चतुर्वेदी इतिहास 1

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श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास

इतिहास का स्वरूप

भारतवर्ष विश्व का सबसे प्राचीन देश है। भारतवर्ष की सीमा वेदों, पुराणों के अनुसार ब्रह्मषि देश में सन्निहित है। ब्रह्मर्षि देश का सर्व पुरातन विश्व वन्दित सूरसेन देश, ब्रजमंडल या मथुरा मण्डल है। मथुरापुरी विश्व को सबसे प्राचीन आदिपुरी है, तथा प्रमथक्षेत्र मथुरा को स्थापित करने का श्रेय माथुर ब्राह्मणों को है। अग्नि का उत्पादन अग्नि मन्थन की विद्या मानव सभ्यता को सबसे पहली कड़ी है। वे माथुर ही थे जिन्होंने मानव के वन्य जीवन को अरणी मंथन के द्वारा अग्नि उत्पादन का महान आविष्कार किया। वेदों में अग्नि, सोम, इन्द्र के सर्वाधिक मंत्र हैं। अग्नि देव ही मानव का आदि पूर्वज ब्राह्मण माथुर संज्ञक था। माथुरों की इस उत्पत्ति के सम्बन्ध में हम माथुर हितैषी में पर्याप्त प्रकाश डाल चुके है । माथुरों ने ही मथुरा की स्थापना की, अनेक कल्प पूर्व से माथुरों का इतिहास क्रम वेदादि शास्त्रों में वर्णित है। युग युगों मैं माथुरों की विप्र श्रेष्ठता का सन्मान प्रतिष्ठित रहा है।

माथुरों के सम्बन्ध में मिथ्या शंकायें और कुतर्कबाद

महर्षि वेद व्यास श्री कृष्णकाल और बुद्ध काल तक माथुरों के विषय में शंकायें नहीं उठायी गई। बुद्ध के बाद भी आचार्यों एवं राजा महाराजाओं द्वारा माथुरों का पूर्ण सम्मान होता रहा, किन्तु उसके बाद भारत का अनेक छोटे क्षेत्रों में विभाजन हो जाने के कारण बाह्मण कहे जाने वाले ब्रह्मकर्म विरत अनेक लोग कान्य कुब्ज, गौड़, सारस्वत, मैथिल, महाराष्ट्र, द्राविड़, गुर्जर आदि अनेक छोटे छोटे क्षेत्रों के अनुसार अपनी जाति का अलग अलग समूह बनाकर एक ब्राह्मणत्व के स्थान पर क्षेत्रीयता के अहंकार में डूब गये। उन्होंने अपने गोत्रकर्ता ऋषियों, वंशप्रमुख महर्षियों आदि के गर्व को भुलाकर इन क्षेत्रों के राजाओं की अनुकृति में अपना नया रूप बना लिया। इनमें से एक गुट ने पाँच ब्राह्मणों का उत्तरीय गुट तथा पाँच ब्राह्मणों का दक्षिणी गुट कल्पित कर दस ब्राह्मण समूह की दुर्बल कल्पना की। उत्तर दक्षिण का वह विष फैलाने कला संगठन सम्भवत: महमूद गजनबी और चौहान सम्राट पृथ्वीराज तथा उसके मौसेरे भाई जयचन्द्र के समय खड़ा किया गया। पृथ्वीराज और जयचंद्र का आपसी विरोध इतिहास प्रसिद्ध है। परम्परा से यह ज्ञात होता है कि जब जयचन्द्र ने कान्यकुब्जों के प्रबन्ध में राजयूय यज्ञ किया, और उस यज्ञ में अन्य ब्राह्मणों के साथ माथुर और मागध ब्राह्मण भी गये। कान्यकुब्ज के ब्राह्मणों ने माथुरों का सम्मान किया किन्तु यह सत्कार कुछ कुटिल और कलहप्रिय विद्रोही लोगों को नहीं सुहाया उन्होंने माथुर और कान्यकुब्जों में भेद डालने के लिये एक द्वैषपरक मिथ्याकल्पित श्लोकार्ध की रचना कर डाली और उसे ब्रह्ममंडली में प्रस्तुत किया । माथुरों ने तभी इस श्लोकार्ध की पूर्ति कर दी

सर्वेद्विजा कान्यकुब्जा माथुर मागधंबिना।

प्रायश्चित प्रकुर्वन्तु बौद्व धर्मेंण दूषिता: ।।

यह कलह छन्द किसी ब्राह्मण को उस समय भी हितकर नहीं जमा और दुभवि का सूत्रपात होने पर माथुरों ने समझा कि यह यज्ञ माथुरों के त्याग से संयोगिता हरण में भंग हुआ और दूसरे ही वर्ष मुहम्मद गोरी ने कन्नौज को ध्वस्त कर दिया। कान्यकुब्जों ने बतलाया कि वे इस अधम श्लोक से सहमत नहीं है। कान्यकुब्ज शिष्टजन आज भी माथुर ब्राह्मणों की पूर्ण श्रद्धा भक्ति से सेवासम्मान करते हैं। उनके अनेक सम्मान सूचक हस्तलेख माथुरों की बहियों में हैं तथा यह मिथ्या प्रपंची पद्य अब प्राय: त्याज्य सिद्ध हो चुका है। यह आश्चर्य है कि माथुरों के सम्मान से दग्ध विद्वैषीजन अभी भी अपनी सर्प जिह्वा से इस विषवाद को बमन करते ही रहते है।

