गीता कर्म योग

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कर्म योग गीता

बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक द्वारा गीता भाष्य

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।<balloon title="इसलिए तू योग का आश्रय ले। कर्म करने की जो रीति, चतुराई या कुशलता है उसे योग कहते हैं। यह 'योग' शब्द की व्याख्या अर्थात् लक्षण है। इसके संबंध में अधिक विचार इसी प्रकरण में आगे चलकर किया है।" style=color:blue>*</balloon>गीता 2.50।

यदि किसी मनुष्य को किसी शास्त्र के जानने की इच्छा पहले ही से न हो तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे अधिकार रहित मनुष्य को उस शास्त्र की शिक्षा देना मानो चलनी ही में दूध दुहना है। शिष्य को तो उस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं; परन्तु गुरु को भी निरर्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है। जैमिनि और बादरायण के आरंभ में इसी कारण से अथातो धर्मजिज्ञासा और अथातो ब्रह्माजिज्ञासा कहा हुआ है। जैसे ब्रह्मोपदेश मुमुक्षुओं को और धर्मोपदेश धर्मेच्छुओं को देना चाहिए, वैसे ही कर्म शास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिए जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिए। इसीलिए हमने पहले प्रकरण में 'अथातो' कहकर, दूसरे प्रकरण में कर्म–जिज्ञासा का स्वरूप और कर्म–योगशास्त्र का महत्व बतलाया है। जब तक पहले ही से इस बात का अनुभव न कर लिया जाए कि अमुक काम में अमुक रूकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देने वाला शास्त्र का महत्व ध्यान में नहीं आता; और महत्व को न जानने से केवल रटा हुआ शास्त्र समय पर ध्यान में रहता भी नहीं है। यही कारण है कि जो सदगुरु हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिष्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं, और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जाग्रत करने का प्रयत्न किया करते हैं।

गीता में कर्मयोग शास्त्र का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब अर्जुन के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृवध और गुरुवध होगा तथा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जाएगा, उसमें शामिल होना उचित है या अनुचित; और जब वह युद्ध से पराड़्मुख होकर सन्यास लेने को तैयार हुआ और जब भगवान के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ कि 'समय पर किए जाने वाले कर्म का त्याग करना मूर्खता और दुर्बलता का सूचक है। इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं, उलटा दुष्कीर्ति अवश्य होगी।' तब श्री भगवान ने पहले

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे

अर्थात; जिस बात का शोक नहीं करना चाहिए उसी का तो तू शोक कर रहा है और साथ–साथ ब्रह्मज्ञान की भी बड़ी बड़ी बातें छाँट रहा है, कहकर अर्जुन का कुछ थोड़ा सा उपहास किया और फिर उसको कर्म के ज्ञान का उपदेश दिया। अर्जुन की शंका कुछ निराधार नहीं थी। गत प्रकरण में हमने यह दिखलाया है कि अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में अनेक अड़चनें आती हैं, इसलिए कर्म को छोड़ देना उचित नहीं है। विचारवान पुरुषों को ऐसी युक्ति अर्थात 'योग' का स्वीकार करना चाहिए जिससे सांसारिक कर्मों का लोप तो होने न पाए और कर्माचरण करने वाला किसी पाप या बंधन में भी न फँसे– यह कहकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले यही उपदेश दिया है-

तस्माद्योगाय युज्यस्व,

अर्थात; तू भी इसी युक्ति को स्वीकार कर। यही 'योग' कर्मयोगशास्त्र है और जबकि यह बात प्रगट है कि अर्जुन पर आया हुआ संकट कुछ लोक–विलक्षण या अनोखा नहीं था। ऐसे अनेक छोटे–बड़े संकट संसार में सभी लोगों पर आया करते हैं। तब तो यह बात आवश्यक है कि इस कर्मयोगशास्त्र का जो विवेचन भगवद्गीता में किया गया है, उसे हर एक मनुष्य सीखे। किसी शास्त्र के प्रतिपादन में कुछ मुख्य और गूढ़ अर्थ को प्रगट करने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है। अतएव उनके सरल अर्थ को पहले जान लेना चाहिए और यह भी देख लेना चाहिए कि उस शास्त्र के प्रतिपदान की मूल शैली कैसी है, नहीं तो फिर उसके समझने में कई प्रकार की अपत्तियाँ और बाधाएँ होती हैं। इसलिए कर्मयोगशास्त्र के कुछ मुख्य शब्दों के अर्थ की परीक्षा यहाँ पर की जाती है।

सबसे पहला शब्द ‘कर्म’ है। ‘कर्म’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है, उसका अर्थ 'करना, व्यापार, हलचल' होता है और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है, अर्थात यही अर्थ गीता में विवक्षित है। ऐसा कहने का कारण यही है कि मीमांसाशास्त्र में और अन्य स्थानों पर भी इस शब्द के जो संकुचित अर्थ दिए गए हैं, उनके कारण पाठकों के मन में कुछ भ्रम उत्पन्न होने न पाएँ। किसी भी धर्म को ही ले लीजिए, उसमें ईश्वर प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ कर्म करने को बतलाया ही रहता है। प्राचीन वैदिक धर्म के अनुसार देखा जाए तो यज्ञ–याग ही वह कर्म है जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती है। वैदिक ग्रंथों में यज्ञ–याग की विधि बताई गई है; परन्तु इसके विषय में कहीं कहीं परस्पर विरोधी वचन भी पाए जाते हैं। अतएव उनकी एकता और मेल दिखलाने के लिए ही जैमिनि के पूर्व मीमांसाशास्त्र का प्रचार होने लगा। जैमिनि के मतानुसार वैदिक और श्रौत यज्ञ–याग करना ही प्रधान और प्राचीन धर्म है। मनुष्य जो कुछ करता है, वह सब यज्ञ के लिए ही करता है। यदि उसे धन कमाना है तो यज्ञ के लिए और धान्य संग्रह करना है तो भी यज्ञ के लिए ही<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व, 26.25" style=color:blue>*</balloon>। जबकि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों ने ही दी है, तब यज्ञ के लिए मनुष्य कुछ भी कर्म करे वह उसको बंधक कभी नहीं होगा। वह कर्म यज्ञ का एक साधन है, वह स्वतंत्र रीति से साध्य वस्तु नहीं है। इसलिए यज्ञ से जे फल मिलने वाला है उसी में उस कर्म का भी समावेश हो जाता है, उस कर्म का कोई अलग फल नहीं होता। परन्तु यज्ञ के लिए किए गए ये कर्म यद्यपि स्वतंत्र फल के देने वाले नहीं हैं, तथापि स्वयं यज्ञ से स्वर्गप्राप्ति (अर्थात मीमांसकों के मतानुसार एक प्रकार की सुखप्राप्ति) होती है और इस स्वर्गप्राप्ति के लिए ही यज्ञकर्त्ता मनुष्य बड़े चाव से यज्ञ करता है। इसी से स्वयं यज्ञकर्म 'पुरुषार्थ' कहलाता है; क्योंकि जिस वस्तु पर किसी मनुष्य की प्राप्ति होती है और जिसे पाने की उसके मन में इच्छा होती है उसे 'पुरुषार्थ' कहते हैं<balloon title="जैमिनि सूत्र 4.1.1 और 2" style=color:blue>*</balloon>।

यज्ञ का पर्यायवाची एक दूसरा ‘ऋतु’ शब्द है, इसलिए ‘यज्ञार्थ’ के बदले ‘ऋत्वर्थ’ भी कहा करते हैं। इस प्रकार सब कर्मों के दो वर्ग हो गएः– एक 'यज्ञार्थ' (ऋत्वर्थ) कर्म, अर्थात जो स्वतंत्र रीति से फल नहीं देते, अतएव अबंधक हैं; और दूसरे 'पुरुषार्थ' कर्म, अर्थात् जो पुरुष को लाभकारी होने के कारण बंधक हैं। संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ–याग आदि का ही वर्णन है। यद्यपि ऋग्वेद संहिता में इन्द्र आदि देवताओं के स्तुति संबंधी सूक्त हैं, तथापि मीमांसक–गण कहते हैं कि सब श्रुति ग्रंथ यज्ञ आदि कर्मों के ही प्रतिपादक हैं क्योंकि उनका विनियोग यज्ञ के ही समय में किया जाता है। इन कर्मठ, याज्ञिक या केवल कर्मवादियों का कहना है कि वेदोक्त यज्ञ–याग आदि कर्म करने से ही स्वर्ग प्राप्ति होती है, नहीं तो नहीं होती; चाहे ये यज्ञ अज्ञानता से किए जाएँ या ब्रह्मज्ञान से। यद्यपि उपनिषदों में ये यज्ञ ग्राह्य माने गए हैं, तथापि उनकी योग्यता ब्रह्मज्ञान से कम ठहराई गई है। इसलिए निश्चय किया गया है कि यज्ञ–याग से स्वर्ग प्राप्ति भले ही हो जाए, परन्तु इनके द्वारा मोक्ष नहीं मिल सकता। मोक्ष प्राप्ति के लिए ब्रह्मज्ञान की ही नितान्त आवश्यकता है।

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में जिन यज्ञ–याग आदि काम्य कर्मों का वर्णन किया गया है –

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः<balloon title="गीता 2.42" style=color:blue>*</balloon>– वे ब्रह्मज्ञान के बिना किए जाने वाले उपर्युक्त यज्ञ–याग आदि कर्म ही हैं। इसी तरह यह भी मीमांसकों ही के मत का अनुकरण है कि

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः<balloon title="गीता. 3.9" style=color:blue>*</balloon>,

