"गीता कर्म योग" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
(नया पन्ना: == कर्म योग गीता<br> == === बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य<br> =…)
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
== कर्म योग गीता<br> ==
+
== कर्म योग गीता ==
 +
=== बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य ===
 +
'''किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।<balloon title="पंडितों को भी इस विषय में मोह हो जाया करता है कि कर्म कौन–सा है, और अकर्म कौन–सा है। इस स्थान पर अकर्म शब्द को ‘कर्म के अभाव’ और ‘बुरे कर्म’ दोनों  अर्थों में यथासम्भव लेना चाहिए।" style=color:blue>*</balloon>- गीता 4.16।'''<br />
 +
भगवद्गीता के आरम्भ में परस्पर–विरूद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौका आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो सन्यास लेकर और संसार को छोड़कर वन में चले जाते हैं अथवा जो कमजोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रहकर ही जिन महान तथा कार्यकर्त्ता पुरूषों को अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं।<br />
 +
उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं¬¬? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।<br />
 +
‘कोरियोलेनस’ नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा’’। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाजे के पास आ पहुँचा। उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके मातृभूमि के सम्बन्ध में उसको उपदेश दिया। अंत में उसको रोम के शत्रुओं को दिए हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाए जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई अवश्यकता नहीं। हमारा महाभारत ग्रंथ ऐसे अनेकों उदाहरणों की एक बड़ी खान ही है। ग्रंथ के आरम्भ (आ. 2) में वर्णन करते हुए स्वंय व्यास जी ने उसको ‘सूक्ष्मार्थन्याययुक्तं’, ‘अनेकसमयान्वितं’ आदि विशेषण दिए गए हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गायी गयी है कि ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्’’। अर्थात्; जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में भी है, और जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है (आ. 62.53)। सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े–बड़े प्राचीन पुरूषों ने कैसा बर्ताव किया, इसका सुलभ आख्यानों के द्वारा साधाराणजनों को बोध करा देने के लिए ही ‘भारत’ का ‘महाभारत’ हो गया है। नहीं तो सिर्फ ‘भारतीय युद्ध’ अथवा ‘जय’ नामक इतिहास का वर्णन करने के लिए अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी।
  
=== बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य<br> ===
+
अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिए; हमारे–तुम्हारे लिए इतने गहरे पानी में बैठने की क्या आवश्यकता है? क्या मनु आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात स्पष्ट नियम नहीं बना दिए हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करे? किसी की हिंसा मत करो, नीति से चलो, सच बोलो, गुरू और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय तो ऊपर लिखे कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के झगड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता है? परंतु इसके विरूद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि जब तक इस संसार के सब लोग उक्त आज्ञाओं के अनुसार बर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सज्जनों को क्या करना चाहिए? क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण दुष्टजनों के फंदे में अपने को फँसा लें? या अपनी रक्षा के लिए ‘‘जैसे को तैसा’’ होकर उन लोगों का प्रतिकार करें? इसके सिवाय एक बात और भी है। यद्यपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाणभूत मान लें, तथापि कार्य–कर्त्ताओं को अनेक बार ऐसे मौके आते हैं कि उस समय उक्त साधारण नियमों में से दो या दो से अधिक नियम एकदम लागू होते हैं। उस समय ‘‘यह करूं या वह करूं’’ इस चिन्ता में पड़कर मनुष्य पागल–सा हो जाता है। अर्जुन पर ऐसा ही मौका आ पड़ा था। परन्तु अर्जुन के सिवाय और लोगों पर भी ऐसे कठिन अवसर अक्सर आया करते हैं। इस बात का मार्मिक विवेचन महाभारत में कई स्थानों पर किया गया है। उदाहरणार्थ; मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिए नीतिधर्म के पाँच नियम बतलाए हैं–‘‘अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:’’ (मनु 10.63)। अर्थात्; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया वाचा और मन की शुद्धता, एवं इन्द्रिय–निग्रह। इन नीतिधर्मों में से एक अहिंसा का ही विचार कर लीजिए। ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ (मभा. . 11.13) यह तत्व सिर्फ़ हमारे वैदिक धर्म में ही नहीं, किंतु अन्य सब धर्मों में भी प्रधान माना गया है। <br />
 
+
बौद्ध और ईसाई धर्म–ग्रंथों में जो आज्ञाएँ हैं उनमें अहिंसा को मनु की आज्ञा के समान पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ़ किसी की जान ले लेना ही हिंसा नहीं है। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को दु:ख देने का भी समावेश किया जाता है। अर्थात् किसी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दु:खी न करना ही अहिंसा है। इस संसार में सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिए कि हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाए और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो; तो उस समय हमें क्या करना चाहिये? क्या ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ कहकर ऐसे आततायी मनुष्य की उपेक्षा की जाय? या, यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय? मनु जी कहते हैं–
== <br>कर्मजिज्ञासा। ==
 
 
 
<br>'''किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।- गीता 4.16।'''
 
 
 
भगवद्गीता के आरम्भ में परस्पर–विरूद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौका आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो सन्यास लेकर और संसार को छोड़कर वन में चले जाते हैं अथवा जो कमजोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रहकर ही जिन महान तथा कार्यकर्त्ता पुरूषों को अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं।<br> उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं¬¬? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।<br> ‘कोरियोलेनस’ नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा’’। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाजे के पास पहुँचा। उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके मातृभूमि के सम्बन्ध में उसको उपदेश दिया। अंत में उसको रोम के शत्रुओं को दिए हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाए जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई अवश्यकता नहीं। हमारा महाभारत ग्रंथ ऐसे अनेकों उदाहरणों की एक बड़ी खानि ही है। ग्रंथ के आरम्भ (आ. 2) में वर्णन करते हुए स्वंय व्यास जी ने उसको ‘सूक्ष्मार्थन्याययुक्तं’, ‘अनेकसमयान्वितं’ आदि विशेषण दिए गए हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गायी गयी है कि ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्’’। अर्थात्; जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में भी है, और जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है (आ. 62.53)। सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े–बड़े प्राचीन पुरूषों ने कैसा बर्ताव किया, इसका सुलभ आख्यानों के द्वारा साधाराणजनों को बोध करा देने के लिए ही ‘भारत’ का ‘महाभारत’ हो गया है। नहीं तो सिर्फ ‘भारतीय युद्ध’ अथवा ‘जय’ नामक इतिहास का वर्णन करने के लिए अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी।