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०९:०४, ५ जनवरी २०१० का अवतरण
गीता अध्याय-15 श्लोक-3 / Gita Chapter-15 Verse-3
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसग्ङशस्त्रेण दृढेन छित्वा ।।3।।
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इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता । क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है । इसलिये इस अहंता, ममता और वासना रूप अति दृढ मूलों वाले संसार रूप पीपल के वृक्ष को दृढ वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा काटकर –।।3।।
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The nature of this tree of creation does not on mature thought turn out what it is represented to be; for it has neither beginning nor end, nor even stability. Therefore, felling this Pipal tree, which is most firmly rooted, with the formidable axe of dispassion. (3)
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अस्य = इस संसार वृक्ष का ; रूपम् = स्वरूप (जैसा कहा है) ; तथा = वैसा ; इह = यहां (विचार काल में) ; च = और ; न = न ; अन्त: = अन्त है ; च = तथा ; न = न ; संप्रतिष्ठा = अच्छी प्रकार से स्थिति ही है ; (अत:) = इसलिये ; एनम् = इस ; न = नहीं ; उपलभ्यते = पाया जाता है ; (यत:) = क्योंकि ; न = न (तो इसका) ; आदि: = आदि है ; सुविरूढभूलम् = अहंता ममता और वासनारूप अति द्य्ढ भूलों वाले ; अश्र्वत्थम् = संसाररूप पीपल के वृक्ष को ; द्य्ढेन = द्य्ढ ; असग्ड शस्त्रेण = वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा ; छित्त्वा = काटकर ;
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