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इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को सन्तोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पत्र हो गयी, तब वे फिर कहने लगे-  
 
इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को सन्तोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पत्र हो गयी, तब वे फिर कहने लगे-  
  
''''गुरूनहत्वा हि महानुभावाज्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
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हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुज्जीय भोगान् रूधिरप्रदिग्धान् ।।5।।''''
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१०:१३, ७ अक्टूबर २००९ का अवतरण

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गीता अध्याय-2 श्लोक-5 / Gita Chapter-2 Verse-5

प्रसंग-


इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब अर्जुन को सन्तोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पत्र हो गयी, तब वे फिर कहने लगे-

'गुरूनहत्वा हि महानुभावाज्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।' 'हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुज्जीय भोगान् रूधिरप्रदिग्धान् ।।5।।'




इसलिये इन महानुभाव गुरूजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अत्र भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ । क्योंकि गुरूजनों को मारकर भी इस लोक में रूधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा ।।5।।


It is better to live on alms in this world without slaying these noble elders, because even after killing them we shall after all enjoy only blood-stained pleasures in the form of wealth and sense-enjoyments.(5)


महानुभावान् = महानुभाव; गुरून् = गुरूजनोंको ; अहत्वा = न मारकर ; इह =इस ; लोके = लोकमें ; भैक्ष्यम् = भिक्षाका अन्न ; अपि = भी ; भोक्तुम् = भोगना ; श्रेय: = कल्याणकारक (समझता हूं) ; हि = क्योंकि ; गुरून् = गुरूजनोंको ; हत्वा = मारकर ; (अपि) = भी ; इह = इस लोकमें ; रूधिरप्रदिग्घान् = रूधिरसे सने हुए ; अर्थकामान् = अर्थ और कामरूप ; भोगान् = भोगोंको ; एव = ही ; तु = तो ; भुझीय = भोगूंगा ; एतत् = यह ; च = भी ;

अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

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