चतुर्वेदी इतिहास 11

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

भार्गव गोत्र

भार्गव गोत्रिय माथुर चौवे भृगुवंशी हैं । भृगुसतयुग कालीन 9400 वि0पू0 के ब्रह्रा द्वारा उत्पन्न 10 ब्रह्रा पुत्रों में से हैं । भागवत के अनुसार वरूणदेव की चार्षिणी पत्नी से 9153 वि0पू0 में भृगु बाल्मीकि अगस्त्य की उत्पत्ति हैं । भृगु परम तेजस्वी क्रोधी और आसुरी विद्याओं के आचार्य थे । भृगु को हिरण्यकश्यप की पुत्री पुलोमा से 7 पूत्र उत्पन्न हुए जिनमें च्ववन उशना शुक्राचार्य (हुषैना) बजी(वजीरी) और्व आदि प्रमुख थे । च्यवन के पुत्र आप्नुवाल तथा दधीच थे । दधीच के सरस्वती पत्नी से सारस्वत पत्नी से सारस्वत एवं आप्नुवान के ऋ़चीक इनके इमदग्नि इनके परशुराम आदि पुत्र हुए । शुक्राचार्य के पुत्र शंडामर्का भक्तराज प्रहलाद के विद्यागुरु थे । तथा वरूचि पत्नी ने त्वष्टा वृत्रासुर के पिता उत्पन्न हुए । भक्त प्रहलाद को फाल्गुनी के नर मेघ यज्ञ में होलिका अग्नि पुंज में लेकर ब्रज के फालैन गांव में बैठी जहां होली की महाज्वाला में पंडा अभी प्रवेश करता है जिसे देखने आश्चर्य चकित हज़ारों दर्शक अभी भी आते हैं । प्रहलाद को साथुर भृगुवंशी तीर्थ पुरोहितों ने विश्वतीर्थाटन के साथ ब्रज और मथुरापुरी की भी तीर्थ यात्रा करायी जिससे वे गजाह्वय तीर्थ(गजापाइसा), वामनतीर्थ (सरस्वती संगम मथुरा), देवदेवेश आदि नारायण तीर्थ(प्राचीन गतश्रम विश्रान्त तीर्थ), त्रिविक्रम का गुह्रा तीर्थ(सतीघाट) यामुनतीर्थ (कंस किले के नीचे) आदि तीर्थों में वे तीर्थयात्री बनकर फिरे तथा मथुरा के यमुनातट के तीर्थों( घाटों) पर स्नान कर दान किये इनमें विश्रान्त का दान प्रमुख था ।

भृगुवंशी अग्नि पूजक असुरपुरोहित थे । उनने अंगिराओं के सदृश ही सर्वप्रथम (मंथन से) अग्नि प्रगट की । वे मातरिश्वा वायुदेव के राष्ट्र वायुरूप (यूरोप) से अभिचार अग्नि भारत में लाये । भार्गव सोमपान के प्रेमी थे । मेधनाम के यज्ञों में बलिकर्म के लिये ये बुलाये जाते थे । ब्रह्राणों की सताने वालों के ये का थे, जो गुण पूर्ण प्रभाव के साथ परशुराम अवतार में प्रगट हुआ । ये स्वायंभूमनु 9000 वि0पू0 के दामाद, शंकर जी के साढू, शिव विरोधी दक्ष के पक्षधर तथा दक्ष यज्ञ के होताओं में थे । इनने शिवगण नंदी को शाप दिया जिसमें शंकर भक्तों की हीनता कही, तथा उसे यज्ञ से भगा दिया तब ही वीरभद्र ने इनकी दाड़ी उखाड़ कर इन्हें अग्नि में डाल दिया । तब दग्ध होकर वीरभद्र की स्तुति की और बकरे समान छोटी आसूरी (मुशलधारियों जैसी) दाढी रखने की इन्हें स्वीकृति मिली ।

स्वायंभूमनु के यज्ञ में 9000 वि0पू0 में इनने देव श्रेष्ठता की परीक्षा हेतु विष्णु के ह्दय पर पादइ प्रहार किया विष्णु देव को 10 अवतार धारण का शाप दिया तथा प्रभु आदिनारयण (गतश्रम नारायण) विष्णु की विनय से प्रभावित होकर ऋषियों भृगुओं के यजमान ब्रहा ,शिवलिंग मूर्ति को अपूज्य घोषित किया । आदि आसुरी लक्ष्मी 'श्री देवी' (श्री कुंड ब्रज) इनकी ही पूत्री थी जो देक्ष की पूत्री "ख्याति" से उत्पन्न थी । इसी श्री नाम की आसुरी लक्ष्मी से वल उन्माद धाता विधाता पुत्र हुए तथा इसी वंश में मुनिवर मार्कडेय मृत्यु विजयी हुए । भृगु ने ही इन्द्रासन आरूढ नहुष को सर्पयोनि प्राप्त होने का शाप अगस्त की जटा में से (सिर पर बैठकर) दिया । भार्गव वंशी आसुरों को यज्ञ कराते थे । इन यज्ञों में इन्द्रदेव के न जाने पर इनने देवों से बैर बढ़ाया । बली के इन्द्रासन निर्णायक सौवें यज्ञ (चरण पहाड़ी ब्रज में) में ये शुक्राचार्य प्रधान आचार्य (काजीमुल्ला) थे और वामन विष्णु के दान में भाँजी मारने पर आँख फुड़वाई तथा यज्ञ भंग होने पर गौड़ देश (वंगालय) में जाकर बसे । भुगुवंशी त्वष्टार से ही त्रिशिरा व्रत्तासुर विश्वरूप प्रोहित और विश्वकर्मा यमुना जी केवे नाना (मातामह) उत्पन्न हुए । इसी वंश में दधीच ने असुरों को अथर्ववेद विद्या देकर इन्द्र द्वारा अपनी अस्थि (मेफुदंड) गंवाकर इन्द्र का वज्र बनाये जाने का श्रेय प्राप्त किया । दधीच (दाहिमां) का पुत्र सारस्वत भी असुर पौरोहित्य के कारण श्वेतद्वीप (स्विटजरलैड स्बीडेन) स्वात कलात हिमाखय शीर्ष, पंजाब (पंचनद) मे, राजस्थान मरूधन्य ब्रह्रार्षि देश से जाकर बसे । इसी वंश में अधर्मी बेन राजा, परमधार्मिक प्रतापी पृथु महाराज दीर्ध कथा सत्रों के आयोजक शौनक (सौनकपर सीखटीला तथा विहार में सोनभद्र तट वासी) चाणक्य कौटिल्यय हुए हैं । माथुर चतुर्वेदी समूह की आश्वलायन शाखा के प्रवर्तक महर्षि आश्वलायन इस शौनक के ही शिष्य थे जिनके आश्वलायन गृह्रा सूत्र में यज्ञविधान के भेदाभेद, दर्शपौर्ण मास, अग्न्याधान, पुनराधान, आग्रहायण, कामेष्टि , पशुभाग, चातुर्मास, सौत्रमणि, अग्निष्ठोम, सप्तसोम, अश्वमेध, राजसूय, आदि की दुर्लभ कर्मकाँड विद्या का विवेचन हैं, तथा सत्र याग सवन होम होत्र एवं श्राद्ध तर्पण आदि का ब्राह्मण कर्म का सभ्यक् निर्देशन है । तर्पण विधान में ऋगवेद मंडलक्रम से ऋषियों की नामावलि भी इनने दी हैं ।

