ग्रहण

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ग्रहण

अति प्राचीन कालों से सूर्य-चन्द्र-ग्रहणों को महत्त्व दिया जाता रहा है। ग्रहण के सम्बन्ध में विशाल साहित्य का निर्माण हो चुका है। देखिए हेमाद्रि (काल, पृ0 379-394), कालविवेक (पृ0 521-543), कृत्यरत्नाकर (पृ0 625-631), कालनिर्णय (पृ0 346-358), वर्षक्रियाकौमुदी (पृ0 90-117), तिथितत्त्व (पृ0 150-162), कृत्यतत्त्व (पृ0 432-434), निर्णयसिन्धु (पृ0 61-76), स्मृतिकौस्तुभ (पृ0 69-80), धर्मसिन्धु (पृ0 32-34), गदाधरपद्धति (कालासार, पृ0 588-599)।

पूर्ण सूर्य-ग्रहण का संकेत ऋग्वेद (5।40।5-6, 8) में भी है। शांखायन ब्राह्मण (24।3) में आया है कि अत्रि ने विषुवत् (विषुव) के तीन दिन पूर्व सप्तदश-स्तोम कृत्य किया और उसके द्वारा उस स्वर्भानु को पछाड़ा जिसने सूर्य को अंधकार से भेद दिया था, अर्थात् सूर्यग्रहण (¬ऋ0 5।40।5) शरद विषुव के तीन दिन पूर्व हुआ था।

बृहत्संहिता से प्रकट होता है कि ग्रहण का वास्तविक कारण भारतीय ज्योतिष शास्त्रज्ञों को वराहमिहिर (ईसा की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध) के कई शताब्दियों पूर्व से ज्ञात था। वराहमिहिर ने लिखा है [१]

चन्द्रग्रहण में चन्द्र पृथिवी की छाया में आ जाता है तथा सूर्यग्रहण में चन्द्र सूर्य में प्रविष्ट हो जाता है। (अर्थात् सूर्य एवं पृथिवी के बीच में चन्द्र आ जाता है।), ग्रहणों के इस कारण को पहले के आचार्य अपनी दिव्य दृष्टि से जानते थे; राहु ग्रहणों का कारण नहीं है, यही सत्य स्थिति है जिसे शास्त्र घोषित करता है। इस सत्य सिद्धान्त के रहते हुए सामान्य लोग, यहाँ तक कि पढ़े-लिखे लोग (किन्तु ज्योति:शास्त्रज्ञ नहीं)। पहले विश्वास करते थे और अब भी विश्वास करते हैं कि राहु के कारण ग्रहण लगते हैं और उन्हें स्नान, दान, जप, श्राद्ध आदि का विशिष्ट अवसर मानते हैं। वराहमिहिर ने श्रुति, स्मृति, सामान्य विश्वास एवं ज्योतिष के सिद्धान्त का समाधान करने का प्रयत्न किया है औ कहा है कि एक असुर था जिसे ब्रह्मा ने वरदान दिया कि ग्रहण् पर दिये गये दानों एवं आहुतियों से तुम कों संतुष्टि प्राप्त होगी। वही असुर अपना अंश ग्रहण करने को उपस्थित रहता है व उसे लाक्षणिक रूप से राहु कहा जाता है। बुद्धिवाद, सामान्य परम्पराएँ एवं अन्धविश्वास एक-साथ नहीं चल सकते। सूर्य एवं चन्द्र के ग्रहणों में कुछ अन्तर उपस्थित किया गया था। व्यास की उक्ति है- 'चन्द्रग्रहण (सामान्य दिन से) एक लाखगुना (फलदायक) है और सूर्य ग्रहण पहले से दसगुना, यदि गंगा-जल (स्नान के लिए) पास में हो तो चन्द्रग्रहण एक करोडगुना अधिक (फलदायक) है और सूर्यग्रहण उससे दस-गुना अधिक।[२]


