चतुर्वेदी इतिहास 3

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी


मान्धाता का राज्य

5,550 वि. पूर्व में युवनाश्व पुत्र मान्धाता का राज्य रहा। इन्होंने आंगिरा ऋषियों की सेवा करके तथा भगवान आदि वाराह की प्रतिमा की अर्चना करके बहुत बड़े राज्य का विस्तार किया। अपनी भक्ति के कारण ये राजर्षि बन गये तथा माथुरों ने इन्हें कुत्स गोत्र के प्रवर जनों में स्थान दे दिया। मान्धाता माथुरों के परम भक्त थे। गर्ग सहिंता में इनकी उपासना के मूल तत्व यमुना स्तव, पटल, कवच और सहस्त्र नाम सुरक्षित हैं। यमुना तट के गरूड़ गोविंद के समीप के सौभरि आश्रम (भरना) गाँव के निवासी सौभरि ने इनकी 50 कन्याओं को इनसे माँगकर धर्मपत्नी बनाया। इस संबन्ध के कारण इन्होंने सौभरि मुनि से कृष्ण उपासना संबन्धी अनेक जिज्ञासाऐं की जो मान्धाता सौभरि संवाद के रूप में गर्ग संहिता में उपस्थिति हैं।

इस काल में माथुरों ने अनेक शास्त्रीय विद्याओं का उत्कर्ष किया। वेद विद्या, योग और तप विद्या यज्ञ, कर्म काण्ड, संस्कार विधान, तत्व ज्ञानी दर्शन, पौराणिक अवधारणा, तंत्र, नीति शास्त्र , ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत विद्या, काव्य, नाटक अभिनय, वाद्य वादन, चित्र, शिल्प, आयुध विद्या, सभाजयी बाक पटुत। (हाजिर जबाबी) महापौरूष, भोजन, पाक विद्या आदि अनेक विद्यायों से माथुर विभूषित और संपन्न रहे। सदाचार में हाथ के सच्चे बात के सच्चे, लंगोट के सच्चे ये तीन गुण माथुरों के जन जन में प्रसिद्ध रहे। यद्यपि यवन काल में ये यावनी भाषा से दूर रहे तो भी इनके उपरोक्त गुण इन्हें लोक सन्मान कराते ही रहे। "चौबे पढ़े न फारसी भये न दफ्तर वंद" । ये अपने स्वास्थ्य के संबन्ध में घृत पान के भो सर्वोपरि प्रेमी रहे "गुड़ खाद्य घोड़ा, तेल पिये जोड़ा, घी चौबे जी कौ जी" हुक्का-चिलम, बीड़ी-सिगरेट, माँस-मदिरा, लैसुन-प्याज सभी दुर्व्यसनों से बहुत दूर रह कर तथा संपूर्ण समाज को इनसे मुक्त रखकर माथुरों ने उत्कृष्ट स्वास्थ्य महान तेजस्विता, और अद्वितिय आत्मवल अर्जित किया। चौबे का बालक अपने रूप गुण और संभाषण के कारण हज़ारों में भी पहिचान लिया जाता है। यह लोक में वार्ता प्रसिद्ध है।

सूर्य वंश

वैवस्वत मनु 6,319 वि0 पू0 के वंश का उभ्दव मथुरा से ही है। मथुरा में बैवस्वत मनु की वैवस्वती पुरी (वसौंती) वैवस्वती सरोवर (वसुमती तीर्थ) विवस्वान दिवाकर सूर्य का पुर (वाकलपुर) प्राचीन साक्षी हैं। वैवस्वत मनु के पुत्र इश्वाकु ने मथुरा में यमुना तट पर तथा इक्षुमती नदी के क्षेत्र में तप कर भगवान सूर्य की सिद्धि से अयोध्या नाम की नगरो 6310 वि0 पू0 में बसायी-

"इक्ष्वाकुस्तु तप-स्तेपे मथुरायां शतं समा ।।" -भागवत

अर्थात्- महाराज इक्ष्वाकु ने मथुरा के यमुना तट पर शतरात्रि तप यज्ञ और भजन करके प्रताप-सिद्धि प्राप्त की। मथुरा के वशिष्ठ गोत्र संस्थापक महर्षि वेद व्यास के पूर्व पुरूष वसिष्ठ माथुर ही अयोध्या के राजवंश के परंपरागत राजगुरु रहे। रघु] दिलीप आदि सभी प्रतापी सम्राट वशिष्ठ शिष्य थे, तथा मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्रीराम जी के तथा उनके समीपवर्ती वंशों के माथुर कुल पुरोहित के रूप में पूजित और सम्मानित बने रहे।

