थ की खूब खींचातानी की है और गीता का मथितार्थ भी मनमाना निकाला है। अतएव इस भ्रम को दूर करने के लिए योग शब्द का कुछ और भी स्पष्टीकरण होना चाहिए। यह शब्द पहले पहल गीता के दूसरे अध्याय में आया है और वहीं इसका स्पष्ट अर्थ भी बतला दिया गया है। पहले सांख्यशास्त्र के अनुसार भगवान ने अर्जुन को यह समझा दिया कि युद्ध क्यों करना चाहिए; इसके बाद उन्होंने कहा कि 'अब हम तुम्हें योग के अनुसार उपपत्ति बतलाते हैं<balloon title="गीता 2.39" style=color:blue>*</balloon>, और फिर इसका वर्णन किया है जो कि लोग हमेशा यज्ञ–यागादि काम्य कर्मों में ही निमग्न रहते हैं, उनकी बुद्धि फलाशा से कैसी व्यग्र हो जाती है।<balloon title="गीता 2.41–49" style=color:blue>*</balloon> इसके पश्चात उन्होंने यह उपदेश दिया है कि 'बुद्धि को अव्यग्र स्थिर या शान्त रखकर आसक्ति को छोड़ दे, परन्तु कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़' और योगस्थ होकर कर्मों का आचरण कर'।<balloon title="गीता. 2.48" style=color:blue>*</balloon> यहीं पर योग शब्द का यह स्पष्ट अर्थ भी कह दिया है कि 'सिद्धि और असिद्धि दोनों में समबुद्धि रखने को योग कहते हैं।' इसके बाद यह कहकर कि 'फल की आशा से कर्म करने की अपेक्षा समबुद्धि का यह योग ही श्रेष्ठ है'<balloon title="गीता. 2.49" style=color:blue>*</balloon>, और 'बुद्धि की समता हो जाने पर कर्म करने वाले को कर्मसंबंधी पाप–पुण्य की बाधा नहीं होती; इसलिए तू इस 'योग' को प्राप्त कर।'

तुरंत ही योग का यह लक्षण फिर भी बतलाया है कि 'योगः कर्मसु कौशलम्'<balloon title="गीता. 2.50" style=color:blue>*</balloon>। इससे सिद्ध होता है कि पाप–पुण्य से अलिप्त रहकर कर्म करने की जो समत्व बुद्धिरूप की विशेष युक्ति पहले बतलाई गई है, वही 'कौशल' है और इसी कुशलता अर्थात युक्ति से कर्म करने को गीता में 'योग' कहा गया है। इसी अर्थ को अर्जुन ने आगे चलकर 'योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन'<balloon title="गीता. 9.33" style=color:blue>*</balloon> इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है। इसके संबंध में कि ज्ञानी मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिए, श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का सन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। इन्हीं दो मार्गों को गीता में सन्यास और कर्मयोग कहा है।<balloon title="गीता 5.2" style=color:blue>*</balloon>

सन्यास कहते हैं त्याग को, और गीता कहते हैं मेल को; अर्थात कर्म के त्याग और कर्म के मेल ही के उक्त दो भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इन्हीं दो भिन्न भिन्न मार्गों को लक्ष्य करके आगे 'सांख्ययोगौ' (सांख्य और योग) ये संक्षिप्त नाम भी दिए गए हैं।<balloon title="गीता. 5.4" style=color:blue>*</balloon> बुद्धि को स्थिर करने के लिए पातंजलयोग शास्त्रों के आसनों का वर्णन छठवें अध्याय में है सही; परन्तु वह किसके लिए है? तपस्वी के लिए नहीं, किन्तु वह कर्मयोगी अर्थात युक्ति पूर्वक कर्म करने वाले मनुष्य को 'समता' की युक्ति सिद्ध कर लेने के लिए बतलाया गया है। नहीं तो फिर 'तपस्विभ्योऽधिको योगी' इस वाक्य का कुछ अर्थ ही नहीं हो सकता। इसी तरह इस अध्याय<balloon title="गीता 9.49" style=color:blue>*</balloon> के अंत में अर्जुन को जो उपदेश दिया गया है कि तस्माद्योगी भवार्जुन, उसका अर्थ ऐसा नहीं हो सकता कि 'हे अर्जुन! तू पातंजल योग का अभ्यास करने वाला बन जा।' इसलिए उक्त उपदेश का अर्थ

योगस्थः कुरू कर्माणि<balloon title="गीता 2.48" style=color:blue>*</balloon>,
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्<balloon title="गीता 2.50" style=color:blue>*</balloon>,
योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत<balloon title="गीता 4.42" style=color:blue>*</balloon> इत्यादि वचनों के अर्थ के समान ही होना चाहिए।

अर्थात उसका यही अर्थ लेना उचित है कि 'हे अर्जुन! तू युक्ति से कर्म करने वाला योगी अर्थात् कर्मयोगी हो।' क्योंकि यह कहना ही संभव नहीं है कि 'तू पातंजल योग का आश्रय लेकर युद्ध के लिए तैयार रह।' इसके पहले ही साफ़ साफ़ कहा गया है कि 'कर्मयोगेण योगिनाम्'<balloon title="गीता 3.3" style=color:blue>*</balloon> अर्थात योगी पुरूष कर्म करने वाले होते हैं। महाभारत<balloon title="महाभारत शान्ति पर्व, 348.56" style=color:blue>*</balloon> के नारायणीय अथवा भागवत धर्म के विवेचन में भी कहा गया है कि इस धर्म के लोग अपने कर्मों का त्याग किए बिना ही युक्तिपूर्वक कर्म करके ही (सप्रयुक्तेन कर्मणा) परमेश्वर की प्राप्ति कर लेते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योगी' और 'कर्मयोगी' दोनों ही शब्द गीता में समानार्थक हैं और इनका अर्थ 'युक्ति से कर्म करने वाला' होता है तथापि बड़े भारी 'कर्मयोग' शब्द का प्रयोग करने के बदले गीता और महाभारत में छोटे से 'योग' शब्द का ही अधिक उपयोग किया गया है। 'मैंने तुम्हें जो यह योग बतलाया है इसी को पूर्वकाल में विवस्वान से कहा था<balloon title="गीता. 4.1" style=color:blue>*</balloon>; और विवस्वान ने मनु को बतलाया था। परंतु उस योग के नष्ट हो जाने पर फिर वही योग आज तुझसे कहना पड़ा।' इस अवतरण में भगवान ने जो योग शब्द का तीन बार उच्चारण किया है उसमें पातंजल योग का विवक्षित होना नहीं पाया जाता है, किन्तु 'कर्म करने की किसी प्रकार की विशेष युक्ति, साधन या मार्ग' अर्थ ही लिया जा सकता है। इसी तरह जब संजय कृष्ण–अर्जुन संवाद को गीता में योग कहता है<balloon title="गीता. 18.75" style=color:blue>*</balloon> तब भी यही अर्थ पाया जाता है। श्री शंकराचार्य स्वयं सन्यास मार्ग वाले थे; तो भी उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं और योग शब्द का अर्थ श्री भगवान द्वारा की हुई व्याख्या के अनुसार कभी सम्यग्दर्शनोपाय कर्मानुष्ठानम्<balloon title="गीता 4.42" style=color:blue>*</balloon> और कभी 'योगः युक्तिः'<balloon title="गीता 10.7" style=color:blue>*</balloon> किया है। इसी तरह महाभारत में भी योग और ज्ञान दोनों शब्दों के अर्थ के विषय में स्पष्ट लिखा है कि

प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्<balloon title="महाभारत आश्वमेधिक पर्व, " style=color:blue>*</balloon>

अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। शांतिपर्व के अंत में नारायणीयोपाख्यान में 'सांख्य' और 'योग' शब्द तो इसी अर्थ में अनेक बार आए हैं और इसका भी वर्णन किया गया है कि ये दोनों मार्ग सृष्टि के आरंभ में क्यों और कैसे निर्माण किए गए।<balloon title="महाभारत शान्ति पर्व, 240 और 348" style=color:blue>*</balloon> पहले प्रकरण में महाभारत से जो वचन उद्घृत किए गए हैं उनसे यह स्पष्टतया मालूम हो गया है कि यही नारायणीय अथवा भागवत धर्म भगवद्गीता का प्रतिपाद्य तथा प्रधान विषय है। इसलिए कहना पड़ता है कि सांख्य और योग शब्दों का जो प्राचीन और पारिभाषिक अर्थ सांख्य=निवृत्ति; योग=प्रवृत्ति नारायणीय धर्म में दिया गया है, वही अर्थ गीता में भी विवक्षित है। यदि इसमें किसी को कोई शंका हो तो गीता में दी हुई इस व्याख्या से 'समत्वं योग उच्यते' या 'योगः कर्मसु कौशलम्' तथा उपर्युक्त 'कर्मयोगेण योगिनाम्' इत्यादि गीता के वचनों से उस शंका का समाधान हो सकता है। इसलिए अब यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक धर्म ग्रंथों की कौन कहे; यह 'योग' शब्द संस्कृत और पाली भाषाओं के बौद्ध धर्म ग्रंथों में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उदाहरणार्थ, संवत 335 के लगभग लिखे गए मिलिंदप्रश्न नामक पाली–ग्रंथ में 'पुब्बयोगो' (पूर्वयोग) शब्द आया है और वहीं उसका अर्थ 'पुब्बकम्म' (पूर्वकर्म) किया गया है।<balloon title="मिलिन्द प्रश्न. 1.4" style=color:blue>*</balloon> इसी तरह अश्वघोष कविकृत, जो शालिवाहन शक के आरंभ में हो गया है– बुद्धचरित नामक संस्कृत काव्य के पहले सर्ग के पचासवें श्लोक में यह वर्णन हैः–

आचार्यकं योगविधौ द्विजानामप्राप्तमन्यैर्जनको जगाम।

अर्थात 'ब्राह्मणों को योग–विधि की शिक्षा देने में राजा जनक आचार्य (उपदेष्टा) हो गए, इनके पहले यह आचार्यत्व किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ था।' यहाँ पर योगविधि का अर्थ निष्काम कर्मयोग की विधि ही समझना चाहिए; क्योंकि गीता आदि अनेक ग्रंथ मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि जनक जी के बर्ताव का यही रहस्य है और अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित<balloon title="बुद्धचरित 9.19 और 20" style=color:blue>*</balloon> में यह दिखलाने के लिए कि 'गृहस्थाश्रम में रहकर भी मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जा सकती है' जनक का उदाहरण दिया है। जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है और यह बात बौद्धधर्म ग्रंथों से भी सिद्ध होती है, इसलिए गीता के 'योग' शब्द का भी यही अर्थ लगाना चाहिए; क्योंकि गीता के कथनानुसार<balloon title="गीता 3.20" style=color:blue>*</balloon> जनक का ही मार्ग उसमें प्रतिपादित किया गया है। सांख्य और योगमार्ग के विषय में अधिक विचार आगे किया जाएगा। प्रस्तुत प्रश्न यही है कि गीता में 'योग' शब्द का उपयोग किस अर्थ में किया गया है।

जब एक बार यह सिद्ध हो गया कि गीता में 'योग' का प्रधान अर्थ कर्मयोग और 'योगी' का प्रधान अर्थ कर्मयोगी है, तो फिर यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय क्या है। स्वयं भगवान अपने उपदेश को 'योग' कहते हैं<balloon title="गीता 4.1–3" style=color:blue>*</balloon>; बल्कि छठवें (6.33) अध्याय में अर्जुन ने और गीता के अंतिम उपसंहार (18.75) में संजय ने भी गीता के उपदेश को योग ही कहा है। इसी तरह गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प हैं, उनमें भी साफ़ साफ़ कह दिया है कि गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय 'योगशास्त्र' है। परन्तु जान पड़ता है कि उक्त संकल्प के शब्दों के अर्थ पर किसी भी टीकाकार ने ध्यान नहीं दिया। आरंभ के दो पदों श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु के बाद इस संकल्प में दो शब्द 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' और भी जोड़े गए हैं।

  1. पहले दो शब्दों का अर्थ है – भगवान से गाए गए उपनिषद में; और
  2. पिछले दो शब्दों का अर्थ ब्रह्मविद्या का योगशास्त्र अर्थात कर्मयोग शास्त्र है, जो कि इस गीता का विषय है।

ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान एक ही बात है और इसके प्राप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरूष के लिए दो निष्ठाएँ या मार्ग खुले हुए हैं।<balloon title="गीता 3.3" style=color:blue>*</balloon> एक सांख्य अथवा सन्यास मार्ग– अर्थात वह मार्ग जिसमें कर्मों का त्याग न करके ऐसी युक्ति से कर्मयोग करते रहना चाहिए कि जिससे मोक्ष–प्राप्ति में कुछ भी बाधा न हो। पहले मार्ग का दूसरा नाम 'ज्ञान–निष्ठा' भी है जिसका विवेचन उपनिषदों में अनेक ऋषियों ने और अन्य ग्रंथकारों ने भी किया है। परंतु ब्रह्मविद्या के अंतर्गत कर्मयोग का या योगशास्त्र का तात्विक विवेचन भागवद्गीता के सिवाय अन्य ग्रंथों में नहीं है। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है कि अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प गीता की सब प्रतियों में पाया जाता है और इससे प्रगट होता है कि गीता की सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी। इस संकल्प के रचियता ने इस संकल्प में 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' इन दो पदों को व्यर्थ ही नहीं जोड़ दिया है; किन्तु उसने गीताशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय की अपूर्वता दिखाने ही के लिए उक्त पदों को उस संकल्प में आधार और हेतु सहित स्थान दिया है। अतः इस बात का भी सहज निर्णय हो सकता है कि गीता पर अनेक सांप्रदायिक टीकाओं के होने के पहले, गीता का तात्पर्य कैसे और क्या समझा जाता था। यह हमारे सौभाग्य की बात है कि इस कर्मयोग का प्रतिपादन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया है, जो इस योगमार्ग के प्रवर्तक और इन सब योगों के साक्षात ईश्वर योगेश्वर=योग+ईश्वर है; और लोकहित के लिए उन्होंने अर्जुन को उसका रहस्य बतलाया है। गीता के 'योग' और 'योगशास्त्र' शब्दों से हमारे 'कर्मयोग' और 'कर्मयोग शास्त्र' शब्द कुछ बड़े हैं सही; परन्तु अब हमने कर्मयोग शास्त्र सरीखा बड़ा नाम ही इस ग्रंथ और प्रकरण को देना इसलिए पसंद किया है कि जिसमें गीता के प्रतिपाद्य विषय के संबंध में कुछ भी संदेह न रह जाए।

