चतुर्वेदी इतिहास 17

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

भदाबर खंड

भदावन प्राचीन यादव राज्य (डबरा) की बृष्णि शाखा में बसुदsव वंश का प्रमुख क्षेत्र है । पौराणिंक विवंरण के अनुसार यहाँ चंद्रवंशी ययाति पुत्र पुरू के बंशधरों में महाराजा रंतिदेव का 4540 वि0 पू0 में राज्य यमुना चर्मण्वती के तटों पर था । राजा रंतिदेव की पुरी रापुरी का तब नाम दसपुर दस्युपुर या त्रास दस्युपुर श्यौपुर था मांधाता त्रसदस्यु ने दस्युओं को दस्यु कर्म से विरत करने को कठोर त्रास दिए थे । महाराज रंतिदेव पहिले महामेध यज्ञों के कर्ता होने के कारण इनके यज्ञों में हज़ारौं पशु देवबलि में अर्पित होते थे जिन के चर्म नदी में डालने के कारण नदी का नाम चर्मण्वती हुआ तथा अस्थियाँ भूविवरों वर्षा खातों में डालने वे भर्का प्रसिद्ध थे । एक दिन राजा ने एक गौ के नेत्रों से अश्रुधारा बहते देखी और उसके हृदय में करूणा का स्त्रोत उमड़ने से उसने यज्ञ प्रथा बंद करदी और दान दया अतिथि सेवा के रूप में धर्म का व्रत लिया, तब उपकी 200 पाक शालाओं में भोजन बनाने वाले 2000 पाक शास्त्री काम करते थे तथा प्राय: समस्त प्रजा जन घरों में भोजन न बनाकर राज्य भोजनालयों के मान्य अतिथि होते थे । इस महासत्र से इन्द्र कुपित हुआ अवर्षण अकाल पड़ा और राजा स्वयं मुट्ठीभर अत्र और एक कमंडलु जल को बन बन भटकने लगा परिक्षा हेतु जब राजा 48 दिन की क्षुधा के बाद बन में से बीनकर घास के दाने लाया रोटी बनायी और एक कमंडल जल खोज कर सपिरवार ग्राम लेते बैंठा कि द्वार पर चांडाल अतिथि ने शब्द किया और राजा के सत्कार रूप में सारा अत्र और पानी उदस्थ कर लिया- यह दृढब्रत देख भगवान प्रगट हुए और राजा को महादानीयों में श्रेष्ठ पद दिया । इससे द्रवित हो राजा ने अपना सारा राज्य और सम्पत्ति ब्राम्ह्मणों को दान में देदी और आप सपरिवार हरिघाम को गया वह माथुर गुरु बशिष्ठ की सेवा कर आंगिरस कुत्स कुल में आत्म समर्पित हुआ । 3082 वि0 पू0 में इस क्षेत्र में इक्ष्वाकु सूर्य वंश के महाराव मांधाता के पुत्र अंवरीष मथुरा वासी के भाई राजा मुचुकुंद नरेश का राज्य था जो देवासुर संग्राम में देवों की विजय करा कर अखंड निद्रा हेतु अपनी स्थापित पुरिका नगरी पुरा और उसके समीपन के भूकंदरा स्थान (कन्हैया) में शयन कर रहा था ।

इसी समय पर जरासन्ध के कालयवन के साथ 17 वीं चढ़ाई की तब श्री कृष्ण बलराम अपने इस यादव क्षेत्र में अपने भाई बन्धुओं में छिप गये । काल यवन ने कन्दरा में सोते मुचकुन्द को श्री कृष्ण समझा और पादप्रहार करते ही वह उसकी नेत्र ज्वाला से भस्म हो गया । मुचकुन्छ का राज्य भी चर्मवती तट के दुर्गम भूविवरों के क्षेत्र में था । महत कांतार (हतकांतबन) विंध्याटवी (अटेर) तथा विंध्यकानन(भिंड) इसके एतिहासिक साक्षी हैं । भदावर नामकरण- इस क्षेत्र का भद्रावर्त या भदावर नाम श्री कृष्ण के भाई बलभद्र बहिन सुभद्र तथा उनकी माता रोहिणी के परिवार विस्तार के कारण हुआ । देवकी का परिवार मथुरा क्षेत्र में तथा रोहिणी का परिवार भद्रक्षेत्र में श्री वसुदेवजी द्वारा बसाया गया । उनकी 14 पत्नियों हैं 7 देव मीढ पुत्र देवक राजा की पुत्नी थीं, रोहिणी राजस्थान के रोहिंडी नरेश की पुत्री थीं । रोहिणी पुत्रों में बलभद्र भद्रगुप्त भद्रविद्, भद्ररथ, भद्रकल्य, भद्राश्व, भद्र, भद्रबाहु आदि 12 महापराक्रमी यादव वीर थे । अर्जुन पत्नि सुभद्रा इनकी बहिन थी । पांडव यज्ञ काल में भदौरिया यादवों का भद्रावर्त राज्य एक समृद्ध गणराज्य था । यहाँ के क्षत्रिय विपुल साधन सम्पत्र राजकुमार बहुत सा रत्न धन सुवर्ण लेकर युधिष्ठर यज्ञ में उपस्थित हुआ और उसे यज्ञ की भेंट किया । अथर्वद के गोपाल तापिनी उपनिषद में गोपाल के प्रिय दो बनों में भद्रवन का कथन है जो यमुना के तट पर था । द्वेबने स्त: कृष्णवनं भद्रवनं- पुण्यानि पुष्य तमानि तेष्वेव देवा स्तिष्ठन्ति सिद्धा: सिद्धिं प्राप्ता: ।।33।। । वेदों के अनुसार- 'भदंकर्णेभि श्रृणुयाम देवा:' देवों की वाणी भद्रश्रव भदावर की बोली थी । वेद व्यास के मत से त्रेता में 7000 वि0पू0 में यहाँ माथुरों की पुरातन तप स्थली श्रीमथुरा (सीरमथुरा धौलपुर करौली के मध्य) थी जहाँ माथुर नाम धारी ऋषि बहुत पूर्व से तप करते आ रहे थे-

