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श्रीकृष्ण काल
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==श्रीकृष्ण काल==
3114 वि0पू0 मेंदेवाधिदेव सोलह कला परिपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ।  श्रीकृष्ण के पूर्वज सभी यादव (जादों ठाकुर) मथुरा के माथुर चतुर्वेदियों के परम निष्ठावान भक्त रहे हैं। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्म मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर उग्रसेन महाराज के संरक्षण में माथुरों के शपुर में निवास करती थीं।  इनकी बड़ी शाखा कुकर शाखा के पौरोहिहत्य के कारण एक शाखा अभी भी ककोर सरदार कही जाती है।
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श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव वृष्णि शाखा के प्रधान पुरूष थे। महाराज उग्रसैन के भाई देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव के साथ किया गया वसुदेवजी अति रूपवान, ज्ञानवान, नीतिज्ञ, व्यवहृार कुशल और ब्राह्मण भक्त थे, उन्हीं के सम्पूर्ण गुणों का विकास उनके पुत्रों कृष्ण-बलराम में पूर्ण रूप से हुआ।  श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण के अवतार थे, उनकी कथा भागवत आदि सभी पुराणों में कही गई है।  
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3114 वि0पू0 मेंदेवाधिदेव सोलह कला परिपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ।  श्रीकृष्ण के पूर्वज सभी यादव (जादों ठाकुर) मथुरा के माथुर चतुर्वेदियों के परम निष्ठावान भक्त रहे हैं। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्म मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर उग्रसेन महाराज के संरक्षण में माथुरों के शपुर में निवास करती थीं।  इनकी बड़ी शाखा कुकर शाखा के पौरोहिहत्य के कारण एक शाखा अभी भी ककोर सरदार कही जाती है।
बालक श्रीकुष्ण कंस के भय से जन्मते ही नन्द के गोकुल में पहुँचा दिये गये, तथा दूसरे पुत्र बलराम जो वसुदेव पत्नी रोहिणी से नन्द गोप के घर महावन में उत्पन्न हुए थे- दोनों भाई अत्याचारी कंस से बचकर अनेक मनोहारी लीलायें करते हुए गोकुल में गर्गाचार्य और माथुर शाँडिल्य मुनि तथा धौम्यजी द्वारा प्रारम्भिक जाति कर्मादि संस्कार हुए।  पाँच वर्ष गोकुल में रहकर नन्दजीं उन्हें कंस कंस से दूर गोवर्धन, वृन्दावन, काम्यवन, नन्दग्राम के मूल ब्रज क्षेत्र में ले गये।  
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नन्द के संरक्षण में श्रीकृष्ण-बलराम बारह वर्ष तक रहे।  उन्होंने देवपुरी मथुरा के गायों शके चराये जाने के क्षेत्र ब्रज मण्डल में अनेक अद्भुत् लीलाएँ दिखाकर ब्रज के गोप-गोपियों को अपने बस में कर लिया।  यद्यपि दोनों भाई ब्रज में अनेक प्रकार के बिहार-क्रीड़ायें करते थे, तो भी उन्हें वारम्बार अपनी जन्मस्थली मथुरा अपने प्रिय माता-पिता और परम पूज्यनीय माथुरों गुरूओं की याद सताती रहती थी।  गौड़ीय भक्तों ने उनकी ब्रज निवास काल में मनोव्यथा उत्पन्न करने वाली दशा को "माथुरी विरह अवस्था " कहकर वर्णन .किया है। 12 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने पर वे मथुरा के विरह को सहन नहीं कर सके, और तब कंस के आयोजित कपटपूर्ण धनुष यज्ञ महोत्सव को जानते हुए भी अक्रूर के साथ ब्रज का मोह परित्याग कर वे मथुरा आ गये।  
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श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव वृष्णि शाखा के प्रधान पुरूष थे। महाराज उग्रसैन के भाई देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव के साथ किया गया वसुदेवजी अति रूपवान, ज्ञानवान, नीतिज्ञ, व्यवहृार कुशल और ब्राह्मण भक्त थे, उन्हीं के सम्पूर्ण गुणों का विकास उनके पुत्रों कृष्ण-बलराम में पूर्ण रूप से हुआ।  श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण के अवतार थे, उनकी कथा भागवत आदि सभी पुराणों में कही गई है।  
इस समय मथुरा के माथुरों और प्रजाजनों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया इसका वर्णन महात्मा सूरदासजी ने अपने एक पद में बड़े आकर्षक ढंग से किया है-  
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बालक श्रीकुष्ण कंस के भय से जन्मते ही नन्द के गोकुल में पहुँचा दिये गये, तथा दूसरे पुत्र बलराम जो वसुदेव पत्नी रोहिणी से नन्द गोप के घर महावन में उत्पन्न हुए थे- दोनों भाई अत्याचारी कंस से बचकर अनेक मनोहारी लीलायें करते हुए गोकुल में गर्गाचार्य और माथुर शाँडिल्य मुनि तथा धौम्यजी द्वारा प्रारम्भिक जाति कर्मादि संस्कार हुए।  पाँच वर्ष गोकुल में रहकर नन्दजीं उन्हें कंस कंस से दूर गोवर्धन, वृन्दावन, काम्यवन, नन्दग्राम के मूल ब्रज क्षेत्र में ले गये।  
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नन्द के संरक्षण में श्रीकृष्ण-बलराम बारह वर्ष तक रहे।  उन्होंने देवपुरी मथुरा के गायों शके चराये जाने के क्षेत्र ब्रज मण्डल में अनेक अद्भुत् लीलाएँ दिखाकर ब्रज के गोप-गोपियों को अपने बस में कर लिया।  यद्यपि दोनों भाई ब्रज में अनेक प्रकार के बिहार-क्रीड़ायें करते थे, तो भी उन्हें वारम्बार अपनी जन्मस्थली मथुरा अपने प्रिय माता-पिता और परम पूज्यनीय माथुरों गुरूओं की याद सताती रहती थी।  गौड़ीय भक्तों ने उनकी ब्रज निवास काल में मनोव्यथा उत्पन्न करने वाली दशा को "माथुरी विरह अवस्था " कहकर वर्णन .किया है। 12 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने पर वे मथुरा के विरह को सहन नहीं कर सके, और तब कंस के आयोजित कपटपूर्ण धनुष यज्ञ महोत्सव को जानते हुए भी अक्रूर के साथ ब्रज का मोह परित्याग कर वे मथुरा आ गये।  
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इस समय मथुरा के माथुरों और प्रजाजनों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया इसका वर्णन महात्मा सूरदासजी ने अपने एक पद में बड़े आकर्षक ढंग से किया है-  
 
"भूषन बखन विचित्र सजे हैं, सोभित सुन्दर अंग।।
 
"भूषन बखन विचित्र सजे हैं, सोभित सुन्दर अंग।।
 
"कर पंकज नफूल की माला, उरभैंटे नन्द नन्द।। "
 
"कर पंकज नफूल की माला, उरभैंटे नन्द नन्द।। "
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हिरण्य धेनु दानेन मम लोके महीयते ।।
 
हिरण्य धेनु दानेन मम लोके महीयते ।।
 
इन तीर्थों का ज्ञान माथुर ब्राह्मणों को ही था किन्तु कालान्तर में विधर्मी आक्रमणों और रक्षार्थ पलायनों तथा ग्रन्थों के विनाश से यह विद्या विलुप्त प्राय हो गई।  इतने पर भी ब्रज तीर्थों सम्बन्धी अमूल्य सामग्री सबसे अधकि माथुरों के घरों में है।  श्री उद्धवाचार्य देव महाराज तथा महाराज तथा श्रीजवाहर तिवारी श्री छंगालालजी मिहारी के अमूल्य ग्रन्थ इस ज्ञान के लिये अनमोल हैं, जो अभी तक हतो प्राप्त हैं ही।  बाराह पुराण का प्राचीन मथुरा माहात्म्य खण्ड 29 अध्यायों में एक प्राचीन अनमोल ब्रज ज्ञान का विश्वकोष है जो अपने प्रकाशन की ओर उत्सुक दृष्टि लगाए हुए है।
 