एक ही कर्म को करने के जो अनेक योग, साधन या मार्ग हैं उनमें से सर्वोत्तम और शुद्ध मार्ग कौन हैं? उसके अनुसार नित्य आचरण किया जा सकता है या नहीं? नहीं किया जा सकता तो कौन कौन से अपवाद उत्पन्न होते हैं? जिस मार्ग को हमने उत्तम मान लिया है, वह उत्तम क्यों है? जिस मार्ग को हम बुरा समझते हैं, वह बुरा क्यों है? यह अच्छापन या बुरापन किसके द्वारा या किस आधार पर ठहराया जा सकता है अथवा इस अच्छेपन या बुरेपन का रहस्य क्या है?– इत्यादि बातें जिस शास्त्र के आधार से निश्चित की जाती हैं, उसको 'कर्मयोग–शास्त्र' या गीता के संक्षिप्त रूपानुसार 'योगशास्त्र' कहते हैं। अच्छा या बुरा दोनों ही साधारण शब्द हैं; इन्हीं के समान अर्थ में कभी कभी शुभ–अशुभ, हितकर–अहितकर, श्रेयस्कर–अश्रेयस्कर, पाप–पुण्य, धर्म–अधर्म इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ करता है। कार्य–अकार्य, कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य, न्याय–अन्याय इत्यादि शब्दों का भी अर्थ वैसा ही होता है। तथापि इन शब्दों का उपयोग करने वालों का सृष्टि–रचना–विषयक मत भिन्न भिन्न होने के कारण कर्मयोग–शास्त्र के निरूपण के पंथ भी भिन्न भिन्न हो गए हैं। किसी भी शास्त्र को ले लीजिए, उसके विषयों की चर्चा साधारणतः तीन प्रकार से की जाती है।

  1. इस जड़ सृष्टि के पदार्थ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि वे हमारी इन्द्रियों को गोचर होते हैं; इसके परे उनमें और कुछ नहीं है; इस दृष्टि से उनके विषय में विचार करने की एक पद्धति है जिसे आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; सूर्य को देवता न मानकर केवल पाञ्चभौतिक जड़ पदार्थों का एक गोला मानें; और उष्णता, प्रकाश, वज़न, दूरी और आकर्षण इत्यादि उसके केवल गुणाधर्मों की ही परीक्षा करें तो उसे सूर्य का आधिभौतिक विवेचन कहेंगे। दूसरा उदाहरण पेड़ का ही ले लीजिए। इसका विचार न करके कि पेड़ के पत्ते निकलना, फूलना, फलना आदि क्रियाएँ किस के अंतर्गत व किस शक्ति के द्वारा होती हैं, जब केवल बाहरी दृष्टि से विचार किया जाता है कि ज़मीन में बीज बोने से अंकुर फूटते हैं, फिर वे बढ़ते हैं और उसी के पत्ते, शाखा, फूल इत्यादि दृश्य विकार प्रगट होते हैं, तब उसे पेड़ का आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। रसायन शास्त्र, पदार्थ–विज्ञान शास्त्र, विद्युत शास्त्र आदि आधुनिक शास्त्रों का विवेचन इसी ढंग का होता है। आधिभौतिक पंडित यह भी माना करते हैं कि उक्त रीति से किसी वस्तु के दृश्य गुणों का विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता है – सृष्टि के पदार्थों का इससे अधिक विचार करना निष्फल है।
  2. जब उक्त दृष्टि को छोड़कर इस बात का विचार किया जाता है कि जड़ सृष्टि के पदार्थों के मूल में क्या है, क्या इन पदार्थों का व्यवहार केवल उनके गुण–धर्मों से ही होता है या उनके लिए किसी तत्व का आधार भी है; तब केवल आधिभौतिक विवेचन से ही अपना काम नहीं चलता, हमको कुछ आगे पैर बढ़ाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब हम यह मानते हैं कि यह पञ्चभौतिक सूर्य नामक एक देव का अधिष्ठान है और इसी के द्वारा इस अचेतन गोले (सूर्य) के सब व्यापार या व्यवहार होते रहते हैं; तब उसको उस विषय का आधिदैविक विवेचन कहते हैं। इस मत के अनुसार यह माना जाता है कि पेड़ में, पानी में, हवा में, अर्थात सब पदार्थों में अनेक देव हैं जो उन जड़ तथा अचेतन पदार्थों से भिन्न तो हैं; किन्तु उनके व्यवहारों को वही चलाते हैं।
  3. परन्तु जब यह माना जाता है कि जड़ सृष्टि के हज़ारों जड़ पदार्थों में हज़ारों स्वतंत्र देवता नहीं हैं; किन्तु बाहरी सृष्टि के सब व्यवहारों को चलाने वाली मनुष्य के शरीर में आत्म–स्वरूप से रहने वाली और मनुष्य को सारी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करा देने वाली एक ही चित शक्ति है जो कि इंद्रियातीत है और जिसके द्वारा ही इस जगत का सारा व्यवहार चल रहा है; तब उस विचार पद्धति को आध्यात्मिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; अध्यात्मवादियों का मत है कि सूर्य, चन्द्र आदि का व्यवहार यहाँ तक कि वृक्षों के पत्तों का हिलना भी, इसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से हुआ करता है; सूर्य, चन्द्र आदि में या अन्य स्थानों में भिन्न भिन्न तथा स्वतंत्र देवता नहीं हैं। प्राचीन काल से किसी भी विषय का विवेचन करने के लिए ये तीन मार्ग प्रचलित हैं और इनका उपयोग उपनिषद ग्रंथों में भी किया गया है। उदाहरणार्थ; ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं या प्राण श्रेष्ठ हैं, इस बात का विचार करते समय बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में एक बार उक्त इन्द्रियों के अग्नि आदि देवताओं को और दूसरा बार उनके सूक्ष्म रूपों (अध्यात्म) को लेकर उनके बलाबल का विचार किया गया है<balloon title="बृहदारण्यकोपनिषद 1.5.21 और 22; छान्दोग्य उपनिषद 1.2 और 3; कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद 2.8" style=color:blue>*</balloon> और गीता के सातवें अध्याय के अन्त में तथा आठवें के आरम्भ में ईश्वर के स्वरूप का जो विचार बतलाया गया है, वह भी इसी दृष्टि से किया गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्<balloon title="गीता. 10.32" style=color:blue>*</balloon> इस वाक्य के अनुसार हमारे शास्त्रकारों ने उक्त तीन मार्गों में से आध्यात्मिक विवरण को ही अधिक महत्व दिया है।

आजकल उपर्युक्त तीन शब्दों (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) के अर्थ को थोड़ा सा बदलकर प्रसिद्ध आधिभौतिक फ्रेञ्च पंडित कोंट[१] ने आधिभौतिक विवेचन को ही अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है कि सृष्टि के मूल तत्व को खोजते रहने से कुछ लाभ नहीं है; यह तत्व अगम्य है अर्थात इसको समझ लेना कभी भी संभव नहीं। इसलिए इसकी कल्पित नींव पर किसी शास्त्र की इमारत को खड़ा कर देना न तो संभव है और न ही उचित। असभ्य और जंगली मनुष्यों ने पहले पहल जब पेड़, बादल और ज्वालामुखी पर्वत आदि को देखा, तब उन लोगों ने अपने भोलेपन से इन सब पदार्थों को देवता ही मान लिया। यह कोंट के मतानुसार ‘आधिदैविक’ विचार हो चुका। परन्तु मनुष्यों ने उक्त कल्पनाओं को शीघ्र ही त्याग दिया; वे समझने लगे कि इन सब पदार्थों में कुछ न कुछ आत्मतत्व अवश्य भरा हुआ है। कोंट के मतानुसार मानवी ज्ञान की उन्नति की यह दूसरी सीढ़ी है। इसे वह ‘आध्यात्मिक’ कहता है। परन्तु जब इस रीति से सृष्टि का विचार करने पर भी प्रत्यक्ष उपयोगी शास्त्रीय ज्ञान की कुछ वृद्धि नहीं हो सकी, तब अंत में मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के दृश्य गुण–धर्मों का ही और भी अधिक विचार करने लगा, जिससे वह रेल और तार सरीखे उपयोगी आविष्कारों को ढूँढ़ कर बाह्य सृष्टि पर अपना अधिक प्रभाव जमाने लग गया है। इस मार्ग को कोंट ने ‘आधिभौतिक’ नाम दिया है। उसने निश्चित किया है कि किसी भी शास्त्र या विषय का विवेचन करने के लिए अन्य मार्गों की अपेक्षा यही आधिभौतिक मार्ग का अवलम्ब करना चाहिए। इस मार्ग का अवलम्ब करके इस पंडित ने इतिहास की आलोचना की और सब व्यवहार–शास्त्रों का यही मथितार्थ निकाला है कि इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का परम धर्म यही है कि वह समस्त मानव जाति पर प्रेम रख कर सब लोगों के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्न करता रहे। मिल और स्पेन्सर आदि अंग्रेज़ पंडित इसी मत के पुरस्कर्ता कहे जा सकते हैं। इसके उलटा कान्ट, हेगेल, शोपेनहर आदि जर्मन तत्वज्ञानी पुरूषों ने नीतिशास्त्र के विवेचन के लिए इस आधिभौतिक पद्धति को अपूर्ण माना है। हमारे वेदान्तियों की नई आध्यात्मिक दृष्टि से ही नीति के समर्थन करने के मार्ग को आज–कल उन्होंने यूरोप में फिर भी स्थापित किया है।

