चतुर्वेदी इतिहास 4

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी


श्रीकृष्ण काल

3114 वि0पू0 मेंदेवाधिदेव सोलह कला परिपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीकृष्ण के पूर्वज सभी यादव (जादों ठाकुर) मथुरा के माथुर चतुर्वेदियों के परम निष्ठावान भक्त रहे हैं। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्म मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर उग्रसेन महाराज के संरक्षण में माथुरों के शपुर में निवास करती थीं। इनकी बड़ी शाखा कुकर शाखा के पौरोहिहत्य के कारण एक शाखा अभी भी ककोर सरदार कही जाती है।

श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव वृष्णि शाखा के प्रधान पुरूष थे। महाराज उग्रसैन के भाई देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव के साथ किया गया वसुदेवजी अति रूपवान, ज्ञानवान, नीतिज्ञ, व्यवहार कुशल और ब्राह्मण भक्त थे, उन्हीं के सम्पूर्ण गुणों का विकास उनके पुत्रों कृष्ण-बलराम में पूर्ण रूप से हुआ। श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण के अवतार थे, उनकी कथा भागवत आदि सभी पुराणों में कही गई है।

बालक श्रीकुष्ण कंस के भय से जन्मते ही नन्द के गोकुल में पहुँचा दिये गये, तथा दूसरे पुत्र बलराम जो वसुदेव पत्नी रोहिणी से नन्द गोप के घर महावन में उत्पन्न हुए थे- दोनों भाई अत्याचारी कंस से बचकर अनेक मनोहारी लीलायें करते हुए गोकुल में गर्गाचार्य और माथुर शाँडिल्य मुनि तथा धौम्यजी द्वारा प्रारम्भिक जाति कर्मादि संस्कार हुए। पाँच वर्ष गोकुल में रहकर नन्दजीं उन्हें कंस से दूर गोवर्धन, वृन्दावन, काम्यवन, नन्दग्राम के मूल ब्रज क्षेत्र में ले गये।

नन्द के संरक्षण में श्रीकृष्ण-बलराम बारह वर्ष तक रहे। उन्होंने देवपुरी मथुरा के गायों शके चराये जाने के क्षेत्र ब्रज मण्डल में अनेक अद्भुत् लीलाएँ दिखाकर ब्रज के गोप-गोपियों को अपने बस में कर लिया। यद्यपि दोनों भाई ब्रज में अनेक प्रकार के बिहार-क्रीड़ायें करते थे, तो भी उन्हें वारम्बार अपनी जन्मस्थली मथुरा अपने प्रिय माता-पिता और परम पूज्यनीय माथुरों गुरुओं की याद सताती रहती थी। गौड़ीय भक्तों ने उनकी ब्रज निवास काल में मनोव्यथा उत्पन्न करने वाली दशा को "माथुरी विरह अवस्था " कहकर वर्णन .किया है। 12 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने पर वे मथुरा के विरह को सहन नहीं कर सके, और तब कंस के आयोजित कपटपूर्ण धनुष यज्ञ महोत्सव को जानते हुए भी अक्रूर के साथ ब्रज का मोह परित्याग कर वे मथुरा आ गये।


इस समय मथुरा के माथुरों और प्रजाजनों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया इसका वर्णन महात्मा सूरदास जी ने अपने एक पद में बड़े आकर्षक ढंग से किया है- "भूषन बखन विचित्र सजे हैं, सोभित सुन्दर अंग।।
"कर पंकज नफूल की माला, उरभैंटे नन्द नन्द।। "
मथुरा हरखित आजु भई।
ज्यौ चुवती पति आवत सुनि कै, पुलकन अंग मई।।
नव सजि साजि सिंगार सुन्दरी, आतुर पंथ निहारति।
उड़त धुजा तम सुरति विसारै, अंजल उर ने सम्हारति ।
उरज प्रगट महलजन के कलसा, फूले बन तन सारी।
ऊँचे अटनि कंगूरा सोभा, सीस उचाई निहारी।
जाल रंध्र इकटक हरि देखत, किंकिनि कंचन दुर्ग ।
बैंनी लसत महा छवि वारी, महलन चित्रित उर्ग।
बाजत नगर बाजने जहाँ तहाँ टघां धुनि घटियार।
सूर श्याम बनिता लौं चंचल, पग नूपुर झनकार।।

