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==बुद्धकाल और माथुर==  
 
==बुद्धकाल और माथुर==  
गौतम [[बुद्ध]] का काल 1760 वि0पू0 से 1680 वि0पू0 है तथा उनका [[मथुरा]] आगमन काल 1710 वि0पू0 है, यह गुरूकुल काँगड़ी के आचार्य रामदेव जी के निश्चय के अनुसार जो उन्होंने बुद्ध ग्रन्थ महावश, जैन ग्रन्थ स्थाविरावलि, हरवन्श, विष्णु भागवद् आदि [[पुराणों]] के आधार पर स्थिर किया है के अनुसार निर्धारित है।  विचार के बाद यह ही मत प्रमाण पुष्ट ज्ञात होता है। आधुनिक पाश्चात्य इतिहास वादी इस काल को 14 या 15 सौ वर्ष नीचे खींच लाते हैं।  जो किसी भी प्रकार स्वीकृत योग्य ज्ञात नहीं होता।  बुद्ध के मथुरा आगमन का अतिपुष्ट संदर्भ हमें तबिबत के गिलगिट बौद्ध मठ से प्राप्त दुर्लभ ग्रन्थ से ज्ञात होता है।  हिन्दी के विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज के लिए अनेक देशों की यात्राऐं कीं, इनमें तिब्बत से उन्हें हज़ारों प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए, ये ग्रन्थ कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार में सुरक्षित करके रखे गये हैं। कलकत्ता विश्व विद्यालय ने इनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सम्पादित कराकर "गिलगिट मैन्युत्कृष्ट" के नाम से प्रकाशित किया है।  इस ग्रन्थ माला के जिल्द 3 भाग 1 पृष्ठ 3 से 17 तक में यह सदर्भ उधृत है।  इसमें माथुर ब्राह्मणों द्वारा महात्मा बुद्ध को सम्मान के साथ भिक्षा अर्पण करने और उनका अतिथि सत्कार करने का महत्व पूर्ण उल्लेख है।  पूरा लेख माथुरों के लिए ज्ञातव्य है।  इसके शब्द हैं "माथुरान् ब्राह्मणान् गृह पतीन् "इस पूरे लेख को मथुरा संग्राहलय के पुरातत्व के अधिकारी विद्वान श्री कृष्णदत्त बाजपेई ने बृजभारती वर्ष 13 अक्डं 2 में प्रकाशित किया है, जो इस प्रकार हैं।
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गौतम [[बुद्ध]] का काल 1760 वि0पू0 से 1680 वि0पू0 है तथा उनका [[मथुरा]] आगमन काल 1710 वि0पू0 है, यह गुरुकुल काँगड़ी के आचार्य रामदेव जी के निश्चय के अनुसार जो उन्होंने बुद्ध ग्रन्थ महावश, जैन ग्रन्थ स्थाविरावलि, हरवन्श, विष्णु भागवद् आदि [[पुराणों]] के आधार पर स्थिर किया है के अनुसार निर्धारित है।  विचार के बाद यह ही मत प्रमाण पुष्ट ज्ञात होता है। आधुनिक पाश्चात्य इतिहास वादी इस काल को 14 या 15 सौ वर्ष नीचे खींच लाते हैं।  जो किसी भी प्रकार स्वीकृत योग्य ज्ञात नहीं होता।  बुद्ध के मथुरा आगमन का अतिपुष्ट संदर्भ हमें तबिबत के गिलगिट बौद्ध मठ से प्राप्त दुर्लभ ग्रन्थ से ज्ञात होता है।  हिन्दी के विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज के लिए अनेक देशों की यात्राऐं कीं, इनमें तिब्बत से उन्हें हज़ारों प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए, ये ग्रन्थ कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार में सुरक्षित करके रखे गये हैं। कलकत्ता विश्व विद्यालय ने इनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सम्पादित कराकर "गिलगिट मैन्युत्कृष्ट" के नाम से प्रकाशित किया है।  इस ग्रन्थ माला के जिल्द 3 भाग 1 पृष्ठ 3 से 17 तक में यह सदर्भ उधृत है।  इसमें माथुर ब्राह्मणों द्वारा महात्मा बुद्ध को सम्मान के साथ भिक्षा अर्पण करने और उनका अतिथि सत्कार करने का महत्व पूर्ण उल्लेख है।  पूरा लेख माथुरों के लिए ज्ञातव्य है।  इसके शब्द हैं "माथुरान् ब्राह्मणान् गृह पतीन् "इस पूरे लेख को मथुरा संग्राहलय के पुरातत्व के अधिकारी विद्वान श्री कृष्णदत्त बाजपेई ने बृजभारती वर्ष 13 अक्डं 2 में प्रकाशित किया है, जो इस प्रकार हैं।
  