भृगु महर्षि के रचित ग्रंथ भृगु संहिता (ज्योतिष), भृगु गीता(तत्वज्ञान), भृगुवल्ली(कर्मकांड) भृगु सिद्धांत, भृगु वास्तु शास्त्र आदि हैं । आंगिरस अथर्वा के अथर्वण वेद का ये आसुर यज्ञों में प्रयोग करते थे परन्तु भृग्वांगिरस के एकीकरण सिद्धांतानुसार ये अपने कुल परम्परा प्रयोगों में माथुरों में स्वीकृति पाने हेतु उनके प्रधानवेद ऋगवेद को ही प्रयोग में लाकर ये स्वयं ऋग्वेदी बन गये थे । भार्गव माथुर पंच प्रवरी हैं । भार्गव च्यवन आप्नुवान और्व जामदान्य इनके पांच प्रवर हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1. भार्गव- भृगु महर्षि के ज्येष्ठ पद के अधिकारी । इनका वंश अन्य ब्राह्मणों में भी है जो माथुर समूह से दूर जाकर परशुराम के समय भृगुकक्ष भड़ौच आदि में नर्मदा तट जाकर बस गये थे । भरौच शाखा माथुरों में है, तथा भरूची गो0 गोकुलनाथ के पंथ में भी एक शाखा के रूप हैं । मथुरा जनपद में भृगुओं का आश्रम भृगुतंग पर्वत गिरिराज गोवर्धन के एक भाग में भगौंसा भृगुओं भृगुस्थल के नाम से प्रसिद्ध है ।

2. च्यवन- यह भृगु पत्नी पुलोमा से 6285 वि0पू0 में पुलोमा को जब गर्भ था उसे पुलोमन (पुलिंद पोलैड वासी) हरण कर ले गया उसके घर च्यवन उत्पन्न हुए और उनने अपने तेज से पुलोमन को भस्म कर दिया, तब पुलोमा फिर लौटकर भृगु के घर आयी । च्यवन महातपस्वी थे, जब से च्यवन वन ( काबुल चमन का बाग) में तपकर रहे थे तब उनके शरीर पर मिट्टी का टभ्ला जम गया केवल दो नेत्रों की ज्वाला के 2 छिद्र उसमें थे । देवयोग से सरैया गुजरात के सम्राट यर्थाति 6307 वि0पू0 की पुत्री सुकन्या वहां वन विचरण करती हुई अपने पिता की सेना शिबिर से चल कर वहाँ पहुंची और विस्मय से मिट्टी के उस टीले में चमकते दो छिद्रों में कुशतृण से बेधन किया जिससे रक्त की धारा निकली और ऋषि अंधे हो गये । भयभीत शर्याति इनसे क्षमा याचना को आया और अपनी कन्या सुकन्या इन्हें दे दी । सूर्य उपासना से इनके नेत्र अश्विनी कुमारों (अस्पिन स्पेनिशों) ने ठीक किये । सुकन्या अपनेबृद्ध पति की जो अधिक उच्च स्वरों में बेदपाठ करने के कारण कास क्षय रोग से ग्रस्त होकर अकाल बृद्ध हो गये थे, उनकी सेवा कर रही थी । उसके रूप को देख अश्विनी कुमार मोहित हुए, तब उन्हें अनेक च्यवनों के रूप सर्वत्र दिखलाकर इस कार्य से विरत और प्रभावित किया । अश्विनी कुमारों ने तब च्यवसप्राश सेवन कराकर च्यवन को पुन: तरूण बना दिया ।

च्यवन ने इस उपकार के बदले अपने श्वसुर शर्याति से एक विशाल यज्ञ कराया और उसमें अश्विनी कुमारों( इस्पहान से आये) वैद्यों ( दास्त्र दसौरे वैश्य तथा नासत्य सतिये जर्राहों) को यज्ञ भाग देकर यज्ञ में देवों के साथ भागीदार बनाने की तैयारी की । इसे देख इन्द्र ने इन पर बज्र चलाने को उठाया तभी च्यवन ने उसकी वज्र सहित भुजा स्तंभित कर दी । च्यवन ने इन्द्र पराजय को मददैत्य (मैं शराब अतितीनिर्मामा) उत्पन्न किये जिनसे इन्द्रहतप्रभ होकर शरण में आया और अश्विनों को तब यज्ञ भाग दिया गया । च्यवन तब अपने जन्म स्थान मथुरा में च्यवनाश्रम चूनाकंकड पर रहे थे तथा अश्विनों को संज्ञा माता से जन्म लेने का स्थान अश्विकुंड ( असिकुंड तीर्थ) यहीं था, जहां यज्ञ भाग पाकर वे देवकोटि में प्रविष्ट हुए ।

विश्वामित्र के पितामह कुशिक की कठिन सेवा परिक्षा लेकर उसे उसके कुल में महापराक्रमी क्षत्रिय धर्मा वंशज(परशुराम) के उत्पन्न होने पर वर दिया । च्यवन के धर्मशास्त्र च्यवन स्मृति में गोदान का महात्म तथा श्वान, चांडाल मृतशव प्रेत, चिताधूम, मद्यपान, मद्यपात्र के स्पर्श होने पर प्रायश्चि का विधान है । गोवध के प्रायश्चित कर्म से देह शुद्धि का विधान इनका प्रवर्तित है । इन्होंने भास्कर संहिता में सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है । हे माद्री और माधव ने धर्म निर्णय में इनके उद्धरण लिये हैं ।

3. आप्नुवान- ये च्यवन के सुकन्या से उत्पन्न पुत्र थे । इनका समय 6228 वि0पू0 है । दधीच इनहीं के भाई थे जो सारस्वत वंश के आदि जनक थे । इनका दूसरा नाम आत्मवान भी कहा गया है । इनकी नाहुषी से और्व हुए थे । इनका नाम और्म या अर्म भी था जिनसे अरमीनियन, आर्मी, ऊमर वैश्य तथा ऊमरी रामपुर ब्रज, उल्मां आदि से इनका पैतृक संम्बन्ध सूचित होता है । ये परम तेजस्वी प्रजा संवर्धक लोकधर्म विस्तारक ज्ञानी पुरूष थे ।