इन तीर्थों का ज्ञान माथुर ब्राह्मणों को ही था किन्तु कालान्तर में विधर्मी आक्रमणों और रक्षार्थ पलायनों तथा ग्रन्थों के विनाश से यह विद्या विलुप्त प्राय हो गई।  इतने पर भी ब्रज तीर्थों सम्बन्धी अमूल्य सामग्री सबसे अधकि माथुरों के घरों में है।  श्री उद्धवाचार्य देव महाराज तथा महाराज तथा श्रीजवाहर तिवारी श्री छंगालालजी मिहारी के अमूल्य ग्रन्थ इस ज्ञान के लिये अनमोल हैं, जो अभी तक हतो प्राप्त हैं ही।  बाराह पुराण का प्राचीन मथुरा माहात्म्य खण्ड 29 अध्यायों में एक प्राचीन अनमोल ब्रज ज्ञान का विश्वकोष है जो अपने प्रकाशन की ओर उत्सुक दृष्टि लगाए हुए है।
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बज्रनाभ शासन
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3044 वि0पू0 महाभारत के पश्चात् 3048 वि0पू0 में यादव कुल विनास के बाद ही अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के पौत्र बज्रनाभ को मथुरा लाकर उन्हें मथुरा जनपद का शासक बनाया गया।  इसी समय परीक्षित भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाये गये।  पाँडवों के राजधानी परिवर्तन से इन्द्रप्रस्थ और खांडव प्रस्थ अरर्क्षित महत्व हीन बन यये तब परिक्षित ने अपनी प्रजा मथुरा के माथुरा जो जरासंध के भय से इन्द्रप्रस्थ पांडवों की रक्षा में चले गये थे उन्हें लाकर मथुरा में बसा दिया।  माथुरमहाराज बज्रनाभ के आने से प्रसन्न थे, उन्होने बज्रनाभ को गोवर्धन के निकट पुरातन वृन्दावन कुसुम सरोवर वन में भक्ति आराधना उत्सव करने को प्रेरित किया, तथा उन्हें श्री कृष्ण के जीवन सम्बन्धी सभी स्थल दिखाकर उनमें कदमखण्डी वन, उपवन, सरोवर, देवालय आदि बनाने को प्रयत्नशील किया।  मथुरा जनपद ने पुन: नया सांस्कृतिक जीवन आया किन्तु यह अधिक समय तक टिक कर नहीं रह सका। मागध जरासंध वंशज सृतजय राजा ने बज्रनाभ वंशज शतसेन से 2781 वि0पू0 में मथुरा का राज्य छीन लिया।  अव पुन: मथुरा मागधों के चंगुल में थी, तथा मागधों से प्रद्योत शिशुनाग वंशधरों पर होती हुई नन्द ओर मौर्यवंश पर आयी। 
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बुद्धकाल और माथुर
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गौतम बुद्ध का काल 1760 वि0पू0 से 1680 वि0पू0 है तथा उनका मथुरा आगमन काल 1710 वि0पू0 है, यह गुरूकुल काँगड़ी के आचार्य रामदेव जी के निश्चय के अनुसार जो उन्होंने बुद्ध ग्रन्थ महावश, जैन ग्रन्थ स्थाविरावलि, हरवन्श, विष्णु भागवद् आदि पुराणों के आधार पर स्थिर किया है के अनुसार निर्धारित है।  विचार के बाद यह ही मत प्रमाण पुष्ट ज्ञात होता है। आधुनिक पाश्चात्य इतिहास वादी इस काल को 14 या 15 सौ वर्ष नीचे खींच लाते हैं।  जो किसी भी प्रकार स्वीकृत योग्य ज्ञात नहीं होता।  बुद्ध के मथुरा आगमन का अतिपुष्ट संदर्भ हमें तबिबत के गिलगिट बौद्ध मठ से प्राप्त दुर्लभ ग्रन्थ से ज्ञात होता है।  हिन्दी के विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज के लिए अनेक देशों की यात्राऐं कीं, इनमें तिब्बत से उन्हें हजारों प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए, ये ग्रन्थ कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार में सुरक्षित करके रखे गये हैं ।  कलकत्ता विश्व विद्यालय ने इनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सम्पादित कराकर "गिलगिट मैन्युत्कृष्ट" के नाम से प्रकाशित किया है।  इस ग्रन्थ माला के जिल्द 3 भाग 1 पृष्ठ 3 से 17 तक में यह सदर्भ उधृत है।  इसमें माथुर ब्राह्मणों द्वारा महात्मा बुद्ध को सम्मान के साथ भिक्षा अर्पण करने और उनका अतिथि सत्कार करने का महत्व पूर्ण उल्लेख है।  पूरा लेख माथुरों के लिए ज्ञातव्य है।  इसके शब्द हैं "माथुरान् ब्राह्मणान् गृह पतीन् "इस पूरे लेख को मथुरा संग्राहलय के पुरातत्व के अधिकारी विद्वान श्री कृष्णदत्त बाजपेई ने बृजभारती वर्ष 13 अक्डं 2 में प्रकाशित किया है, जो इस प्रकार हैं ----
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भगवान बुद्ध का माथुरों द्वारा स्वागत सम्मान
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अश्रौषु मथुरा ब्राह्मण गृहपतयों भगवान पिण्डाय प्राविशत देवतया विहेठित: ।।1।। अप्रविशन्नेव मथुरा गर्दभश्च यक्षस्य भवनं गत इति श्रुत्वा च पुन: शुचिन: प्रणीतश्च खादनीय भोजनीस्य प्रत्येक स्थाली पार्क समुपानीय शकटो अरोप्य येन भगवास्तेनोप क्रान्त: ।।2।। उपश्रम्य भगवत: शिरसा वन्दित्वैकान्ते निषण्ठा: ।3।। निषप्ठान् श्रादधान् ब्राह्मण गृह पतीन् भगवान धर्म्ययाक कथया पूर्ववद्यावत् संप्रहर्ष्य तूष्ठीम् ।।4।। अथ श्रद्धा ब्राह्मण ग्रहपतय: उत्थाया सनदिकां समुत्तरासंगं कृत्वा येन भगवान्तेनंजजलि प्रणम्य भगववन्तमिदमवोचत् ।।5।। इहास्मीर्भदन्त भगवन्त मुदिृश्य शुचिन: प्रणीतस्य खादनीय भोजनीयस्स शकटं पूर्ण मानीतम् ।।6।। तद् भगवान् प्रति गृहवातु अनुक म्पयामुपादाय इति ।।7।। तत्र भगवानांनंदमायुष्मन्तमामंत्र्यतो ।।8।। गच्छानंद यावन्तों मिक्षवोगर्दभस्य भवन उपनिश्रित्य विहरन्ति तान् सर्वानुपस्थान शालायां सन्निपातय।।9।। परिभोक्ष्यन्ते पिण्डपातमिति ।।10।। एवं भदन्त इत्यायुष्मानान्दों भगवत: प्रति श्रुत्य यावन्तोमिक्षवो गर्दभस्य यक्षस्य भवन उप निश्रित्य विहरन्ति नान् सवानुपस्थान शालायां सन्निपात्य येन भगवास्तेनोप संक्रान्त: ।।11।। उप संक्रम्य भगवत:  पादौ शिरसा बन्दित्वैकान्ते स्थात् ।।12।। एकान्त स्थित आयुष्मा नानन्दो भगवन्त मिदभोचत् ।।13।। यावन्यो भदन्त भिक्षवो गर्दभस्ययक्षस्य भवन उपनिश्रित्य विहरन्ति सर्वे ते उपस्थान शालायां सन्निषण्ण: सन्निपतिता: ।।14।। यस्येदानी भगवान् कालं मन्यत इति ।।15।। अथ भगवान् तेनोपस्थान शालां तेनोप संक्रान्त: ।।16।। उपसंक्रम्य पुरस्ताद्भिक्षु संघस्य प्रज्ञप्त एवासने निषण्ण: ।।17।। अथ माथुरा: श्राद्वा ब्राह्मण गृहपतय: सुखौयनिषण्ण बुद्ध प्रमुखंभिक्षुसंघ विडित्वा पूर्व वद्धावद्धौत हस्मपनीत पात्नं भगवत: पुस्तात्तस्थुरायाचमानं चाहु: ।।18।। भगवता भदन्त ते ते दुष्ट नागा दुष्ट यक्षाश्च विनीता: ।।19।। अयं भदन्त गर्दभ को यक्षोस्माकं दीर्घ रात्रमथ वैरिणां वैरी ।।20।। असपत्नाना सपत्न: ।।21।। अद्रुधानां द्रोन्धा: ।।22।। जातानि जातान्यपत्यान्य पहरति ।।23।। अहेवत भगवान् गर्दभक यक्षं विनयेदनु कम्यामुपादायेति ।।24।। तेन खलु समयेन गर्दकों यक्षस्तस्चा मेव पर्षदि सन्निषष्णो क्भूत् सन्निपतित: ।।25।। तत्र भगवान गर्दभकं यक्ष मामंत्र्यते ।।26।। श्रुणुते गर्दभक ।।27।। श्रुतं में भगवान् ।।28।। श्रुतं ते गर्दभक ।।29।। श्रतं सुगत ।।30।। विरमास्मास्मात्यापाकात् असद् धर्मात् ।।31।। भगवन् समयतोहं विरमामि ।।32।। यदि मामु दिृश्य चातु दिर्शाय भिक्षुसंघाय विहारंकारयन्तिति ।।33।। तत्र भगवान् माथुरान् श्राद्धान् ब्राह्माण गृहपनीनामामं त्र्यते ।।34।। श्रुतं वो ब्राह्मण गृहपतय :।।35।। श्रुतं भगवन् ।।36।। कारयिष्याम: ।।37।। तत्र भगवत गर्दभको यक्ष: पंचशत परिवारों विनीत: ।।38।। श्राद्धै बाह्मिण गृहपतिभिस्तानुदि्दश्य पंच विहार शतानि कारि तानीति ।।39।। एवं शरोयक्षों बनी यक्ष: अलिकावेन्दा मद्या यक्षिणी विनीता ।।40।। अथ भगवता ऋद्ध्या मथुरां प्रविष्यथ: तिमिसिका यक्षिणी पंच शत परिवार युत विनीता ।।41।। तामप्युदिृश्य यक्ष सहस्त्रणी विनीतानि ।।42।। तत्र भगवता सान्तर्वहिर्मथुरा यामर्धतृतियानि यक्ष सहस्त्राणि विनीतानि ।।43।। तान्युदिृश्य श्राद्धै र्वाह्मण गृहपतिभिरर्धतृतीयानि विहार सहस्त्रणि करितानि ।।44।।
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इसका भाषान्तर इस प्रकार है।  भगवान बुद्ध के मथुरा आने पर बड़े 2 भवनों और परिवारों के स्वामी माथुरा ब्राह्मणों ने जब यह सुना कि भगवान बुद्ध भिक्षा के लिये मथुरा में आये हैं और प्रवेश करते समय उन्हें नगर अधिकारी देव (यक्षिणी) ने तिरष्किृत कर लौटा दिया।।1।। इस प्रकार मथुरा पुरी में बिना प्रवेश कियें ही वे गर्दभ यक्ष (गिरधरपुर) के भवन को चल गये इस बात को सुनकर वे पवित्र माथुर ब्राह्मण फिर दूसरी बार पवित्रता से बनाये हुए भोजन पदार्थ और तृप्त होने योग्य पकवानों को हरेक अलग-2 अपने यज्ञ पात्रों में रख-रखकर लाये और फिर उन सबकों गाढ़ाओं में रखकर जिस मार्ग से बुद्ध भगवान गये थे उसी मार्ग से चले ।।2।। वहाँ पहुफच के भगवान के चरणों में शीष झुकाकर प्रणाम करते हुए एक तरफ बैठे हुए श्रद्धा युक्त माथुर ब्राह्मणों गृहपतियों की धर्मचर्या से भगवान बुद्ध भिक्षा गमन से पूर्व की तरह ही परम हर्षित होकर मौन हो उन्हें देखने लगे।।4।। इसके बाद श्रद्धालु नगर के स्वामी वे ब्राह्मण उठक बैठने योग्य आसन अदिकों को ठीक ठाक करके जहाँ भगवान बैठे थे वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर विनय पूर्वक प्रणाम करते हुए एक तरफ बैठ गये, प्रणाम करते हुए प्रभु से इस शप्रकार बोले ।।5।। भदन्त भगवान आपके अर्पण के उद्देश्य से पवित्र यज्ञान्न से बने खाने पीने योग्य पदार्थों से भरा जो यह शकट (छकड़ा) हम लाये हैं यह सामने उपस्थिति है।।6।। इसे प्रभु ग्रहण करें और हमारे ऊपर कृपा दृष्टों करें, ये ही हम चाहते हैं।।7।। यह सुनकर तब वहाँ भगवान बुद्ध अपने शिष्य आयुष्मान आनन्द भिक्षु को बुलाते हैं ।।8।। हे आनन्द जब तक मेरे सारे भिक्षु गण गर्दभ यक्ष के भवन से नकिल कर इधर उधर घूमते जाते हैं तभी तुम उन सबों को बुलाकर उपस्थानशाला में ले आओ।।9।। यहाँ वे सब भिक्षा में आये हुए (पिण्ड पात) प्राप्त भिक्षान्न को भोजन करेंगे।।10।। इस प्रशकार भदन्त प्रभु की बात बड़ी आयु वाले आनन्द भिक्षु ने सुनी और जब भिक्षुगण गर्दभ यक्ष के भवन से घूमने फिरने को बाहर नकिले तभी उन सब को उपस्थान शाला में ले आया जिससे भगवान उनसे चारौ तरफ से घिर गये।।11।।  फिर वह समीप आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम कर एक तरफ बैठ गया।।12।। एक तरफ बैठा हुआ वह आनन्द भिक्षु प्रभु से इस प्रकार कहने लगा ।।13।। हे प्रभु भदन्त जब तक भिक्षुगण गर्दभ यक्ष के भवन से नकिलकर विचरण करें उससे शपूर्व ही मैंने उन्हें उपस्थान शाला में बुला-बुलाकर बैठादिया है।।14।। जिससे अब भगवान अपने अमूल्य समय का उपभोग करें यही मेरा प्रयोशजन हैं।।15।। इसके बाद भगवान बुद्ध ने उस उपस्थान शाला को उनसे भरी हुई देखा ।।16।। फिर वहाँ से चलकर भिक्षु समुदाय के सामने आकर उन्हें विज्ञापिता करते हुए समीप के आसन पर बैठ गये ।।17।। इसके बाद श्रद्धालु ग्रहपती माथुर ब्राह्मण वृन्द भिक्षुसंघ के प्रमुख पुरूष के रूप में प्रधान आसन पर सुख से बैठे हुए भगवान बुद्ध को जानकर पहिले के तरह ही विनय पूर्वक उठकर हाथ धोकर यज्ञ पकवान के पात्रों को लेकर भगवान बुद्ध के सामने आकर खड़े हो गये।  