 
==भगवान बुद्ध का माथुरों द्वारा स्वागत सम्मान==
 
==भगवान बुद्ध का माथुरों द्वारा स्वागत सम्मान==
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# उन सभी के निमित्त मथुरा के परम उदार श्रद्धालु माथुर ब्राह्मणों ने नगरपति के नाते साढ़े तीन हज़ार ही बिहारों की रचना कराई।
 
# उन सभी के निमित्त मथुरा के परम उदार श्रद्धालु माथुर ब्राह्मणों ने नगरपति के नाते साढ़े तीन हज़ार ही बिहारों की रचना कराई।
 
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बुद्धकाल में मथुरा में [[वैदकि]] और [[शैव]], [[शक्ति]] , सम्प्रदायों के धुरन्धर विद्वान थे, माथुर ब्राह्मण तो सदाँ से वैदिक और स्मार्त सम्प्रदायों के कट्टर अनुयायी रहे उन पर बौद्ध धर्म का कोई प्रभाव नहीं पढा ।  उस काल में जय मथुरा में बौद्ध धर्म के [[स्तूप]], विहार आदि बने उस समय भी माथुर अपनी परम्परावद्ध वैदिक उपासना पर दृढ़ रहे। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध है।  मथुरा में उस समय नीलभूति नाम का वेदान्त वादी विद्धान था उसने बुद्ध को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी किन्तु बृद्ध उससे शास्त्रार्थ करने को उद्यत न हुए।  नीलभूति वीरभद्र शिव का उपासक पाशुपत मत का अनुयायी था और उसका स्थान नगला भूतिया  में था। बुद्ध से शास्त्रि चर्या का सम्पर्क करने वाला शदूसरा ब्राह्मण महाकात्यापन था।  बवह अवन्ती के राजा का भेजा, हुआ मथुरा आया था, मथुरा में उस समय [[अवन्ती]] के राजा चण्ड प्रद्योत का दोहित्नं [[अवन्तीपुत्र]] नाम का राजा था। [[महाकात्यायन]] ने भगवान बुद्ध से शास्त्र चर्चा की और उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं ही [[बौद्ध]] बन गया। उसन ेअपने स्वामी की इच्छानुसार तथागत की [[उज्जयनी]] चलने को कहा, परन्तु भगवान बुद्ध ने कहा अब वहां मेरी आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं ही इस धर्म का शप्रचार कर सकते ही। महाकात्यायन उज्जयनी में धर्म प्रचार करने के वाद फिर मथुरा में आकर हो बस गया। उसके वंश के ब्राह्मण कटि्या या महाब्राह्मण कहे जाते हैं। तीसरा ब्राह्मण महादेव माथुर था जिसने अपने धर्म की दृढ़ता का स्वर उठाया था। महादेव का निवास स्थान महादेव गली मथुरा के नगला पायसा में है।  मथुरा में माथुर ब्राह्मण इस प्रकार प्रभावशाली थे यह कुषाल काल के एक लेख से अभिव्यक्त होता है। विश्वविख्यात बोद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रजुलस्की लिखता है "मथुरा एक प्रभावशाली ब्राह्मण सम्प्रदाय का केन्द्र बना हुआ था, यह नगर जो कि वास्तव में यहां के ब्राह्मणों का केन्द्र था।  यह क्षेत्र संस्कृति साहित्य का भी एक बड़ा केन्द्र था"इसलिये मथुरा में बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की बुद्धिवादी सभ्यता को अंगीकार किया उसकी रीति परम्परा को ही नहीं, लेकिन कम से कम भारत की शास्त्रीय विचारधारा को उसे मानना ही पड़ा। मथुरा में बौद्ध धर्म ब्राह्मण विचार धारा के सम्पर्क में आया और इनसे अपनी रक्षा करने के लिए उसे ब्राह्मण विरोधी कुछ सिद्धान्त मृदु करने पड़े जिनका उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , मथुरा के यह ब्राह्मण माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे।
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बुद्धकाल में मथुरा में [[वैदकि]] और [[शैव]], [[शक्ति]] , सम्प्रदायों के धुरन्धर विद्वान थे, माथुर ब्राह्मण तो सदाँ से वैदिक और स्मार्त सम्प्रदायों के कट्टर अनुयायी रहे उन पर बौद्ध धर्म का कोई प्रभाव नहीं पढा ।  उस काल में जय मथुरा में बौद्ध धर्म के [[स्तूप]], विहार आदि बने उस समय भी माथुर अपनी परम्परावद्ध वैदिक उपासना पर दृढ़ रहे। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध है।  मथुरा में उस समय नीलभूति नाम का वेदान्त वादी विद्धान था उसने बुद्ध को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी किन्तु बृद्ध उससे शास्त्रार्थ करने को उद्यत न हुए।  नीलभूति वीरभद्र शिव का उपासक पाशुपत मत का अनुयायी था और उसका स्थान नगला भूतिया  में था। बुद्ध से शास्त्रि चर्या का सम्पर्क करने वाला शदूसरा ब्राह्मण महाकात्यापन था।  बवह अवन्ती के राजा का भेजा, हुआ मथुरा आया था, मथुरा में उस समय [[अवन्ती]] के राजा चण्ड प्रद्योत का दोहित्नं [[अवन्तीपुत्र]] नाम का राजा था। [[महाकात्यायन]] ने भगवान बुद्ध से शास्त्र चर्चा की और उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं ही [[बौद्ध]] बन गया। उसन ेअपने स्वामी की इच्छानुसार तथागत की [[उज्जयनी]] चलने को कहा, परन्तु भगवान बुद्ध ने कहा अब वहां मेरी आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं ही इस धर्म का शप्रचार कर सकते ही। महाकात्यायन उज्जयनी में धर्म प्रचार करने के वाद फिर मथुरा में आकर हो बस गया। उसके वंश के ब्राह्मण कटि्या या महाब्राह्मण कहे जाते हैं। तीसरा ब्राह्मण महादेव माथुर था जिसने अपने धर्म की दृढ़ता का स्वर उठाया था। महादेव का निवास स्थान महादेव गली मथुरा के नगला पायसा में है।  मथुरा में माथुर ब्राह्मण इस प्रकार प्रभावशाली थे यह कुषाल काल के एक लेख से अभिव्यक्त होता है। विश्वविख्यात बोद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रजुलस्की लिखता है "मथुरा एक प्रभावशाली ब्राह्मण सम्प्रदाय का केन्द्र बना हुआ था, यह नगर जो कि वास्तव में यहाँ के ब्राह्मणों का केन्द्र था।  यह क्षेत्र संस्कृति साहित्य का भी एक बड़ा केन्द्र था"इसलिये मथुरा में बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की बुद्धिवादी सभ्यता को अंगीकार किया उसकी रीति परम्परा को ही नहीं, लेकिन कम से कम भारत की शास्त्रीय विचारधारा को उसे मानना ही पड़ा। मथुरा में बौद्ध धर्म ब्राह्मण विचार धारा के सम्पर्क में आया और इनसे अपनी रक्षा करने के लिए उसे ब्राह्मण विरोधी कुछ सिद्धान्त मृदु करने पड़े जिनका उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , मथुरा के यह ब्राह्मण माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे।
 
