चतुर्वेदी इतिहास 7

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

चतुर्वेदी : चौबेजी नाम प्रसिद्धि

इस उद्धरव से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि 1370 वि0 के पूर्व काल प्राकृत भाषा विस्तार युग से ही माथुर ब्राह्मण चतुर्वेदी के अपभ्रंश रूप में साधारण जनता में " चड विज्ज" या "चौबेजी" कहे जाने लगे थे। चौबे शब्द का प्राचीन ऐतिहासिक यह प्रमाण सिद्ध करता है कि चतुर्वेदियों का चौवेजी संशोधन बहुत प्राचीन और एतिहासिक है। तथा यह प्रधान रूप से मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के समस्त सामूहिक वर्ग को संवोधन करने के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। खासकर उस काल में जब दूसरे ब्राह्मण दुवे तिवाड़ी , भट्ट मिस्सर, पानी पांड़े आदि ख्यातियों से युक्त थे तथा द्विवेदी तिवाड़ी उनकी एक एक शाखा मात्र थी।

यक्षों का प्रभाव काल

इस समय मथुरा में यक्ष पूजा जोरों पर थी। जिनप्रभु सूरि के अनुसार इस समय मथुरा नगर में भूतयक्ष, हुंडिय यक्ष , चोर जीव के देवालय थे। हुंढिय यक्ष की पूजा भांडीरवन में भी की जाती थी। यह हुंडिय यक्ष बड़ा प्रभावशाली और धनेश्वर था। इसके नाम पर ही लेन देन के काम में जिस अभिलेख का प्रयोग होता था उसका नाम "हुंडी" रक्खा गया। तथा उनका स्वर्ण सिक्का "हुन्न" था हुण इसी की शाखा के थे जो हुन्नान चीन में बसे थे।

इसी समय महावन में भी एक महायक्ष की पूजा होती थी। शजो यक्षेश्वर या जखैया के नाम से विख्यात हुआ। इस महाचक्ष की विशाल काय प्रतिमा मथुरा पुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती ।

मथुरा में यक्ष परम्परा अति प्राचीन है। यक्ष राक्षसो की उत्पत्ति कश्यप सृष्टिकाल से है। भक्त ध्रुव के भाई उत्तम को यक्षों ने मार दिया था। कृष्ण के समय यमलार्जुन (नलकूवर मणिग्रीव) मक्ष थे। ब्रज में भंडीर यक्ष का स्थान भांडीर वन, सुभद्रयक्ष का भद्रवन थे। कुवेर के अनुचरों में भंडीर यक्ष धन (ऋण) के वितरण कर्ता तथा हुंडीय यक्ष (हूंड़) क्रूरता से धन के वसूल करने वाले थे। महाराज युधिष्ठर के गुप्त वास के समय उनका यक्षेब्द्रपुरी (जिखिनगांव) के यक्षेन्द्रराज से तत्व ज्ञान युक्त धर्म संवाद हुआ था जो महाभारत में यक्ष प्रश्न के नाम से संस्थापित है। यह यक्ष महाशक्तिशाली ब्रह्म रूप कहा जाने वाला ब्रह्म ज्ञानी था। यक्षों यक्षिणिनियों की लोक पूजा भी होती थी। महावन की यक्षराज जखैया देवता के नाम से अभी भी पुत्रों की प्राण रक्षा के लिये पूजा जाता है तथा उसकी विशाल मूर्ति परखम यक्ष के नाम से पुरातत्व संग्रहालय में हैं। ब्रज में इस काल में यक्ष जाति की विशाल जन संख्या थी जो बौद्ध होने के बाद जिखिन गाँव के खिनवार जाट, यक्ष पुरी छहिरी के छांहर या चाहर नाम पाकर इस जाति में विलय हो गये। कुवेर वैश्रवण की पुरी सरवणपुरा के वैश्रवण पूज्य सरवन माथुरों से यक्षों का पौरोहित्य सम्पर्क था। माथुर अपने यज्ञ यक्षों की रक्षा में ही करते थे। कृष्णकाल का माथुर आंगिरसों का आगिरस सत्र भंडीर यक्ष के भांडीर बन में हुआ था। मथुरा नगर के नगर रक्षक भी यक्ष और यक्षिणियां ही थे।

कलियुग का पदापर्ण और समाप्ति

3000 वि0पू0 में बाराह कल्प के दिवस भाग का कलियुग आरम्भ हुआ। इसके आरम्भ में महाभारतयुद्ध यादव संहार श्री कृष्ण अवतार और मगध प्रदेश में बृहद्रथ (जरासंध) वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ। इस कलियुग का व्याप्तिकाल (1200 वर्ष) 1800 वि0पू0 तक हरहा। इस कालावधि में रिपुजंय (2037-2011 वि0पू0) तक मगध का बृहद्रथ जरासंघ वंश तथा फिर प्रद्योतवंशी शुनक (2018-1983 वि0पू0) से नंदिवर्धन (1899-1873 वि0पू0) तक भारत के सम्राट पदों पर रहे। मथुरा मगध राज्य में प्रमुखता तो नहीं प्राप्त कर सकीं परन्तु मागधों से घनिष्टता स्थापित कर "माथुरो मागधश्चैव" के समन्वय के साथ राजनैतिक दुष्चक्रों से दूर अपने धार्मिक स्वरूप और प्रतिष्ठा को बनाये रही। मगध के प्रमुख तीर्थ गया से भी ऊपर ध्रुव तीर्थ "आदिगया ध्रुवक्षेत्र" का मान स्थापित हुआ तथा कामबन आदि ब्रन्दावन में काशी प्रयाग और गया तीर्थ गदाधर भगवान की श्रेष्ठ मान्यता रही। ब्रज के फालैन (फल्गुनी यज्ञ) तीर्थ की भी प्रहलाद कालीन तीर्थ परम्परा गया में फल्गुनदी के रूप में प्रतिष्ठित हुई माथुरा ब्राह्मणों की महती प्रतिष्ठा और पद श्रेष्ठता को देखते हुए देसरे ब्राह्मणवर्ग अपनी स्थिति को सम्हालने के लिये अनेकानेक याक्य गढने लगे और उन्हें पुराण पाठों में यत्र तत्र प्रबिष्ट कर माथुरों के प्रति शंकास्पद वातावरण बनाने में प्रयत्नशील होने लगे। इन कल्पित अनर्गल और तथ्य शूल्य वचनों से प्रभावित होकर हमारे समूह के भी कुछ लोग गौंड़ों या कान्यकुन्जों की किसी शाखा प्रशाखा के रूप में अपने को समझने की भ्रान्ति प्रचारित करने लगे। मनगंढत भृगुराम संहिता के किसी लेखक ने लिखा-