<br>अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिए; हमारे–तुम्हारे लिए इतने गहरे पानी में बैठने की क्या आवश्यकता है? क्या मनु आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात स्पष्ट नियम नहीं बना दिए हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करे? किसी की हिंसा मत करो, नीति से चलो, सच बोलो, गुरू और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय तो ऊपर लिखे कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के झगड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता है? परंतु इसके विरूद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि जब तक इस संसार के सब लोग उक्त आज्ञाओं के अनुसार बर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सज्जनों को क्या करना चाहिए? क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण दुष्टजनों के फंदे में अपने को फँसा लें? या अपनी रक्षा के लिए ‘‘जैसे को तैसा’’ होकर उन लोगों का प्रतिकार करें? इसके सिवाय एक बात और भी है। यद्यपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाणभूत मान लें, तथापि कार्य–कर्त्ताओं को अनेक बार ऐसे मौके आते हैं कि उस समय उक्त साधारण नियमों में से दो या दो से अधिक नियम एकदम लागू होते हैं। उस समय ‘‘यह करूं या वह करूं’’ इस चिन्ता में पड़कर मनुष्य पागल–सा हो जाता है। अर्जुन पर ऐसा ही मौका आ पड़ा था। परन्तु अर्जुन के सिवाय और लोगों पर भी ऐसे कठिन अवसर अक्सर आया करते हैं। इस बात का मार्मिक विवेचन महाभारत में कई स्थानों पर किया गया है। उदाहरणार्थ; मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिए नीतिधर्म के पाँच नियम बतलाए हैं–‘‘अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:’’ (मनु 10.63)। अर्थात्; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया वाचा और मन की शुद्धता, एवं इन्द्रिय–निग्रह। इन नीतिधर्मों में से एक अहिंसा का ही विचार कर लीजिए। ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ (मभा. आ. 11.13) यह तत्व सिर्फ़ हमारे वैदिक धर्म में ही नहीं, किंतु अन्य सब धर्मों में भी प्रधान माना गया है। बौद्ध और ईसाई धर्म–ग्रंथों में जो आज्ञाएँ हैं उनमें अहिंसा को मनु की आज्ञा के समान पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ़ किसी की जान ले लेना ही हिंसा नहीं है। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को दु:ख देने का भी समावेश किया जाता है। अर्थात् किसी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दु:खी न करना ही अहिंसा है। इस संसार में सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिए कि हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाए और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो; तो उस समय हमें क्या करना चाहिये? क्या ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ कहकर ऐसे आततायी मनुष्य की उपेक्षा की जाय? या, यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय? मनु जी कहते हैं–<br>गुरूं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।<br>आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।<br>अर्थात्; ‘‘ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरू है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है’’। शास्त्रकार कहते हैं कि (मनु. 8.350) ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है। आत्मरक्षा का यह हक कुछ मर्यादा के भीतर आधुनिक फौजदारी कानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्मरक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूणहत्या सबसे अधिक निंदनीय मानी गयी है; परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिए? यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी प्रशस्त माना है (मनु. 5.31); परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है (मभा. शा. 337; अनु. 115.59)। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकड़ो जीव–जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है? महाभारत में (शा. 15.29) अर्जुन कहते हैं–<br>सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।<br>पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।।<br>अर्थात्; ‘‘इस जगत में ऐसे–ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलाएं तो उतने से ही उन जन्तुओं का नाश हो जाता है’’। ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि ‘‘हिंसा मत करो, हिंसा मत करो’’ तो उससे क्या लाभ होगा? इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में शिकार करने का समर्थन किया गया है। वनपर्व में एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिव्रता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिए उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने उसे किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने माता–पिता का बड़ा पक्का भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्व समझाकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता? ‘‘जीवो जीवस्य जीवनम्’’ (भाग. 1.13.49) – यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपातकाल में तो ‘‘प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्’’ यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों ही ने नहीं (मनु. 5.28; मभा. शा. 15.21) कहा है; किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है (वेसू. 3.4.28; छां. 5.2.1; बृ. 9.1.14) । यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा? यदि क्षात्र धर्म नष्ट हो जाए तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी? सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम– अहिंसा में भी कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है।<br>अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति आदि गुण शास्त्रों आदि में कहे गए हैं; परन्तु सब समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा? सदा शान्त रहने वाले मनुष्यों के बाल–बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किए बिना नहीं रहेंगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रह्लाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा है–<br>न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।<br>.... .... .... ....<br>तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता।।