अर्थात; यज्ञार्थ किए गए कर्म बंधक नहीं हैं, शेष सब कर्म बंधक हैं। इन यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों के अतिरिक्त, अर्थात् श्रौत कर्मों के अतिरिक्त और भी चातुर्वरार्य के भेदानुसार दूसरे आवश्यक कर्म मनुस्मृति आदि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं; जैसे क्षत्रिय के लिए युद्ध और वैश्य के लिए वाणिज्य। पहले पहल इन वर्णाश्रम कर्मों का प्रतिपादन स्मृति–ग्रंथों में किया गया था, इसलिए इन्हें ‘स्मार्त कर्म’ या ‘स्मार्त यज्ञ’ भी कहते हैं। इन श्रौत और स्मार्त कर्मों के सिवाय और भी धार्मिक कर्म हैं जैसे व्रत, उपवास आदि। इनका विस्तृत प्रतिपादन पहले पहल सिर्फ़ पुराणों में किया गया है, इसलिए इन्हें 'पौराणिक कर्म' कह सकेंगे। इन सब कर्मों के और भी तीन ‘नित्य, नैमित्तिक और काम्य’ भेद किए गए हैं। स्नान, संध्या आदि जो हमेशा किए जाने वाले कर्म हैं उन्हें नित्यकर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती, परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है। नैमित्तिक कर्म उन्हें कहते हैं जिन्हें पहले किसी कारण के उपस्थित हो जाने से करना पड़ता है, जैसे अनिष्ट ग्रहों की शान्ति, प्रायश्चित आदि। जिसके लिए हम शान्ति और प्रायश्चित करते हैं, वह निमित्त कारण यदि पहले न हो गया हो तो हमें नैमित्तिक कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जब हम कुछ विशेष इच्छा रखकर उसकी सफलता के लिए शास्त्रानुसार कोई कर्म करते हैं तब उसे काम्य–कर्म कहते हैं; जैसे वर्षा होने के लिए या पुत्रप्राप्ति के लिए यज्ञ करना। नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों के सिवाय और भी कर्म हैं, जैसे मदिरापान इत्यादि जिन्हें शास्त्रों ने त्याज्य कहा है; इसलिए ये कर्म निषिद्ध कहलाते हैं।

नित्य कर्म कौन–से हैं, नैमित्तिक कौन–से हैं और काम तथा निषिद्ध कर्म कौन से हैं, ये सब बातें धर्मशास्त्रों में निश्चित कर दी गईं हैं। यदि कोई किसी धर्मशास्त्री से पूछे कि अमुक कर्म पुरायप्रद है या पापकारक, तो वह सबसे पहले इस बात का विचार करेगा कि शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार वह कर्म यज्ञार्थ है या पुरुषार्थ, नित्य है या नैमित्तिक अथवा काम्य है या निषिद्ध। और इन बातों पर विचार करके फिर वह अपना निर्णय करेगा। परन्तु भगवद्गीता की दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक और विस्तीर्ण है। मान लीजिए कि अमुक एक कर्म शास्त्रों में निषिद्ध नहीं माना गया है, अथवा वह विहित्त कर्म ही कहा गया है; जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए विहित्त कर्म था, तो इतने से ही यह सिद्ध नहीं होता कि हमें वह कर्म हमेशा करते ही रहना चाहिए, अथवा उस कर्म का करना हमेशा श्रेयस्कर ही होगा। यह बात पिछले प्रकरण में कही गई है कि कहीं कहीं तो शास्त्र की आज्ञा भी परस्पर विरुद्ध होती है। ऐसे समय में मनुष्य को किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिए? इस बात का निर्णय करने के लिए कोई युक्ति है या नहीं? यदि है, तो वह कौन सी है? बस यही गीता का मुख्य विषय है। इस विषय में कर्म के उपर्युक्त अनेक भेदों पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं। यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों तथा चातुर्वण्य के कर्मों के विषय में मीमांसकों ने जो सिद्धान्त दिए हैं, वे गीता में प्रतिपादित कर्मयोग से कहाँ तक मिलते हैं, यह दिखाने के लिए प्रसंगानुसार गीता में मीमांसकों के कथन का भी कुछ विचार किया गया है और अंतिम अध्याय<balloon title="गीता' 18.9" style=color:blue>*</balloon> में इस पर भी विचार किया गया है कि ज्ञानी पुरुष को यज्ञ–याग आदि कर्म करना चाहिए या नहीं। परन्तु गीता के मुख्य प्रतिपाद्य विषय का क्षेत्र इससे भी व्यापक है, इसलिए गीता में ‘कर्म’ शब्द का केवल ‘श्रौत अथवा स्मार्त कर्म’ इतना ही संकुचित अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए, किन्तु उससे भी अधिक व्यापक रूप में लेना चाहिए।

सारांश, मनुष्य जो कुछ करता है – जैसे खाना, पीना, खेलना, रहना, उठना–बैठना, श्वासोच्छ्वास करना, हँसना, रोना, सूँघना, देखना, बोलना, सुनना, चलना, लेना–देना, सोना, जागना, मारना, लड़ना, मनन और ध्यान करना, आज्ञा और निषेध करना, दान देना, यज्ञ–याग करना, खेती और व्यापार–धंधा करना, इच्छा करना, निश्चय करना, चुप रहना इत्यादि इत्यादि – ये सब भगवद्गीता के अनुसार ‘कर्म’ ही हैं; चाहे वे कर्म कायिक हों, वाचिक हों अथवा मानसिक हों<balloon title="गीता. 5.8, 9)" style=color:blue>*</balloon> और तो क्या, जीना–मरना भी कर्म ही तो हैं, और मौका आने पर यह भी विचार करना पड़ता है कि 'जीना या मरना' इन दो कर्मों में से किसको स्वीकार किया जाए? इस विचार के उपस्थित होने पर कर्म शब्द का अर्थ 'कर्त्तव्य कर्म' अथवा 'विहित्त कर्म' हो जाता है।<balloon title="गीता, 4.19" style=color:blue>*</balloon> मनुष्य के कर्म के विषय में यहाँ तक विचार हो चुका। अब इसके आगे बढ़कर सब चर–अचर सृष्टि के भी एवं अचेतन वस्तु के भी व्यापार में ‘कर्म’ शब्द का ही उपयोग होता है। इस विषय का विचार आगे कर्म–विपाक–प्रक्रिया में किया जाएगा।

कर्म शब्द से भी अधिक भ्रमकारक शब्द 'योग' है। आजकल इस शब्द का रूढ़ार्थ 'प्राणायाम आदि साधनों से चित्त–वृत्तियों या इन्द्रियों का निरोध करना', अथवा 'पातंजल सूत्रोक्त समाधि या ध्यानयोग' है। उपनिषदों में भी इसी अर्थ से इस शब्द का प्रयोग हुआ है।<balloon title="कठोपनिषद. 9.11" style=color:blue>*</balloon> परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि यह संकुचित अर्थ भगवद्गीता में विविक्षित नहीं है। 'योग' शब्द 'युज्' धातु से बना है जिसका अर्थ 'जोड़, मेल, मिलाप, एकता, एकत्र–अवस्थिति' इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति की प्राप्ति के 'उपाय, साधन, युक्ति या कर्म' को भी योग कहते हैं। यही सब अर्थ अमरकोष में इस तरह से दिए हुए हैं-

योगः संहननोपाय ध्यानसंगति युक्तिषु।

फलित ज्योतिष में कोई ग्रह यदि इष्ट अथवा अनिष्ट हों तो उन ग्रहों का 'योग' इष्ट या अनिष्ट कहलाता है; और 'योगक्षेम' पद में 'योग' शब्द का अर्थ 'अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना' लिया गया है।<balloon title="गीता, 9.22" style=color:blue>*</balloon> भारतीय युद्ध के समय द्रोणाचार्य को अजेय देखकर श्रीकृष्ण ने कहा है कि

एको हि योगोऽस्य भवेद्वधाय<balloon title="महाभारत. द्रोण पर्व, 181.31" style=color:blue>*</balloon>

अर्थात; द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग (साधन या युक्ति) है और आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा है कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए जरासंध आदि राजाओं को योग ही से कैसे मारा था। उद्योगपर्व<balloon title="महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 172" style=color:blue>*</balloon> में कहा गया है कि जब भीष्म ने अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को हरण किया तब अन्य राजा लोग 'योग योग' कहकर उनका पीछा करने लगे थे। महाभारत में 'योग' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में अनेक स्थानों पर हुआ है। गीता में योग, योगी अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक शब्द लगभग अस्सी बार पाए गए हैं; परन्तु चार–पाँच स्थानों के सिवाय<balloon title="गीता. 9.12 और 23" style=color:blue>*</balloon> योग शब्द से 'पातंजल योग' अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है। सिर्फ़ 'युक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल' यही अर्थ कुछ हेर फेर से सारी गीता में पाए जाते हैं अतएव हम कह सकते हैं कि गीता शास्त्र के व्यापक शब्दों में 'योग' भी एक शब्द है।

परन्तु योग शब्द के उक्त सामान्य अर्थों में से ही; जैसे साधन, कुशलता, युक्ति आदि से ही काम नहीं चल सकता, क्योंकि वक्ता की इच्छा के अनुसार यह साधन सन्यास का हो सकता है, कर्म और चित्त–निरोध का हो सकता है, और मोक्ष का अथवा और भी किसी का हो सकता है। उदाहरणार्थ; कहीं कहीं गीता में अनेक प्रकार की व्यक्त सृष्टि निर्माण करने की ईश्वरी कुशलता और अद्भुत सामर्थ्य को 'योग' कहा गया है<balloon title="गीता 7.25; 9.5; 10.7; 11.8" style=color:blue>*</balloon>; और इसी अर्थ में भगवान को 'योगेश्वर' कहा गया है।<balloon title="गीता 18.75" style=color:blue>*</balloon> परन्तु यह कुछ गीता के 'योग' शब्द का मुख्य अर्थ नहीं है। इसलिए यह बात स्पष्ट रीति से प्रगट कर देने के लिए कि योग शब्द से किस विशेष प्रकार की कुशलता, साधन, युक्ति अथवा उपाय को गीता में विवक्षित समझना चाहिए, उस ग्रंथ में ही योग शब्द की यह निश्चित व्याख्या की गई है –

योगः कर्मसु कौशलम्<balloon title="गीता 2.50" style=color:blue>*</balloon>

अर्थात; कर्म करने की किसी विशेष प्रकार की कुशलता, युक्ति, चतुराई अथवा शैली को योग कहते हैं। शांकर भाष्य में भी 'कर्मसु कौशलम्' का यही अर्थ लिया गया है – 'कर्म में स्वभाव सिद्ध रहने वाले बंधन को तोड़ने की युक्ति।' यदि सामान्यतः देखा जाए तो एक ही कर्म को करने के लिए अनेक योग और उपाय होते हैं। परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो, उसी को योग कहते हैं। जैसे द्रव्य उपार्जन करना एक कर्म है; इसके अनेक उपाय या साधक हैं जैसे कि – चोरी करना, जालसाजी करना, भीख माँगना, सेवा करना, ऋण लेना, मेहनत करना आदि, यद्यपि धातु के अर्थानुसार इनमें से हर एक को योग कह सकते हैं तथापि यथार्थ में 'द्रव्य–प्राप्ति योग' उसी उपाय को कहते हैं जिससे हम अपनी स्वतंत्रता रखकर मेहनत करते हुए धर्म प्राप्त कर सकें। जब स्वयं भगवान ने योग शब्द की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या गीता में कर दी है-