सर्वें द्विजा कान्य कुब्जा माथुरं मागधं विना।
पृथग्भावेन तिष्ठन्ति विप्रत्वं श्रेय कांक्षिण:।।
बाराहस्य तु यज्ञेन माथुरी जायते पुरा।
मागधो ब्राह्मण: पूर्व कथितों द्विज एव च ।। 1

यह प्राचीनतम माथुरा से अन्य नवस्थपित ब्राह्मण वगों के दूर हठने के समय की स्थिति बतलाते है- वे कहते हैं माथुर और मागधों को छोड़कर सभी कान्य कुब्ज ब्राह्मण (अपने समकालीन अन्य ब्राह्मणों सहित) सद्यपि इन दोनों प्राचीन वर्गों से पृथक भाव में स्थित होते जा रहे हैं किन्तु मूलत: वे इन दोनों विप्रकुलों के समाश्रित ही हैं क्योंकि माथुर श्रेष्ठ विप्र आदि अवतारी देव आदि बाराह प्रभु के यज्ञ की हुताग्नि से दिव्य देह धारण कर प्रगट हुए हैं। वे सतयुग की देव सृष्टि के समय के सर्वमान्य ऋषि महर्षि हैं, तथा मागधों को ब्रह्मदेव ने गजासुर वध काल में द्वापर के प्राचीन समय में द्विज मान्य कहा है। अत: इनसे दूर हटने पर भी अन्य सभी ब्राह्मण इनका आश्रय ग्रहण करके ही अपने को लोक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। ब्राह्मण मार्तण्ड कर्ता ने लिखा-

उदीच्याऋषय: सर्वे न म्होड़ा न च नागरा: ।
कान्यकुब्जा द्विजा सर्वे, माथुरं मागधं बिना।।

सभी ऋषिगण उदीची दिशाबासी होने से उदीज्य (औदीज्य) हैं; वे न तो (मौटैराके) मोढ हैं न (नागरखंड के ) नागर, इसी प्रकार कान्यकुब्ज देशाधिपति सम्राट हर्ष के उदार राष्ट्र कान्यकु ब्ज देश के आश्रित होने से (माथुरों और मागधों को छोड़कर) अन्य सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज वर्गीय ही हैं। इससे स्पष्ट है कि जब अन्य पंचपात्र विप्र 1- सारस्वत, 2- कान्यकुब्ज, 3- गौड़, उत्कली, 5- मैथिली कान्यकुब्जों के (पंच गौड़ यूनियम) में सम्मिलित हो गये, तब माथुर और उनके साथीं मागध ही ऐसे स्वाभिमानी और स्वक्षेत्र गौरवधारी उच्च पदस्थ ब्राह्मण थे। जिन्होंने कान्यकुब्जों के दस समदस्यीय नब गठित मंडल का सदस्य बनकर उनका अनुगत होना ठुकरा दिया, और अपनी उच्च आचार विचार कुल की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपना सर्वोपरि स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रक्खा। इस प्रकार अनेक परवर्ती ब्राह्मण समूहों ने जी तोड़ प्रयास करके माथुर ब्राह्मणों को अपने अंतर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर ब्राह्मणों को अपने अतंर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर किसी से झुके नहीं और खान पान आचार में सबसे उत्कृष्ट रहकर अपनी पृथकता की पहिचार निराली बना कर रक्खी कान्यकुब्ज चौबे बने, गोड़ मथुरिया (घटवारे) बने परन्तु माथुर कनौजिये या गौड़ नहीं बन पायें। चौबें शब्द की उपाधि धारण के वादरयाणन्याथ से अन्य कोई समूह माथुरों में प्रविष्ठ न हो सका। इस प्रकार माथुरी के साथ ब्रह्म दिवस का कलियुग अपनी दिवा ज्योति के साथ अवसान को प्राप्त हुआ और तभी 1800 वि0पू0 से ब्रह्मरात्रि का निशांधकारमय अधर्म स्वेच्छाचार और रत्रिधर्म विस्तारक तमोमय काल असुरों तमीचरों को प्रिय पुष्टि प्रदाता बनकर सामने आया।

भारतीय प्राचीन इतिहास का प्रवेश द्वार

हमारे अनेक पाश्चात्य शिक्षा के निष्णात वंधु यह सब पढकर त्रस्त परेशान क्रोधित और क्षुब्ध हो उठेगें कि यह सब हम क्या पढ़ रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा में लिपटे आज के इतिहास ने हमें ऐसा कस कर जकड़ा है कि हमें अपने ही शास्त्रों पुराणों ग्रन्थों पर विश्वास नहीं होता । आर्य बाहर से आये, वे मध्य एशिया में अपजे थे। वे अनार्यों को खा गये, भारत के पास अपना कोई प्राचीन इतिहास है ही नहीं, पुराण मिथों (मिथ्याओं) और अस्त व्यस्त कहानियों के पिटारे हैं, राम-कृष्ण , वामन, परशुराम, सगर, दिलीप , सूर्यवंश, चन्द्रवंश कल्पना हैं, जो भक्तों का पोषण पाकर विकवित होते गये हैं।