ऋषिर्माथुरनामात्र तप: कुर्वन्ति शाश्वते ।
अतोस्य मथुरा नामऽभवदाद्यश्रियायुतम् ।।

भदावर में माथुर चौबों के 18 गाँव हैं-

1- चद्रपुर चंद्रवंशी चंदेलों का प्राचीन पुर (चंद्रवंशी चदेले बुधबंशी बुंदेले रोहिणी बलराम बंशी रूहेले हैं)
2- कछपुरा(जैपुर के कछवाहों और उनके सेवक काछियों का पुर)
3- कमतरी (कार्मुक धनुष कमान कमंठा चलाने में विशेषज्ञ कमठानों का पुर)
4-पारनां (पारावत रावतों का केन्द्र)
5- नहटौली (नाट्य कला कुशल नाहटा नटों का गांव)
6- हतकांन्ता या महत् कान्तार (एसे महा कान्तार कांटापुर कन्तित में भी थे)
7- रीछापुर मुचुकुन्द के भाई अँवरीष का रीषा पुर)
8- नौ गाँव (भदौरीयों का बसाया नवीन ग्राम नवगाँव)
9- कचौरा (बिना पूर्ण पकाये अधकच्चे घी की मंडी जो डांग (पर्वत खंडों का) घी कहा जाता हैं
10- होली पुरा मथुरा के होलीदरवाजा होली वाली गली होलीबन (हुलवानौ) की स्मृति से प्रभावित होली सिंह चौबे का बसाया गाँव
11- पुरा कन्हैंरा राजा मुचुकुंद की पुरिकानगरी और अनका भूकंदरा (भरकाओं युक्त एकाँत शयन स्थल कन्हैंरा)
12- ताल गाँव (तालध्वज और तालफल तथा ताल पेय ताड़ी के प्रेमी बलरामजी का तालबृक्षक्षेत्र मथुरा में तालबन में उन्हौनें तालफल आस्वादन को धेनुकासुर का वध किया था)
13- पिन्हाहट (ब्रज के गोपीनाथ भगवान के उपासकों का गोपीनाथ बन और देव स्थान)
14-मई (मय दानव का कला और शिल्प केन्द्र)
15- बटेश्वर महावट वृक्ष के नीचे माता गिरजा के साथ बिराजते अमर कथा सुनाते भगवान रूद्र उपासक थे- ययाति का ययाति पुर (जतीपुरा) में प्राचीनतम रूद्रकुंड गिरिराज पर्वत पर श्री नाथजी मंदिर के समीप उमापति रूद्र का देवालय अभी है । (उमापर्ति मूर्ति तो खंडित दशा में वहीं पड़ी हुई औरंगजेब के ध्वंस कर्म की कहानी कह रही है )
16- बिचकौली विचक्र असुर जो जरासंध के मंत्री हंस डिंभक मित्र था जो राजसूर्ययज्ञ में विध्न डालने पर श्री कृष्ण द्वारा मारा गया उसकी राजधानी ।
17- तरसोखर (त्रिशोक काण्व ऋषि का आश्रम जो कृष्ण के ब्रम्हविधा धागुरु घोर काण्व का वंशधर तथा यदुवंश की भद्रशाखा का पुरोहित था) इनका ऋग्वेद का आठवाँ मंडल आधिकृत हैं ।
18-चौम्हाँ ब्रज का चौमुहाँ, जो क्षौम पट (अलसी के रेशों से बनाये वस्त्र) क्षौमाम्बर धारी देवों और संकर्षण गणों यादवों का पुरा । भदावर के प्रवासी माथुरों में भारद्वाजगोत्री पाँड़े पाठक रावत तिवारी, वशिष्ठ गोत्रियों में जौनमाने, धौम्य गोत्री घरवारी, तथा सौश्रवस गोत्री मिश्र छिरौरा- आदि प्रधान हैं । ये एक समूह में मथुरा में नहीं गये किन्तु अनेक अवसरों पर कई बार में समय संकट और सम्पर्क सुविधा के अनुसार जाते रहे हैं । इनके प्रवास के कुछ एतिहासिक सूत्र विशेष विचारणीय हैं, जो इस प्रकार हैं-

