चतुर्वेदी इतिहास 2

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

इतने प्रयासों के होते हुए भी हमारा इतिहास पूर्णता को प्राप्त नहीं हुआ। इन छुटपुट प्रयासों ने उसकी आधार शिलाएं रक्खी और वे सभी इतिहास भवन निमार्ण की प्रतीक्षा में भविष्य की ओर देखती रहीं। एक बार महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा जी के सभापतित्व में भी एक इतिहास समिति मथुरा में बनी थी, किन्तु उसने भी कोई आशाप्रद उद्योग नहीं किया। निराशा के क्रूर हाथ न जाने क्यों हमारा मार्ग अवरूद्ध किये रहे।

माथुर ब्राह्मणों के आदि मानप्रदाता श्री बाराहदेव

माथुर ब्राह्मण सब ब्राह्मणों से श्रेष्ठ आदि वंशज देव मूर्ति तथा पूजनीय है। यह उदघोषणा सबसे पहिले भारत के प्राचीन साहित्य में श्रीबाराह प्रभु द्वारा प्रवर्तित बाराह पुराण से प्राप्त होती हैं। महर्षि वेद व्यास की अठारह पुराणों के प्रणयन की आयोजना में श्रीबाराह पुराण का स्थान अति महत्वपूर्ण और प्राचीनतम है।

आज के युग के पाश्चात्य चकाचौंधसे "तिमिरांधवत" हुए "न्यू लाइट मैन" लोग प्रभु बाराह को शूकर मानकर उनके द्वारा प्रस्तुत इस पुराण को उपहास की वस्तु समझे हुए हैं। पाश्चात्य ही नहीं हमारे भारतीय मूल के ब्राह्मण पुत्र भी बिना समझे ही इसी मार्ग को अनुसरण करते जाते हैं। इस महाभ्रान्ति में देश के बड़े-बड़े मनीषी विद्वान आचार्य और डाक्टर, पी0एच0डी0 भी चक्कर खा रहे हैं। इस लेख द्वारा हम उन सभी भूले-भटके बन्धुओं को भ्रान्तिमुक्त कर देना चाहते हैं।

बाराह कौन थें

भारतीय पौराणिक काल गणना के अनुसार बाराह कल्प की सृष्टि के आदि प्रतिष्ठापक देवाधिदेव प्रभु श्री नील बाराह थे। नील बाराह का समय संशोधित पौराणकि काल गणना के अनुसार 13,850 विक्रम सम्वत पूर्व का हैं । बाराह, सिंह, बानर, नाग भारत की प्राचीन जातियाँ हैं जो पाद्मकल्प में भी मौजूद थीं। प्राचीन नामकरण पद्धति के अनुसार प्राचीन सृष्टि कल्पों में विधाता ब्रह्मदेव ने प्रजाओं की जातियाँ पशु-पक्षी, कीट-पतंग, पर्वत-नदियों, वृक्ष जातियों आदि के नामों पर निर्धारित की थीं। महर्षि वशिष्ठ का वचन है –

पशुपक्षि गिरिवृक्षाणां ख्पाणि गुणकर्म च ।

चरन्ति आत्मभावेन तेषां नामांकिता हि ते ।।

अर्थात् – पशु पक्षी, पर्वतों, वृक्षों के रूपों गुणों और कर्मों को जो आत्म अंगीकृत भाव से धारण करते हैं वे प्रजाजन उन्हीं पशु-पक्षी आदि के नामों से लोक में मान्य किये जाते हैं। प्राचीन जम्बू द्वीप के नाभि वर्ष में जब सर्वत्र घने वनों का प्राबाय था तब उनमें रहने वाले वनबाराहों, सिंह-व्याघ्रों, सर्पों-नागों, बानरों आदि के गुण कर्मों, स्वभावों का अनुकरण करने वाली मानव वाली मानव प्रजायें उन्हीं के नामों से नामांकित की गई थीं। वन बाराह भी एक वलिष्ठ पुष्ठ पराक्रमी श्रेष्ठ जाति थी। बाराहों की प्राय: दो जातियाँ हुआ करती हैं। 1- बन बाराह, 2- ग्रामशूकर बाराह जाति बन बाराहों के बल, शौर्य और पराक्रम की प्रतीक थी। इन्हें ग्रामशूकर मानना या कहना नितान्त भ्रमपूर्ण है। ऋ़ग्वेद के एक मन्त्र में बाराहों को वीरूध ज्ञाता अर्थात वारी लगाने वाला कहा गया है। खेती और वारी कृषि के अलग-अलग प्रकार हैं। खेत में अन्न होता है जो सूखने-पकने पर प्रयोग में आता हैं जबकि वारी में साक-सब्जी, फल आदि वस्तुयें होती हैं जो हरी रहने पर ही उपयोग में आती है पकने या सूखने पर वे अनुपयोगी हो जाती हैं।


