चतुर्वेदी इतिहास 15

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

मुहम्मद गोरी के बाद

गुलाम वंश के 11 बादशाह तथा एक रजिया बेगम ने 84 वर्ष(1263-1347 वि0) राज किया । इस समय पठान दल के दल विसायती खाना चूड़ी हींग आदि लेकर बेचते हुए गाँव-गाँव नगर-नगर में छा गये । 1347-1377 वि0 के 30 वर्ष में खिलजी वंश की सल्तनत रहीं । ये सभी हिन्दू धर्म और ब्राह्मणों के शत्रु थे । अलाउद्दीन खिलजी (1355-1372 वि0) ने जो महानिर्दयी क्रूर और दगाबाज जालिम बादशाह था मथुरा और माथुरों पर दुसह अत्याचार किये । मथुरा के जो बचे थे उन सभी मन्दिरों को तोड़कर इसने सरायें मकतव इमाम बड़े बनवाये । होली दरवाजा, भरतपुर दरवाजा, डीग दरवाजा आदि पर जो सरायें हैं वे प्राचीन मन्दिर थे जिन्हैं इसने नष्ट किये । इसके भाई असफखाँ (उलगखाँ) ने असिकुंड तीर्थ के समीप के नवमंजक तीर्थ पर स्थित मुंजकेश रूद्र मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया जो विफल हो गया । शिव वाहन नंदी यहाँ अभी भी हैं । खिलजी ने यमुना के घाटों यात्रियों और माथुर ब्राह्मणों को भी भारीक्षति पहुँचाई परन्तु घोर अत्याचारों के बाद भी वह माथुरों के (चौबिया पारा) में भग्न मन्दिरों पर कोई मसजिद सराय या मकतव न बना सका । माथुरों ने दृढता से इसके सभी प्रयासों कौ पूर्णत: विफल कर दिये । इसने कामांध होकर रानी पदि्मनी के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण किये पहिली बार वीर राजपूतों ने डोलों में बैठकर जनाने भेषों में इसके शिवर में प्रवेश किया और काट कर इसकी सेना को भगा दिया परन्तु दूसरी बार बहुत बड़ी यवन सेना के साथ चित्तौड़ का घेरा डालने पर 13 हजार राजपूतों ने जौहर किया रानी पदि्मनी चिता में चढ गयी तथा इसी 1360 वि0 में मथुरा के माथुर चित्तौड़ से मथुरा लौट आये ।

इसका उत्तराधिकारी मुबारक शाह खिलजी भी महानिर्लज्य था इतिहास भास्कर का लेखक लिखता है 'जाइ प्रजाघर नांचवे कर नारी को भेष' कभू नगिन दरबार में बैठत आपु नरेश । दरबारी उमराव तिन्ह के परिमल व सन पै करवाबत पेशाब वोलि कंचनी नगिन करि।। यह राजा हिजड़ों का हिमायती था आप नंगा दरवार में आ बैठता तथा नग्न वैश्याओं से दरबारी लोगों के झीने वस्त्रों पर पेशाब करवाता इतना ही नहीं बादशाह खुद घर घर हीजड़ी बनकर ढोलक बजाकर नाचता था । वह इस्लाम का भी पक्षपाती न था, लिखा है- चौकी रची कुरानकी तापर मूरति धारि, हिन्दुन नैं पूजा करी या विधि महीना चारि । इसे नाच गान की तरफ से मोहित कर मथुरा के चौबे और अन्य लोगों ने कुरान की चौकी बनाकर उस पर भगवान नृत्य गोपाल की मूर्ति विराजमान कर चार महीना चतुर्मास का महोत्सव मनाया जिसमें बादशाह को भी खूब नचाया ।
खिलजियों के बाद तुगलकों का राज्य (1377-1471 वि0) 94 वर्ष रहा । इनमें मुहम्मद तुगलक की मूर्खता और हठ इतिहास प्रसिद्ध हैं ।

फीरोज तुगलक भी हठी सनकी और निर्दय अत्याचारी था । 1455 वि0 में लंगड़ तैमूर ने दिल्ली पर हमला बोला । 5 दिन दिल्ली लूटी और एक लाख कैदी गुलाम बनाकर पंजाब लूटता काबुल को लौट गया, तब 16 वर्ष तक दिल्ली अनाथ रही । 1471 वि0 में सैयद वंश ने दिल्ली तख्त दबाया । 1507 वि0 में लोदी वंश आया इनमें सिकन्दर लोदी (1545-1574 वि0) महा अत्याचारी हिन्दुओं का कट्टर विरोधी था यह अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले आया तथा मथुरा केशव मन्दिर तोड़कर वहाँ कसाइयों को बसाकर मांस बेचने का काम सुपुर्द किया । मन्दिरों की मूर्तियाँ मांस तोलने के बाँट बनायी गयीं । माथुरों पर कठोर अत्याचार हुए तथा यात्रियों के स्नान मुन्डन आदि पर जाजिया कर लगाया गया । मथुरा पर काजी का राज था । ये और उसके फर्मावरदार तलवार लिये गली गली घाट घाट घूमते थे । मथुरा में इसके सिफाही लोधे समूह के साथ बस गये । 1583 वि0 में मुगुल बाबर ने भारत पर हमला किया और इब्राहिम लोदी से दिल्ली सल्तनत छीन ली । इब्राहीम (हिमवंत खन्ड) मेवात के शूरवीर मेवों का कठोर दमन कर उन्हैं मुसमान बनाया । इनमें से एक दल चंबल के बीहड़ों में भाग गया तथा कुछ मलकानें बनकर दुधर्मी बनकर रह गये । जो माँस भक्षण के कारण मल खाने प्रसिद्ध हुए । 1326 वि0 में गया सुट्टीलप भवन के समय धार्मिक अत्याचार होने पर 1 लाख मेव मारे या भाग गये ।

मुगल राज्य

मुगल वंश का पहिला बादशाह बाबर (1583-1589 वि0) था जो तुर्क तैमूर लंग का परपोता था इसके समय चित्तौड़ के राणा सग्राम सिंह (साँगा) ने जो बड़ा राजा कहा जाता था 9 राजा तथा 10 सामन्तों का देश रक्षा संघ मथुरा में बनाकर फतेहपुर सीकरी के पास बाबर से मोर्चा लिया । साँगा अद्वितिय शूरवीर था- उसके देह पर 80 घावों के निशान थे तथा युद्धों में उसकी एक आँख और पैर मारे गये थे । बाबर उसे जीत नहीं सकता था अत: भोजन पर बैठे राजपूतों पर धोखे से हमला करके उन्हैं रौंद डाला । एक अनुश्रुति यह भी है कि मुगलों ने गायें आगे कर हमला किया जिससे राजपूत कर्तव्य विमूढ़ हो गये । सांगा का अधिक विवरण 'श्री विश्रान्त तीर्थ राज' शीर्षक में हैं । हुमायू ने (1587-1613 वि0) 26 वर्ष राज किया, अधिकतर वह भागता ही फिरा । उसके समय मथुरा में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई । इसके समय 1593 वि0 में महाप्रभु चैतन्य के शिष्य सनातन और रूप ब्रज में आये और उन्होंने यहाँ तीर्थ यात्रा का मार्ग निर्देशन करते हुए भावुक भक्ति रसज्ञ माथुरों को देखा । उन्होंने प्रेम विभोर होकर लिखा-