1- परातत्व के आधुनिक अन्दवेषकों को यहाँ धूसर चित्रित तथा श्याम चित्रित ओपदार भाँड़ों के ठीकरे मिले हैं जो 5-6 हज़ार वर्ष पूर्वे के हैं, तथा जो हस्तिनापुर की खुदाई में पाँडव कालीन प्राप्त हुए हैं ।
2- बटेश्वर के समीप जरासंध द्वारा ध्वंस किये गये संकुरीपुर (संकर्षणपुर) के खण्डहर मीलों तक फैले पड़े हैं ।
3- काल यवन को भस्म करने वाले राजा मुचुकुन्द की कंदरा (कन्हैरा) के भूविवर दुर्गम भरका बड़े बिस्तार में अभी भी हैं । यहाँ के भद्रावर्ती राजकुमार युधिष्ठरा के राजसूययज्ञ में बहुत-सा धन रत्न भेटें करने को लेकर गये थे । पिनाहट में यादव वंश के देवता गोपीनाथ के प्राचीन मन्दिर का स्तंभ मण्डप अभी दर्शनीय हैं । पिनाहट में ही पाली भाषा में अंकित शिला लेखों में 567 वि0 कें हूणों के अक्रमणों का उल्लेख है ।
4- यहाँ के क्षेत्रों में धारापुरी के परमाल वंशी महायशस्वी महाराज भोज के सिक्के मिले हैं जो माथुरों का परमभक्त था, इसके सभा के रत्न मालीजी चौबे ने इसके हनुमंनाटक की टीका की है तथा इसके सेनापति कूलचन्द का सुदृढ दुर्ग महमूद आक्रमण काल में महाबन में था । 1100 वि0 में कमंठाधारी भदौरिया कमतरी में आत्मरक्षा हेतु जा बसे थे । 5- तरसोखर में 1474 वि0, का चौबे भूदेव मिश्र का शिलालेख मिला है । 1460 वि0 में चन्द्रपुर में चौबों के रहने के प्रमाण मिले हैं 1455 वि0 में चंद्रपाठक के पुत्र धनेश्वर पाठक तैमूर लंग के आक्रमण की आशंका के भय से तथा फीरोज तुगलक के क्रूर शासन से त्रस्त हो चंदपुर में आकर बसे थे ।
6-1584 वि0 महाराणा सांगा और बाबर के युद्ध में भदौरिया नरेश की सेना के सेनाध्यक्ष बनकर चौबे मुकुन्ददेव और हरनाथ मिश्र लड़ने गये थे । 1557 वि0 में केशवदेव पाँड़े को ग्वालियर नरेश राजा मानसिंह तोमर ने विश्रांत घाट से ले लाकर शंकरपुर में बसाया तथा इनकी पांचवी पीढ़ी 1695 वि0 में कल्याणकर पांडे को राज्य से विशेष सम्मान के रूप में पूरा शंकरपुरा गाँव पर्वत पर विशाल महल, सरोवर, बाग, आदि प्रदान किये गये ।
7-1652 वि0 में भदौरिया राजा मुकुटमणि के सेनापति उसके भाई गजसिंह के साथ चतुर्भुज पांड़े (चत्तू पांड़े) अकबर के सेनापति राजा मानसिंह के साथ काबुल की चढाई पर गये । 1665 वि0 में भदौरिया नरेश बदनंसिंह को उपदेश देकर भदाबर में मथुरा की स्थापना के लिये यमुना की धारा को कंसकिले की तरह मोड़कर नगर संकर्षणपुर (संकुरी) को सुरक्षित करने हेतु एक सुदृढ बांध घाटों (बट छांहबासी) शिव के मंदिरों विश्रान्त तीर्थ और बाराह मंदिर का निर्माण कराया । 1681 में बीरसिंह देव के बीर बुंदेला पुत्र हरदौल की मान्यता कर उसकी पूजा और थान प्रचलित कराये । 1692 वि0 में शाहजहाँ काल में उसके क्रूर पुत्र औरंगजेब का मथुरा पर आतंक फैला देखकर मथुरा से चक्रपाणि के पुत्र शिरोमणि चौबे यहाँ कमतरी में आकर बसे यह लेख हरिद्वार के पंडा की बही में है । 1643 वि0 में पांड़े कल्याण कर को शंकर पुर का पूरा गांव तथा राज सम्मान मिला ।
8-भदौरिया महाराज बनदसिंह के राज में बटेश्वर आदि क्षेत्रों में माथुरों को सम्मान भूमिदान धन अर्पण राज सेवाओं में उच्च पद प्रदान की बात सुनकर अनेक चौबे परिवार 1700 वि0 के आस-पास भदावर के गांवों में मथुरा से जाकर बसे । 1700 वि0 में होलीसिंह पांड़े खिरिया से अपने दादा बुचईसिंह का खजाना दादी जी के बतलाने पर लेकर आये तथा अपने पिता भोगचन्द के संरक्षण में बौहरे का काम (लैंने दैंने साहूकारी) भदावर के गांवों में चलाया । 1710 वि0 में होली सिंह को महाराज बदनसिंह से भूमि मिली जहाँ इन्हौंने प्राचीन गांव की जगह अपने नाम का होलीपुरा बसाया । 1715 वि0 में यहाँ होली बाबा ने विशाल हवेली कुआँ आदि बनवाये ।