बाराही जाति के लोग अभी भी (नाई) बारी या बरही बारैठ बरार, काछी कहे जाते है बारी अभी भी प्राय: वारी लगाने या वन्य पत्तों से पत्तल-दौना बनाकर आजीविका चलाते हैं। विवाहादि के अवसर पर इन्हें सर्वत्र मान दिया जाता है। बाराही परम्परा के लोग बाराहसैनी, बारौठ, ठकार, बरैठ, बारहट, (चारण) आदि विभागों में अभी भी अनेक इकाइयों में हैं। बाह, बारामूला, बाराबंकी, बारैठा व्रार्सी सोना बारिकशायर बरेली, रायबरेली, बर्लिन आदि प्राचीन बाराह संस्कृति के अवशेष स्थल हैं। ब्रिटेन की भाषा में वारीयर (warrior) बारिक, बार्ड, बेपन आदि शब्द संस्कृत के बाराह रूप से ही गये है। आज भी हमारे देश में बाराह मिहिर महान ज्योतिषी तथा बाराह गिरी वैंकट भू0पू0 राष्टपति महोदय क्या वन बाराह माने जा सकते हैं। बाराह लोग महाविद्वान थे। उनके रचे वैदकि सूत्र ग्रन्थ बाराह श्रौत सूत्र तथा बाराह सूत्र प्राप्त हैं। बाराह कुशल शिल्पी और भूमि समतल कर्ता भी थे। उनके शिल्प आयुध खुरप्रहार (खुर्पा) दंष्ट्रप्रहार (दरांली), पादप्रहार (फावड़ा) गर्तकरी (गैती) वसुन्धर सूलि का (वसूली) लोक प्रसिद्ध हैं। वन में उनके पशुचारन बन बरहे, खेती सींचने की नाली बरहा, भोजन पदार्थ बड़ा (पकौड़ी) कांस, बर्ही, बर्रू, बरेजा खेत करी रक्षा पंक्ति बाड़, बाढ़ा सर्वत्र प्रसिद्ध हैं।

बाराहों की इतिहास की पहिचान

भारतीय पुराण इतिहास में बाराहों के तीन अवतरण हैं । ये तीनों ही मथुरा मण्डल से सम्बन्धित और माथुर ब्राह्मणों के पूजक संरक्षक और आत्मीयजन रहे हैं। वेदों में इनकी प्रतिष्ठा सर्व प्राचीन है। बाराह मूर्तियाँ मालवा, मध्य प्रदेश, अजन्ता, एलोरा दक्षिण, काश्मीर उत्तर, नैपाल, पुष्कर आदि अनेक स्थानों पर है तथा मथुरा संग्रहालय में प्राचीन युगों की अनेक मूर्तियाँ इतिहास की साक्षी हैं।