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बुद्ध का जन्म शिशुनागवंशी बिंबसार के राज्य में हुआ। शिशुनाग काशी के शेषनाग वंशी थे। नागों की मारशिंवशाखा का घनिष्ट सम्बन्ध मथुरा और मथुरों से रहा है।  श्री कृष्ण कालीन बृहद्रय वंशीय जरासिंध का राज्य एक हज़ार वर्ष तक 2044 वि0पू0 तक मथुरा प्रदेश और समस्त उत्तर भारत पर रहा। समस्त उत्तर भारत को विजय करने के साथ ही [[जरासंध]] वंशीय चक्रवर्ती सम्राट बन गये थे।  इस वंश के बाद 138 वर्ष तक शुनक या प्रद्योत वंश शका राज्य रहा जो 1910 वि0पूर्व को समय था। प्रद्योत के वाद शुंग राज, फिर पैतासीस वर्ष 1150 वि0पू0 तक कण्व वंश का राज रहा।   
 
बुद्ध का जन्म शिशुनागवंशी बिंबसार के राज्य में हुआ। शिशुनाग काशी के शेषनाग वंशी थे। नागों की मारशिंवशाखा का घनिष्ट सम्बन्ध मथुरा और मथुरों से रहा है।  श्री कृष्ण कालीन बृहद्रय वंशीय जरासिंध का राज्य एक हज़ार वर्ष तक 2044 वि0पू0 तक मथुरा प्रदेश और समस्त उत्तर भारत पर रहा। समस्त उत्तर भारत को विजय करने के साथ ही [[जरासंध]] वंशीय चक्रवर्ती सम्राट बन गये थे।  इस वंश के बाद 138 वर्ष तक शुनक या प्रद्योत वंश शका राज्य रहा जो 1910 वि0पूर्व को समय था। प्रद्योत के वाद शुंग राज, फिर पैतासीस वर्ष 1150 वि0पू0 तक कण्व वंश का राज रहा।   