अत्रासीत्किल नंद सद्म शकट स्यत्रा मभूद् भंजम् ।
बंधच्छेद करोऽपि दामभिरभूद् वद्धोत्र दामोदर: ।।
इत्थं माथुर वृद्ध वक्त्र विगलद् पीयूष धारां पिव ।
आनंदाम्बुधर: कदा मधुपुरी धन्या चरिष्याम्यहम् ।।

1313 वि0 में 13 वर्ष की आयु में अकबर गद्दी पर बैठा । अकबर उदार और भावुक प्रकृति का जीव था । उसने जैपुर के राजा भगवान दास की बहिन तथा राजा मानसिंह की बुआ जोधा वाई से विवाह किया जिससे जहाँगीर पैदा हुआ था । अकबर ब्रजभूमि मथुरा पुरी और मथुरा के चौंबों का परम भक्त था । उसके दरबार में तानसेन (स्वामी हरिदास जी का शिष्य), बीरबर, टोडरमण, हरनाथ माथुर आगरा के किले के प्रबंधक जिन्हैं आगरा में जंजीरी कटरा खिलअत में मिला), था रसखान, नृसिंह दैवज्ञ ज्योतिष शशि भानुचं ददरबारी अकबर ने नवरत्नों में देवज्ञ थे ।

अकबर ने दीन इलाही चलाया जिसमें सूर्य चन्द्रमा गण और अग्नि की पूजा थी । वह तिलक लगाता कंठी जनेऊ बगलबंदी पहिनता हुआ पूरा गोशांई बन जाता था । उस पर माथुरों का भारी प्रभाव था । ब्रज भक्ति रसाचार्यपरम प्रभु श्री उद्धवाचार्य देव ने उसे कंचन रत्न मयी मथुरा के दर्शन कराये थे । श्री स्वामी हिरदासजी का संगीत सुधा रस पान करने को वह तानसेन का सेवक बन कर आया था उसकी बेगम ताज मथुरा के ताज पुरा में गो0 विनट्ठ नाथजी के (सतधरा) के निकट ही रहती थी । अकबर ने चौंबों को अनेक अवसरों पर भूमि, दान दिये जिनके फर्मान इस ग्रंथ के परिशिष्ट संकलन भाग में हैं । अकबर ने अपने बजीर टोडरमल के मथुरा आकर विश्राम घाट पर यमुना जी के दर्शन करके चौबों को तीर्थ की मर्यादानुसार पूजन और दान दक्षिणा ने देने पर चौबों के श्री भगवान मिहारी के दावे को बहाल करते हुए अपने ही जीमीर पर 350 रूपयों की डिग्री की जिसकी चुकती राजा टोडरमल ने बंड़े विनय के साथ पैरों पड़कर की । बीरबल की कठिन समस्यायें जब अटक जाती थी तो वह उन्हें सुलझाने चौबे गुरूओं के ही पास आता था । इस समय की अनेक मनोरंजक घटनायें चुटकुलों के रूप में लोगों की जुबानों पर हैं-

1. बादशाह का महाभारत- अकबर ने एक बार हरवंश मिहारी को बुला कर कहा-' हमारा महाभारत बनाओ' चौबेजी ने कहा- ' इसमें तो बड़ा खर्च पड़ेगा' । बादशाह ने तब बहुत सा धन देकर चौबेजी को रबाना किया । अब क्या था हजारों चौबे बाबा यमुना तटके घाटों पर कागजों के गट्ठर सामने रखे यमुना यमुना लिखकर कागजों के गठर बांधकर रखते जाते बादशाह के आदमी आते देख जाते हर महिना हजारो रूपया खर्च कौ आने लगा और माल घुटने लगे । 3 वर्ष बाद बादशाह ने चौबे जी को बुला कर पूछा-' अब कितना काम वाकी है ?' गुरूजी ने कहा- 'काम तोबहुत कुछ हो चुका है- एक समस्या अटकी है उसे एकांत में चलें तो पूछूँ' एकांत में जाने पर कहा- 'जहाँ पनाह, एक बड़ी समस्या अटकी है, द्रोपदी के पाँच पति थे- आपने भी सुना होगा ।
आपकी बेगम साहिबा के एक श्रीमान है तथा चारौं के नाम और बतलायें जायैं । बादशाह ने कहा मैं नहीं जानता क्या इसके बगैर काम न चलेगा, मैं रात बेगम साहबा से दरयाक्त करूँगा रात को बादशाह ने जब बेगम के सामने सबाल रखा तो वे झल्ला उठी- जहन्नुम में डालौं यह करिश्मां-मेरा उसमें जिक्र भी मत देना । बादशाह बेहद शर्मिन्दा हुए और कहा- 'महात्माजी, इस काम को फौरन बंद करदो और जोलिखा है उसे जमना में बहा दो'
चौबेजी ने कहा- 'हजुर एसा न करैं सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा, हजारों पंडित मेहनत कर रहें हैं ? बादशाह ने- पुन: बहुत सा धन दिया और कहा- जो हुआ सो हुआ, अब इसे आगे मत बढ़ाओ ? चौबेजी हंसी खुशी अपने घर आये ।

2- कौड़ी का बटयारा- एक बार बहुत से चौबों के आशीर्वाद देने पर बादशाह ने श्री भगवान गुरू को 1 कौड़ी देकर हंसकर कहा- 'इसे सबको बाँट दो' बादशाह चले गये, अब चौबों के दल ने गुरू जी को घेर लिया 'क्या दिया है दिखाओ और बाँटो' भगवान गुरू हंसे- 'तुम मेरी मुठी की कीमत बताओ और बट ले लो किसी ने कहा- 'एक मुहर है किसी ने कहा पाँच है' गुरूजी ने जिसने जो कहा- उसी हिसाब से उसे बाँट देकर हजारों रूपया लुटा दिये' बादशाह ने जब यह सुना उन्हें बुलाया और कहा- 'तुमने मुट्ठी क्यों नहीं खोलदी' गुरूजी ने कहा- श्रीमान उसमें आपकी और मेरी आबरू बंद थी' मैं उसे खोल कैसे देता ? इस उत्तर से बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उम्मीद से ज्यादा धन और भूमि जागीर देकर उन्हैं सम्मानित किया ।

3- मोती माला- एक बार बादशाह नौका में बैठकर यमुना में से मथुरा की शोभा देख रहे थे । गुरूजी भगवान महाराज साथ थे । उनके यमुना और मथुरा महात्म को सुनकर बादशाह ने प्रसन्न हो उन्हैं एक बहुमूल्य मोतियों की माला भेंट की । गुरूजी ने मस्तक से लगा कर उसे श्री यमुना जी के अर्पण कर दी यह देख बादशाह हैरत में पड़ गया -'यह क्या किया मेरे मालिक वह तो बहुत वेश कीमती थी । भगवान गुरू मुस्कराये-'चिन्ता क्यों करते हैं खल्कत के मालिक- यह देखो' कैसा आश्चर्य उन्हौंने यमुना जल में हाथ डाला और माला पर हजारों मोती की मालाओं का ढ़ेर बादशाह के सामने लगा दिया । ये सभी बादशाह भी माला से बहुत अधिक कीमतों की थीं यह भक्ति बल देख बादशाह चकित और लज्जित हो गया ।
इस प्रकार की और भी बहुत सी घटनायें जन मानस में गहिरी पैंठी हुई हैं ।