मथुरा की गली और राजमार्ग फूलों से सजाये गये, माथुरी नारियाँ अटा अटारियों, गवाक्षों और छज्जों पर सजधज कर उन्हें देखने को बैठ गई। फूलों की बर्षा की गई। यह मेला मथुरा का आज भी सबसे बड़ा साँस्कृतिक महोत्सव है। माथुर ब्राह्मणों की टोलियाँ राजसी वस्त्रों से सज्जित होकर मोटे-मोटे लट्ठ लेकर कंस को कूटकर कृष्ण बलराम को साथ लेकर मथुरा नगर में प्रविष्ट होते हैं। अपनी ऐतिहासिक साखियों में वे आनन्द से उन्मत्त नृत्य करते हुए नाचते और गाते हुए कहते जाते हैं "कंसैभार मधुपुरी आये, अगर चन्दन ते अँगन लियासे, गजमुतियन के चौक शपुराये, सब सखान मिल मंगल गाये, कंसा के घर के घबराये, सूरसैन ...सूरसैन...हम सूरसैन...। कृष्ण बलराम तब विश्राम घाट पर आते हैं माथुर चतुर्वेदी मिहारी सर्दारों की गोद में विराजते हैं, और वहाँ विजय आरती की जाती है। वहाँ से वे माथुर महापुरूषों के घर ही जाता हैं। मथुरा में कंस बध से पूर्व नन्द जी के साथ आने पर भी वे माथुरों की बगीचीयों पर ही ठहरे थे। गोपनीय परामर्ष किया था और माथुरों के साथ यमुना स्नान करके रँगभूमि में पधारे थे। दोनों भाइयों का यज्ञोपवीत भी माथुर महर्षियों धौम्य आदि ने ही कराया था। माथुरों के आँगिरस सत्र में यज्ञान्न की याचना माथुरो की वैदिक यज्ञ निष्ठा की दृढ़ता की परीक्षा तथा माथुरी यज्ञपत्नियों द्वारा कृष्ण बलराम की सखाओं समेत मधुर, रसीले, यज्ञान्न से तृप्ति कराने और दोनों भाइयों द्वारा संतुष्ट होकर ब्राह्मणों को बरदान देने की की बात सर्व विदित है जो भागवद् में विस्तार से वर्णित है। श्रीकृष्ण ने माथुरों को तब वरदान दिया था---

चे ब्राह्मण वंश जाता, युष्माकं वै सहस्त्रश:।

तेषां नारायणे भक्ति भविष्यति कलौ युगे।।

जो माथुर ब्राह्मण ब्राह्मणों के असली कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा उनमें जो आप लोगों के हज़ारों पुत्र पौत्र आदि वंशधर हैं उनमें आगे कलियुग में नारायण की उत्तम भक्ति बनी रहेगी। पांडवों का यज्ञोपतीय भी अपने पुत्रों के बाद मथुरा में वसुदेव जी नेही माथुर गुरु धौम्य जी द्वारा कराया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार चतुर्वेदी ब्राह्मण नौकोटि श्री कृष्ण वलराम और नन्द जी के साथ ब्रजब्रन्दावन (कामवन) गये थे। वे उनके साथ रहते थे तथा आसुरी उपद्रव होने पर बालक श्री कृष्ण वलराम की रक्षा हेतु नारायण कवच सुदर्शन मन्त्र गो पुच्छ प्रक्षालन आदि कराकर रक्षा प्रयोग करते थे। पुत्रों के यज्ञोपवीत उत्सव में श्रावसुदेव जी ने वेदज्ञ ब्राह्मणों को सम्मान के साथ तृप्ति कर भोजन कराया था। श्री कृष्ण के पुत्र सांव ने सूर्य सिद्धि के बाद माथुरों को भोजन कराया उसमें अनेक पकवान बनाये गये थे।