चंद्र वंश

परम प्रतापी चंद्रवंशी का भी आरंभ मथुरा मण्डल से ही हुआ था। चन्द्र वंश के प्रथम पुरूष महषि अत्रि है जो माथुरों के दक्ष गोत्र के "आत्नेय गविष्ठर पूर्वा तिथि के प्रवरीजनों में थे यह सर्वोपरि प्रमाण पुष्ट हैं। महर्षि अत्रि के पुत्र दत्तात्नेय दुर्वाशा और चंद्रमा हैं दत्त का आश्रम दतिया ब्रज, दुर्वास्य आश्रम मथुरा वृहद वन यमुना तट तथा चंद्रदेव का स्थान चन्द्रसरोवन, चन्द्र पुष्कर (चांड़ाकर) ब्रदबन यही हैं। चंद्र पुत्र बुध का आश्रम बुधतीर्थ मथुरा परिक्रमा का दक्षिण कोटि तीर्थ है। बुध पुत्र युदुरवा की राजधानी प्रतिष्ठानपुर (पैठौ) गिरिराज तरहटी में ही है। यहीं पुरूरवा पत्नी उर्वशी ( उजवेकस्तान की अप्सरा) ऐंठा कंदव, सुमेरू खंड से लायी तथा सुदुदू देश से उत्तम नस्ल की भेड़ तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र (वर्फीले देशों की अंगीठी कांगड़ी जो गले में लटकाई जाती है)लेकर आयी। पैठा गाँव का ऐंठा कदम्व अद्भुद आश्चर्य जनक तथा बहुत मोटा अति पुरातन काल का होना सिद्ध करता है। उर्वशी गंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश भाग गई, और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा। उसका रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है। फारस के कवि ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखी हैं।

इस वंश के नहुष ययाति यदुपुरू आदि के वंश भी इसी क्षेत्र में ख़ूब फैले तथा मथुरा यदुपुरी रहा। श्री कृष्ण आदि सभी यादव मथुरा क्षेत्न के माथुरों के सेवक यजामान रहे हैं। इन सबके प्रशासन पुर राजधानी भी ब्रज में रहे हैं। इसी प्रकार 3048 वि0 पू0 से 3009 वि0 पू0 वज्रनाभ वंश मथुरा और उसके आसपास के प्रदेश पर रहा। मथुरा चतुर्वेदियों का यादवों के गुरुरूप में वर्चस्व निरंतर बना रहा। यादवों की बड़ी संख्या अभी भी ब्रजक्षेत्र में बसी हुई हैं। जादों ठाकुर यादवों का ही नाम है। इस वंश के मूल पुरूष चन्द्र देव का आश्रम चन्द्रसरोवर है जहाँ चन्द्रबाबा नाम से चन्द्रदेव का मंदिर अभी है। सरोवर को पक्का भरतपुर नरेश जवाहरसिंह ने दिल्ली लूट के धन से बनाया जहाँ पुष्टि मार्ग की मान्यता के अनुसार प्रथम रास का आयोजन हुआ। व्यास पिता महर्षि पराशर जी का पाराशर पुर (परासौली समीप ही है तथा सरोवर के समीप के वन में बैठक भी है) गो0 विट्ठल नाथ जी सूरदास जी आदि अनेक भक्त श्री नाथ जी की सेवा के अननत जतीपुरा से आकर यहीं रात्रि शयन को आये थे । चन्द्र वंश की उत्पत्ति ब्रज से है और उससे हुआ नहुष नदुष 6 ययाति यदु अनुपुर बुधु, यदु तथा उसके राज मर्हिष शष्ठा देवयानी यही रहे और यही से यादवों का वंश विस्तार हुआ।