माथुर चतुर्वेदी कुल के सूर्य चंद्रमा श्री उद्धवजी उजागरजी

उक्त दौनों महापुरूष माथुर कुल के परम यशस्वी तेजस्वी रत्न हुए हैं । श्री मद् उद्धवाचार्य मिहारीपीवंश के तथा श्री उजागर जी ककोर कुल सरदार थे । श्री उद्धवजी का जन्म 1532 चैत्र शुक्ल 6 (यमुनाछट) को तथा लीला प्रवेश 1624 कार्तिक शुक्ल 11 (प्रवोधिनी) का हुआ था दोनों की मातायें यमुना गंगा परस्पर श्री गणेशानंद सोती की पुत्री सगी बहिनैं थी । श्री उद्धवजी के पिता योगाचार्य श्री गोपीनाथजी थे जिनकी ब्रम्हजीन साधना पर माता यमुना सती हुई और तभी अपनी बहन गंगा को निर्देश दिया कि- 'मेरे ऊधौं कौं अपने उजागर ते जादा करकौं राखियों- यामें भेद आयौ तौ अलैंह परैगी' माता ने उसी भाव से दोनों का लालन-पालन किया तथा वे माता सती के आशीर्वाद से परम तेजस्वी लोक पूर्जित और महामान्य प्रतापी पुरूष हुए । दोनों भाई एक प्राण दो देहबन कर रहे । वे दोनों प्रत्येक सामाजिक समारोहों उत्सवों पंचायतों में एक साथ श्री उजागरजी के सुन्हैरी ताम झाम में बैठ कर पधारते थे । आगे पीछे घुड़सवार और सेवक चलते थे । श्री उद्धवजी जन्म से ही बड़े तेजस्वी ज्ञानी रूपवान और गंभीर चितंन स्वभाव के थे । अपने गुरू योगेन्द्र ब्रह्मचारी से उन्होंने वेदादि सर्व शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया था । उनके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनायें हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं ।

1- श्री माधवेन्द्र पुरी महाराज मथुरा पधारे तब उन्हैं मथुरा और ब्रज भूमि महात्म उपदेश कर गिरिराज तरहटी के ढूकाँ दाऊजी के सुरभीबन में श्री कृष्ण अराधना की प्रेरणादी तथा वहां के श्री गोपालजी (श्री नाथजी) के विग्रह को श्री माहाप्रभु वल्लभ आचार्य जी द्वारा सेवा अधिकृत करने पर ढूंका बल्देव का श्री माधवेन्द्र पुरी जीका बनाया प्राचीन मन्दिर सूना हो गया और तब वहाँ एक बड़ी शिला को बड़े भाई बलराम मानकर पूजित कराया ।

2- महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी जब मथुरा पधारे तब उन्हैं अपने आवास में यमुना वाटिका में निवास दिया और अपने कथा स्थल विश्रान्त अवि मुक्त के संगम के निकट श्री यमुना आराधना का परम तत्व हृदयगम कराया तथा संप्रदाय स्थापना से पूर्व श्री यमुनाष्टक की रचना और सविधि उसका पारायण कराया तथा श्री माताजी का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर श्री गोवर्धन शिखर पर बालगोपाल प्रभु की सेवा पद्धति से संप्रदाय की स्थिति की श्री वृद्धि का मार्ग निर्दिष्ट कराया ।

3- श्री माधवेन्द्र पुरी जी के शिष्य ईश्वर पुरी जी को नंद गांव में नंदगोपाल प्रभु की आराधना उपदेश की जिससे वे ईश्वरवाटिका और ईश्वर पुष्करिणी (ईसरा ग्वाल की पोखर) बना कर अपनी भक्ति साधना में सफल हुए ।

4- श्री बल्लभदेव को आन्यौर के निकट प्रागट की ठौर से प्रगट श्री नाथ प्रभु का स्वरूप दिलाकर पूरनमल खत्री (टोडरमल परिवारी) को मथुरा से लाकर श्री नाथ जी के दर्शन कराकर मन्दिर निर्माण की प्रेरणा दी तथा मथुरा से कारीगर निर्माण सामिग्री की व्यवस्था कर मन्दिर निर्माण करवाया ।

5- श्री नाथजी के परटोत्सव में ब्रज के सभी संप्रदायों के संतमहंत भक्तों विरक्तों को आमंत्रित कराकर उन सभी का यथोचित सेवा सत्कार और सम्मान कराया ।

6- श्री उद्धवदेव कथा रस के अद्वितिय प्रवर्तक थे । वे नित्य प्रति श्री विश्रान्त और अविमुक्त तीर्थ के संगम पर राजा भगवान दास आमेर की रानी द्वारा बनवाये एक छोटे से बुर्ज पर विराज कर श्री मद् भागवत और बाराह पुराण मथुरा महात्म की कथा कहते थे जिसका सुधारस पान करने को अनेक राजा महाराजा संतभक्त विरक्त सुधीजन यमुना पुलिन रेणुका में बैठकर रस लेने आते थे- बादशाह भी यहाँ आया था ।

7- यहीं आपने श्री यमुना माता की कृपा से ऋग्वेद के 'माथुर स्वामी भाष्य' की रचना की जिसमें ऋग्वेद में श्री कृष्ण लीलाओं का अनुसंधानात्मक विवेचन है । ऋग्वेद के हिन्दी भाषान्तर कर्ता श्री रामगोविन्द त्रिवेदी ने अपने हिन्दी ऋग्वेद' की भूमिका में इसका उल्लेख किया है और बतलाया है कि यह भाष्य अब जर्मनी में है ।

8- श्री यमुना तट पर ही आपने अपने विशाल 650 पृष्ठों वाले ब्रजयात्रा ग्रंथ की रचना संपन्न की जो ब्रज ज्ञान का अभूतपूर्व भक्ति रस कोष है ।

9- श्री विश्रान्त तीर्थ पर ही आपने 1550 वि0 में आद्यरास का प्रादुभवि किया जिसमें माथुर बालकों के 8 स्वरूप प्रस्तुत कर श्री स्वामी हरिदासजी तथा श्री बल्लभाचार्य के सहयोग से परम रास रहस्य का प्रागट्य किया इसमें दैवयोग से श्री लालजी का स्वरूप तिरोहित (लीला प्रविष्ट) हो गया जिससे मिहारी वंश में बालक को स्वरूप बनाने और केसरिया वस्त्र पहिराने की बिठोक हो गयी जिसे वृद्धा मातायें अभी भी मानती हैं । इस विषय में 'रास सर्वस्व, में लिखा है-

प्रथम रास विश्रान्त किय बहु ब्रजभक्त बुलाइ।
उद्धव श्री हरिदास वहाँ प्रागट रचेउ सुहाइ ।।
उद्धव रस के पारखी गान किये रस राग ।
बल्लभ नेह छकित भये उमग्यौ अति अनुराग ।।
रसावेश उमग्यौ अगम भयौ तिरोहित रूप ।
तब आरंत विहबल भये परेजु करूनां कूप ।।
माथुर लीला विरत भे तब घमंड समुझाई ।
तुम यह परिपाटी गहौ हरि भक्तन हित छाइ ।।
गांव करैहला जानियैं स्वामी पद तिन्ह दीन्ह ।।
उद्वव रस के महोदधि अजुगत लीला कीन्ह ।।