<br>अर्थात्; ‘‘सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसी लिए हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिए कुछ अपवाद भी कहे हैं (मभा. वन. 28.6, 8)। इसके बाद कुछ मौकों का वर्णन किया गया है जो क्षमा के लिए उचित हैं; तथापि प्रह्लाद ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि इन मौकों का पहचानने का तत्व या नियम क्या है। यदि इन मौकों को पहचाने बिना, सिर्फ़ अपवादों का ही कोई उल्लेख करे तो वह दुराचरण समझा जाएगा। इसलिए यह जानना अत्यंत आवश्यक और अति महत्वपूर्ण है कि इन मौकों को पहचानने का नियम क्या है।<br>दूसरा तत्व ‘‘सत्य’’ है, जो कि सब देशों और धर्मों में भली–भाँति माना जाता है और प्रमाण समझा जाता है। सत्य का वर्णन कहाँ तक किया जाए? वेद में सत्य की महिमा के विषय में यह कहा गया है कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति के पहले ‘ऋतं’ और ‘सत्य’ उत्पन्न हुए; और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंच महाभूत स्थिर हैं – ‘‘ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’’ (ऋ. 10.190.1), ‘‘सत्येनोत्तभिता भूमिः’’ (ऋ. 10.85.1) । ‘सत्य’ शब्द का धात्वर्थ भी यही है – ‘रहने वाला’ अर्थात्; ‘‘जिसका कभी अभाव न हो’’ अथवा ‘त्रिकाल अभादित’। इसी लिए सत्य के विषय में कहा गया है कि ‘‘सत्य के सिवाय और कोई धर्म नहीं है, सत्य ही परब्रह्म है।’’ महाभारत में कई जगह इस वचन का उल्लेख किया गया है कि ‘नास्ति सत्यात्परो धर्मः’ (शां. 162.24) और यह भी लिखा है किः–<br>अश्वमेधसहस्त्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।<br>अश्वमेधसहस्त्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।<br>अर्थात्; ‘‘हज़ार अश्वमेध और सत्य की तुलना की जाए तो सत्य ही अधिक होगा’’ (आ. 74.102)। यह वर्णन सामान्य सत्य के विषय में हुआ। सत्य के विषय में मनु जी एक विशेष बात और कहते हैं (4.256)–<br>वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः सृताः।<br>तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।<br>अर्थात्; ‘‘मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिए शब्द के समान अन्य कोई साधन नहीं है। वही सब व्यवहारों का आश्रय–स्थान और वाणी का मूल स्त्रोत है। जो मनुष्य उसको मलिन कर डालता है, अर्थात् जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूँजी ही की चोरी करता है।’’ इसी लिए मनु ने कहा है कि ‘सत्यपूतां वदेद्वाचं’ (मनु. 6.46) – जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाए। और अन्य धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिए उपनिषद में भी कहा है ‘सत्यं वद। धर्मं चर’ (तै. 1.11.1)। जब बाणों की शैया पर पड़े–पड़े भीष्म पितामह शान्ति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठर को सब धर्मों के उपदेश दे चुके थे, तब प्राण छोड़ने के पहले ‘‘सत्येषु यतितर्व्य वः सत्यं हि परमं बलं’’ इस वचन को सब धर्मों का सार समझ कर उन्होंने सत्य के ही अनुसार व्यवहार करने के लिए सब लोगों को उपदेश किया है (मभा. अनु. 167.50)। बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है।<br>क्या इस बात की कभी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयंसिद्ध और चिरस्थायी है, उसके लिए भी कुछ अपवाद होंगे? परन्तु दुष्टजनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत ही कठिन है। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किए जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे हैं। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगें कि वे आदमी कहाँ चले गए? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोलकर सब हाल कह दोगे, या उन अपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्व का धर्म है। मनु कहते हैं ‘‘नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः’’ (मनु. 2.110; मभा. शां. 287.34) – जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए। और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे, तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान हूँ–हूँ कर देना और बात को बना देना चाहिए – ‘‘जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्।’’ अच्छा, क्या हूँ–हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है? महाभारत (आ. 215.34) में कई स्थानों में कहा है ‘‘न व्याजेन चरेद्धर्मं’’ धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, अपितु तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा, यदि हूँ– हूँ करके कुछ बात बना लेने का भी समय न हो, तो क्या करना चाहिए? मान लीजिए, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है कि तुम्हारा धन कहीँ है? यदि कुछ उत्तर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिए? सब धर्मों का रहस्य जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण ऐस ही चोरों की कहानी का दृष्टांत देकर कर्णपर्व (69.61) में अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत अध्याय (109.15, 16) में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं–<br>अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।<br>अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरन्वाप्यकूजनात्।<br>श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्।।<br>अर्थात्; ‘‘यह बात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके, तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।’’ इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है, अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ़ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयतार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही है और न ही अहिंसा। शांतिपर्व (329.13; 287.19) में सनत्कुमार के आधार पर नारद जी शुक जी से कहते हैं–<br>सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।<br>यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम।।<br> ‘‘सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सभी प्राणियों का हित हो। क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।’’ ‘यद्भूतहितं’ पद को देखकर आधुनिक उपयोगिता–वादी अंग्रेजों का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रक्षिप्त कहना चाहे, तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि यह वचन महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण और व्याध के संवाद में दो–तीन बार आया है। उनमें से एक जगह तो ‘‘अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम्’’ पाठ है (वन. 209.73), और दूसरी जगह ‘‘यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा’’ (वन.208.4), ऐसा पाठभेद किया गया है। सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहकर उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है, और कुछ नहीं। ऐसी ही और अन्य बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोलकर किसी खूनी की जान बचायी जाए। शास्त्रों में खून करने वाले आदमी के लिए देहान्त, प्रायश्चित अथवा वधदंड की सज़ा कही गई है, इसी लिए वह सज़ा पाने अथवा वध करने के योग्य है। सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय, अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या और अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है (मनु. 