'योगः कर्मसु कौशलम्'– 'अर्थात' कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति को योग कहते हैं; तब सच पूछो तो इस शब्द के मुख्य अर्थ के विषय में कुछ भी शंका नहीं रहनी चाहिए। परन्तु स्वयं भगवान की बतलाई हुई इस व्याख्या पर ध्यान न देकर गीता के अनेक टीकाकारों ने योग शब्द के अर्थ की ख़ूब खींचातानी की है और गीता का मथितार्थ भी मनमाना निकाला है। अतएव इस भ्रम को दूर करने के लिए योग शब्द का कुछ और भी स्पष्टीकरण होना चाहिए। यह शब्द पहले पहल गीता के दूसरे अध्याय में आया है और वहीं इसका स्पष्ट अर्थ भी बतला दिया गया है। पहले सांख्यशास्त्र के अनुसार भगवान ने अर्जुन को यह समझा दिया कि युद्ध क्यों करना चाहिए; इसके बाद उन्होंने कहा कि 'अब हम तुम्हें योग के अनुसार उपपत्ति बतलाते हैं<balloon title="गीता 2.39" style=color:blue>*</balloon>, और फिर इसका वर्णन किया है जो कि लोग हमेशा यज्ञ–यागादि काम्य कर्मों में ही निमग्न रहते हैं, उनकी बुद्धि फलाशा से कैसी व्यग्र हो जाती है।<balloon title="गीता 2.41–49" style=color:blue>*</balloon> इसके पश्चात उन्होंने यह उपदेश दिया है कि 'बुद्धि को अव्यग्र स्थिर या शान्त रखकर आसक्ति को छोड़ दे, परन्तु कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़' और योगस्थ होकर कर्मों का आचरण कर'।<balloon title="गीता. 2.48" style=color:blue>*</balloon> यहीं पर योग शब्द का यह स्पष्ट अर्थ भी कह दिया है कि 'सिद्धि और असिद्धि दोनों में समबुद्धि रखने को योग कहते हैं।' इसके बाद यह कहकर कि 'फल की आशा से कर्म करने की अपेक्षा समबुद्धि का यह योग ही श्रेष्ठ है'<balloon title="गीता. 2.49" style=color:blue>*</balloon>, और 'बुद्धि की समता हो जाने पर कर्म करने वाले को कर्मसंबंधी पाप–पुण्य की बाधा नहीं होती; इसलिए तू इस 'योग' को प्राप्त कर।'

तुरंत ही योग का यह लक्षण फिर भी बतलाया है कि 'योगः कर्मसु कौशलम्'<balloon title="गीता. 2.50" style=color:blue>*</balloon>। इससे सिद्ध होता है कि पाप–पुण्य से अलिप्त रहकर कर्म करने की जो समत्व बुद्धिरूप की विशेष युक्ति पहले बतलाई गई है, वही 'कौशल' है और इसी कुशलता अर्थात युक्ति से कर्म करने को गीता में 'योग' कहा गया है। इसी अर्थ को अर्जुन ने आगे चलकर 'योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन'<balloon title="गीता. 9.33" style=color:blue>*</balloon> इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है। इसके संबंध में कि ज्ञानी मनुष्य को इस संसार में कैसे चलना चाहिए, श्री शंकराचार्य के पूर्व ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो मार्ग हैं। एक मार्ग यह है कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का सन्यास अर्थात त्याग कर दे; और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए। इन्हीं दो मार्गों को गीता में सन्यास और कर्मयोग कहा है।<balloon title="गीता 5.2" style=color:blue>*</balloon>

सन्यास कहते हैं त्याग को, और गीता कहते हैं मेल को; अर्थात कर्म के त्याग और कर्म के मेल ही के उक्त दो भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इन्हीं दो भिन्न भिन्न मार्गों को लक्ष्य करके आगे 'सांख्ययोगौ' (सांख्य और योग) ये संक्षिप्त नाम भी दिए गए हैं।<balloon title="गीता. 5.4" style=color:blue>*</balloon> बुद्धि को स्थिर करने के लिए पातंजलयोग शास्त्रों के आसनों का वर्णन छठवें अध्याय में है सही; परन्तु वह किसके लिए है? तपस्वी के लिए नहीं, किन्तु वह कर्मयोगी अर्थात युक्ति पूर्वक कर्म करने वाले मनुष्य को 'समता' की युक्ति सिद्ध कर लेने के लिए बतलाया गया है। नहीं तो फिर 'तपस्विभ्योऽधिको योगी' इस वाक्य का कुछ अर्थ ही नहीं हो सकता। इसी तरह इस अध्याय<balloon title="गीता 9.49" style=color:blue>*</balloon> के अंत में अर्जुन को जो उपदेश दिया गया है कि तस्माद्योगी भवार्जुन, उसका अर्थ ऐसा नहीं हो सकता कि 'हे अर्जुन! तू पातंजल योग का अभ्यास करने वाला बन जा।' इसलिए उक्त उपदेश का अर्थ

योगस्थः कुरु कर्माणि<balloon title="गीता 2.48" style=color:blue>*</balloon>,
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्<balloon title="गीता 2.50" style=color:blue>*</balloon>,
योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत<balloon title="गीता 4.42" style=color:blue>*</balloon> इत्यादि वचनों के अर्थ के समान ही होना चाहिए।

अर्थात उसका यही अर्थ लेना उचित है कि 'हे अर्जुन! तू युक्ति से कर्म करने वाला योगी अर्थात् कर्मयोगी हो।' क्योंकि यह कहना ही संभव नहीं है कि 'तू पातंजल योग का आश्रय लेकर युद्ध के लिए तैयार रह।' इसके पहले ही साफ़ साफ़ कहा गया है कि 'कर्मयोगेण योगिनाम्'<balloon title="गीता 3.3" style=color:blue>*</balloon> अर्थात योगी पुरुष कर्म करने वाले होते हैं। महाभारत<balloon title="महाभारत शान्ति पर्व, 348.56" style=color:blue>*</balloon> के नारायणीय अथवा भागवत धर्म के विवेचन में भी कहा गया है कि इस धर्म के लोग अपने कर्मों का त्याग किए बिना ही युक्तिपूर्वक कर्म करके ही (सप्रयुक्तेन कर्मणा) परमेश्वर की प्राप्ति कर लेते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योगी' और 'कर्मयोगी' दोनों ही शब्द गीता में समानार्थक हैं और इनका अर्थ 'युक्ति से कर्म करने वाला' होता है तथापि बड़े भारी 'कर्मयोग' शब्द का प्रयोग करने के बदले गीता और महाभारत में छोटे से 'योग' शब्द का ही अधिक उपयोग किया गया है। 'मैंने तुम्हें जो यह योग बतलाया है इसी को पूर्वकाल में विवस्वान से कहा था<balloon title="गीता. 4.1" style=color:blue>*</balloon>; और विवस्वान ने मनु को बतलाया था। परंतु उस योग के नष्ट हो जाने पर फिर वही योग आज तुझसे कहना पड़ा।' इस अवतरण में भगवान ने जो योग शब्द का तीन बार उच्चारण किया है उसमें पातंजल योग का विवक्षित होना नहीं पाया जाता है, किन्तु 'कर्म करने की किसी प्रकार की विशेष युक्ति, साधन या मार्ग' अर्थ ही लिया जा सकता है। इसी तरह जब संजय कृष्ण–अर्जुन संवाद को गीता में योग कहता है<balloon title="गीता. 18.75" style=color:blue>*</balloon> तब भी यही अर्थ पाया जाता है। श्री शंकराचार्य स्वयं सन्यास मार्ग वाले थे; तो भी उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं और योग शब्द का अर्थ श्री भगवान द्वारा की हुई व्याख्या के अनुसार कभी सम्यग्दर्शनोपाय कर्मानुष्ठानम्<balloon title="गीता 4.42" style=color:blue>*</balloon> और कभी 'योगः युक्तिः'<balloon title="गीता 10.7" style=color:blue>*</balloon> किया है। इसी तरह महाभारत में भी योग और ज्ञान दोनों शब्दों के अर्थ के विषय में स्पष्ट लिखा है कि

प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्<balloon title="महाभारत आश्वमेधिक पर्व, " style=color:blue>*</balloon>

अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। शांतिपर्व के अंत में नारायणीयोपाख्यान में 'सांख्य' और 'योग' शब्द तो इसी अर्थ में अनेक बार आए हैं और इसका भी वर्णन किया गया है कि ये दोनों मार्ग सृष्टि के आरंभ में क्यों और कैसे निर्माण किए गए।<balloon title="महाभारत शान्ति पर्व, 240 और 348" style=color:blue>*</balloon> पहले प्रकरण में महाभारत से जो वचन उद्घृत किए गए हैं उनसे यह स्पष्टतया मालूम हो गया है कि यही नारायणीय अथवा भागवत धर्म भगवद्गीता का प्रतिपाद्य तथा प्रधान विषय है। इसलिए कहना पड़ता है कि सांख्य और योग शब्दों का जो प्राचीन और पारिभाषिक अर्थ सांख्य=निवृत्ति; योग=प्रवृत्ति नारायणीय धर्म में दिया गया है, वही अर्थ गीता में भी विवक्षित है। यदि इसमें किसी को कोई शंका हो तो गीता में दी हुई इस व्याख्या से 'समत्वं योग उच्यते' या 'योगः कर्मसु कौशलम्' तथा उपर्युक्त 'कर्मयोगेण योगिनाम्' इत्यादि गीता के वचनों से उस शंका का समाधान हो सकता है। इसलिए अब यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। वैदिक धर्म ग्रंथों की कौन कहे; यह 'योग' शब्द संस्कृत और पाली भाषाओं के बौद्ध धर्म ग्रंथों में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उदाहरणार्थ, संवत 335 के लगभग लिखे गए मिलिंदप्रश्न नामक पाली–ग्रंथ में 'पुब्बयोगो' (पूर्वयोग) शब्द आया है और वहीं उसका अर्थ 'पुब्बकम्म' (पूर्वकर्म) किया गया है।<balloon title="मिलिन्द प्रश्न. 1.4" style=color:blue>*</balloon> इसी तरह अश्वघोष कविकृत, जो शालिवाहन शक के आरंभ में हो गया है– बुद्धचरित नामक संस्कृत काव्य के पहले सर्ग के पचासवें श्लोक में यह वर्णन हैः–