भारत का सच्चा इतिहास पाषण के ढेलों में, फूटे ठीकरों में टूटी मूर्तियों में या पत्थर खंडों पर लिखे लेखों में है। जबकि पुराणों में वर्णित इतिहास युगों के क्रम से वंशावलियों में, राज्य और साम्राज्य संस्थानों में दिग्विजयों में, राजसूय और अश्वमेघ यज्ञों में, देवासुर संग्रामों दान, यज्ञ तप लोक संरक्षण और प्रजासंवर्धन प्रयासों से भरा पड़ा है। कुछ महत्वपूर्ण निजी विद्याओं को गोपनीय रखने के लिए पुराणों में कूटग्राम, कूटमान, समाधिभाषा रूपकों और लक्षण व्यंजना आदि कथन विशेष की शैलियां थी उन्हें न जान पाने के कारण भी पुराणों पर वाण वर्षा की जा रही है। इसमें पाश्चात्यों द्वारा भारत के गौरव को विनष्ट करने के हेतु से किये गये राजनेतिक कूट प्रहारिक प्रयास भी योग दे रहे हैं जिनके कारण स्वाधीन भारत के इतिहास में भी भारत के कीर्ति रत्न श्रीराम, श्रीकृष्ण , विक्रमादित्य, वेदव्यास, बाल्मीकि , आदि को वर्तमान इतिहास से अलक्षित रक्खा जा रहा है।
अस्तु इस राष्ट्र घातक से त्राण पाने के लिये हमें अपने शास्त्रों पुराणों की भ्रान्ति मुक्त सत्यमयी छवि की शरण में जाना होगा। मेरे किशोर मानस में 15 वर्ष आयु से ही इस दिशा में गहन चिन्तन की आतुरता जाग उठी थी। और 60 वर्षों तक निरन्तर चिन्तन मनन अध्यवसाय और अनुसंधान मय शोध प्रयासों के फलस्वरूप "भारतीय मूल इतिहास" की जो यथार्थ तथ्यमयी दिशादर्शन की दृष्टि प्राप्त हुई उसके आधार पर यह विश्वास और दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है कि "भारत का अति प्राचीन पौराणिक इतिहास" सारे विश्व के इतिहास से प्राचीनतम युक्तियुक्त विश्वस्त और वैज्ञानिक है। उसमें जैसा कि कहा जाता है, वैसी कोई भी असंवद्धता असंभवता, निराधार प्रस्तुति या अवैज्ञानिक स्थापना नहीं है। जब तक अन्धकार है तभी तक निशा प्रेरक जीव जंतुओं के कर्कश क्रूर प्रहारात्मक अशुभ स्वर सुनाई पड़ रहे है।

इतिहास के इस अंधकार को विदीर्ण कर प्रभात के सूर्योदय का दर्शन कराना ब्राह्मण जाति का अनिवार्य कर्तव्य है। हम माथुर सर्वज्ञान के प्रतिष्ठाता है। हमारा ही यह सर्वप्रथम दायित्व होना चाहिये कि हम इस दिशा में भ्रान्तियों के परिमार्जन का शंखनाद करै और भटके भूले मोह ग्रस्त राष्ट्र को यह दिखाये कि हमारा शास्त्र भंडार मानव को दृष्टि दर्शन देने वाले समर्थ इतिहास से परिपूर्ण है। अपने उत्साही पाठकीं की ज्ञान चेतना को जाग्रत करने और भारतीय प्राचीन इतिहास के वर्षो से अवरूद्ध प्रवेश मार्ग को अनाबृत करने के लिये कुछ मूल तथ्य यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे समझ लेने पर विज्ञजनों को इस इतिहास में स्थापित कालाब्धियों और संभवताओं को जान लेने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी।

प्राचीन भारतीय काल निर्धारण पद्धति

पुराणों ज्योतिष ग्रन्थों और ऋषि वाक्यों के अनुसार हमारे इस भू मंडल की सृष्टि का काल विभाजन विराट पुरूष परब्रह्म (जिसे सृष्टकिर्ता ब्रह्मा भी घोषित किया गया है), उस महाविभूति पुरूष के 100 वर्ष के जीवन काल का विस्तार है। यह 100 वर्ष का ब्रह्मा का जीवन काल ही हमारे इस विश्वब्रह्माण्ड के अस्तित्व का काल है जिसमें हमारी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विकसित हुई है। इसके उत्पन्न होने और अब तक विकसित होने तथा यह कब तक जीवित रहेगी (आत्यतिक प्रलय) यह किसी भी धर्म या विज्ञान में निर्धारित नहीं हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास पद्धति के विषय में अनेक विभिन्न मत हैं किन्तु वे अधिकतर आधारशून्य कल्पनाओं पर आधारित तथा अतिअविश्वल्त है। हमारे यहाँ के पंडितों ने भी धार्मिक महात्मा वृद्धि की दौड़ में हमारी पुराणों में वर्णित युग कल्प गणना को शास्त्रों के मूल कथनों का अति दीर्ध अर्थ लगाकर उन्हें सत्य से दूर खड़ा कर दिया। इधर पाश्चात्य आधुनिकता वादियों ने अपने धार्मिक दुराग्रह के कारण इस अवधि को ईसा के आसपास अति समीप लाने की चेष्टा की है। इस खीचतान में इन दोनों समयान्तरों में एक बहुत बड़ा अंतराल बन गया है। आधुनिक तथा कथित विज्ञान भी अभी कोई बात स्थिर रूप से सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है- वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न स्थानों पर मिलने के परिक्षणों से उनके विभिन्न निष्कर्ष प्रगट करता ही रहता है। उसका यह भी निश्चय नहीं कि आज जो कहा जा रहा है कल कोई दूसरा सूत्र हाथ आ जाने पर वह कब अविश्वस्त मान लिया जायगा। हमारे शास्त्रीय निर्धारणों का अर्थ विस्तार करने वालों ने अपने मत को सर्व पुरातन प्रगट करने का गौरव तो स्थापित किया किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि हमारी यह अति विस्तारवादी नीति भविष्य में हमार ेही हपुरातन सत्य इतिहास को संसार के समाने अनर्गल और अविश्वस्त बना देगी और लोग तर्कों के कुठार से छिन्न भिन्न कर इतिहास के महत्वपूर्ण क्षेत्र से इसे वहिष्कृत कर देंगे।