8.89–99; मभा. आ. 7.3)। परन्तु जब कर्णपर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो तो उस समय क्या करना चाहिए? ग्रीन नामक एक अंग्रेज़ ग्रंथकार ने अपने ‘नीतिशास्त्र का उपोद्घात’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। यद्यपि, मनु और याज्ञवल्क्य ऐसे प्रसंगों की गणना सत्यापवाद में करते हैं, तथापि यह भी उसके मत में गौण बात है। इसी लिए अंत में उन्होंने इस अपवाद के लिए भी प्रायश्चित बतलाया है–‘तत्पावनाय निर्वाप्यश्चरूः सारस्वतो द्विजैः (याज्ञ. 2.83; मनु. 8.104–106)।<br>कुछ बड़े अंग्रेज़ों ने जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोष देने का यत्न किया है। इसीलिए यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक और नीतिशास्त्र के अंग्रेज़ ग्रंथकार क्या कहते हैं। क्राइस्ट का शिष्य पॉल बाइबिल में कहता है कि ‘‘यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात्; ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है), तो इससे मैं पापी क्योंकर हो सकता हूँ’’ (रोम. 3.7)? ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। यह बात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्रज्ञ, किसी को धोखा देकर या भुलाकर धर्म भ्रष्ट करके, न्याय नहीं मानेंगे। परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद–रहित है। उदाहरणार्थ; यह देखिए कि सिजविक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कॉलेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है। कर्म और अकर्म के संदेह का निर्णय, जिस तत्व के आधार पर, यह ग्रंथकार किया करता है, उसको ‘‘सबसे अधिक लोगों का सबसे अधिक सुख’’ (बहुत लोगों का बहुत सुख) कहते हैं। इसी नियम के अनुसार यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय, और इसी प्रकार बीमार आदमियों को (यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड़ जाने का भय हो) अपने शत्रुओं को, चोरों को और (यदि बिना बोले काम न सिमटता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करें, उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है। मिल के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी इसी अपवाद का समावेश किया गया है। इन अपवादों के अतिरिक्त सिजवकि अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि ‘‘यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिए, तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्यवाही गुप्त रखनी पड़ती है, वे औरों के साथ तथा व्यापारी अपने ग्राहकों से हमेशा सच ही बोला करें’’। किसी अन्य स्थान में वह लिखता है कि यही रियायत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है। लेस्ली स्टीफ़न नाम का एक और अंग्रेज़ ग्रंथकार है। उसने नीतिशास्त्र का विवेचन आधिभौतिक दृष्टि से किया है। वह भी अपने ग्रंथ में ऐसे ही उदाहरण देकर अन्त में लिखता है कि, ‘‘किसी कार्य के परिणाम की ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिए। यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूठ बोलने से ही कल्याण होगा, तो मैं सत्य बोलने के लिए कभी तैयार ही नहीं रहूंगा। मेरे यह विश्वास से यह भाव भी हो सकता है कि, इस समय झूठ बोलना ही मेरा कर्त्तव्य है।’’ ग्रीन साहब ने नीतिशास्त्र का विचार आध्यात्मिक दृष्टि से किया है। आप उक्त प्रसंगों का उल्लेख करके स्पष्ट रीति से कह सकते हैं कि ऐसे समय नीतिशास्त्र मनुष्य के संदेह की निवृत्ति कर नहीं सकता। अन्त में आपने यह सिद्धान्त लिखा है कि, ‘‘नीतिशास्त्र यह नहीं कहता कि किसी साधारण नियम के अनुसार, सिर्फ़ यह समझकर कि वह नियम है, हमेशा चलने में कुछ विशेष महत्व है; किन्तु उसका कथन सिर्फ़ यही है कि सामान्यतः उस नियम के अनुसार चलना हमारे लिए श्रेयस्कर है। इसका कारण यह है कि ऐसे समय हम लोग केवल नीति के लिए अपनी लोभमूलक नीच मनोवृत्तियों को त्यागने की शिक्षा पाया करते हैं।’’ नीतिशास्त्र पर ग्रंथ लिखने वाले बेन, बेबेल आदि अन्य अंग्रेज़ पंडितों का भी ऐसा ही मत है।<br>यदि उक्त अंग्रेज़ ग्रंथकारों के मतों की तुलना हमारे धर्मशास्त्रकारों के बनाए हुए नियमों के साथ की जाए, तो यह बात सहज ही ध्यान में आ जाएगी कि सत्य के विषय में अभिमानी कौन है। इसमें संदेह नहीं है कि हमारे शास्त्रों में कहा है किः–<br>न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले।<br>प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।।<br>अर्थात्; ‘‘हँसी में स्त्रियों के साथ, विवाह के समय जब जान पर आ बने तब और सम्पत्ति की रक्षा के लिए झूठ बोलना पाप नहीं है’’ (मभा. आ. 82.19; और शा. 109 तथा मनु. 8.110) । परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्रियों के साथ हमेशा झूठ ही बोलना चाहिए। जिस भाव से सिजविक साहब ने ‘छोटे लड़के, पागल और बीमार आदमी’ के विषय में अपवाद कहा है, वही भाव महाभारत के उक्त कथन का भी है। अंग्रेज़ ग्रंथकार पारलौकिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। उन लोगों ने तो खुल्लम–खुल्ला यहाँ तक प्रतिपादन किया है कि व्यापारियों का अपने लाभ के लिए झूठ बोलना अनुचित नहीं है। किन्तु यह बात हमारे शास्त्रकारों को सम्मत नहीं है। इन लोगों ने कुछ ऐसे ही मौकों पर झूठ बोलने की अनुमति दी है, जबकि केवल सत्य शब्दोच्चारण (अर्थात् केवल वाचिक सत्य) और सर्वभूतहित (अर्थात् वास्तविक सत्य) में विरोध हो जाता है और व्यवहार की दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है। इनकी राय है कि सत्य आदि नीतिधर्म नित्य, अर्थात् सब समय एक समान अबाधित हैं; अतएव यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा–सा पाप ही है और इसी लिए प्रायश्चित भी कहा गया है। संभव है कि आजकल के आदिभौतिक पंडित इन प्रायश्चितों को निरर्थक हौवा कहेंगे; परन्तु जिन्होंने ये प्रायश्चित कहे हैं और जिन लोगों के लिए ये कहे गए हैं, वे दोनों ऐसा नहीं समझते। वे तो उक्त सत्य–अपवाद को गौण ही मानते हैं। और इस विषय की कथाओं में भी यही अर्थ प्रतिपादित किया गया है। देखिए, युधिष्ठिर ने संकट के समय एक ही बार दबी हुई आवाज से ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहा था। इसका फल यह हुआ कि उसका रथ, जो पहले जमीन से एक अंगुल ऊपर चलता था, अब और मामूली लोगों के रथों के समान धरती पर चलने लगा। और अन्त में एक क्षण भर के लिए उसे नरकलोक में रहना पड़ा (मभा. द्रोण. 191.57, 58 तथा स्वर्गा. 3.15)। दूसरा उदाहरण अर्जुन का ही ले लीजिए। अश्वमेधपर्व (81.10) में लिखा है कि यद्यपि अर्जुन ने भीम का वध क्षात्रधर्म के अनुसार किया था, तथापि उसने शिखंडी के पीछे छिपकर यह काम किया था। इसी लिए उसको अपने पुत्र बभ्रुवाहन से पराजित होना पड़ा। इन सब बातों से यही प्रगट होता है कि विशेष प्रसंगों के लिए कहे गए उक्त अपवाद मुख्य या प्रमाण नहीं माने जा सकते। हमारे शास्त्रकारों का अंतिम और तात्विक सिद्धान्त वही है जो महादेव ने पार्वती से कहा हैः–<br>आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात्तथा।<br>ये मृषा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः।।<br>अर्थात्; ‘‘जो लोग इस जगत में स्वार्थ के लिए, परार्थ के लिए या मजाक में भी कभी झूठ नहीं बोलते, इन्हीं को स्वर्ग की प्राप्ति होती है’’ (मभा. अनु. 144.19)।<br>अपनी प्रतिज्ञा या वचन को पूरा करना सत्य ही में शामिल है। भगवान श्रीकृष्ण और भीष्म पितामह कहते हैं, ‘‘चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से हट जाए, परन्तु हमारा वचन टल नहीं सकता’’ (मभा. आ. 103 तथा उ. 81.48)। भर्तहरि ने भी सत्पुरूषों का वर्णन इस प्रकार किया हैः–<br>तेजस्विनः सुखमसूनपि सत्यंजन्ति सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्।।