नम्रतापूर्वक याचना करते हुए इस प्रकार कहने लगे ।।18।। हे प्रभु दान्त आपने उन दुष्ट नागों और यक्षों को विनय सम्पन्न किया हैं।।19।। हे प्रभू यह गर्दभ यक्ष बड़ी रात्रियों से हमारा वैरियों का वैरी बना है।।20।। हम बिना सौतेली माताओं वालों का सौतेला भाई बना है।  ।।21।। दिन द्रोह वालों का परम द्रोही यह बना हुआ है। ।।22।। यह हमारी स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न की हुई हमारी शिशु सन्तानों को चुराकर ले जाता है ।।23।। भगवन् आप इस दुखदाई गर्दभ यक्ष को कृपा करके सदाचार युक्त नम्रता में दीक्षित कर लीजिये ।।24।। जिसमें अच्छे समय के संयोग से यह गर्दभ यक्ष और इसकी वह पार्षद सेना भी निरूद्धिग्न होकर उचित रूप से आपकी शरण में प्राप्त हो जाय ।।25।। तब बहाँ भगवान बुद्ध गर्दभक यक्ष को बुलाकर कहते हैं।।26।। हे गर्दभक सुनता हैं।।27।। हे प्रभु मैंने सुन लिया है ।।28।। गर्दभक रे तेने सुन लिया ।।29।। हे प्रभु सुगत मैने सुन लिया।।30।। तो अब इस पाप से खोटे कर्म से दूर हो ।।31।। हे प्रभु यथार्थ है, समय से मैं इस कृत्व से अलग हो जाऊँगा ।।32।। यदि यह लोग मेरे कारण से सारे भिक्षु संघ के लिये चारों दिशाओं में हमारे निवास योग्य बिहार बनवा देगे तो यह मैं करूंगा।।33।।यह सुनकर सहां भगवान बुद्ध नगर के समस्त भवनों के स्वामी, परम श्रद्धालु पूजनीय माथुर ब्राह्मणों को आमन्त्रण देते हैं ।।34।। हे नगर पति ब्राह्मणो आप लोगों ने सुना ।।35।। भगवन् सुना ।।36।। हम ये सब करा देंगे ।।37।। तब वहाँ वह गर्दभक, अपने आप ही से अपने 500 परिवारों सहित भगवान बुद्ध की शरण में आ गया ।।38।। श्रद्धालु ग्रहपति माथुर ब्राह्माणों ने भी उनके लिए उसी प्रकार से 500 विहार बनवा दिये ।।39।। इसी प्रकार से शर नाम का यक्ष बन नाम का यक्ष तथा अलका वैदा, मघा नाम की यक्षणियाँ भी प्रभु की शरण में आ गई , अर्थात् इन सभी ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।।40।। तब बड़े ससारोह के साथ नगर में भगवान को लाकर मथुरा की नगर रक्षिका (कोतवाल) निमिसिका नाम की यक्षिणी भी अपने 500 परिवारों के साथ प्रभु की शशरण में आ गई ।।41।। उनके लिये भी उन माथुर ब्राह्मणों ने पांच सौ बिहार उसी प्रकार बनवाये।।42।। उस समय मथुरा के आस-पास के दूर-दूर तक के साढे तीन हजार यक्ष भगवान की शरण में आ गये।।43।। उन सभी के निमित्त मथुरा के परम उदार श्रद्धालु माथुर ब्राह्मणों ने नगरपति के नाते साढ़े तीन हजार ही बिहारों की रचना कराई।
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बुद्धकाल में मथुरा में वैदकि और शैव, शक्ति , सम्प्रदायों के धुरन्धर विद्वान थे, माथुर ब्राह्मण तो सदाँ से वैदिक और स्मार्त सम्प्रदायों के कट्टर अनुयायी रहे उन पर बौद्ध धर्म का कोई प्रभाव नहीं पढा ।  उस काल में जय मथुरा में बौद्ध धर्म के स्तूप, विहार आदि बने उस समय भी माथुर अपनी परम्परावद्ध वैदिक उपासना पर दृढ़ रहे।  इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध है।  मथुरा में उस समय नीलभूति नाम का वेदान्त वादी विद्धान था उसने बुद्ध को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी किन्तु बृद्ध उससे शास्त्रार्थ करने को उद्यत न हुए।  नीलभूति वीरभद्र शिव का उपासक पाशुपत मत का अनुयायी था और उसका स्थान नगला भूतिया  में था।  बुद्ध से शास्त्रि चर्या का सम्पर्क करने वाला शदूसरा ब्राह्मण महाकात्यापन था।  बवह अवन्ती के राजा का भेजा, हुआ मथुरा आया था, मथुरा में उस समय अवन्ती के राजा चण्ड प्रद्योत का दोहित्नं अवन्तीपुत्र नाम का राजा था।  महाकात्यायन ने भगवान बुद्ध से शास्त्र चर्चा की और उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं ही बौद्ध बन गया।  उसन ेअपने स्वामी की इच्छानुसार तथागत की उज्जयनी चलने को कहा, परन्तु भगवान बुद्ध ने कहा अब वहां मेरी आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं ही इस धर्म का शप्रचार कर सकते ही ।  महाकात्यायन उज्जयनी में धर्म प्रचार करने के वाद फिर मथुरा में आकर हो बस गया।  उसके वंश के ब्राह्मण कटि्या या महाब्राह्मण कहे जाते हैं।  तीसरा ब्राह्मण महादेव माथुर था जिसने अपने धर्म की दृढ़ता का स्वर उठाया था।  महादेव का निवास स्थान महादेव गली मथुरा के नगला पायसा में है।  मथुरा में माथुर ब्राह्मण इस प्रकार प्रभावशाली थे यह कुषाल काल के एक लेख से अभिव्यक्त होता है।  विश्वविख्यात बोद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रजुलस्की लिखता है "मथुरा एक प्रभावशाली ब्राह्मण सम्प्रदाय का केन्द्र बना हुआ था, यह नगर जो कि वास्तव में यहां के ब्राह्मणों का केन्द्र था।  यह क्षेत्र संस्कृति साहित्य का भी एक बड़ा केन्द्र था"इसलिये मथुरा में बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की बुद्धिवादी सभ्यता को अंगीकार किया उसकी रीति परम्परा को ही नहीं, लेकिन कम से कम भारत की शास्त्रीय विचारधारा को उसे मानना ही पड़ा ।  मथुरा में बौद्ध धर्म ब्राह्मण विचार धारा के सम्पर्क में आया और इनसे अपनी रक्षा करने के लिए उसे ब्राह्मण विरोधी कुछ सिद्धान्त मृदु करने पड़े जिनका उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , मथुरा के यह ब्राह्मण माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे।
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बुद्ध का जन्म शिशुनागवंशी बिंबसार के राज्य में हुआ।  शिशुनाग काशी के शेषनाग वंशी थे।  नागों की मारशिंवशाखा का घनिष्ट सम्बन्ध मथुरा और मथुरों से रहा है।  श्री कृष्ण कालीन बृहद्रय वंशीय जरासिंध का राज्य एक हजार वर्ष तक 2044 वि0पू0 तक मथुरा प्रदेश और समस्त उत्तर भारत पर रहा।  समस्त उत्तर भारत को विजय करने के साथ ही जरािसंध वंशीय चक्रवर्ती सम्राट बन गये थे।  इस वंश के बाद 138 वर्ष तक शुनक या प्रद्योत वंश शका राज्य रहा जो 1910 वि0पूर्व को समय था।  प्रद्योत के वाद शुंग राज, फिर पैतासीस वर्ष 1150 वि0पू0 तक कण्व वंश का राज रहा। 
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प्रद्योत शुनक वंश 2011 वि0पू0 से 138 वर्ष फिर शिशुनाग वंश 1873 वि0पू0 से 363 वर्ष, फिर सहापद्मनंद वंश 1511 वि0पू0 से 88 वर्ष, फिर मौर्य वंश 1411 वि0पू0 177 वर्ष, फिर शुग वंश 1274वि0पू0 106 वर्ष फिर कण्व वंश 1162 वि0पू0 से 45 वर्ष, फिर आंध्रभृत्य वंश 1119 वि0पू0 से 153 वर्ष, फिर हालेय वंश 964 वि0पू0 से 303 वर्ष फिर आंभीर वंश 661 वि0पू0 से 98 वर्ष, फिर गर्दभी (गंधारी)  563 वि0पू0 से 130 वर्ष, कंक वंशी (यूनानी डिमेट्रियस का केशस से) 433 वि0पू0 से 144 वर्ष फिर मौनेय यवनगंधारी वंश मोअस कुषाण वंश 179 वि0पू0 से 99 वर्ष फिर भूतनंद वंगिरिवंश (शक क्षत्रप) 80 वि0पू0 से 106 वर्ष फिर मगध का पुरंजय वंश विस्फूर्जितराज 26 वि0पू0 से 7 वर्ष फिर उज्जैन का विक्रमादित्य राज्य 33 विक्रम संचत् बोतने पर भारत गंधार अरब ईरान तक का चक्रवर्ती राजा बना।
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इन सभी कालों और राज्यों में मथुरा की प्रतिष्ठा महत्तापूर्ण रूप से बढ़ी , तथा मथुरा में मौर्य और गुप्त काल में अशोक की राजधानी होने तथा चंद्रगुप्त समुद्र गुप्त की सत्ता का असीम विस्तार होने और कुषाण कनिष्क का यूरोप, एशिया तथा व्यापार विस्तार होने से मथुरा और माथुरों का वैभव और मंदिरों स्तूपों बिहारोकं में असीम स्वर्ण रत्न संचय होने से मथुरा सोने की ,खान बन गई । 
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बुद्ध के गिलगिट लेख से निम्नलिखित, बातें स्पष्ट होती हैं---
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1. माथुर समस्त मथुरा और उससे दूर-दूर तक के प्रदेश के एक मात्र स्वामी थे।
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2. उनके पास पर्याप्त धन दूसरे लोगों के लिये देने को थी, तभी वे 500 और 3500 बिहार यक्षों को बिना संकोच शीघ्र ही बनवा सके।
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3. मथुरा का राजा अवन्ति पुत्र नाम मात्र का राजा था वह बौद्ध होते हुए भी नगर यक्षियों को बुद्ध का प्रवेश रोकने से निषेिधत न कर सका ।
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4. माथुरों का ही मथुरा पर सत्तात्मक प्रभाव भी था जिससे वे पूर्ण सत्कार का सामान लेकर सामूहिक रूप से बुद्ध के पास गये। 
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5. माथुर उदार साहसी अतिथि सत्कार परायण दयालु तथा मथुरा के उच्च महत्व की कीर्ति के लिए सब प्रकार सचेत थे।
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6. उनमें स्वधर्म पर दृढता के साथधर्म की तुच्छ भेद-भाव की भावना न थी।  वे किसी भी धर्म के किसी तप त्याग साधना और निष्ठा से कार्य करने वाले व्यक्ति को आदर की दृष्टि से देखते थे।
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7. वे स्वयं अपने वेद पुराणोक्त सनातन धर्म पर अडिग दृढ़ निष्ठावान थे।  वे बौद्ध नहीं बने भगवान तथागत को भी उनसे अपने धर्म में दीक्षित होने की बात करने का साहस नहीं हुआ। तथा वे सब जानते हुए भी उनकी प्रशस्ति समादर श्लावा करते रहे और उनकी प्रदन भिक्षा बड़े प्रेम और आदर से स्वीकार की । 
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8. वे अपने मन में स्थापित मथुरा के कुत्तों यक्षों आदि के सभी के सभी कटु अनुभवों को भूलकर माथुरों के स्नेह से बहुत समय और कई बार फिर उन मथुरा और इस भूमि का वास्तवकि आनन्द उपलब्ध किया।
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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की यह एक महान चारित्रिकता और सत्य धर्म निष्ठा मानव प्रेम  की विशुद्धता की अद्वितीय गरिमामयी प्रशस्ति गाथा है जिसकी दूसरी तुलना इतिहास में नहीं है।
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इतिहास विमर्ष कर्ताओं का यह मत है कि मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के उदार विचारां से प्रभावित होकर बुद्ध भगवान ने वेदों ब्राह्मणों और यज्ञयगदि का खंडन त्याग किया और उनके धर्म के हीनयान महायान ब्रजयान आदि तंत्र-मंत्र पूजा उत्सव शाक्त तंत्र साधना आदि के लिए समर्पित बनने लगे।  तथा विरोधों को शान्त होता देखकर उनके प्रधान तथागत भगवान को विष्णु के दस अवतारों में स्थान दे दिया जो सारे भारत के धार्मिक जनों मैं निर्विरोध मान्य हो गया।