श्रीराम युग

महाकवि कालिदास के रघुवंश इतिहास काव्य से हमें रघुवंश के साथ मथुरा के सम्बन्ध की दो महत्वपूर्ण घटनाओं की सूचना मिलती है। अयोध्यापति महाराज रघु के समीप मथुरा के माथुर कुत्स महर्षि के पुत्र कौस ऋषि अपने गुरु (तन्तूरा ग्राम मथुरा) के आचार्यों को गुरु दक्षिणा देने को 14 विद्याओं (4 वेद, 6 वेदांग, 1 मीमांसा, 1 न्याय, 1 पुराण, 1 धर्मशास्त्र- 14 कोटि) के गुरु ऋण से मुक्त हेतु 14 करोड़ स्वर्ण मुद्रा याचना हेतु गये। महाराज रघु अपना विश्वजित यज्ञ करके अपना सारा द्रव्य ब्राह्मणों को दान कर चुके थे खजाना ख़ाली था। ऋ़षि की बात सुनकर वे चिन्ता में पड़ गये तथा धन के लिए उन्होंने कुबेर पर चढ़ाई के लिये रथ सजवाया। प्रात: ही रथ कुबेरपुर (कुम्हेर ब्रज) पर आक्रमण करने वाला था। कुवेर को यह ज्ञात हुआ तो उसने रात्रि में ही राजा के कोष में मूसलाधार सुवर्ण मुद्राओं की वर्षा कर खजाना भर दिया। प्रात: ही कोषागार अधिकारी ने सूचना दी किं – महाराजजी कोष तो रात भर में ही सुवर्ग से पूरी तरह भर गया है।

महाराज प्रसन्न हुए और महर्षि को निवेदन किया कि यह सारा स्वर्ण आपका है इसे ग्रहण कीजिये। तभी महर्षि कुत्स ने कहा- राजन् मुझे गुरु दक्षिणा के लिये जितना द्रव्य लेना है उससे ज़्यादा मैं हर्गिज नहीं लूँगा। राजा ब्राह्मण की सदाचार वृत्ति देख चकित और नत मस्तक हो गया। तब कुत्स ने याचित मुद्रा ऊँटों शकटों पर लदवा मथुरा आकर गुरुजी को निवेदित कर सन्तोष की सांस ली । रघु का समय 4,181 वि0पू0 का है।- रघुवंश सर्ग -5

दूसरी कथा में है- विदर्भ देश के राजा भोज की बहिन इन्दुमती का स्वयंवर (विदर अहमद नगर आन्ध्र प्रदेश) की राजधानी कुडिनपुर (कौंडापुरम्) हो रहा था इसमें उस काल के नौ जनपदों के राजा आमन्त्रित थे। 1. मगध, 2. अंग (बिहार), 3. अवन्ति (उज्जैन), 4. अनूप (नर्मदा तट पर महिष्मती), 5. सूरसेन (मथुरा), 6. धनीप (राज0), 7. पांडय (तमिल), 8. विन्ध्य (मध्य प्रदेश), 9. मलय (मलावार)। इन महाराजों में पाँचवां श्रेष्ठ स्थान सूरसेनपति राजा सुषेण का था। तथा दसवाँ अयोध्या नरेश महाराज अज (4126 वि0 पू0) का था। राजाओं की परिचय प्रशस्ति में जहाँ एक-एक दो-दो पद्य प्रस्तुत थे वहाँ मथुरापति के परिचय में 9. श्लोक कहे गये यथा इनमें मथुरापुरी के सिद्धाश्रम (महाराज का बाग) राजा के यमुना तट के नवनाभिराम धवल रामप्रसाद, उसके चारों ओर उपवन, दूर्वा त्नृणांकुर क्षेत्र (घास का मैदान कालिन्दी तट की घाटों की शोभा तथा वहाँ नरेश की जल बिहार क्रीड़ा राजा का कालीनाग की मणियुक्त कंठहार, पुष्प शैया पर बिहार गिरिराज कन्दरायें, झरने और मयूरों के नृत्य, गिरिराज की सुगन्धि शिलायें आदि का भव्य वर्णन है। ब्रज और मथुरा के इस वैभव का सुखोपभोग माथुरा मुनीशों का नित्य उपभोग्य था। इन्दुमती का विवाह अज से हुआ। -रघुवंश सर्ग -6