एक ही अर्थ विवक्षित होने पर भी 'अच्छा और बुरा' के पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का, जैसे 'कार्य–अकार्य' और 'धर्म्य–अधर्म्य' का उपयोग क्यों होने लगा? इसका कारण यही है कि विषय प्रतिपादन का मार्ग या दृष्टि प्रत्येक की भिन्न भिन्न होती है। अर्जुन के सामने यह प्रश्न था कि जिस युद्ध में भीष्म–द्रोण आदि का वध करना पड़ेगा, उसमें शामिल होना उचित है या नहीं।<balloon title="गीता 2.7" style=color:blue>*</balloon> यदि इसी प्रश्न का उत्तर देने का मौका किसी आधिभौतिक पंडित पर आता, तो वह पहले इस बात का विचार करता कि भारतीय युद्ध से स्वयं अर्जुन को दृश्य हानि–लाभ कितना होगा और कुल समाज पर उसका क्या परिणाम होगा? यह विचार करके तब उसने निश्चय किया होता कि युद्ध करना न्याय है या अन्याय। इसका कारण यह है कि किसी कर्म के अच्छेपन या बुरेपन का निर्णय करते समय ये आधिभौतिक पंडित यही सोचा करते हैं कि इस संसार में उस कर्म का आधिभौतिक परिणाम अर्थात प्रत्यक्ष बाह्य परिणाम क्या हुआ या होगा – ये लोग इस आधिभौतिक कसौटी के सिवाय और किसी साधन या कसौटी को नहीं मानते। परन्तु ऐसे उत्तर से अर्जुन का समाधान होना संभव नहीं था। उसकी दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक थी। उसे केवल अपने सांसारिक हित का विचार नहीं करना था; किन्तु उसे पारलौकिक दृष्टि से यह भी विचार कर लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं। उसे ऐसी बातों पर कुछ भी शंका नहीं थी कि युद्ध में भीष्म, द्रोण आदि का वध होने पर तथा राज्य मिलने पर मुझे ऐच्छिक सुख मिलेगा या नहीं; और मेरा अधिकार लोगों को दुर्योधन से अधिक सुखदायक होगा या नहीं। उसे यही देखना था कि मैं जो कर रहा हूँ वह 'धर्म्य' है या 'अधर्म्य', अथवा 'पुण्य' है या 'पाप'; और गीता का विवेचन भी इसी दृष्टि से किया गया है। केवल गीता में ही नहीं; किन्तु कई स्थानों पर महाभारत में भी कर्म–अकर्म का जो विवेचन है वह पारलौकिक अर्थात अध्यात्म–दृष्टि से ही किया गया है; और वहाँ किसी भी कर्म का अच्छापन या बुरापन दिखलाने के लिए प्रायः सर्वत्र 'धर्म' और 'अधर्म' दो ही शब्दों का उपयोग किया गया है। परन्तु 'धर्म' और उसका प्रतियोगी 'अधर्म'; ये दोनों शब्द अपने व्यापक अर्थ के कारण कभी कभी भ्रम उत्पन्न कर दिया करते हैं; इसलिए यहाँ पर इस बात की कुछ अधिक मीमांसा करना आवश्यक है कि कर्मयोग–शास्त्र में इन शब्दों का उपयोग मुख्यतः किस अर्थ में किया जाता है।

नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक सुख का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?' तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। इसी तरह स्वर्ग–प्राप्ति के लिए साधनभूत यज्ञ–याग आदि वैदिक विषयों की मीमांसा करते समय 'अथातो धर्मजिज्ञासा' आदि धर्मसूत्रों में भी धर्म शब्द का यही अर्थ लिया गया है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। इसके सिवाय राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यवहारिक धर्म अथवा केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरूषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले धर्म शब्द में ही यदि मोक्ष का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरूषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती। अर्थात्; यह कहना पड़ता है कि 'धर्म' पद से इस स्थान पर संसार के सैकड़ों नीतिधर्म ही शास्त्रकारों को अभिप्रेत हैं। इन्हीं को हम लोग आजकल कर्त्तव्य, कर्म, नीति, नीतिधर्म अथवा सदाचरण कहते हैं। परन्तु प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'नीति' अथवा 'नीतिशास्त्र' शब्दों का उपयोग विशेष करके राजनीति के लिए ही किया जाता है, इसलिए पुराने जमाने में कर्त्तव्य–कर्म अथवा सदाचार के सामान्य विवेचन को ‘नीति–प्रवचन’ न कहकर 'धर्म–प्रवचन' कहा करते थे। परन्तु 'नीति' और 'धर्म' दो शब्दों का यह पारिभाषिक भेद सभी संस्कृत ग्रंथों में नहीं माना गया है। इसलिए हमने भी इस ग्रंथ में 'नीति', 'कर्त्तव्य' और 'धर्म' शब्दों का उपयोग एक ही अर्थ में किया गया है; और मोक्ष का विचार जिस स्थान पर करना है, उस प्रकरण के 'अध्यात्म' और 'भक्तिमार्ग' ये स्वतंत्र नाम रखे हैं। महाभारत में 'धर्म' शब्द अनेक स्थानों पर आया है, और जिस स्थान पर कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म–संगत है' उस स्थान पर धर्म शब्द से कर्त्तव्य–शास्त्र अथवा तत्कालीन समाज–व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है; तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण में मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शांतिपर्व के उत्तरार्ध में 'मोक्ष–धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है। इसी तरह मन्वादि स्मृति–ग्रंथों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विशिष्ट कर्मों, अर्थात् चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन करते समय केवल धर्म शब्द का ही अनेक स्थानों पर कई बार उपयोग किया गया है। और, भगवद्गीता में भी जब भगवान अर्जुन से यह कह कर लड़ने के लिए कहते हैं कि स्वधर्ममपि चाऽवेक्ष्य<balloon title="गीता 2.31" style=color:blue>*</balloon> तब, और इसके बाद

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः<balloon title="गीता. 3.35" style=color:blue>*</balloon>