आचार्यकं योगविधौ द्विजानामप्राप्तमन्यैर्जनको जगाम।

अर्थात 'ब्राह्मणों को योग–विधि की शिक्षा देने में राजा जनक आचार्य (उपदेष्टा) हो गए, इनके पहले यह आचार्यत्व किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ था।' यहाँ पर योगविधि का अर्थ निष्काम कर्मयोग की विधि ही समझना चाहिए; क्योंकि गीता आदि अनेक ग्रंथ मुक्त कंठ से कह रहे हैं कि जनक जी के बर्ताव का यही रहस्य है और अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित<balloon title="बुद्धचरित 9.19 और 20" style=color:blue>*</balloon> में यह दिखलाने के लिए कि 'गृहस्थाश्रम में रहकर भी मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जा सकती है' जनक का उदाहरण दिया है। जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है और यह बात बौद्धधर्म ग्रंथों से भी सिद्ध होती है, इसलिए गीता के 'योग' शब्द का भी यही अर्थ लगाना चाहिए; क्योंकि गीता के कथनानुसार<balloon title="गीता 3.20" style=color:blue>*</balloon> जनक का ही मार्ग उसमें प्रतिपादित किया गया है। सांख्य और योगमार्ग के विषय में अधिक विचार आगे किया जाएगा। प्रस्तुत प्रश्न यही है कि गीता में 'योग' शब्द का उपयोग किस अर्थ में किया गया है।

जब एक बार यह सिद्ध हो गया कि गीता में 'योग' का प्रधान अर्थ कर्मयोग और 'योगी' का प्रधान अर्थ कर्मयोगी है, तो फिर यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय क्या है। स्वयं भगवान अपने उपदेश को 'योग' कहते हैं<balloon title="गीता 4.1–3" style=color:blue>*</balloon>; बल्कि छठवें (6.33) अध्याय में अर्जुन ने और गीता के अंतिम उपसंहार (18.75) में संजय ने भी गीता के उपदेश को योग ही कहा है। इसी तरह गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प हैं, उनमें भी साफ़ साफ़ कह दिया है कि गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय 'योगशास्त्र' है। परन्तु जान पड़ता है कि उक्त संकल्प के शब्दों के अर्थ पर किसी भी टीकाकार ने ध्यान नहीं दिया। आरंभ के दो पदों श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु के बाद इस संकल्प में दो शब्द 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' और भी जोड़े गए हैं।

  1. पहले दो शब्दों का अर्थ है – भगवान से गाए गए उपनिषद में; और
  2. पिछले दो शब्दों का अर्थ ब्रह्मविद्या का योगशास्त्र अर्थात कर्मयोग शास्त्र है, जो कि इस गीता का विषय है।

ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान एक ही बात है और इसके प्राप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरुष के लिए दो निष्ठाएँ या मार्ग खुले हुए हैं।<balloon title="गीता 3.3" style=color:blue>*</balloon> एक सांख्य अथवा सन्यास मार्ग– अर्थात वह मार्ग जिसमें कर्मों का त्याग न करके ऐसी युक्ति से कर्मयोग करते रहना चाहिए कि जिससे मोक्ष–प्राप्ति में कुछ भी बाधा न हो। पहले मार्ग का दूसरा नाम 'ज्ञान–निष्ठा' भी है जिसका विवेचन उपनिषदों में अनेक ऋषियों ने और अन्य ग्रंथकारों ने भी किया है। परंतु ब्रह्मविद्या के अंतर्गत कर्मयोग का या योगशास्त्र का तात्विक विवेचन भागवद्गीता के सिवाय अन्य ग्रंथों में नहीं है। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है कि अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प गीता की सब प्रतियों में पाया जाता है और इससे प्रगट होता है कि गीता की सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी। इस संकल्प के रचियता ने इस संकल्प में 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' इन दो पदों को व्यर्थ ही नहीं जोड़ दिया है; किन्तु उसने गीताशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय की अपूर्वता दिखाने ही के लिए उक्त पदों को उस संकल्प में आधार और हेतु सहित स्थान दिया है। अतः इस बात का भी सहज निर्णय हो सकता है कि गीता पर अनेक सांप्रदायिक टीकाओं के होने के पहले, गीता का तात्पर्य कैसे और क्या समझा जाता था। यह हमारे सौभाग्य की बात है कि इस कर्मयोग का प्रतिपादन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया है, जो इस योगमार्ग के प्रवर्तक और इन सब योगों के साक्षात ईश्वर योगेश्वर=योग+ईश्वर है; और लोकहित के लिए उन्होंने अर्जुन को उसका रहस्य बतलाया है। गीता के 'योग' और 'योगशास्त्र' शब्दों से हमारे 'कर्मयोग' और 'कर्मयोग शास्त्र' शब्द कुछ बड़े हैं सही; परन्तु अब हमने कर्मयोग शास्त्र सरीखा बड़ा नाम ही इस ग्रंथ और प्रकरण को देना इसलिए पसंद किया है कि जिसमें गीता के प्रतिपाद्य विषय के संबंध में कुछ भी संदेह न रह जाए।

एक ही कर्म को करने के जो अनेक योग, साधन या मार्ग हैं उनमें से सर्वोत्तम और शुद्ध मार्ग कौन हैं? उसके अनुसार नित्य आचरण किया जा सकता है या नहीं? नहीं किया जा सकता तो कौन कौन से अपवाद उत्पन्न होते हैं? जिस मार्ग को हमने उत्तम मान लिया है, वह उत्तम क्यों है? जिस मार्ग को हम बुरा समझते हैं, वह बुरा क्यों है? यह अच्छापन या बुरापन किसके द्वारा या किस आधार पर ठहराया जा सकता है अथवा इस अच्छेपन या बुरेपन का रहस्य क्या है?– इत्यादि बातें जिस शास्त्र के आधार से निश्चित की जाती हैं, उसको 'कर्मयोग–शास्त्र' या गीता के संक्षिप्त रूपानुसार 'योगशास्त्र' कहते हैं। अच्छा या बुरा दोनों ही साधारण शब्द हैं; इन्हीं के समान अर्थ में कभी कभी शुभ–अशुभ, हितकर–अहितकर, श्रेयस्कर–अश्रेयस्कर, पाप–पुण्य, धर्म–अधर्म इत्यादि शब्दों का उपयोग हुआ करता है। कार्य–अकार्य, कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य, न्याय–अन्याय इत्यादि शब्दों का भी अर्थ वैसा ही होता है। तथापि इन शब्दों का उपयोग करने वालों का सृष्टि–रचना–विषयक मत भिन्न भिन्न होने के कारण कर्मयोग–शास्त्र के निरूपण के पंथ भी भिन्न भिन्न हो गए हैं। किसी भी शास्त्र को ले लीजिए, उसके विषयों की चर्चा साधारणतः तीन प्रकार से की जाती है।

  1. इस जड़ सृष्टि के पदार्थ ठीक वैसे ही हैं जैसे कि वे हमारी इन्द्रियों को गोचर होते हैं; इसके परे उनमें और कुछ नहीं है; इस दृष्टि से उनके विषय में विचार करने की एक पद्धति है जिसे आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; सूर्य को देवता न मानकर केवल पाञ्चभौतिक जड़ पदार्थों का एक गोला मानें; और उष्णता, प्रकाश, वज़न, दूरी और आकर्षण इत्यादि उसके केवल गुणाधर्मों की ही परीक्षा करें तो उसे सूर्य का आधिभौतिक विवेचन कहेंगे। दूसरा उदाहरण पेड़ का ही ले लीजिए। इसका विचार न करके कि पेड़ के पत्ते निकलना, फूलना, फलना आदि क्रियाएँ किस के अंतर्गत व किस शक्ति के द्वारा होती हैं, जब केवल बाहरी दृष्टि से विचार किया जाता है कि ज़मीन में बीज बोने से अंकुर फूटते हैं, फिर वे बढ़ते हैं और उसी के पत्ते, शाखा, फूल इत्यादि दृश्य विकार प्रगट होते हैं, तब उसे पेड़ का आधिभौतिक विवेचन कहते हैं। रसायन शास्त्र, पदार्थ–विज्ञान शास्त्र, विद्युत शास्त्र आदि आधुनिक शास्त्रों का विवेचन इसी ढंग का होता है। आधिभौतिक पंडित यह भी माना करते हैं कि उक्त रीति से किसी वस्तु के दृश्य गुणों का विचार कर लेने पर उनका काम पूरा हो जाता है – सृष्टि के पदार्थों का इससे अधिक विचार करना निष्फल है।
  2. जब उक्त दृष्टि को छोड़कर इस बात का विचार किया जाता है कि जड़ सृष्टि के पदार्थों के मूल में क्या है, क्या इन पदार्थों का व्यवहार केवल उनके गुण–धर्मों से ही होता है या उनके लिए किसी तत्व का आधार भी है; तब केवल आधिभौतिक विवेचन से ही अपना काम नहीं चलता, हमको कुछ आगे पैर बढ़ाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब हम यह मानते हैं कि यह पञ्चभौतिक सूर्य नामक एक देव का अधिष्ठान है और इसी के द्वारा इस अचेतन गोले (सूर्य) के सब व्यापार या व्यवहार होते रहते हैं; तब उसको उस विषय का आधिदैविक विवेचन कहते हैं। इस मत के अनुसार यह माना जाता है कि पेड़ में, पानी में, हवा में, अर्थात सब पदार्थों में अनेक देव हैं जो उन जड़ तथा अचेतन पदार्थों से भिन्न तो हैं; किन्तु उनके व्यवहारों को वही चलाते हैं।
  3. परन्तु जब यह माना जाता है कि जड़ सृष्टि के हज़ारों जड़ पदार्थों में हज़ारों स्वतंत्र देवता नहीं हैं; किन्तु बाहरी सृष्टि के सब व्यवहारों को चलाने वाली मनुष्य के शरीर में आत्म–स्वरूप से रहने वाली और मनुष्य को सारी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करा देने वाली एक ही चित शक्ति है जो कि इंद्रियातीत है और जिसके द्वारा ही इस जगत का सारा व्यवहार चल रहा है; तब उस विचार पद्धति को आध्यात्मिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; अध्यात्मवादियों का मत है कि सूर्य, चन्द्र आदि का व्यवहार यहाँ तक कि वृक्षों के पत्तों का हिलना भी, इसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से हुआ करता है; सूर्य, चन्द्र आदि में या अन्य स्थानों में भिन्न भिन्न तथा स्वतंत्र देवता नहीं हैं। प्राचीन काल से किसी भी विषय का विवेचन करने के लिए ये तीन मार्ग प्रचलित हैं और इनका उपयोग उपनिषद ग्रंथों में भी किया गया है। उदाहरणार्थ; ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं या प्राण श्रेष्ठ हैं, इस बात का विचार करते समय बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में एक बार उक्त इन्द्रियों के अग्नि आदि देवताओं को और दूसरा बार उनके सूक्ष्म रूपों (अध्यात्म) को लेकर उनके बलाबल का विचार किया गया है<balloon title="बृहदारण्यकोपनिषद 1.5.21 और 22; छान्दोग्य उपनिषद 1.2 और 3; कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद 2.8" style=color:blue>*</balloon> और गीता के सातवें अध्याय के अन्त में तथा आठवें के आरम्भ में ईश्वर के स्वरूप का जो विचार बतलाया गया है, वह भी इसी दृष्टि से किया गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्<balloon title="गीता. 10.32" style=color:blue>*</balloon> इस वाक्य के अनुसार हमारे शास्त्रकारों ने उक्त तीन मार्गों में से आध्यात्मिक विवरण को ही अधिक महत्व दिया है।