सूर्य वंश में भगवान श्रीराम का स्थान विश्ववन्दित है। वे मर्यादाओं के समुद्र सदाचार और शील सौन्दर्य की सीमा तथा परमात्मा के अवतारी पुरूष माने जाते हैं। प्रभु रामजी का समय इतिहास की हमारी तात्विक शोध के अनुसार 4024 वि0पू0 है। श्री रामजी के पिता महाराज दशरथ जी ने पुत्रेष्ठि यज्ञ के लिये श्री श्रृंगी ऋषि को मथुरा से ही बुलाया था। इनका आश्रम श्रृंगीपुर (सिंलिंगी पाड़ा) मथुरा में अभी भी है। भगवान राम के जन्मोत्सव में माथुर ब्राह्मण उपस्थित थे। भगवान राम और लक्ष्मण की लेकर महर्षि विश्वामित्र जब जनकपुर को गये तब विश्वामित्रपुर (विसावर) में इन्हें सम्पूर्ण शस्त्र विद्या सिखाई। विसाबर गाँव की खुदाई में विश्वामित्र की यज्ञशाला का विशाल हवन कुण्ड तथा यज्ञ सामग्री उपलब्ध हुई हैं। इस समय विश्वामित्र दोनों भाइयों को लेकर मथुरा में भी आये थे, जहाँ यमुना तट पर कुशिक वंशियों का कुशक मौहल्ला विश्वामित्र का तीर्थ स्वामीघाट तथा यमुना के पार उनके पिता गाधि राजा का गाधीपुरा मौजूद हैं।

अपने अश्वमेध यज्ञ से पूर्व महर्षि अगस्त के उपदेश से भगवान राम ने सपरिवार तीर्थयात्रा की थी। इस यात्रा में उन्होंने मथुरा, गोकुल, गोवर्धन, वृन्दावन (कामवन) की यात्राएं की थी।

आदौ मधुवनं प्राप्य वृन्दावन मत: परम्।

ततत्श्च गोकुलं प्राप्य गोवर्धन मगात्पुन:।।


श्री रामजी के अश्वमेध का घोड़ा भी मथुरा सूरसैनपुर में आया था। इस समय मथुरा में यदुवंशी मधु का राज्य था, मधु का समय 4036 वि0पू0 निश्चित किया गया है। मधु यादव धार्मिक राजा था बाल्मीक उत्तरकाण्ड के अनुसार वह ब्राह्मणों को शरण देने वाला, माथुरों की पूजा करने वाला धर्मात्मा तथा देव प्रिय था। इस मधु को रावण की बहिन कुम्भीनशी ब्याही थी। रावण ने बहिन के अपहरण का दण्ड देने के लिए मथुरा और सूरसैन देश पर आक्रमण किया था। मधु डरकर छिप गया और कुम्भीनिशी ने आँचल पसारकर भाई से अपने सौहाग की भीख माँगी। रावण ने तब मथुरा का घेरा हटा लिया। और मधु को लेकर सूरसैन देश के देवलोक भाग आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में उसने हरी भगवान के लोक गोवर्धन पर बद्रीनारायण के लोक आदि बद्री पर, लक्ष्मी के लोक आनद्रागि (घाटा) पर , इन्द्रलोक (इन्द्रौली) कामेश्वर रूद्र के लाक (कामवन) ब्रह्मा के लोक ब्रह्मगिरि (बरसाने) पप नन्दीश्वर के पर्वत नन्द गाँव, कुवेरपुरी कुम्हेर पर तथा देवों के बिहार स्थल शतश्रृंग पर्वत पूण्य जन स्थल (संहार पुन्हाना) पशुपति लोक पसोवौ नरनारायण पर्वत (बूढे बद्री) अलकापुरी (अलबर) आदि पर विनाश लीला रचाकर देवों को आधीन कर लिया और उन्हें अपने राजदरबारी की सेवा करने के लिये मरूत खण्ड वर्तमान महाराष्ट्र मं नजरबन्द कर लिया वहाँ खामगाँव कामेश्वर रूद्र शिरज गाँव (सूर्य गाँव) अमरावती (इन्द्र ग्राम) वलिग्राम शेष ग्राम धर्मावाद (धर्मराज ग्राम) आदि इसी समय बसाये गये।