हमारे अपने 60 वर्षो के चिन्तन मनन और अनुसंधान के आधार पर अपने शास्त्रीय इतिहास की प्रमुख विज्ञान सम्मत काल पद्धति का पता लगाया है, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं। यह याद रखने की बात है कि हमारे वेद व्यास के परवर्ती महानुभावों ने पौराणिक गणना के एक दिन का देवताओं का दिन अर्थात 360 दिन या एक मानव वर्ष का समय मानकर पुराणों के मूल वर्षों को 360 से गुणा कर 1200 वर्ष कौ 4,32,00 वर्ष कर लिया इसी , भेद से वेदों में वर्णित 100 वर्ष आयु को 36,000 वर्ष तथा इससे भी अधिक बढ़ा लिया। शोधित गणित से वेदों और पुराणों का भेद दूर हो जाता है। "ब्राह्मणान् वेद गुप्तये" के अनुसार ऋषियों ने शास्त्रों में अपसे समय की लेखन पद्धति के अनुसार कुछ और भी वर्णन पद्धतियाँ कूटमान समाधिभाषा लाक्षणिक संकेत आदिकों का प्रयोग किया हे जिसे न समझ पाने के कारण हम शास्त्रों को असंवद्ध कहने का डंका पीट डालते हैं। वे अपने अज्ञान के मद में यह नहीं सोचते कि - "कोत्र दोषोसहस्त्राँशो यदुलुकं न पश्यति" यदि पक्षी विशेष को दिन में सूर्य के कारण दिखालई नहीं पड़ता तो इसमें सूर्य का क्या दोष हैं यह तो उस पक्षी की दृष्टि की ही त्रृटि हैं जिसे दूर कर सकने पर उसे सम्भबत: सारा यथार्थ संसार दीख सकता है।

यहां हम उस परिशोधित पद्धति को विद्वज्जनों की जानकारों के लिये उपस्थित कर रहें है। यह पद्धति "माथुरी पद्धति" है और इसे पूर्व प्राचीन काल मेकं हमारे ही पूर्वजों भगवान विवस्वान सुर्य (सूर्य सिद्धांत महर्षि, वशिष्ठ (वशिष्ठ सिद्धांत) पवराशर (पराशर सिद्धाँत) आदि ने ही स्थापित किया है।

अनुसंधान युक्त प्राचीन भारतीय इतिहास पद्धति
युग= द्वादशवर्ष । युग शतब्दि – 1200 वर्ष। युग सहस्त्राव्द = 12000 वर्ष।
अहोरात्र युग सहस्त्राव्द = 24000 वर्ष (एक कल्प या ब्राह्म दिवस)
कलियुग (एकल युग शताव्द) = 1,200 वर्ष।
द्वापरयुग (द्विगुण युग शताब्द) 2400 वर्ष।
त्रेता (त्रिगुण युग शताब्द) 3600 वर्ष ।
कृतुयुग (चतुर्गुण युग शताब्द ) 48000 वर्ष ।
दशगुण युग शहस्त्राब्द या कल्प दिवस = 12000 वर्ष ।
पुन: दश गुण युग शताब्द या कल्प रात्रि = 12000 वर्ष ।
पूर्ण एक कल्प का मान (अहोरात्रयुक्त)
ब्रह्मा का एक दिवस = 24000 वर्ष ।
ब्राह्म मास (30 दिवस) = 7,20,000 वर्ष ।
ब्राह्म वर्ष (12 मास) = 86,40,000 वर्ष ।
ब्रह्म या ब्रह्माण्ड शतायु काल = 86,40,000 वर्ष।
ब्रह्म आयु 12।। वर्ष एक ब्रह्माण्ड अवस्था = 10,80,00.000 वर्ष।
ब्रह्म आयु पूर्वार्ध काल 4 अवस्था (50वर्ष) = 43,20,00,000 वर्ष।
ब्रह्म आयु परार्ध काल (51 से 60 वर्ष=4 अवस्थायें) 43,20,00,000 वर्ष।
ब्रह्म पूर्वार्ध आयु के पश्चात व्यतीत काल (पाँचवे बाराह कल्प के 2042 विक्रम संवत तक)= 15,886 वर्ष।
2042 विक्रम संवत तक ब्रह्म आयु व्यतीत काल = 4,32,015,886 वर्ष।
ब्रह्म सृष्टि आरंभ से पूर्व ब्रह्माण्ड गर्भ स्थिति काल (10 मास) 72,00,000 वर्ष।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आयु काल = 87,12,00,000 वर्ष।
2042 वि0 वाद विश्व ब्रह्माण्ड का भविष्य (शेष भोग्य) जीवन काल = 43,91,84,114 वर्ष।
इस काल की समाप्ति पर इस ब्रह्माण्ड की आत्यतिंक (महाप्रणय) होनी है। इसके मध्य में भी कल्पों के अन्त में या युग स्त्रहस्त्राब्दों की संधि में खंडप्रलय या अंशप्रलय होती रहती है।