ग्रहण-दर्शन पर प्रथम कर्तव्य है स्नान करना। ऐसा आया है कि राहु देखने पर सभी वर्णों के लोग अपवित्र हो जाते है। उन्हें सर्वप्रथम स्नान करना चाहिए, तब अन्य कर्तव्य करने चाहिए, (ग्रहण के पूर्व) पकाये हुए भोजन का त्याग कर देना चाहिए। हे0, काल, पृ0 390; कालविवेक, पृ0 533; व0 क्रि0 कौ0, पृ0 91)।

ग्रहण के समय के विषय में विचित्र पुनीतता का उल्लेख हुआ है, यदि कोई व्यक्ति ग्रहण-काल एवं संक्रान्ति-काल में स्नान नहीं करता तो वह भावी सात जन्मों में कोढ़ी हो जायगा और दु:ख का भागी होगा (स0म0, पृ0 130)। उसे ठण्डे जल में स्नान करना चाहिए और वह भी यथासम्भाव पवित्र स्थल पर। पुनीततम स्नान गंगा में या गोदावरी में या प्रयाग में होता है, इसके उपरान्त किसी भी बड़ी नदी में, यथा 6 नदियाँ जो हिमालय से निकली हैं, 6 नदियाँ जो विन्ध्य से निकली हैं, इसके उपरान्त किसी भी जल में, क्योंकि ग्रहण के समय सभी जल गंगा के समान पवित्र हो उठते हैं। गर्म जल का स्नान केवल बच्चों, बूढ़ों एवं रोगियों के लिए आज्ञापित है। [३] ग्रहण आरम्भ होने पर स्नान, होम, देवों की पूजा, ग्रहण के समय श्राद्ध, जब ग्रहण समाप्त होने को हो तो दान तथा जबग्रहण समाप्त हो जाय तो पुन: स्नान करना चाहिए। जनन-मरण के समय आशौच पर भी ग्रहण के समय स्नान करना चाहिए, किन्तु गौड़-लेखकों के मत से, उसे दान या श्राद्ध नहीं करना चाहिए। इस विषय में मदनरत्न तथा निर्णयसिन्धु ने विरोधी मत दिया है; उनके मत से अशौच में स्नान, दान, श्राद्ध एवं प्रायश्चित्त करना चाहिए (नि0 सि0, पृ0 66)।

कुछ पुराणों एवं निबन्धों में कुछ विशिष्ट मासों के ग्रहणों के फलों तथा कुछ विशिष्ट नदियों या पूत स्थलों में स्नान के फलों में अन्तर प्रतिपादित हुए हैं। कालनिर्णय (पृ0 350) ने चन्द्रग्रहण पर गोदावरी में एवं सूर्यग्रहण पर नर्मदा में स्नान की व्यवस्था दी है। कृत्यकल्पतरू (नैयतकाल), हेमाद्रि (काल) एवं कालविवेक ने देवीपुराण की उक्तियाँ दी हैं, जिनमें कुछ निम्न हैं- 'कार्तिक के ग्रहण में गंगा-यमुना-संगम श्रेष्ठ है, मार्गशीर्ष में देविका में, पौष में नर्मदा में, माघ में सन्निहिता नदी पवित्र है' आदि-आदि।

गोदावरी भीमरथी तुंगभद्रा च वेणिका।

तापी पयोष्णी विन्ध्यस्य दक्षिणे तु प्रकीर्तिता:॥

भागीरथी नर्मदा च यमुना च सरस्वती।

विशोका च वितस्ता च हिमवत्पर्वताश्रिता:॥

एता नद्य: पुष्यतमा देवतीर्थान्युदाहृता:। ब्रह्मपुराण (70 ।33-34)।

सामान्य नियम यह है कि रात्रि में स्नान, दान एवं श्राद्ध वर्जित है। आपस्तम्ब0 (1।11।32।8) में आया है- 'रात्रि में उसे स्नान नहीं करना चाहिए।' मनु (3।280) का कथन है- रात्रि में स्नान नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह राक्षसी घोषित है, और दोनों सन्ध्यायों में तथा जब सूर्य अभी-अभी उदित हुआ है स्नान नहीं करना चाहिए। किन्तु ग्रहण में स्नान, दान एवं श्राद्ध अपवाद हैं। याज्ञ0 (1।2।18) के अनुसार ग्रहण श्राद्ध-काल कहा गया है।