इस स्थान पर भी 'धर्म' शब्द 'इस लोक के चातुर्वर्ण्यं के धर्म' के अर्थ के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है। पुराने जमाने के ऋषियों ने श्रम–विभाग रूप चातुर्वर्ण्य संस्था इसलिए चलाई गई थी कि समाज के सब व्यवहार सरलता से होते जाएं, किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या वर्ग पर ही सारा बोझ न पड़ने पाए और समाज का सभी दिशाओं से संरक्षण और पोषण भली भाँति होता रहे। यह बात भिन्न है कि कुछ समय के बाद चारों वर्णों के लोग केवल जाति–मात्रोपजीवी हो गए; अर्थात् सच्चे स्वकर्म को भूलकर वे केवल नामधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र हो गए। इसमें संदेह नहीं है कि आरंभ में यह व्यवस्था समाज धारणार्थ ही की गई थी; और यदि चारों वर्णों में से कोई भी एक वर्ण अपना धर्म अर्थात् कर्त्तव्य छोड़ दे, अर्थात् यदि कोई वर्ण समूल नष्ट हो जाए और उसकी स्थानपूर्ति दूसरे लोगों से न की जाए तो कुल समाज उतना ही पंगु होकर धीरे–धीरे नष्ट भी होने लग जाता है अथवा वह निष्कृट अवस्था में तो अवश्य ही पहुँच जाता है। यद्यपि यह बात सच है कि यूरोप में ऐसे अनेक समाज हैं जिनका अभ्युदय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था चाहे न हो, परन्तु चारों वर्णों के सब धर्म, ज्ञाति–रूप से नहीं तो गुण–विभाग रूप ही से जागृत अवश्य रहते हैं।

सारांश, जब हम धर्म शब्द का प्रयोग व्यवहारिक दृष्टि से करते हैं तब हम यही देखा करते हैं कि सब समाज का धारण और पोषण कैसे होता है। मनु ने कहा है कि – असुखोदर्क अर्थात् जिसका कारण दुःख कारक होता है उस धर्म को छोड़ देना चाहिए<balloon title="मनुस्मृति, 4.176" style=color:blue>*</balloon> और शांतिपर्व के सत्यानृताध्याय<balloon title="शान्ति पर्व, 109.12" style=color:blue>*</balloon> में धर्म धर्म–अधर्म का विवेचन करते हुए भीष्म और उसके पूर्व कर्ण पर्व में श्री कृष्ण कहते हैं किः–

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।।

'धर्म' शब्द 'धृ' अर्थात् 'धारण करना' धातु से बना है। धर्म से ही सब प्रजा बँधी हुई है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे (सब प्रजा का) धारण होता है वही धर्म है।'<balloon title="महाभारत कर्ण. 69.59" style=color:blue>*</balloon> यदि यह धर्म छूट जाए तो समझ लेना चाहिए कि समाज के सारे बंधन भी टूट गए, और यदि समाज के बंधन टूटे तो आकर्षण–शक्ति के बिना आकाश में सूर्यादि ग्रहमालाओं की जो दशा हो जाती है अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिए उक्त शोचनीय अवस्था में पड़कर समाज को नाश से बचाने के लिए व्यास जी ने कई स्थानों पर कहा है कि, 'यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो।' महाभारत के अन्त में यही कहा है किः–

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येषः न च कश्चिच्छृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते।।

'अरे! भुजा उठा कर मैं चिल्ला रहा हूँ, परन्तु कोई भी नहीं सुनता! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो?' अब इससे पाठकों के ध्यान में यह बात अच्छी तरह जम जाएगी कि महाभारत में जिस धर्म दृष्टि से पाँचवां वेद अथवा 'धर्म–संहिता' मानते हैं, उस 'धर्म–संहिता' शब्द के 'धर्म' शब्द का मुख्य अर्थ क्या है। यही कारण है कि पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों ही पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रंथों के साथ ही धर्मग्रंथ के नाते से नारायणं नमस्कृत्य इन प्रतीक शब्दों के द्वारा महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्य पाठ में कर दिया गया है।

धर्म–अधर्म के उपर्युक्त निरूपण को सुनकर कोई यह प्रश्न करे कि यदि तुम्हें 'समाज धारणा' और दूसरे प्रकरण के सत्यानृत विवेक में कथित 'सर्वभूतहित'; ये दोनों ही तत्व मान्य हैं तो तुम्हारी दृष्टि में और आधिभौतिक दृष्टि में भेद ही क्या है? क्योंकि ये दोनों ही तत्व बाह्यतः प्रत्यक्ष दिखने वाले और आधिभौतिक ही हैं। इस प्रश्न का विस्तृत विचार अगले प्रकरणों में किया गया है। यहाँ इतना ही कहना बस है कि, यद्यपि हमको यह तत्व मान्य है कि समाज–धारणा ही धर्म का मुख्य बाह्य उपयोग है, तथापि हमारे मत की विशेषता यह है कि वैदिक अथवा अन्य सब धर्मों का जो परम उद्देश्य आत्म–कल्याण या मोक्ष है, उस पर भी हमारी दृष्टि बनी है। समाज–धारणा को ही ले लीजिए, चाहे सर्व–भूतहित ही को; यदि ये बाह्योपयोगी तत्व हमारे आत्म–कल्याण के मार्ग में बाधा डालें तो हमें इनकी जरूरत नहीं। हमारे आयुर्वेद ग्रंथ यदि यह प्रतिपादन करते हैं कि वैद्यकशास्त्र भी शरीर रक्षा के द्वारा मोक्ष प्रप्ति का साधन होने के कारण संग्रहणीय है; तो यह कदापि संभव नहीं कि जिस शास्त्र में इस विषय का विचार किया गया है कि सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिए, उस कर्मयोग शास्त्र को हमारे शास्त्रकार आध्यात्मिक मोक्षज्ञान से अलग बतलाएं। इसलिए हम समझते हैं कि जो कर्म हमारे मोक्ष अथवा हमारी आध्यात्मिक उन्नति के अनुकूल हों वही पुण्य है, वही धर्म है और वही शुभ कर्म है; और जो कर्म उसके प्रतिकूल हों वही पाप है, अधर्म है और अशुभ है। यही कारण है कि हम 'कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य', 'पाप–पुण्य', 'कार्य–अकार्य' शब्दों के बदले 'धर्म' और 'अधर्म' शब्दों का ही (यद्यपि वे दो अर्थ के, अतएव कुछ संभव हों तो भी) अधिक उपयोग करते हैं। यद्यपि बाह्य सृष्टि के व्यवहारिक कर्मों अथवा व्यापारों का विचार करना ही प्रधान विषय हो, तो भी उक्त कर्मों के बाह्य परिणाम के विचार के साथ ही यह विचार भी हम लोग हमेशा किया करते हैं कि ये व्यापार हमारी आत्मा के कल्याण के अनुकूल हैं या प्रतिकूल। यदि आधिभौतिक–वादी से कोई यह प्रश्न करे कि 'मैं अपना हित छोड़कर लोगों का हित क्यों करूं?' तो वह इसके सिवाय और क्या समाधान–कारक उत्तर दे सकता है कि 'यह तो सामान्यतः मनुष्य स्वभाव ही है।' हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इसके परे पहुँची हुई है और उस व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि से ही महाभारत में कर्मयोग–शास्त्र का विचार किया गया है एवं श्रीमद्भगवदगीता में वेदान्त का निरूपण भी इतने के लिए ही किया गया है। प्राचीन यूनानी पंडितों की भी यही राय है कि 'अत्यंत हित' अथवा 'सद्गुण की पराकाष्ठा' के समान मनुष्य का कुछ न कुछ परम उद्देश्य कल्पित करके फिर उसी दृष्टि से कर्म–अकर्म का विवेचन करना चाहिए; और अरस्तू ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रंथ<balloon title="अरस्तू नीतिशास्त्र, 1.7, 8)" style=color:blue>*</balloon> में कहा है कि आत्मा के हित में ही इन सब बातों का समावेश हो जाता है। तथापि इस विषय में आत्मा के हित के लिए जितनी प्रधानता देनी चाहिए थी, उतनी अरस्तू ने दी नहीं है। हमारे शास्त्रकारों में यह बात नहीं है। उन्होंने निश्चित किया है कि आत्मा का कल्याण अथवा आध्यात्मिक पूर्णावस्था ही प्रत्येक मनुष्य का पहला और परम उद्देश्य है। अन्य प्रकार के हितों की अपेक्षा इसी को प्रधान जानना चाहिए और इसी के अनुसार कर्म–अकर्म का विचार करना चाहिए; आध्यात्म विद्या को छोड़कर कर्म–अकर्म का विचार करना ठीक नहीं है। जान पड़ता है कि वर्तमान समय में पश्चिमी देशों के कुछ पंडितों ने भी कर्म–अकर्म के विवेचन की इसी पद्धति को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ; जर्मन तत्वज्ञानी कान्ट ने पहले 'शुद्ध (व्यवसायात्मिक) बुद्धि की मीमांसा' नामक आध्यात्मिक ग्रंथ को लिखकर फिर उसकी पूर्ति के लिए 'व्यवहारिक (वासनात्मक) बुद्धि की मीमांसा' नाम का नीतिशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखा है<balloon title="कान्ट एक जर्मन तत्वज्ञानी था। इसे अर्वाचीन तत्वज्ञान–शास्त्र का जनक समझते हैं। इसके Oritique of Pure Reason (शुद्ध बुद्धि की मीमांसा) और Oritique of Practical Reason (वासनात्मक बुद्धि की मीमांसा) ये दो ग्रंथ प्रसिद्ध है। ग्रीन के ग्रंथ का नाम Prolegomena to Ethics है।" style=color:blue>*</balloon>; और इंग्लैंड में भी ग्रीन ने अपने 'नीतिशास्त्र के उपोद्धात' का सृष्टि के मूलभूत आत्मतत्व से ही आरंभ किया है। परन्तु इन ग्रंथों के बदले केवल आधिभौतिक पंडितों के ही नीतिग्रंथ आजकल हमारे यहाँ अंग्रेज़ी शालाओं में पढ़ाए जाते हैं; जिसका परिणाम यह देख पड़ता है कि गीता में बतलाए गए कर्मयोग–शास्त्र के मूलतत्वों का हम लोगों में अंग्रेज़ी सीखे हुए बहुतेरे विद्वानों को भी स्पष्ट बोध नहीं होता। उक्त विवेचन से ज्ञात हो जाएगा कि व्यवहारिक नीति–बंधनों के लिए अथवा समाज धारणा की व्यवस्था के लिए हम 'धर्म' शब्द का उपयोग क्यों करते हैं। महाभारत, भगवद्गीता आदि संस्कृत ग्रंथों में तथा भाषा ग्रंथों में भी व्यवहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं।