घमंडीराम करहला निवासी कीर्त्नियाँ थे, उन्हैं इस रास में समाजी का पद दिया गया था तथा बाद में उन्होंने ही करहला से इस रास की परंपरा को आगे बढ़ाया जो अभी तक चली आ रही है ।
10. 1550 वि0 में श्री बल्लभाचार्य को ब्रजयात्रा कराते समय बहुलावन के मुसलमान हाकिम ने उन्हैं गाय की मूर्ति की पूजा से रोक दिया -कहा कि यदि पत्थर की गाय घास चरे तो सच्चा देव मानूँ । श्री उद्वव देव ने वेद का गोसूक्त पढ़ा और तत्काल गौ सामने रक्खी घास को खाने लगी । हाकिम लज्जित हो गया और दर्शक जय जय कार कर उठे ।

11. 1571 वि0 में मुसलमान बादशाह लोदी के एक पीर ने विश्रान्त घाट पर एक एसा यंत्र लगाया कि जिसके नीचे से निकलने वाले हिन्दू कीचोटी गायब हो कर दाड़ी निकल आती थी । इसके प्रतीकार में श्री उद्ववजी ने एक 'यमराज यंत्र' निर्माण किया और उसे दिल्ली नगर के प्रधान द्वार पर श्री केशव काश्मीरी भक्त से लगवाया जिससे मुसलमान की दाढ़ी गायब होकर चोटी निकल आती थी । इस यंत्र से दिल्ली नगर में तहलका मच गया और तब बादशाह ने क्षमा मांगकर दोनों यंत्र हटवा दिये ।

12-1580 वि0 में रहीम खानखाना ने आपके उपदेश पर 1 लाख मुद्रा गंग कवि को पुरस्कार दिये । गंग ने एक दोहा पढ़ा था- गंग गौंछ मौछैं यमुन अधरन सरसुति राग । प्रगट खानखाना तेरे अधरन पुण्य प्रयाग ।

13- 1615 वि0 में इनके पुत्र श्री भगवान मिहारी ने अकबर दरबार में टोडरमल बजीर पर 350) की डिगरी करायी ।

14- 1603 वि0 में भक्त रसखान ने इन की देहरी चूंभी तब उसे गोविंद कुंड पर गो0 विछल नाथ जी की सेवा में भेजा ।

15- 1584 वि0 में राणा सांगा को विश्रान्त पर घाट निर्माण की प्रेरणा दी ।

16- श्री उद्धवदेव की प्रशस्ति में अनेक भक्तों ने काव्य रचनायें की हैं, उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं-

शास्त्रज्ञ धर्मज्ञ कला प्रवीण:, अनेक सच्छास्त्र कृति: रसज्ञ: ।
चंडांशुवद्दीपित लोक पूज्यो, श्री उद्धवो माथुर सर्व वंद्य: ।।
श्री कृष्ण भक्ति महदांबुधि पूर्ण चंद्रो, तत्वज्ञ दिव्य ब्रज मंडल तीर्थ धाम्नि ।
लीला रसज्ञ भुविभास्कर चक्रवर्ती, श्री उद्धवो विजयते श्रुतिससार्वभौम: ।।
लोक वंद्यो जगत्पूज्यो उदार करूणाम्बुधि: ।
पादार्चयन्ति विवुधा उद्धवस्य महात्मनाम् ।।
शास्त्राण्येन अकृलंता नृपवरै र्विद्वज्जनैर्वं दिता: ।
भक्ति स्थापन लोक पावन करं तत्वं समुद्घोषिता: ।।
नानादैवत तीर्थ शोधन कृता विप्रांश्च संस्कारिता:।
श्री ब्रजमंडल मंडनं विजयते श्री उद्धवेशो प्रभु: ।।
कालिंदी जगदंब क्रोड विलसन्हृष्टो पय: पानत ।
साक्षाच्छीरविजा विनिर्दिशषतितंबात्सल्य प्राप्तं सुतम् ।।
नाना वैष्णव संप्रदाय प्रमुखा गृण्हन्ति गोप्यं रसं ।
श्री मन्माथुर भास्करों विजयते श्री उद्धवेशो प्रभु: ।।
येषां कृपा कटाक्षेण हरिलीला प्रस्फुरायते ।
तं श्री मदुद्धवाचार्य पादरेणुं नमाम्यहम् ।।
पग परतत आचार्य भूप ठाड़े रहैं द्वारे।
गावत जस कवि छंद भक्त जन प्रानन प्यारे ।।
वेदपाठ धुनि होत अचल रविजा भुवि भक्ती ।
हरि रस चातक भक्त चरन चांपत अनुरक्ती ।।
 अनुभव अनंत भगवंत पद लछीराम बंदत गनी ।
राजाधिराज द्विजराज वर उद्धव जय त्रिभुवन धनी ।।
जिनकी कृपा प्रसाद भक्त भुवि मंडल नांची ।
मथुरा देव निवास लखी कलिजुग में सांची ।।
खोलि दियौ भंडार रतन श्री महारानी जू ।
अगनित तारे जीव भागवत बरदानी जू ।।
जय 'छगन मगन' आनंदघन ब्रजमंडल वैभवभरन ।
माथुर श्री उद्धव देवजू त्रिभुवन जन पूजितचरन ।।
सम्राडकवरेणैते प्रार्थिता श्री मदुद्धवा: ।
स्वरूपं मथुरायाश्च तं ददर्श महद्भुतम् ।।
सुवर्ण निर्मिता रत्नैर्जटिता मथुरापुरी ।
दर्शिता तं विलोक्या ऽसौ सम्राट सुचकितोऽभवत् ।।
श्री भागवत वखानि अमृत की धार बहाई ।
अमल करी सब अवनि ताप हारक सुखदाई ।।
भक्तन सौं अनुराग दीन कौं परम दयाकर ।
भजन यशोदानंद संत संधट के आगर ।।
भीषम हरिभक्ति उदार उर कलियुग दाता सुमति के ।
 तप बर्धमान मंगल गभिर उभैं थंम हरि भक्ति के ।।
श्री उद्धव अवतार भक्त उद्धव के गाये ।
मथुरा माथुर विप्र मिहारी कुल प्रगटाये ।।
 काव्य चित्र संगीत सकल शास्त्रनु के ज्ञाता ।
तपसी तेज निधान चरन पूजित बिख्याता ।।
तिन्ह के बंधु प्रवीन उजागर परम प्रतापी ।
नारद देह अगाध मान धारी हरि जापी ।।
राजा राव राना नित वंदना करत ठाड़े ।
मारगधरैया भेद जाचत अनाद हैं ।।
ब्रज सरबस रस चाख्यौ है सुगम करि,
काट्यौ तप तेज बल भ्रमनां प्रमाद है ।।
'भगवंत' संत सुर मुनि मिलि सेवा करें,
श्री जमुना कौ धाम तहाँ होत शंखनाद हैं ।
जुरि-जुरि आवैं भक्त पीवत न थाकैं सुधा,
छाकैं छाक श्री उद्धौजू की कृपा के प्रसाद हैं ।।

श्री उद्धव उजागरजी की प्रशस्ति में ब्रज मंडल के 45 भक्त कवियों ने पद किये हैं जिन का संग्रह माथुर' मधुयापावली' नाम से हमारे प्राचीन ग्रंथ संग्रह में हैं ।