पूपकांश्च विचित्रा वै, मोदकांश्च धृतप्लुता:।

पायसं कृशरं चैव दध्यान्नेन समन्वितम्।।

माथुरों में इनका आश्रम गर्गतीर्थ तथा ब्रज के भांगरौली में इनकी जागीरदारी थी।

यादवों के ज्योतिषी गर्गाचार्य थे। ये राजस्थान (मत्स्य देश) वासी घघ्घर नदी तट वासी थे, किन्तु विद्या उपलब्धि के लिये ये माथुरों के शिष्य बनकर मथुरा मन्डल में रह रहे थे। अपनी रचना गर्ग संहिता में ब्रह्म भक्ति के साथ इनने श्री यमुना महाहरानी का पंचांग स्तोत्र पटल सहस्त्रनाम कवच आदि माथुरों का प्रदत्त स्थापित किया है। यमुना सहत्रनाम में भी इनने अपने गुरुओं को

सुद्विजायैनम:, मथुरा तीर्थ वासिन्यै नाम: विश्रान्त वासिन्यैनम: असिकुन्ड गतायै नाम: ।।247।।

कहकर आदणीय पद दिया है। कंस मारकर श्री कृष्ण वलराम कुबिंद नाम के ब्राह्मण के घर गये थे। माथुरों में "कोवीराम के " वंशजों का परिवार अभी भी वर्तमान है। माथुर कलीय नाग (कश्यप वंशज कद्रु पुत्रों) नाग कुलों के भी पुरोहित और पूजित थे। यह वंश मथुरों के "कोरनाग तिवारी" नाम से ख्याति प्राप्त है। माथुरों ने ही जरासंध से रक्षा और कृष्ण वलराम की दृढ़ स्थिति मथुरा में बनाये रखने को नगर के चारों ओर एक एक मुट्ठी (एक पल्लू) धूलि डालकर धूलकोट की रचना की थी तथी से ये रज के धुरैरा लगाने और रज प्रसाद देने लगे श्रमरज के महत्व प्रतिष्ठाता बन गये।

मुठी धूर लै कृष्णा हेतु जरा संघ लखि चोट।

मथुरा की रक्षा करी, धूर कोट की ओट।।

माथुर युद्ध विद्या के धनुर्विद्या और अश्वारोहण सैन्य विद्या के आचार्य भी थे। यवन (यूनानी अरब) तथा कम्बोज (कम्बौडिया) के कामभुज वीरों को अश्वारोहण की युद्ध कुशलता मथुरा के आचार्यों से ही मिली थी।

तथा यवन कम्बोजा मथुरा मभिगताश्च ये ।

एतेश्व युद्ध कुशला वभूबु द्विज सेवया।।

अर्थात यवन, कम्बोज आदि आसुर योद्धा भी मथुरा के शिष्य बनकर माथुर द्विजों की कृपा से ये सबके सब युद्व कुशल बन गये। माथुर धौम्य ऋषि श्रीकृष्ण के यज्ञोपवीत संस्कार कर्ता थे तथा श्रीकृष्ण ने ब्रह्मविद्या, उपनिषद् ज्ञान, कण्व आंगिरस से प्राप्त किया था- एतत् घोर अंगिरसों कृष्णायदेवकी नंदनायोक्तोवाच, तेनैव स आपेपास एव वभूव ।।

यह ब्रह्मविद्या श्रीकृष्ण को आंगिरस ऋषि (माथुर कुल गोत्रीय) ने दी, जिसे अमृत समान पीकर वे पिपासा रहित बन गये। वैदिक "यमुना सूक्त" के प्रमाण से श्रीकृष्ण –वलराम, वेदव्यास, भीष्म , शान्तनु आदि सभी यमुना भक्त और माथुरों के पूजक थे।