शातातप (हे0, काल, पृ0 387; का0 वि0,पृ0 527; स्मृतिकौ0, पृ0 71) का कथन है कि ग्रहण के समय दानों, स्नानों, तपों एवं श्राद्धों से अक्षय फल प्राप्त होते हैं, अन्य कृत्यों में रात्रि (ग्रहणों को छोड़कर) राक्षसी है, अत: इसससे विमुख रहना चाहिए। महाभारत में आया है- 'अयन एवं विषुव के दिनों में, चन्द्र-सूर्य-ग्रहणों पर व्यक्ति को चाहिए कि वह सुपात्र ब्राह्मण को दक्षिणा के साथ भूमिदान दे,' (का0 नि0, पृ0 354; स्मृतिकौ0, पृ0 72)। याज्ञ0 में ऐसा आया है कि 'केवल विद्यायातप से ही व्यक्ति सुपात्र नहीं होता, वही व्यक्ति पात्र है जिसमें ये दोनों तथा कर्म (इन दोनों के समानुरूप) पाये जायें।' कतिपय शिलालेखों में ग्रहण के समय के भूमिदानों का उल्लेख है; प्राचीन एवं मध्य कालों में राजा एवं धनी लोग ऐसा करते थे (देखिए इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, 6, पृ0 72-75; एपिग्रैफिया इण्डिका, 3, पृ0 1-7; वही, 3, पृ0 103-110 ; वहीं, 7, पृ0 202-208; वही, 9, पृ0 97-102; वही, 14, पृ0 156-163 आदि-आदि)। आज भी ग्रहण के समय दरिद्र लोग नगरों एवं बस्तियों में वस्त्रों एवं पैसों के लिए शोर-गुल करते दृष्टिगोचर होते हैं। ग्रहण के समय श्राद्ध-कर्म करना दो कारणों से कठिन है। अधिकांश में ग्रहण अल्पावधि के होते हैं, दूसरे, ग्रहण के समय भोजन करना वर्जित है। ग्रहण के समय भोजन करने से प्राजापत्य प्रायश्चित करना पड़ता है। इसी से कुछ स्मृतियों एवं निबन्धों में ऐसा आया है कि श्राद्ध आम-श्राद्ध या हेम-श्राद्ध होना चाहिए। ग्रहण के समय श्राद्ध करने से बड़ा फल मिलता है, किन्तु उस समय भोजन करने पर प्रायश्चित करना पड़ता है और व्यक्ति अन्य लोगों की दृष्टि में गिर जाता है। मिताक्षर (याज्ञ0 1।217-218) ने उद्धृत किया है- 'सूर्य या चन्द्र के ग्रहणों के समय भोजन नहीं करना चाहए।' अत: कोई पात्र ब्राह्मण आसानी से नहीं मिल सकता, और विस्तार के साथ श्राद्ध-कर्म एक प्रकार से असम्भव है। तब भी शातातप आदि कहते हैं कि श्राद्ध करना आवश्यक है- 'राहुदर्शन पर व्यक्ति को श्राद्ध करना चाहिए, यहाँ तक कि अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ; जो व्यक्ति श्राद्ध नहीं करता वह गाय के समान पंक में डूब जाता है।' ग्रहण पर कृत्यों के क्रम यों हैं- गंगा या किसी अन्य जल में स्नान, प्राणायाम, तर्पण, गायत्रीजप, अग्नि में तिल एवं व्याहृतियों तथा ग्रहों के लिए व्यवस्थित मन्त्रों के साथ होम (याज्ञ0 1। 