११:५६, ३० जून २००९ का अवतरण

माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

श्रीकृष्ण काल

3114 वि0पू0 मेंदेवाधिदेव सोलह कला परिपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीकृष्ण के पूर्वज सभी यादव (जादों ठाकुर) मथुरा के माथुर चतुर्वेदियों के परम निष्ठावान भक्त रहे हैं। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्म मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर उग्रसेन महाराज के संरक्षण में माथुरों के शपुर में निवास करती थीं। इनकी बड़ी शाखा कुकर शाखा के पौरोहिहत्य के कारण एक शाखा अभी भी ककोर सरदार कही जाती है।

श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव वृष्णि शाखा के प्रधान पुरूष थे। महाराज उग्रसैन के भाई देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव के साथ किया गया वसुदेवजी अति रूपवान, ज्ञानवान, नीतिज्ञ, व्यवहृार कुशल और ब्राह्मण भक्त थे, उन्हीं के सम्पूर्ण गुणों का विकास उनके पुत्रों कृष्ण-बलराम में पूर्ण रूप से हुआ। श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण के अवतार थे, उनकी कथा भागवत आदि सभी पुराणों में कही गई है।

बालक श्रीकुष्ण कंस के भय से जन्मते ही नन्द के गोकुल में पहुँचा दिये गये, तथा दूसरे पुत्र बलराम जो वसुदेव पत्नी रोहिणी से नन्द गोप के घर महावन में उत्पन्न हुए थे- दोनों भाई अत्याचारी कंस से बचकर अनेक मनोहारी लीलायें करते हुए गोकुल में गर्गाचार्य और माथुर शाँडिल्य मुनि तथा धौम्यजी द्वारा प्रारम्भिक जाति कर्मादि संस्कार हुए। पाँच वर्ष गोकुल में रहकर नन्दजीं उन्हें कंस कंस से दूर गोवर्धन, वृन्दावन, काम्यवन, नन्दग्राम के मूल ब्रज क्षेत्र में ले गये।

नन्द के संरक्षण में श्रीकृष्ण-बलराम बारह वर्ष तक रहे। उन्होंने देवपुरी मथुरा के गायों शके चराये जाने के क्षेत्र ब्रज मण्डल में अनेक अद्भुत् लीलाएँ दिखाकर ब्रज के गोप-गोपियों को अपने बस में कर लिया। यद्यपि दोनों भाई ब्रज में अनेक प्रकार के बिहार-क्रीड़ायें करते थे, तो भी उन्हें वारम्बार अपनी जन्मस्थली मथुरा अपने प्रिय माता-पिता और परम पूज्यनीय माथुरों गुरूओं की याद सताती रहती थी। गौड़ीय भक्तों ने उनकी ब्रज निवास काल में मनोव्यथा उत्पन्न करने वाली दशा को "माथुरी विरह अवस्था " कहकर वर्णन .किया है। 12 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने पर वे मथुरा के विरह को सहन नहीं कर सके, और तब कंस के आयोजित कपटपूर्ण धनुष यज्ञ महोत्सव को जानते हुए भी अक्रूर के साथ ब्रज का मोह परित्याग कर वे मथुरा आ गये।

इस समय मथुरा के माथुरों और प्रजाजनों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया इसका वर्णन महात्मा सूरदासजी ने अपने एक पद में बड़े आकर्षक ढंग से किया है- "भूषन बखन विचित्र सजे हैं, सोभित सुन्दर अंग।। "कर पंकज नफूल की माला, उरभैंटे नन्द नन्द।। " मथुरा हरखित आजु भई। ज्यौ चुवती पति आवत सुनि कै, पुलकन अंग मई।। नव सजि साजि सिंगार सुन्दरी, आतुर पंथ निहारति। उड़त धुजा तम सुरति विसारै, अंजल उर ने सम्हारति । उरज प्रगट महलजन के कलसा, फूले बन तन सारी। ऊँचे अटनि कंगूरा सोभा, सीस उचाई निहारी। जाल रंध्र इकटक हरि देखत, किंकिनि कंचन दुर्ग । बैंनी लसत महा छवि वारी, महलन चित्रित उर्ग। बाजत नगर बाजने जहाँ तहाँ टघां धुनि घटियार। सूर श्याम बनिता लौं चंचल, पग नूपुर झनकार।। मथुरा की गली और राजमार्ग फूलों से सजाये गये, माथुरी नारियाँ अटा अटारियों, गवाक्षों और छज्जों पर सजधज कर उन्हें देखने को बैठ गई। फूलों की बर्षा की गई। यह मेला मथुरा का आज भी सबसे बड़ा साँस्कृतिक महोत्सव है। माथुर ब्राह्मणों की टोलियाँ राजसी वस्त्रों से सज्जित होकर मोटे-मोटे लट्ठ लेकर कंस को कूुटकर कृष्ण बलराम को साथ लेकर मथुरा नगर में प्रविष्ट होते हैं। अपनी ऐतिहासिक साखियों में वे आनन्द से उन्मत्त नृत्य करते हुए नाचते और गाते हुए कहते जाते हैं "कंसैभार मधुपुरी आये, अगर चन्दन ते अँगन लियासे, गजमुतियन के चौक शपुराये, सब सखान मिल मंगल गाये, कंसा के घर के घबराये, सूरसैन ......सूरसैन........हम सूरसैन.....। कृष्ण बलराम तब विश्राम घाट पर आते हैं माथुर चतुर्वेदी मिहारी सर्दारों की गोद में विराजते हैं, और वहाँ विजय आरती की जाती है। वहाँ से वे माथुर महापुरूषों के घर ही जाता हैं। मथुरा में कंस बध से पूर्व नन्द जी के साथ आने पर भी वे माथुरों की बगीचीयों पर ही ठहरे थे। गोपनीय परामर्ष किया था और माथुरों के साथ यमुना स्नान करके रँगभूमि में पधारे थे। दोनों भाइयों का यज्ञोपवीत भी माथुर महर्षियों धौम्य आदि ने ही कराया था। माथुरों के आँगिरस सत्र में यज्ञान्न की याचना माथुरो की वैदिक यज्ञ निष्ठा की दृढ़ता की परीक्षा तथा माथुरी यज्ञपत्नियों द्वारा कृष्ण बलराम की सखाओं समेत मधुर, रसीले, यज्ञान्न से तृप्ति कराने और दोनों भाइयों द्वारा संतुष्ट होकर ब्राह्मणों को बरदान देने की की बात सर्व विदित है जो भागवद् में विस्तार से वर्णित है। श्रीकृष्ण ने माथुरों को तब बरदार दिया था---