पांडव रक्षा

पांडव मथुरा के दौहित्र थे। पृथा माथुरों की परम निष्ठावान यजमान थीं। माथुर आत्नेय दुर्वासा ने ही उसे देवहूति विद्या दी थी, जिससे देवों का आवाह्न करके उसने 5 पुत्र धर्म, इन्द्र, वायु, अश्विनी कुमारो से प्राप्त किये थे। पांडु और भीष्म तथा विदुरजी भी इन्हें ही पाचों पांडु पुत्रों का परम हितैषी और संरक्षक मानते थे। अत: महर्षि धौम्य ने पांडवों की मन्त्र प्रयोगों के द्वारा रक्षा करके तथा संस्कारादि द्वारा ओमवर्धन ने किया था। महाराजा शान्तनु की राजधानी गजाह्वपुर (गजापाइसा) तथा आश्रम स्थल उपवन शान्तनु सरोवर मथुरा में ही है। यहीं शान्तनु पत्नी सत्यवती का (सतोहा) पुर भीष्म माता गंगा (जान्हवी) का जन्हुकूप महात्मा भीष्म का (भीष्म गढ) तथा विदुर का (विदुराश्रम) है। महर्षि वेद व्यास (कृष्ण द्वैपायन व्यास) वशिष्ठ गोत्रीय माथुर की कृपा युक्त संयुक्ति से पांडु, धतराष्ट्र और विदुर का जन्म मथुरा में ही हुआ था, तथा इन्हीं के संरक्षण और निर्देशन में पांडव पूर्ण महाप्रयासी बनकर कौरवों पर विजय प्राप्त कर सके थे।

महर्षि वेदव्यास

यह निर्विवाद सत्य है कि भारतीय तत्व दर्शन और विश्व साहित्य के सर्वोपरि ज्ञान-विज्ञान और शास्त्रीय साहित्य, वेद विभाजन, वेदान्त सूत्र (ब्रह्मसूत्र) 18 पुराण, महाभारत, प्रधानत: श्रीमद् भागवत महापुराण के कर्ता वेद व्यास मथुरा के वशिष्ठ गोत्रिय माथुर चतुर्वेदी ही थे। उनका साधना तीर्थ निवास आश्रम कृष्णगंगा तीर्थ (घाट) विश्व में सर्वोपरि ज्ञानपीठ था। व्यासजी के सम्बन्ध में शोध पुस्तिका कृष्ण गंगा विषयक प्रकाशित और वितरित हो चुकी है, जिसे जिज्ञासुजन देख समझ सकते है। भारतवर्ष तथा विदेशों अमरीका, रूस, जर्मन, आदि के शोध विद्वान इन तथ्यों को सुनिश्चित और प्रमाणपुष्ट आधार युक्त मान चुके हैं। विश्व के गहन शचिन्तक प्राय: सभी यह मानते हैं कि विश्व मानव के भिन्न-भिन्न वंशों और भारत, एशिया, यूरोप, अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि द्वीपों महाद्वीपों के निवासियों के जन्मदाता महात्मा कश्यप ही थे। उनकी अनेक पत्नियों से अनेक मानव आतियाँ उत्पन्न हुई और सारे विश्व में फैलकर बसीं । इन महात्मा कश्यप का धौम्य कुल माथुरा था, तथा सूर्य पुत्री श्री यमुना जी इनकी भरणकत्री स्नेहमयी माता थीं । कश्यप का उपस्थान ब्रज का सहपऊ (कश्यप उपस्थान) हैं। कश्यप वंश में 12 आदित्य, इन्द्र देव, मरूतगण, वामन प्रभु, महात्मा प्रह्लाद , गरूड़ (हरि वाहन) शेषजी आदि नाग, मनु परम्परा के सभी राजर्षि उत्पन्न हुए हैं, शजो धौम्य गोत्रिय माथुर विप्रों के वंश बन्धुजन ही हैं।