प्रेत यज्ञ का विष

माथुर ब्राह्मणों को मिथ्या लांछन से युक्त करने के दूसरा प्रयास सम्वत् 1685 वि0 में हुआ । इस समय खन्ड के ओरछा राज्य में राजा इन्द्रजीत सिंह बुन्देले का राज्य था। राजा पू्र्ण विलासी था उसके यहाँ रायप्रवीण नाम की एक अति सुन्दर काव्य संगीत कुशल एक वेश्या थी। राजा के दरबार में राजा की रूचि के अनुसार नाच गान और भोग विलास, सुरा सुन्दरी के भक्तों की एक निजी अंतरंग महफिल थी। इस गोष्ठी में विलास आसक्त प्रसिद्व कवि केशवराय भी थे । रसिकप्रिया कविप्रिया के काव्य माध्यमों से वे अपनी प्रिय राय प्रवीण का माल बढ़ाया करते थे। इस विलासी मंडली की दीर्धजीवन देने के लिये तान्त्रिकों के मतानुसार राजा ने प्रेत यज्ञ करके सारी मंडली सहित प्रेतक्षोनि प्राप्त कर चिरकार तक सुखोपभोग करने का आयोजन किया । दिन में प्रेतराज कालरूद्र की अर्चना हवनादि होता था, और रात्रि में सुरा सुन्दरी की आनन्द साधना के तान्त्रिक प्रयोग होते थे । यज्ञ में अनेक स्थलों के ब्राह्मण आमन्त्रित किये गये। इनमें मथुरा से माथुर मागध, गुजरात के कापट (कापडिया) कटकपुरी के कीकट (उड़िया) और कन्नौज के कान्य कुब्ज भी पहुँचे। ये 5 ब्राह्मण अपने स्थान पर सहज स्वभाव से ही राजा के इस इस प्रयास की कुछ कटु आलोचना कर रहे थे, जिसे राजा के किसी कर्मचारी ने सुन लिया और इसकी खबर कवि केशव को पहुँचा दी। केशव कवि सनाढ़य थे। माथुरों और उनके साथी मागधों से उनका स्वाभाविक विद्वेष था। उन्होंने एक श्लोक रचा

माथुरों मागधश्चैव कापटौ कीट कानजी।

पंचविप्रा न पूजयन्ते वृहस्पति समा यदि।।

दूसरे दिन जब ये पांचों ब्राह्मण यज्ञ में पहुँचे तो उन्हें देखते ही केशव कवि आग बबूला हो गये और राजा के समक्ष गर्जना करके उक्त श्लोक पढ़ा। स्पष्ट हैं कि ये पाँच ब्राह्मण विद्या पारंगत थे, तभी इन्हें बृहस्पति समा यदि कहा गया था। ब्राह्मण यह परिस्थिति देख तत्काल यज्ञ मंडप से बाहर हो गये और अपने घेरों को लौट पड़े । मजे की बात यह रही कि इस पंचक समूह में अब की कान्यकुब्ज शामिल थे, और उन्हें भी यह प्रसाद चखने का मौका आया और सर्वें द्विजा कान्यकुब्जा की गर्वोंक्ति चूर चूर हो गई।

केशव की इस रचना पर विवाद खड़ा हुआ तथा ग्रन्थ प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रश्न आने पर उन्होंने इसे अत्रिसंहिता के श्लोंको में प्रविष्ट कर दिया । यह एक दम जाली काम था तथा यह इस बात से स्पष्ट हो गया कि महर्षि अत्रि सतयुग के ब्रह्मा के 10 पुत्रों में से थे तथा उनका आखिरी अस्तित्व चित्रकूट में सीता अनुसूया संवाद के समय तक अस्तित्व् में था । श्लोंक में केवल पांच ब्राह्मण जो यज्ञ में आये उनकी बात है समस्त उनकी गौड़, कान्यकुब्ज कापट और कीकटों की जातियों का अस्तित्व बुद्व के काल तक भी नहीं था। बुद्व के 16 जनपदों में इनका कहीं नामनिशान भी नहीं है । अत: यह अत्रि वाक्य नहीं हो सकता । माथुर मागध आदि यहाँ एक वचन में हैं । ये लधु जनपद मुहम्मद गोरी के आक्रमण के कुछ पूर्व ही राजसत्ताओं का विघटन होने और राजपुत्रों के अलग अलग खंड राज्य स्थापित कर लेने के कारण प्रगट हुए । इससे भारत की प्रबल शक्ति टूटी और उसका लाभ उठाकर विदेशी आक्रान्ता विजय पाने के सफल हो गयें। विघटनवाद का यह विष ब्राह्मणों और क्षत्रियों राजाओं में भी फैला और ये मैं बड़ा मैं बड़ा की भावना से देश भी दासता के हेतु बने।