1. नील बाराह

बाराह देव का प्रथम अवतार है। इसका विस्तृत वर्णन वायुरूप (यूरूप) यूराल पर्वत क्षेत्र के विशाल उपमहादीप के अधिपति वायुदेव ने अपने वायु पुराण के अ0 6 में किया है। नील बाराह ही यज्ञ बाराह हैं। पाद्मकल्प के रात्रि भाग में जब महाप्रलय हुई, तब भीटण सूर्य ताप से विश्व के सारे वन सूख गयें, समुद्रों का पानी जल गया तब भूमि में भयानक उथल-पुथल आयी। भयानक भूकम्प और जगह-जगह प्रलयकारी ज्वालामुखी फूट निकले जिससे पृथ्वी ऊँची-नीची महाविषम हो गई। भूस्तर के वन नीचे समा गये जो आज कोयला तेल के रूप में प्रगट हो रहे हैं। तबि जलीय वाष्प अति सघन होने से महामेघ बरसने लगे चक्रवात उठने लगे। समस्त पृथ्वी जल में निमग्न हो गयी। सृष्टि की यह बिडम्बना देख प्रजापति ब्रह्मा वायु रूप धारण कर आकाश में विचरने लगे और चिन्ता से उनका मन अति व्यग्रता में डूब गया।

इस दशा में ब्रह्म देव न जल में बिहार करने और जलीय भूमिको अपनी तीव्र दंष्ट्राओं के प्रहार से विदीर्ण कर उसे पंकरूप में कबाहर लाने वाले बाराहरूप के प्रधान देव का स्मर्ण किया। ब्रह्मा सृष्टि कर्ता की व्यग्रता अनुभव कर उसी समय प्रलय के जल में से भगवान नील बाराह का प्रादुर्भाव हुआ। उनका विशाल आकार गम्भीर मेघ गर्जना अवाधित गति को देख ब्रह्मदेव चकित रह गये। तभी महा मानव बाराह देव ने अपनी अंगभूत बाराही सेना प्रगट की और एक महासृष्टि रचना अभियान के रूप में तीक्ष्ण दंष्ट्राओं (दरातों) पाद प्रहारों (फावड़ो) और कुद्दालकों (कुदालियों) और गर्तकरी आयुधों (गैतियों) द्वारा पृथ्वी को समतल करने के लिए पर्वतों का छेदन तथा गर्तों के पूरण हेतु मृत्तिका के टीलों को जल में डालकर भूमि को बड़े श्रम के साथ समतल करने का प्रयास किया ।

इस समय देवलोक द्युलोक ब्रज मथुरा मण्डल के देवता ऋषिगणों ने ब्रज के महृलोंक (महरौली, महारानी) जन लोक (जानू जथनूर) तथा सुपार्श्व पर्वत (मथुरा), गोवर्धन पर्वत, इन्द्रगिरि कामवन, नरनारायण पर्वत (बूढ़े बद्री), विष्णु परमपद (परमदरौ), आनन्द पर्वत (घाटौ), नन्दीश पर्वत, (नन्द गांव), ब्रहत्सानु (बरसानौ), चन्द पुष्कर (चांदोखर) भानुपुष्कर (भाड़ोखर) गोविन्द पुष्कर (गैदोखर) वृन्दावन पुष्कर (बैदोखर), धवलगिरि,(धौलैड़ा) सुवर्णमेरू (सुन्हैरा) के प्रलय रक्षित क्षेत्र में जिसे प्रभु बाराह ने "अनश्वरा सा मथुरा प्रलयेकपिन संहृता:" कहकर प्रलय से रक्षा का क्षेत्र घोषित किया हैं उसी देव बनों से आच्छादित क्षेत्र में जन आश्रय देने वाला देखा।

देवों के आवाह्न और नव सृष्टि की संरचना हेतु उन्होंने तब पुण्यक्षेत्र मथुरा में बाराह तीर्थ की स्थापना कर एक अदभुत् महामहिमा मण्डित यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ का विषद वर्णन भी वायु पुराण के अ0 6 में प्राप्त है। नीलदेव नामधारी ये बाराहदेव ने अपने समस्त देह को यज्ञ रूप बनाकर अ,प यज्ञावतार रूप में यज्ञ में विराजे। यह यज्ञ वर्तमान सृष्टि का सबसे प्रथम सबसे महान और सबसे अधिक आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक तीनों गुणों वाला महान से महानतम यज्ञ था।

