"गीता कर्म योग" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
पंक्ति ३०: पंक्ति ३०:
 
<poem>'''वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः सृताः।'''
 
<poem>'''वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः सृताः।'''
 
'''तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।'''</poem>
 
'''तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।'''</poem>
 +
अर्थात्; ‘‘मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिए शब्द के समान अन्य कोई साधन नहीं है। वही सब व्यवहारों का आश्रय–स्थान और वाणी का मूल स्त्रोत है। जो मनुष्य उसको मलिन कर डालता है, अर्थात् जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूँजी ही की चोरी करता है।’’ इसी लिए मनु ने कहा है कि ‘सत्यपूतां वदेद्वाचं’ (मनु. 6.46) – जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाए। और अन्य धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिए उपनिषद में भी कहा है ‘सत्यं वद। धर्मं चर’ (तै. 1.11.1)। जब बाणों की शैया पर पड़े–पड़े भीष्म पितामह शान्ति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठर को सब धर्मों के उपदेश दे चुके थे, तब प्राण छोड़ने के पहले ‘‘सत्येषु यतितर्व्य वः सत्यं हि परमं बलं’’ इस वचन को सब धर्मों का सार समझ कर उन्होंने सत्य के ही अनुसार व्यवहार करने के लिए सब लोगों को उपदेश किया है (मभा. अनु. 167.50)। बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है।<br />
 +
क्या इस बात की कभी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयंसिद्ध और चिरस्थायी है, उसके लिए भी कुछ अपवाद होंगे? परन्तु दुष्टजनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत ही कठिन है। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किए जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे हैं। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगें कि वे आदमी कहाँ चले गए? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोलकर सब हाल कह दोगे, या उन अपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्व का धर्म है। मनु कहते हैं ‘‘नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः’’ (मनु. 2.110; मभा. शां. 287.34) – जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए। और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे, तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान हूँ–हूँ कर देना और बात को बना देना चाहिए – ‘‘जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्।’’ अच्छा, क्या हूँ–हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है? महाभारत (आ. 215.34) में कई स्थानों में कहा है ‘‘न व्याजेन चरेद्धर्मं’’ धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, अपितु तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा, यदि हूँ– हूँ करके कुछ बात बना लेने का भी समय न हो, तो क्या करना चाहिए? मान लीजिए, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है कि तुम्हारा धन कहीँ है? यदि कुछ उत्तर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिए? सब धर्मों का रहस्य जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण ऐस ही चोरों की कहानी का दृष्टांत देकर कर्णपर्व (69.61) में अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत अध्याय (109.15, 16) में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं–
 +
<poem>'''अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।'''
 +
'''अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरन्वाप्यकूजनात्।'''
 +
'''श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्।।'''</poem>
 +
अर्थात्; ‘‘यह बात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके, तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।’’ इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है, अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ़ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयतार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही है और न ही अहिंसा। शांतिपर्व (329.13; 287.19) में सनत्कुमार के आधार पर नारद जी शुक जी से कहते हैं–
 +
<poem>'''सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।'''
 +
'''यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम।।'''</poem>
 +
‘‘सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सभी प्राणियों का हित हो। क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।’’ ‘यद्भूतहितं’ पद को देखकर आधुनिक उपयोगिता–वादी अंग्रेजों का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रक्षिप्त कहना चाहे, तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि यह वचन महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण और व्याध के संवाद में दो–तीन बार आया है। उनमें से एक जगह तो ‘‘अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम्’’ पाठ है (वन. 209.73), और दूसरी जगह ‘‘यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा’’ (वन.208.4), ऐसा पाठभेद किया गया है। सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहकर उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है, और कुछ नहीं।
 +
 +
ऐसी ही और अन्य बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोलकर किसी खूनी की जान बचायी जाए। शास्त्रों में खून करने वाले आदमी के लिए देहान्त, प्रायश्चित अथवा वधदंड की सज़ा कही गई है, इसी लिए वह सज़ा पाने अथवा वध करने के योग्य है। सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय, अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या और अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है (मनु. 8.89–99; मभा. आ. 7.3)। परन्तु जब कर्णपर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो तो उस समय क्या करना चाहिए? ग्रीन नामक एक अंग्रेज़ ग्रंथकार ने अपने ‘नीतिशास्त्र का उपोद्घात’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। यद्यपि, मनु और याज्ञवल्क्य ऐसे प्रसंगों की गणना सत्यापवाद में करते हैं, तथापि यह भी उसके मत में गौण बात है। इसी लिए अंत में उन्होंने इस अपवाद के लिए भी प्रायश्चित बतलाया है–‘तत्पावनाय निर्वाप्यश्चरूः सारस्वतो द्विजैः (याज्ञ. 2.83; मनु. 8.104–106)।
 +
 +
कुछ बड़े अंग्रेज़ों ने जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोष देने का यत्न किया है। इसीलिए यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक और नीतिशास्त्र के अंग्रेज़ ग्रंथकार क्या कहते हैं। क्राइस्ट का शिष्य पॉल बाइबिल में कहता है कि ‘‘यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात्; ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है), तो इससे मैं पापी क्योंकर हो सकता हूँ’’ (रोम. 3.7)? ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। यह बात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्रज्ञ, किसी को धोखा देकर या भुलाकर धर्म भ्रष्ट करके, न्याय नहीं मानेंगे। परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद–रहित है। उदाहरणार्थ; यह देखिए कि सिजविक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कॉलेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है। कर्म और अकर्म के संदेह का निर्णय, जिस तत्व के आधार पर, यह ग्रंथकार किया करता है, उसको ‘‘सबसे अधिक लोगों का सबसे अधिक सुख’’ (बहुत लोगों का बहुत सुख) कहते हैं। इसी नियम के अनुसार यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय, और इसी प्रकार बीमार आदमियों को (यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड़ जाने का भय हो) अपने शत्रुओं को, चोरों को और (यदि बिना बोले काम न सिमटता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करें, उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है।<balloon title="Sidgwick’s Methods of Ethics, Book III. Chap. XI • 6.p.355 (7th Ed.). Also, see pp.315-317 (same Ed.)." style=color:blue>*</balloon> मिल के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी

