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==भक्तराज जटायु / Jatayu==
 
==भक्तराज जटायु / Jatayu==
प्रजापति [[कश्यप]] जी की पत्नी [[विनता]] के दो पुत्र हुए- [[गरूड]] और [[अरूण]]। अरूण जी [[सूर्य]] के सारथि हुए। [[सम्पाती]] और जटायु इन्हीं अरूण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आये, किन्तु सम्पाती उड़ते ही गये। सूर्य के सन्निकट पहुँचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गये और वे समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गये। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और [[त्रेता युग|त्रेता]] में श्री [[सीता]] जी की खोज करने वाले बन्दरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।
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प्रजापति [[कश्यप]] जी की पत्नी [[विनता]] के दो पुत्र हुए- [[गरूड]] और [[अरूण]]। अरूण जी [[सूर्य]] के सारथी हुए। [[सम्पाती]] और जटायु इन्हीं अरूण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आये, किन्तु सम्पाती उड़ते ही गये। सूर्य के सन्निकट पहुँचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गये और वे समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गये। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और [[त्रेता युग|त्रेता]] में श्री [[सीता]] जी की खोज करने वाले बन्दरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।
 
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जटायु [[पंचवटी]] में आकर रहने लगे। एक दिन आखेट के समय महाराज [[दशरथ]] से इनका परिचय हुआ और ये महाराज के अभिन्न मित्र बन गये। वनवास के समय जब भगवान श्री [[राम]] पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्री राम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे। भगवान श्री राम अपने पत्नी सीता जी के कहने पर कपट-मृग [[मारीच]] को मारने के लिये गये और [[लक्ष्मण]] भी [[सीता]] जी के कटुवाक्य से प्रभावित होकर श्री राम को खोजने के लिये निकल पड़े। आश्रम को सूना देखकर [[रावण]] ने सीता जी का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से [[लंका]] की ओर चला। सीता जी के करूण विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा और उसके केश पकड़ कर उसे भूमि पर पटक दिया। गृध्रराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ और अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया। भगवान श्री राम सीता जी को खोजते हुए जटायु के पास आये। जटायु मरणासन्न थे। वे श्री राम के चरणों का ध्यान करते हुए उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने श्री राम से कहा- 'राघव! राक्षसराज रावण ने मेरी यह दशा की है। वह दुष्ट सीता जी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर गया है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो।'
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जटायु [[पंचवटी]] में आकर रहने लगे। एक दिन आखेट के समय महाराज [[दशरथ]] से इनका परिचय हुआ और ये महाराज के अभिन्न मित्र बन गये। वनवास के समय जब भगवान श्री [[राम]] पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्री राम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे। भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता जी के कहने पर कपट-मृग [[मारीच]] को मारने के लिये गये और [[लक्ष्मण]] भी [[सीता]] जी के कटुवाक्य से प्रभावित होकर श्री राम को खोजने के लिये निकल पड़े। आश्रम को सूना देखकर [[रावण]] ने सीता जी का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से [[लंका]] की ओर चला। सीता जी के करूण विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा और उसके केश पकड़ कर उसे भूमि पर पटक दिया। गृध्रराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ और अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया। भगवान श्री राम सीता जी को खोजते हुए जटायु के पास आये। जटायु मरणासन्न थे। वे श्री राम के चरणों का ध्यान करते हुए उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने श्री राम से कहा- 'राघव! राक्षसराज रावण ने मेरी यह दशा की है। वह दुष्ट सीता जी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर गया है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो।'
 
भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा- 'तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूँ, आप अभी संसार में रहें। जटायु बोले- श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।' भगवान श्री राम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ किया। जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया। इन्होंने परोपकार के बल पर भगवान का सायुज्य प्राप्त किया और भगवान ने इनकी अन्त्येष्टि क्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न किया। पक्षिराज जटायु के सौभाग्य की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता है।  
 
भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा- 'तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूँ, आप अभी संसार में रहें। जटायु बोले- श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।' भगवान श्री राम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ किया। जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया। इन्होंने परोपकार के बल पर भगवान का सायुज्य प्राप्त किया और भगवान ने इनकी अन्त्येष्टि क्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न किया। पक्षिराज जटायु के सौभाग्य की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता है।  
  
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११:०३, ११ नवम्बर २००९ का अवतरण


भक्तराज जटायु / Jatayu

प्रजापति कश्यप जी की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरूड और अरूण। अरूण जी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरूण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आये, किन्तु सम्पाती उड़ते ही गये। सूर्य के सन्निकट पहुँचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गये और वे समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गये। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीता जी की खोज करने वाले बन्दरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।


जटायु पंचवटी में आकर रहने लगे। एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से इनका परिचय हुआ और ये महाराज के अभिन्न मित्र बन गये। वनवास के समय जब भगवान श्री राम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्री राम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे। भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता जी के कहने पर कपट-मृग मारीच को मारने के लिये गये और लक्ष्मण भी सीता जी के कटुवाक्य से प्रभावित होकर श्री राम को खोजने के लिये निकल पड़े। आश्रम को सूना देखकर रावण ने सीता जी का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से लंका की ओर चला। सीता जी के करूण विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा और उसके केश पकड़ कर उसे भूमि पर पटक दिया। गृध्रराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ और अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया। भगवान श्री राम सीता जी को खोजते हुए जटायु के पास आये। जटायु मरणासन्न थे। वे श्री राम के चरणों का ध्यान करते हुए उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने श्री राम से कहा- 'राघव! राक्षसराज रावण ने मेरी यह दशा की है। वह दुष्ट सीता जी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर गया है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो।' भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा- 'तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूँ, आप अभी संसार में रहें। जटायु बोले- श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।' भगवान श्री राम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ किया। जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया। इन्होंने परोपकार के बल पर भगवान का सायुज्य प्राप्त किया और भगवान ने इनकी अन्त्येष्टि क्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न किया। पक्षिराज जटायु के सौभाग्य की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता है।

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