आजकल उपर्युक्त तीन शब्दों (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) के अर्थ को थोड़ा सा बदलकर प्रसिद्ध आधिभौतिक फ्रेञ्च पंडित कोंट[१] ने आधिभौतिक विवेचन को ही अधिक महत्व दिया है। उनका कहना है कि सृष्टि के मूल तत्व को खोजते रहने से कुछ लाभ नहीं है; यह तत्व अगम्य है अर्थात इसको समझ लेना कभी भी संभव नहीं। इसलिए इसकी कल्पित नींव पर किसी शास्त्र की इमारत को खड़ा कर देना न तो संभव है और न ही उचित। असभ्य और जंगली मनुष्यों ने पहले पहल जब पेड़, बादल और ज्वालामुखी पर्वत आदि को देखा, तब उन लोगों ने अपने भोलेपन से इन सब पदार्थों को देवता ही मान लिया। यह कोंट के मतानुसार ‘आधिदैविक’ विचार हो चुका। परन्तु मनुष्यों ने उक्त कल्पनाओं को शीघ्र ही त्याग दिया; वे समझने लगे कि इन सब पदार्थों में कुछ न कुछ आत्मतत्व अवश्य भरा हुआ है। कोंट के मतानुसार मानवी ज्ञान की उन्नति की यह दूसरी सीढ़ी है। इसे वह ‘आध्यात्मिक’ कहता है। परन्तु जब इस रीति से सृष्टि का विचार करने पर भी प्रत्यक्ष उपयोगी शास्त्रीय ज्ञान की कुछ वृद्धि नहीं हो सकी, तब अंत में मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के दृश्य गुण–धर्मों का ही और भी अधिक विचार करने लगा, जिससे वह रेल और तार सरीखे उपयोगी आविष्कारों को ढूँढ़ कर बाह्य सृष्टि पर अपना अधिक प्रभाव जमाने लग गया है। इस मार्ग को कोंट ने ‘आधिभौतिक’ नाम दिया है। उसने निश्चित किया है कि किसी भी शास्त्र या विषय का विवेचन करने के लिए अन्य मार्गों की अपेक्षा यही आधिभौतिक मार्ग का अवलम्ब करना चाहिए। इस मार्ग का अवलम्ब करके इस पंडित ने इतिहास की आलोचना की और सब व्यवहार–शास्त्रों का यही मथितार्थ निकाला है कि इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का परम धर्म यही है कि वह समस्त मानव जाति पर प्रेम रख कर सब लोगों के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्न करता रहे। मिल और स्पेन्सर आदि अंग्रेज़ पंडित इसी मत के पुरस्कर्ता कहे जा सकते हैं। इसके उलटा कान्ट, हेगेल, शोपेनहर आदि जर्मन तत्वज्ञानी पुरुषों ने नीतिशास्त्र के विवेचन के लिए इस आधिभौतिक पद्धति को अपूर्ण माना है। हमारे वेदान्तियों की नई आध्यात्मिक दृष्टि से ही नीति के समर्थन करने के मार्ग को आज–कल उन्होंने यूरोप में फिर भी स्थापित किया है।

एक ही अर्थ विवक्षित होने पर भी 'अच्छा और बुरा' के पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का, जैसे 'कार्य–अकार्य' और 'धर्म्य–अधर्म्य' का उपयोग क्यों होने लगा? इसका कारण यही है कि विषय प्रतिपादन का मार्ग या दृष्टि प्रत्येक की भिन्न भिन्न होती है। अर्जुन के सामने यह प्रश्न था कि जिस युद्ध में भीष्म–द्रोण आदि का वध करना पड़ेगा, उसमें शामिल होना उचित है या नहीं।<balloon title="गीता 2.7" style=color:blue>*</balloon> यदि इसी प्रश्न का उत्तर देने का मौका किसी आधिभौतिक पंडित पर आता, तो वह पहले इस बात का विचार करता कि भारतीय युद्ध से स्वयं अर्जुन को दृश्य हानि–लाभ कितना होगा और कुल समाज पर उसका क्या परिणाम होगा? यह विचार करके तब उसने निश्चय किया होता कि युद्ध करना न्याय है या अन्याय। इसका कारण यह है कि किसी कर्म के अच्छेपन या बुरेपन का निर्णय करते समय ये आधिभौतिक पंडित यही सोचा करते हैं कि इस संसार में उस कर्म का आधिभौतिक परिणाम अर्थात प्रत्यक्ष बाह्य परिणाम क्या हुआ या होगा – ये लोग इस आधिभौतिक कसौटी के सिवाय और किसी साधन या कसौटी को नहीं मानते। परन्तु ऐसे उत्तर से अर्जुन का समाधान होना संभव नहीं था। उसकी दृष्टि इससे भी अधिक व्यापक थी। उसे केवल अपने सांसारिक हित का विचार नहीं करना था; किन्तु उसे पारलौकिक दृष्टि से यह भी विचार कर लेना था कि इस युद्ध का परिणाम मेरे आत्मा पर श्रेयस्कर होगा या नहीं। उसे ऐसी बातों पर कुछ भी शंका नहीं थी कि युद्ध में भीष्म, द्रोण आदि का वध होने पर तथा राज्य मिलने पर मुझे ऐच्छिक सुख मिलेगा या नहीं; और मेरा अधिकार लोगों को दुर्योधन से अधिक सुखदायक होगा या नहीं। उसे यही देखना था कि मैं जो कर रहा हूँ वह 'धर्म्य' है या 'अधर्म्य', अथवा 'पुण्य' है या 'पाप'; और गीता का विवेचन भी इसी दृष्टि से किया गया है। केवल गीता में ही नहीं; किन्तु कई स्थानों पर महाभारत में भी कर्म–अकर्म का जो विवेचन है वह पारलौकिक अर्थात अध्यात्म–दृष्टि से ही किया गया है; और वहाँ किसी भी कर्म का अच्छापन या बुरापन दिखलाने के लिए प्रायः सर्वत्र 'धर्म' और 'अधर्म' दो ही शब्दों का उपयोग किया गया है। परन्तु 'धर्म' और उसका प्रतियोगी 'अधर्म'; ये दोनों शब्द अपने व्यापक अर्थ के कारण कभी कभी भ्रम उत्पन्न कर दिया करते हैं; इसलिए यहाँ पर इस बात की कुछ अधिक मीमांसा करना आवश्यक है कि कर्मयोग–शास्त्र में इन शब्दों का उपयोग मुख्यतः किस अर्थ में किया जाता है।

नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक सुख का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?' तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। इसी तरह स्वर्ग–प्राप्ति के लिए साधनभूत यज्ञ–याग आदि वैदिक विषयों की मीमांसा करते समय 'अथातो धर्मजिज्ञासा' आदि धर्मसूत्रों में भी धर्म शब्द का यही अर्थ लिया गया है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। इसके सिवाय राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यवहारिक धर्म अथवा केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले धर्म शब्द में ही यदि मोक्ष का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरुषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती। अर्थात्; यह कहना पड़ता है कि 'धर्म' पद से इस स्थान पर संसार के सैकड़ों नीतिधर्म ही शास्त्रकारों को अभिप्रेत हैं। इन्हीं को हम लोग आजकल कर्त्तव्य, कर्म, नीति, नीतिधर्म अथवा सदाचरण कहते हैं। परन्तु प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'नीति' अथवा 'नीतिशास्त्र' शब्दों का उपयोग विशेष करके राजनीति के लिए ही किया जाता है, इसलिए पुराने जमाने में कर्त्तव्य–कर्म अथवा सदाचार के सामान्य विवेचन को ‘नीति–प्रवचन’ न कहकर 'धर्म–प्रवचन' कहा करते थे। परन्तु 'नीति' और 'धर्म' दो शब्दों का यह पारिभाषिक भेद सभी संस्कृत ग्रंथों में नहीं माना गया है। इसलिए हमने भी इस ग्रंथ में 'नीति', 'कर्त्तव्य' और 'धर्म' शब्दों का उपयोग एक ही अर्थ में किया गया है; और मोक्ष का विचार जिस स्थान पर करना है, उस प्रकरण के 'अध्यात्म' और 'भक्तिमार्ग' ये स्वतंत्र नाम रखे हैं। महाभारत में 'धर्म' शब्द अनेक स्थानों पर आया है, और जिस स्थान पर कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म–संगत है' उस स्थान पर धर्म शब्द से कर्त्तव्य–शास्त्र अथवा तत्कालीन समाज–व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है; तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण में मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शांतिपर्व के उत्तरार्ध में 'मोक्ष–धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है। इसी तरह मन्वादि स्मृति–ग्रंथों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विशिष्ट कर्मों, अर्थात् चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन करते समय केवल धर्म शब्द का ही अनेक स्थानों पर कई बार उपयोग किया गया है। और, भगवद्गीता में भी जब भगवान अर्जुन से यह कह कर लड़ने के लिए कहते हैं कि स्वधर्ममपि चाऽवेक्ष्य<balloon title="गीता 2.31" style=color:blue>*</balloon> तब, और इसके बाद

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः<balloon title="गीता. 3.35" style=color:blue>*</balloon>

