"गोविन्द देव जी का मंदिर" के अवतरणों में अंतर

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निर्माता- राजा मान सिंह पुत्र राजा भगवान दास, आमेर (जयपुर, राजस्थान)
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शिल्प रूपरेखा एवं निरीक्षण - रूप और सनातन गुरू, कल्यानदास (अध्यक्ष), माणिक चन्द्र चोपड़ा (शिल्पी), गोविन्द दास और गोरख दास (कारीगर)
 
शिल्प रूपरेखा एवं निरीक्षण - रूप और सनातन गुरू, कल्यानदास (अध्यक्ष), माणिक चन्द्र चोपड़ा (शिल्पी), गोविन्द दास और गोरख दास (कारीगर)

०६:४८, १७ मई २००९ का अवतरण

निर्माण काल - ई. 1590 । संवत् 1647

शासन काल - अकबर (मुग़ल)

निर्माता- राजा मान सिंह पुत्र राजा भगवान दास, आमेर (जयपुर, राजस्थान)

शिल्प रूपरेखा एवं निरीक्षण - रूप और सनातन गुरू, कल्यानदास (अध्यक्ष), माणिक चन्द्र चोपड़ा (शिल्पी), गोविन्द दास और गोरख दास (कारीगर)

निर्माण शैली - हिन्दू (उत्तर-दक्षिण भारत), जयपुरी, मुग़ल, यूनानी और गोथिक का मिश्रण।

लागत मूल्य- एक करोड़ रूपया (लगभग) । 5-10 वर्ष में तैयार ।

माप- 105 x 117 फुट (200 x 120 फुट बाहर से) । ऊँचाई- 110 फुट (सात मंज़िल थीं आज केवल चार ही मौजूद हैं)

विशेषता- उत्तरी भारत की स्थापत्यकला का उत्‍कृष्टतम् नमूना


गोविन्द देव जी का मंदिर ई. 1590 ( सं.1647)में बना । मंदिर के शिला लेख [संदर्भ देखें] से यह जानकारी पूरी तरह सुनिश्चित हो जाता है कि इस भव्य देवालय को आमेर ( जयपुर राजस्थान ) के राजा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह ने बनवाया था । रूप एवं सनातन नाम के दो गुरूऔं की देखरेख में मंदिर के निर्माण होने का उल्लेख भी मिलता है । जेम्स फर्गूसन ने लिखा है कि यह मन्दिर भारत के मन्दिरों में बड़ा शानदार है । मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है 'औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है । औरंगज़ेब, मंदिर की चमक से परेशान था, समाधान के लिए उसने तुरंत कार्यवाही के रूप में सेना भेजी । मंदिर, जितना तोड़ा जा सकता था उतना तोड़ा गया और शेष पर मस्जिद की दीवार, गुम्मद आदि बनवा दिए । कहते हैं औरंगज़ेब ने यहाँ नमाज़ में हिस्सा लिया ।'

मंदिर का निर्माण में 5 से 10 वर्ष लगे और लगभग एक करोड़ रूपया ख़र्चा बताया गया है । सम्राट अकबर ने निर्माण के लिए लाल पत्थर दिया । श्री ग्राउस के विचार से, अकबरी दरबार के ईसाई पादरियों ने, जो यूरोप के देशों से आये थे, इस निर्माण में स्पष्ट भूमिका निभाई जिससे यूनानी क्रूस और यूरोपीय चर्च की झलक दिखती है ।


डा.प्रभुदयाल मीतल ने श्री उदयशंकर शास्त्री के हवाले से बताया है कि ग्राउस का कथन सही नहीं है। 'प्रासाद मंडन में कहा है- प्रासाद (गर्भगृह) के आगे बूढ़ मंडप, उसके आगे छ: चौकी, छ: चौकी के आगे रंग मंडप, रंग मंडप के आगे तोरणयुक्त मंडप बनना चाहिए । इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता इसके मंडप में ही है । इसके खंड आपस में इस सुघड़ता के साथ गुंथे हुए हैं कि उनसे मंदिर के मुख्य जगमोहन की शोभा द्विगुड़ित हो जाती है । इसका व्यास ४० फुट है और लम्बाई चौड़ाई नियमानुसार है । इसकी छत चार कमानी दार आरों (शहतीर नुमा पत्थरों) से बनाई गयी है ।...'


ई.1873 में श्री ग्राउस (तत्कालीन ज़िलाधीश मथुरा) ने मंदिर की मरम्मत का कार्य शुरू करवाया जिसमें 38,365 रूपये का ख़र्च आया । जिसमें 5000 रूपये महाराजा जयपुर ने दिया और शेष सरकार ने । मरम्मत और रख रखाव आज भी जारी है लेकिन मंदिर की शोचनीय दशा को देखते हुए यह सब कुछ नगण्य है।