इस यज्ञ में उनकी पत्नी छायादेवी (छांहरी) रात्रि देवी या नयनादेवी थी। जो आदि माता के रूप ब्रज में तथा भारतवर्ष के अनेक स्थलों में पूजित है। इसी यज्ञ में नीलदेव शने यहा – ब्रह्मा, वायु, सूर्य, इन्द्र, नारायण (गोविन्द) तथा प्राचीन ऋषि-महार्षियों को महलोंक से नीचे उतारा, उन्हें वेद और तप तथा यज्ञ की विलुप्त हुई बिद्यायें दीं। वे सभी ऋषिगण मथुरा मण्डल के प्राचीन निवासी आदि वंशज माथुरदेव ही थे। इन्हें बाराहदेव ने अपने यज्ञ में उद्गाता होता, उपाकर्मविद् पद पर प्रतिष्टित कर उन्हें प्रथम वेद प्राप्तकर्ता नाना मंत्र दीक्षित प्रवर्ग्य आदि पदों नाना उपासना और छंदोविद् योगी और तपस्वी पद प्रदान किया। इस यज्ञ में प्रभु नील देव के अंगों से रोमदर्भ, नासा आज्य, मक्खन प्राणघृत, सामघोष सोम, अंतरात्मा ज्ञान, यज्ञ भूमि विश्व (मथुरा) स्कंध ब्राह्मण माथुरा दीक्षा नाना मन्त्र, गो सुवर्ण रत्नादि भूमि दक्षिणा प्रगट किये। उस पुण्य अध्बर में अनेक दंष्ट्रा यूप थे, चरण वेद थे, वर्ण अग्नि था। जिह्वा अग्नि शिखायें थीं। शीर्ष ब्रह्मपद, प्राण महाघोष तथा सृष्टि रचना विनियोग था। स्वयं वायुदेव ने ही इसका सविस्तार विवरण अपने वायु पुराण में अ0 6 में "आँखों देखा हाल" के रूप में उल्लिखित किया है जिसे जिज्ञासु जन मनन और अध्ययन कर सकते हैं।

2. बाराह

भगवान बाराह का द्वितीय अवतार आदि बाराह या कपिल बाराह है, 9260 वि0 पूर्ब यह अवतार हुआ है। कश्यप की सृष्टि में जब महाहप्रबल हिरण्य कश्यप और हिरण्याक्ष दो भाई देव भूमि में प्रगट हुए तब हिरण्य कश्यप को प्रह्लाद की भक्ति से प्रभावित होकर भगवान नृसिंह (नरजाति) ने वध किया तथा उसका भाई हिरण्याक्ष जिसे दक्षिण देश का राज्य दिया गया है। हिरण्याक्ष का शासन प्रदेश दक्षिण भारत में हिंगोली, हींगन घाट, हींगना नदी तथा हिरण्याक्षगण हैंगड़े नामों से अभी प्रसिद्ध हैं। हिरण्याक्ष द्वारा पाताल में ले जाई गई देवलोक की भूमि (ब्रज भूमि) की सारी संस्कृति सम्पत्ति (देवमूर्तिबाँ, तीर्थ, यज्ञ और पुण्य स्थलियां वेद, सम्पत्ति, देव नगर, तीर्थ यात्रा महत्व के दर्शनीय क्षेत्र) आदि ब्रज को उजाड़कर दक्षिण में स्थापित किये गयें। इससे देवलोक के ब्राह्मण माथुर जो नारायण के भक्त थे अति दु:खी हुए। इसी समय ब्राह्मणों और देवों के संकट को देखकर ब्रह्मदेव के नासिक भाग से प्रभु आदि बाराह देव का प्रादुर्भाव हुआ। आदि बाराह के साथ भी महाप्रबल बाराह सेना थी। वे अपनी सेना को लेकर हिरण्याक्ष के राष्ट्र पर चढ गये तथा विन्ध्यगिरि के पाद प्रसूत जल समुद्र को पार कर उन्होंने हिरण्याक्ष का पुर घेर लिया। संगमनेर में महा संग्राम हुआ तथा माथुर ब्राह्मथों को सन्तुष्ट कर उनका अर्चन सम्मान किया । इस सम्मान युक्त प्रतिष्ठा का रूप बाराह पुराण के मथुरा माहात्म्य अध्यायों में देखा जा सकता है।