4. और्व- ये आप्नुवान वंशज भार्गव की नाहुषी पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे । समय 5817 वि0पू0 है । ये महाउग्रकर्मा थे । ब्रज में माथुरों के विस्तारकाल में इनका आश्रम ओवौ बलराम घाट पर था । उदई जालौन में इनके ज्वालाग्नि प्रयोग का आविष्कार क्षेत्र और्वाग्निपुर उरई और ज्वालादहनपुर जालौन अभी भी अपने बारूदी और आतिशबाजी को कुशलता के लिये विख्यात है । ओरा प्रकाश के दीप्तिमंढ़ल का भी नाम है । लोकमान्य तिलक ने अपने आयों के मूल देश के निधरिण के ग्रंथ को "औरायन" ही नाम दिया है तथा पश्चिम में पूर्व की भारत विद्या को "ओरीयेन्ट" ही कहते हैं, जो और्व माथुर द्वारा स्थापित भारत की गरिमा का विश्वव्यापी मानदंड है । और्वकुल का वर्णन ब्राह्माण ग्रंथों में ऋग्वेद में 8-10-2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7-1-8-1, पंच ब्रह्माण 21-10-6, विष्णुधर्म 1-32 तथा महाभारत अनु0 56 आदि में प्राप्त है । हैहयों 5763 वि0पू0 के ये भार्गव कुल प्रोहित थे तथा कृतवीर्य ने इन्हें यज्ञों में बहुत सा धन दिया । समय पड़ने पर जब हैहयों ने इनसे द्वेष मान इन्हें बहुत त्रास दिया । भार्गवों ने इन्हैं नष्ट कर कुल संहार किया तब ये उत्पन्न और्वा कहलाये । और्व के तेज से सभी हैहय नेत्र हीन हो गये और इस चमत्कार से आर्त होकर उन्होंने बालक और्व की स्तुति की तब उनकी दृष्टि उन्हें प्राप्त हुई । इनने हैहयों का संहार करने की शक्ति प्राप्त करने को तप किया तो इनके पितरों ने इन्हें बताया कि हमारे पूर्व कर्मों से हमारा संहार ईश्वर के न्याय विधान से हुआ है अत: तुम क्रोध धारण कर ब्रह्मतेज का क्षय मत करो, तब इनने अपनी क्रोध अग्नि समुद्र में डाल दी जो बड़वानल(समुद्री मिट्टी का तेल) बन गयी । इनके आश्रम (ओवौ ब्रज) में सगर का जन्म हुआ जिसे इनने अस्त्र शस्त्रों की उच्चकोटि की शिक्षा के साथ भगवान राम का वह अग्न्यास्त्र भी दिया । जिससे उनने समुद्र को सुखाने के लिये धनुष पर चढाया था और समुद्र भयभीत हो शरणागत हुआ था । अयोध्या के राज्यअभिषेक के बाद इनने सगर को विश्व विजय के लिये ख़ास कर हैहय संहार के लिये अश्वमेघ यज्ञ कराया । सगर के साथ पृथ्वी विजय के कारण इनके नाम पर पृथ्वी का नाम उर्वी, हुआ तथा अर्व अरबदेश, अरवली पर्वत, अल्बर, अड़बड़ राजस्थान, अल्वानियां, उर्वशी अप्सरा खंड उजेवकस्तान (और्वक) ओमान, उराव जनजाति, आदि ख्याति में आये । और्व को महातेजस्वी विष्णु का अवतार तथा प्रलयकर्ता विष्णु की मुखज्बाला, शंकर का तृतीय नेत्र में इसका सदा निवास कहा गया है । और्व की पुत्री धौम्य के पुत्र मंदार को व्याही गयी जो भुशुंडी शिवगण का उपहास करने पर पति पत्नी मंदार और शमी वृक्ष बने तथा और्व द्वारा मंदार मूल (आक की जड़) से गणेश मूर्ति बना कर उसकीं पूजा से पुन: अपने रूप में आये ।

5. जामदग्न्य-ये जमदग्नि के पुत्र परशुराम हैं । इनका जन्म समय 5142 वि0पू0 वैशाख शुक्ल 3 है । भृगुवंशी होने के कारण अपने वंशनुगत गुण क्रोधमूर्ति व्यक्तित्व के ये साक्षात रूप थे । और्बाग्नि तथा पिता यमदाहक अग्नि यमदग्नि के पुत्र होने से ये भी हैहयादिं क्षत्रियों के लिये कालाग्नि ही थे । इनने 21 आक्रमणों में ब्रह्मणद्वेषी हैहयों और तालजंघ आदि उनके गण समूहों को भारत से लेकर एशिया तक ध्वस्त किया । एशिया में पर्शयन पर्शुधारी गणों का, मुशलघारी मुसलिमों का, शूलधारी सुलतानों सुलेमानों का, वज्रधारी वजीरियों का, पाशधर पाशाओं का, तालजंघ टार्जनों का तथा भारत में पंच तालजंघ वीतिहोत्र (वितिया बिहार)शर्यात आनर्त (सरैया आणद डाकौर के डांकी डाकिन), भोज (भोजपुरी भाषा क्षेत्र के भेजक तथा भुज्ज कच्छ के कच्छी लुहाणा), अवंती के (उज्जैन मालवा के परमार, गुहिल, गर्दभिल्ल, रतलाम, आदि) तुंडिकेर (केरल, कर्नाटक, महिषासुर मैसूर, माहिष्मंती नर्मदा तट के, कोलपुर कोलापुर, आदि) देव द्विषों को दंडित किया । इन सबका पराभव करने के लिये परशुराम ने अपने 5 भाइयों तथा समस्त भृगुवंशी जनों को साथ लेकर नर्मदा के समुद्र समीप के प्रदेश में ब्रज से जाकर भृगुकच्छ भरौंच नगर की स्थापना की तथा वहां के आसपास के क्षत्रियों को यजमान बनाकर उनके सहयोग से विशाल भार्गवी परशुधारी सेना का संगठन कर सभी कार्तवीर्य अर्जुन पक्षियों का क्रूरदमन किया । भार्गव ब्राह्मण अभी गुजरात सौराष्ट्र क्षेत्र में अधिक संख्या में बसे हैं । परशुराम शूलपाणि रूद्र के उपासक थे जिनसे इन्हें धनुर्वेद, अनेक अस्त्र शस्त्रों की विद्या मंत्रायुध विद्यायें प्राप्त थीं । इनने पितृभक्त का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करने को पिता की आज्ञा से अपनी की आज्ञा से अपनी ही माता रेणुका का वध किया जिसे फिर जीवित कर दिया गया । जमदानि का आश्रम ब्रज में जगदग्नि क्षेत्र दघेंटा गांव है तथा परशुराम का मूल स्थान परसौं, सहस्त्रावाहु का पुर सीह, रेणुका क्षेत्र रूनकी, कार्तवीर्य अर्जुन की पुरी झुनकी रूनकी आस पास ही हैं ।

परशुराम को 41 दिव्यास्त्र शिव से तथा अगस्त्य जी से प्राप्त थे जिनकी नामावलि है-

1.ब्रह्माशस्त्र
2.वैष्णवास्त्र
3.रौद्रास्त्र
4. आग्नेयाग्त्र
5. वायव्यास्त्र
6. नेऋत
7. याम्य
8. कौवेर
9. वारूण
10. वासव
11. सौम्य
12. सौर
13. पार्वत
14. चक्र
15. वज्र
16. पाश
17. सर्प
18. गांधर्व
19. स्वापन
20. रोधन
21. पाशुपत
22. इषीक
23. तर्जन
24.प्राश
25. गारूड़
26. नर्तन
27. रोधन
28. आदित्य
29. रैवत
30. मानव
31. अक्षि संतर्जन
32. भीम
33. ज्त्रंभण
34. पर्शुघात
35. सौपर्ण
36. पर्जन्य
37. राक्षस
38. मोहन
39. कालास्त्र
40. दानव
41. ब्रह्मशिरा ।

और्व पुत्र ऋचीक को ह्दयों से अपार धन दान में मिला था जिसे उनने अपने पर चिकसौली वरसाना तथा चिकसौनी ब्रज में ज़मीन में गाढ़ दिया और ह्दयों के माँगने पर साफ निषेध कर दिया तथा दण्डित होने पर वे महोदय पुर कान्यकुब्ज देश में जा बसे । वहाँ उनने वहाँ के राजा जगाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह कर ह्दयों से बदला लेने की योजना बनायी । फिर अपने पुत्र जमदग्नि का विवाह अयोध्या नरेश रेणुक की कन्या रेणुका से किया । लक्ष्य के अनुसार दोनों राज्यों की सहायता से ह्दयों बदला लेने की तैयारी करने लगे ।