इस रावण की बहिन का लवणासुर रावण जैसे स्वभाव का उग्र और अहंकारी पुत्र हुआ। पुत्र के इस अधम आचरण से मधु अति दु:खी हुआ और वह वरूण के लोक अफ्रीका देश में चला गया। तब लवण जिसका मूल शनाम कुरूवस, द्रवरस या लवण या शासन का स्वामी हुआ। लवण ने गुजरात और सिंध के समुद्र तट पर्यन्त लवण उत्पादन करने के समुद्री व्यवसाय पर एकाधिकार घोषित किया। उसने मथुरा से पश्चिम समुद्र तक अपने राज्य का विस्तार किया। उसने सिन्धु, सौराष्ट्र के अधिपति मान्धाता को भी हराकर मार डाला। लवण ने मध्य देश से पश्चिम समुद्र तट तक हज़ारों नमक विक्रम के केन्द खोले, जिनके कार्यकर्ता लवाणा (लुहाना) तथा लवानिया नाम से प्रसिद्ध हैं। जो गुजरात और ब्रज में अनेक व्यापार चलाते हैं। इनका गायन छन्द लावनी और शरीर की शोभा लावण्य कही जाती है। लवण शंकर उपासक था अपने मामा रूद्र सम्प्रदाय के आचार्य रावण (रावल) की परम्परा में वह रूद्र की राक्षकी उपासना में पशुओं , मनुष्यों और ब्राह्मणों की नर बलि देता था।


मथुरा के माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण ही उस समय मथुरा में परम पवित्र और देव प्रिय थे। उसने इन माथुरों में से ही ग्यारह ब्राह्मण प्रतिदिन तथा शिवरात्रि आदि पर्वो पर शतरूद्र , सहस्त्ररूद्र और कोटि रूद्रों को प्रसन्न करने के लिये सौ, हज़ार और यथा प्राप्ति ब्राह्मणों को रूद्र के आगे बलिदान करके उनके मुण्डों को अग्निकुण्ड में आहुति देना आरम्भ कर दिया। माथुरों पर यह महान विपत्ति थी उनका कुल क्षय होकर लुप्त हुआ जा रहा था।

ऐसे समय वे अपने बन्धु वशिष्ठ के यजमान ब्राह्मण रक्षक भगवान श्रीरामजी के पास अयोध्या पहुँचे। इस यज्ञ कथा का बर्णन बाल्मीक रामायण तथा बाराह पुराणान्तर्गत मथुरा माहात्म्य में वर्णित है। भगवान राम ने माथुरों का परम सत्कार किया तथा उनके कष्ट निवारणार्थ शत्रुध्न को मथुरा जाने का आदेश दिया। लक्ष्मण और भरत से वह पहिले ही सेवा ले चुके थे, सबसे छोटा भाई शत्रुध्न कोई सेवा पाने के लिये उत्सुक था। अत: प्रभु रामजी ने मथुरा का राज्य देकर उसे माथुरों का संकट निवारण करने और मथुरा पुरी का वैभव विस्तार करने की आज्ञा दी उन्होंने लंका से लाई हुई भगवान आदि बाराह की देव प्रतिमा तथा विजय का आशीर्वाद भी दिया। शत्रुध्न के साथ बानर सेना भी सहायता के लिये भेजी गई।

शत्रुध्न ने महावन में अपनी सेना का शिविर स्थापित किया तथा माथुरों के परामर्श से दो गदायें लेकर अकेले मथुरा नगर को प्रस्थान किया। माथुरों ने बतलाया कि लवण के पास शिव का अमोघ त्रिशूल है। जब तक वह उसके हाथ में रहेगा वह पराजित नहीं हो सकता। लवण रूद्र पूजा के लिये प्रतिदिन मधुवन में अपने रूद्र महालय (महोली) में जाता है उस समय वह शूल उसके हाथ में नहीं होता उसका वह शूल शूलतीर्थ में रक्खा रहता है तुम उसे मधुवन के महालय शिव के विशाल मन्दिर के प्रांगण में युद्ध के लिये रोक लेना और तब तुम उसे पराजित कर सकोगे। शत्रुध्न ने ऐसा ही किया। उन्होंने प्रथम शूल तीर्थ पर उस रूद्र त्रिशूल के खण्ड-खण्ड कर दिये जिसके कारण वह सरोवर और तीर्थ शूल ख्ण्डन तीर्थ (सुलखन) तीर्थ कहा जाने लगा। माथुरों के लिए अभी भी यह एक पूजित और पवित्र स्थल है, जहाँ अनेक माथुरा ऋषि पत्नियों की मिहारी शाखा की सती माताओं के कई मठ बने हुए हैं। और विवाह आदि मांगलिक अवसरों शपर तथा वेद व्यास के जन्मोत्सव दिवस आषाढ़ी पूर्णिमा पर इनकी पूजा होती है।