1712 वि0 में चन्दपुर में मैनपुरी से आये चौबे जगजीवनदास बिहारी जी का मन्दिर निर्माण कराया । 1738 वि0 में होलीसिंह के भाई तिलोकसिंह पुरा में भूमि पाकर बसे । 1738 वि0 में इन ही के भाई जीवनसिंह पांड़े को भदावर नरेश उदितसिंह ने पुरा कन्हैरा में बड़ा इलाका दिया तब वे वहीं बसे । 1740 वि0 में महाराज कल्याण सिंह ने चौबों को हतकांत में स्थान देकर वहाँ बसे उपद्रवी मेवौं को विजय करने का निर्देश दिया इन्हें अपने किले का दुर्गपाल तथा सेना का सेनापतित्व भी दिया । चौबों ने तब बड़ी शूरवीरता से मेवों को पराजित और ध्वस्त किया । इस उपलक्ष में 1741 वि0 में राजा ने इन्हें 18 गाँव दिये तथा चौबों के सर्दार छत्रपति राव को मेव दमन के पुरस्कार ने विशेष सम्मान और उपहार दिये । 1742 वि0 में तब हंतकांत में चौबों ने अपनी केन्द्रिय सत्ता बनाकर 18 गाँवों के मुखिया 18 मुहल्लों में बसाये जहाँ उनकी विशाल हवेलियाँ निर्माण हुई । 1745 वि0 में विक्रमाजीत और कमलाकर पांड़े 'मथुरा से औंरगजेब के राज के काजी नवीहुसैंन को उसके घर पर काजीपाड़े में मारकर तरसोखर फरौली आदि गाँवों में आकर रहे । 1794 वि0 में बाजीराव पेशवा ने दिल्ली कूच के समय अटेर का किला और बस्ती लूटी उस समय के भदौरिया महाराज हिम्मतसिंह की शक्ति क्षीण हो चुकी थी । पेशवाओं ने मथुरा की भक्ति के कारण चौबों को मैत्रीभाव और सम्मान दिया ।

इस प्रकार माथुरों का भदावर में निवास बहुत प्राचीन काल से सिद्ध होता है । वे जैसा कि लोग सोचते हैं वे केवल आक्रमणों के भय से ही पलायन नहीं कर गये अपितु इसके अनेक हेतु रहे- जैसे यादववंश और बलराजजी से विशेष स्नेह और सम्मान, ननसाल ससुराल भाई बन्धुओं का स्नेह सम्बन्ध और आग्रह, दत्तक पुत्रों के रूप में प्रतिष्ठा, राजमान, और भूमि, पदा आदि की प्राप्ति, व्यवसाय की सुविधायें, मथुरा में विध्वंस संकट, गृह कलह, आक्रमणों की मृत्युभय युक्त आशंका । इन्हीं हेतुओं को लेकर शंकरपुर करौली, चित्तौड़, जयपुर, भरतपुर, बम्बई, कलकत्ता, जलगाँव, मलयपुर आदि अनेक स्थलों में माथुर गये हैं । प्रवासी बन्धुओं में अनेक विशिष्ट और उल्लेखनीय महानुभाव हुए हैं, उन सभी का वर्णन एक अलग ग्रंन्थ की वस्तु है । यहाँ हम कुछ अतिविष्ट लोगों का समावेश ही कर सकेंगे । प्रमाणों के देखते यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये बन्धु प्रधान रूप से सिकन्दर लोदी 1545-1574 वि0 इब्राहीम लोदी 1574-1583 वि0, औरंगजेब 1715-1764, अद्वाली 1814 वि0 के उत्पीड़न कालों में मथुरा से जहाँ-तहाँ जाकर बसे हैं ।

कुछ उल्लेखनीय घटनायें और व्यक्ति

चित्तौड़ में बसावट- 1284 वि0 पृथ्वीराज चौहान काल में पृथ्थावाई के साथ भेजे गये रिषिकेशमिश्र चित्तौड़ में बाघावास स्थान में भूमि पाकर बसे इनके वंशज बहुत काल तक यहाँ रहे तथा इनके सहाये से अन्य भी पचासों लोग जाकर चित्तौड़ में थोक बन्दी के साथ रहे । इनमें 1586 वि0, बिठ्ठलदास चौबे तथा इनके पुत्र कान्हरदास संगीत नृत्य पद गायन हरिकीर्तन की पद्धतियों में विशेष पारंगत थे । इनने मीराबाई को तथा उनकी ननद ऊदावाई को नृत्य संगीत की शिक्षा दी । ये वृन्दावन के राधाबल्लभजी आचार्य हितहरिवंशजी के शिष्य थे- नित्य बिहार का गान करते थे । भक्त माल में नाभादास जी ने इन्हें माथुर चौबे तथा महाराणा का प्रोहित लिखा है । ग्रियर्सन ने लिखा है- कि इनके यहाँ एक बड़ा साधु समाज हुआ था जिसमें भक्त नाभा को 'भक्तमाल' की पदवी दी गई थी क्योंकि उन्होंने वहाँ भक्तों के सरस मनोहर चरित्रों का गान किया था ।
शंकर पुर के पांड़े-1557 वि0 में केशव पांड़े को ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह अपने साथ लेकर गये- उन्हें शंकरपुर गांव में बसाया तथा 1693 वि0 में परम विद्वान इनके वंशधर कल्याण की पांड़े ने राज प्रभाव से पूरा शंकर पुर गांव प्राप्त कर पांड़े वंश का यशस्वी कुल स्थापित किया । इनके वंशधर लालजीराम उर्फ खंगमणि 1834 वि0 में राजारामसिंह तोमर के यहाँ उनकी नयी राजधानी नरवर में दीवान रहे । इनकी पत्नी सती हुई ।