चे ब्राह्मण वंश जाता, युष्माकं वै सहस्त्रश:। तेषां नारायणे भक्ति भविष्यति कलौ युगे।। जो माथुर ब्राह्मण ब्राह्मणों के असली कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा उनमें जो आप लोगों के हजारों पुत्र पौत्र आदि वंशधर हैं उनमें आगे कलियुग में नारायण की उत्तम भक्ति बनी रहेगी। पांडवों का यज्ञोपतीय भी अपने पुत्रों के बाद मथुरा में वसुदेव जी नेही माथुर गुरू धौम्य जी द्वारा कराया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार चतुर्वेदी ब्राह्मण नौकोटि श्री कृष्ण वलराम और नन्द जी के साथ ब्रजब्रन्दावन (कामवन) गये थे। वे उनके साथ रहते थे तथा आसुरी उपद्रव होने पर बालक श्री कृष्ण वलराम की रक्षा हेतु नारायण कवच सुदर्शन मन्त्र गो पुच्छ प्रक्षालन आदि कराकर रक्षा प्रयोग करते थे। पुत्रों के यज्ञोपवीत उत्सव में श्रावसुदेव जी ने वेदज्ञ ब्राह्मणों को सम्मान के साथ तृप्ति कर भोजन कराया था। श्री कृष्ण के पुत्र सांव ने सूर्य सिद्धि के बाद माथुरों को भोजन कराया उसमें अनेक पकवान बनाये गये थे --- पूपकांश्च विचित्रा वै, मोदकांश्च धृतप्लुता:। पायसं कृशरं चैव दध्यान्नेन समन्वितम्।। माथुरों में इनका आश्रम गर्गतीर्थ तथा ब्रज के भांगरौली में इनकी जागीरदारी थी। यादवों के ज्योतिषी गर्गाचार्य थे। ये राजस्थान (मत्स्य देश) वासी घघ्घर नदी तट वासी थे, किन्तु विद्या उपलब्धि के लिये ये माथुरों के शिष्य बनकर मथुरा मन्डल में रह रहे थे। अपनी रचना गर्ग संहिता में ब्रह्म भक्ति के साथ इनने श्री यमुना महाहरानी का पंचांग स्तोत्र पटल सहस्त्रनाम कवच आदि माथुरों का प्रदत्त स्थापित किया है। यमुना सहत्रनाम में भी इनने अपने गुरूओं को सुद्विजायैनम:, मथुरा तीर्थ वासिन्यै नाम: विश्रान्त वासिन्यैनम: असिकुन्ड गतायै नाम: ।।247।। कहकर आदणीय पद दिया है। कंस मारकर श्री कृष्ण वलराम कुबिंद नाम के ब्राह्मण के घर गये थे। माथुरों में "कोवीराम के " वंशजों का परिवार अभी भी वर्तमान है। माथुर कलीय नाग (कश्यप वंशज कद्रु पुत्रों) नाग कुलों के भी पुरोहित और पूजित थे। यह वंश मथुरों के "कोरनाग तिवारी" नाम से ख्याति प्राप्त है। माथुरों ने ही जरासंध से रक्षा और कृष्ण वलराम की दृढ़ स्थिति मथुरा में बनाये रखने को नगर के चारों ओर एक एक मुट्ठी (एक पल्लू) धूलि डालकर धूलकोट की रचना की थी तथी से ये रज के धुरैरा लगाने और रज प्रसाद देने लगे श्रमरज के महत्व प्रतिष्ठाता बन गये--- मुठी धूर लै कृष्णा हेतु जरा संघ लखि चोट। मथुरा की रक्षा करी, धूर कोट की ओट।। माथुर युद्ध विद्या के धनुर्विद्या और अश्वारोहण सैन्य विद्या के आचार्य भी थे। यवन (यूनानी अरब) तथा कम्बोज (कम्बौडिया) के कामभुज वीरों को अश्वारोहण की युद्ध कुशलता मथुरा के आचार्यों से ही मिली थी। तथा यवन कम्बोजा मथुरा मभिगताश्च ये । एतेश्व युद्ध कुशला वभूबु द्विज सेवया।। अर्थात यवन, कम्वोज आदि आसुर योद्धा भी मथुरा के शिष्य बनकर माथुर द्विजों की कृ पा से ये सबके सब युद्व कुशल बन गये। माथुर धौम्य ऋषि श्रीकृष्ण के यज्ञोपवीत संस्कार कर्ता थे तथा श्रीकृष्ण ने ब्रह्मविद्या, उपनिषद् ज्ञान, कण्व आंगिरस से प्राप्त किया था- एतत् घोर अंगिरसों कृष्णायदेवकी नंदनायोक्तोवाच, तेनैव स आपेपास एव वभूव ।। यह ब्रह्मविद्या श्रीकृष्ण को आंगिरस ऋषि (माथुर कुल गोत्रीय) ने दी, जिसे अमृत समान पीकर वे पिपासा रहित बन गये। वैदिक "यमुना सूक्त" के प्रमाण से श्रीकृष्ण –वलराम, वेदव्यास, भीष्म , शान्तनु आदि सभी यमुना भक्त और माथुरों के पूजक थे। पांडव रक्षा पांडव मथुरा के दौहित्र थे। पृथा माथुरों की परम निष्ठावान यजमान थीं। माथुर आत्नेय दुर्वासा ने ही उसे देवहूति विद्या दी थी, जिससे देवों का आवाह्न करके उसने 5 पुत्र धर्म, इन्द्र, वायु, अश्विनी कुमारो से प्राप्त किये थे। पांडु और भीष्म तथा विदुरजी भी इन्हें ही पाचों पांडु पुत्रों का परम हितैषी और संरक्षक मानते थे। अत: महर्षि धौम्य ने पांडवों की मन्त्र प्रयोगों के द्वारा रक्षा करके तथा संस्कारादि द्वारा ओमवर्धन ने किया था। महाराजा शान्तनु की राजधानी गजाह्वपुर (गजापाइसा) तथा आश्रम स्थल उपवन शान्तनु सरोवर मथुरा में ही है। यहीं शान्तनु पत्नी सत्यवती का (सतोहा) पुर भीष्म माता गंगा (जान्हवी) का जन्हुकूप महात्मा भीष्म का (भीष्म गढ) तथा विदुर का (विदुराश्रम) है। महर्षि वेद व्यास (कृष्ण द्वैपायन व्यास) वशिष्ठ गोत्रीय माथुर की कृपा युक्त संयुक्ति से शपांडु, धतराष्ट्र और विदुर का जन्म मथुरा में ही हुआ था, तथा इन्हीं के संरक्षण और निर्देशशन में पांडव पूर्ण महाप्रयासी बनकर कौरवों पर विजय प्राप्त कर सके थे। महर्षि वेदव्यास यह निर्विवाद सत्य है कि भारतीय तत्व दर्शन और विश्व साहित्य के सर्वोपरि ज्ञान-विज्ञान और शास्त्रीय साहित्य, वेद विभाजन, वेदान्त सूत्र (ब्रह्मसूत्र) 18 पुराण, महाभारत, प्रधानत: श्रीमद् भागवत महापुराण के कर्ता वेद व्यास मथुरा के वशिष्ठ गोत्रिय माथुर चतुर्वेदी ही थे। उनका साधना तीर्थ निवास आश्रम कृष्णगंगा तीर्थ (घाट) विश्व में सर्वोपरि ज्ञानपीठ था। व्यासजी के सम्बन्ध में शोध पुस्तिका कृष्ण गंगा विषयक प्रकाशित और वितरित हो चुकी है, जिसे जिज्ञासुजन देख समझ सकते है। भारतवर्ष तथा विदेशों अमरीका, रूस, जर्मन, आदि के शाध विद्वान इन तथ्यों को सुनिश्चित और प्रमाणपुष्ट आधार युक्त मान चुके हैं। विश्व के गहन शचिन्तक प्राय: सभी यह मानते हैं कि विश्व मानव के भिन्न-भिन्न वंशों और भारत, एशिया, यूरोप, अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि द्वीपों महाद्वीपों के निवासियों के जन्मदाता महात्मा कश्यप ही थे। उनकी अनेक पत्नियों से अनेक मानव आतियाँ उत्पन्न हुई और सारे विश्व में फैलकर बसीं । इन महात्मा कश्यप का धौम्य कुल माथुरा था, तथा सूर्य पुत्री श्रीयमुनाजी इनकी भरणकत्री स्नेहमयी माता थीं । कश्यप का उपस्थान ब्रज का सहपऊ (कश्यप उपस्थान) हैं। कश्यप वंश में 12 आदित्य, इन्द्र देव, मरूतगण, वामन प्रभु, महात्मा प्रह्लाद , गरूड़ (हरि वाहन) शेषजी आदि नाग, मनु परम्परा के सभी राजर्षि उत्पन्न हुए हैं, शजो धौम्य गोत्रिय माथुर विप्रों के वंश बन्धुजन ही हैं। माथुरों का श्रीकृष्ण प्रेम मथुरा के माथुर ब्राह्मणों का दिव्य स्वरूप, ज्ञान , वैराग्य, त्याग और तपोमय रहा है। इनकी गहवधूटियाँ माथुरी देवियाँ भक्ति स्नेह कृपा और वात्स यमयी कृष्णभक्ति की साकार मूर्तियाँ रही हैं। गोपाल तापिनी के उत्तर तापिनी के उत्तर तापिनी खण्ड में इनकी एक गरिमामयी गाथा हैं। उपनिषद् जो अथर्व वेद का अंग हैं उसमें उपनिषद कर्ता लिखते हैं- एक दिन मथुरा ब्रज केन्द्र की भक्त नारियाँ अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु किये गये कार्तकि यमुना स्नान हेतु रात्रि गये प्रात: ही उठकर स्नान करके राधा दामोदर पूजकर सर्वेश्वर गोपाल कृष्ण के घर उनके दर्शन को गयीं। तथा वहाँ मथुरेश देवकी नन्दन से उन्होंने प्रश्न किया- "हे लाला कार्तिक नहाकर किस ब्राह्मण को भोजन देना चाहिये । श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर कहा - "दुविसा को"। कन्हैया की आज्ञा पाकर उन्होंने उत्तम पायस आदि भक्ष्य भोज्य उत्तम पदार्थ दुर्वासा मुनि को अर्पण किये। तृप्त करके भोजन कराये। जाने लगीं तब उनमें यूथ सुख्या जो गान्धर्वी नाम की मुनि पत्नी थी वह दुर्वासाजी से पूछने लगी - "प्रभो हम यमुना पार शकर अपने घर को कैसे जायें" दूर्वासा ने कहा - "कहना यदि दुर्वासा दूर्वाहारी है तो यमुना हमें मार्ग दो" आने की बात पूछने पर उन्होंने दुर्वासा को बतलाया – हमसे श्रीकृष्ण ने कहा था, यमुना से कहना यदि कृष्ण बाल ब्रह्मचारी है शतो यमुना हमें मार्ग दो" दुर्वासा यह सुनकर मुस्कराये- "अच्छा ठीक है जाओं चलते समय वे आपस मैं विचार करने लगीं - "कथं कृष्णों ब्रह्मचारी कयं दूर्वाससोमुनि: " सखियों कैसे आश्चर्य की बात है – हमारी समझ में यह बात नहीं समा रही कि कैसे तो कृष्ण ब्रह्मचारी हैं और ये ढेरौं पदार्थ भोजी दुर्वासा कैसे दूर्वाआहारी मुनि हो सकते हैं।" मुनि दुर्वासा ने यह जाना और उन्हें वापिस बुलाकर श्रीकृष्ण शके स्थित प्रज्ञ रूप का और अपने लोक निस्पृहरूप का योगरूप समझाया। कहना शनहीं होगा कि मथुरा की ये ब्रजस्त्रियाँ, गोपिकायें ऋषि पत्नी माथुर महाभागा दिव्य देवियाँ ही थी। गान्धर्वी उनके यूथ की प्रमुखा थी। रूप गुण में वह गन्धर्व कन्था समाज श्रेष्ठ होने से गान्धर्वी नाम से युक्त थीं। माथुर नारियों में अप्छर, रूपों, चन्दा, लछमी, सरसुती, सुन्दर, अनौखी, ऊछर, मोहनी, ठानी (पठानी), मुगलों, तारो (तातारी) आदि नाम गुण और रूप के प्रतीक हुआ करते थे। इस सम्वाद से माथुरी देवियों का श्रीकृष्ण मेंउत्कट स्नेह, अविचल भक्तिभाव धर्मआचरण और तत्व जिज्ञासा तथा महापुरूषों में महान श्रद्धा का अच्छा पशरिचय मिल जाता है जो उपनिषद और वेदकालीन होने से अति विश्वस्त है। द्वारिका प्रवास 3089 वि0पू0 में श्रीकृष्ण बलराम ने समस्त यादवों और प्रजाजनों के साथ मथुरा से द्वारिका का प्रसास किया। मगधराज जरासंध कंस का श्वसुर था। पुत्रियों के के रूदन से क्रुद्ध हो उसने मथुरा को और भारत के समस्त यादवकुलों को विनष्ट करने का उसने प्रण किया। अपनी शक्ति के मद से उसे सम्पूर्ण भारत विजय कर चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा थी । उसने अंग, बंग, कर्लिगं, काशी , कोशल, विदेह, अवध आदि विजय कर मथुरा पर बड़ी चढ़ाई की तथा यमुना पार जरारा क्षेत्र में सेना शिविर स्थापित कर मथुरा पर 17 बार आक्रमण किये। श्रीकृष्ण की छलयुद्व विद्या ने अल्प सेना होने पर भी उसकी दल-वादल सी विपुल सेना को अपनी शंखनाद सेना, चक्राघात सेना, गदा युद्ध सेना, पद्मपोषक सेनाओं के प्रहारों से बहुत अधिक क्षति पहुँचायी और उसके भारत विजय के महान मनोरथ को चूर्ण कर दिया। अन्त में उसने यवन जाति क ेमलेच्छ (मलेशियन) यराजा काल यवन को आमन्त्रित कर उसके सहयोरू से मथुरा पर एक बड़ा आक्रमण करहने की तैयारी थी। श्रीकृष्ण इस भेद को जान गये और यादवों माथुरों और गोप ग्बाल ब्रज सखाओं का जनपदीय विनाश बचाने के लिये उन्होंने विश्बकर्मा देव शिल्पी (कमई करहला वाली) को बुलाकर समुद्र तट पर बृष्णि यादवों की अपनी पुरानी राजधानी कुश स्थली (प्रभास पत्तन) के समीप एक नया जल दुर्ग तथा शतद्वार युक्त द्वारिका नाम की पुरी निर्माण करने की उसे आज्ञा दी । इस निर्माण में उन्होंने मथुरा का सारा संचित सुवर्ण रत्न भण्डार, कलाकृतियां अमूल्य वस्तुयें द्वारिका पहुंचाया। 5 वर्ष में पुरी का निर्माण किया तथा इसी अवधि में नगर के सुरक्षा चाहने वाले अधिकाँश प्रजाजनों को क्रमश: वहाँ पहुँचा दिया। मथुरा में 32 वर्ष की आयु तक रहकर वे 3080 वि0पू0 में जरासधं के सन्मुख युद्ध में पलायन करते हुए अकेले दोनों भाई द्वारिका चले गये। काल यवन ने पीछा किया उसे मार्ग में ही राजा मुचुकन्द द्वारा मरवा दिया। इस पलायन की राजनीति से मथुरा के माथुर रूष्ट हुए और वे अपने प्राचीन को छोड़कर द्वारिका नहीं गये। उनकी एक शाखा "गुग्गुली" गुगोलिया जो वृष्णियों के अनुचर थे वहाँ बस गये श्रीकृष्ण ने फिर महाभारत से पूर्व ही अपने घोर शत्रु जरासन्ध को छलपूर्वक भीमसेन से द्वन्द युद्व में मरवाया। द्वारिका में माथुरों का फिर भी बहुत मान था। ये यथावसर वहाँ बुलाये और सम्मानित किये जाते थे। मुनि दुर्वासा नारद, आंगिरस आदि बुलाये जाते रहे और विप्र सुदामा को वहीं नया परमदरा (पोरबन्दर) स्थापित कर राज्य दिया गया। श्रीकृष्ण स्वयं भी इन्द्रप्रस्थ जाते समय मथुरा होकर जाते, बे्रजवासियों और माथुरी यज्ञ पत्नियों के दुस्त्यज अनुरोध और आग्रह को रखने के लिए वे प्राय: नगर से दूर-दूर ही सबसे मिल भेंट कर माखन-मिसरी ,खाकर चले जाते थे। श्रीबलराम तो माथुरों के मनमौजी सखा थे। वे निर्भय होकर मथुरा आये। बलभद्र सरोवर पर मल्लयुद्ध अभ्यास किया। अपने मूशल को माथुरों के अखाड़ों अभी भी मुगदर जोड़ी के रूप में सुरक्षित हैं घुमायें तथा हल फावड़े से यमुनाजी घारा बलराम घाट पर घुमाई और ब्रज गोपियों के साथ माथुरों की भंग (सोम मधु) का पान कर मदोमत्त रास-विलास किया। बाराह पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण ने माथुरों की अजीव्य वृति को चिरतन रखने और मथुरापुरी का महान से महानतम गौरव स्थिर रखने तथा इस द्युलोक ब्रह्मर्षि देश की पुरातन संस्कृति के स्मारक चिह्न रूप ढाई हजार तीर्थ निर्माण किये --- कृष्णेन निर्मितास्तीथाँ सार्धद्वप सहस्त्रधा । हिरण्य धेनु दानेन मम लोके महीयते ।। इन तीर्थों का ज्ञान माथुर ब्राह्मणों को ही था किन्तु कालान्तर में विधर्मी आक्रमणों और रक्षार्थ पलायनों तथा ग्रन्थों के विनाश से यह विद्या विलुप्त प्राय हो गई। इतने पर भी ब्रज तीर्थों सम्बन्धी अमूल्य सामग्री सबसे अधकि माथुरों के घरों में है। श्री उद्धवाचार्य देव महाराज तथा महाराज तथा श्रीजवाहर तिवारी श्री छंगालालजी मिहारी के अमूल्य ग्रन्थ इस ज्ञान के लिये अनमोल हैं, जो अभी तक हतो प्राप्त हैं ही। बाराह पुराण का प्राचीन मथुरा माहात्म्य खण्ड 29 अध्यायों में एक प्राचीन अनमोल ब्रज ज्ञान का विश्वकोष है जो अपने प्रकाशन की ओर उत्सुक दृष्टि लगाए हुए है।