त्रिशूल रहित लवण को शत्रुध्न ने इसी विधि से मार लिया उन्होंने जब वह अपना त्रिशूल लेने चला तो उसे बता दिया तुम्हारा त्रिशूल अब नहीं है, यह गदा लो और सन्मुख युद्ध करो लवण समझ गया कि अब उसकी मृत्यु निश्चित है, वह भयंकर पराक्रम से लड़ा किन्तु धराशायी हो गया।

मथुरा का नव निर्माण

शत्रुध्न ने लवण को मारकर 4022 वि0पू0 में माथुरा में माथुरा ब्राह्मणों का विधिवत पूजन और सम्मान किया तथा मथुरापुरी को महान वैभवमयी देवपुरी के रूप में निर्मित करने का सकल्प किया। मथुरा इससे पूर्व एक पुरी, पुरवा या गाँव रूप में थी, जिसमें माथुर चतुर्वेदी प्राह्मण ही बसते थे, इसके साक्षी रूप में अभी भी नगर के समस्त चतुर्वेदियों को भोजन कराने के आयोजन का नाम गाँव-दैनी कहा जाता है। शत्रुध्न ने इस नये नगर में माथुरों को उनके सुपाश्चगिरि माथुरपुर को मुख्य केन्द्र बनाकर उस पर माथुरों के भव्य प्रासाद और महल बनाये तथा उसके दक्षिण भाग में मधुवन तक देवों और यादवादि क्षत्रियों कारीगरों और शिल्पजीवी, कृषि जीवी और गोपालक जनजातियों के पुर वसाये। शत्रुध्न का अपना महल यमुना के तट पर नगर के पूर्व भाग में था। जो भार्गव गोत्रिय माथुर च्यवन आदि के वंशजों का ऋषि स्थल था जिसे आज की अपभृंश भाषा में चूना कंकड़ कहते हैं। शत्रुध्न ने मथुरा में लाल पत्थर रक्त शिलाओं, रक्त मणियों, श्वेत शिलाओं, धवल मणियों से युक्त बहुत सुन्दर और सुदृढ़ भवन पृथक-पृथक बनाये।

इनमें देव लोक के देवताओं ब्रह्मा, नारायण सूर्य, इन्द्र, वरूण, कुबैर आदि को निवास करने के लिये अव्हाहित किया किन्तु यह सभी देव अपने देव स्थानों, लोकों को छोड़कर शत्रुध्न के नवीन नगर में रहने को राजी न हुए। निराश होकर शत्रुध्न न भगवान राम से यहाँ आकर अपने नव निर्माण को निरीक्षण करने और सुफल बनाने की प्रार्थना की। इस सम्बन्ध में उल्लेख है—

शत्रुध्नेन पुरा घोरो लवण: सूदितो यदा।
द्विजानुग्रह कामार्थ मंत्रमुत्सव रूडिणम् ।।1।।
मार्गशीर्षस्य द्वादस्यां मुपोस्यनियत: शुचि:।
यह करोति बरारोहे शत्रुध्ना चरितम् यथा: ।।2।।
द्विजानाम् प्रीडन कृत्वा श्रद्वान्न वर दक्षिणाम् ।
लवणस्य बधा देव शत्रुध्नस्य शरीरक।।3।।
हर्षस्तु सुमहान जातो रामास्या क्लिष्टकर्मणा:।
अयोध्याया: समायातों राम: सबलवाहन: ।।4।।
महोत्सवं शत्रुध्नस्य कर्तु प्रिय चिकीर्षया।
आग्रहण्याम सितां प्राप्त मथुरां दसरथात्मज:।।5।।
ऐकादस्याम् सोपवास: स्नात्वा विश्रांति संज्ञके।
कृत्वा महोत्सवं तत्र कुटुम्ब सहित: पुरा ।।6।।