११:४४, ४ मार्च २०१० का अवतरण


Logo.jpg पन्ना बनने की प्रक्रिया में है। आप इसको तैयार कर सकते हैं। हिंदी (देवनागरी) टाइप की सुविधा संपादन पन्ने पर ही उसके नीचे उपलब्ध है।

कर्म योग गीता

बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।<balloon title="पंडितों को भी इस विषय में मोह हो जाया करता है कि कर्म कौन–सा है, और अकर्म कौन–सा है। इस स्थान पर अकर्म शब्द को ‘कर्म के अभाव’ और ‘बुरे कर्म’ दोनों अर्थों में यथासम्भव लेना चाहिए।" style=color:blue>*</balloon>- गीता 4.16।
भगवद्गीता के आरम्भ में परस्पर–विरूद्ध दो धर्मों की उलझन में फँस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्त्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौका आ पड़ा था, वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो सन्यास लेकर और संसार को छोड़कर वन में चले जाते हैं अथवा जो कमजोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रहकर ही जिन महान तथा कार्यकर्त्ता पुरूषों को अपने सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरंभ में ही अर्जुन को कर्त्तव्य–जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिए ‘शांति–पर्व’ कहा गया है। कर्माकर्म संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूढ़कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े–बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं।

उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटककार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक ही ले लीजिए। डेनमार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्त्ता अपने भाई हैमलेट के बाप को मार डाला, हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगद्दी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र–धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊँ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गद्दी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं? इस मोह में पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई। श्रीकृष्ण के समान कोई भी मार्ग–दर्शक और हितकर्त्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में ‘जियें या मरें’ इसी बात की चिंता करते–करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है।