ह्दयों को यह मालुम हुआ तो सहस्त्राबाहु इन्हें दबाने कोज मदग्नि के आश्रम(दघैंटा) में आया और उनकी दुर्लभ नस्ल की अनमोल गौ कामधेनु को युद्ध का कारण बनाने के लिए बलपूर्वक अपहरण करने लगा । इस समय भी वशिष्ठ की गौकी तरह परशुराम जमदानि के शिष्यों गुरुभक्त यवनों (यूनानी पारसी यहूदी पठानों अरबों ) ने सहस्त्राबाहु की सेना से डटकर प्रतिरोध किया और उसे भगा दिया किन्तु भागते हुए भी वह आश्रम को जलाकर (घर फोड़ नीति) से जमदानि का सिर काटकर कामधेनु को भगदड़ में भगाकर ले गया । परशुराम जब तपस्या करके लौटकर आये तो यह सब देख आग बबूला हो गये और सहस्त्रबाहु ह्दय वंशियों और ह्दय पक्षधर राजाओं को निर्मूल करने की कठोर प्रतिज्ञा की । उनने मथुरा में सरसवती तट पर सप्तसारस्वत (सरस्वती कुण्ड) पर तप करके भूतेश्वरशिव तथा महर्षि अगस्त्य से अजेय दिव्य 41 आयुध दिव्य रथ अमन्त्रित शंख प्राप्त किये । इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भरौंच से भार्गव सैन्य लेकर ह्दयों के नगर नर्मदातट की मर्हिष्मती नगरी को घेर लिया उसे जीतकर जलाकर ध्वस्त कर वे ह्दयों के पूर्व कथित अनेक देशों के मित्र प्रजाओं पर आक्रमण कर उन्हें विनष्ट करने लगे । अपने 21 अभियानों में इनने क्षत्रियों के ह्दय पक्षी 64 राजवंशों का विध्धंश किया, इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक और ब्रह्मद्वेषी थे ।

परशुराम का अधर्मनृपसंहार आदर्शवादी और लोकतंत्र विशोधक था । क्रूर दुष्ट दमन के हेतु से दण्ड नीति का व्यापक लोकभ्य स्थापित करने के लिए उनने क्रूर प्रयोग किए और धर्म से विचलित न होने की अविचल निष्ठा की स्थापना की । पुराणों के अनुसार उनने मूसलों के कूटकर, तलवारों से काटकर, वृक्षों पर लटकाकर फाँसी देकर, तल में डुबाकर, हाथ पैर दाँत नाक कान काटकर मिर्चों की धूनी में तड़पाकर, रस्सियों से बाँधकर, ऊँचे से गिराकर, धर्म शत्रुओं का संहार किया । प्राप्त सूची से ज्ञान होता है कि उस समय आसुरी प्रभाव से प्रजाओं में अधर्म का आचरण बहुत ज़्यादा बढ़ गया था । गुणावती (गुलावटी बुलंदशहर) के उत्तर में, खांडव प्रस्थ (खानवा का मैदान कुरूक्षेत्र) के दक्षिण में वर्तमान दिल्ली श्री तथा, पांचाल रूहेल खण्ड रामपुरा तराई-मैनसार, पीलीभीत वरेली, हलद्वानी काठगोदाम मेरठ मुजफ्फर नगर की पहाड़ियों में इनका घनघोर युद्ध हुआ तथा 10 हज़ार रूहेले मेवाड़ी मयवंशी नागवंशी बावरी और गंधारी सरदार सेनाओं सहित मारे गये । इस धर्म विजय में काश्मीर, दरद (दर्दिस्तान), कंतित मिर्जापुर) क्षुद्रक (कुर्दिस्तान), मालव (मालवा), अंग (बिहार) बंग (बंगाल) कलिंग (उड़ीसा कालिपौंग) विदेह (मिथला) ताम्रलिप्त (तामलुक उड़ीसा) रक्षोवाह (ख़ासिया पहाड़ी रक्सौज), वीतहोत्र (लिर्हुत), त्रिगर्त (असम), मार्तकावत (टिकारी), शिवि (सौदीर सिंध) आदि के बड़ी संख्या में राजाओं को निग्रहकर विध्वस्त कर दिया । इस महासमर में गणनानुसार परशुराम की सेनाओं ने 12 हज़ार मूर्धाभिषिक्त राजाओं के सिरच्छेद किये । इसके बाद फिर बचे छोटे लुके छिपे नरेशों नरपतियों को पकड़वाकर वे कुरूक्षेत्र ले गये । वहाँ 5 बड़े कुन्ड खुदवाकर उन्हें इन राजाओं के रूधिर से भरा तथा उनमें विजय स्नान किया जो परशुराम ह्द और स्यमंत पंचक कहलाये तथा नर मुंडों के पर्वत बनाक उन पर विजय ध्वजायें फहराई । इसके बाद परशुराम ने गया के चन्द्रपाद तीर्थ में पितरों पिंड के किए तब पिंतरों ने प्रकट हो उसे नर संहार का दोषी कहा और प्रायश्चित की आज्ञा दी । प्रायश्चित को तब परशुराम सिद्ध बन (सिधौली) गये, वहाँ सारे दिव्यायुध परशुअस्त्रशस्त्र भंडार रथ ध्वजा आदि को सरोवर में विसर्जित कर विशुद्ध सात्विक ब्रह्मा धर्म शिरोधार्य किया । फिर तीन बार समस्त भूण्डल का पृथ्वी प्रदक्षियायें की और महेन्द्र पर्वत मेंहदीपुर बालाजी) पर निवास कर नारायण मंत्र का जाप करते रहे । इस काल में उनने सारी जीती हुई पृथ्वी कश्यप वंशी धौम्य आदि तपस्वी माथुर बन्धुओं को दान कर दी । इस दान आयोजन को उन्होंने एक महाविशाल अश्वमेघ यज्ञ कररके सम्पत्र किया । भूमि दान करके वे दान की धरती जाकर तप करने लगे । यह आश्चर्य की बात है माथुर मुनीशोने अपने ऐसे महान अवतारी पराक्रमी विश्व विजयी पूर्वज को उपेक्षित करके अपने कुल गौरव की महान अवमानना की है । अभी भी समय है । इस त्रुटि को सुधारकर प्रभु परशुधर को अपना पूर्वज निर्धारित करना चाहिए ।