<br>अर्थात्; ‘‘तेजस्वी पुरूष आनन्द से अपनी जान भी देंगे, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा का त्याग कभी नहीं करेंगे’’ (नीतिश. 110)। इसी तरह श्रीरामचंद्र जी के एक–पत्नीव्रत के साथ उनका एक बाण और एक वचन का व्रत भी प्रसिद्ध है। जैसा इस सुभाषित में कहा है, ‘‘द्विःशरं नाभिसंघत्ते रामो द्विर्नाभिभाषते’’, हरिश्चन्द्र ने तो अपने स्वप्न में दिए हुए वचन को सत्य करने के लिए डोम की नीच सेवा भी की थी। इसके उलटा, वेद में यह वर्णन है कि इन्द्रादि देवतोओं ने वृत्तासुर के साथ जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन्हें मेट दिया और उसको मार डाला। ऐसी ही कथा पुराणों में हिरण्यकशिपु की है। व्यवहार में भी कुछ कौल–क़रार ऐसे होते हैं कि जो न्यायालय में बे–कायदा समझे जाते हैं या जिनके अनुसार चलना अनुचित माना जाता है। अर्जुन के विषय में ऐसी ही एक कथा महाभारत (कर्ण .69) में है। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मुझसे कहेगा कि ‘‘तू अपना गांडीव धनुष किसी दूसरे को दे दे! उसका सिर में तुरन्त ही काट डालूँगा।’’ इसके बाद युद्ध में जब युधिष्ठिर कर्ण से पराजित हुए तब उन्होंने निराश होकर अर्जुन से कहा, ‘‘तेरा गांडीव हमारे किस काम का है? तू उसे छोड़ दे दे!’’ यह सुनकर अर्जुन हाथ में तलवार ले युधिष्ठिर को मारने दौड़ा। उस समय भगवान श्रीकृष्ण वहीं थे। उन्होंने तत्वज्ञान की दृष्टि से सत्य धर्म का मार्मिक विवेचन करके अर्जुन को यह उपदेश दिया कि, ‘‘तू मूड़ है, तुझे अब तक सूक्ष्म–धर्म मालूम नहीं हुआ है। तुझे वृद्ध जनों से इस विषय की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, ‘न वृद्धाः सेवितास्त्वया’ – तूने वृद्ध जनों की सेवा नहीं की है। यदि तू प्रतिज्ञा की रक्षा करना ही चाहता है तो युधिष्ठिर की निर्भर्त्सना कर, क्योंकि सभ्य जनों की निर्भर्त्सना मृत्यु ही के समान है।’’ इस प्रकार बोध करके उन्होंने अर्जुन को ज्येष्ठभ्रातृवध के पाप से बचाया। इस समय भगवान श्रीकृष्णा ने जो सत्यानृत–विवेक अर्जुन को बताया है, उसी को आगे चलकर शांतिपर्व के सत्यानृत नामक अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है (शां. 109)। यह उपदेश व्यवहार में लोगों के ध्यान में रहना चाहिए। इसमें संदेह नहीं है कि इन सूक्ष्म प्रसंगों को जानना बहुत ही कठिन काम है। देखिए, इस संसार में सत्य की अपेक्षा भ्रातृधर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है; और गीता में यह निश्चित किया गया है कि बंधुप्रेम की अपेक्षा क्षात्रधर्म प्रबल है।<br>जब अहिंसा और सत्य के विषय में इतना वाद–विवाद है तब आश्चर्य की बात नहीं कि यही हाल नीतिधर्म के तीसरे तत्व, अर्थात् अस्तेय का भी हो। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि न्याय–पूर्वक प्राप्त की हुई किसी की सम्पत्ति को चुरा ले जाने या लूट लेने की स्वतंत्रता दूसरों को मिल जाए तो द्रव्य का संचय करना बंद हो जाएगा, समाज की रचना बिगड़ जाएगी, चारों तरफ अनवस्था हो जाएगी और सभी की हानि होगी। परन्तु इस समय के भी अपवाद हैं। जब दुर्भिक्ष के समय मोल लेने, मज़दूरी करने या भिक्षा मांगने से भी अनाज नहीं मिलता; तब ऐसी आपत्ति में यदि कोई मनुष्य चोरी करके आत्म–रक्षा करे, तो क्या वह पापी समझा जाएगा? महाभारत (शां. 141) में यह कथा है कि किसी समय बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहा और विश्वामित्र पर बहुत बड़ी आपत्ति आई। तब उन्होंने किसी श्वपच (चांडाल) के घर से कुत्ते का मांस चुराया और वे इस अभक्ष्य भोजन से अपनी रक्षा करने के लिए प्रवृत्त हुए। उस समय श्वपच ने विश्वामित्र को ‘‘पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः’’ (मनु. 5.18) इत्यादि ‘शास्त्रार्थ बतला कर अभक्ष्य–भक्षण; और वह भी चोरी से न करने के विषय में बहुत उपदेय किया। परन्तु विश्वामित्र ने उसको डाँट कर यह उत्तर दियाः–<br>पिबन्त्येवोदकं गावो मंडूकेषु रूवत्स्वपि।<br>न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः।।<br>‘‘अरे! यद्यपि मेढ़क टर्र–टर्र किया करते हैं तो भी गौएँ पानी पीना बंद नहीं करतीं। चुप रह! मुझको धर्म–ज्ञान बताने का तेरा अधिकार नहीं है। व्यर्थ अपनी प्रशंसा मत कर।’’ उसी समय विश्वामित्र ने यह भी कहा कि ‘‘जीवितं मरणात्श्रेयो जीवन्धर्ममवाप्नुयात्’’ – अर्थात्; यदि जिंदा रहेंगे तो धर्म का आचरण कर सकेंगे; इसी लिए धर्म की दृष्टि से मरने की अपेक्षा जीवित रहना अधिक श्रेयस्कर है। मनु जी ने अजीगर्त, वामदेव आदि अन्यायी ऋषियों के उदाहरण दिए हैं जिन्होंने ऐसे संकट के समय में इसी प्रकार आचरण किया है (मनु. 10.105–108)। हाब्स नामक अंग्रेज़ ग्रंथकार लिखता है कि ‘‘किसी कठिन अकाल के समय जब अनाज मोल न मिले या दान भी न मिले, तब यदि पेट भरने के लिए कोई चोरी या साहस कर्म करे, तो उसका यह अपराध माफ़ समझा जाता है।’’ और मिल ने तो यहाँ तक लिखा है कि ऐसे समय चोरी करके अपना जीवन बचाना मनुष्य का कर्त्तव्य है।<br>‘मरने से जिंदा रहना श्रेष्ठ है’ – क्या विश्वामित्र का यह तत्व सर्वथा अपवाद–रहित कहा जा सकता है? नहीं! इस जगत में सिर्फ़ जिन्दा रहना ही कुछ पुरूषार्थ नहीं है। कौए भी काक–बलि खा कर कई वर्ष तक जीते रहते हैं। यही सोचकर वीरपत्नी विदुला अपने पुत्र से कहती है कि बिछौने पर पड़े–पड़े सड़ जाने या घर में सौ वर्ष की आयु को व्यर्थ व्यतीत करने की अपेक्षा, यदि तू एक क्षण भी अपने पराक्रम की ज्योति प्रगट करके मर जाएगा तो अच्छा होगा – ‘‘मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरं’’ (मभा. उ. 132.15)। यदि यह बात सच है कि आज नहीं तो कल, अंत में सौ वर्ष के बाद मरना जरूर है (भाग. 10.1.38; गी. 2.27); तो फिर उसके लिए रोने या डरने से क्या लाभ है? आध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से तो आत्मा नित्य और अमर है; इसलिए मृत्यु का विचार करते समय, सिर्फ़ इस शरीर का ही विचार करना बाकी रह जाता है। अच्छा; यह तो सब जानते हैं कि यह शरीर नाशवान है। परन्तु आत्मा के कल्याण के लिए इस जगत में जो कुछ करना है, उसका एकमात्र साधन यही नाशवान मनुष्य–देह है। इसी लिए मनु ने कहा है कि ‘‘आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि’’ – अर्थात्; स्त्री और सम्पत्ति की अपेक्षा हमको पहले स्वयं अपनी ही रक्षा करनी चाहिए (मनु. 7.213)। यद्यपि मनुष्य–देह दुर्लभ और नाशवान भी है, तथापि जब उसका नाश करके उससे भी अधिक किसी शाश्वत वस्तु की प्राप्ति कर लेनी होती है (जैसे देश, धर्म और सत्य के लिए अपनी प्रतिज्ञा, व्रत और विरद की रक्षा के लिए एवं इज्ज़त, कीर्ति और सर्वभूत–हित के लिए) तब, ऐसे समय पर अनेक महात्माओं ने इस तीव्र कर्त्तव्याग्नि में आनन्द से अपने प्राणों की भी आहुति दे दी है। जब राजा दिलीप अपने गुरू वशिष्ठ की गाय की रक्षा करने के लिए, सिंह को अपने शरीर का बलिदान देने को तैयार हो गया, तब वह सिंह से बोला कि ‘‘हमारे समान पुरूषों की इस पाञ्चभौतिक शरीर के विषय में अनावस्था रहती है, अतएव तू मेरे इस जड़ शरीर के बदले मेरे यश रूपी शरीर की ओर ध्यान दे’’ (रघु. 2.57)। कथासरित्–सागर और नागानन्द नाटक में यह वर्णन है कि सर्पों की रक्षा करने के लिए जीमूतवाहन ने गरूड़ को स्वयं अपना शरीर अर्पण कर दिया। मृच्छकटिक नाटक (10.27) में चारूदत्त कहता हैः–<br>न भीतो मरणादस्मि केवलं दूषितं यशः।<br>विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्रजन्मसमः किलं।।