इस स्थान पर भी 'धर्म' शब्द 'इस लोक के चातुर्वर्ण्यं के धर्म' के अर्थ के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है। पुराने जमाने के ऋषियों ने श्रम–विभाग रूप चातुर्वर्ण्य संस्था इसलिए चलाई गई थी कि समाज के सब व्यवहार सरलता से होते जाएं, किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या वर्ग पर ही सारा बोझ न पड़ने पाए और समाज का सभी दिशाओं से संरक्षण और पोषण भली भाँति होता रहे। यह बात भिन्न है कि कुछ समय के बाद चारों वर्णों के लोग केवल जाति–मात्रोपजीवी हो गए; अर्थात् सच्चे स्वकर्म को भूलकर वे केवल नामधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र हो गए। इसमें संदेह नहीं है कि आरंभ में यह व्यवस्था समाज धारणार्थ ही की गई थी; और यदि चारों वर्णों में से कोई भी एक वर्ण अपना धर्म अर्थात् कर्त्तव्य छोड़ दे, अर्थात् यदि कोई वर्ण समूल नष्ट हो जाए और उसकी स्थानपूर्ति दूसरे लोगों से न की जाए तो कुल समाज उतना ही पंगु होकर धीरे–धीरे नष्ट भी होने लग जाता है अथवा वह निष्कृट अवस्था में तो अवश्य ही पहुँच जाता है। यद्यपि यह बात सच है कि यूरोप में ऐसे अनेक समाज हैं जिनका अभ्युदय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था चाहे न हो, परन्तु चारों वर्णों के सब धर्म, ज्ञाति–रूप से नहीं तो गुण–विभाग रूप ही से जागृत अवश्य रहते हैं।

सारांश, जब हम धर्म शब्द का प्रयोग व्यवहारिक दृष्टि से करते हैं तब हम यही देखा करते हैं कि सब समाज का धारण और पोषण कैसे होता है। मनु ने कहा है कि – असुखोदर्क अर्थात् जिसका कारण दुःख कारक होता है उस धर्म को छोड़ देना चाहिए<balloon title="मनुस्मृति, 4.176" style=color:blue>*</balloon> और शांतिपर्व के सत्यानृताध्याय<balloon title="शान्ति पर्व, 109.12" style=color:blue>*</balloon> में धर्म धर्म–अधर्म का विवेचन करते हुए भीष्म और उसके पूर्व कर्ण पर्व में श्री कृष्ण कहते हैं किः–

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।।

'धर्म' शब्द 'धृ' अर्थात् 'धारण करना' धातु से बना है। धर्म से ही सब प्रजा बँधी हुई है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे (सब प्रजा का) धारण होता है वही धर्म है।'<balloon title="महाभारत कर्ण. 69.59" style=color:blue>*</balloon> यदि यह धर्म छूट जाए तो समझ लेना चाहिए कि समाज के सारे बंधन भी टूट गए, और यदि समाज के बंधन टूटे तो आकर्षण–शक्ति के बिना आकाश में सूर्यादि ग्रहमालाओं की जो दशा हो जाती है अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिए उक्त शोचनीय अवस्था में पड़कर समाज को नाश से बचाने के लिए व्यास जी ने कई स्थानों पर कहा है कि, 'यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो।' महाभारत के अन्त में यही कहा है किः–

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येषः न च कश्चिच्छृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते।।

'अरे! भुजा उठा कर मैं चिल्ला रहा हूँ, परन्तु कोई भी नहीं सुनता! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो?' अब इससे पाठकों के ध्यान में यह बात अच्छी तरह जम जाएगी कि महाभारत में जिस धर्म दृष्टि से पाँचवां वेद अथवा 'धर्म–संहिता' मानते हैं, उस 'धर्म–संहिता' शब्द के 'धर्म' शब्द का मुख्य अर्थ क्या है। यही कारण है कि पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों ही पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रंथों के साथ ही धर्मग्रंथ के नाते से नारायणं नमस्कृत्य इन प्रतीक शब्दों के द्वारा महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्य पाठ में कर दिया गया है।

धर्म–अधर्म के उपर्युक्त निरूपण को सुनकर कोई यह प्रश्न करे कि यदि तुम्हें 'समाज धारणा' और दूसरे प्रकरण के सत्यानृत विवेक में कथित 'सर्वभूतहित'; ये दोनों ही तत्व मान्य हैं तो तुम्हारी दृष्टि में और आधिभौतिक दृष्टि में भेद ही क्या है? क्योंकि ये दोनों ही तत्व बाह्यतः प्रत्यक्ष दिखने वाले और आधिभौतिक ही हैं। इस प्रश्न का विस्तृत विचार अगले प्रकरणों में किया गया है। यहाँ इतना ही कहना बस है कि, यद्यपि हमको यह तत्व मान्य है कि समाज–धारणा ही धर्म का मुख्य बाह्य उपयोग है, तथापि हमारे मत की विशेषता यह है कि वैदिक अथवा अन्य सब धर्मों का जो परम उद्देश्य आत्म–कल्याण या मोक्ष है, उस पर भी हमारी दृष्टि बनी है। समाज–धारणा को ही ले लीजिए, चाहे सर्व–भूतहित ही को; यदि ये बाह्योपयोगी तत्व हमारे आत्म–कल्याण के मार्ग में बाधा डालें तो हमें इनकी ज़रूरत नहीं। हमारे आयुर्वेद ग्रंथ यदि यह प्रतिपादन करते हैं कि वैद्यकशास्त्र भी शरीर रक्षा के द्वारा मोक्ष प्रप्ति का साधन होने के कारण संग्रहणीय है; तो यह कदापि संभव नहीं कि जिस शास्त्र में इस विषय का विचार किया गया है कि सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिए, उस कर्मयोग शास्त्र को हमारे शास्त्रकार आध्यात्मिक मोक्षज्ञान से अलग बतलाएं। इसलिए हम समझते हैं कि जो कर्म हमारे मोक्ष अथवा हमारी आध्यात्मिक उन्नति के अनुकूल हों वही पुण्य है, वही धर्म है और वही शुभ कर्म है; और जो कर्म उसके प्रतिकूल हों वही पाप है, अधर्म है और अशुभ है। यही कारण है कि हम 'कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य', 'पाप–पुण्य', 'कार्य–अकार्य' शब्दों के बदले 'धर्म' और 'अधर्म' शब्दों का ही (यद्यपि वे दो अर्थ के, अतएव कुछ संभव हों तो भी) अधिक उपयोग करते हैं। यद्यपि बाह्य सृष्टि के व्यवहारिक कर्मों अथवा व्यापारों का विचार करना ही प्रधान विषय हो, तो भी उक्त कर्मों के बाह्य परिणाम के विचार के साथ ही यह विचार भी हम लोग हमेशा किया करते हैं कि ये व्यापार हमारी आत्मा के कल्याण के अनुकूल हैं या प्रतिकूल। यदि आधिभौतिक–वादी से कोई यह प्रश्न करे कि 'मैं अपना हित छोड़कर लोगों का हित क्यों करूं?' तो वह इसके सिवाय और क्या समाधान–कारक उत्तर दे सकता है कि 'यह तो सामान्यतः मनुष्य स्वभाव ही है।' हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इसके परे पहुँची हुई है और उस व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि से ही महाभारत में कर्मयोग–शास्त्र का विचार किया गया है एवं श्रीमद्भगवदगीता में वेदान्त का निरूपण भी इतने के लिए ही किया गया है। प्राचीन यूनानी पंडितों की भी यही राय है कि 'अत्यंत हित' अथवा 'सद्गुण की पराकाष्ठा' के समान मनुष्य का कुछ न कुछ परम उद्देश्य कल्पित करके फिर उसी दृष्टि से कर्म–अकर्म का विवेचन करना चाहिए; और अरस्तू ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रंथ<balloon title="अरस्तू नीतिशास्त्र, 1.7, 8)" style=color:blue>*</balloon> में कहा है कि आत्मा के हित में ही इन सब बातों का समावेश हो जाता है। तथापि इस विषय में आत्मा के हित के लिए जितनी प्रधानता देनी चाहिए थी, उतनी अरस्तू ने दी नहीं है। हमारे शास्त्रकारों में यह बात नहीं है। उन्होंने निश्चित किया है कि आत्मा का कल्याण अथवा आध्यात्मिक पूर्णावस्था ही प्रत्येक मनुष्य का पहला और परम उद्देश्य है। अन्य प्रकार के हितों की अपेक्षा इसी को प्रधान जानना चाहिए और इसी के अनुसार कर्म–अकर्म का विचार करना चाहिए; अध्यात्म विद्या को छोड़कर कर्म–अकर्म का विचार करना ठीक नहीं है। जान पड़ता है कि वर्तमान समय में पश्चिमी देशों के कुछ पंडितों ने भी कर्म–अकर्म के विवेचन की इसी पद्धति को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ; जर्मन तत्वज्ञानी कान्ट ने पहले 'शुद्ध (व्यवसायात्मिक) बुद्धि की मीमांसा' नामक आध्यात्मिक ग्रंथ को लिखकर फिर उसकी पूर्ति के लिए 'व्यवहारिक (वासनात्मक) बुद्धि की मीमांसा' नाम का नीतिशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखा है<balloon title="कान्ट एक जर्मन तत्वज्ञानी था। इसे अर्वाचीन तत्वज्ञान–शास्त्र का जनक समझते हैं। इसके Oritique of Pure Reason (शुद्ध बुद्धि की मीमांसा) और Oritique of Practical Reason (वासनात्मक बुद्धि की मीमांसा) ये दो ग्रंथ प्रसिद्ध है। ग्रीन के ग्रंथ का नाम Prolegomena to Ethics है।" style=color:blue>*</balloon>; और इंग्लैंड में भी ग्रीन ने अपने 'नीतिशास्त्र के उपोद्धात' का सृष्टि के मूलभूत आत्मतत्व से ही आरंभ किया है। परन्तु इन ग्रंथों के बदले केवल आधिभौतिक पंडितों के ही नीतिग्रंथ आजकल हमारे यहाँ अंग्रेज़ी शालाओं में पढ़ाए जाते हैं; जिसका परिणाम यह देख पड़ता है कि गीता में बतलाए गए कर्मयोग–शास्त्र के मूलतत्वों का हम लोगों में अंग्रेज़ी सीखे हुए बहुतेरे विद्वानों को भी स्पष्ट बोध नहीं होता। उक्त विवेचन से ज्ञात हो जाएगा कि व्यवहारिक नीति–बंधनों के लिए अथवा समाज धारणा की व्यवस्था के लिए हम 'धर्म' शब्द का उपयोग क्यों करते हैं। महाभारत, भगवद्गीता आदि संस्कृत ग्रंथों में तथा भाषा ग्रंथों में भी व्यवहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं।