१०:२९, ११ मई २०१० के समय का अवतरण

माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

बुद्धकाल और माथुर

गौतम बुद्ध का काल 1760 वि0पू0 से 1680 वि0पू0 है तथा उनका मथुरा आगमन काल 1710 वि0पू0 है, यह गुरुकुल काँगड़ी के आचार्य रामदेव जी के निश्चय के अनुसार जो उन्होंने बुद्ध ग्रन्थ महावश, जैन ग्रन्थ स्थाविरावलि, हरवन्श, विष्णु भागवद् आदि पुराणों के आधार पर स्थिर किया है के अनुसार निर्धारित है। विचार के बाद यह ही मत प्रमाण पुष्ट ज्ञात होता है। आधुनिक पाश्चात्य इतिहास वादी इस काल को 14 या 15 सौ वर्ष नीचे खींच लाते हैं। जो किसी भी प्रकार स्वीकृत योग्य ज्ञात नहीं होता। बुद्ध के मथुरा आगमन का अतिपुष्ट संदर्भ हमें तबिबत के गिलगिट बौद्ध मठ से प्राप्त दुर्लभ ग्रन्थ से ज्ञात होता है। हिन्दी के विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज के लिए अनेक देशों की यात्राऐं कीं, इनमें तिब्बत से उन्हें हज़ारों प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हुए, ये ग्रन्थ कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार में सुरक्षित करके रखे गये हैं। कलकत्ता विश्व विद्यालय ने इनमें से कुछ अति महत्वपूर्ण ग्रन्थों को सम्पादित कराकर "गिलगिट मैन्युत्कृष्ट" के नाम से प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ माला के जिल्द 3 भाग 1 पृष्ठ 3 से 17 तक में यह सदर्भ उधृत है। इसमें माथुर ब्राह्मणों द्वारा महात्मा बुद्ध को सम्मान के साथ भिक्षा अर्पण करने और उनका अतिथि सत्कार करने का महत्व पूर्ण उल्लेख है। पूरा लेख माथुरों के लिए ज्ञातव्य है। इसके शब्द हैं "माथुरान् ब्राह्मणान् गृह पतीन् "इस पूरे लेख को मथुरा संग्राहलय के पुरातत्व के अधिकारी विद्वान श्री कृष्णदत्त बाजपेई ने बृजभारती वर्ष 13 अक्डं 2 में प्रकाशित किया है, जो इस प्रकार हैं।

भगवान बुद्ध का माथुरों द्वारा स्वागत सम्मान

  1. अश्रौषु मथुरा ब्राह्मण गृहपतयों भगवान पिण्डाय प्राविशत देवतया विहेठित:
  2. अप्रविशन्नेव मथुरा गर्दभश्च यक्षस्य भवनं गत इति श्रुत्वा च पुन: शुचिन: प्रणीतश्च खादनीय भोजनीस्य प्रत्येक स्थाली पार्क समुपानीय शकटो अरोप्य येन भगवास्तेनोप क्रान्त:
  3. उपश्रम्य भगवत: शिरसा वन्दित्वैकान्ते निषण्ठा:
  4. निषप्ठान् श्रादधान् ब्राह्मण गृह पतीन् भगवान धर्म्ययाक कथया पूर्ववद्यावत् संप्रहर्ष्य तूष्ठीम्
  5. अथ श्रद्धा ब्राह्मण ग्रहपतय: उत्थाया सनदिकां समुत्तरासंगं कृत्वा येन भगवान्तेनंजजलि प्रणम्य भगववन्तमिदमवोचत्
  6. इहास्मीर्भदन्त भगवन्त मुदिृश्य शुचिन: प्रणीतस्य खादनीय भोजनीयस्स शकटं पूर्ण मानीतम्