16. एक बार गहिरी निद्रा में शयन करते हुए उन्हैं माता श्री यमुना जी ने उठाकर अपनी गोद में बैठाया सिर पर हाथ फेरा और फिर उन्हैं कंचन कटोरा में लाया हुआ अपना निज प्रसाद सुरभी दूध पय पान बड़े लाढ़ के साथ कराया और बर दिया कि 'पुत्र तू त्रिभुवन मंगल कारी होगा ।

17- एक बार अकबर बादशाह इनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उपदेश सुनकर अर्ज की कि- मेरे मालिक मैंने सुना है देवों की मथुरापुरी अद्भुदरहस्य भयी अलौकिक रूप है । क्या आप कृपा कर के उसकी छटामुझ को दिखला सकैंगे ?' आप मुस्कराये और यमुना जल का छींटा उसके नेत्रों पर देकर कहा- 'अब सामने देखो' । आश्चर्य कि सारी पुरी कंचन और रत्नों से जगमगा रही थी । बादशाह अपने को भूल गया चरणों में झुक गया । होश में आने पर एक सहस्त्र सुवर्ण और रत्नों से भरे कलश चरणों में रख क्षमा याचना करने लगा- इसका वर्णन करने वाले तीन पद प्राप्त हुए हैं जो अति महत्व पूर्ण हैं । आपने ब्रज भक्तों को बतलाया कि देवों की दिव्यपुरी मथुरा -'रत्नबद्धोभय तटा हंस पद्मादि संकुला' है जिसे विरले बड़भागी भक्त ही देख पाते है।

बादशाह अकबर रस प्यास ।

दोइ बेर दीदार न पाया अतिमन रहा उदासा ।
तीजी बेर कृपा प्रभु कीनीं, जमुना तट बैठायौ ।
करत कदम बोसी रहमत कर आपनौ धाम दिखाऔ,
दीन इलाही मरम बतायौ खुदावंद रहमानी ।
जर्रे-जर्रे बीच समाया खिदमत कर इन्सानी ।
मत भटकै मिट्टी के पुतले अंदर खुदा समाया ।
बंसींवाला चोर मांखन का इस जमीन में छाया ।
ये सूरज की बेटी यमुना हर दिल को नित धोती ।।
बंद चश्म के नैंन खोलती मन में पोती मोती ।।
तेरा अल्ला मेरा कन्हैयां जुदा-जुदा मति जानैं ।
इक सिक्के के दो पहलू हैं सच्चा जीव पहिचानैं ।।
हरदम जाम पिया कर मस्ती चश्म सरूर बसाले ।
ब्रज का देव निराला आला आलम इश्क समा ले ।।
देख सामने उसकी मथुरा लाख जनम नहीं देखी ।
आज देखले चाह दीवाने उसकी महर विसेखी ।।
बानी रूकी बचन नहीं आवै शाह हुआ दीवाना ।
बार-बार रज सीस चढावै हजरत मद मस्ताना ।।
सिजदाकरत शाह भू लोटत दिल की चाह गई ।
नई जिंदगी नई रोसनी पाई राह नई ।।
दिल्लीपति पैकरी कृपा प्रभू उद्धवजू दीन दयाल ।
कह भवंत धाम प्रगटायौ कीनौं नेह निहाल ।।

अथ मधुपुरी दर्शन कंचन मयी मधुपुरी देखी ।
शाहंशाह शाह की उतरी शाहंशाही शेखी ।।
कंचन घाट मनिन के बुरजा कोटिन भानु प्रकाशी ।
रत्न अमोल सिला तहाँ जग मग चखन चौंध चपलासी ।।
मनि के मंच खंभ पुर द्वारे ऊँचे कंचन कलसा ।
हीरा लाल नील मनि पन्ना महाजोति झलमलसा ।
सूर्य कांत ससिकांता विद्युतकाँति महा दुति धामा ।
कौस्तुम पझराग स्यामांतक अति अद्मुद अभिरामा ।।
अल्ला अल्ला एसी मथुरा आँखैं मूंदै खोलैं ।
कहैं 'भगवंत' शाहंशाह अकबर म्हौंते कछून बोलैं ।।
 बारंबार गिरै चरनन में उठै गिरै फिर चूमैं ।
सिजदा करै बंदमी वजावै मतवारौ सौ घूमैं ।
यह भगवंत अगोचर महिमां श्री उद्धव प्रभु प्यारे ।
श्री यमुना पद रेनु एक कन दुरलभ भाग निहारे ।।

शाहंशाह विदाई

चरन रज धारत सिनदा कीन्हौं ।
मन मतंग सो भौ मत वारौ, प्राण महारस भीनौं ।।
सहस कलस मुहरन के राखे, दोसौ रतनन कलसा ।।
फिर भी मन में धीर न मानी, मन चाहा नहीं हुलसा
मुझे दुआ दो मेर मालिक रहूँहजूरी बंदा ।
कहै 'भगवंत कृपा उद्धवजूकी, मानत सदां आनंदा ।।

श्री आचार्य देव ने यह समस्त प्राप्त द्रव्य सरस्वती संगम से सप्त ऋषि वुधतीर्थ तक श्री महारानी जी के घाटों को मोटी शिलाओं से मंडित करने और तीर्थों के उनके बीच में बुर्ज छत्री आदि बनाने में लगा दिया और फिर जो कुछ बचा वह माथुर बन्धुओं को सप्रेम बितरित कर दिया । संवत 1624 कार्तिक शुक्ल 11 को जब देव जागरन हो रहा था आपको माता जी के मिलन की उत्कंठा हुई-एकात्म भाव से मातेश्वरी से पुकार की और सभी जल धार में से 6 रत्न सिहासंन प्रगट हुआ और श्री जगज्जनिनी ने आपको अपनी गोद में लेकर अंग लीन कर लिया

श्री उजागर देव

श्री उजागर देव श्री उद्धवजी से 2 वर्ष छोटे थे । आप का जन्म 1534 वि0 चैत्र कृष्ण 1 तथा लीला प्रवेश 1611 वि0 आषाण शुक्ल पूर्णिमा को हुआ ये दक्ष गोत्रिय ककोर शाखा में श्री दौंनूरामजी के पुत्र श्री माधौजी के पुत्र थे माता का नाम गंगा देवी था । ये विद्वान सभाचतुर नीतिज्ञ और राजवैभव शाली महापुरूष थे । जहाँ श्री उद्धवजी तप त्याग विद्या और विरक्ति की मूर्ति थे, वहीं ये युक्ति कुशल पर्यटन्प्रिय सम्मानप्रयाशी और राज सभाओं में समय की बात कहने वाले तेजस्वी पुरूष थे । श्री उद्धवजी के कथा सत्संग में जो राजा राजपुरूष आते थे ये उन सब से सम्मान पूर्वक परिचय करके उन्हैं अपना यजमान बनाने को तत्पर रहते थे । इस प्रकार इन्होंने 52 राजाओं को अपने यजमान बनाये । आचार्यो पर भी आप प्रभाव डालते थे- श्रीवल्लभाचार्य के पौत्र श्री यदुनाथ श्री महाराज ने अपने बल्लभ दिग्विजय ग्रन्थ लिखा है-