‘कोरियोलेनस’ नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह एक और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘‘मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा’’। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाजे के पास आ पहुँचा। उस समय रोम शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके मातृभूमि के सम्बन्ध में उसको उपदेश दिया। अंत में उसको रोम के शत्रुओं को दिए हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के मोह में फँस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाए जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई अवश्यकता नहीं। हमारा महाभारत ग्रंथ ऐसे अनेकों उदाहरणों की एक बड़ी खान ही है। ग्रंथ के आरम्भ (आ. 2) में वर्णन करते हुए स्वंय व्यास जी ने उसको ‘सूक्ष्मार्थन्याययुक्तं’, ‘अनेकसमयान्वितं’ आदि विशेषण दिए गए हैं। उसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र सब कुछ आ गया है। इतना ही नहीं, किंतु उसकी महिमा इस प्रकार गायी गयी है कि ‘‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्’’। अर्थात्; जो कुछ इसमें है वही और स्थानों में भी है, और जो इसमें नहीं है वह और किसी भी स्थान में नहीं है (आ. 62.53)। सारांश यह है कि इस संसार में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसे समय बड़े–बड़े प्राचीन पुरूषों ने कैसा बर्ताव किया, इसका सुलभ आख्यानों के द्वारा साधाराणजनों को बोध करा देने के लिए ही ‘भारत’ का ‘महाभारत’ हो गया है। नहीं तो सिर्फ ‘भारतीय युद्ध’ अथवा ‘जय’ नामक इतिहास का वर्णन करने के लिए अठारह पर्वों की कुछ आवश्यकता न थी।

अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातें छोड़ दीजिए; हमारे–तुम्हारे लिए इतने गहरे पानी में बैठने की क्या आवश्यकता है? क्या मनु आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रंथों में इस बात स्पष्ट नियम नहीं बना दिए हैं कि मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करे? किसी की हिंसा मत करो, नीति से चलो, सच बोलो, गुरू और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय तो ऊपर लिखे कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य के झगड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता है? परंतु इसके विरूद्ध यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि जब तक इस संसार के सब लोग उक्त आज्ञाओं के अनुसार बर्ताव करने नहीं लगे हैं, तब तक सज्जनों को क्या करना चाहिए? क्या ये लोग अपने सदाचार के कारण दुष्टजनों के फंदे में अपने को फँसा लें? या अपनी रक्षा के लिए ‘‘जैसे को तैसा’’ होकर उन लोगों का प्रतिकार करें? इसके सिवाय एक बात और भी है। यद्यपि उक्त साधारण नियमों को नित्य और प्रमाणभूत मान लें, तथापि कार्य–कर्त्ताओं को अनेक बार ऐसे मौके आते हैं कि उस समय उक्त साधारण नियमों में से दो या दो से अधिक नियम एकदम लागू होते हैं। उस समय ‘‘यह करूं या वह करूं’’ इस चिन्ता में पड़कर मनुष्य पागल–सा हो जाता है। अर्जुन पर ऐसा ही मौका आ पड़ा था। परन्तु अर्जुन के सिवाय और लोगों पर भी ऐसे कठिन अवसर अक्सर आया करते हैं। इस बात का मार्मिक विवेचन महाभारत में कई स्थानों पर किया गया है। उदाहरणार्थ; मनु ने सब वर्ण के लोगों के लिए नीतिधर्म के पाँच नियम बतलाए हैं–‘‘अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:’’ (मनु 10.63)। अर्थात्; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया वाचा और मन की शुद्धता, एवं इन्द्रिय–निग्रह। इन नीतिधर्मों में से एक अहिंसा का ही विचार कर लीजिए। ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ (मभा. आ. 11.13) यह तत्व सिर्फ़ हमारे वैदिक धर्म में ही नहीं, किंतु अन्य सब धर्मों में भी प्रधान माना गया है।

बौद्ध और ईसाई धर्म–ग्रंथों में जो आज्ञाएँ हैं उनमें अहिंसा को मनु की आज्ञा के समान पहला स्थान दिया गया है। सिर्फ़ किसी की जान ले लेना ही हिंसा नहीं है। उसमें किसी के मन अथवा शरीर को दु:ख देने का भी समावेश किया जाता है। अर्थात् किसी सचेतन प्राणी को किसी प्रकार दु:खी न करना ही अहिंसा है। इस संसार में सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म सभी धर्मों में श्रेष्ठ माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिए कि हमारी जान लेने के लिए या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिए अथवा हमारे घर में आग लगाने के लिए या हमारा धन छीन लेने के लिए कोई दुष्ट मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाए और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो; तो उस समय हमें क्या करना चाहिये? क्या ‘‘अहिंसा परमो धर्म:’’ कहकर ऐसे आततायी मनुष्य की उपेक्षा की जाय? या, यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय? मनु जी कहते हैं–