भार्गवों की अल्लैं

भार्गव व माथुरों के आस्पद या अल्लैं 16 इस प्रकार है-

1. सकना-

ये शाक द्वीप से आये शक कुषाणों के जिनमें कनिष्क महाप्रतापी सम्राट राजा हुआ हैं कुल प्रोहित थे, उन्हें यज्ञयागादिक कराते थे । कुषाणों के सिक्कों पर उन्हें यज्ञकुण्ड में आहुति देते हुए दिखाया गया है । हूणों की तरह शक भी मूलत: भारतवासी शिव के कूष्मांड गण थे । उनका यज्ञ विधान में अपने स्थापन और यज्ञ उपकरणों का मन्त्रों द्वारा संस्थापन कर्म कुशांडी कहा जाता है । माढूगढ मांढा विजैपुर, माढ़लिया, मंडोवरा तथा कच्छ मांडवी इनके पूर्व और परवर्ती जनस्थान थे । कुषाणों का समय विक्रम संवत 57 से 257 विक्रम संवत तक है । ये प्राचीन रूद्र प्रजा विस्तार के कार्य में बाल्हीक (बलख याज्ञावल्वयपुर) से भारत में आये थे । कुजुल (कुशल) कैडफीसिस (स्कंधप्रिय) के बाद इनका विमतक्षम (भीम तक्षक) नाम का सर्दार चक्रवर्ती सम्राट था । 97 वि0 के इसके सोने के सिक्कों पर खरोष्टी में इसे महाराजस् राजाधिराजस् सर्वलोक ईश्वरस, माहेश्वरस् अंकित किया गया है । तथा शिव मूर्ति अंकित होने तथा महोश्वरम् पदवी से माहेश्वर रूद्र संप्रदाय का अनुयायी होना निश्चित होता है । माहेश्वरपुरी महेसर नर्मदा के तट पर ओंकारजी तीर्थ के समीप है । महेश्वरी वैश्य जाति भी अपने को महेश्वर शिव की सन्तान मानते हैं । ये अपने पूर्वजों को देव या पितादेव (पित्रीश्वर) कहते थे और उनकी पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर देव कुल नाम के मन्दिरों में उनकी पूजा करते थे । ऐसे दो देवकुल मथुरा गोकर्ण शिव क्षेत्र में तथा ब्रज के मांट गाँव में इनने बनाये थे जिनकी मूर्तियाँ मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में है एवं मथुरा गौकर्ण टीले के गौकर्ण शिव की विशाल मूर्ति भी किसी कुषाण राजा की हीं मानी जाती है । हमारी राय में यह राजा की मूर्ति न होकर कुषाणों के इष्टदेव माहेश्वर रूद्र की मूर्ति है जो कुषाण शैली में उनके परमपूज्य देवता के रूप में स्थापित हुई थी । मथुरा के इटोकरी टीले से भी विम की विशालकाय सिंहासनारूढ मूर्ति मिली है । इसके उत्तरी साम्राज्य की राजधानी तुशारदेव तुखार बरवंशी थे तथा दक्षिणी साम्राज्य की राजधानी मथुरा में थी । इसके समय भारत से बहुमूल्य रत्नों, मसाले, मजीठ आदि के रंग, भारतीय वस्त्रों का व्यापार रोम देश तक होता था तथा वहाँ से स्वर्ण के रोमन सिक्के जो मथुरा के आस पास बड़े ढ़ेरों में मिले आते थे । तुषार खन्ड को इन्द्र ने असुरों से विजय किया था ऐसा भारतीय ग्रन्य बतलाते हैं ।

कुषाण कनिष्क सम्राट - 135-158 वि0 विम के बाद यह मथुरा का महाप्रतापी सम्राट था । इसने अश्वमेघ यज्ञ करके अपना संवत चलाया जो शलिवाहन शक के नाम से अभी भारत का राष्ट्रीय संवत है । संभवत: शालिवाहन इसी की उपाधि थी । पेशावर ( पिशाचपुर) तथा मथुरा इसकी राजधानी थी । इसका राज्यविस्तार शैलदेश (काशगर) कोकदेश (याश्कन्द) उत्तर कुरू स्थान (खोलन), विश्वकर्म कल्मद (थ्यानशान पर्वत), यरूक भृगु स्थल (तुर्फान) कूर्चखंड कारूषदेश (कूचार) तया अग्निदेश (करासर कलात) तक था । माथुरों और मथुरा वासियों का व्यापार भू मार्ग से रोम और इन सब देशों तक था जिसके बदले में अपार स्वर्ण मुद्रा राशि मथुरा में जमा हो गयी थी और यही सोने की मथुरा के रूप में प्रसिद्धि पाकर गजनवी आदि लुटेरों का विनाश लक्षबनी कनिष्क पर यद्यपि बौद्ध प्रभाव था । परन्तु उस काल में मथुरा में मथुरा शिल्प के विकास में बुद्ध की उत्कृष्ट मूर्तियाँ धर्म की मर्ति पूजा पद्धति में बनने और पुजने लगीं । वैदिक पौराणिक श्रौत स्मातं भारतीय धर्म के बड़े बड़े मंदिर तथा देव प्रतिमायें सुवर्णरजत औ पाषाण की बनाई गयीं जिनमें से चतुर्भुज विष्णु नारायण, शिवा दुर्गा, सूर्य, कार्ति केय आदि की पुरातन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । कुषाण् सकना माथुरों की शिष्यता में इन सब की पूजा करते थे । तथा राज्य से भूमि सम्पत्तियों तथा बहुमूल्य रत्न सुवर्ण आदि भेंट में बड़ी मात्रा में इन्हैं मिले थे ।

ब्रज इतिहास के लेखक श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने लिखा है- " इस समय राजनैतिक केन्द्र के साथ मथुरा धर्म कला साहित्य व्यापारिक भी महानतम केन्द्र बन गई थी । मथुरा के अधिपति माथुर दे उस समय सभी देव स्थानों में उनकी स्वर्ण राशियों सम्पत्तियों और भवनों के स्वामी थे । तथा अपार वैभवों से युक्त बौद्ध जैन स्तूपों विहारों संधारामों मठों देव कुलों बुद्ध जैन प्रतिमाओं के पूजा स्थानों भिक्षुओं यतियों के संरक्षक निर्देशक थे । माथुर महादेव के द्वारा महायान के सभी पूजा स्थानों पर इनका बर्चस्व था । और बुद्ध महायान धर्म को समस्त एशिया में फैलाने के प्रयासों में माथुरों का प्रधान योगदान था । कनिष्क की राजसभा के सभासद विद्वान पार्श्य चरक नागार्जुन संघरण आदि मथुरा आते रहे और माथुरों की पूजा अर्चना करते रहे । मथुरा दर्शन के लिये इस समय एक बहुत बड़ राजमार्ग (सड़क) पाटिलपुत्र (पटना) से सारनाथ् कौशांवी श्रावस्ती मथुरा और फिर यहाँ से पेशावर खोतान काशगर और चीन तक बनाया गया जिससे तीर्थयात्री और व्यापारी आते जाते थे ।

कनिष्क का मथुरा में शासन केन्द्र मंडी रामदास और धैरागपुरा के बीच के ऊँचे टीले पर था जहाँ मथुरा वासियों के स्वभाव के कारण उनके नाम कंस गली ककंस कौ बाग कंस कौ किलौ कंसलगोत्र नसवारे आदि बन गये । कनिष्क के उत्तराधिकारी वासिष्क वशिष्ठ समय 159 वि0 में मथुरा के भारद्वाज गोत्री समावेदी माथुर रूद्रल पुत्र द्रोणल से द्वादश रात्र सत्र मथुरा के समीप यमुना पार के ईशान रूद्रपुर (ईसावास्योपनिषद के रचना स्थापर) किया जो कुषाणों की शिव भक्ति का वैदिक संयोग ही था और अग्नि देव (माथुर कुलअग्नि उत्पादक देव0) की प्रीति से कुषाण राज्य की कल्याण कामना हेतु किया गया था । इसके उत्तराधिकारी हुविष्क (हविष्ठ) ने भी माथुर ब्राह्माणों के भोजनार्थ अक्षयकोष राजवृत्ति का निर्धारण किया था । कुषांण वासुदेव 195 वि0 ने मथुरा के वर्तमान छामनी (केन्टुमेंट) क्षेत्र में जिलाधीश की वर्तमान कोठी के समीप प्राचनी वसुदेव तीर्थ पर वासुदेव कूप तथा चतुशाल तोरण युक्त देव मंडप (खुलामंदिर) का निर्माण कराया जो माथुरों द्वारा बगीची (देव उपवन) के रूप में मथुरा परिक्रमा के अन्तर्गत एक प्रमुख तीर्थ था और उसका उल्लेख प्राचीन वाराहपुराण के अन्तर्गत "मथुरा महात्म्य" में हुआ हैं । माथुरों के इस तीर्थ का जो आदि नारायण वासुदेव संकर्षण का स्थान था उसके कूप के एक अभिलिखित शिलापट्ट को केशव स्थान से जोड़ कर कृष्ण जन्म भूमि का लेख कह कर शिष्टोत्पादित भ्रान्ति का आधार बनाया गया है । सकना माथुरी अल्ल का परिज्ञान इस प्रकार महान गरिमामय रूप में इतिहास में उपलब्ध है ।