माथुरों का श्रीकृष्ण प्रेम

मथुरा के माथुर ब्राह्मणों का दिव्य स्वरूप, ज्ञान , वैराग्य, त्याग और तपोमय रहा है। इनकी गहवधूटियाँ माथुरी देवियाँ भक्ति स्नेह कृपा और वात्स यमयी कृष्णभक्ति की साकार मूर्तियाँ रही हैं। गोपाल तापिनी के उत्तर तापिनी के उत्तर तापिनी खण्ड में इनकी एक गरिमामयी गाथा हैं। उपनिषद् जो अथर्व वेद का अंग हैं उसमें उपनिषद कर्ता लिखते हैं-

एक दिन मथुरा ब्रज केन्द्र की भक्त नारियाँ अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु किये गये कार्तकि यमुना स्नान हेतु रात्रि गये प्रात: ही उठकर स्नान करके राधा दामोदर पूजकर सर्वेश्वर गोपाल कृष्ण के घर उनके दर्शन को गयीं। तथा वहाँ मथुरेश देवकी नन्दन से उन्होंने प्रश्न किया- "हे लाला कार्तिक नहाकर किस ब्राह्मण को भोजन देना चाहिये। श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर कहा - "दुर्वासा को"। कन्हैया की आज्ञा पाकर उन्होंने उत्तम पायस आदि भक्ष्य भोज्य उत्तम पदार्थ दुर्वासा मुनि को अर्पण किये। तृप्त करके भोजन कराये। जाने लगीं तब उनमें यूथ सुख्या जो गान्धर्वी नाम की मुनि पत्नी थी वह दुर्वासाजी से पूछने लगी - "प्रभो हम यमुना पार शकर अपने घर को कैसे जायें" दूर्वासा ने कहा - "कहना यदि दुर्वासा दूर्वाहारी है तो यमुना हमें मार्ग दो" आने की बात पूछने पर उन्होंने दुर्वासा को बतलाया – हमसे श्रीकृष्ण ने कहा था, यमुना से कहना यदि कृष्ण बाल ब्रह्मचारी है शतो यमुना हमें मार्ग दो" दुर्वासा यह सुनकर मुस्कराये- "अच्छा ठीक है जाओं चलते समय वे आपस मैं विचार करने लगीं - "कथं कृष्णों ब्रह्मचारी कयं दूर्वाससोमुनि: " सखियों कैसे आश्चर्य की बात है – हमारी समझ में यह बात नहीं समा रही कि कैसे तो कृष्ण ब्रह्मचारी हैं और ये ढेरौं पदार्थ भोजी दुर्वासा कैसे दूर्वाआहारी मुनि हो सकते हैं।"

मुनि दुर्वासा ने यह जाना और उन्हें वापिस बुलाकर श्रीकृष्ण शके स्थित प्रज्ञ रूप का और अपने लोक निस्पृहरूप का योगरूप समझाया। कहना नहीं होगा कि मथुरा की ये ब्रजस्त्रियाँ, गोपिकायें ऋषि पत्नी माथुर महाभागा दिव्य देवियाँ ही थी। गान्धर्वी उनके यूथ की प्रमुखा थी। रूप गुण में वह गन्धर्व कन्था समाज श्रेष्ठ होने से गान्धर्वी नाम से युक्त थीं। माथुर नारियों में अप्छर, रूपों, चन्दा, लछमी, सरसुती, सुन्दर, अनौखी, ऊछर, मोहनी, ठानी (पठानी), मुग़लों, तारो (तातारी) आदि नाम गुण और रूप के प्रतीक हुआ करते थे।

इस सम्वाद से माथुरी देवियों का श्रीकृष्ण में उत्कट स्नेह, अविचल भक्तिभाव धर्मआचरण और तत्व जिज्ञासा तथा महापुरूषों में महान श्रद्धा का अच्छा पशरिचय मिल जाता है जो उपनिषद और वेदकालीन होने से अति विश्वस्त है।