उज्जागराधिनं वेदनिधानं हरे प्राणम् ।
चक्रु परोधसं तं माधुर विप्रं प्रवोध्यैव ।।

श्री उजागर चंदजी के पुत्र गिरधर चंद उनके पुत्र जयचंद के पुत्र हरिश्चंद के पुत्र विजयचंद और गौविन्द चंन्द्र थे इनके श्री गोकुल चंद शोभाचंद थे । श्री गोविन्द चंद ने राजा वीरसिंह देव का सुवर्ण दान त्याग किया तथा श्री गोकुल चंद शोभा राम को भूमि ग्राम दान के फमनि शाहजहाँ काल के हैं जो परिशिष्ट सकलन में संकलित हैं । श्री उजागरदेवजी को जैपुर नरेश राजा भगवान दास ने एक विशाल दुर्ग कोटि का राजभवन (बाढ) बनाकर भैंट किया जिसमें इनकी घुड़सवार टुकड़ी कचहरी महकमा इन्तजाम आदि थे । इस महकमे के कर्मचारी आनेवाले राजाओं आचार्यों राजपुरूषों के आवास तीर्थ भ्रमण सत्कार आदि की व्यवस्था करते थे । श्री उजागर जी श्री उद्धवजी के साथ सुन्हैंरे ताम झाम पर बैठकर निकलते तब उनके आगे पीछे घुड़सवार सिपाही चलते थे । सेवकों की टोली भी साथ रहती थी । उनके भ्रातृत्व स्नेह के कारण ही उनके नाम एक में संयुक्त कर 'उद्दूउजागर' बड़े चौबे, सर्दार सुन्हैरा हार कहेजाते थे । बड़े चौबेजी की प्रशस्ति इन्हैं बड़े राजसी ठाटवाट के कारण मिली थी । इनकी हवेली वाड़े का एक बुर्ज छत्ताबाजार के किनारे लाल पत्थर का कला पूर्ण अपने पिछले वैभव और शाजीनता की कहानी आज भी सुनाता है । यह परिवार श्री स्वामी हरिदासजी का भक्त होने से इनके भवन में श्री कुंज बिहारी जी की सेवा विराजमान है । इस परिवार में अभी भी राजा महाराजाओं आचार्यों ठाकुरों राजपूतों ठिकानेदारों के लेख तथा शाही सनदैं पर्याप्त मात्रा में हैं ।

अकबर के पश्चात

अकबर के समय ही 1628 वि0 में संतशिरोमणि गो0 तुलसीदासजी मथुरा आये यहाँ उनके भाई नंददास सूरदास की सेवा में थे । वे सूरदासजी से मिले मथुरा में रामजी द्वारा में अष्टभुजी गोपालजी के विग्रह से प्रगट रामजी के दर्शन किये- कहा कहौं छवि आजकी भले बने हौ नाथ, तुलसी मस्तक नवत है धनुष वान लेउ हाथ ।। कित मुरली कित चंद्रिका कित गुपियन को साथ अपने जनके कारनै कृष्ण भये रघुनाथ ।। तथा फिर कहा- तुलसी मथुरा राम है अंत आदि भजि लेउ । जामुख अंतन आदि है वा मुख मध्यहि देउ ।। वृन्दावन बैकुँठकौ। तोल्यौं तुलसी दास भारौ। हो सो भू रह्मौं हलको गयो अकास ।। कृष्ण कृष्ण सब रटत हैं आक ढ़ाक अरू खैर । तुलसी या ब्रजभूमि में कहा राम सौ बैर ।। उन्होंने यहाँ के प्रभाव से रसार्द्र होकर कृष्ण पदावली की भी रचना की । एक दोहा में कहा गया है जब गोस्वामी जी विश्रान्त तीर्थ पर आये स्नान किया तो चौबे गुरूओं ने उनसे कुछ दान देने को कहा- उनके पास और कुछ नहीं था, जल का कमंडल था, उन्होंने उसे ही दान करके दे दिया-

तुलसी मथुरा आइकैं, किय यमुना असनान ।
माथुर के पद परसि कैं, दियेउ कमंडलु दान ।।

अकबर के बाद जहाँगीर का समय 1663-1684 वि0 हैं । इस समय श्री पद्मनाभ दास पयहारी मथुरा के अपने गल्ता मन्दिर वेणी माधव प्रयाग घाट में विराजते थे । यही उनके शिष्य नाभा दासजी ने 1660 वि0 में भक्तमाल की रचना आंरभ की । इसी समय उदैपुर के महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह राणाकर्ण सिंह जहाँगीर दरबार में आकर सम्मिलित हुए । इस समय महावन का विशाल सूट्टठ दुर्ग जिसमें कलापूर्ण मंडप चौरासीं खंभा में श्री बल्देव जी विराजते थे राणा सकीट शक्तिसिंह के अधिकार में था । और नागवंशी नागाओं की एक बड़ी लडा़कू सेना उसकी रक्षा करती थी । इसके समय का माथुर चौबे को भूमि दान का फामनि परिशिष्ट संकलन में हैं ।

शाह जहाँ का समय 1684-1715 वि0 तक है । शाहजहां उदार भावुक कला प्रेमी और धर्मान्धताहीन सम्राट था । इसके समय मथुरा के माथुरों को अनेक भूमिदान मिले जिनके फर्मान परिशिष्ट संकलन में है। । इसके ही कारण में मथुरा वृन्दावन में अनेक कला पूर्ण मंदिर बने । इनमें- 1650 वि0 का जयपुर के राजा मानसिह का गोविदंपुर मंदिर । 1628 का बीरसिंह बुंदेले का केशव मंदिर, सनातन गोस्वामी का मदनमोहन मंदिर, 1646 वि0 का रायसेन कछवाह का गोपीनाथ मंदिर, 1683 वि0 का सुनदरदास कायस्थ का राधाबल्लभ मंदिर, 1684 वि0 का नूनकरण का जुगलकिशोर मंदिर, 1647 वि0 का राजाभगवानदास का गोवर्धन का हरदेवजी मंदिर , 1567 वि0 में आरंभ अंवाला के पूरनमल खत्री का श्रीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं । महत्व की बात यह है कि जहाँ औरंगजेब ने केशवदेव हरदेव गोविन्देव बल्देव श्रीनाथजी के मंदिर विनष्ट किये वहीं अन्य शाहजहाँ अपने पिता कालीन अन्य मंदिर सहीसलामत बच गये । शाहजहाँ ने आगरा में ताजमहल की विश्वविख्यात कृति भी निर्माण करायी । इसके दरबार में मथुरा से महाकवि बिहारीलाल पहुंचे और 1691 वि0 में मथुरा के महोली पौर निवासी पांडे मनोहर कवि ने अपने काव्य ग्रंथ की रचना की जो बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी में है । इसका शाहजादा दारा मथुरा और माथुरों का श्रद्धावान भक्त था ।