भारतीय युद्ध में एक समय कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी ने निगल लिया था; उसको उठाकर ऊपर लाने के लिए जब कर्ण अपने रथ से नीचे उतरा तब अर्जुन उसका वध करने के लिए उद्यत हुआ। यह देखकर कर्ण ने कहा, निःशस्त्र शत्रु को मारना धर्मयुद्ध नहीं है। इसे सुनकर श्री कृष्ण ने कर्ण को कई पिछली बातों का स्मरण दिलाया, जैसे कि – द्रौपदी का वस्त्र हरण कर लिया गया था, सब लोगों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु का वध कर डाला था इत्यादि; और प्रत्येक प्रसंग में यह प्रश्न किया है कि 'हे कर्ण! उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था?' इन सब बातों का वर्णन महाराष्ट्र कवि मोरोपंत जी ने किया है और महाभारत में भी इसी प्रसंग पर 'कते धर्मस्तदा गतः' प्रश्न में 'धर्म' शब्द का ही प्रयोग किया गया है तथा अंत में कहा गया है कि जो इस प्रकार का अधर्म करे, उसके साथ उसी तरह का बर्ताव करना ही उसको उचित दण्ड देना है। सारांश; क्या संस्कृत और क्या भाषा, सभी ग्रंथों में 'धर्म' शब्द का प्रयोग उन सब नीति नियमों के बारे में किया गया है जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा अध्यात्म दृष्टि से बनाए गए हैं; इसलिए उसी शब्द का उपयोग हमने भी इस ग्रंथ में किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा 'शिष्टाचार' को धर्म की बुनियाद कह सकते हैं जो समाज धारणा के लिए शिष्टजनों के द्वारा प्रचलित किए गए हों और जो सर्वमान्य हो चुके हों। इसलिए महाभारत<balloon title="महाभारत, अनुशासन पर्व, 104.157" style=color:blue>*</balloon> में एवं स्मृति ग्रंथों में 'आचारप्रभवो धर्मः' अथवा 'आचारः परमोधर्मः'<balloon title="मनुस्मृति, 1.108" style=color:blue>*</balloon>, अथवा धर्म का मूल बतलाते समय वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः<balloon title="मनुस्मृति, 2.12" style=color:blue>*</balloon> इत्यादि वचन कहे गए हैं। परन्तु कर्मयोग–शास्त्र में इतने से ही काम नहीं चल सकता; इस बात का भी पूरा और मार्मिक विचार करना पड़ता है कि उक्त आचार की प्रवृत्ति ही क्यों हुई – इस आचार की प्रवृत्ति ही का कारण क्या है।

'धर्म' शब्द की दूसरी एक और व्याख्या प्राचीन ग्रंथों में दी गई है; उसका भी यहाँ थोड़ा विचार करना चाहिए। यह व्याख्या मीमांसकों की है 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः।'<balloon title="जैमिनी सूत्र 1.1.2" style=color:blue>*</balloon> किसी अधिकारी पुरुष का यह कहना अथवा आज्ञा करना कि 'तू अमुक काम कर' अथवा 'मत कर', 'चोदना' यानी प्रेरणा है। जब तक इस बात का कोई प्रबंध नहीं कर दिया जाता, तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतंत्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल निबंध या प्रबंध के कारण धर्म निर्माण हुआ। धर्म की यह व्याख्या कुछ अंश में प्रसिद्ध अंग्रेज़ ग्रंथकार हॉब्स के मत से मिलती है। असभ्य तथा जंगली अवस्था में प्रत्येक मनुष्य का आचरण समय समय पर उत्पन्न होने वाली मनोवृत्तियों की प्रबलता के अनुसार हुआ करता है। परन्तु धीरे धीरे कुछ समय के बाद यह मालूम होने लगता है कि इस प्रकार का मनमाना बर्ताव श्रेयस्कर नहीं है; और यह विश्वास होने लगता है कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापारों की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार बर्ताव करने ही में सब लोगों का कल्याण है; तब प्रत्येक मनुष्य ऐसी मर्यादाओं का पालन कायदे के तौर पर करने लगता है जो शिष्टाचार से, अन्य रीति से सुदृढ़ हो जाया करती हैं। जब इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है तब उन्हीं का एक शास्त्र बन जाता है। पूर्व काल में विवाह–व्यवस्था का प्रचार नहीं था। पहले पहल उसे श्वेतकेतु ने चलाया और शुक्राचार्य ने मदिरापान को निषिद्ध ठहराया। यह न देखकर, कि इन मर्यादाओं को नियुक्त करने में श्वेतकेतु अथवा शुक्राचार्य का क्या हेतु था, केवल इसी बात पी ध्यान देकर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कर्त्तव्य इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शब्द की 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः' व्याख्या बन गई है। धर्म भी हुआ तो पहले उसका महत्व किसी व्यक्ति के ध्यान में आता है और तभी उसकी प्रवृत्ति होती है। 'खाओ–पिओ, चैन करो' ये बातें किसी को सिखलाना नहीं पड़ती; क्योंकि ये इंद्रियों के स्वाभाविक धर्म ही हैं। मनु जी ने जो कहा है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने'<balloon title="मनुस्मृति, 5.56" style=color:blue>*</balloon>– अर्थात् मांस भक्षण करना अथवा मद्यपान और मैथुन करना कोई सृष्टिकर्म विरुद्ध दोष नहीं है, उसका तात्पर्य भी यही है। ये सब बातें मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्।' समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के सुख के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। महाभारत<balloon title="महाभारत, शान्ति पर्व, 294.29" style=color:blue>*</balloon> में भी कहा गया हैः–

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।

अर्थात् 'आहार, निद्रा, भय और मैथुन, मनुष्यों और पशुओं के लिए एक ही समान स्वाभाविक हैं। मनुष्य और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का (अर्थात् इन स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने का)। जिस मनुष्य में यह धर्म नहीं है, वह पशु के समान ही है!' आहारादि स्वाभाविक वृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में भागवत का श्लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन से भगवान कहते हैं –

इंद्रियस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत् तौ ह्यस्य परिपंथिनौ।।<balloon title="गीता 3.34" style=color:blue>*</balloon>

'प्रत्येक इंद्रिय में अपने अपने उपभोग्य अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में जो प्रीति अथवा द्वेष होता है, वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं होना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं।' तब भगवान भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते हैं जो स्वाभाविक मनोवृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। मनुष्य की इंद्रियाँ उसे पशु के समान आचरण करने के लिए कहा करती हैं और उसकी बुद्धि इसके विरुद्ध दिशा में खींचा करती हैं। इस कलहाग्नि में जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतकृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिए और वही धन्य भी हैं।

धर्म को 'आचार–प्रभाव' कहिए, 'धारणात् धर्म' मानिए अथवा 'चोदनालक्षण धर्म' समझिए; धर्म की यानी व्यवहारिक नीतिबंधनों की कोई भी व्याख्या ले लीजिए, परन्तु जब धर्म–अधर्म का संशय उत्पन्न होता है तब उसका निर्णय करने के लिए उपर्युक्त तीनों लक्षणों का कुछ उपयोग नहीं होता। पहली व्याख्या से सिर्फ़ यही मालूम होता है कि धर्म का मूल स्वरूप क्या है; उसका बाह्य उपयोग दूसरी व्याख्या से मालूम होता है; और तीसरी व्याख्या से यही बोध होता है कि पहले पहल किसी ने धर्म की मर्यादा निश्चित कर दी है। परन्तु अनेक आचारों में भेद पाया जाता है; एक ही कर्म के अनेक परिणाम होते हैं और अनेक ऋषियों की आज्ञा अर्थात् 'चोदना' भी भिन्न भिन्न है। इन कारणों से संशय के समय धर्म निर्णय के लिए किसी दूसरे मार्ग को ढूँढ़ने की आवश्यकता होती है। यह मार्ग कौन–सा है? यही प्रश्न यक्ष ने युधिष्ठिर से किया था। इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया है किः–

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको ऋषिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः।।

यदि तर्क को देखें तो वह चंचल है, अर्थात् 'जिसकी बुद्धि जैसी तीव्र होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तर्क से निष्पन्न हो जाते हैं; श्रुति अर्थात् वेदाज्ञा देखी जाए तो वह भी भिन्न भिन्न है और यदि स्मृति शास्त्र को देखें तो ऐसा एक भी ऋषि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋषियों की अपेक्षा अधिक प्रमाणभूत समझा जाए। अच्छा, इस (व्यवहारिक) धर्म का मूल तत्व देखा जाए तो वह भी अंधकार में छिप गया है, अर्थात् वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकता। इसलिए महा–जन जिस राह से गए हों, वही (धर्म का) मार्ग है'।<balloon title="महाभारत, वन पर्व, 312.115" style=color:blue>*</balloon> ठीक है! परन्तु महा–जन किस को कहना चाहिए? उसका अर्थ 'बड़ा अथवा बहुत–सा जनसमूह' नहीं हो सकता क्योंकि जिन साधारण लोगों के मन में धर्म–अधर्म की शंका भी कभी उत्पन्न नहीं होती, उनके बतलाए मार्ग से जाना, मानो कठोपनिषद में वर्णित अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः वाली नीति ही को चरितार्थ करना है। अब यदि महाजन का अर्थ 'बड़े बड़े सदाचारी पुरुष’ लिया जाए, और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है तो उन महा–जनों के आचरण मे भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्री रामचन्द्र ने अग्नि द्वारा शुद्ध हो जाने पर भी अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद ही के लिए किया; और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिए उससे 'तुल्यारिमित्र' – अर्थात् जो तेरा शत्रु है वही मेरा भी शत्रु है, और जो तेरा मित्र है वह मेरा भी मित्र है; इस प्रकार की संधि करके बेचारे बालि का वध किया, यद्यपि उसने श्री रामचंद्र जी का कुछ अपराध नहीं किया था! परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला! यदि पांडवों का आचरण देखा जाए तो कोई अहल्या का सतीत्व भ्रष्ट करने वाला है, और कोई ब्रह्मा मृगरूप से अपनी ही कन्या की अभिलाष करने के कारण रूद्र के बाण से विद्ध होकर आकाश में पड़ा हुआ है।<balloon title="ऐतरेय ब्राह्मण, 3.33" style=color:blue>*</balloon>

इन्हीं बातों को मन में लाकर उत्तर–रामचरित्र नाटक में भवभूति ने लव के मुख से कहलाया है कि 'वृद्धास्ते न विचारणीय चरिताः' – इन वृद्धों के कृत्यों का बहुत विचार नहीं करना चाहिए। अंग्रेज़ी में शैतान का इतिहास लिखने वाले एक ग्रंथकार ने लिखा है कि शैतान के साथियों और देवदूतों के झगड़े का हाल देखने से मालूम होता है कि कई बार देवताओं ने ही दैत्यों को कपटजाल में फाँस लिया है। इसी प्रकार कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद<balloon title="कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद, 3.1 और ऐतरेय ब्राह्मण, 7.28" style=color:blue>*</balloon> में इन्द्र प्रतर्दन से कहता है कि 'मैंने वृत्र को (यद्यपि वह ब्राह्मण था) मार डाला। अरून्मुख सन्यासियों के टुकड़े करके भेड़ियों को खाने के लिए दिए और अपनी कई प्रतिज्ञाओं को भंग करके प्रह्लाद के नातेदारों द्वारा गोत्रजों का तथा पौलोम और कालखंज नामक दैत्यों का वध किया, (इससे) मेरा एक बाल भी बांका नहीं हुआ।

तस्य मे तत्र न लोम च मा मीयते!