बज्रनाभ शासन 3044 वि0पू0 महाभारत के पश्चात् 3048 वि0पू0 में यादव कुल विनास के बाद ही अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के पौत्र बज्रनाभ को मथुरा लाकर उन्हें मथुरा जनपद का शासक बनाया गया। इसी समय परीक्षित भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाये गये। पाँडवों के राजधानी परिवर्तन से इन्द्रप्रस्थ और खांडव प्रस्थ अरर्क्षित महत्व हीन बन यये तब परिक्षित ने अपनी प्रजा मथुरा के माथुरा जो जरासंध के भय से इन्द्रप्रस्थ पांडवों की रक्षा में चले गये थे उन्हें लाकर मथुरा में बसा दिया। माथुरमहाराज बज्रनाभ के आने से प्रसन्न थे, उन्होने बज्रनाभ को गोवर्धन के निकट पुरातन वृन्दावन कुसुम सरोवर वन में भक्ति आराधना उत्सव करने को प्रेरित किया, तथा उन्हें श्री कृष्ण के जीवन सम्बन्धी सभी स्थल दिखाकर उनमें कदमखण्डी वन, उपवन, सरोवर, देवालय आदि बनाने को प्रयत्नशील किया। मथुरा जनपद ने पुन: नया सांस्कृतिक जीवन आया किन्तु यह अधिक समय तक टिक कर नहीं रह सका। मागध जरासंध वंशज सृतजय राजा ने बज्रनाभ वंशज शतसेन से 2781 वि0पू0 में मथुरा का राज्य छीन लिया। अव पुन: मथुरा मागधों के चंगुल में थी, तथा मागधों से प्रद्योत शिशुनाग वंशधरों पर होती हुई नन्द ओर मौर्यवंश पर आयी।

बुद्धकाल और माथुर गौतम बुद्ध का काल 1760 वि0पू0 से 1680 वि0पू0 है तथा उनका मथुरा आगमन काल 1710 वि0पू0 है, यह गुरूकुल काँगड़ी के आचार्य रामदेव जी के निश्चय के अनुसार जो उन्होंने बुद्ध ग्रन्थ महावश, जैन ग्रन्थ स्थाविरावलि, हरवन्श, विष्णु भागवद् आदि पुराणों के आधार पर स्थिर किया है के अनुसार निर्धारित है। विचार के बाद यह ही मत प्रमाण पुष्ट ज्ञात होता है। आधुनिक पाश्चात्य इतिहास वादी इस काल को 14 या 15 सौ वर्ष नीचे खींच लाते हैं। जो किसी भी प्रकार स्वीकृत योग्य ज्ञात नहीं होता। बुद्ध के मथुरा आगमन का अतिपुष्ट संदर्भ हमें तबिबत के गिलगिट बौद्ध मठ से प्राप्त दुर्लभ ग्रन्थ से ज्ञात होता है। हिन्दी के विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज के लिए अनेक देशों की यात्राऐं कीं, इनमें तिब्बत से उन्हें हजारों प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए, ये ग्रन्थ कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार में सुरक्षित करके रखे गये हैं । कलकत्ता विश्व विद्यालय ने इनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सम्पादित कराकर "गिलगिट मैन्युत्कृष्ट" के नाम से प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ माला के जिल्द 3 भाग 1 पृष्ठ 3 से 17 तक में यह सदर्भ उधृत है। इसमें माथुर ब्राह्मणों द्वारा महात्मा बुद्ध को सम्मान के साथ भिक्षा अर्पण करने और उनका अतिथि सत्कार करने का महत्व पूर्ण उल्लेख है। पूरा लेख माथुरों के लिए ज्ञातव्य है। इसके शब्द हैं "माथुरान् ब्राह्मणान् गृह पतीन् "इस पूरे लेख को मथुरा संग्राहलय के पुरातत्व के अधिकारी विद्वान श्री कृष्णदत्त बाजपेई ने बृजभारती वर्ष 13 अक्डं 2 में प्रकाशित किया है, जो इस प्रकार हैं ----