बुचईसिंह पांड़े का रण संग्राम- 1622 वि0 में बाघावास चित्तौड़ से जाकर बहुत सा धन बंजारों के टांड़े के रूप में ले जाने वाले अपने पूर्वजों के साथ खिरिया गाँव (जि0 एटा) में वहाँ के ठाकुर सर्दारों पर विजय प्राप्त कर प्रभाव जमाने वाले वीरशिरोमणि बुचईसिंह और वाहनसिंह के साथ नवाब की पठान सेना से भयानक युद्ध किया । विजनसिंह के ससुराल में उस समय उनके साले का विवाह था । बहूरानी वहाँ भेज दी तथा आप खिरिया के समीप के किसी गांव में आयी बरात में नवाब की सेना से घमासान संग्राम करके पठानों के सैकड़ों लड़ाकों को मारकाट कर खूर में सरोवर पहुंचे बरातियों के साथ मुग़लों की लोथों के बिछे क्षेत्र में भोजन किया परिहावन ली और फिर उसी क्षण खिरिया गांव लौटकर आ गये । दूसरे दिन फिर नवाब की सेना चढी उसे फिर चूर्ण किया । इस बार इनके पिता बीरपुंगव बुचई बाबा वीरगति को प्राप्त हुए तथा तीसरे दिन बहुत बड़ी नवाव की पठानी सेना से युद्ध करने ये अपनी रणबांकुरी मातु श्री बुचाकर रानी के साथ दौनौं भाई विजनसिंह बाहनसिंह रण संग्राम में उतरे और हज़ारौं म्लेच्छों का संहार कर सभी वीरगति को प्राप्त हुए । इनका यश दिगदिगंत में व्याप्त हुआ और इनके कुल कीर्ति गायक बरूने इनकी विरूदावली गान की जो इस प्रकार है- सोही राजरीति पांडत्रे होली सतानंद जू कै, सोई राजरीति जीति लीनी भुजबल कै ।

पाल सुखपाल माल मोतिन के कोट लगे, कमला निवास सो विलासदास झलकैं ।।
कहै 'अभैराम' सुनों माथुर मयंक मुनि, तेरी मौज पाऊँ सो कहत मन ललकैं ।
राव जाने राजा जाने खान सुलतान जाने, नैकहून मोल चढै़ पांड़े हलधर कैं ।।

बाही तेग विजन अरियन सिर, दपटि दररानी ।
काटी कड़ी जिरह बखतर की, मारे मुग़ल भुजा फहरानी ।।
नैं कुन डिग्यौ कहूं भारत में, काटि- काटि कल्ले कहरानी ।
चच्चर कियौ सिंह बुचई के, रूधिर मांझ पहिरी पहिरानी ।।

छंद में विजनसिंह पांड़े की अदभुद वीरता की यश गाथा है- चच्चर या चांचर (चांचल्य चपलागुणं) ब्रज का एक प्राचीन झपट्टे के साथ छियाछेरी का खेल था जो चाँदनी रात का क्रीड़ा नृत्य है जिसे सूरदासजी ने रास प्रसंग में अपने पदों में प्रयुक्त किया है । पांड़े होलीसिंह इसवंश के चौथे यशस्वी पुरूष हैं जो अपनी दादीजी की सहायता से खिरिया गाँव से बुचईसिंह का अटूट खजाना लाये और होलीपुरा गाँव 1715 वि0 में बसाया । इनने पुत्र न होने की स्थिति में पांड़े सतानन्द को गोद लिया और उसका विवाह करैटी (बेला परतागढ प्रयाग) के चौबे चिन्तामन की पुत्री के साथ किया जिसमें 1-1 लाख के कई ठिक नेग इन्हैं 'सजन सत्कार' में मिले । चिन्तामन की वह भूमि करैटी मौजा में गंगातट पर हैं- इनकी विशाल हवेली के खंडडर अभी भी वहाँ देखे जा सकते हैं । यह भूमि ग्रन्थ कर्ता के प्रतापी पूर्वज छंगालालजी कन्हैयालालजी के स्वामित्व में थी जो अब जमींदारी उन्मूलन में प्राप्त हो चिन्तामन के वंशधरों ब्रजमोहनदास जगमोहनदास के कृषि उद्योग में है, श्री छंगालालजी कन्हैयालालजी मिहारी प्रयाग में महीनों निवास करते थे – इनके इस क्षेत्र में राजासाव भदरी कालाकांकर बहती समस्तपुर दहियांवां आदि अनेक राज्य तथा प्रयाग के समस्त मालवीय परिवार जिनमें पं0 मदन मोहनजी मालवीय हैं यजमान थे । प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों की प्रयागबाल पंडा सभा ने भी इन्हैं अपनी पंचायत से सम्मानित कर मथुरा का तीर्थ पुरोहितों मान्य किया था । चौबे चिन्तामणि की यशगाथा भी बड़ी अदभुद है- कहते है।

एक समय मुग़ल बादशाह को प्रयाग से इन्होंने करहटी बुलाया खातिर की तथा नौका बिहार के समय बादशाह के प्रश्न करने पर इन्होंने अपने इष्टदेव गंगा माता को स्मर्ण कर बादशाह के आगे रत्नों का ढेर लगा दिया बादशाह बड़ा, चमत्कृत हुआ और इन्है। जागीर दी । तब इन्होंने धूमधाम से माता गंगा की पूजा कर अपनी हवेली के कोठों में भरी 2000 शक्कर भी बोरियां खोलकर गंगा में चढ़ा दीं जिससे प्रयाग तक गंगा जल मीठा अमृतांपम हो गया । इससे गंगा माता इन पर और कृपालु हुई । एक दिवस जब ये गंगा स्नान कर रहे थे इनके पैर में कुछ चुभा निकालने पर सुवर्ण की मोटी सांकल थी जिस का बहुत खींचने पर भी द्रोपदी के चीर की तरह अन्त न आया । इस सुवर्ण से इनके विशाल भवन के सारे कोठे कोठार आँगन छत भर गये तब बहुत विनय करने पर सांकल का अन्त आया- इस प्रकार चिन्तामन के धन की कोई सीमा न थी । सतानन्द के पुत्र हलधर पांड़े थे । जिनके पुत्र गंगाधर पांड़े के विवाह 1837 वि में अभैराम बरू ने उक्त विरूद पढा था ।