शकदेश शाकद्वीप को मनुपुत्र प्रियब्रत ने 8893 वि0 पू0 में पृथ्वी को सात द्वीपों में विभाजित कर अपने पुत्र मेधातिथि को दिया था । शाकद्वीप बहुत विस्तृत समस्त एशिया को घेरे है । सकना इस क्षेत्र की समस्त प्रजाओं के पुरोहित थे ।

2 गुगौलिया –

ये भगवान श्री कृष्ण के साथ द्वारिका चले गये । वहाँ अभी भी इनका वंश मोजूद है । गोपाल सहस्त्रनाम में श्री कृष्ण को "गुग्गुली मार की शाखी बट: पिप्पलक: कृति:" कहा गया है । अर्थात् वे गूगल मरूआ साखृ वड और पीपल के बन लगाने वाले थे । गूगल राजस्थान की वनस्पति है गूगल के फल गूगली धूंधली कहे जाते हैं गोगा भगत, ओढने की धूधी घूंघटा राजस्थान की घघ्घर तट की संस्कृति है । ब्रज में गोव से गूगली गोलाकार पिंड जैसी बनाकर उनके बीच में छिद्र बना कर होली में मालायें बना कर होम की जाती है जिससे आसुरी फाल्गुनी यज्ञ में गूगल के फलों की हवि देना तथा उस समय भी प्रजा का गूगल के फलों की माला धारण करने की श्रग्डा र परिपाटी ज्ञात होती है । ये गूगली अनाज को कीड़ों से बचा कर उसकी सुरक्षा के लिये अन्न के कोठों में रक्खी जाती है । गूगल के प्रयोग आयुर्वेद में योगराज गूगल आदि के रूप में अनेक रूपों में हैं । इससे ज्ञात होता है कि गूगली माथुर ब्राह्माण भृगु आसुरी पुरोहितों के रूप में अभिचार कर्मों में नरबलि के साथ गूगली फलों का होम नर मांस जलने की दुर्गध से वायुमंडल को अदूषित रखने के लिये किया करते थे, तथा वे गूगल फलों की माला धारण करने के कारण गूगली कहे जो लगे । माथुरों में पुंसवन कर्म में गूलरिया की माला गांभणी को पहनाई जाती है । मालाधारी माथुरों की शाखा भी है । गूलर पीपल बट आम्र निंव पंच पल्लव पवित्र वृक्ष हैं जो देवों पितरों की प्रसन्नता के लिये लगाये जाते है ।

3. तरं-

नक्षत्र विद्या के ज्ञाता अथर्वणगण रात्रियों में जिन कृतुयज्ञों का आयोजन करते थे वे " नक्त" कहे जाते थे । जो अब जागरण के यप में दुर्गा उपासना में हैं । असुरों के शवरात(शिवरात्रि) मुहर्रम, रोजे, आदि रात्रि के ही समारोह हैं । मथुरा में नक्तीटेकरा नाम की एक प्राचीन बस्ती है जो कभी रात्रि देवों का आवास रहा होगा और भृगुवंशी वहाँ अपने यजमानों को नक्त याग कराकर हूर गिलमा जित्र फरिश्तों को प्रसत्र करने के प्रयासों के कारण नख्तर नक्षत्र विद् कहलाये होंगे ।

4. धिरैरी-

मथुरा के समीप धौरैरा भक्त ध्रुव की राजधानी का स्थान है तथा यहीं अटल्ला चौकी अटलबन उनके विहार का उपवन है । इस ध्रुवपुरी के वासी ही धिरैरी या धुरैरीया माथुर है । धौलेडा पर्वत नन्द गाँव के समीप तथा धौर्रा पत्थर की श्वेत पाषाण की खानैं आगरा भरतपुर के मध्य के पर्वतों में हैं ।

5. सोतिया –

वैदिक श्रुतियों का सरस्वर पाठ और गान करने वाले वेदजश्रौतधर्मा ब्राह्मण श्रोतिय सोतिया या सोती कहे गये हैं । हमारा सनातन भारतीय धर्म श्रुति स्मृति पुराण प्रतिपादक हैं । उसमें श्रौतसंम्प्रदाय सोती, स्मृतिधर्मा स्मातं और पुराण धर्मा पौराणिक व्यास संज्ञाओं से प्रतिष्ठित हैं ।

6. गहवारिया-

ये वर्तमान में घरवारी भी कहे जाते हैं । वैदिक अग्निवंश का एक कुल गार्हपत्य अग्नि है । यज्ञ मण्डपों की पाकशाला में पत्ति शाला की ऋषि पत्नियाँ जो पाक विधान से चरू और पुरोडाशों का निर्माण करती थीं उनको कुशलता का निदेशन और प्रशिक्षण देने वाला अग्नि देवता गृहपति कहा जाता था । बरसाने का गहवर बन गहरवार क्षत्रिय गहलोत कायस्थ, घेबरपाक, इस देव की प्रजा परम्परायें है ।

7. मकना-

मकनपुर ब्रज के निवासी मकना नाम धारी हैं । मकना हाथी मकना भैंसा ब्रज में नाटे आकर वाले जीव को कहा जाता है । मक्खन या लौनी नवनीत का संग्रह कर उससे आज्य घृत तैयार कर यज्ञ कर्मों हेतु उसकी आपूर्ति करने वाले मखनियाँ मकनियाँ का मखन मकनाँ वहे जाते थे ।

8. कन्हैरे-

कित्ररगान कान्हड़ा कन्हरी गायक कित्रर कित्रौर प्रदेश के पुरोहित कन्हैरे माथुर हैं । विश्व व्याप्त कित्रर संस्कृति के स्थान कन्हैरी की गुफा ये बंवर्ह में, कन्हैर गाँव महाराष्ट्र में, कत्रड़ प्रदेश कत्रड़ी भाषा दक्षिण भारत में,कनाड़ा कैनेडी, कानौड़ राजस्थान में हैं जो कित्रर गणों के लोकप्रिय कलादक्ष और महाविस्तार के सूचक हैं । माथुरों में मंगल कार्यों में 'कन्हरी' नाम के प्राचीन गीतों के साथ शुभ कार्यों का आरम्भ होता है तथा गान कुशल सुरीले कन्ठ युक्त होने से श्री कृष्ण को कान्हा कन्हैया कानूड़ा कहा गया है । वे इसी कान्हणार के गायक व्यूह के सरस संगीत निर्देशक लोकमान्य गायक थे ।