भारतीय युद्ध में एक समय कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी ने निगल लिया था; उसको उठाकर ऊपर लाने के लिए जब कर्ण अपने रथ से नीचे उतरा तब अर्जुन उसका वध करने के लिए उद्यत हुआ। यह देखकर कर्ण ने कहा, निःशस्त्र शत्रु को मारना धर्मयुद्ध नहीं है। इसे सुनकर श्री कृष्ण ने कर्ण को कई पिछली बातों का स्मरण दिलाया, जैसे कि – द्रौपदी का वस्त्र हरण कर लिया गया था, सब लोगों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु का वध कर डाला था इत्यादि; और प्रत्येक प्रसंग में यह प्रश्न किया है कि 'हे कर्ण! उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था?' इन सब बातों का वर्णन महाराष्ट्र कवि मोरोपंत जी ने किया है और महाभारत में भी इसी प्रसंग पर 'कते धर्मस्तदा गतः' प्रश्न में 'धर्म' शब्द का ही प्रयोग किया गया है तथा अंत में कहा गया है कि जो इस प्रकार का अधर्म करे, उसके साथ उसी तरह का बर्ताव करना ही उसको उचित दण्ड देना है। सारांश; क्या संस्कृत और क्या भाषा, सभी ग्रंथों में 'धर्म' शब्द का प्रयोग उन सब नीति नियमों के बारे में किया गया है जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा अध्यात्म दृष्टि से बनाए गए हैं; इसलिए उसी शब्द का उपयोग हमने भी इस ग्रंथ में किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा 'शिष्टाचार' को धर्म की बुनियाद कह सकते हैं जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा प्रचलित किए गए हों और जो सर्वमान्य हो चुके हों। इसलिए महाभारत<balloon title="महाभारत, अनुशासन पर्व, 104.157" style=color:blue>*</balloon> में एवं स्मृति ग्रंथों में 'आचारप्रभवो धर्मः' अथवा 'आचारः परमोधर्मः'<balloon title="मनुस्मृति, 1.108" style=color:blue>*</balloon>, अथवा धर्म का मूल बतलाते समय वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः<balloon title="मनुस्मृति, 2.12" style=color:blue>*</balloon> इत्यादि वचन कहे गए हैं। परन्तु कर्मयोग–शास्त्र में इतने से ही काम नहीं चल सकता; इस बात का भी पूरा और मार्मिक विचार करना पड़ता है कि उक्त आचार की प्रवृत्ति ही क्यों हुई – इस आचार की प्रवृत्ति ही का कारण क्या है।

'धर्म' शब्द की दूसरी एक और व्याख्या प्राचीन ग्रंथों में दी गई है; उसका भी यहाँ थोड़ा विचार करना चाहिए। यह व्याख्या मीमांसकों की है 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः।'<balloon title="जैमिनी सूत्र 1.1.2" style=color:blue>*</balloon> किसी अधिकारी पुरूष का यह कहना अथवा आज्ञा करना कि 'तू अमुक काम कर' अथवा 'मत कर', 'चोदना' यानी प्रेरणा है। जब तक इस बात का कोई प्रबंध नहीं कर दिया जाता, तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतंत्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल निबंध या प्रबंध के कारण धर्म निर्माण हुआ। धर्म की यह व्याख्या कुछ अंश में प्रसिद्ध अंग्रेज़ ग्रंथकार हॉब्स के मत से मिलती है। असभ्य तथा जंगली अवस्था में प्रत्येक मनुष्य का आचरण समय समय पर उत्पन्न होने वाली मनोवृत्तियों की प्रबलता के अनुसार हुआ करता है। परन्तु धीरे धीरे कुछ समय के बाद यह मालूम होने लगता है कि इस प्रकार का मनमाना बर्ताव श्रेयस्कर नहीं है; और यह विश्वास होने लगता है कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापारों की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार बर्ताव करने ही में सब लोगों का कल्याण है; तब प्रत्येक मनुष्य ऐसी मर्यादाओं का पालन कायदे के तौर पर करने लगता है जो शिष्टाचार से, अन्य रीति से सुदृढ़ हो जाया करती हैं। जब इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है तब उन्हीं का एक शास्त्र बन जाता है। पूर्व काल में विवाह–व्यवस्था का प्रचार नहीं था। पहले पहल उसे श्वेतकेतु ने चलाया और शुक्राचार्य ने मदिरापान को निषिद्ध ठहराया। यह न देखकर, कि इन मर्यादाओं को नियुक्त करने में श्वेतकेतु अथवा शुक्राचार्य का क्या हेतु था, केवल इसी बात पी ध्यान देकर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कर्त्तव्य इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शब्द की 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः' व्याख्या बन गई है। धर्म भी हुआ तो पहले उसका महत्व किसी व्यक्ति के ध्यान में आता है और तभी उसकी प्रवृत्ति होती है। 'खाओ–पिओ, चैन करो' ये बातें किसी को सिखलाना नहीं पड़ती; क्योंकि ये इंद्रियों के स्वाभाविक धर्म ही हैं। मनु जी ने जो कहा है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने'<balloon title="मनुस्मृति, 5.56" style=color:blue>*</balloon>– अर्थात् मांस भक्षण करना अथवा मद्यपान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म विरूद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्।' समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के सुख के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व, 294.29" style=color:blue>*</balloon> में भी कहा गया हैः–