30-301), इसके उपरान्त आमश्राद्ध, सोना, गायों एवं भूमि के दान। आजकल अधिकांश लोग ग्रहण के समय स्नान करते हैं और कुछ दान भी करते हैं किन्तु ग्रहण-सम्बन्धी अन्य कृत्य नहीं करते। ग्रहण-काल जप, दीक्षा, मन्त्र-साधना (विभिन्न देवों के निमित्त) के लिए उत्तम काल है (देखिए, हे0, काल0, पृ0 389; ति0 त0, पृ0 156; नि0 सि0, पृ0 67)। जब तक ग्रहण आँखों से दिखाई देता है तब तक की अवधि पुण्यकाल कही जाती है। जाबालि में आया है- 'संक्रान्ति में इसके इधर-उधर 16 कलाओं तक पुण्यकाल रहता है किन्तु सूर्यचन्द्र-ब्रहण में यह केवल तब तक रहता है जब तक ग्रहण दर्शन होता रहता है (दे0 कृ0 क0, नैयत, पृ0 368; हे0, काल, 388; कृ0र0, पृ0 625; स्मृतिकौ0, पृ0 69)। इस विषय में मध्यकालिक ग्रन्थों में बड़े मतमतान्तर हैं। विभेद 'यावद्दर्शनगोचर' एवं 'राहु-दर्शन' शब्दों को लेकर है।(7) कृत्यकल्पतरू का तर्क है कि 'दर्शन' शब्द कतिपय कृत्यों (यथा स्नान, दान आदि) के कारण एवं अवसर को बताता है, ग्रहण तो तभी अवसर है जब यह जाना जा सके कि वह घटित हुआ है और यह ज्ञान आँख से प्राप्त होता है तथा जब सूर्य या चन्द्र बादलों में छिपा हो तो व्यक्ति ग्रहण के समय के प्रतिपादित कर्म नहीं भी कर सकता है। हेमाद्रि ने इसका उद्धरण देकर इसकी आलोचना की है। वे मनु के इस कथन पर विश्वास करते हैं कि (मनु0 4।37) व्यक्ति को उदित होते हुए, अस्त होते हुए या जब उसका ग्रहण हो यह जल में प्रतिबिम्बित हो या जब सूर्य मध्याह्न में हो तो उसको नहीं देखना चाहिए। ऐसी स्थिति में मनु के मत से वास्तविक ग्रहण-दर्शन असम्भव है और तब तो व्यक्ति स्नान नहीं कर सकता। हेमाद्रि का कथन है कि शिष्ट लोग स्नान आदि करते हैं, भले ही वे ग्रहण को वास्तविक रूप में न देख सकें। अत: उनके मत से पुण्यकाल तब तक रहता हे जब तक (ज्योतिष) शास्त्र द्वारा वह समाप्त न समझा जाय। कृ0 र0 (पृ0 526) का कथन है कि जब तक उपराग (ग्रहण) दर्शन योग्य रहता है तब तक स्नानादि किया होती रहती है। कुछ लोगों ने तो ऐसा तर्क किया है कि केवल ग्रहण-मात्र (दर्शन नहीं) ऐसा अवसर है जब कि स्ना, दान आदि कृत्य किये जाने चाहिए, किन्तु कालविवेक (पृ0 521) ने उत्तर दिया है। कि यदि ग्रहण-मात्र ही स्नानादि का अवसर है तो ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जायगी कि यदि चन्द्र का ग्रहण किसी अन्य द्वीप में हो तो व्यक्ति को दिन में ही सूर्यग्रहण के समान अपने देश में स्नानादि करने होंगे। स्मृतिकौस्तुभ (पृ0 70) एवं समयप्रकाश (पृ0 126) ने इसीलिए कहा है कि 'दर्शनगोचर' का तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति ज्योति:शास्त्र से जानता है कि किसी देश में ग्रहण आँखों से देखा जा सकता है तो उसे उस काल में स्नानादि कृत्य करने चाहिए (भले ही वह उसे न देख सके)। संवत्सरप्रदीप ने स्पष्ट लिखा है- 'वही ग्रहण है जो देखा जा सके, व्यक्ति को ऐसे ग्रहण पर धार्मिक कृत्य करने चाहिए, केवल गणना पर ही आश्रित नहीं रहना चाहिए।' यदि सूर्यग्रहण रविवार को एवं चन्द्रग्रहण सोमवार को हो तो ऐसा सम्मिलन 'चूड़ामणि' कहलाता है और ऐसा