मथुरा आकर आदि बाराहदेव ने बसमत महाराष्ट्र वासिनी अपनी प्रियतमा बसुमती देवी या बसुन्धरा देवी को जिसे वे अपने विजय स्मारक के रूप में विजयबाड़ा से लाये थे, उन्हें उसकी जिज्ञासा पूर्ति के रूप में "माथुर और मथुरा मण्डल का महत्व" अपने पुराण में विशेष रूप से बतलाया। बाराह देव ने दक्षिण के महाराष्ट्र प्रदेश में अपने नाम से एक पुरी भी बसाई जिसमें हिरण्याक्ष के बचे-खुचे दुष्ट दानवों को नियन्तित रखने के लिये अपनी सेना का एक अंग भी यहाँ छोड़ दिया। यह पुरी आज वहाँ बारामती कराड़ के नाम से प्रसिद्ध है। माथुरों के सबसे बड़े सम्मानदाता और प्रशंसक यह बाराह देव ही थे जिन्हें लोग अपने अज्ञान के कारण मनमाने रूप में कल्पित किये हुए हैं। बाराह देव कोटि का वर्णन वेदों में भी उपलब्ध है। ऋग्वेद में बाराह द्वारा चोरी गई हुई पृथ्वी का उद्वार तथा विन्ध्यापर्वत को पार करने का का वर्णन है।

इन आदि बाराह प्रभु का दिव्य देव विग्रह मथुरों की सेवा में निधि के रूप में मथुरा के मानिक चौक मुहल्ले में है तथा इसकी इतिहासिक कथा मथुरा महात्म्य में विस्तार से है। इनकी महामहिमामयी देवराज्ञी बाराही देवी का स्थान भी माथुरों की बगीची (बाटिका) बाराहीवारी में चतुर्वेद विद्यालय के बगल में है। प्रतापी देव नारियों में बाराही तथा नारसिंही दो ही अवतारी देवियाँ ऐसी हैं जो भगवती दुर्गा के रणसंग्राम में अपनी विशाल देव सेनाओं बाराही सेना और नारसिंही सेना लेकर उनका स्वयं संचालन करते हुए विजय श्री से विभूषित हुई थीं। बाराही नारसिंही च भीम भैरव नादिनी कहकर दुर्गाम्बा के रण में इन्हें याद किय गया है।

3. श्वेत बाराह

श्वेत बाराह, बाराह परम्परा का तीसरा अवतार है। इनका प्राकट्य समय 1002 वि0पू0 तथा विमति राजा से युद्ध का काल 8047 वि0पू0 है। श्वेत बाराह अवतार की कथा पुराणों में नही मिलती है। यह कथा ब्रजभक्ति महार्णव श्री उद्धवाचार्यदेव के "ब्रज यात्रा" ग्रन्थ में देखने में आयी, तथा पुन: अधिक शोध करने पर यह कथा बाराह पुराण के मथुरा माहात्म्य खंड में अ0 15 पर उपलब्ध हुई है। इतिहास की दृष्टि से यह घटना अति महत्वपूर्ण है। वहाँ लिखा है कि द्रविण देश में सुमति नाम का राजा था। वह अपने पुत्रों को राज्य देकर तीर्थयात्रा को निकला। तीर्थयात्रा के भ्रमण में मार्ग में ही कही उसकी मृत्यु हो गई तब एक दिन महर्षि नारद ने सुमति के पुत्र विमति से जाकर कहा -"पिता का ऋण उतारे वही पुत्र है।" नारद चले गये राजा चिन्ता में पड़ गया। मन्त्रियों से पूछा तब मन्त्रियों ने खोज लगाकर कहा – राजन् आपके पिताजी को तीर्थों ने मारा है सो तींर्थों से बदला लेना चाहिये। राजा सोचने लगा तीर्थ तो अगणित है उन सबसे बदला लेना कैसे सम्भव है। तभी एक मंत्री ने कहा – महाराज सुनते हैं समस्त तीर्थ चार मास मथुरा में निवास करते हैं, उसी अवसर पर मथुरा में उन्हें नष्ट करना चाहिये। राजा को बात समझ आयी और चातुर्मास शेष रहते ही बड़ी सेना ले मथुरा पर चढ आया।