यदि कोई कहे कि 'तुम्हें इन महात्माओं के बुरे कर्मों की ओर ध्यान देने का कुछ भी कारण नहीं है; जैसा कि तैत्तिरीयोपनिषद<balloon title="तैत्तिरीयोपनिषद , 1.11.2" style=color:blue>*</balloon> में बतलाया है, उनके जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो और सब छोड़ दो। उदाहरणार्थ; परशुराम के समान पिता की आज्ञा का पालन करो' तो वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिए साधन है क्या? इसलिए अपनी करनी का उक्त प्रकार से वर्णन कर इंद्र प्रतर्दन से फिर कहता है कि 'जो पूर्ण आत्मज्ञानी है उसे मातृवध, पितृवध, भ्रूणहत्या और स्तेय (चोरी) इत्यादि किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता। इस बात को तू भली–भाँति समझ ले और फिर यह भी समझ ले कि आत्मा किसे कहते हैं। ऐसा करने से तेरे सारे संशय की निवृत्ति हो जाएगी।' इसके बाद इंद्र ने प्रतर्दन को आत्मविद्या का उपदेश दिया।

सारांश यह है कि 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' यह युक्ति यद्यपि सामान्य लोगों के लिए सरल है, तो भी सब बातों में इससे निर्वाह नहीं हो सकता और अंत में महाजनों के आचरणों का सच्चा तत्व कितना भी गूढ़ हो तो भी आत्मज्ञान में घुसकर विचारवान पुरुषों को उसे ढूँढ़ निकालना ही पड़ता है। 'न देवचरितं चरेत्' – देवताओं के केवल बाहरी चरित्र के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिए। इस उपदेश का रहस्य भी यही है। इसके सिवाय कर्म–अकर्म का निर्णय करने के लिए कुछ लोगों ने एक और सरल युक्ति बतलाई है। उनका कहना है कि कोई भी सदगुण हो, उसकी अधिकता न होने देने के लिए हमें हमेशा यत्न करते ही रहना चाहिए क्योंकि इस अधिकता से ही अंत में सदगुण दुर्गुण बन बैठता है। जैसे दान देना सचमुच सदगुण है, परंतु अति दानाद्धलिर्बद्धः दान की अधिकता होने से ही राजा बलि फाँसा गया था। प्रसिद्ध यूनानी पंडित अरस्तू ने अपने नीति–शास्त्र के ग्रंथ में कर्म–अकर्म के निर्णय की यही युक्ति बतलाई है और स्पष्टतया दिखलाया है कि प्रत्येक सदगुण की अधिकता होने पर दुर्दशा कैसे हो जाती है। कालिदास ने भी रघुवंश में वर्णन किया है कि केवल शूरता व्याघ्र सरीखे श्वापद का क्रूर काम है और केवल नीति भी डरपोकापन है, इसलिए अतिथि राजा तलवार और राजनीति के योग्य मिश्रण से अपने राज्य का प्रबंध करता था।<balloon title="रघुवंश 17.47" style=color:blue>*</balloon> भर्तहरि ने भी कुछ गुण–दोषों का वर्णन कर कहा है कि ज़्यादा बोलना वाचालता का लक्षण है और कम बोलना घुम्मापन है, यदि ज़्यादा ख़र्च करे तो उड़ाऊ और कम करे तो कंजूस, आगे बढ़े तो दुःसाहसी और पीछे हटे तो ढीला, अतिशय आग्रह करे तो ज़िद्दी और न करे तो चंचल, ज़्यादा खुशामद करे तो नीच और ऐंठ दिखलाए तो घमंडी है; परन्तु इस प्रकार की स्थूल कसौटी से अंत तक निर्वाह नहीं हो सकता क्योंकि 'अति' किसे कहते हैं और 'नियमित' किसे कहते हैं – इसका भी तो कुछ निर्णय होना चाहिए न; तथा यह निर्णय कौन किस प्रकार करे? किसी एक को अथवा किसी एक मौके पर जो बात ‘अति’ होगी, वही दूसरे को अथवा दूसरे मौके पर कम हो जाएगी। हनुमान जी को, पैदा होते ही सूर्य को पकड़ने के लिए उड़ान मारना कोई कठिन काम नहीं मालूम पड़ा<balloon title="वाल्मीकि रामायण. 7.35" style=color:blue>*</balloon>; परन्तु यही बात औरों के लिए कठिन क्या, असंभव ही जान पड़ती है। इसलिए जब धर्म–अधर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो तो तब प्रत्येक मनुष्य को ठीक वैसा ही निर्णय करना पड़ता है जैसा श्येन ने राजा शिबि से कहा हैः–

अविरोधात्तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्तम।
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम्।
न बाधा विद्यते यत्र तं धर्मे समुपाचरेत्।।

अर्थात् परस्पर विरुद्ध धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता और गुरुता देखकर ही प्रत्येक मौके पर अपनी बुद्धि के द्वारा सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिए।<balloon title="महाभारत, वन पर्व, 131.11, 12 और मनुस्मृति, 9.299" style=color:blue>*</balloon> परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इतने ही से धर्म–अधर्म के सार–असार का विचार करना ही शंका के समय धर्म निर्णय की एक सच्ची कसौटी है। क्योंकि व्यवहार में अनेक बार देखा जाता है कि अनेक पंडित लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सार–असार का विचार भी भिन्न भिन्न प्रकार से किया करते हैं। यही अर्थ उपर्युक्त 'तर्कोऽप्रतिष्ठः' वचन में कहा गया है। इसलिए अब हमें यह जानना चाहिए कि धर्मः अधर्म संशय के इन प्रश्नों का अचूक निर्णय करने के लिए अन्य कोई साधन या उपाय हैं या नहीं। यदि हैं, तो कौन से हैं, और यदि अनेक उपाय हों तो उसमें श्रेष्ठ कौन हैं। बस; इस बात का निर्णय कर देना ही शास्त्र का काम है।

शास्त्र का यही लक्षण भी है कि अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम्

अर्थात् अनेक शंकाओं के उत्पन्न होने पर सबसे पहने उन विषयों के मिश्रण को अलग अलग कर दे जो समझ में नहीं आ सकते हैं, फिर उसके अर्थ को सुगम और स्पष्ट कर दे, और जो बातें आँखों से देख न पड़ती हों, उनका अथवा आगे होने वाली बातों का भी यथार्थ ज्ञान करा दे। जब हम इस बात को सोचते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के सीखने से आगे होने वाले ग्रहणों का भी सब हाल मालूम हो जाता है, जब उक्त लक्षण के 'परोक्षार्थस्य दर्शकम्' इस दूसरे भाग की सार्थकता अच्छी तरह देख पड़ती है। परन्तु अनेक संशयों का समाधान करने के लिए पहले यह जानना चाहिए कि वे कौन सी शंकाएँ हैं। इसलिए प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथकारों की यह रीति है कि किसी भी शास्त्र का सिद्धान्त पक्ष बतलाने के पहले, उस विषय में जितने पक्ष हो गए हों; उनका विचार करके उनके दोष और उनकी न्यूनताएँ दिखलाई जाती हैं। इसी रीति को स्वीकार कर गीता में कर्म–अकर्म निर्णय के लिए प्रतिपादन किया हुआ सिद्धान्त पक्षीय योग अर्थात् युक्ति बतलाने के पहले इसी काम के लिए जो अन्य युक्तियाँ पंडित लोग बतलाया करते हैं, उन पर भी विचार करें।

यह बात सच है कि ये युक्तियाँ हमारे यहाँ पहले विशेष प्रचार में न थीं; विशेष करके परिश्रमी पंडितों ने ही वर्तमान समय में उनका प्रचार किया है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चर्चा इस ग्रंथ में न की जाए। क्योंकि न केवल तुलना ही के लिए, किन्तु गीता के आध्यात्मिक कर्मयोग का महत्व ध्यान मं आने के लिए भी इन युक्तियों को संक्षेप में भी क्यों न हो, जान लेना अत्यंत आवश्यक है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फ्रांस देश में ऑगस्ट कोंट (Auguste Comte) नामक एक बड़ा पंडित गत शताब्दी में हो चुका है। इसने समाजशास्त्र पर एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखकर बतलाया है कि समाज रचना का शास्त्रीय रीति से किस प्रकार विवेचन करना चाहिए। अनेक शास्त्रों की आलोचना करके इसने यह निश्चय किया है कि किसी भी शास्त्र को ले लो, उसका विवेचन पहले पहल Theological पद्धति से किया जाता है; फिर Metaphysical पद्धति से होता है और अन्त में उसको Positive स्वरूप मिलता है। इन्हीं तीन पद्धतियों को हमने इस ग्रंथ में आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक; ये तीन प्राचीन नाम दिए हैं। ये पद्धतियाँ कुछ कोंट की निकाली हुई नहीं हैं; ये सब पुरानी ही हैं। तथापि उसने उनका ऐतिहासिक क्रम नई रीति से बाँधा है और उनमें आधिभौतिक (Positive) पद्धति को ही श्रेष्ठ बतलाया है; बस इतना ही कोंट का नया शोध है। कोंट के अनेक ग्रंथों का अंग्रेज़ी में भाषान्तर हो गया है।"

अन्य लिंक

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