ब्रज का अनुभव

1687 वि0 में शाहजहाँ को श्री स्वामी हरिदास के साथ अपने पिता अकबर का चित्र देखकर श्री ब्रजेश्वरी राधारानी के प्रत्यक्ष दर्शन की लालसा हुई । वह मथुरा आया और महात्मा पृथ्वीराज मिहारी के पुत्र श्री भूपतिराय की सेवा में अपना मनोर्थ निवेदन किया वे उसे उस समय के श्री हरिदास स्वामी जी की गद्दी के महंत श्री नरसिंहदास बाबा की सेवा में ले गये । मिन्नतआरजू के बाद स्वामीजी उसे बरसाने ऊँचा गाँव ले गये और वहाँ एक पुरानी विशाल हवेली के द्वार पर पहुंचकर श्री स्वामीजी ने टेर लगायी- 'ललिता तोइ हेरत शाहजहाँ' टैर देने पर भीरा से उत्तर मिला- 'ऊधौ तुम आये श्याम कहाँ !' स्वामी जी ने कहा-'दरसन तो दैरी गोपलजी' उत्तर मिला- 'कहा देखै सूनी कुंजगली श्रीस्वामी जी ने पुन: कई हेला दिये- 'दरसन तौ दै हो गोपलली' तब भीतर के किवाड़ की ओर से श्री ललितादेवी ने झांककर देखा और घूंघट का पट जरा सा सरकाते ही रूपमाधुरी से चकचौधा होकर बादशाह मूर्छित होकर गिर गया । यह देख एक सखी ने श्री ललिताजी का चरणोदक लाकर उस पर छिड़का जिससे वह किसी तरह चैतन्य हुआ । उस समय उसकी दशा अति अदभुत और विह्वल थी । बड़ी कठिन से श्री भूपतिजी उसे मथुरा लाये और फिर आगरे भेज दिया । इस उपलक्ष में उसने भूपतिदेव को आगरे बुलाकर उनका यथायोग्य सम्मान कर भूमि दान का एक शाही फर्मान अर्पण किया जो परिशिष्ट से फर्मान 3 पर है । इस घटना का कविवर नवनीत जी ने अपने 'हरिदास वंशानु चरित्र' ग्रंथ में उल्लेख किया है ।

औरंगजेव काल

औरंगजेव का समय 1715-1764 वि0 है । यह समय माथुर इतिहास के लिये बहुत घटनापूर्ण है । औरंगजेव कट्टर धर्मोन्मादी क्रूर और विध्वंसक था, किन्तु माथुर उससे भी ज्यादा चतुर थे । उन्होंने पिछले नृशंस कार्यो को देखते हुए अपनी नीति और जीवन चर्या बदल डाली । उन्होंने धन संग्रह का परित्याग कर दिया जो पैसा आता उसे घी दूध बदाम खीरखांड में खर्च करके वे बल संचय के साथ पहलवानी की वृद्धि करने लगे-हर घर में प्रत्येक युवा पहलवान होने लगा । उनके लिये अब विद्या के नाम पर काला अक्षर भैंस बराबर था । सरदारों के हस्ताक्षर एक ही व्यक्ति' बरहुकम सरदार के ' लिखकर कर देता तथा सर्व साधारण दस्खत की जगह निसानी चीरा या गोला भी बना देते । बड़े बूढ़े कहते- 'ओनामासी धम, बाप पढ़े ना हम्' 'पढ पढ कैं पत्थर भये, गुण गुन कैं भई ईंट- रटरट कैं गारौ भयौ रही भीत की भीत' वे मुसलमानों को भी घाटों बनों और जमुना की सैर कराते और कहते- 'सेख सैयद मुगल पठान- चारौ चौबेन के जिजमान' हजुरे आला हम नवीसाब के मलंग है हमें कुछ खैरात जरूर दो' । अब चौबों के घरों में वैभव का संचय न था- बड़े बड़े सरदार और माथुरी देवियाँ पूरी गूजरनी जाटनी बन गयीं थीं । वे लैहंगा अंगिया लूगड़ी फरिया, तथा चाँदी गिलट के दो एक आभूषण पहिनतीं, तथा सरदार पंच लोग भी पागड़ी कमरी बंडी पहिनते थे । सर्व साधारण सारे देह पर रज(मृतिका) लपेटे चीमटी लगाये फिरते थे । लोटा सोटा लंगोटा अंगौछा चौबेजी के चार सिंगार । ये ही उनका मात्र धन था । अब लूट और बर्बादी के लिये कोई मौका उन्होंने रक्खा ही न था ।

औरंगजेब की नीति राष्ट्र निर्माण के लिये घातक थी । उसका विश्वास था- हिन्दू जब अपने को अपमानित दलित ही और असुरक्षित अनुभव करेगा तभी इसलाम धर्म कबूल करेगा । देवालयों मूर्तियों धर्मस्थानों का ध्वंस, हिन्दू पाठशालाओं का सर्वनाश, धार्मिक रीति रिवाजों का प्रतिवंध, जजियाकर, भेदभाव पर आधारित राजकर और व्यापार, हिन्दूओं को राजकीय पदों से वंचित करना, उनकी जीविका के साधनों का समूल उन्मूलन, उसकी राजनीति के प्रतिदिन के आचरण थे । इससे एक बड़ी खाई पैदा हुई जिसमें औरंगजेबी साम्राज्य समा गया ।

इस संकट में चौबे लोग किनारा पकड़ गये, हवा के रूख के साथ काल धर्म को पकड़कर घूम गये । ब्रह्मज्ञान उर्फ आलम चौबे ने अब्दुलनवी से कुरान की कुछ आयतें हदीस सीखकर बादशाह से मुलाकात की और यह कह कर कि हम बुतों को नहीं पूजते, हमारा खूदा अल्लाह की न्यामत दिरयाये जमन हैं बादशाह को- खुदा की खुदाई यमुना की जलधारा दिखलाई और कुरान की आयतें पढ़तें हुए अपने को इस्लामाबाद का हाफिज बतलाया इस पर खुश होकर औरंगजेब ने उस चौबे विरहमन मलिंग को 12 वीघा जमीन वख्शीश में दी । यह फर्मान जो बादशाह के बड़े वजीर शाइश्त खाँ के दस्तखत और मुहरों से युक्त था अब लापता है । एक एतिहासिक सूचना के अनुसार चौबे कृष्णवन चंद्रमन मिहारी औरंगजेब के शिक्षा गुरू थे और बादशाह उनसे ब्रजभाषा काव्य पढ़ा तथा चाड़क्य नीति के चुंनिदा प्रसंग सुनता था । उन्हें भी बड़ी जागीर दी थी ।
इस समय मथुरा नगर का हाकिम अब्दुलनवी था । यह चौबों की इज्जत करता था और बादशाह के काम बनाता था । उसने चौक बाजार में पुराने गोविन्द देव मंदिर के खंडहर पर नवी की मसजिद खड़ी की और आस पास हम्माम और नानबाई की मांस की दुकानें लगवाई- हिन्दूओं को सन्तुष्ट करने को एक दुकान में गीता विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ की ब्राह्मण द्वारा व्यवस्था रक्खीं ।

इसके समय में ही मथुरा के जमनादास धोवी के पुत्र अजीजबेग का पोता करोमबेग धोवियों का सरगना था । अजीजवेग की माँ अकबर की धायों में जगह पागयी थी, अत: अजीना अकबर का धायजात भाई था । उसने नगला भूतिया के सभी धोवी मुसलमान बनवा दिये तथा करीमां ने इस बस्ती में नवी की सहायता से एक बहुत बड़ी मसजिद बनाने का मंसूबा किया । यह एतिहासिक बात है कि अनेक मंदिर तोड़े जाने पर भी चौबे भाइयों ने चौबिया पाड़े (चतुर्वेद पुर) में कोई मसजिद नहीं बनने दी, न कोई मुसलमान या ईसाई परिवार यहाँ बसने दिया । इस समय फौंदा भौंदा गल्लू गुमान और गोले पाँच चौबों ने इस मसजिद को न बनने देने का प्रण उठाया । वे पांचौवीर मसजिद निर्माण को जो भी चूना ईट पत्थर आते थे उन्हें रातोंरात लापता कर देते थे । चार मांस तक यह क्रम चलता रहा, आखिर हारकर मसजिद का इरादा मुल्तबी करना पड़ा । इस बड़ी साजिश में गुमान और गोले दो चौबे पंकड़े गये जिन्हें आगरा लेजाकर कोतवाली के सामनेकत्ल किया गया, इससे उत्तेजित होकर 500 चतुर्वेद युवकों ने अपना बलिदान देकर मसजिद नहीं बनने देने की प्रतिज्ञा की । यह जान कर नवी डरगया और यह कार्य हमेशा को रोक दिया, तब खिसियाकर धोवी चौधरी ने बस्ती की चौपाल की तिवारी में मसजिद का नाम करण किया । इन पंच वीरों के कारण ही इस मुहल्ले का पंचवीर कहा जाने लगा जो धोवियों का पंचपीर हो गया ।