भगवान बुद्ध का माथुरों द्वारा स्वागत सम्मान अश्रौषु मथुरा ब्राह्मण गृहपतयों भगवान पिण्डाय प्राविशत देवतया विहेठित: ।।1।। अप्रविशन्नेव मथुरा गर्दभश्च यक्षस्य भवनं गत इति श्रुत्वा च पुन: शुचिन: प्रणीतश्च खादनीय भोजनीस्य प्रत्येक स्थाली पार्क समुपानीय शकटो अरोप्य येन भगवास्तेनोप क्रान्त: ।।2।। उपश्रम्य भगवत: शिरसा वन्दित्वैकान्ते निषण्ठा: ।3।। निषप्ठान् श्रादधान् ब्राह्मण गृह पतीन् भगवान धर्म्ययाक कथया पूर्ववद्यावत् संप्रहर्ष्य तूष्ठीम् ।।4।। अथ श्रद्धा ब्राह्मण ग्रहपतय: उत्थाया सनदिकां समुत्तरासंगं कृत्वा येन भगवान्तेनंजजलि प्रणम्य भगववन्तमिदमवोचत् ।।5।। इहास्मीर्भदन्त भगवन्त मुदिृश्य शुचिन: प्रणीतस्य खादनीय भोजनीयस्स शकटं पूर्ण मानीतम् ।।6।। तद् भगवान् प्रति गृहवातु अनुक म्पयामुपादाय इति ।।7।। तत्र भगवानांनंदमायुष्मन्तमामंत्र्यतो ।।8।। गच्छानंद यावन्तों मिक्षवोगर्दभस्य भवन उपनिश्रित्य विहरन्ति तान् सर्वानुपस्थान शालायां सन्निपातय।।9।। परिभोक्ष्यन्ते पिण्डपातमिति ।।10।। एवं भदन्त इत्यायुष्मानान्दों भगवत: प्रति श्रुत्य यावन्तोमिक्षवो गर्दभस्य यक्षस्य भवन उप निश्रित्य विहरन्ति नान् सवानुपस्थान शालायां सन्निपात्य येन भगवास्तेनोप संक्रान्त: ।।11।। उप संक्रम्य भगवत: पादौ शिरसा बन्दित्वैकान्ते स्थात् ।।12।। एकान्त स्थित आयुष्मा नानन्दो भगवन्त मिदभोचत् ।।13।। यावन्यो भदन्त भिक्षवो गर्दभस्ययक्षस्य भवन उपनिश्रित्य विहरन्ति सर्वे ते उपस्थान शालायां सन्निषण्ण: सन्निपतिता: ।।14।। यस्येदानी भगवान् कालं मन्यत इति ।।15।। अथ भगवान् तेनोपस्थान शालां तेनोप संक्रान्त: ।।16।। उपसंक्रम्य पुरस्ताद्भिक्षु संघस्य प्रज्ञप्त एवासने निषण्ण: ।।17।। अथ माथुरा: श्राद्वा ब्राह्मण गृहपतय: सुखौयनिषण्ण बुद्ध प्रमुखंभिक्षुसंघ विडित्वा पूर्व वद्धावद्धौत हस्मपनीत पात्नं भगवत: पुस्तात्तस्थुरायाचमानं चाहु: ।।18।। भगवता भदन्त ते ते दुष्ट नागा दुष्ट यक्षाश्च विनीता: ।।19।। अयं भदन्त गर्दभ को यक्षोस्माकं दीर्घ रात्रमथ वैरिणां वैरी ।।20।। असपत्नाना सपत्न: ।।21।। अद्रुधानां द्रोन्धा: ।।22।। जातानि जातान्यपत्यान्य पहरति ।।23।। अहेवत भगवान् गर्दभक यक्षं विनयेदनु कम्यामुपादायेति ।।24।। तेन खलु समयेन गर्दकों यक्षस्तस्चा मेव पर्षदि सन्निषष्णो क्भूत् सन्निपतित: ।।25।। तत्र भगवान गर्दभकं यक्ष मामंत्र्यते ।।26।। श्रुणुते गर्दभक ।।27।। श्रुतं में भगवान् ।।28।। श्रुतं ते गर्दभक ।।29।। श्रतं सुगत ।।30।। विरमास्मास्मात्यापाकात् असद् धर्मात् ।।31।। भगवन् समयतोहं विरमामि ।।32।। यदि मामु दिृश्य चातु दिर्शाय भिक्षुसंघाय विहारंकारयन्तिति ।।33।। तत्र भगवान् माथुरान् श्राद्धान् ब्राह्माण गृहपनीनामामं त्र्यते ।।34।। श्रुतं वो ब्राह्मण गृहपतय :।।35।। श्रुतं भगवन् ।।36।। कारयिष्याम: ।।37।। तत्र भगवत गर्दभको यक्ष: पंचशत परिवारों विनीत: ।।38।। श्राद्धै बाह्मिण गृहपतिभिस्तानुदि्दश्य पंच विहार शतानि कारि तानीति ।।39।। एवं शरोयक्षों बनी यक्ष: अलिकावेन्दा मद्या यक्षिणी विनीता ।।40।। अथ भगवता ऋद्ध्या मथुरां प्रविष्यथ: तिमिसिका यक्षिणी पंच शत परिवार युत विनीता ।।41।। तामप्युदिृश्य यक्ष सहस्त्रणी विनीतानि ।।42।। तत्र भगवता सान्तर्वहिर्मथुरा यामर्धतृतियानि यक्ष सहस्त्राणि विनीतानि ।।43।। तान्युदिृश्य श्राद्धै र्वाह्मण गृहपतिभिरर्धतृतीयानि विहार सहस्त्रणि करितानि ।।44।। इसका भाषान्तर इस प्रकार है। भगवान बुद्ध के मथुरा आने पर बड़े 2 भवनों और परिवारों के स्वामी माथुरा ब्राह्मणों ने जब यह सुना कि भगवान बुद्ध भिक्षा के लिये मथुरा में आये हैं और प्रवेश करते समय उन्हें नगर अधिकारी देव (यक्षिणी) ने तिरष्किृत कर लौटा दिया।।1।। इस प्रकार मथुरा पुरी में बिना प्रवेश कियें ही वे गर्दभ यक्ष (गिरधरपुर) के भवन को चल गये इस बात को सुनकर वे पवित्र माथुर ब्राह्मण फिर दूसरी बार पवित्रता से बनाये हुए भोजन पदार्थ और तृप्त होने योग्य पकवानों को हरेक अलग-2 अपने यज्ञ पात्रों में रख-रखकर लाये और फिर उन सबकों गाढ़ाओं में रखकर जिस मार्ग से बुद्ध भगवान गये थे उसी मार्ग से चले ।।2।। वहाँ पहुफच के भगवान के चरणों में शीष झुकाकर प्रणाम करते हुए एक तरफ बैठे हुए श्रद्धा युक्त माथुर ब्राह्मणों गृहपतियों की धर्मचर्या से भगवान बुद्ध भिक्षा गमन से पूर्व की तरह ही परम हर्षित होकर मौन हो उन्हें देखने लगे।।4।। इसके बाद श्रद्धालु नगर के स्वामी वे ब्राह्मण उठक बैठने योग्य आसन अदिकों को ठीक ठाक करके जहाँ भगवान बैठे थे वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर विनय पूर्वक प्रणाम करते हुए एक तरफ बैठ गये, प्रणाम करते हुए प्रभु से इस शप्रकार बोले ।।5।। भदन्त भगवान आपके अर्पण के उद्देश्य से पवित्र यज्ञान्न से बने खाने पीने योग्य पदार्थों से भरा जो यह शकट (छकड़ा) हम लाये हैं यह सामने उपस्थिति है।।6।। इसे प्रभु ग्रहण करें और हमारे ऊपर कृपा दृष्टों करें, ये ही हम चाहते हैं।।7।। यह सुनकर तब वहाँ भगवान बुद्ध अपने शिष्य आयुष्मान आनन्द भिक्षु को बुलाते हैं ।।8।। हे आनन्द जब तक मेरे सारे भिक्षु गण गर्दभ यक्ष के भवन से नकिल कर इधर उधर घूमते जाते हैं तभी तुम उन सबों को बुलाकर उपस्थानशाला में ले आओ।।9।। यहाँ वे सब भिक्षा में आये हुए (पिण्ड पात) प्राप्त भिक्षान्न को भोजन करेंगे।।10।। इस प्रशकार भदन्त प्रभु की बात बड़ी आयु वाले आनन्द भिक्षु ने सुनी और जब भिक्षुगण गर्दभ यक्ष के भवन से घूमने फिरने को बाहर नकिले तभी उन सब को उपस्थान शाला में ले आया जिससे भगवान उनसे चारौ तरफ से घिर गये।।11।। फिर वह समीप आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम कर एक तरफ बैठ गया।।12।। एक तरफ बैठा हुआ वह आनन्द भिक्षु प्रभु से इस प्रकार कहने लगा ।।13।। हे प्रभु भदन्त जब तक भिक्षुगण गर्दभ यक्ष के भवन से नकिलकर विचरण करें उससे शपूर्व ही मैंने उन्हें उपस्थान शाला में बुला-बुलाकर बैठादिया है।।14।। जिससे अब भगवान अपने अमूल्य समय का उपभोग करें यही मेरा प्रयोशजन हैं।।15।। इसके बाद भगवान बुद्ध ने उस उपस्थान शाला को उनसे भरी हुई देखा ।।16।। फिर वहाँ से चलकर भिक्षु समुदाय के सामने आकर उन्हें विज्ञापिता करते हुए समीप के आसन पर बैठ गये ।।17।। इसके बाद श्रद्धालु ग्रहपती माथुर ब्राह्मण वृन्द भिक्षुसंघ के प्रमुख पुरूष के रूप में प्रधान आसन पर सुख से बैठे हुए भगवान बुद्ध को जानकर पहिले के तरह ही विनय पूर्वक उठकर हाथ धोकर यज्ञ पकवान के पात्रों को लेकर भगवान बुद्ध के सामने आकर खड़े हो गये। नम्रतापूर्वक याचना करते हुए इस प्रकार कहने लगे ।।18।। हे प्रभु दान्त आपने उन दुष्ट नागों और यक्षों को विनय सम्पन्न किया हैं।।19।। हे प्रभू यह गर्दभ यक्ष बड़ी रात्रियों से हमारा वैरियों का वैरी बना है।।20।। हम बिना सौतेली माताओं वालों का सौतेला भाई बना है। ।।21।। दिन द्रोह वालों का परम द्रोही यह बना हुआ है। ।।22।। यह हमारी स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न की हुई हमारी शिशु सन्तानों को चुराकर ले जाता है ।।23।। भगवन् आप इस दुखदाई गर्दभ यक्ष को कृपा करके सदाचार युक्त नम्रता में दीक्षित कर लीजिये ।।24।। जिसमें अच्छे समय के संयोग से यह गर्दभ यक्ष और इसकी वह पार्षद सेना भी निरूद्धिग्न होकर उचित रूप से आपकी शरण में प्राप्त हो जाय ।।25।। तब बहाँ भगवान बुद्ध गर्दभक यक्ष को बुलाकर कहते हैं।।26।। हे गर्दभक सुनता हैं।।27।। हे प्रभु मैंने सुन लिया है ।।28।। गर्दभक रे तेने सुन लिया ।।29।। हे प्रभु सुगत मैने सुन लिया।।30।। तो अब इस पाप से खोटे कर्म से दूर हो ।।31।। हे प्रभु यथार्थ है, समय से मैं इस कृत्व से अलग हो जाऊँगा ।।32।। यदि यह लोग मेरे कारण से सारे भिक्षु संघ के लिये चारों दिशाओं में हमारे निवास योग्य बिहार बनवा देगे तो यह मैं करूंगा।।33।।यह सुनकर सहां भगवान बुद्ध नगर के समस्त भवनों के स्वामी, परम श्रद्धालु पूजनीय माथुर ब्राह्मणों को आमन्त्रण देते हैं ।।34।। हे नगर पति ब्राह्मणो आप लोगों ने सुना ।।