9. दीक्षित-

देव यज्ञों में मंत्रदीक्षा से युक्त गुरु परम्परा प्रतिपादित श्रेष्ठ ब्राह्मण ही विशेष समादर पाते थे । भगवान नील बाराहने सर्व प्रथम अपने यज्ञ में "नाना दीक्षायुत" अनेक देव मन्त्रों की उपासना दीक्षा प्रदान कर उन्हें दीक्षित पद दिया था ।

10. सांडिल्य-

ये सांडिल्य भक्ति सूत्र ग्रंथ के कर्ता महर्षिशांडिल्य के वंशधर हैं । ये नन्द परिवार के गोपवंश के पूज्य पुरोहित होने से श्रीकृष्ण बलराम नन्द यशोदा वृषभान राधा सुदामा श्री दामा तोष आदि कृष्ण सखाओं ललिता विशाखा गोपियों के वंश के पुरोहित रहे थे । ब्रज के गोप गोपी गोपाल परिवारों की कुशल कल्याण कामना के लिए विष्णु की नारायणी भक्ति के ये मन्त्रदाता आचार्य थे । ब्रज में सांडरा शिखर पर्वत पर इनका निवास था । अग्नि देव का अपना गोत्र सांडिल्य गौत्र है जो इनके देव पूजित और पुरातन कालीन होने का निर्धारण है । सांड़िया नाम के बड़े बैलों पर तथा वलिष्ट ऊँटों पर सबारी करके घूमने वाले ये मरूधन्व देश के पुरोहित भी थे । जोधपुर नगर में सांडा की पौर नाम से एक मुहल्ला है । सांडू महाराष्ट्र में हैं । सैंडों पहलवान संदल चन्दन, शंढनपुंसकों के नाम भी हैं । शांडिल्य आत्मा परमात्मा तत्व दर्शन के महान द्दष्टा थे । शांडिल्य भारद्वाज ऋषि के मुख थे । शांडिल्य ने बैलगाड़ी शकटी के दान को तथा सुवर्णदान को श्रेष्ठ दान कहा है । इनके रचे ग्रन्थ शांडिल्य गृह्म सूत्र, शांडिल्य धर्म सूत्र, शांडिल्य दीपिका शांडिल्य गृह्म सूत्र हैं । शांडिल्य वैदिक यज्ञों में 'अग्नि चयन विद्या के आचार्य थे यज्ञ के आरम्भ में अग्नि उत्पादन और उसका स्थापन करते थे । ये कौशिक विश्वामित्र तथा गौतम के शिष्य होने से प्राचीन ऋषि थे किन्तु माथुर इनके संपर्क में श्री कृष्णकाल 3000 वि0 में आये और शांडिल्य के वंशजों के रूप में नन्दादि गोपों के पुरोहित रहे और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार किया । सांडरा पर्वत शिखर का वन वरसाने की पर्वत माला में हैं । विद्वज्जन देखें कि इस प्रकार के शोध विमर्ष से माथुरों की अल्ल(आस्पद) कितनी महत्वपूर्ण और पुरातन हैं ।

11. मरौठिया(मंढौरिया)-

आदति पुत्र इन्द्र के भाई 49 मरूत्तों के राष्ट्र मरूधन्व(मारवाड़) में उनकी राजधानी मारौठ वासी मरूत प्रजा राठौर राठी दक्षिण के मराठ वाड़ा के मारूती मरैठों के प्रोहित होने से ये मारूतीय मरौठिया कहलाये । रामभक्त हनुमान मरूत वायु पुत्र थे । मारौठिया रूइटिया माहेश्वरी वैश्वयों में भी हैं । मथुरा में मारूगली मारूओं का महल, नृसिंह लीला का मारू बाजा और राग मारू माथुरों से ही सम्बिन्धित हैं । मरूद्गण दक्ष यज्ञ के समय 9358 वि0पू0 में यज्ञ रक्षा हेतु आये थे । मंडोर का किला प्रसिद्ध है मंढौरिया मंडोरिया संभव है भंडोर के किसी राजा से सम्मानित होकर वहाँ भी रहे हैं । मीठे वर्ग में कुछ इनसे पृथक अल्लैं है जो स्थान वाचक बहुत परवर्ती काल की मथुरा से जाने के बाद की हैं ये हैं –

1. गुदौआ- लीला गुदना गोदने वाले लिलहारों के गांव गढूमरा ब्रज में निवास ।
2. कोटा- कोटा छिरौरा ब्रज के निवासी ।
3. रीढा- नन्द गाँव के समीप अरिष्टपुर रीठौरा अथवा रीढ़ा दाऊजी स्थानों के निवासी ।
4. गुड़वा- गरूड़ा ह्रय क्षेत्र गिड़ोह के निवासी ।
5. च्यौल्या(चावला)-चंबल नदी तट के चेंवरी सुरभी सुरैगायों के पालक सुरभी गौर इन्द्र के गोष्ठ में थीं तथा श्री कृष्ण को सुरभी कौ पय पान अति प्रिय था, सुरभी की पूँछ से देवों के चँवर बनाये जाते थे । इस चर्मणवती क्षेत्र पर प्राचीन काल में 4523 विपू में पुरूवंशी महादानी महाराज रंतिदेव का राज्य था, जो मथुरा में आश्रम तथा नगर (रती कौ नगरा) बसाकर विष्णु भक्ति में तल्लीन रहते थे । चँवर विक्रेता चावला पंजाब में भी एक जाति हैं ।

भारद्वाज गोत्र

भारद्वाज सामवेदी हैं । इनका समय 4814 वि0 है । भारद्वाज वेदमंत्र कर्त्ता ऋषि हैं । ऋग्वेद का छटा मंडल इनके तथा इनके वंशज ऋषियों के मन्त्रों से युक्त है । भारद्वाज ब्राह्मण से क्षत्रिय तथा ऋषि बने । कुत्स परिवारी आंगिरस बृहस्पति देवों के गुरु ने अपने बड़े भाई उतथ्य की पत्नि ममता में इन्हें उत्पन्न किया तब यह विवाद उठा इनका पालन कौन करे तथा ये किस के वंश में रहैं तब यह निश्चय हुआ कि बालक बृहस्पति के कुल में रहेगा तथा इसका पालन दोनों भाई मिलकर करैंगे तथा इसका नाम भी भारद्वाज (भरित द्वाज दोनों द्वारा भरण पोषण् प्राप्त) रहेंगा । साझेदारी की सम्पत्ति होने के बालक के पालन में झमेला देख वैशाली के चक्रवर्ती नरेश मरूत चक्रवर्ती ने इसे अपने संरक्षण् में रक्खा । इसी समय पाँचाल सम्राट दुष्यंत शकुन्तला(4950 वि0पू0) के पुत्र भरतखंड सम्राट महाराज भरत(4882 वि0) के द्दढ निश्चय स्वरूप उनके सभी पुत्र उनकी रानियों द्वारा मार डाले गये थे । राजा ने यह निश्चय किया था कि जो पुत्र मेरे और मेरे पितादि पूर्वजों के गुणों से सम्पन्न महाप्रतापी नहीं होगा उसे मैं अपने घर में नहीं रक्खूँगा । राजा भरत इस प्रकार पुत्र शून्य था । यह देख सम्राट मरूत चक्रवर्ती ने बृहस्पति के देवकुल आचार्य से उत्पन्न विवाद ग्रस्त बालक भरद्वाज को सर्व विद्या और तेजस्विता सम्पन्न होनहार यशस्वी बालक था अग्डीकार करने का परामर्श देकर बालक भारद्वाज को उन्हैं दे दिया और तब भरद्वाज पुरूवंशी सम्राट बने । भारद्वाज ने भरतवंश की प्रतिष्ठा ख़ूब अच्छी तरह बढ़ायी । पूर्व ऋषम पुत्र भरत के भरतवर्ष में इनने अपना क्षेत्र भरतखंड नाम युक्त किया और उसे बल विद्या ऐश्वर्य यज्ञादि से तथा शास्त्र समृद्धि से सम्पन्न और विश्व विख्यात बनाया ।

