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०५:१०, २४ अक्टूबर २००९ का अवतरण
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गीता अध्याय-3 श्लोक-1 / Gita Chapter-3 Verse-1
प्रसंग-
'बुद्धि' शब्द का अर्थ 'ज्ञान' मान लेने से अर्जुन को भ्रम हो गया , भगवान् के वचनों में 'कर्म' की अपेक्षा 'ज्ञान' की प्रशंसा प्रतीत होने लगी; एवं वे वचन उनको स्पष्ट न दिखायी देकर मिले हुए-से जान पड़ने लगे । अतएव भगवान् से उनका स्पष्टीकरण करवाने की और अपने लिये निश्चित श्रेय:साधन जानने की इच्छा से अर्जुन पूछते हैं-
इस अध्याय में नाना प्रकार के हेतुओं से विहित कर्मो की अवश्यकर्तव्यता सिद्ध की गयी है तथा प्रत्येक मनुष्य को अपने-अपने वर्ण आश्रम के लिये विहित कर्म किस प्रकार करने चाहिये, क्यों करने चाहिये, उनके न करने में क्या हानि है, करने में क्या लाभ है, कौन-से कर्म बन्धनकारक हैं और कौन से मुक्ति में सहायक हैं- इत्यादि बातें भलीभाँति समझायी गयी हैं । इस प्रकार इस अध्याय में कर्मयोग का विषय अन्यान्य अध्यायों की अपेक्षा अधिक और विस्तारपूर्वक वर्णित है एवं दूसरे विषयों का समावेश बहुत ही कम हुआ है, जो कुछ हुआ है, वह भी बहुत ही संक्षेप में हुआ है; इसलिये इस अध्याय का नाम 'कर्मयोग' रखा गया है ।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।।1।।
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अर्जुन बोले-
हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं ? ।।1।।
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arjuna said:
Krishna, if you consider knowledge as superior to action, then why do you urge me to this dreadful action, kesava !(1)
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जनार्दन = हे जनार्दन ; चेत् = चदि ; कर्मण: = कर्मोंकी अपेक्षा ; बुद्धि: = ज्ञान ; ते = आपके ; ज्यायसी = श्रेष्ठ ; मता = मान्य है ; तत् = तो फिर ; केशव = हे केशव ; माम् = मुझे ; घोरे =भयक्डर ; कर्मणि = कर्ममें ; किम् = क्यों ; नियोजयसि = लगाते हैं ;
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