इतिहास

गोस्वामियों ने वृन्दावन आकर पहला काम यह किया कि वृन्दा देवी के नाम पर एक वृन्दा मन्दिर का निर्माण कराया । इसका अब कोई चिन्ह विद्यमान नहीं रहा । कुछ का कथन है कि यह सेवाकुंज में था । इस समय यह दीवार से घिरा हुआ एक उद्यान भर है । इसमें एक सरोवर है । यह रास मण्डल के समीप स्थित है । इसकी ख्याति इतनी शीघ्र चारों ओर फैली कि सन् 1573 ई० में अकबर सम्राट यहाँ आँखों पर पट्टी बाँधकर पावन निधिवन में आया था । यहाँ उसे ऐसे विस्मयकारी दर्शन हुए कि इस स्थल को वास्तव में धार्मिक भूमि की मान्यता उसे देनी पड़ी । उसने अपने साथ आये राजाओं को अपना हार्दिक समर्थन दिया कि इस पावन भूमि में स्थानीय देवता महनीयता के अनुरूप मन्दिरों की एक शृंखला खड़ी की जाए । गोविंददेव, गोपीनाथ, जुगल किशोर और मदनमोहन जी के नाम से बनाये गये चार मन्दिरों की शृंखला, उसी स्मरणीय घटना के स्मृति स्वरुप अस्तित्व में आई । वे अब भी हैं किन्तु नितान्त उपेक्षित और भग्नावस्था में विद्यमान हैं । गोविंददेव का मन्दिर इनमें से सर्वोत्तम तो था ही, हिन्दू शिल्पकला का उत्तरी भारत में यह अकेला ही आदर्श था । इसकी लम्बाई चौड़ाई 100-100 फीट है । बीच में भव्य गुम्बद है । चारों भुजायें नुकीलें महराबों से ढ़की हैं । दीवारों की औसत मोटाई दस फीट है । ऊपर और नीचे का भाग हिन्‍दू शिल्पकला का आदर्श है और बीच का मुस्लिम शिल्प का । कहा जाता है कि मन्दिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी । यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी किस्म का एक ही नमूना है । खजुराहों के मन्दिर भी इसी शिल्प के हैं । मूलभूत योजनानुसार पाँच मीनारें बनवाई गयीं थीं, एक केन्द्रीय गुम्बद पर और चार अन्य गर्भगृह आदि ,पर गर्भगृह पूरा गिरा दिया गया है । दूसरी मीनार कभी पूरी बन ही नहीं पायी । यह सामान्य विश्वास है कि औरंगज़ेब बादशाह ने इन मीनारों को गिरवा दिया था । नाभि के पश्चिम की एक ताख के नीचे एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर संस्कृत में लम्बी इबारत लिखी हुई है । इसका लेख बहुत बिगड़ा हुआ है । फिर भी इसका निर्माण संवत् 1647 वि० पढ़ा जा सकता है और यह भी कि रूप और सनातन के निर्देशन में बना था । भूमि से दस फीट ऊँचा लिखा है- [संदर्भ देखें] राजा पृथिवी सिंह जयपुर के महाराजा के पूर्वज थे । उसके सत्रह बेटे थे । उनमें से बारह को जागीरें दी गयीं थी । यह अम्बेर ( आमेर-जयपुर ) की बारह कोठरी कहलाती हैं । मन्दिर का संस्थापक राजा मानसिंह राव पृथिवीसिंह का पौत्र था । औरंगजेब के राज से 1873 ई तक मन्दिर के र्जीणोध्दार का कोई प्रयास नहीं किया गया है । मंदिर को आसपास रहने वालों की दया पर छोड़ दिया गया था । वे इसमें से तोड़ फोड़ कर भवन का सामान भी ले जाते रहे । दीवारों पर बड़े-बड़े झाड़ उग आये । सर विलियम मूर की उपस्थिति में मथुरा के कलक्टर एफ० एस० ग्राउस ने मन्दिर को सुरक्षार्थ पुरात्तव विभाग को देना चाहा किन्तु उसने कोई अनुदान नहीं दिया । इसकी मरम्मत के लिए इसके संस्थापक जयपुर नरेश को लिखा गया । नरेश ने इंजीनियरों की कूत के अनुसार रू० 5000 स्वीकार कर लिये । 1873 ई० में इसकी मरम्मत का काम आरम्भ हुआ । औरंगजेब द्वारा बनवाई गई दीवार तुड़वा दी गई और मलवा उठवा दिया गया, जो मन्दिर की दीवारों के सहारे-सहारे लगभग आठ-आठ फीट की ऊँचाई तक जमा हो गया और प्लिन्थ (कुर्सी) की सुन्दरता को नष्ट कर रहा था । अनेक मकान मन्दिर की दीवारों के सहारे मन्दिर के आँगन में बन गये थे, वे गिरा दिये गये । इस प्रकार पूर्व और दक्षिण भाग के दो चौड़े विशाल रास्ते खोल दिये गये । पहले मन्दिर में प्रवेश के लिए संकरी और टेड़ी मेढ़ी गली ही थी, जहाँ से पूरे मन्दिर को देखा जा सकता था । नाभिस्थल के उत्तरी भाग में एक टूटे लिंटर को संभालने के लिये एक ईटों का खम्भा बनवा दिया गया था । वह भी गिरा दिया गया । टूटे हुए पत्थर के लिंटर को लोहे के तीन वोल्टों से कसकर साध दिया गया । दक्षिण दिशा में गुम्बद और मीनार वाली एक सुन्दर छतरी थी, जो मन्दिर के चालीस वर्ष बाद बनाई गयी थी । इसके बाद इस सूबे के शासक सर जॉन स्ट्रेची हुए । शासन ने सरकारी कोष से मन्दिर को कुछ अनुदान बाँध दिया था । इससे मन्दिर की पूरी छत की मरम्मत हो सकी । पूर्व का ऊपर का भाग बिल्कुल खस्ता हाल में था । वह उतार कर पुन: पूरा बनवाया गया । उत्तर के और दक्षिण के भागों को भी पुन: बनवाया गया । जगमोहन का भी जीर्णोध्दार कराया गया । स्ट्रेची के बाद आये सर जॉर्ज काउपर ने सन् 1877 ई० के मार्च माह तक मन्दिर को नया रूप दिया । इसमें कुल लागत रू० 38365 आई ।