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

अर्थात् 'आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिए एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्य और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का (अर्थात् इन स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने का)। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है, वह पशु के समान ही है!' आहारादि स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में भागवत का श्लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन से भगवान कहते हैं –

इंद्रियस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपंथिनौ।।<balloon title="गीता 3.34" style=color:blue>*</balloon>

'प्रत्येक इंद्रिय में अपने अपने उपभोग्य अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में जो प्रीति अथवा द्वेष होता है, वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं होना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं।' तब भगवान भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते हैं जो स्वाभाविक मनोवृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। मनुष्य की इंद्रियाँ उसे पशु के समान आचरण करने के लिए कहा करती हैं और उसकी बुद्धि इसके विरूद्ध दिशा में खींचा करती हैं। इस कलहाग्नि में जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतकृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिए और वही धन्य भी हैं।

धर्म को 'आचार–प्रभाव' कहिए, 'धारणात् धर्म' मानिए अथवा 'चोदनालक्षण धर्म' समझिए; धर्म की यानी व्यवहारिक नीतिबंधनों की कोई भी व्याख्या ले लीजिए, परन्तु जब धर्म–अधर्म का संशय उत्पन्न होता है तब उसका निर्णय करने के लिए उपर्युक्त तीनों लक्षणों का कुछ उपयोग नहीं होता। पहली व्याख्या से सिर्फ़ यही मालूम होता है कि धर्म का मूल स्वरूप क्या है; उसका बाह्य उपयोग दूसरी व्याख्या से मालूम होता है; और तीसरी व्याख्या से यही बोध होता है कि पहले पहल किसी ने धर्म की मर्यादा निश्चित कर दी है। परन्तु अनेक आचारों में भेद पाया जाता है; एक ही कर्म के अनेक परिणाम होते हैं और अनेक ऋषियों की आज्ञा अर्थात् 'चोदना' भी भिन्न भिन्न है। इन कारणों से संशय के समय धर्म निर्णय के लिए किसी दूसरे मार्ग को ढूँढ़ने की आवश्यकता होती है। यह मार्ग कौन–सा है? यही प्रश्न यक्ष ने युधिष्ठिर से किया था। इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया है किः–

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः।।

यदि तर्क को देखें तो वह चंचल है, अर्थात् 'जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क से निष्पन्न हो जाते हैं; श्रुति अर्थात् वेदाज्ञा देखी जाए तो वह भी भिन्न भिन्न है और यदि स्मृति शास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाए। अच्छा, इस (व्यवहारिक) धर्म का मूल तत्व देखा जाए तो वह भी अंधकार में छिप गया है, अर्थात् वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिए महा–जन जिस राह से गए हों, वही (धर्म का) मार्ग है'।<balloon title="महाभारत, वन पर्व, 312.115" style=color:blue>*</balloon> ठीक है! परन्तु महा–जन किस को कहना चाहिए? उसका अर्थ 'बड़ा अथवा बहुत–सा जनसमूह' नहीं हो सकता क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म–अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाए मार्ग से जाना, मानो कठोपनिषद में वर्णित अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः वाली नीति ही को चरितार्थ करना है। अब यदि महाजन का अर्थ 'बड़े बड़े सदाचारी पुरूष’ लिया जाए, और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है तो उन महा–जनों के आचरण मे भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्री रामचन्द्र ने अग्नि द्वारा शुद्ध हो जाने पर भी अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद ही के लिए किया; और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिए उससे 'तुल्यारिमित्र' – अर्थात् जो तेरा शत्रु है वही मेरा भी शत्रु है, और जो तेरा मित्र है वह मेरा भी मित्र है; इस प्रकार की संधि करके बेचारे बालि का वध किया, यद्यपि उसने श्री रामचंद्र जी का कुछ अपराध नहीं किया था! परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला! यदि पांडवों का आचरण देखा जाए तो कोई अहल्या का सतीत्व भ्रष्ट करने वाला है, और कोई ब्रह्मा मृगरूप से अपनी ही कन्या की अभिलाष करने के कारण रूद्र के बाण से विद्ध होकर आकाश में पड़ा हुआ है।<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण, 3.33" style=color:blue>*</balloon>

इन्हीं बातों को मन में लाकर उत्तर–रामचरित्र नाटक में भवभूति ने लव के मुख से कहलाया है कि 'वृद्धास्ते न विचारणीय चरिताः' – इन वृद्धों के कृत्यों का बहुत विचार नहीं करना चाहिए। अंग्रेज़ी में शैतान का इतिहास लिखने वाले एक ग्रंथकार ने लिखा है कि शैतान के साथियों और देवदूतों के झगड़े का हाल देखने से मालूम होता है कि कई बार देवताओं ने ही दैत्यों को कपटजाल में फाँस लिया है। इसी प्रकार कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद<balloon title="कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद, 3.1 और ऐतरेय ब्राह्मण, 7.28" style=color:blue>*</balloon> में इन्द्र प्रतर्दन से कहता है कि 'मैंने वृत्र को (यद्यपि वह ब्राह्मण था) मार डाला। अरून्मुख सन्यासियों के टुकड़े करके भेड़ियों को खाने के लिए दिए और अपनी कई प्रतिज्ञाओं को भंग करके प्रह्लाद के नातेदारों द्वारा गोत्रजों का तथा पौलोम और कालखंज नामक दैत्यों का वध किया, (इससे) मेरा एक बाल भी बांका नहीं हुआ।

तस्य मे तत्र न लोम च मा मीयते!

यदि कोई कहे कि 'तुम्हें इन महात्माओं के बुरे कर्मों की ओर ध्यान देने का कुछ भी कारण नहीं है; जैसा कि तैत्तिरीयोपनिषद<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद , 1.11.2" style=color:blue>*</balloon> में बतलाया है, उनके जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो और सब छोड़ दो। उदाहरणार्थ; परशुराम के समान पिता की आज्ञा का पालन करो' तो वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिए साधन है क्या? इसलिए अपनी करनी का उक्त प्रकार से वर्णन कर इंद्र प्रतर्दन से फिर कहता है कि 'जो पूर्ण आत्मज्ञानी है उसे मातृवध, पितृवध, भ्रूणहत्या और स्तेय (चोरी) इत्यादि किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता। इस बात को तू भली–भाँति समझ ले और फिर यह भी समझ ले कि आत्मा किसे कहते हैं। ऐसा करने से तेरे सारे संशय की निवृत्ति हो जाएगी।' इसके बाद इंद्र ने प्रतर्दन को आत्मविद्या का उपदेश दिया।