अर्थात शत्रुध्न ने अघोर पन्थी पाशुपत लवण को मारा फिर माथुर ब्राह्मणों पर अनुग्रह करने की कामना से उन्हें दान मान से सन्तुष्ट करने के लिये महान उत्सव की रचना की। यह उत्सव अगहन मास की शुक्ल द्वादसी को 4029 वि0पू0 में विश्रान्त पर सम्पन्न किया गया था। शत्रुध्न के इस चरित्र को जो इसी प्रकार आचरण करेगें जिसमें माथुरा ब्राह्मणों को प्रसन्न करने के लिये युद्ध अन्न और श्रेष्ठ गो सुवर्ण भवन, भूमि दान करेंगे जैसा कि शत्रुध्न के शरीर में लवण की हत्या से आये वकिार को शान्ति मिली ऐसा करने वाले सभी पुण्यजन महान यज्ञ का फल प्राप्त करेंगे।

मथुरा में आये हुए श्रेष्ठि कर्मा प्रभु श्रीरामजी को इसे देखकर महान हर्ष हुआ। क्योंकि इसी के लिये वे अयोध्या से सकुटुम्ब और सेना मन्त्रिमण्डल महित आये थे। उनके मन में मथुरा की महान स्थापना के लिए तथा शत्रुध्न की प्रिय मनोरथ सिद्धि करने के लिये इस महोत्सव को सफल करने की बड़ी कामना थी। उस समय अगहन मास की शुक्ल पक्ष की एकादसी के दिन दशरथ पुत्र श्रीराम ने सपरिवार व्रत किया उन्होंने सम्पूर्ण अंग परिकरों के साथ विश्रान्त तीर्थ पर स्नान किया तथा अपने सम्पूर्ण जनों सहित वहाँ आयोजित महोत्सव में अपना योगदान दिया। शत्रुध्न ने श्रीरामजी से तब प्रार्थना की—

इयम् मधुपुरी रम्या मथुरा देव निर्मिता:।

निवेषं प्राप्नुयाच्छीश्र मेष मेस्तु वर: पर:।।

हे प्रभु यह मेरी सुन्दर सजाई हुई मधुपुरी के देव भवनों में सब देवता अपने लोकों से आकर निवास करें, मैं यही आप से वहदान माँगता हूँ। श्रीरामजी ने अति आनन्दित होकर "एवमस्तु" कहकर वर दिया और फिर सब देवों से विनय की कि वे शत्रूध्न द्वारा निर्मित मथुरा में अपने-अपने प्रासादों में निवास करें। श्रीरामजी की अभिलाषा जान कर सम्पूर्ण देवों ने तब मथुरा को अपनी आवास स्थली बनाया। श्रीरामजी के अश्वमेध का अश्व भी सूरसैन देश मथुरा में आया था। मथुरा के च्यवन आदि महर्षियों को हरीहर टीकाकार ने "ब्राह्मण: चातुर्वेदन: माथुरा: इति " स्पष्ट किया है। लवण काल का विशाल बाणलिगं जो रूद्र महालय में स्थापित था महोली की खुदाई में पुरातत्व विभाग को मिला है, और वह मथुरा के राजकीय पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित है।

मथुरा में लवण गुहा, लवण कूप (नसशवारौ कुआ अखाड़ा) शत्रूध्न स्थल है। यहाँ के नसवारे के ज्वान अति भोजनी और अति पराक्रमी हैं। लवणासुर कूप का का पानी बहु क्षार युक्त होने पर भी बहुत पाचक और बलवर्द्धक है उरदास कवि ने इसके विषय में अपने एक छन्द में लिखा है ----

उरदाम पानी नसवारे कौं गजब है।

श्रीरामजी और शत्रुध्न के बाद शत्रुध्न के वंशजों का राज्य अधिक दिन नहीं रहा। भीमरथ यादव ने रघुवंशियों से 2709 वि0पू0 में सूरसैन मथुरा का राज्य छीन लिया। भीम यादव जादौ के बाद हैहयों सहस्त्रबाहु वंशजों, वृष्णियों, कुकरों और अन्धकों की सभी शाखाएँ मथुरा में गणराज्य के रूप में स्थापित रहीं, तथा उग्रसेन के समय यहाँ कंस का प्रबल आधिपत्य रहा, यद्यपि मथुरा के आस-पास का विशाल साम्राज्य इस समय महाराज चक्रतर्ती शान्ततु के अधिकार में था, किन्तु मल्लराज होनें के कारण महावली कंस ने मथुरा नगर के एक भाग को अपने अधिकार में रक्खा ।