गुरूं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।

अर्थात्; ‘‘ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरू है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है’’। शास्त्रकार कहते हैं कि (मनु. 8.350) ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है। आत्मरक्षा का यह हक कुछ मर्यादा के भीतर आधुनिक फौजदारी कानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्मरक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूणहत्या सबसे अधिक निंदनीय मानी गयी है; परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिए? यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी प्रशस्त माना है (मनु. 5.31); परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है (मभा. शा. 337; अनु. 115.59)। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकड़ो जीव–जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है? महाभारत में (शा. 15.29) अर्जुन कहते हैं–

सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।।

अर्थात्; ‘‘इस जगत में ऐसे–ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलाएं तो उतने से ही उन जन्तुओं का नाश हो जाता है’’। ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि ‘‘हिंसा मत करो, हिंसा मत करो’’ तो उससे क्या लाभ होगा? इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में शिकार करने का समर्थन किया गया है। वनपर्व में एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिव्रता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिए उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने उसे किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने माता–पिता का बड़ा पक्का भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्व समझाकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता? ‘‘जीवो जीवस्य जीवनम्’’ (भाग. 1.13.49) – यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपातकाल में तो ‘‘प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्’’ यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों ही ने नहीं (मनु. 5.28; मभा. शा. 15.21) कहा है; किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है (वेसू. 3.4.28; छां. 5.2.1; बृ. 9.1.14) । यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा? यदि क्षात्र धर्म नष्ट हो जाए तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी? सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम– अहिंसा में भी कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है। अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति आदि गुण शास्त्रों आदि में कहे गए हैं; परन्तु सब समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा? सदा शान्त रहने वाले मनुष्यों के बाल–बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किए बिना नहीं रहेंगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रह्लाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा है–

न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।
...
तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता।।

अर्थात्; ‘‘सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसी लिए हे तात! पंडितों ने क्षमा के लिए कुछ अपवाद भी कहे हैं (मभा. वन. 28.6, 8)। इसके बाद कुछ मौकों का वर्णन किया गया है जो क्षमा के लिए उचित हैं; तथापि प्रह्लाद ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि इन मौकों का पहचानने का तत्व या नियम क्या है। यदि इन मौकों को पहचाने बिना, सिर्फ़ अपवादों का ही कोई उल्लेख करे तो वह दुराचरण समझा जाएगा। इसलिए यह जानना अत्यंत आवश्यक और अति महत्वपूर्ण है कि इन मौकों को पहचानने का नियम क्या है।
दूसरा तत्व ‘‘सत्य’’ है, जो कि सब देशों और धर्मों में भली–भाँति माना जाता है और प्रमाण समझा जाता है। सत्य का वर्णन कहाँ तक किया जाए? वेद में सत्य की महिमा के विषय में यह कहा गया है कि सारी सृष्टि की उत्पत्ति के पहले ‘ऋतं’ और ‘सत्य’ उत्पन्न हुए; और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंच महाभूत स्थिर हैं – ‘‘ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’’ (ऋ. 10.190.1), ‘‘सत्येनोत्तभिता भूमिः’’ (ऋ. 10.85.1) । ‘सत्य’ शब्द का धात्वर्थ भी यही है – ‘रहने वाला’ अर्थात्; ‘‘जिसका कभी अभाव न हो’’ अथवा ‘त्रिकाल अभादित’। इसी लिए सत्य के विषय में कहा गया है कि ‘‘सत्य के सिवाय और कोई धर्म नहीं है, सत्य ही परब्रह्म है।’’ महाभारत में कई जगह इस वचन का उल्लेख किया गया है कि ‘नास्ति सत्यात्परो धर्मः’ (शां. 162.24) और यह भी लिखा है किः–

अश्वमेधसहस्त्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्त्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।

अर्थात्; ‘‘हज़ार अश्वमेध और सत्य की तुलना की जाए तो सत्य ही अधिक होगा’’ (आ. 74.102)। यह वर्णन सामान्य सत्य के विषय में हुआ। सत्य के विषय में मनु जी एक विशेष बात और कहते हैं (4.256):-

वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिः सृताः।
तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।