काजी मार पांड़े- काजी मार पांड़े मथुरा के पांड़ों की बस्ती हाथी वाली गली के निवासी थे । ये विक्रमाजीत और कमलाकर पांड़े नाम के दो भाई थे । 1745 वि0 औरंगजेब काल में इनके परिवार में पुत्र विवाह था । विवाह के गीत कन्हरी गान में स्त्रियों ने रात के समय छत के ऊपर से एक गीत गाया- 'हमारे अमुक

चन्द बोलेंरी, अमुक दारी समाधिन आ सेजरिंयां ।
तू उटकी मटकी डोलैं, दारी उनई-उनई डोलै तू सूधी बात न बोलै ।
तेरौ बालम मोधू- चल काजी कैं बोई तेरौं न्याउ निवेरै ।।

रात के सन्नाटे में गीत समीप ही बसे काजीपाड़े के काजी के कानों में पड़ा, सवेरे ही उसने सिपाही भेजे उन चौवनों को मेरे दरबार में हाजिर करो में उनका न्याय निवेरूँगा । सिपाहियों के डाटने पर स्त्रियाँ घबड़ा गयीं-रोनें लगीं तभी विक्रम पांड़े बरात से आये, सारा मामला सुनकर वे आग गुर्राया इमाम बाड़े में घुस गया, उन्होंने वहीं झपट कर काजी को दवोच लिया और तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । काजीपाड़े में कोहराम मच गया । दोनों भाई निकलकर अपने घर आये और सलाह करके स्त्री बच्चों सहित मथुरा छोड़ देने का निश्चय किया । औरंगजेब का जमाना था हुसेनखाँ(खरद्दी हुसेन) हाकिम था किन्तु औरंगजेबी नीति से मथुरा और ब्रज में विद्रोह उठ चुका था ।

पांड़े विक्रमाजीत और कमलाकर काजी नवीहुसेन का वध कर चुपचाप बड़े सवेरे घर से निकले उधर मुग़ल सिपाहियों ने घर घेर लिया किन्तु उन्हें वे दोनों चौबे वहाँ न मिले घर सूना पड़ा था । दोनों भाई यमुना पार कर राया मुरसान हाथरस की तरफ भागे पीछे से मुग़ल सेना ने भी चढाई की । राये के समीप काजी के और मुग़ल हाकिम खरद्दी हुसेन के सिपाहियों में घनघोर युद्ध हुआ जिसमें विक्रमाजी पाँड़े के विचले पुत्र रामलाल खेत रहे किन्तु इस स्थिति में भी दौनों भाई और इनके दो पुत्र उदैचंद दुर्गादास ने बड़ी वीरता और साहस से मुग़ल सेना का सफाया कर दिया । यहाँ से चलकर ये तरसोखर फरौली मैनपुरी तथा अन्य कई स्थानों में बसे कहीं ये 5 भाई थे ऐसा भी कहा गया है । तरसोखर के परमानन्द जी ने लिखा है- चतुर्वेदी समाज में सबसे ज़्यादा वंशवृद्धि मथुरा के पांडे विक्रमाजीत के वंश की हुई- लगभग 325 वर्ष में यह वंश अनेक क्षेत्रों में फैलकर ख़ूब फला-फूला है । पुरा कन्हैरा के सम्बन्ध में श्री धर्म गोपालजी ने, चन्द्रपुर के विषय में श्री द्वारिका प्रशाद चौबे ने पुस्तकें लिखी हैं, तथा मुक्ता प्रसाद स्मारक ग्रंथ में प्रचुर सामिग्री सामने आयी है । प्रवासी बन्धुओं में अनेक उल्लेखनीय विशिष्ट महानुभाव हुए हैं- यहाँ हम उनका पृथक अनुकथन न देकर समस्त माथुर समाज के विशिष्टजनों में उनका उल्लेख करेंगे ।