सारांश यह है कि 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' यह युक्ति यद्यपि सामान्य लोगों के लिए सरल है, तो भी सब बातों में इससे निर्वाह नहीं हो सकता और अंत में महाजनों के आचरणों का सच्चा तत्व कितना भी गूढ़ हो तो भी आत्मज्ञान में घुसकर विचारवान पुरूषों को उसे ढूँढ़ निकालना ही पड़ता है। 'न देवचरितं चरेत्' – देवताओं के केवल बाहरी चरित्र के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिए। इस उपदेश का रहस्य भी यही है। इसके सिवाय कर्म–अकर्म का निर्णय करने के लिए कुछ लोगों ने एक और सरल युक्ति बतलाई है। उनका कहना है कि कोई भी सदगुण हो, उसकी अधिकता न होने देने के लिए हमें हमेशा यत्न करते ही रहना चाहिए क्योंकि इस अधिकता से ही अंत में सदगुण दुर्गुण बन बैठता है। जैसे दान देना सचमुच सदगुण है, परंतु अति दानाद्धलिर्बद्धः दान की अधिकता होने से ही राजा बलि फाँसा गया था। प्रसिद्ध यूनानी पंडित अरस्तू ने अपने नीति–शास्त्र के ग्रंथ में कर्म–अकर्म के निर्णय की यही युक्ति बतलाई है और स्पष्टतया दिखलाया है कि प्रत्येक सदगुण की अधिकता होने पर दुर्दशा कैसे हो जाती है। कालिदास ने भी रघुवंश में वर्णन किया है कि केवल शूरता व्याघ्र सरीखे श्वापद का क्रूर काम है और केवल नीति भी डरपोकापन है, इसलिए अतिथि राजा तलवार और राजनीति के योग्य मिश्रण से अपने राज्य का प्रबंध करता था।<balloon title="रघुवंश 17.47" style=color:blue>*</balloon> भर्तहरि ने भी कुछ गुण–दोषों का वर्णन कर कहा है कि ज्यादा बोलना वाचालता का लक्षण है और कम बोलना घुम्मापन है, यदि ज्यादा खर्च करे तो उड़ाऊ और कम करे तो कंजूस, आगे बढ़े तो दुःसाहसी और पीछे हटे तो ढीला, अतिशय आग्रह करे तो ज़िद्दी और न करे तो चंचल, ज्यादा खुशामद करे तो नीच और ऐंठ दिखलाए तो घमंडी है; परन्तु इस प्रकार की स्थूल कसौटी से अंत तक निर्वाह नहीं हो सकता क्योंकि 'अति' किसे कहते हैं और 'नियमित' किसे कहते हैं – इसका भी तो कुछ निर्णय होना चाहिए न; तथा यह निर्णय कौन किस प्रकार करे? किसी एक को अथवा किसी एक मौके पर जो बात ‘अति’ होगी, वही दूसरे को अथवा दूसरे मौके पर कम हो जाएगी। हनुमान जी को, पैदा होते ही सूर्य को पकड़ने के लिए उड़ान मारना कोई कठिन काम नहीं मालूम पड़ा<balloon title="वाल्मीकि रामायण. 7.35" style=color:blue>*</balloon>; परन्तु यही बात औरों के लिए कठिन क्या, असंभव ही जान पड़ती है। इसलिए जब धर्म–अधर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो तो तब प्रत्येक मनुष्य को ठीक वैसा ही निर्णय करना पड़ता है जैसा श्येन ने राजा शिबि से कहा हैः–

अविरोधात्तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्तम।
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरूलाघवम्।
न बाधा विद्यते यत्र तं धर्मे समुपाचरेत्।।

अर्थात् परस्पर विरूद्ध धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता और गुरूता देखकर ही प्रत्येक मौके पर अपनी बुद्धि के द्वारा सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिए।<balloon title="महाभारत, वन पर्व, 131.11, 12 और मनुस्मृति, 9.299" style=color:blue>*</balloon> परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इतने ही से धर्म–अधर्म के सार–असार का विचार करना ही शंका के समय धर्म निर्णय की एक सच्ची कसौटी है। क्योंकि व्यवहार में अनेक बार देखा जाता है कि अनेक पंडित लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सार–असार का विचार भी भिन्न भिन्न प्रकार से किया करते हैं। यही अर्थ उपर्युक्त 'तर्कोऽप्रतिष्ठः' वचन में कहा गया है। इसलिए अब हमें यह जानना चाहिए कि धर्मः अधर्म संशय के इन प्रश्नों का अचूक निर्णय करने के लिए अन्य कोई साधन या उपाय हैं या नहीं। यदि हैं, तो कौन से हैं, और यदि अनेक उपाय हों तो उसमें श्रेष्ठ कौन हैं। बस; इस बात का निर्णय कर देना ही शास्त्र का काम है।

शास्त्र का यही लक्षण भी है कि अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम्

अर्थात् अनेक शंकाओं के उत्पन्न होने पर सबसे पहने उन विषयों के मिश्रण को अलग अलग कर दे जो समझ में नहीं आ सकते हैं, फिर उसके अर्थ को सुगम और स्पष्ट कर दे, और जो बातें आँखों से देख न पड़ती हों, उनका अथवा आगे होने वाली बातों का भी यथार्थ ज्ञान करा दे। जब हम इस बात को सोचते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के सीखने से आगे होने वाले ग्रहणों का भी सब हाल मालूम हो जाता है, जब उक्त लक्षण के 'परोक्षार्थस्य दर्शकम्' इस दूसरे भाग की सार्थकता अच्छी तरह देख पड़ती है। परन्तु अनेक संशयों का समाधान करने के लिए पहले यह जानना चाहिए कि वे कौन सी शंकाएँ हैं। इसलिए प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथकारों की यह रीति है कि किसी भी शास्त्र का सिद्धान्त पक्ष बतलाने के पहले, उस विषय में जितने पक्ष हो गए हों; उनका विचार करके उनके दोष और उनकी न्यूनताएँ दिखलाई जाती हैं। इसी रीति को स्वीकार कर गीता में कर्म–अकर्म निर्णय के लिए प्रतिपादन किया हुआ सिद्धान्त पक्षीय योग अर्थात् युक्ति बतलाने के पहले इसी काम के लिए जो अन्य युक्तियाँ पंडित लोग बतलाया करते हैं, उन पर भी विचार करें।

यह बात सच है कि ये युक्तियाँ हमारे यहाँ पहले विशेष प्रचार में न थीं; विशेष करके परिश्रमी पंडितों ने ही वर्तमान समय में उनका प्रचार किया है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चर्चा इस ग्रंथ में न की जाए। क्योंकि न केवल तुलना ही के लिए, किन्तु गीता के आध्यात्मिक कर्मयोग का महत्व ध्यान मं आने के लिए भी इन युक्तियों को संक्षेप में भी क्यों न हो, जान लेना अत्यंत आवश्यक है।

  1. फ्रांस देश में ऑगस्ट कोंट (Auguste Comte) नामक एक बड़ा पंडित गत शताब्दी में हो चुका है। इसने समाजशास्त्र पर एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखकर बतलाया है कि समाज रचना का शास्त्रीय रीति से किस प्रकार विवेचन करना चाहिए। अनेक शास्त्रों की आलोचना करके इसने यह निश्चय किया है कि किसी भी शास्त्र को ले लो, उसका विवेचन पहले पहल Theological पद्धति से किया जाता है; फिर Metaphysical पद्धति से होता है और अन्त में उसको Positive स्वरूप मिलता है। इन्हीं तीन पद्धतियों को हमने इस ग्रंथ में आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक; ये तीन प्राचीन नाम दिए हैं। ये पद्धतियाँ कुछ कोंट की निकाली हुई नहीं हैं; ये सब पुरानी ही हैं। तथापि उसने उनका ऐतिहासिक क्रम नई रीति से बाँधा है और उनमें आधिभौतिक (Positive) पद्धति को ही श्रेष्ठ बतलाया है; बस इतना ही कोंट का नया शोध है। कोंट के अनेक ग्रंथों का अंग्रेज़ी में भाषान्तर हो गया है।"