  7. तद् भगवान् प्रति गृहवातु अनुक म्पयामुपादाय इति
  8. तत्र भगवानांनंदमायुष्मन्तमामंत्र्यतो
  9. गच्छानंद यावन्तों मिक्षवोगर्दभस्य भवन उपनिश्रित्य विहरन्ति तान् सर्वानुपस्थान शालायां सन्निपातय
  10. परिभोक्ष्यन्ते पिण्डपातमिति
  11. एवं भदन्त इत्यायुष्मानान्दों भगवत: प्रति श्रुत्य यावन्तोमिक्षवो गर्दभस्य यक्षस्य भवन उप निश्रित्य विहरन्ति नान् सवानुपस्थान शालायां सन्निपात्य येन भगवास्तेनोप संक्रान्त:
  12. उप संक्रम्य भगवत: पादौ शिरसा बन्दित्वैकान्ते स्थात्
  13. एकान्त स्थित आयुष्मा नानन्दो भगवन्त मिदभोचत्
  14. यावन्यो भदन्त भिक्षवो गर्दभस्ययक्षस्य भवन उपनिश्रित्य विहरन्ति सर्वे ते उपस्थान शालायां सन्निषण्ण: सन्निपतिता:
  15. यस्येदानी भगवान् कालं मन्यत इति
  16. अथ भगवान् तेनोपस्थान शालां तेनोप संक्रान्त:
  17. उपसंक्रम्य पुरस्ताद्भिक्षु संघस्य प्रज्ञप्त एवासने निषण्ण:
  18. अथ माथुरा: श्राद्वा ब्राह्मण गृहपतय: सुखौयनिषण्ण बुद्ध प्रमुखंभिक्षुसंघ विडित्वा पूर्व वद्धावद्धौत हस्मपनीत पात्नं भगवत: पुस्तात्तस्थुरायाचमानं चाहु:
  19. भगवता भदन्त ते ते दुष्ट नागा दुष्ट यक्षाश्च विनीता: ।।19।। अयं भदन्त गर्दभ को यक्षोस्माकं दीर्घ रात्रमथ वैरिणां वैरी
  20. असपत्नाना सपत्न:
  21. अद्रुधानां द्रोन्धा:
  22. जातानि जातान्यपत्यान्य पहरति
  23. अहेवत भगवान् गर्दभक यक्षं विनयेदनु कम्यामुपादायेति
  24. तेन खलु समयेन गर्दकों यक्षस्तस्चा मेव पर्षदि सन्निषष्णो क्भूत् सन्निपतित:
  25. तत्र भगवान गर्दभकं यक्ष मामंत्र्यते
  26. श्रुणुते गर्दभक
  27. श्रुतं में भगवान्
  28. श्रुतं ते गर्दभक
  29. श्रतं सुगत
  30. विरमास्मास्मात्यापाकात् असद् धर्मात्
  31. भगवन् समयतोहं विरमामि
  32. यदि मामु दिृश्य चातु दिर्शाय भिक्षुसंघाय विहारंकारयन्तिति
  33. तत्र भगवान् माथुरान् श्राद्धान् ब्राह्माण गृहपनीनामामं त्र्यते
  34. श्रुतं वो ब्राह्मण गृहपतय :
  35. श्रुतं भगवन्
  36. कारयिष्याम:
  37. तत्र भगवत गर्दभको यक्ष: पंचशत परिवारों विनीत:
  38. श्राद्धै बाह्मिण गृहपतिभिस्तानुदि्दश्य पंच विहार शतानि कारि तानीति
  39. एवं शरोयक्षों बनी यक्ष: अलिकावेन्दा मद्या यक्षिणी विनीता
  40. अथ भगवता ऋद्ध्या मथुरां प्रविष्यथ: तिमिसिका यक्षिणी पंच शत परिवार युत विनीता
  41. तामप्युदिृश्य यक्ष सहस्त्रणी विनीतानि
  42. तत्र भगवता सान्तर्वहिर्मथुरा यामर्धतृतियानि यक्ष सहस्त्राणि विनीतानि
  43. तान्युदिृश्य श्राद्धै र्वाह्मण गृहपतिभिरर्धतृतीयानि विहार सहस्त्रणि करितानि