ब्रह्माण्ड सृष्टि का क्रम विकास और क्षय

इस पद्धति से विश्व ब्रह्माण्ड का क्रम विकास इस प्रकार हुआ है-
ब्रह्म जन्म, सृष्टि उत्पत्ति, जीव उद्भव काल – 4,32,15,886 वर्ष पूर्व।
1- शैशव काल - (12 ।। वर्ष) 43,20,15,886 से 2,40,15,886 वर्ष पूर्व तक, अम्दिज , अंडज , जरायुज सरीसृप (रेंगने वाले) केवल मुख और वायु युक्त जीव।
2- कुमार काल- 3,20,15,886 से 21,60,15,886 वर्ष पूर्व तक पत्र ऋण कीटभक्षी हस्त पाद नेत्र श्रवणेन्द्रियों युक्त जीवों की उत्पत्ति।
3- किशोर अवस्था (तृतीय सर्ग) 216013,886 से 1080,15886 वर्ष पूर्व तक भ्रमणशील, आखेटक, वन्य सम्पदा भक्षी , गुहावासी, जिज्ञासु अल्पबुद्धि
4- युवा अवस्था (चतुर्थ संर्ग्र) 1380,15,886 से (2042 विक्रम काल) कृषि, गोपालन, प्रशासन, समाज संगठन की प्रया 14,886 वर्ष पूर्व तक
5- प्रौढ़ अवस्था (पंचम सर्ग) 17,886 (2042 वि0) से 10,80,15,886 वर्ष पूर्व तक अतिविलासी, क्रूर, चारत्रहीन, लौलुप,यंत्राधीन प्राणी
6- वृद्ध आयु (षष्ठ सर्ग) 100,0,15,006 से 21,60,15,006 वर्ष आगे तक साधनभ्रष्ट , त्रस्त , नीरास, निरूजमी, दुखी जीव।
7- जीर्ण अवस्था (सप्तम सर्ग) 21,60,15,006 से 32,40,15,600 वर्ष आगे तक अन्न जल वायु ताप सबका अभाव क्षीण विश्व।
8- उपराम अवस्था (अष्टम सर्ग) 32,40,15,006 से 43,20,15,600 वर्ष आगे तक ऋतु अनियमित , सूर्य , चन्द्र, मेघ विलुप्त भूमि ज्वालामयी अकाल प्रकृति कोप के वाद ब्रह्माण्ड की आत्यंतिक प्रलय।

कल्प स्थिति

इस लम्बी काल गणना में हमारा वर्तमान बाराह कल्प ब्रह्मदेव के चतुर्थसर्ग युवाकाल में आता है। ब्रह्मदेव के वर्ष में 0 कल्प या ब्राह्मदिवस होते हैं, तथा चतुर्थ सर्ग पूर्वार्ध आयु काल तक 18000 कल्प व्यतीत हो जाते हैं। इतनें कल्पों का लेखा जोखा समग्र उपलब्ध नहीं है। महर्षि वेवव्यास ने अपनी महती शोध के वाद 5 कल्पों को ज्ञात कल्प माना है। महतकल्प से पूर्व का विश्व का इतिहास लुप्त प्राय है। ऐसा प्रतीत होता है कि महत कल्प से पूर्व जो कल्पांत प्रलय हुई वह सर्वाधिक विनाशकारी थी जिसमें पूर्व कल्पों के सारे विवरण अवशेष और ज्ञातव्य परम्परायें विनष्ट हो गई। यह भी तथ्य विचारणीय है कि हमारी मूल पृथ्वी वर्तमान धरातल से बहुत नीचे दब चुकी है। उस पर बहुत मोटी पर्ते चढ़ने के कारण वह अब बहुत स्थूल और वोझिल हो चुकी हैं। पृथ्वी की चुंवकीय (गुरूत्वाकर्थण) शक्ति के कारण आकाश से (धूलिपातसिर्द्धांत) के प्रभाव से हमारे ब्रह्माण्ड पर धूलि कणों की वर्षा निरन्तर होती रहती हैं। इसकी मोटी तह के नीचे प्राचीन पूल पृथ्वी विलुप्त हो चुकी है तथा भूगर्भ के चुंवकीय विद्युत केन्द्र के उद्दहन कक्ष में समाकर वह ज्वालामुखियों के लावा के रूप में प्रवाहित होती रहती है। अत: कल्पों के स्थूल अवशेथ मिलना असम्भव है। यह भी विचारणीय है कि उन कल्पों की सम्यता प्राय: शपात्र काष्ठ वनस्पति प्रयोगी थी जो कुछ काल में ही विनष्ट होगयी। कोयला और तेल उसी के कुछ अवशेष हैं।

परवर्ती ज्ञात कल्प

ज्ञात कल्पों का संकेत या विवरण हमें महामहर्षि वेद व्यास के पुराण साहित्य से इस प्रकार उपलब्ध होता है—

1- महत कल्प – 109,800 से 85,000 वि0पू0 तक

इस कल्प का विशेष विवरण नहीं मिलता। "प्रथमोमहत: सर्ग: विज्ञेय महतस्तु सं" केवल इतना ही संकेत मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस कल्प में महत् तत्व वाले प्राणी और वृक्ष वनस्पति आदि थे। इस कल्प की प्रजाओं का मूल स्थान सूरसेन और मस्यदेश थे। हतकौली, हतकाँत, हतवास, हतौरा, हतीन , हातियौं, इसके साँकेतिक परम्परा स्थल तथा हट्ट, हाट हटिया, हटड़ा हटरी, हठी स्वभाव, हटकना, हातेवंदी संस्कृति परिचायक हैं। महद्ब्रह्म, महाविष्पु, महतत्व महारूद्र देवता तथा मेहता, महत्तों प्रजायें थीं।