प्रतिपादित है कि चूड़ामणि ग्रहण अन्य ग्रहणों की अपेक्षा एक कोटि अधिक फलदायक होता है (का0 वि0, पृ0 523; का0 नि0, पृ0 351; ति0 त0, पृ0 154; स्मृतिकौ0, 70, व्यास से उद्धृत)। कुछ लोगों ने ऐसा प्रतिपादित किया है कि ग्रहण के एक दिन पूर्व उपवास करना चाहिए, किन्तु हेमाद्रि ने कहा है कि उपवास ग्रहण-दिन पर ही होना चाहिए। किन्तु पुत्रवान् गृहस्थ को उपवास नहीं करना चाहिए (हे0 व्रत, भाग 2, पृ0 917)। बहुत प्राचीन कालों से ग्रहण के पूर्व, उसके समय तथा उपरान्त भोजन करने के विषय में विस्तार के साथ नियम बने हैं।(8) विष्णुधर्मसूत्र में व्यवस्था है- 'चन्द्र या सूर्य के ग्रहण-काल में भोजन नहीं करना चाहिए; जब ग्रहण समाप्त हो जाय तो स्नान करके खाना चाहिए; यदि ग्रहण के पूर्व ही सूर्य या चन्द्र अस्त हो जायें तो स्नान करना चाहिए और सूर्योदय देखने के उपरान्त ही पुन: खाना चाहिए।' यही बात कुछ ग्रन्थों में उद्धृत दो श्लोकों में विस्तारित है- 'सूर्य-ग्रहण के पूर्व नहीं खाना चाहिए और चन्द्र-ग्रहण के दिन की सन्ध्या में भी नहीं खाना चाहिए; ग्रहण-काल में भी नहीं खाना चाहिए; किन्तु जब सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण से मुक्त हो जायें तो स्नानोपरान्त खाया जा सकता है; जब चन्द्र मुक्त हो जाय तो उसके उपरान्त रात्रि में भी खाया जा सकता है, किन्तु यह तभी किया जा सकता है जब महानिशा न हो; जब ग्रहण से मुक्त होने के पूर्व ही सूर्य या चन्द्र अस्त हो जायें तो दूसरे दिन उनके उदय को देखकर ही स्नान करके खाना चाहिए।' यह भी कहा गया है कि न केवल ग्रहण के काल में ही खाना नहीं चाहिए, प्रत्युत चन्द्रग्रहण में आरम्भ होने से 3 प्रहर (9 घण्टे या 22.5 घटिकाएँ) पूर्व भी भोजन नहीं करना चाहिए और सूर्यग्रहण के आरम्भ के चार प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए; किन्तु यह नियम बच्चों, वृद्धों एवं स्त्रियों के लिए नहीं है।(9) यह तीन या चार प्रहरों की अवधि (ग्रहण के पूर्व से) प्राचीन काल से अब तक 'वेध' नाम से विख्यात है। कृत्यतत्त्व (पृ0 434) ने भोजन विषयक सभी उपर्युक्त नियम एक स्थान पर एकत्र कर रखे हैं। आज ये नियम भली भाँति नहीं सम्पादित होते, किन्तु आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व ऐसी स्थिति नहीं थी। ग्रहणों से उत्पन्न बहुत से फलों की चर्चा हुई है। दो-एक उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं। विष्णुधर्मोत्तर (1।75।56) में आया है- 'यदि एक ही मास में पहले चन्द्र और उपरान्त सूर्य के ग्रहण हों तो इस घटना के फलस्वरूप ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों में झगड़े या विरोध उत्पन्न होंगे, किन्तु यदि इसका उलटा हो तो समृद्धि की वृद्धि होती है।'