इसका भाषान्तर इस प्रकार है। भगवान बुद्ध के मथुरा आने पर बड़े 2 भवनों और परिवारों के स्वामी माथुरा ब्राह्मणों ने जब यह सुना कि भगवान बुद्ध भिक्षा के लिये मथुरा में आये हैं और प्रवेश करते समय उन्हें नगर अधिकारी देव (यक्षिणी) ने तिरष्किृत कर लौटा दिया

  1. इस प्रकार मथुरा पुरी में बिना प्रवेश कियें ही वे गर्दभ यक्ष (गिरधरपुर) के भवन को चल गये इस बात को सुनकर वे पवित्र माथुर ब्राह्मण फिर दूसरी बार पवित्रता से बनाये हुए भोजन पदार्थ और तृप्त होने योग्य पकवानों को हरेक अलग-2 अपने यज्ञ पात्रों में रख-रखकर लाये और फिर उन सबकों गाढ़ाओं में रखकर जिस मार्ग से बुद्ध भगवान गये थे उसी मार्ग से चले
  2. वहाँ पहुफच के भगवान के चरणों में शीष झुकाकर प्रणाम करते हुए एक तरफ बैठे हुए श्रद्धा युक्त माथुर ब्राह्मणों गृहपतियों की धर्मचर्या से भगवान बुद्ध भिक्षा गमन से पूर्व की तरह ही परम हर्षित होकर मौन हो उन्हें देखने लगे
  3. ??
  4. इसके बाद श्रद्धालु नगर के स्वामी वे ब्राह्मण उठक बैठने योग्य आसन अदिकों को ठीक ठाक करके जहाँ भगवान बैठे थे वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर विनय पूर्वक प्रणाम करते हुए एक तरफ बैठ गये, प्रणाम करते हुए प्रभु से इस शप्रकार बोले
  5. भदन्त भगवान आपके अर्पण के उद्देश्य से पवित्र यज्ञान्न से बने खाने पीने योग्य पदार्थों से भरा जो यह शकट (छकड़ा) हम लाये हैं यह सामने उपस्थिति है
  6. इसे प्रभु ग्रहण करें और हमारे ऊपर कृपा दृष्टों करें, ये ही हम चाहते हैं
  7. यह सुनकर तब वहाँ भगवान बुद्ध अपने शिष्य आयुष्मान आनन्द भिक्षु को बुलाते हैं
  8. हे आनन्द जब तक मेरे सारे भिक्षु गण गर्दभ यक्ष के भवन से नकिल कर इधर उधर घूमते जाते हैं तभी तुम उन सबों को बुलाकर उपस्थानशाला में ले आओ
  9. यहाँ वे सब भिक्षा में आये हुए (पिण्ड पात) प्राप्त भिक्षान्न को भोजन करेंगे
  10. इस प्रशकार भदन्त प्रभु की बात बड़ी आयु वाले आनन्द भिक्षु ने सुनी और जब भिक्षुगण गर्दभ यक्ष के भवन से घूमने फिरने को बाहर नकिले तभी उन सब को उपस्थान शाला में ले आया जिससे भगवान उनसे चारौ तरफ से घिर गये
  11. फिर वह समीप आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम कर एक तरफ बैठ गया
  12. एक तरफ बैठा हुआ वह आनन्द भिक्षु प्रभु से इस प्रकार कहने लगा
  13. हे प्रभु भदन्त जब तक भिक्षुगण गर्दभ यक्ष के भवन से नकिलकर विचरण करें उससे शपूर्व ही मैंने उन्हें उपस्थान शाला में बुला-बुलाकर बैठादिया है
  14. जिससे अब भगवान अपने अमूल्य समय का उपभोग करें यही मेरा प्रयोशजन हैं।
  15. इसके बाद भगवान बुद्ध ने उस उपस्थान शाला को उनसे भरी हुई देखा
  16. फिर वहाँ से चलकर भिक्षु समुदाय के सामने आकर उन्हें विज्ञापिता करते हुए समीप के आसन पर बैठ गये
  17. इसके बाद श्रद्धालु ग्रहपती माथुर ब्राह्मण वृन्द भिक्षुसंघ के प्रमुख पुरूष के रूप में प्रधान आसन पर सुख से बैठे हुए भगवान बुद्ध को जानकर पहिले के तरह ही विनय पूर्वक उठकर हाथ धोकर यज्ञ पकवान के पात्रों को लेकर भगवान बुद्ध के सामने आकर खड़े हो गये। नम्रतापूर्वक याचना करते हुए इस प्रकार कहने लगे
  18. हे प्रभु दान्त आपने उन दुष्ट नागों और यक्षों को विनय सम्पन्न किया हैं
  19. हे प्रभू यह गर्दभ यक्ष बड़ी रात्रियों से हमारा वैरियों का वैरी बना है
  20. हम बिना सौतेली माताओं वालों का सौतेला भाई बना है।
  21. दिन द्रोह वालों का परम द्रोही यह बना हुआ है।
  22. यह हमारी स्त्रियों के द्वारा उत्पन्न की हुई हमारी शिशु सन्तानों को चुराकर ले जाता है
  23. भगवन् आप इस दुखदाई गर्दभ यक्ष को कृपा करके सदाचार युक्त नम्रता में दीक्षित कर लीजिये
  24. जिसमें अच्छे समय के संयोग से यह गर्दभ यक्ष और इसकी वह पार्षद सेना भी निरूद्धिग्न होकर उचित रूप से आपकी शरण में प्राप्त हो जाय
  25. तब बहाँ भगवान बुद्ध गर्दभक यक्ष को बुलाकर कहते हैं।
  26. हे गर्दभक सुनता हैं।
  27. हे प्रभु मैंने सुन लिया है
  28. गर्दभक रे तेने सुन लिया
  29. हे प्रभु सुगत मैने सुन लिया
  30. तो अब इस पाप से खोटे कर्म से दूर हो
  31. हे प्रभु यथार्थ है, समय से मैं इस कृत्व से अलग हो जाऊँगा
  32. यदि यह लोग मेरे कारण से सारे भिक्षु संघ के लिये चारों दिशाओं में हमारे निवास योग्य बिहार बनवा देगे तो यह मैं करूंगा
  33. यह सुनकर सहां भगवान बुद्ध नगर के समस्त भवनों के स्वामी, परम श्रद्धालु पूजनीय माथुर ब्राह्मणों को आमन्त्रण देते हैं
  34. हे नगर पति ब्राह्मणो आप लोगों ने सुना
  35. भगवन् सुना
  36. हम ये सब करा देंगे
  37. तब वहाँ वह गर्दभक, अपने आप ही से अपने 500 परिवारों सहित भगवान बुद्ध की शरण में आ गया
  38. श्रद्धालु ग्रहपति माथुर ब्राह्माणों ने भी उनके लिए उसी प्रकार से 500 विहार बनवा दिये
  39. इसी प्रकार से शर नाम का यक्ष बन नाम का यक्ष तथा अलका वैदा, मघा नाम की यक्षणियाँ भी प्रभु की शरण में आ गई , अर्थात् इन सभी ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया
  40. तब बड़े ससारोह के साथ नगर में भगवान को लाकर मथुरा की नगर रक्षिका (कोतवाल) निमिसिका नाम की यक्षिणी भी अपने 500 परिवारों के साथ प्रभु की शशरण में आ गई
  41. उनके लिये भी उन माथुर ब्राह्मणों ने पांच सौ बिहार उसी प्रकार बनवाये
  42. उस समय मथुरा के आस-पास के दूर-दूर तक के साढे तीन हज़ार यक्ष भगवान की शरण में आ गये
  43. उन सभी के निमित्त मथुरा के परम उदार श्रद्धालु माथुर ब्राह्मणों ने नगरपति के नाते साढ़े तीन हज़ार ही बिहारों की रचना कराई।