2- हिरण्य गर्भ कल्प – 85,000 से 61,800 वि0पू0 तक ।

इस कल्प में पृथ्वी "हिरण्य" नामकी मिश्रित पीली धातु से आच्छातिद थी । पाँचाल देश का हिरन गौ क्षेत्र तथा क्रुरू क्षेत्र की रणभूमि, शूरसेन का रनवारी क्षेत्र इसके संकेत स्थल है। प्राचीन जांबूनद के तटों पर "जंबू सुवर्ण" विखरा हुआ था। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ , हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता थे, रैगड़ , रैना, रैनवाल, प्रजायें तथा हिरप्यानी रैडी (अरंडी) वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु था। पीली मिट्टी की भूमि शूरसेन कुरूक्षेत्र, पांचाल, मत्स्य इसके धरावशेष हैं।

3- ब्राह्मकल्प – 61,800 से 37,800 वि0पू0 तक ।

ज्ञात कल्पों में महर्षि वेद व्यास ने इसे प्राथमिकता दी है। ब्रह्मपुराण , ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके ऐतिहासिक विवरण संकलित किये है। ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केन्द्र स्थल के ब्राह्मी प्रजायें परब्रह्म देवता ब्रह्मवाद उपासना थी। इस कल्प के मध्य काल में गोलोक व्याप्त गोपालन संस्कृति का उदय हुआ। गोलोक खंड वर्तमान बुन्देलखंड है जो गोपाचल ग्वालपुर (ग्वालियर) से आरम्भ होकर (कत्यायनपुरी) कटनी, (बींणावादिनी प्रजाओं की पुरी) बीनां, (वायव्यपुर) जबलपुर, (गोलोक स्वामिनी त्रिपुर सुन्दरी की पुरी) त्रिपुरी तथा (गोलोक पति गोबिंद का वन) गोविन्दवनरींवां, नर्मदात्री नर्मदा का तट आदि से युक्त है। इस गोलोक बुन्देलखंड की प्रजायें गोपाल भक्ति में पूर्ण भावुक हैं तथा वे गोपालन का नैष्ठिक ब्रत्र लेकर वनों में गाय चराते तथा मोरपंख संचय करते हैं, जिन्हें वे कार्तिक मास में मथुरा में आकर श्री यमुना महारानी में विसर्जित करके दान पुण्य कर इस गोपालन ब्रत की पूर्णाहुति करते हैं, इस कल्प की ब्राह्मी प्रजायें (ब्रह्मदेश) वर्मा तथा (ब्रह्म पुत्रिका नदी) ब्रह्म पुत्रा तक फैली थीं।

4- पाद्मकल्प – 37,800 से 13800 वि0पू0 तक ।

इस कल्प का विवरण महर्षि वेद व्यास ने पद्मपुराण में संकलित किया है। यह कल्प विश्व विस्तृत था। शोडष दल पद्म की कल्पना के रूप में 16 समुद्र के द्वीपों में इसकी स्थिति थी। पद्मावती पुरी के नाग वंशों के पूर्वज नाग जाति के लोग विश्व के सामुद्रिक यातायात के विज्ञाता थे। समुद्र मंथन अभियान में अनंत नाग वासुकी नाग ने प्रमुख योगदान दिया था। शेष नाग का साम्राज्य महा पाताल अमरीका तक था। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) किरात, प्रजायें तथा कमल पत्र पुष्पों का बहु विध प्रयोग होता था। पद्मावती देवी आराधित थे। सिंहल द्वीप की नारियाँ पद्मिनी प्रजायें थीं।

5- बाराहकल्प- 13,800 वि0पू0 से अभी चालू है।

बाराह अवतार और बाराह पुराण में व्यास देव ने इसकी विस्तृति और संस्कृति का विवरण दिया है। वाराह देव और उनकी बाराही प्रजाओं का देश भी ब्रह्मर्षि देश खास कर सूरसेन देश मथुरा ही है। ये माथुरों के परम पूजक थे। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में इनके यज्ञ की अग्निशिखा से माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति भी की गयी है। इस कल्प का अधिक विवरण हम आगे दे रहे हैं।

बाराह कल्प में 10 अवतार

1. बाराह अवतार (हिरण्याक्ष वध) 9380 वि0पू0 चैत्र शु0 6 ।
2. नृसिंह अवतार (हिरण्यकशिपु वध) 9355 वि0पू0 वैशाख शु0 14 ।
3. वामन अवतार (वलि वंधन) 9020 वि0पू0 जन्म भाद्रपद शु0 12।
4. कच्छप अवतार (समुद्र मंथन) 6540 वि0पू0 जन्म वैशाख कु0 1।
5. मत्स्य अवतार (बैदस्वत मनु काल) 6382 वि0पू0 जन्म वैशाख कृ01।
6. परशुराम अवतार (सहस्त्रवाहु वध) 5092 वि0पू0 , जन्म 5142 वि0पू0 वैशाख शु0 3।
7. श्री राम अवतार – जन्म 4055 वि0पू0 चैत्र शु0 9, रावण वध 4042 वि0पू0 आश्विन शु0 10।
8. श्री कृष्ण अवतार- जन्म 3114 वि0पू0 भाद्रपद कृ0 8, द्वारिका गमन 3082 वि0पू0 चैत्र शु0 10।
9. बुद्ध अवतार- जन्म 1760 वि0पू0 आश्विन शु0 10, निर्वाण 1680 वि0पू0।
10. कल्कि अवतार- 1338 वि0पू0 श्रावण शु0 9, स्वधाम 1296 वि0पू0।