धार्मिक आचार्य

भारतवर्ष के सभी धर्म संप्रदायों के भक्ति ज्ञान वैराग्य मार्गों के अंकुरण का प्रधान क्षेत्र मथुरा मंडल का माधुर्य मय क्षेत्र रहा है, तथा इन सभी के आचार्यों ने माथुर मुनीश्वरों से आशीर्वाद और मार्ग दर्शनमयी प्रेरणायें लेकर नव जागरण की तेजस्विता प्राप्त की है । यहाँ संक्षेप में इसका दिग्दर्शन प्रस्तुत हैं- 509 वि0 पृ0 कुमारिल स्वामी और श्री आद्यशंकराचार्य महाराज 452 वि0 पू0 का विवरण पीछे दिया जात चुका है । 999 वि0 में ब्रजभक्ति संप्रदाय के प्रमुख आचार्य श्री निम्बार्क देव का यहाँ उद्भव हुआ । इस संप्रदाय का प्रथम स्थान मथुरा का नारदटीला (ध्रुवटीला) है । मथुरा के दीर्घ विष्णु, बाराहजी , पद्मनाभ- नज्रानन हनुमान (असकुंडा), हरदेवजी गोवर्धन, आदि पुरातन मंदिरों में इसी संप्रदाय की पद्धति से सेवा पूजा होती है- ब्रज के प्राय: प्रत्येक गाँव कुंड सरोवर बन उपबन में इनके मंदिर पुजारी साधु और महंत प्रतिष्ठित हैं । नारद टीले के मन्दिर में इनके अनेक आचार्यों की समाधियाँ हैं । निम्बार्क संप्रदाय- आचार्य श्री निवास देव 1130 वि0, देवाचार्य महाराज 1352 वि0, केशव काश्मीरी 1598 वि0, श्री भट्टजी 1635 वि0, हरिराम व्यास (युगजकिशोर मन्दिर) 1669 वि0, आदि अनेक महानुभाव मथुरा के अपने स्थान में साधना निष्ठ रहे हैं । मथुरा के वर्तमान मंदिरों में भी प्राय: सभी में निम्बार्क पद्धति की सेवा है । इस संप्रदाय की ही बहुनिष्ठामयी शाखा श्रीस्वामी हरिदासजी की गादी परंपरा है जो इस वैभव संचय के युग में सर्वोपारि विरक्त नित्य बिहार उपासना मयी रसिक संप्रदाय है । केशव काश्मीरी के साथ 14 हज़ार साधुशिष्य चलते थे इनने दिल्ली में यवन यंत्र लगाया तथा शेरशाह सूर ने अजमेर पुष्कर जाते हुए जब इनका पीछा किया तो उसे इनकी जपात के सभी साधु सिंह नजर आये और 14 हज़ार सिंहों की गर्जना और आक्रमण को देख वह कांप गया और इनसे क्षमा याचना कर सलेमाँबाद की जागीर इन्हैं भेट की । श्री भटजी ने इनमें ही विज्ञान्त तीर्थ पर मंत्र दीक्षा लीथी तथा इनने माथुर मधुपावली में माथुरों के यश गान का पद अर्पित किया है ।

रामानुज संप्रदाय- इस संप्रदाय की भारतवर्ष में 8 मुख्य पीठ हैं, इनमें से 7 दक्षिण में तथा गोवर्धन (मथुरा) में है । उत्तर भारत का सर्वप्रधान रामानुज पीठ (दिव्यदेश) श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर 'गोवर्धन पीठ' नाम से मान्यता प्राप्त है । कूरेशस्वामी ने अपने 'अतिमानुष स्तोत्र' में गोवर्धन यमुना वृन्दावन (कुसुमबन) और मथुरापुरी को परम पवित्र भगवच्चरण रज से पावनीभूत माना है-

गोवर्धनो गिरीवरो यमुनानदी सा , वृन्दावनंच मथुरा च पुरी पुराणी ।
अद्यपि हन्त सुलभा कृतिनांजनानां, मेने भवच्चरणचारू जुष: प्रदेशा: ।।

श्री मद् अनंताचार्य वैंकटनाथ स्वामी के भवमंगलाष्टक के 'गुरु परम्परा प्रभाव स्तोत्र' में श्री रामानुजस्वामी के 16 निवास तीर्थों में मथुरा को बरहवाँ पुण्यतीर्थ कहा गया है –

श्री रगं शैल करिमज्जनगिरौ शैषाद्रि सिंहाचलम् ।
श्री कूर्म पुरूषौत्तमं च बदरी नारायणो नैमिषम् ।।
श्रीमद् द्वारवती प्रयाग मथुरा ऽयोध्यागया पुष्करम् ।
शालिग्राम निवासिनो विजयते रामनुजोयं मुनि: ।।

गौवर्धन पीठ के सुरम्य वृन्दावन (कुसुमोखर) में श्रीरामानुजाचार्य स्वामी 1094 वि0 श्री नाथमुनि 1124 वि0, श्री ईश्वरमुनि 1132 वि0, यामुनमुनि 1147 वि0, कूरेश स्वामी 1157 वि., श्री रंगदेशिक स्वामी 1356 वि0, बरवर मुनि 1394 वि0, श्री निवासाचार्य 1387 वि0, गोवर्धनाचार्य 1440 वि0, आदि श्री वैष्णव आचार्य विराजते और श्री लक्ष्मीनारायण प्रभुकी सेवा अर्चना करके तप साधना करते रहे । इनके प्रभुनिष्ठाभाव से प्रभावित होकर भरतपुर नरेशों ने राजाबलवंतसिंह रंधीरसिंह छतरियों के शिल्प कौशल में इनके पुरातनजीर्ण मन्दिर को नवीन रूप में निर्माण कराया तथा भरतपुर दीघ में लक्ष्मण मन्दिर निर्माण कराये । मथुरा में श्री रामानुजस्वामी बसुमती सरोवर तट की जिस नारायण बाटिका में बिराजे थे उस स्थल पर इनके ही संप्रदाय के श्री प्राणनाथ स्वामी ने सुन्दर बाटिका युक्त रामानुज कोट श्री गतश्रम नारायण प्रभु का मन्दिर ब्रज शैली में निर्माण कराया हे जो मथुरा के प्राचीन देव स्थलों में से है इटावा में मथुरा के चौबे श्री लक्ष्मी प्रपन्ना चार्य ने बैकटेश मन्दिर बनाया है तथा प्रपन्नामृत, प्रपत्ति वैभव वेदाँतसार ग्रंथ लिखे हैं ।