<br>‘‘मैं मृत्यु से नहीं डरता; मुझे यही दुःख है कि मेरी कीर्ति कलंकित हो गई। यदि कीर्ति शुद्ध रहे और मृत्यु भी आ जाए, तो मैं उसको पुत्र के उत्सव के समान मानूंगा।’’ इसी तत्व के आधार पर महाभारत (1.100 तथा 131; शां. 342) में राजा शिबि और दधीचि ऋषि की कथाओं का वर्णन किया है। जब धर्मराज (यमराज) श्येन पक्षी का रूप धारण करके, कपोत के पीछे उड़े और जब वह कपोत अपनी रक्षा के लिए राजा शिबि की शरण में गया तब राजा ने स्वयं अपने शरीर का मांस काटकर उस श्येन पक्षी को दे दिया और शरणागत कपोत की रक्षा की। वृत्तासुर नाम का देवताओं का एक शत्रु था। उसको मारने के लिए दधीचि ऋषि की हड्डियों के वज्र की आवश्यकता हुई। तब सब देवता मिलकर उक्त ऋषि के पास गए और बोले ‘‘शरीरत्यागं लोकहितार्थ भवान् कर्तुमर्हति’’ – हे महाराज! लोगों के कल्याण के लिए आप देह का त्याग कीजिए। यह विनती सुन दधीचि ऋषि ने बड़े आनन्द से अपना शरीर त्याग दिया और अपनी हड्डियाँ देवताओं को दे दीं। एक समय की बात है कि इन्द्र, ब्राह्मण का रूप धारण करके दानशूर कर्ण के पास कवच और कुण्डल मांगने आए। कर्ण इन कवच–कुण्डलों को पहने हुए ही जन्मा था। जब सूर्य ने जाना कि इन्द्र कवच–कुण्डल मांगने जा रहा है, तब उसने पहले ही से कर्ण को सूचना दे दी थी कि तुम अपने कवच–कुण्डल किसी को दान मत देना। यह सूचना देते समय सूर्य ने कर्ण से कहा कि ‘‘इसमें संदेह नहीं है कि तू बड़ा दानी है, परन्तु यदि तू अपने कवच–कुण्डल दान में दे देगा तो तेरे जीवन ही की हानि हो जाएगी। इसलिए तू इन्हें किसी को न देना। मर जाने पर कीर्ति का क्या उपयोग है? – मृतस्य कीर्त्या किं कार्यम्’’ । यह सुनकर कर्ण ने स्पष्ट उत्तर दिया कि ‘‘जीवितेनापि मे रक्ष्या कीर्तिस्तद्विद्धि मे व्रतम्’’ – अर्थात्; जान चली जाए तो भी कुछ परवाह नहीं। परन्तु अपनी कीर्ति की रक्षा करना ही मेरा व्रत है (मभा. 1.299.38)। सारांश यह है कि ‘‘यदि मर जाएगा तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी और जीत जाएगा तो पृथ्वी का राज्य मिलेगा’’ इत्यादि क्षात्र–धर्म (गी. 2.37) और स्वधर्मे निधनं श्रेयः’’ (गी. 3.35) यह सिद्धांत उक्त तत्व पर ही अवलंबित है। इसी तत्व के अनुसार श्री समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं ‘‘कीर्ति की ओर देखने से सुख नहीं है और सुख की ओर देखने से कीर्ति नहीं मिलती (दास. 12.10.19; 18.10.25); और वे उपदेश भी करते हैं कि ‘‘हे सज्जन मन! ऐसा काम करो जिससे मरने पर कीर्ति बनी रहे।’’ यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यद्यपि परोपकार से कीर्ति होती है तथापि मृत्यु के बाद कीर्ति का क्या उपयोग है? अथवा किसी सभ्य मनुष्य को अपकीर्ति की अपेक्षा मर जाना (गी. 2.34); या जिंदा रहने से परोपकार करना अधकि प्रिय क्यों होना चाहिए? इस प्रश्न का उचित उत्तर देने के लिए आत्म–अनात्म विचार में प्रवेश करना होगा। और इसी के साथ कर्म–अकर्म शास्त्र का भी विचार करके यह जान लेना होगा कि किस मौके पर जान देने के लिए तैयार होना उचित या अनुचित है। यदि इस बात का विचार नहीं किया जाएगा तो जान देने से यश की प्राप्ति तो दूर ही रही, परन्तु मूर्खता से आत्महत्या करने का पाप मत्थे चढ़ जाएगा।<br>माता, पिता, गुरू आदि वन्दनीय और पूजनीय पुरूषों की पूजा तथा शुश्रूषा करना भी सर्वमान्य धर्मों में से एक प्रधान धर्म समझा जाता है। यदि ऐसा न हो तो कुटुंब, गुरूकुल और सारे समाज की व्यवस्था ठीक–ठीक कभी रह न सकेगी। यही कारण है कि सिर्फ़ स्मृति–ग्रंथों ही में नहीं, किंतु उपनिषदों में भी ‘‘सत्यं वद, धर्मं चर’’ कहा गया है। और जब शिष्य का अध्ययन पूरा हो जाता और वह अपने घर जाने लगता, तब प्रत्येक गुरू का यही गुरू का यही उपदेश होता था कि ‘‘मातृ देवो भव पितृ देवो भव’’ (तै. 1.11.1 और 2)। महाभारत के ब्राह्मण–व्याध आख्यान का तात्पर्य भी यही है (वन. अ. 213)। परंतु इस धर्म में भी कभी–कभी अकल्पित बाधा खड़ी हो जाती है। देखिए, मनु जी कहते हैं (2.145)–<br>उपाध्यायान्दशाचार्यः आचार्याणां शतं पिता।<br>सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।।<br>‘‘दस उपाध्यायों से आचार्य और सौ आचार्यों से पिता एवं हजार पिताओं से माता का गौरव अधिक है।’’ इतना होने पर भी यह कथा प्रसिद्ध है (वन. 119.14) कि परशुराम की माता ने कुछ अपराध किया था, इसलिए उसने अपने पिता की आज्ञा से अपनी माता को मार डाला। शांतिपर्व (295) के चिरकारिकोपाख्यान में अनेक साधक–बाधक प्रमाणों सहित इस बात का विस्तृत विवेचन किया गया है कि पिता की आज्ञा से माता का वध करना श्रेयस्कर है या पिता की आज्ञा का भंग करना श्रेयस्कर है। इससे स्पष्ट माना जाता है कि महाभारत के समय ऐसे सूक्ष्म प्रसंगों की नीतिशास्त्र की दृष्टि से चर्चा करने की पद्धति जारी थी। यह बात छोटों से लेकर बड़ों तक सब लोगों को मालूम है कि पिता की प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए पिता की आज्ञा से रामचन्द्र ने चौदह वर्ष तक वनवास किया, परन्तु माता के सम्बन्ध में जो न्याय ऊपर कहा गया है, वही पिता के सम्बन्ध में भी उपयुक्त होने के समय कभी–कभी आ सकता है। जैसे कि मान लीजिए, कोई लड़का अपने पराक्रम से राजा हो गया और उसका पिता अपराधी होकर इंसाफ के लिए उसके सामने लाया गया। इस अवस्था में वह लड़का क्या करे?–राजा के नाते से अपने अपराधी पिता को दण्ड दे या उसको अपना पिता समझकर छोड़ दे? मनु जी कहते हैं: <br>पिताचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।<br>नादण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति।।<br>‘‘पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित – इनमें से कोई भी यदि अपने धर्म के अनुसार न चले तो वह राजा के लिए अदण्ड्य नहीं हो सकता; अर्थात् राजा उसको उचित दण्ड दे’’ (मनु. 8.335; मभा. शां. 121.60)। इस जगह पुत्र धर्म की योग्यता से राजधर्म की योग्यता अधिक है। इस बात का उदाहरण (मभा. व. 107; रामा. 1.38 में) यह है कि सूर्यवंश के महा–पराक्रमी सगर राजा ने असमंजस नामक अपने लड़के को देश से निकाल दिया था; क्योंकि वह दुराचरणी था और प्रजा को दुःख दिया करता था। मनुस्मृति में भी यह कथा है कि आंगिरस नामक एक ऋषि को छोटी अवस्था में ही बहुत ज्ञान हो गया था; इसलिए उसके काका–मामा आदि बड़े बूढ़े नातीदार उसके पास अध्ययन करने लग गए थे। एक दिन पाठ पढ़ाते–पढ़ाते आंगिरस ने कहा ‘‘पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्’’। बस, यह सुनकर सब वृद्धजन क्रोध से लाल हो गए और कहने लगे कि यह लड़का मस्त हो गया है! उसको उचित दण्ड दिलाने के लिए उन लोगों ने देवताओं से शिकायत की। देवताओं ने दोनों ओर का कहना सुन लिया और यह निर्णय लिया कि ‘‘आंगिरस ने जो कुछ तुम्हें कहा, वही न्याय है’’। इसका कारण यह है किः–<br>न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।<br>यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः।।<br>‘‘सिर के बाल सफ़ेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता; देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरूण होने पर भी ज्ञानवान हो’’ (मनु. 2.156 और मभा. 