बुद्धकाल में मथुरा में वैदकि और शैव, शक्ति , सम्प्रदायों के धुरन्धर विद्वान थे, माथुर ब्राह्मण तो सदाँ से वैदिक और स्मार्त सम्प्रदायों के कट्टर अनुयायी रहे उन पर बौद्ध धर्म का कोई प्रभाव नहीं पढा । उस काल में जय मथुरा में बौद्ध धर्म के स्तूप, विहार आदि बने उस समय भी माथुर अपनी परम्परावद्ध वैदिक उपासना पर दृढ़ रहे। इसके कुछ प्रमाण भी उपलब्ध है। मथुरा में उस समय नीलभूति नाम का वेदान्त वादी विद्धान था उसने बुद्ध को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी किन्तु बृद्ध उससे शास्त्रार्थ करने को उद्यत न हुए। नीलभूति वीरभद्र शिव का उपासक पाशुपत मत का अनुयायी था और उसका स्थान नगला भूतिया में था। बुद्ध से शास्त्रि चर्या का सम्पर्क करने वाला शदूसरा ब्राह्मण महाकात्यापन था। बवह अवन्ती के राजा का भेजा, हुआ मथुरा आया था, मथुरा में उस समय अवन्ती के राजा चण्ड प्रद्योत का दोहित्नं अवन्तीपुत्र नाम का राजा था। महाकात्यायन ने भगवान बुद्ध से शास्त्र चर्चा की और उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह स्वयं ही बौद्ध बन गया। उसन ेअपने स्वामी की इच्छानुसार तथागत की उज्जयनी चलने को कहा, परन्तु भगवान बुद्ध ने कहा अब वहां मेरी आवश्यकता नहीं है, तुम स्वयं ही इस धर्म का शप्रचार कर सकते ही। महाकात्यायन उज्जयनी में धर्म प्रचार करने के वाद फिर मथुरा में आकर हो बस गया। उसके वंश के ब्राह्मण कटि्या या महाब्राह्मण कहे जाते हैं। तीसरा ब्राह्मण महादेव माथुर था जिसने अपने धर्म की दृढ़ता का स्वर उठाया था। महादेव का निवास स्थान महादेव गली मथुरा के नगला पायसा में है। मथुरा में माथुर ब्राह्मण इस प्रकार प्रभावशाली थे यह कुषाल काल के एक लेख से अभिव्यक्त होता है। विश्वविख्यात बोद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रजुलस्की लिखता है "मथुरा एक प्रभावशाली ब्राह्मण सम्प्रदाय का केन्द्र बना हुआ था, यह नगर जो कि वास्तव में यहाँ के ब्राह्मणों का केन्द्र था। यह क्षेत्र संस्कृति साहित्य का भी एक बड़ा केन्द्र था"इसलिये मथुरा में बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की बुद्धिवादी सभ्यता को अंगीकार किया उसकी रीति परम्परा को ही नहीं, लेकिन कम से कम भारत की शास्त्रीय विचारधारा को उसे मानना ही पड़ा। मथुरा में बौद्ध धर्म ब्राह्मण विचार धारा के सम्पर्क में आया और इनसे अपनी रक्षा करने के लिए उसे ब्राह्मण विरोधी कुछ सिद्धान्त मृदु करने पड़े जिनका उन ब्राह्मणों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा , मथुरा के यह ब्राह्मण माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे।


बुद्ध का जन्म शिशुनागवंशी बिंबसार के राज्य में हुआ। शिशुनाग काशी के शेषनाग वंशी थे। नागों की मारशिंवशाखा का घनिष्ट सम्बन्ध मथुरा और मथुरों से रहा है। श्री कृष्ण कालीन बृहद्रय वंशीय जरासिंध का राज्य एक हज़ार वर्ष तक 2044 वि0पू0 तक मथुरा प्रदेश और समस्त उत्तर भारत पर रहा। समस्त उत्तर भारत को विजय करने के साथ ही जरासंध वंशीय चक्रवर्ती सम्राट बन गये थे। इस वंश के बाद 138 वर्ष तक शुनक या प्रद्योत वंश शका राज्य रहा जो 1910 वि0पूर्व को समय था। प्रद्योत के वाद शुंग राज, फिर पैतासीस वर्ष 1150 वि0पू0 तक कण्व वंश का राज रहा।