द्वारिका प्रवास

3089 वि0पू0 में श्रीकृष्ण बलराम ने समस्त यादवों और प्रजाजनों के साथ मथुरा से द्वारिका का प्रसास किया। मगधराज जरासंध कंस का श्वसुर था। पुत्रियों के के रूदन से क्रुद्ध हो उसने मथुरा को और भारत के समस्त यादवकुलों को विनष्ट करने का उसने प्रण किया। अपनी शक्ति के मद से उसे सम्पूर्ण भारत विजय कर चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा थी। उसने अंग, बंग, कलिंग, काशी , कोशल, विदेह, अवध आदि विजय कर मथुरा पर बड़ी चढ़ाई की तथा यमुना पार जरारा क्षेत्र में सेना शिविर स्थापित कर मथुरा पर 17 बार आक्रमण किये। श्रीकृष्ण की छलयुद्व विद्या ने अल्प सेना होने पर भी उसकी दल-वादल सी विपुल सेना को अपनी शंखनाद सेना, चक्राघात सेना, गदा युद्ध सेना, पद्मपोषक सेनाओं के प्रहारों से बहुत अधिक क्षति पहुँचायी और उसके भारत विजय के महान मनोरथ को चूर्ण कर दिया। अन्त में उसने यवन जाति के मलेच्छ (मलेशियन) राजा काल यवन को आमन्त्रित कर उसके सहयोरू से मथुरा पर एक बड़ा आक्रमण करहने की तैयारी थी।


श्रीकृष्ण इस भेद को जान गये और यादवों माथुरों और गोप ग्बाल ब्रज सखाओं का जनपदीय विनाश बचाने के लिये उन्होंने विश्बकर्मा देव शिल्पी (कमई करहला वाली) को बुलाकर समुद्र तट पर बृष्णि यादवों की अपनी पुरानी राजधानी कुश स्थली (प्रभास पत्तन) के समीप एक नया जल दुर्ग तथा शतद्वार युक्त द्वारिका नाम की पुरी निर्माण करने की उसे आज्ञा दी । इस निर्माण में उन्होंने मथुरा का सारा संचित सुवर्ण रत्न भण्डार, कलाकृतियां अमूल्य वस्तुयें द्वारिका पहुंचाया। 5 वर्ष में पुरी का निर्माण किया तथा इसी अवधि में नगर के सुरक्षा चाहने वाले अधिकाँश प्रजाजनों को क्रमश: वहाँ पहुँचा दिया। मथुरा में 32 वर्ष की आयु तक रहकर वे 3080 वि0पू0 में जरासधं के सन्मुख युद्ध में पलायन करते हुए अकेले दोनों भाई द्वारिका चले गये। काल यवन ने पीछा किया उसे मार्ग में ही राजा मुचुकन्द द्वारा मरवा दिया। इस पलायन की राजनीति से मथुरा के माथुर रुष्ट हुए और वे अपने प्राचीन को छोड़कर द्वारिका नहीं गये। उनकी एक शाखा "गुग्गुली" गुगोलिया जो वृष्णियों के अनुचर थे वहाँ बस गये श्रीकृष्ण ने फिर महाभारत से पूर्व ही अपने घोर शत्रु जरासन्ध को छलपूर्वक भीमसेन से द्वन्द युद्व में मरवाया।


द्वारिका में माथुरों का फिर भी बहुत मान था। ये यथावसर वहाँ बुलाये और सम्मानित किये जाते थे। मुनि दुर्वासा नारद, आंगिरस आदि बुलाये जाते रहे और विप्र सुदामा को वहीं नया परमदरा (पोरबन्दर) स्थापित कर राज्य दिया गया। श्रीकृष्ण स्वयं भी इन्द्रप्रस्थ जाते समय मथुरा होकर जाते, बे्रजवासियों और माथुरी यज्ञ पत्नियों के दुस्त्यज अनुरोध और आग्रह को रखने के लिए वे प्राय: नगर से दूर-दूर ही सबसे मिल भेंट कर माखन-मिसरी ,खाकर चले जाते थे।