मथुरा में सब तीर्थ थे। अपने विनाश की बात सुन वे घवढ़ाये और सलाह कर उत्तर ध्रुव के बर्फ से ढके श्वेतद्वीप के कलाप या कल्प ग्राम में चले गये। कलाप ग्राम में उन्होंने वहाँ के देवता श्वेत बाराह के दर्शन किये। उनसे रक्षा के हेतु स्तुति की। प्रभु प्रसन्न हो गये और देवों के साथ मथुरा पधारे। वहाँ सुमति से युद्ध कर सैन्य सहित राजा विमति को पराजय किया तथा देवों और माथुर ब्राह्मणों, प्रजाजन को अभय किया। इस युद्ध में उनके खड़्ग (असि) का अग्र भाग टूट गया जिससे उन्होंने एक कुण्ड खोदा जो असिकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्वेत बाराह देव तभी से मथुरावासियों महर्षियों द्वारा पूजित हुए और उनको कल्पस्वामी घोषित किया गया तथा उनका तीर्थ देवस्थल वहाँ बनाया गया।

पुराणों की वंशावली के अनुसार सुमति जैन सम्प्रदाय के सुमतिनाथ तीर्थकर हैं, और वे योगेश्वर ऋषभदेव के पौत्र तथा भरत के पुत्र है। उनका समय शोधित काल गणना से 8118 वि0पू0 है। उत्तरी ध्रूव पर (यूरोप के उत्तर छोर पर) शिव पुत्र स्कन्द देव का स्कैन्डीनेविया (स्कन्द नामि) प्रदेश है, वहाँ श्वेतद्वीप स्वीडेन नार्वे स्विटजर लैंड तथा कलाप ग्राम महर्षि नारदका लापलेण्ड नाम से ज्ञात बर्फीला दुर्गम प्रदेश है। इस कलाप ग्राम की ब्रह्मलोक ध्रूव में स्थित होने की चर्चा उपनिषदों में भी है। ध्रूव को उत्तर ध्रूव प्रदेश तक का भूमण्डल का राज्य प्रभु नारायण ने दिया था। उस प्रभाव से माथुरों के मान्य देवता श्वेत बाराह की प्राचीन और विश्वव्यापी रूप में जानकारी हमैं मिलती है।

भूगोल हमें बताता है कि इस देश के उत्तरी सिरे पर ध्रूव प्रदेश में हिंमनदों के तट पर बर्फ पर बर्फ की कगारों में से एक अति अद् भुद जीव के अस्थिपंजर और दाँत मिलते हैं। ये दांत 5-6 फुट लम्बे और बड़े सुदृढ़ होते हैं जो वहाँ किसी पुराकालिक बन्य पशु का होना सिद्ध करते हैं, वहाँ इन पशुओं को "मैमय" कहते हैं प्राचीन श्वेत बाराह के विशाल आद्य अस्तित्व और उसके पालक श्वेत बाराह जनों का यह एक अति महत्वपूर्ण तथ्य है। यह हमारे प्राचीन इतिहास का सुदूरगामी स्पष्ट कीर्ति ध्वज भी है।

मथुरा के रक्षक आदि सभ्यता के जनक भूमण्डल के उद्धारक इन बाराहों का वर्णन ऋग्वेद 10-99-06 में, तैत्तरीय संहिता 7-1-5-1 में तथा तैत्तरीय ब्राह्मण 7-1-3 में और सभी पुराणों में प्राप्त है। प्रात:संध्या में मृत्तिका धारण मंत्र में इन्हें इन शब्दों स्मरण किया जाता है-

उधृतोकषि बराहेण कृष्णेन शत बाहुना।

मृत्तिका पावनीभूते मां पावय वसुन्धरे ।।

अश्वक्रान्ते रथ: क्रान्ते विष्णु क्रान्ते वसुन्धरे ।

मृत्तिका हर में पापं यन्मया पूर्व संचितम् ।।