अर्थात्; ‘‘मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिए शब्द के समान अन्य कोई साधन नहीं है। वही सब व्यवहारों का आश्रय–स्थान और वाणी का मूल स्त्रोत है। जो मनुष्य उसको मलिन कर डालता है, अर्थात् जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूँजी ही की चोरी करता है।’’ इसी लिए मनु ने कहा है कि ‘सत्यपूतां वदेद्वाचं’ (मनु. 6.46) – जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाए। और अन्य धर्मों से सत्य ही को पहला स्थान देने के लिए उपनिषद में भी कहा है ‘सत्यं वद। धर्मं चर’ (तै. 1.11.1)। जब बाणों की शैया पर पड़े–पड़े भीष्म पितामह शान्ति और अनुशासन पर्वों में, युधिष्ठर को सब धर्मों के उपदेश दे चुके थे, तब प्राण छोड़ने के पहले ‘‘सत्येषु यतितर्व्य वः सत्यं हि परमं बलं’’ इस वचन को सब धर्मों का सार समझ कर उन्होंने सत्य के ही अनुसार व्यवहार करने के लिए सब लोगों को उपदेश किया है (मभा. अनु. 167.50)। बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी इन्हीं नियमों का वर्णन पाया जाता है।
क्या इस बात की कभी कल्पना की जा सकती है कि, जो सत्य इस प्रकार स्वयंसिद्ध और चिरस्थायी है, उसके लिए भी कुछ अपवाद होंगे? परन्तु दुष्टजनों से भरे हुए इस जगत का व्यवहार बहुत ही कठिन है। कल्पना कीजिए कि कुछ आदमी चोरों से पीछा किए जाने पर तुम्हारे सामने किसी स्थान में जा कर छिप रहे हैं। इसके बाद हाथ में तलवार लिए हुए चोर तुम्हारे पास आकर पूछने लगें कि वे आदमी कहाँ चले गए? ऐसी अवस्था में तुम क्या कहोगे? क्या तुम सच बोलकर सब हाल कह दोगे, या उन अपराधी मनुष्यों की रक्षा करोगे? शास्त्र के अनुसार निरपराधी जीवों की हिंसा को रोकना, सत्य ही के समान महत्व का धर्म है। मनु कहते हैं ‘‘नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः’’ (मनु. 2.110; मभा. शां. 287.34) – जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना नहीं चाहिए। और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे, तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिए। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान हूँ–हूँ कर देना और बात को बना देना चाहिए – ‘‘जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्।’’ अच्छा, क्या हूँ–हूँ कर देना और बात बना देना एक तरह से असत्य भाषण करना नहीं है? महाभारत (आ. 215.34) में कई स्थानों में कहा है ‘‘न व्याजेन चरेद्धर्मं’’ धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिए; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते, अपितु तुम खुद धोखा खा जाओगे। अच्छा, यदि हूँ– हूँ करके कुछ बात बना लेने का भी समय न हो, तो क्या करना चाहिए? मान लीजिए, कोई चोर हाथ में तलवार लेकर छाती पर आ बैठा है और पूछ रहा है कि तुम्हारा धन कहीँ है? यदि कुछ उत्तर न दोगे तो जान ही से हाथ धोना पड़ेगा। ऐसे समय पर क्या बोलना चाहिए? सब धर्मों का रहस्य जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण ऐस ही चोरों की कहानी का दृष्टांत देकर कर्णपर्व (69.61) में अर्जुन से और आगे शांतिपर्व के सत्यानृत अध्याय (109.15, 16) में भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं–

अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।
अवश्यं कूजितव्ये वा शंकेरन्वाप्यकूजनात्।
श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्।।

अर्थात्; ‘‘यह बात विचारपूर्वक निश्चित की गई है कि यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके, तो कुछ भी हो, बोलना नहीं चाहिए। और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से (दूसरों को) कुछ संदेह होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।’’ इसका कारण यह है कि सत्य धर्म केवल शब्दोच्चार ही के लिए नहीं है, अतएव जिस आचरण से सब लोगों का कल्याण हो, वह आचरण सिर्फ़ इसी कारण से निंद्य नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयतार्थ है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही है और न ही अहिंसा। शांतिपर्व (329.13; 287.19) में सनत्कुमार के आधार पर नारद जी शुक जी से कहते हैं–