12. देवासुर महा संग्राम

देवाडसुराणां संग्रामा दाचार्थ द्वादशाडभवन्- अग्नि पुराण अ0 276

1. वाराह हिरण्याक्ष 9,380 वि0पू0 2. नृसिंह हिरण्यकशिपु 9,355 " 3. वामन बलि 9,020 " 4. इन्द्र बलि (समुद्र मंथन) 6,378 " 5. स्कंध कार्तिकेय ताड़क (विरोचन वध) 9,176 " 6. हररूद्र अन्धक (बृकासुर वध) 9,247 " 7 शिव त्रिपुर 8,756 " 8. इन्द्र ब्रत्र (दस्युओं का ध्वंस) 8,684 " 9. वशिष्ठ विश्वामित्र (आडी बक युद्ध) 5,357 " 10. परशुराम कार्तवीर्य (हैहय विनाश) 5,132 " 11. राम रावण (हलाहली) 4,024 " 12. लक्ष्मी कोलासुर (स्वर्ण क्षेत्र विजय) 6,354 "

इसके अतिरिक्त दानी पुरूषों की दान स्तुतियाँ (ऋग्वेद दशम मंडल में) , तपस्वी नरेन्दा्रें की सूची (महाभातर बन पर्व 3-11 में ), सत्वगुणी राजाओं चक्रवर्तियों , कुलपांसन नरेशों की सूचियां भी पुराणों में हैं।

14. मन्वन्तरों का काल

1. स्वायंभू मनु ब्रह्मा से 2 पीढी , मन्वंतर काल 238 वर्ष 9,000 से 8,762 वि0पू0। 2. स्वारोचिष ध्रुव पीढी 4: काल 32 वर्ष – 8762 से 8730 वि0पू0। 3. उत्तम ध्रुव का भाई पीढी 4: काल 70 वर्ष – 8730 से 8660 वि0पू0 । 4. वामन मनु पीढी 6: काल 174 वर्ष – 8660 से 8486 वि0पू0। 5. रैवत मनु पीढी 13: काल 658 वर्ष – 8486 से 7828 वि0पू0। 6. बैवस्वत मनु पीढी 13 : काल 1449 वर्ष – 7828 से 6379 वि0पू0। 7. वैवस्वत मनु पीढी 33 : काल 649 वर्ष : 6379 से 5730 वि0पू0। 8. सावर्णि मनु पीढी 41 , काल 374 वर्ष : 5730 से 5356 वि0पू0।

उपेक्षित परवर्ती मन्वंतर- अल्प प्रभावी 9. दक्ष सावर्णि पीढी 49 , काल 286 वर्ष : 5356 से 4070 वि0पू0 (अनुवंशी शिवि का भाई) 10. ब्रह्म सावर्णि पीढी 52 काल 256 वर्ष : 5070 से 4814 वि0पू0। (रंभवंशी ब्रह्मदेव) 11. धर्म सावर्णि पीढी 56, काल 272 वर्ष : 4814 से 4542 वि0पू0। (अनुवंशी धर्मरथ) 12. रूद्रसावर्णि पीढी 61 , काल 340 वर्ष : 4542 से 4202 वि0पू0। 13. देव सावर्णि पीढी 66, काल 1270 वर्ष : 4202 से 2932 वि0पू0। (मधु यादव का पिता देवराट) 14. इन्द्र सावर्णि पीढी 86, काल 1132 वर्ष : 2932 से 1800 वि0पू0। (अगस्त्य वंशी इहमवाह) यह क्रम सिद्ध करता है कि महर्षि वेद व्यास के पश्चात् ऐसा कोई सार्वदेशिक अधिकारी शास्त्रकर्ता नहीं हुआ जो उस परम्परा को आगे तक चलाता। इसी कमी से व्यास पश्चात के इतिहास क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो गयीं , जिनका समाधान अति आवश्यक था। उदाहरण रूप- हमारे धार्मिक संकल्प में "वैवस्वत मन्वंतरे" का कथन, कलियुग का प्रथम चरण अति लम्बा, बौद्ध धर्म के उन्मूलक कल्कि भगवान का स्मरण न किया जाना जिन्होंने पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध प्रभाव से पृथक कर अश्वमेध यज्ञों की पुन: परम्परा स्थापित की । भगवान कल्कि संवत् भी केरल में चालू है किन्तु आगे के विद्वानों ने उधर से पूर्ण उपेक्षा की दृष्टि ही रक्खी। शायद वे परवर्ती किसी रचनाकार को महर्षि वेद व्यास की समता में नहीं रखना चाहते थे। इस उपेक्षा ने धार्मिक साहित्य को सत्य से दूर इतिहासकारों के विचारों से असम्बद्ध तथा अन्धकार के अन्तराल में निक्षेप कर दिया। आश्चर्य है कि आज के मनीषी विद्वान आज भी इधर प्रयास न करके पुरानी भ्रान्ति मूलक विचार शून्य परम्परा को ही पकड़े हुए हैं।

बाराह कल्प का काल विभाजन बाराह कल्प की मूल स्थापना – यह गणना पुराणों के मूल पाठ के अनुसार है जिसमें- चत्वार्याहु सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगन्। तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथा विधम्।। इतरेषु स संध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु। एक पादेन हृीयन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।। 1 --- महा भा0 शान्ति 231

इसमें सतयुग 4000 वर्ष , त्रेता 3000 वर्ष, द्वापर 2000 वर्ष तथा कलि 1000 वर्ष का कहा है ता इनसे दुगुने सैकड़ों में 800, 600, 400, 200 वर्षों के इनके संध्यांश कहे गये हैं। इनके साथ कहीं-कहीं ’दिव्य’ शब्द का प्रयोग है जो चार प्रकार की संवत्सर पद्धतियों- सौर (दिव्य) , चांद्र (सौम्य), नाक्षत्र और अयन वर्ष में सौर गणना की मान्यता का निर्णायक है। इसे देवों का वर्ष बताकर इस वैज्ञानिक इतिहास स्वीकरणीय पद्धति को अवैज्ञानिक और अविश्वस्त बनाया गया है। इस आधार से यह कल्प विभाजन इस प्रकार है। बाराह कल्प दिवा भाग— 1. सतयुग 4800 13,800 से 9,000 वि0पू0 तक। 2. त्रेता 3600 9,000 से 5,400 वि0पू0 तक। 3. द्वापर 2400 5,400 से 3,000 वि0पू0 तक। 4. कलि 1200 3,000 से 1,800 वि0पू0 तक।