रामानन्दी संप्रदाय- 1356 वि0 में अल्लाउद्दीन खिलजी के समय श्री रामानन्द स्वामी का जन्म हुआ । इस समय मथुरा और माथुरों पर घोर अत्याचार हो रहे थे, छोटी जातियाँ उत्पीड़न पूर्वक मुसलमान बनायी जा रही थी । हिन्दू समाज के शिल्पीवर्ग शूद्र भृंगी गण (भंगी) डाली निर्माता चंडमुंड बंशी चांडाल, दुंदुभी डुमडुमी बजाने वाले डोम, चर्माम्बर निर्माता चमार बलात् बेगमों के पायखाने सिर पर ढोने के काम में मृत पशु उठाने के कामों में लगाकर अछूत बनाये गये ऐसे समय में महात्मा रामानन्द ने काशी में जन्म लेकर इन उत्नीड़ित संकट ग्रस्त मानवों के उद्धार के लिये अपना संप्रदाय 'रामनाम' युक्त प्रवर्तित किया और उसमें रैदास (चमार) कवीर' (जुलाहा) सेना (नाई) करमांबाई (तेलिन), नाम देव (दर्जी), दीक्षित किये । इस संप्रदाय में दीक्षित महात्मा पयहारी जी 1586 वि0, मथुरा में प्रयाग तीर्थ पर गलताकुंज में बिराजते थे तथा गल्तेश्वर महादेव की इनके द्वारा स्थापना हुई थी । इनके शिष्य अग्रदास कवि, कील स्वामी ध्रुवदास कीलमठवासी' नाभादास भक्तमाल कर्ता, प्रिया दास टीका कार आदि यहीं रहते थे । श्री रामानन्द स्वामी ने अपने 'वैष्णव मताव्ज भास्कर' प्रश्न 8 में मथुरा में अपने आश्रम को श्री कृष्ण उपासना का स्थल कहा है-

सत्स्थाने मथुरा भिधाश्रमवरे श्री बालकृष्णं प्रभुम् ।।

इनका माथुरों पर अति स्नेह था जिसके कारण महोली पौर के निवासी चोबे मनोहरदास जो मनोहर मंजरी काव्य ग्रंथ के रचपिता थे उन्होंने इनका संप्रदाय ग्रहण किया और केशवपुरा के पास अपना मनोहपुरा बसाकर निर्गुण संप्रदाय का प्रचार किया । इनका ग्रंथ बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में सुरक्षित है । राधाबल्लभ संप्रदाय- श्री हित हरिवंश गोस्वामी 1552 वि0 ने अपने यमुनाष्टक मे यमुना पुत्र माथुरों का वर्णन इन शब्दों में किया है- 'समस्त वेद मस्तकैरगम्य वैभवै सदा, महामुनिन्द्र नारदादि ब्रह्म पुत्र संभवा:' ये समस्त वेदों को कंठाग्र मस्तक में धारण करने वाले वेद शास्त्रों विद्याओं के अगम्य वैभव से मूषित, महामुनीन्द्र नारदादि से भ्रात्टत्व प्राप्त ब्रह्मदेव के सन्मानित पुत्र हैं ?

राधारमण संप्रदाय- श्री गोपालभट्ट गोस्वामी का 1580 वि0, का यात्रा लेख तथा उनके समस्त वंशधर गोस्वामियों के ब्रज यात्रा पौरोहित्य लेख श्री रामलाल मिहारी के पास हैं ।

श्री स्वामी हरिदास संप्रदाय- इसमें मथुरा के चौबों की प्रमुखता है श्री ललित किशोरीजी के समय के अनेक आचार्य माथुर हुए हैं । श्री रसिक राय जी का महल तथा बिहारी जी का सवरूप मथुरा में माथुरों के यहाँ हैं । श्री ललित किशोरी जी पहिले हतकाँत के गंगाराम पांड़े चौबे थे जन्म 1733 वि0, 1758 वि0, से 1823 वि0, तक गादी पर रहे । 1760 वि0, में निधिबन में गोस्वामियों को बांके बिहारी विग्रह दे देने पर भी कलह बढ़ता गया तब वहाँ से यमुना तट पर पीपल के नीचे नित्य बिहार स्थल बना बिहारी जी पधराकर बांस की टटियाओं से घिरा टटिया स्थान प्रगट किया । इनके गुरुदेव श्रीरसिकदेवजी 1741-1758 वि0, का महल और बिहारीजी विग्रह मथुरा में ककोरनघाटी पर पाठक मुन्नीलाल मदनमोहन गोपालजी के यहाँ है । 71 वर्ष की आयु 1804 वि0, में दिल्ली के मुग़लबादशाह मुहम्मदशाह ने इनके दर्शन करने की प्रार्थना की । इन्होंने पूर्ण निषेध करते हुए उसे अपना चित्र देने की स्वीकृति दी तब मुग़लों का शाही चित्रकार आकर इनका चित्र बादशाह के लिये बना कर ले गया । इस स्थान पर मथुरा के चतुर्वेदी परिवारों के श्री रणछोरदास जी ब्रह्मयुर्या 1987-1990 वि0, श्री राधाचरणदासजी मिहारी 1994 वि0, से अभी विराजमान हैं जो बृन्दावन के विरक्त महात्माओं में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं । अन्य महात्माओं में श्री विठ्टल विपुलजी 1550 वि0, श्री बिहारनदास 1608 वि, सरसदास 1611 वि0, किशन गढ के नागरीदास 1756 वि0, श्री ललित मोहिनी जी 1782 वि0, सहचरि शरण 1803 वि0, आदि अनेक महापुरूष हुए हैं तथा शिष्यों में तानसेन वैजू गोपाल नायक, रामदास, दिवाकर भट्ट सोमनाथ महाकवि बिहारी आदि अनेक हुए हैं ।