श्री बलराम तो माथुरों के मनमौजी सखा थे। वे निर्भय होकर मथुरा आये। बलभद्र सरोवर पर मल्लयुद्ध अभ्यास किया। अपने मूशल को माथुरों के अखाड़ों अभी भी मुगदर जोड़ी के रूप में सुरक्षित हैं घुमायें तथा हल फावड़े से यमुना जी घारा बलराम घाट पर घुमाई और ब्रज गोपियों के साथ माथुरों की भंग (सोम मधु) का पान कर मदोमत्त रास-विलास किया।

बाराह पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण ने माथुरों की अजीव्य वृति को चिरतन रखने और मथुरापुरी का महान से महानतम गौरव स्थिर रखने तथा इस द्युलोक ब्रह्मर्षि देश की पुरातन संस्कृति के स्मारक चिह्न रूप ढाई हज़ार तीर्थ निर्माण किये-

कृष्णेन निर्मितास्तीथाँ सार्धद्वप सहस्त्रधा ।

हिरण्य धेनु दानेन मम लोके महीयते ।।

इन तीर्थों का ज्ञान माथुर ब्राह्मणों को ही था किन्तु कालान्तर में विधर्मी आक्रमणों और रक्षार्थ पलायनों तथा ग्रन्थों के विनाश से यह विद्या विलुप्त प्राय हो गई। इतने पर भी ब्रज तीर्थों सम्बन्धी अमूल्य सामग्री सबसे अधकि माथुरों के घरों में है। श्री उद्धवाचार्य देव महाराज तथा महाराज तथा श्रीजवाहर तिवारी श्री छंगालालजी मिहारी के अमूल्य ग्रन्थ इस ज्ञान के लिये अनमोल हैं, जो अभी तक हतो प्राप्त हैं ही। बाराह पुराण का प्राचीन मथुरा माहात्म्य खण्ड 29 अध्यायों में एक प्राचीन अनमोल ब्रज ज्ञान का विश्वकोष है जो अपने प्रकाशन की ओर उत्सुक दृष्टि लगाए हुए है।

बज्रनाभ शासन

3044 वि0पू0 महाभारत के पश्चात् 3048 वि0पू0 में यादव कुल विनास के बाद ही अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के पौत्र बज्रनाभ को मथुरा लाकर उन्हें मथुरा जनपद का शासक बनाया गया। इसी समय परीक्षित भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाये गये। पाँडवों के राजधानी परिवर्तन से इन्द्रप्रस्थ और खांडव प्रस्थ अरर्क्षित महत्व हीन बन यये तब परिक्षित ने अपनी प्रजा मथुरा के माथुरा जो जरासंध के भय से इन्द्रप्रस्थ पांडवों की रक्षा में चले गये थे उन्हें लाकर मथुरा में बसा दिया। माथुरमहाराज बज्रनाभ के आने से प्रसन्न थे, उन्होंने बज्रनाभ को गोवर्धन के निकट पुरातन वृन्दावन कुसुम सरोवर वन में भक्ति आराधना उत्सव करने को प्रेरित किया, तथा उन्हें श्री कृष्ण के जीवन सम्बन्धी सभी स्थल दिखाकर उनमें कदमखण्डी वन, उपवन, सरोवर, देवालय आदि बनाने को प्रयत्नशील किया। मथुरा जनपद ने पुन: नया सांस्कृतिक जीवन आया किन्तु यह अधिक समय तक टिक कर नहीं रह सका। मागध जरासंध वंशज सृतजय राजा ने बज्रनाभ वंशज शतसेन से 2781 वि0पू0 में मथुरा का राज्य छीन लिया। अव पुन: मथुरा मागधों के चंगुल में थी, तथा मागधों से प्रद्योत शिशुनाग वंशधरों पर होती हुई नन्द ओर मौर्यवंश पर आयी।