प्रद्योत शुनक वंश 2011 वि0पू0 से 138 वर्ष फिर शिशुनाग वंश 1873 वि0पू0 से 363 वर्ष, फिर सहापद्मनंद वंश 1511 वि0पू0 से 88 वर्ष, फिर मौर्य वंश 1411 वि0पू0 177 वर्ष, फिर शुंग वंश 1274वि0पू0 106 वर्ष फिर कण्व वंश 1162 वि0पू0 से 45 वर्ष, फिर आंध्रभृत्य वंश 1119 वि0पू0 से 153 वर्ष, फिर हालेय वंश 964 वि0पू0 से 303 वर्ष फिर आंभीर वंश 661 वि0पू0 से 98 वर्ष, फिर गर्दभी (गंधारी) 563 वि0पू0 से 130 वर्ष, कंक वंशी (यूनानी डिमेट्रियस काकेशस से) 433 वि0पू0 से 144 वर्ष फिर मौनेय यवनगंधारी वंश मोअस कुषाण वंश 179 वि0पू0 से 99 वर्ष फिर भूतनंद वंगिरिवंश (शक क्षत्रप) 80 वि0पू0 से 106 वर्ष फिर मगध का पुरंजय वंश विस्फूर्जितराज 26 वि0पू0 से 7 वर्ष फिर उज्जैन का विक्रमादित्य राज्य 33 विक्रम संचत् बोतने पर भारत गंधार अरब ईरान तक का चक्रवर्ती राजा बना।

इन सभी कालों और राज्यों में मथुरा की प्रतिष्ठा महत्तापूर्ण रूप से बढ़ी , तथा मथुरा में मौर्य और गुप्त काल में अशोक की राजधानी होने तथा चंद्रगुप्त समुद्र गुप्त की सत्ता का असीम विस्तार होने और कुषाण कनिष्क का यूरोप, एशिया तथा व्यापार विस्तार होने से मथुरा और माथुरों का वैभव और मंदिरों स्तूपों बिहारो में असीम स्वर्ण रत्न संचय होने से मथुरा सोने की ,खान बन गई ।


बुद्ध के गिलगिट लेख से निम्नलिखित, बातें स्पष्ट होती हैं--- 1. माथुर समस्त मथुरा और उससे दूर-दूर तक के प्रदेश के एक मात्र स्वामी थे। 2. उनके पास पर्याप्त धन दूसरे लोगों के लिये देने को थी, तभी वे 500 और 3500 बिहार यक्षों को बिना संकोच शीघ्र ही बनवा सके। 3. मथुरा का राजा अवन्ति पुत्र नाम मात्र का राजा था वह बौद्ध होते हुए भी नगर यक्षियों को बुद्ध का प्रवेश रोकने से निषेिधत न कर सका । 4. माथुरों का ही मथुरा पर सत्तात्मक प्रभाव भी था जिससे वे पूर्ण सत्कार का सामान लेकर सामूहिक रूप से बुद्ध के पास गये। 5. माथुर उदार साहसी अतिथि सत्कार परायण दयालु तथा मथुरा के उच्च महत्व की कीर्ति के लिए सब प्रकार सचेत थे। 6. उनमें स्वधर्म पर दृढता के साथधर्म की तुच्छ भेद-भाव की भावना न थी। वे किसी भी धर्म के किसी तप त्याग साधना और निष्ठा से कार्य करने वाले व्यक्ति को आदर की दृष्टि से देखते थे। 7. वे स्वयं अपने वेद पुराणोक्त सनातन धर्म पर अडिग दृढ़ निष्ठावान थे। वे बौद्ध नहीं बने भगवान तथागत को भी उनसे अपने धर्म में दीक्षित होने की बात करने का साहस नहीं हुआ। तथा वे सब जानते हुए भी उनकी प्रशस्ति समादर श्लावा करते रहे और उनकी प्रदन भिक्षा बड़े प्रेम और आदर से स्वीकार की । 8. वे अपने मन में स्थापित मथुरा के कुत्तों, यक्षों आदि के सभी के सभी कटु अनुभवों को भूलकर माथुरों के स्नेह से बहुत समय और कई बार फिर उन मथुरा और इस भूमि का वास्तवकि आनन्द उपलब्ध किया।

माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की यह एक महान चारित्रिकता और सत्य धर्म निष्ठा मानव प्रेम की विशुद्धता की अद्वितीय गरिमामयी प्रशस्ति गाथा है जिसकी दूसरी तुलना इतिहास में नहीं है।

इतिहास विमर्ष कर्ताओं का यह मत है कि मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के उदार विचारां से प्रभावित होकर बुद्ध भगवान ने वेदों ब्राह्मणों और यज्ञयगदि का खंडन त्याग किया और उनके धर्म के हीनयान महायान वज्रयान आदि तंत्र-मंत्र पूजा उत्सव शाक्त तंत्र साधना आदि के लिए समर्पित बनने लगे। तथा विरोधों को शान्त होता देखकर उनके प्रधान तथागत भगवान को विष्णु के दस अवतारों में स्थान दे दिया जो सारे भारत के धार्मिक जनों मैं निर्विरोध मान्य हो गया।