इस समय के मथुरा के संत परनामी संप्रदाय के संस्थापक महात्मा प्राणनाथ स्वमी जिनकी बगीची सदर बाजार के समीप है उन्होंने अपने 'कयामत नामा' ग्रंथ के आधार पर चौबों के साहस से प्रेरित हो औरंगजेब से धार्मिक संवाद किया जिसमें औरंगजेब नत मस्तक हुआ । इसी युग में दिल्ली नगर में 'यमुना ही सांचा देव है और सब कुछ नहीं' का बाजार बाजार गली गली घोष करने वाले दो माथुर बन्धुओं हन्ना मन्ना को औरंगजेब ने पकड़वा कर दिल्ली की जामा जसजिद की सीढ़ियों को खुदवा कर उसमें जीवित गढ़वा दिया- उस समय भी ये निर्भय साहसी बलिदानी वीर सगर्व अचल होकर गायत्री मंत्र का जाप करते रहे ।

इतने अत्याचारों के बाद भी औरंगजेब मथुरा में किसी ब्राह्मण ठाकुर बनियाँ जाट गूजर अहीर माली कुम्हार भंगी चमार तक को मुसलमान न बना सका । उसके सारे प्रयास से केवल कुंजड़े, धुनियाँ, धोबी, तेली, रंगरेज लुहार भाँड़ नक्कारची बावर्ची कसाई हकीम नाई घोसो मदारी साईस सिकलीगर मनिहार बिसायती ही उसके चंगुल में आये । औरंगजेब के मुगल तुर्क सिपाहियों से जूझने वाले अनेक माथुर वीरों के थान आले और खिड़कियों के रूप में पच्चीसियों भूमियाँ बाबा चौबिया पारे में जगह जगह हैं । बीर गोले सिंह के विषय में तो यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- 'गोले सिंह गुलाम बखत पै आवैं काम' । अब्दुलनवी की मृत्यु एक विद्रोही बलवे में हुई उसके बाद उसका भाई हुसेन खाँ 1727 वि0 में मथुरा का हाकिम बना । वह भी धर्मान्ध और अत्याचारी था । इसकी हवेली जो पहिले कुषाणराजा कनिष्क का महल थी अब खरद्दी हुसैन का बाढ़ा के नाम से ज्ञात हैं । नवी की हवेली भी काजी पाड़े की एक गली के नाके पर टूटी फूटी दशा में हैं ।

मंदिरों का ध्वंस

औरंगजेब द्वारा किन मंदिरों का विनाश हुआ इसकी सही एतिहासिक जानकारी उसके राज्यारोहण के दो वर्ष पूर्व ही 1713 वि0 में मथुरा की तीर्थयात्रा को आये एक वीकानेरी सेठ के यात्रा विवरण से मिलती है । यह यात्रा विवरण बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में है, जिसका विवरण सेठ गोंविद दास जी की ब्रज और ब्रज यात्रा पुस्तक में हैं । औरंगजेब को मथुरा से धन नहीं मिला प्राचीन विशाल मंदिर गजनवी खिलजी लोदियों द्वारा तोड़े और लूटे जा चुके थे, केवल केशव मंदिर ही बुंदेला का वैभव युक्त था, शेष बचे मंदिरों के नाम इस प्रकार हैं-

1- भूतेश्वर महादेव (अदभुद देहरौ),

2-भवानी शंकर महादेव (भैंस बहोरा शिव अदभुद),

3- गोकर्ण (दिव्य मूर्ति बड़ा मंदिर),

4- कालिंजर महादेव तथा दुर्गा (कृष्णगंगा इंछा पूरनार),

5- और भी सात महादेव तथा 5 देवीयाँ

6-विसरांत घाट,

7- रूघनाथजी (रामजीद्वारा दो मंदिर शिखरवंध),

8-अदभुद ठाकुर (बाटीवारी कुंज एक प्रान दो देह),

9- नरसिंहजी (मूरत अदभुद मानिक चौक में),

10-ठाकुर देवकी बसुदेव (प्राचीन कृष्ण जन्म स्थान का काला महल विश्रांत पांच ठाकुर),

11-सांवलियाजी (मुरारी भगवान मोर कौ बाग असिकुंडा),

12- देवी महाविद्या विद्येसुरी(पुरानी महाविद्या घाटी ककोरन पर बड़ी महिमा वाली),

13- गोपीनाथ मंदिर (अक्रूर घाट) । वृन्दावन में इतने ठाकुर उस समय थे जो पीछे पलायन कर गये- मदनमोहन जी, राधाबल्लभजी, गोपीनाथ, राधामाधव, राधारमण, राधाकृष्ण, राधामोहन, गोविन्देव, बाँकेबिहारी, जुगलकिशोर, व्यासजी के ठाकुर, नरसिंहजी, रसिकरसीली, औरंगजेब ने इनमें से शिखरबंध या बहुविख्यात मंदिर ही तोड़े । ठाकुर मूर्तियों की भागदौड़ में गोवर्धन के हरिदेवजी की ठकुरानी की मूर्ति मथुरा में छोड़ दी गई जो मथुरा के चौबेजी जंगीघाट्या के वंशज नाथजी हीरालाल के अधिकार में प्रयाग घाट की एक छोटी सी बुर्जी में विराजमान थी । यह मूर्ति 3 फुट ऊँची तथा लगभग 211 मन बजन की अष्टधातु की थी जिसकी धातु कभी चमक हीन नहीं होती थी मूर्ति चोरों ने सोने के लोभ से इसे हरण करली ।

इससे उस काल की मूर्तियों की बहुमूल्यता का अनुमान लगाया जा सकता है । बीकानेरी माहेश्वरी सेठ नरसिंहजी हरचंद के उस समय तीर्थ पुरोहित गोपालजी कुंजबिहारी के पुत्र श्री द्वारिकानाथजी बिहारी(कचरेजी द्वारेजी) थे ये यात्रा लेख में उल्लिखित है । गोपालजी महाराज ने 42 वर्ष एक साथ राजस्थान का भ्रमण कर मथुरा की अपनी तीर्थ प्रोहिताई का विस्तार किया था । ये द्वारिकानाथ जी वे ही महापुरूष हैं जिन्होंने ग्वालियर की सिधिया सरकार के दानाध्यक्ष पद को ग्रहणकर गोकुलदास पारिख को राज्य का प्रधान कोषाध्यक्ष बनवाया तथा ठाकुर श्री द्वारिकाधीश को मथुरा लाकर मथुरा में उनका सर्व प्रमुख देवालय निर्माण कराया ।