1.133.11; शल्य. 51.47)। यह तत्व मनु जी और व्यास जी ही को नहीं, किंतु बुद्ध को भी मान्य था, क्योंकि मनुस्मृति के इस श्लोक का पहला चरण ‘धम्मपद’* नाम के प्रसिद्ध नीतिविषयक पाली भाषा के बौद्ध ग्रंथ में अक्षरशः आया है (धम्मपद. 290)। और उसके आगे यह भी कहा है कि जो सिर्फ़ अवस्था ही से वृद्ध हो गया है, उसका जीना व्यर्थ है। यथार्थ में धर्मिष्ठ और वृद्ध होने के लिए सत्य, अहिंसा आदि की आवश्यकता है। ‘चुल्लवसा’ नामक दूसरे ग्रंथ (6.13.1) में स्वयं बुद्ध की यह आज्ञा है कि यद्यपि धर्म का निरूपण करने वाला भिक्षु नया हो, तथापि वह ऊँचे आसन पर बैठे और उन वयोवृद्ध भिक्षुओं को भी उपदेश करे जिन्होंने उसके पहले दीक्षा पाई हो। यह कथा सब लोग जानते हैं कि प्रह्लाद ने अपने पिता हिरण्याकश्यपु की अवज्ञा करके भगवत् प्राप्ति कैसे कर ली थी। इससे यह जान पड़ता है कि जब कभी कभी पिता–पुत्र के सर्वमान्य नाते से भी कोई दूसरा अधिक बड़ा सम्बन्ध उपस्थित होता है, तब उतने समय के लिए निरूपार हो कर पिता–पुत्र का नाता भूल जाना पड़ता है। परन्तु ऐसे अवसर के न होते हुए भी, यदि कोई मुँह–जोड़ लड़का उक्त नीति का अवलंब करके, अपने पिता को गालियाँ देने लगे, तो वह केवल पशु के समान समझा जाएगा। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है कि ‘‘गुरूर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः’’ – अर्थात्; गुरू तो माता–पिता से भी अधिक श्रेष्ठ है। परन्तु महाभारत ही में यह भी लिखा है कि एक समय मरूत्त राजा के गुरू ने लोभवश होकर स्वार्थ के लिए उसका त्याग किया तब मरूत्त ने कहाः–<br>गुरूरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।<br>उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।।<br>‘‘यदि कोई गुरू इस बात का विचार न करे कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, और यदि वह अपने ही घमंड में रहकर टेढ़े रास्ते से चले, तो उसका शासन करना उचित है।’’ उक्त श्लोक महाभारत में चार स्थानों में पाया जाता है (आ. 142.52, 53; उ. 179.24; शां. 57.7; 140.48)। इनमें से पहले स्थान में वही पाठ है जो ऊपर दिया गया है; अन्य स्थानों में चौथे चरण के बदले ‘‘दण्डो भवति शाश्वतः’’ अथवा ‘‘परित्यागो विधीयते’’ यह पाठांतर भी है। परंतु बाल्मीकि–रामायण (2.21.13) में जहाँ यह श्लोक है; वहाँ ऐसा ही पाठ है जैसा ऊपर दिया गया है। इसलिए हमने इस ग्रंथ में उसी को स्वीकार किया है। उसी के आधार पर भीष्म पितामह ने परशुराम से और अर्जुन ने द्रोणाचार्य से युद्ध किया। और जब प्रह्लाद ने देखा कि अपने गुरू, जिन्हें हिरण्यकशिपु ने नियत किया है, भगवत्प्राप्ति के विरूद्ध उपदेश कर रहे हैं; तब उसने इसी तत्व के अनुसार उसका निषेध किया है। शांतिपर्व में स्वयं भीष्म पितामह श्रीकृष्ण से कहते हैं कि यद्यपि गुरू लोग पूजनीय हैं तथापि उनको भी नीति की मर्यादा का अवलंब करना चाहिए; नहीं तो–<br>समयत्यागिनो लुब्धान् गुरूनपि च केशव।<br>निहन्ति समरे पापान् क्षत्रियः स हि धर्मवित्।।<br>‘‘हे केशव! जो गुरू मर्यादा, नीति अथवा शिष्टाचार का भंग करते हैं और जो लोभी या पापी हैं, उन्हें लड़ाई में मारने वाला क्षत्रिय ही धर्मज्ञ कहलाता है’’ (शां. 55.19)। इसी तरह तैत्तिरीयोपनिषद में भी प्रथम ‘‘आचार्य देवो भव’’ कहकर उसी के आगे कहा है कि हमारे जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो, औरों का नहीं, – ‘‘यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि’’–(तै. 1.11.2)। इससे उपनिषदों का यह सिद्धान्त प्रगट होता है कि यद्यपि पिता और आचार्य को देवता के समान मानना चाहिए, तथापि यदि वे शराब पीते हों तो पुत्र और छात्र को अपने पिता या आचार्य का अनुकरण नहीं करना चाहिए; क्योंकि नीति, मर्यादा और धर्म का अधिकार मां–बाप या गुरू से भी अधिक बलवान होता है। मनु जी की निम्न आज्ञा का भी यही रहस्य है – ‘‘धर्म की रक्षा करो; यदि कोई धर्म का नाश करेगा, अर्थात् धर्म की आज्ञा के अनुसार आचरण नहीं करेगा, तो वह उस मनुष्य का नाश किए बिना नहीं रहेगा’’ (मनु. 8.14–16)। राजा तो गुरू से भी अधिक श्रेष्ठ एक देवता है (मनु. 7.8 और मभा. शां. 68.40)। परंतु वह भी इस धर्म से मुक्त नहीं हो सकता; यदि वह इस धर्म का त्याग कर देगा तो उसका नाश हो जाएगा; यह बात मनुस्मृति में कही गई है और महाभारत में वही भाव, वेन तथा खनीनेत्र राजाओं की कथा में व्यक्त किया गया है (मनु. 7.41 और 8.128; मभा. शां. 59.92–100 तथा अश्व. 4)।<br>अहिंसा, सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रिय–निग्रह की भी गणना सामान्य धर्म में की जाती है (मनु. 10.93)। काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के शत्रु हैं, इसलिए जब तक मनुष्य इनको जीत नहीं लेगा, तब तक समाज का कल्याण नहीं होगा। यह उपदेश सब शास्त्रों में किया गया है। विदुरनीति और भगवद्गीता में भी कहा हैः–<br>त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशकमात्मनः।<br>कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्।।<br>‘‘काम, क्रोध और लोभ ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। इनसे हमारा नाश होता है, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए’’ (गीता. 19.21; मभा. उ. 32.70)। परन्तु गीता ही में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का यह वर्णन किया है ‘‘धर्माविरूद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ’’ – हे अर्जुन! प्राणीमात्र में जो ‘काम’ धर्म के अनुकूल है वही मैं हूँ (गीता. 7.11)। इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो ‘काम’ धर्म के विरूद्ध है, वही नरक का द्वार है, उसके अतिरिक्त जो दूसरे प्रकार का ‘काम’ है अर्थात् जो कि धर्म के अनुकूल है, वह ईश्वर को मान्य है। मनु ने भी यही कहा है ‘‘परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ’’ – जो अर्थ और काम, धर्म के विरूद्ध हों, उनका त्याग कर देना चाहिए (मनु. 4.179)। यदि सब प्राणी कल से ‘काम’ का त्याग कर दें और मृत्युपर्यंत ब्रह्मचर्य–व्रत से रहने का निश्चय कर लें, तो सौ–पचास वर्ष ही में सारी सजीव सृष्टि का लय हो जाएगा। और जिस सृष्टि की रचना के लिए भगवान बार–बार अवतार धारण करते हैं, उसका अल्पकाल ही में उच्छेद हो जाएगा।<br>यह बात सच है कि काम और क्रोध मनुष्य के शत्रु हैं; परन्तु कब? जब वे अनिवार्य हो जाएँ तब। यह बात मनु आदि शास्त्रकारों को सम्मत है कि सृष्टि का काम जारी रखने के लिए उचित मर्यादा के भीतर काम और क्रोध की अत्यंत आवश्यकता है (मनु. 5.59)। इन प्रबल मनोवृत्तियों का उचित रीति से निग्रह करना ही सब सुधारों का प्रधान उद्देश्य है। उनका नाश करना कोई सुधार नहीं कहा जा सकता; क्योंकि भागवत (11.5.11) में कहा गया है किः–<br>लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना।<br>व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा।।<br>‘‘इस दुनिया में किसी से यह कहना नहीं पड़ता है कि तुम मैथुन, मांस और मदिरा का सेवन करो; ये बातें मनुष्य को स्वभाव ही से पसंद हैं। इन तीनों की कुछ व्यवस्था कर देने के लिए अर्थात्, इनके उपयोग को कुछ मर्यादित करके व्यवस्थित कर देने के लिए (शास्त्रकारों ने) अनुक्रम से विवाह, सोमयाग और सौत्रामणी यज्ञ की योजना की है। परन्तु इस पर भी निवृत्ति अर्थात् निष्काम आचरण इष्ट है।’’ यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जब ‘निवृत्ति’ शब्द का सम्बन्ध पञ्चम्यन्त पद के साथ होता है तब उसका अर्थ ‘‘अमुक वस्तु से निवृत्ति अर्थात् अमुक क्रम का सर्वथा त्याग’’ हुआ करता है; तो कर्म योग में ‘निवृत्ति’ विशेषण कर्म ही के लिए उपयुक्त हुआ है, इसलिए ‘निवृत्त कर्म’ का अर्थ ‘निष्काम बुद्धि से किया जाने वाला कर्म’ होता है। यही अर्थ मनुस्मृति और भागवत पुराण में स्पष्ट रीति से पाया जाता है (मनु. 12.89; भाग 11.10.1 और 7.15.47)। क्रोध के विषय में किरातकाव्य में (1.33) भारवि का कथन है किः–<br>अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः।<br>‘‘जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वेष दोनों ही बराबर हैं’’। क्षात्रधर्म के अनुसार देखा जाए तो बिदुला ने यही कहा है किः–<br>एतावानेव पुरूषो यदमर्षी यदक्षमी।<br>क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान्।।<br>‘‘जिस मनुष्य को (अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता, वही पुरूष कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ़ नहीं है वह नपुंसक ही के समान है’’ (मभा. उ. 132.33)। इस बात का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है कि इस जगत के व्यवहार के लिए न तो सदा तेज या क्रोध ही उपयोगी है और न ही क्षमा। यही बात लोभ के विषय में भी कही जा सकती है क्योंकि सन्यासी को भी मोक्ष की इच्छा होती ही है।<br>व्यास जी ने महाभारत में अनेक स्थानों पर भिन्न–भिन्न कथाओं के द्वारा यह प्रतिपादन किया है कि शूरता, धैर्य, दया, शील, मित्रता, समता आदि सब सद्गुण, अपने–अपने विरूद्ध गुणों के अतिरिक्त देशकाल आदि से मर्यादित हैं। यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एक ही सद्गुण सभी समय शोभा देता है। भर्तृहरि का कथन हैः–<br>विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।<br>‘‘संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय (अर्थात् जब शासन करने का सामर्थ्य हो तब) क्षमा, सभा में वक्तृता और युद्ध में शूरता शोभा देती है’’ (नीति. 93)। शांति के समय ‘उत्तर’ के समान बक–बक करने वाले पुरूष कुछ कम नहीं हैं। घर बैठे–बैठे अपनी स्त्री की नथनी में से तीर चलाने वाले कर्मवीर बहुतेरे होंगे; उनमें से रणभूमि पर धनुर्धर कहलाने वाला एक–आध ही देख पड़ता है! धैर्य आदि सद्गुण ऊपर लिखे समय पर ही शोभा देते हैं। इतना ही नहीं; किन्तु ऐसे मौकों के बिना उनकी सच्ची परीक्षा भी नहीं होती। सुख के साथी तो बहुतेरे हुए करते हैं; परन्तु ‘‘निकषग्रावा तु तेषां विपत्’’ – विपत्ति ही उनकी परीक्षा की सच्ची कसौटी है।<br><br>
 

०६:०८, ४ मार्च २०१० का अवतरण

कर्म योग गीता

बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।<balloon title="पंडितों को भी इस विषय में मोह हो जाया करता है कि कर्म कौन–सा है, और अकर्म कौन–सा है। इस स्थान पर अकर्म शब्द को ‘कर्म के अभाव’ और ‘बुरे कर्म’ दोनों अर्थों में यथासम्भव लेना चाहिए।" style=color:blue>*</balloon>- गीता 4.16।
भगवद्गीता के आरम्भ में परस्पर–विरूद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौका आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो सन्यास लेकर और संसार को छोड़कर वन में चले जाते हैं अथवा जो कमजोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रहकर ही जिन महान तथा कार्यकर्त्ता पुरूषों को अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं।
उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं¬¬? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।
‘कोरियोलेनस’ नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा’’। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाजे के पास आ पहुँचा। उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके मातृभूमि के सम्बन्ध में उसको उपदेश दिया। अंत में उसको रोम के शत्रुओं को दिए हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाए जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई अवश्यकता नहीं। हमारा महाभारत ग्रंथ ऐसे अनेकों उदाहरणों की एक बड़ी खान ही है। ग्रंथ के आरम्भ (आ. 2) में वर्णन करते हुए स्वंय व्यास जी ने उसको ‘सूक्ष्मार्थन्याययुक्तं’, ‘अनेकसमयान्वितं’ आदि विशेषण दिए गए हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गायी गयी है कि ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्’’। अर्थात्; जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में भी है, और जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है (आ. 62.53)। सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े–बड़े प्राचीन पुरूषों ने कैसा बर्ताव किया, इसका सुलभ आख्यानों के द्वारा साधाराणजनों को बोध करा देने के लिए ही ‘भारत’ का ‘महाभारत’ हो गया है। नहीं तो सिर्फ ‘भारतीय युद्ध’ अथवा ‘जय’ नामक इतिहास का वर्णन करने के लिए अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी।

अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिए; हमारे–तुम्हारे लिए इतने गहरे पानी में बैठने की क्या आवश्यकता है? क्या मनु आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात स्पष्ट नियम नहीं बना दिए हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करे? किसी की हिंसा मत करो, नीति से चलो, सच बोलो, गुरू और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय तो ऊपर लिखे कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के झगड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता है? परंतु इसके विरूद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि जब तक इस संसार के सब लोग उक्त आज्ञाओं के अनुसार बर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सज्जनों को क्या करना चाहिए? क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण दुष्टजनों के फंदे में अपने को फँसा लें? या अपनी रक्षा के लिए ‘‘जैसे को तैसा’’ होकर उन लोगों का प्रतिकार करें? इसके सिवाय एक बात और भी है। यद्यपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाणभूत मान लें, तथापि कार्य–कर्त्ताओं को अनेक बार ऐसे मौके आते हैं कि उस समय उक्त साधारण नियमों में से दो या दो से अधिक नियम एकदम लागू होते हैं। उस समय ‘‘यह करूं या वह करूं’’ इस चिन्ता में पड़कर मनुष्य पागल–सा हो जाता है। अर्जुन पर ऐसा ही मौका आ पड़ा था। परन्तु अर्जुन के सिवाय और लोगों पर भी ऐसे कठिन अवसर अक्सर आया करते हैं। इस बात का मार्मिक विवेचन महाभारत में कई स्थानों पर किया गया है। उदाहरणार्थ; मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिए नीतिधर्म के पाँच नियम बतलाए हैं–‘‘अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:’’ (मनु 10.63)। अर्थात्; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया वाचा और मन की शुद्धता, एवं इन्द्रिय–निग्रह। इन नीतिधर्मों में से एक अहिंसा का ही विचार कर लीजिए। ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ (मभा. आ. 11.13) यह तत्व सिर्फ़ हमारे वैदिक धर्म में ही नहीं, किंतु अन्य सब धर्मों में भी प्रधान माना गया है।
बौद्ध और ईसाई धर्म–ग्रंथों में जो आज्ञाएँ हैं उनमें अहिंसा को मनु की आज्ञा के समान पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ़ किसी की जान ले लेना ही हिंसा नहीं है। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को दु:ख देने का भी समावेश किया जाता है। अर्थात् किसी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दु:खी न करना ही अहिंसा है। इस संसार में सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिए कि हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाए और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो; तो उस समय हमें क्या करना चाहिये? क्या ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ कहकर ऐसे आततायी मनुष्य की उपेक्षा की जाय? या, यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय? मनु जी कहते हैं–