1800 वि0पू0 में दिवा कलियुग समाप्ति है तथा रात्रि भाग का आरम्भ है। यह ब्रह्म रात्रि विलोम क्रम से प्रवर्तित होती है क्योंकि रात्रि का धर्म अन्धकार दिवाधर्म प्रकाश के पूर्णत: विपरीत है। रात्रि धर्म के प्रवर्तन से इस काल में चोरी, सुरापान, डाके, अपहरण, व्यभिचार , हत्या, षडयंत्र, अनैतिकता, विलासिता आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भौतिक आसुरी विज्ञान अनुक्रम से बृद्धि की ओर अग्रसर है आगे की स्थिति से यह स्पष्ट है--- बाराह कल्प रात्रि भाग --- 1. कलियुग 1200 1800 से 600 वि0पू0। 2. द्वापर 2400 600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक। 3. त्रेता 3600 1800 विक्रमी से 5400 वि0 तक। 4. सतयुग 4800 5400 विक्रमी से 10200 विक्रमी तक । इतिहास क्रम से भी यह बात पूर्णत: विश्वस्त सिद्ध होती है । शतायु मानव जीवन की यह यथार्थ स्थिति है।

युगों का सांस्कृतिक पर्यवेक्षण बाराह कल्प के युगों की मानव जीवन विकास की ऐतिहासिक विस्तृति इस प्रकार है--- 1. दिवा सतयुग 13,800 वि0पू0 से 9,000 वि0पू0 काल ---

भगवान नील बाराह का अवतार , यज्ञ वेद की आदि स्थापना , हेति प्रहेति, मधुकैटम आदि अज्ञान गर्वित प्रबल असुरों की उत्पत्ति, प्रभुनारायण केशव माधव, पद्मनाभ ब्रह्मा नारायणी नरप्रजा, अग्नि वायु इन्द्र तीन देवों की प्रथम उत्पत्ति , विराट महाविष्णु की उत्पत्ति , विश्व नियंत्रण असुरकर्मा तपोगुणी अपहर्ता प्रचायें, देवसर्ग पृथ्वी जल तेज वायु आकाश के कर्माधिष्ठात्रि देवता, अग्नकिर्मा प्रमथ देवों (माथुरों) की प्रतिष्ठा, ब्रह्मा के 10 पुत्र मरीचि (कश्यप) , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य , पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद की उत्पत्ति, ब्रह्म वंशों ऋषि गोत्रों की स्थापना, कश्यप वंश का विश्व विस्तृत प्रसारण कश्यप सुरभी से एकादश रूद्र सर्ग (1 वैवस्वान, 2 अर्यमा, 3 पूषा, 4 त्वष्टा, 6 सविता, 7 मित्र , 8 वरूण, 9 अंशुमान, 10 भग, 11 अति तेजा) रूद्रों का सद्योजात रूप में अल्प कालिक विस्तार शतरूद्र, सहस्त्ररूद्र, कोटिरूद्र आदि, रूद्र प्रजासृष्टि भूत प्रेत पिशाच यक्ष राक्षस गंधर्व किन्नर, यातुधान, प्रेत, कूष्मांड भैरव बेताल आदि की उत्पत्ति , रूद्र कार्तिकेय और विनायक सेना में प्रमथों का प्रथम वर्चस्व। हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, वाराह नृसिंह प्रहलाद वंश, वामन अवतार नाग कूर्म कमठ कोल आदि जातियोंका उद्भव, बलि का दक्षिण देश पर विशाल साम्राज्य , दैत्य दानवों का वेद विरूद्ध हिंसा प्रधान विषयासक्त समाज विस्तार, माथुर ऋषि दक्ष, अंगिरा, वशिष्ठ, अत्रि, चन्द्रमा, भृगु, बृहस्पति , भारद्वाज आदि की इन्द्रादि देवों द्वारा रक्षा और दान सम्मान अर्चना।

2. दिवा त्रेता 9,000 से 5,400 वि0पू0 काल । स्वायंभूमनु वंश, उत्तानपाद ध्रुव का साम्राज्य ब्रह्मर्षि देश । प्रधान देव क्षेत्र द्युलोक सूरसेन जनपद, माथुरों का सन्मान और स्वांयंभूमनु द्वारा इस प्रदेश के माथुर ब्राह्मणों द्वारा विश्व को सदाचार शिक्षा के गुरू मानने की घोषणा। प्रियव्रत का विश्व महाद्वीप विभाजन, सप्त समुद्रों और सप्त द्वीपों की साम्राज्य इकाइयाँ निर्धारित कर अपने पुत्रों को बाँटना । अग्नीधु को जभ्बू द्वीप हिम वर्ष नाभि वर्ष या अगनाभ वर्ष का सम्राट पद। अग्नीध्र का माथुरों के शिष्यत्व में माथुर क्षेत्र में अग्निध्र आश्रम अड़ींग बन में तप कर जीवन्मुक्त पद प्राप्त करना। वैवस्वत मनु का विश्व प्रजा पालन, देव संस्कृति का महान विस्तार, युवनाश्व वंशी त्रसदस्यु मांधाता का विश्व दस्यु दलन, मथुर में बाराह तीर्थ और विग्रह की स्थापना ता माथुर कुलपुत्र बनकर कुत्स गोत्र का प्रवर पद ग्रहण करना, यह महायुग दिष्ट वंशी मरूत चक्रवर्ती, निमिवंशी प्रतीपक तक चला तथा चन्द्रवंशी संयाति पर इसका अन्त हो गया।