भरद्वाज राम भक्त थे । वे महर्षि बाल्मीकि के शिष्य थे । ये प्रयाग के निकट अपने श्वसुर गृह के समीप ही एक आश्रम बनाकर रामोपासना करते थे । इनकी पत्नि पैठीनसी प्रयाग के पीहन नगर के पिहानी वंश की पुत्री थीं । इस पीहनपुर को पुरातत्वाभिमानी भ्रान्त विद्वज्जनों ने पुरूरबा की प्रतिष्ठानपुरी मानकर महाभ्रान्ति का एक तानाबाना बुना है ।

पैठीनस आग्निदेव की एक शाखा का भी गोत्र है । महर्षि प्राचेतस(चटर्जी) बाल्मीकि ने अपना रामायण ग्रन्थ बनाकर सर्व प्रथम प्रयाग में ही भारद्वाज पत्नि पैठीनसी को श्रवण कराया था । क्रौचवध की घटना के समय भी भारद्वाज बाल्मीकि के समीप थे । इनने महर्षि याज्ञवल्क्य से भी विद्या अध्ययन की थी और याज्ञवल्क्य के वलख बुखारा में आश्रम बना कर म्लेच्छ (विलोम उल्टी बामगति वाली भाषा अरबी फारसी पुश्तो भाषा) पढ़ाने की शिक्षा पद्धति का नि:संकोच होकर विरोध किया ।

भारद्वाज मुनि ने दंडकारण्य जाते समय भगवान राम का सत्कार किया भरत जब रामजी को लौटाने गये तब उनको भी रामजी का पता दिया तथा जब श्रीराम प्रभु लंका विजय कर लौटे तब उन्होंने सीता को भारद्वाज आश्रम दिखाया और मुनि के दर्शन को आये । भरद्वाज सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये देवराजम इन्द्र से बहुत लंबी आयु मांगी । इन्द्र ने इन्है। 100-100 वर्षों की आयु तीन वार प्रदान की परन्तु वेदध्ययन पूरा न हुआ । इन्द्र से इनने 100 वर्ष का एक और आयु का मांगा, वे परिश्रम से जर्जर और रोग ग्रस्त हो गये थे तब इन्द्र ने इन्हैं वेदविद्या ग्रन्थों के तीन बड़े भाग दिखलाये जो प्रत्येक महाविशाल पर्वताकार थे उनमें से 1 कण उठाकर इन्द्र ने कहा- 'महामान्य ! आपने तीन जन्म श्रम करके इतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकोगे, मेरी बात मानो मेरी शरण में आओ मेरे उपदेशानुसार 'सावित्र्याग्नि चयन कर गायत्री होम' करो तब स्वर्ग की सहज प्राप्तिकर सकोगे' भरद्वाज ने यही किया और स्वर्ग की प्राप्ति की । आग्रहायण काल में उत्तराण आरंभकाल में आग्नि स्थापना द्वारा यह 'सावित्र्याग्नि चयन' यज्ञ किया जाता है ।

भारद्वाज ने काशी के राजा दिवोदास को पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे उसे प्रतर्दन नाम का प्रतापी पुत्र हुआ जिसने तालजंघ और हैह्यों से अपने पूर्वजों की पराजय का बदला लिया ।

ऋग्वेद के कथन से ज्ञात होता है कि भारद्वाज पुरू ने पंथ नाम के पर्वतीय नरेश के राज पुरोहित रह कर उसे यज्ञ कराया था । पंत हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र के ब्राह्मण होते हैं । इनमें गोविंदवल्लभपंत भारत सरकार के राज प्रतिष्ठित मन्त्री रहे हैं । पन्त अभी भी मथुरा के माथुरों के यजमान हैं । महाभारतकालीन भारद्वाज के घृताची नाम की अप्सरा से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था जो भारद्वाज के मित्र पृषत नरेश के मित्र थे । पृषत के पुत्र महाराज द्रुपद से आचार्य द्रोण की घनिष्ठ मित्रता थी जो बाद में घोर शत्रुता में बदल गयी और अर्जुन द्वारा द्रुपद राज्य पुचाल देश का आधा भाग दक्षिण पांचाल जीत कर इन्हें प्रदान किया गया । भारद्वाज अनेक विद्याओं के महान ज्ञाता वेदकर्ता और ग्रन्थों के प्रणेता थे । ऋग्वेद के छठे मण्डल के ये द्दष्टा हैं । इसमें इनके अग्नि देव की आराधना के मन्त्र हैं । ये व्याकरणशास्त्र के प्राचीन आचार्यों में से थे तथा इनके 'भारद्वाजीय व्याकरण' ग्रन्थ के आधार पर बनाकर व्याकरणकार पणिनिने अपने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यात्री की रचना की थी । ऋक प्रतिशाख्य में इन्हैं व्याकरण विद्या का महान आचार्य कहा गया है । जिन्होंने इन्द्रदेवता को गुरु बनाकर इससे यह विद्या पायी थी । ये सामवेद के महा गायक(महार्चिक) होने से सामवेदौ परम्परा के आचार्य माने जाते थे । यह विद्या इन्हें पाराशर के शिष्य पारार्श्य कौथुम से प्राप्त थी जो इनके वंशजों की वेद शाखा प्रसिद्ध है । भगवान श्री कृष्ण ने भी इसी माथुर वंश से साम गान की दीक्षा प्राप्त कर 'सामगान परायण्' विरूद पाया था तथा स्वयं अपनी गीता में अर्जुन से 'वेदानां साम वेदोस्मि' कहकर गान विद्या का मान बढ़ाया था । भारद्वाज श्रौत सूत्र, भारद्वाज धर्म सूत्र, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाजीय व्याकर, भारद्वाज व्यवहार, शास्त्र(विवाद मुकदमों का निर्णय), आदि इनके ग्रन्थ हैं किन्तु सबसे महान इनका 'भारद्वाज शिल्प शास्त्र' हैं जिसके 'वैमानिक तंत्र' नाम के अधिकरण में विमान विद्या(हवाई जहाज रचना और संचालन) का वर्णन हैं ।इस विलक्षण ग्रन्थ में आज से 6856 वर्ष अर्थात् 4814 विक्रम संवत पूर्व की देव विमानविद्या वायुयानों का निर्माण, यन्त्र रचना, उनकी उड़ानों की गतियों के भेद आकाश में वायु के विभिन्न स्तरों में उनके प्रवेश और विचरण आदि की दुर्लभ जानकारी दी गई है जो आज के युग की वायु सेवाओं को भी पूर्णत: उपलब्ध नहीं है । भारद्वाज चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत भरत के उत्तराधिकारी प्रतापी सम्राट थे ।

भारद्वाजों के अनेक आश्रम थे- मथुरा में भारद्वाजपुर(भारगली) भारद्वाज नगर(बाजनौं गाँव), भारद्वाज तीर्थ मथुरा परिक्रमा में, हैं ।