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत्सत्यं मतं मम।।

‘‘सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सभी प्राणियों का हित हो। क्योंकि जिससे सब प्राणियों का अत्यन्त हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।’’ ‘यद्भूतहितं’ पद को देखकर आधुनिक उपयोगिता–वादी अंग्रेजों का स्मरण करके यदि कोई उक्त वचन को प्रक्षिप्त कहना चाहे, तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि यह वचन महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण और व्याध के संवाद में दो–तीन बार आया है। उनमें से एक जगह तो ‘‘अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम्’’ पाठ है (वन. 209.73), और दूसरी जगह ‘‘यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा’’ (वन.208.4), ऐसा पाठभेद किया गया है। सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य से ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहकर उन्हें संदेह में क्यों डाल दिया? इसका कारण वही है जो ऊपर कहा गया है, और कुछ नहीं।

ऐसी ही और अन्य बातों में भी यही नियम लगाया जाता है। हमारे शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ बोलकर किसी खूनी की जान बचायी जाए। शास्त्रों में खून करने वाले आदमी के लिए देहान्त, प्रायश्चित अथवा वधदंड की सज़ा कही गई है, इसी लिए वह सज़ा पाने अथवा वध करने के योग्य है। सब शास्त्रकारों ने यही कहा है कि ऐसे समय, अथवा इसी के समान और किसी समय, जो आदमी झूठी गवाही देता है वह अपने सात या और अधिक पूर्वजों सहित नरक में जाता है (मनु. 8.89–99; मभा. आ. 7.3)। परन्तु जब कर्णपर्व में वर्णित उक्त चोरों के दृष्टांत के समान, हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो तो उस समय क्या करना चाहिए? ग्रीन नामक एक अंग्रेज़ ग्रंथकार ने अपने ‘नीतिशास्त्र का उपोद्घात’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। यद्यपि, मनु और याज्ञवल्क्य ऐसे प्रसंगों की गणना सत्यापवाद में करते हैं, तथापि यह भी उसके मत में गौण बात है। इसी लिए अंत में उन्होंने इस अपवाद के लिए भी प्रायश्चित बतलाया है–‘तत्पावनाय निर्वाप्यश्चरूः सारस्वतो द्विजैः (याज्ञ. 2.83; मनु. 8.104–106)।

कुछ बड़े अंग्रेज़ों ने जिन्हें अहिंसा के अपवाद के विषय में आश्चर्य नहीं मालूम होता, हमारे शास्त्रकारों को सत्य के विषय में दोष देने का यत्न किया है। इसीलिए यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाता है कि सत्य के विषय में, प्रामाणिक ईसाई धर्मोपदेशक और नीतिशास्त्र के अंग्रेज़ ग्रंथकार क्या कहते हैं। क्राइस्ट का शिष्य पॉल बाइबिल में कहता है कि ‘‘यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है (अर्थात्; ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है), तो इससे मैं पापी क्योंकर हो सकता हूँ’’ (रोम. 3.7)? ईसाई धर्म के इतिहासकार मिलमैन ने लिखा है कि प्राचीन ईसाई धर्मोपदेशक कई बार इसी तरह आचरण किया करते थे। यह बात सच है कि वर्तमान समय के नीतिशास्त्रज्ञ, किसी को धोखा देकर या भुलाकर धर्म भ्रष्ट करके, न्याय नहीं मानेंगे। परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद–रहित है। उदाहरणार्थ; यह देखिए कि सिजविक नाम के जिस पंडित का नीतिशास्त्र हमारे कॉलेजों में पढ़ाया जाता है, उसकी क्या राय है। कर्म और अकर्म के संदेह का निर्णय, जिस तत्व के आधार पर, यह ग्रंथकार किया करता है, उसको ‘‘सबसे अधिक लोगों का सबसे अधिक सुख’’ (बहुत लोगों का बहुत सुख) कहते हैं। इसी नियम के अनुसार यह निर्णय किया है कि छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय, और इसी प्रकार बीमार आदमियों को (यदि सच बात सुना देने से उनके स्वास्थ्य के बिगड़ जाने का भय हो) अपने शत्रुओं को, चोरों को और (यदि बिना बोले काम न सिमटता हो तो) जो अन्याय से प्रश्न करें, उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है।<balloon title="Sidgwick’s Methods of Ethics, Book III. Chap. XI • 6.p.355 (7th Ed.). Also, see pp.315-317 (same Ed.)." style=color:blue>*</balloon> मिल के नीतिशास्त्र के ग्रंथ में भी