(10) उसी पुराण में यह भी आया है- 'उस लक्षत्र में, जिसमें सूर्य या चन्द्र का ग्रहण होता है, उत्पन्न व्यक्ति दु:ख पाते हैं, किन्तु इन दु:खों का मार्जन शान्ति कृत्यों से हो सकता है।' इस विषय में देखिए हेमाद्रि (काल0 पृ0 392-393) अत्रि की उक्ति है- 'यदि किसी व्यक्ति के जन्म-दिन के नक्षत्र में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण हो तो उस व्यक्ति को व्याधि, प्रवास, मृत्यु एवं राजा से भय होता है।'(11) 7. शातातप:। स्नानं दानं तप: श्राद्धमनन्तं राहुदर्शने। आसुरी रात्रिरन्यत्र तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥ (हे0, काल, पृ0 387; का0 वि0, पृ0 527; स्मृतिकौ0, पृ0 71)। संकान्तौ पुण्यकालस्तु षोडशोभयत: कला:। चन्द्रसूर्योपरागे तु यावद्दर्शनगोचर:॥ जाबालि (कृ0 क0, नैयत0, पृ0 368; हे0, काल, पृ0 388; कृ0, र0, पृ0 624; स्मृतिकौ0, पृ0 69)। 8. चन्द्रार्कोपरागे नाश्नीयादविमुक्तयोरस्तंगतयोर्दृष्ट्वा स्नात्वा परेऽहनि। विष्णुधर्मसूत्र (68। 1-3); हे0, काल, पृ0 396; का0 वि0, पृ0 537; कृ0 र0, पृ0 626; व0 क्रि0 कौ0, पृ0 102; नाद्यात्सूर्यग्रहात्पूर्वमह्नि सायं शशिग्रहात्। ग्रहकाले च नाश्नीयात्स्नात्वाश्नीयाच्च विमुक्तयों:॥ मुक्ते शशिनि भुंजीत यदि स्यात्र महानिशा। स्नात्वा दृष्ट्वापरेऽह्वचद्याद् ग्रस्तास्तमितयोस्तयो:॥ उद्धत- कृत्यकल्पतरू (नैयत0, पृ0 309-310); काल-वि0 (पृ0 537); हे0(काल, पृ0 370); कृ0 र0 (पृ0 626-627); व0 कि0 कौ0 (पृ0 104)। इनमें कतिपय श्लोक विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न लोगों के कहे गये हैं। 9. वृद्धगौतम:। सूर्यग्रहे तु नाश्नीयात् पूर्व यामचतुष्टयम्। चन्द्रग्रहे तु यामांस्त्रीन् बालवृद्धातुरैर्विना॥ हे0, काल, पृ0 381; स्मृतिकौ0, पृ0 76। 10. एकस्मिन्यदि मासे स्याद् ग्रहणं चन्द्रसूर्ययो:। ब्रह्मक्षत्रविरोधाय विपरीते विवृद्धये॥ विष्णुधर्मोतर (1।85।56)। 'यन्नक्षत्रगतौ राहुर्ग्रसते चन्द्रभास्करौ। तज्जातानां भवेत्पीडा ये नरा: शान्तिवर्जिता:॥' वही, (1।85।33-34)। 11. आह चात्रि:। यस्य स्वजन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ। व्याधिं प्रवासं मृत्युं च राज्ञश्चैव महद्भयम्॥ का0 वि0 (पृ0 543)।

  1. भूच्छायां स्वग्रहणे भास्करमर्कग्रहे प्रविशतीन्दु:।... इत्युपरागकारणमुक्तमिदं दिव्यदृग्भिराचार्वै:। राहुरकारणमस्मित्रियुक्त: शास्त्रसद्भाव:॥ बृहत्सं0 (5।8 एवं 13)।
  2. व्यास:। इन्दोर्लक्षगुणं प्रोक्तं रवेर्दशगुणं स्मृतम्। गंगातोये तु सम्प्राप्ते इन्दो: कोटी रवेर्दश॥ हे0 (काल, पृ0 384), का0 वि0 (पृ0 521) एवं नि0 सि0 (पृ0 64)।
  3. सर्व गंगासमं तोयं सर्वे व्याससमा द्विजा:। सर्व मेरूसमं दानं ग्रहणे सूर्यचन्द्रयो:॥ भुजबल (पृ0 348); व0 क्रि0 कौ0 (पृ0 111); का0 नि0 (पृ0 348); स0 म0 (पृ0 130)।