35।। भगवन् सुना ।।36।। हम ये सब करा देंगे ।।37।। तब वहाँ वह गर्दभक, अपने आप ही से अपने 500 परिवारों सहित भगवान बुद्ध की शरण में आ गया ।।38।। श्रद्धालु ग्रहपति माथुर ब्राह्माणों ने भी उनके लिए उसी प्रकार से 500 विहार बनवा दिये ।।39।। इसी प्रकार से शर नाम का यक्ष बन नाम का यक्ष तथा अलका वैदा, मघा नाम की यक्षणियाँ भी प्रभु की शरण में आ गई , अर्थात् इन सभी ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।।40।। तब बड़े ससारोह के साथ नगर में भगवान को लाकर मथुरा की नगर रक्षिका (कोतवाल) निमिसिका नाम की यक्षिणी भी अपने 500 परिवारों के साथ प्रभु की शशरण में आ गई ।।41।। उनके लिये भी उन माथुर ब्राह्मणों ने पांच सौ बिहार उसी प्रकार बनवाये।।42।। उस समय मथुरा के आस-पास के दूर-दूर तक के साढे तीन हजार यक्ष भगवान की शरण में आ गये।।43।। उन सभी के निमित्त मथुरा के परम उदार श्रद्धालु माथुर ब्राह्मणों ने नगरपति के नाते साढ़े तीन हजार ही बिहारों की रचना कराई। बुद्धकाल में मथुरा में वैदकि और शैव, शक्ति , सम्प्रदायों के धुरन्धर विद्वान थे, माथुर ब्राह्मण तो सदाँ से वैदिक और स्मार्त सम्प्रदायों के कट्टर अनुयायी रहे उन पर बौद्ध धर्म का कोई प्रभाव नहीं पढा । उस काल में जय मथुरा में बौद्ध धर्म के स्तूप, विहार आदि बने उस समय भी माथुर अपनी परम्परावद्ध वैदिक उपासना पर दृढ़ रहे। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध है। मथुरा में उस समय नीलभूति नाम का वेदान्त वादी विद्धान था उसने बुद्ध को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी किन्तु बृद्ध उससे शास्त्रार्थ करने को उद्यत न हुए। नीलभूति वीरभद्र शिव का उपासक पाशुपत मत का अनुयायी था और उसका स्थान नगला भूतिया में था। बुद्ध से शास्त्रि चर्या का सम्पर्क करने वाला शदूसरा ब्राह्मण महाकात्यापन था। बवह अवन्ती के राजा का भेजा, हुआ मथुरा आया था, मथुरा में उस समय अवन्ती के राजा चण्ड प्रद्योत का दोहित्नं अवन्तीपुत्र नाम का राजा था। महाकात्यायन ने भगवान बुद्ध से शास्त्र चर्चा की और उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं ही बौद्ध बन गया। उसन ेअपने स्वामी की इच्छानुसार तथागत की उज्जयनी चलने को कहा, परन्तु भगवान बुद्ध ने कहा अब वहां मेरी आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं ही इस धर्म का शप्रचार कर सकते ही । महाकात्यायन उज्जयनी में धर्म प्रचार करने के वाद फिर मथुरा में आकर हो बस गया। उसके वंश के ब्राह्मण कटि्या या महाब्राह्मण कहे जाते हैं। तीसरा ब्राह्मण महादेव माथुर था जिसने अपने धर्म की दृढ़ता का स्वर उठाया था। महादेव का निवास स्थान महादेव गली मथुरा के नगला पायसा में है। मथुरा में माथुर ब्राह्मण इस प्रकार प्रभावशाली थे यह कुषाल काल के एक लेख से अभिव्यक्त होता है। विश्वविख्यात बोद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रजुलस्की लिखता है "मथुरा एक प्रभावशाली ब्राह्मण सम्प्रदाय का केन्द्र बना हुआ था, यह नगर जो कि वास्तव में यहां के ब्राह्मणों का केन्द्र था। यह क्षेत्र संस्कृति साहित्य का भी एक बड़ा केन्द्र था"इसलिये मथुरा में बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की बुद्धिवादी सभ्यता को अंगीकार किया उसकी रीति परम्परा को ही नहीं, लेकिन कम से कम भारत की शास्त्रीय विचारधारा को उसे मानना ही पड़ा । मथुरा में बौद्ध धर्म ब्राह्मण विचार धारा के सम्पर्क में आया और इनसे अपनी रक्षा करने के लिए उसे ब्राह्मण विरोधी कुछ सिद्धान्त मृदु करने पड़े जिनका उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , मथुरा के यह ब्राह्मण माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। बुद्ध का जन्म शिशुनागवंशी बिंबसार के राज्य में हुआ। शिशुनाग काशी के शेषनाग वंशी थे। नागों की मारशिंवशाखा का घनिष्ट सम्बन्ध मथुरा और मथुरों से रहा है। श्री कृष्ण कालीन बृहद्रय वंशीय जरासिंध का राज्य एक हजार वर्ष तक 2044 वि0पू0 तक मथुरा प्रदेश और समस्त उत्तर भारत पर रहा। समस्त उत्तर भारत को विजय करने के साथ ही जरािसंध वंशीय चक्रवर्ती सम्राट बन गये थे। इस वंश के बाद 138 वर्ष तक शुनक या प्रद्योत वंश शका राज्य रहा जो 1910 वि0पूर्व को समय था। प्रद्योत के वाद शुंग राज, फिर पैतासीस वर्ष 1150 वि0पू0 तक कण्व वंश का राज रहा। प्रद्योत शुनक वंश 2011 वि0पू0 से 138 वर्ष फिर शिशुनाग वंश 1873 वि0पू0 से 363 वर्ष, फिर सहापद्मनंद वंश 1511 वि0पू0 से 88 वर्ष, फिर मौर्य वंश 1411 वि0पू0 177 वर्ष, फिर शुग वंश 1274वि0पू0 106 वर्ष फिर कण्व वंश 1162 वि0पू0 से 45 वर्ष, फिर आंध्रभृत्य वंश 1119 वि0पू0 से 153 वर्ष, फिर हालेय वंश 964 वि0पू0 से 303 वर्ष फिर आंभीर वंश 661 वि0पू0 से 98 वर्ष, फिर गर्दभी (गंधारी) 563 वि0पू0 से 130 वर्ष, कंक वंशी (यूनानी डिमेट्रियस का केशस से) 433 वि0पू0 से 144 वर्ष फिर मौनेय यवनगंधारी वंश मोअस कुषाण वंश 179 वि0पू0 से 99 वर्ष फिर भूतनंद वंगिरिवंश (शक क्षत्रप) 80 वि0पू0 से 106 वर्ष फिर मगध का पुरंजय वंश विस्फूर्जितराज 26 वि0पू0 से 7 वर्ष फिर उज्जैन का विक्रमादित्य राज्य 33 विक्रम संचत् बोतने पर भारत गंधार अरब ईरान तक का चक्रवर्ती राजा बना। इन सभी कालों और राज्यों में मथुरा की प्रतिष्ठा महत्तापूर्ण रूप से बढ़ी , तथा मथुरा में मौर्य और गुप्त काल में अशोक की राजधानी होने तथा चंद्रगुप्त समुद्र गुप्त की सत्ता का असीम विस्तार होने और कुषाण कनिष्क का यूरोप, एशिया तथा व्यापार विस्तार होने से मथुरा और माथुरों का वैभव और मंदिरों स्तूपों बिहारोकं में असीम स्वर्ण रत्न संचय होने से मथुरा सोने की ,खान बन गई । बुद्ध के गिलगिट लेख से निम्नलिखित, बातें स्पष्ट होती हैं--- 1. माथुर समस्त मथुरा और उससे दूर-दूर तक के प्रदेश के एक मात्र स्वामी थे। 2. उनके पास पर्याप्त धन दूसरे लोगों के लिये देने को थी, तभी वे 500 और 3500 बिहार यक्षों को बिना संकोच शीघ्र ही बनवा सके। 3. मथुरा का राजा अवन्ति पुत्र नाम मात्र का राजा था वह बौद्ध होते हुए भी नगर यक्षियों को बुद्ध का प्रवेश रोकने से निषेिधत न कर सका । 4. माथुरों का ही मथुरा पर सत्तात्मक प्रभाव भी था जिससे वे पूर्ण सत्कार का सामान लेकर सामूहिक रूप से बुद्ध के पास गये। 5. माथुर उदार साहसी अतिथि सत्कार परायण दयालु तथा मथुरा के उच्च महत्व की कीर्ति के लिए सब प्रकार सचेत थे। 6. उनमें स्वधर्म पर दृढता के साथधर्म की तुच्छ भेद-भाव की भावना न थी। वे किसी भी धर्म के किसी तप त्याग साधना और निष्ठा से कार्य करने वाले व्यक्ति को आदर की दृष्टि से देखते थे। 7. वे स्वयं अपने वेद पुराणोक्त सनातन धर्म पर अडिग दृढ़ निष्ठावान थे। वे बौद्ध नहीं बने भगवान तथागत को भी उनसे अपने धर्म में दीक्षित होने की बात करने का साहस नहीं हुआ। तथा वे सब जानते हुए भी उनकी प्रशस्ति समादर श्लावा करते रहे और उनकी प्रदन भिक्षा बड़े प्रेम और आदर से स्वीकार की । 8. वे अपने मन में स्थापित मथुरा के कुत्तों यक्षों आदि के सभी के सभी कटु अनुभवों को भूलकर माथुरों के स्नेह से बहुत समय और कई बार फिर उन मथुरा और इस भूमि का वास्तवकि आनन्द उपलब्ध किया। माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की यह एक महान चारित्रिकता और सत्य धर्म निष्ठा मानव प्रेम की विशुद्धता की अद्वितीय गरिमामयी प्रशस्ति गाथा है जिसकी दूसरी तुलना इतिहास में नहीं है। इतिहास विमर्ष कर्ताओं का यह मत है कि मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के उदार विचारां से प्रभावित होकर बुद्ध भगवान ने वेदों ब्राह्मणों और यज्ञयगदि का खंडन त्याग किया और उनके धर्म के हीनयान महायान ब्रजयान आदि तंत्र-मंत्र पूजा उत्सव शाक्त तंत्र साधना आदि के लिए समर्पित बनने लगे। तथा विरोधों को शान्त होता देखकर उनके प्रधान तथागत भगवान को विष्णु के दस अवतारों में स्थान दे दिया जो सारे भारत के धार्मिक जनों मैं निर्विरोध मान्य हो गया।